रज़ा : जैसा मैंने देखा (४) : अखिलेश


 

आप चित्रकार और लेखक अखिलेश के सैयद हैदर रज़ा पर आधारित स्तम्भ ‘रज़ा जैसा मैंने देखा नियमित रूप से समालोचन पर पढ़ रहें हैं. इस चौथे हिस्से में रज़ा के साथ मक़बूल फ़िदा हुसैन और नारायण श्रीधर बेन्द्रे भी उपस्थित हैं.

प्रस्तुत है.


रज़ा : जैसा मैंने देखा (४)                          

हुसैन की प्रेमिकाएँ, रंगबाज बेंद्रे और रज़ा को ख़त                                    
अखिलेश


        

ज़ा के इन चित्रों से मध्य प्रदेश के कई युवा कलाकार प्रभावित हुए. रज़ा के चित्रों को मध्य-प्रदेश कला परिषद ने अपने संग्रह के लिए खरीद लिया. इन चित्रों की बिक्री का पैसा रज़ा ने लेने से इनकार किया और सारा पैसा युवा कलाकारों में तक़्सीम करने का निर्देश देकर वे वापस चले गए. अशोक वाजपेयी ने, जो उन दिनों मध्य प्रदेश सरकार में सम्भवतः शिक्षा सचिव थे. शिक्षा विभाग जो संस्कृति के लिए भी कार्य करता था, इस पैसे को कैसे विधिवत युवा कलाकारों तक पहुँचाया जाये इस पर विचार करना शुरू किया और लगभग एक साल के जी तोड़ परिश्रम से यह तय किया कि इतना ही पैसा सरकार की तरफ से मिलाकर 'रज़ा पुरस्कार' की स्थापना की जाये जो हर वर्ष कविता और चित्रकला के लिए दिया जायेगा. 

अगला एक साल इस बात में लगा कि इस पुरस्कार का नाम रज़ा-पुरस्कार ही हो जिसके लिए रज़ा मुश्किल से माने. रज़ा के राजकीय अतिथि बनकर चौदह साल बाद प्रदेश में आने पर अशोक जी ने रज़ा-कैटलॉग में प्रशस्ति लिखी:

 

विचलनों के बरक्स : रज़ा            

(रज़ा की पेंटिंग)


"सैयद हैदर रज़ा का नाम उन चित्रकारों में अग्रणी है जिन्होंने स्वतन्त्रता के बाद भारतीय चित्रकला को उसकी अलग पहचान और आधुनिक भारतीय व्यक्तित्व दिया. पिछले लगभग तीस वर्षों से समूचे संसार के कला केन्द्र पेरिस में रहकर और उसकी सक्रिय आधुनिकतम सौन्दर्य चेतना को आत्मसात करते हुए श्री रज़ा की कला ने अपनी मूल भारतीय जड़ों से जीवन ग्राही सम्बन्ध सक्रिय रखा. उनकी कला इस बात का सबसे विश्वसनीय साक्ष्य है कि अन्ततः भारतीय कला मानस आधुनिक दबावों और चुनौतियों का अपनी सृजनात्मक शर्तों पर सामना करने में पूरी तरह समर्थ है. 

रज़ा ने किसी सतही या नाटकीय भारतीयता या रूपाभिप्रायों का सहारा नहीं लिया. उन्होंने मध्यप्रदेश में बिताये अपने बचपन की यादों, नर्मदा के उद्गम के पास की रातों के रहस्य और भय, जंगलों और आदिवासी हाट-बाज़ारों की आदिम जीवन्तता, राजस्थानी मिनिएचर कला की सूक्ष्मताओं, प्राच्य दर्शन की अद्वैतवादी धारणाओं से अपनी कला के लिए एक ऐसा समृद्ध और अद्वितीय आधार लोक अर्जित किया है जो अपनी ऊर्जा और दृढ़ता में अप्रतिम है. 

अपने समय के अस्तित्व को उसकी रहस्यमयता और पवित्रता में रंग-व्यक्त करने के प्रयत्न में रज़ा ऐसी अभिव्यक्ति तक पहुंच सके हैं जो मानवीय वातावरण को अन्तरिक्ष से और इतिहास को प्रागैतिहास से जोड़ती है.  स्वयं को काल के अंतर्तम में रूप रोप कर उनकी कला ने ऐसे समावेशी अनुभव को रूपायित किया है जो समकालीन होते हुए भी कालातीत है. मूर्त और अमूर्त से परे, अँधेरे के भय और उजाले की सुरक्षा को एकत्र करते हुए रज़ा ने एक सच्चे भारतीय कलाकार की तरह अपने सृजन में परस्पर विरोधी तत्वों को सहेजा है और ऐसी श्रेष्ठ कला को जन्म दिया है जो निस्संदेह कालजयी है. 

उसकी अस्मिता हमारे समय के मनुष्य की मूल रंगतों के आपस में घुल-मिलकर शान्त और आत्मीय होने से बनी है. उसमें आदिम शक्ति के साथ आधुनिक परिष्कार है. ऐन्द्रिक उपस्थिति के साथ आध्यात्मिक दीप्ति. उनकी रंगविकलता के पीछे अभिव्यक्ति के ऐसे सारे ख़तरे उठाने का साहस छुपा है जो मनुष्य की अपने संसार से बुनियादी एकता की सहज सचाई को सारे विचलनों के बरक्स स्थायी रूपाकार देकर उभार सके." 

रज़ा के चित्रों के कारण जो रंग-परिचय हुआ उसके लिए बैचेनी बढ़ने लगी और मैं लगातार काले रंग से काम करने लगा. उसमें कोई हल नहीं मिल रहा था किन्तु कुछ समय बाद खोज से ज्यादा उत्सुकता उसकी प्रक्रिया में होने लगी. यह कुछ उसी तरह का था  जैसा कि वह किस्सा, जो कुछ इस तरह है.

कॉलेज के दिनों में हुसैन की एक पुस्तक आयी. यह हुसैन पर सम्भवतः पहली बड़ी पुस्तक थी. उसका आकार-प्रकार विशाल और मोटा था.  हमारे प्राचार्य चन्द्रेश सक्सेना सर ने सभी विद्यार्थियों को बुलाकर उस पुस्तक के बारे बताया और यह भी कि यह विद्यार्थी इसी कॉलेज में पढ़ा है. फिर उन्होंने हुसैन का तीन वर्ष का डिप्लोमा भी निकाल कर दिखाया. हुसैन के बारे में एक छोटा-मोटा व्याख्यान दिया और ख़ुशी-ख़ुशी उस पुस्तक को दिखाया. हम सब लोगों के लिए अचम्भा ही था. किसी हिन्दुस्तानी चित्रकार पर यह पहली इतनी मोटी पुस्तक थी. जिज्ञासा और कुतूहल से वह पुस्तक देखी और अपनी कक्षा में चले गए. उन दिनों हम लोग अंतिम वर्ष में थे. थोड़ी देर बाद सक्सेना सर ने हम चार पाँच लोगों को फिर से बुलाया और उस पुस्तक में वह पन्ना खोला जिस पर हुसैन का प्रसिद्ध चित्र 'बिटवीन स्पाइडर एंड द लैम्प' छपा था. वह चित्र दिखाते हुए उन्होंने कहा यह देखिये यहाँ हुसैन ने गाली लिखी है. 

(रज़ा)

हम लोगों ने बहुत ध्यान से देखा और पढ़ने की कोशिश करते रहे किन्तु समझ नहीं आया. उसके बाद यह दिनचर्या का हिस्सा हो गया कि रोज उस चित्र को देखते और गाली पढ़ने की कोशिश करते. किन्तु वहाँ लिखे तीन अक्षर म स और ई और कुछ संकेत दिखाई देते. कुछ दिनों बाद मैं यह भूल गया कि वह चित्र हम क्यों देख रहे हैं बल्कि उस चित्र को देखने लगे और उसकी विशेषताओं के बारे में बात करने लगे. यह सक्सेना सर का प्रयास था कि हम अपने समय की श्रेष्ठ कला कृति से अपना परिचय बढ़ायें. कई वर्ष बाद मैंने हुसैन को यह किस्सा सुनाया कि किस तरह हम लोगों ने उस चित्र के साथ अपना सम्बन्ध बनाया यह जानकर कि आपने गाली लिखी है या उसका कोई संकेत वहाँ छोड़ा है. हुसैन ने हँसते हुए कहा नहीं वे मेरी प्रेमिकाओं के नाम के प्रथम अक्षर हैं. उन दिनों मेरी तीन प्रेमिकाएँ थीं. 

इसी तरह मेरे साथ हो रहा था. उस काले रंग के साथ मेरा मन उसके विस्तार में जाने लगा और रंग की खोज पीछे कहीं रह गयी. इतने समय में रज़ा के रंगों के साथ रिश्ता बन गया था. उस अचम्भे को आँखों में भर लिया था और अब हर कहीं रंगों की वह चमक देने लगी थी. प्रकृति के अनेक अंग उसी का हिस्सा नज़र आ रहे थे. मेरा मन रज़ा के दूसरे काम देखने के लिए उत्सुक था. साथ ही रज़ा के साथ पत्र सम्वाद शुरू हुआ. इस पत्र व्यवहार का एकमात्र कारण हमारे ही कॉलेज के पहली बैच के यशस्वी कलाकार नारायण श्रीधर बेन्द्रे बने. उन दिनों मुझे प्रदर्शनी लगाने और उसके लिए मौका ढूँढने में मज़ा आता था. हमारे मित्र भालू मोंढे, जो बेन्द्रे साहब के रिश्तेदार भी हैं, ने बताया कि बेन्द्रे आने वाले हैं और उनके घर हफ्ता भर रहेंगे. बस फिर क्या था ताबड़तोड़ मैंने एक योजना बनाई. शहर के कुछ कलाकारों की प्रदर्शनी की और भालू मोंढे के घर जा पहुँचे. बेन्द्रे साहब से उद्घाटन का निवेदन करने के लिए. उन दिनों भालू फार्म हॉउस में रहते थे जिसके एक कोने में उनका मकान था और सामने की तरफ़ विशाल खेत, बागीचा.

हम लोग, मैं हरेन शाह, दरियाव, प्रकाश घाटोले सुबह-सुबह भालू के घर पहुँचे. उन्होंने हमें सुबह ही आने को कहा था और यह समय बेन्द्रे साहेब के नाश्ते का समय होता था. इसलिए वे कुछ आराम से मिल सकते हैं. भालू ने हमें भी नाश्ते के लिए आमंत्रित किया था. भालू ने इशारा किया बेन्द्रे साहब वहाँ बैठे हैं आप लोग वहीं चलो. हम नाश्ता लेकर वही आ रहे हैं. बेन्द्रे साहब वहाँ दूर धुप सेंकते हुए लॉन में कुर्सी पर बैठे अख़बार पढ़ रहे थे. पूरा दृश्य ही एक चित्र था. हम लोग उनके पास पहुँचे और उन्हें नमस्कार किया, जिसका कोई जवाब नहीं मिला. मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ फिर सोचा कि अख़बार में कोई बुरी ख़बर पढ़ रहे होंगे इसलिए सुन नहीं पायें. 

हम लोग कुर्सियों पर बैठ गये. एक सन्नाटा सा छाया हुआ था. जिसमें अख़बार के सरसराने की या बीच-बीच में किसी चिड़ियाँ की आवाज़ सुनाई दे जाती थी. उस भारी सन्नाटे में हम लोग बैठे रहे और बेन्द्रे अख़बार पढ़ते रहे. उम्रदराज बेन्द्रे अपने व्यस्त जीवन से कुछ दिन निकालकर विश्राम करने के विचार से इंदौर आये हुए थे. जब कुछ समय बाद भालू और प्रतिभा जी नाश्ता लेकर आये और मेज पर रखकर मराठी में उन्होंने बेन्द्रे साहब को सूचना दी कि नाश्ता लग चुका है. बेन्द्रे साहब ने अख़बार एक तरफ रखा और नाश्ते के लिए प्लेट उठाकर भरने लगे. उन्हें अख़बार से मुक्त देख एक बार और हम सबने उन्हें नमस्ते किया जो शायद वे पोहे-जलेबी और ऑमलेट की सुगन्ध में सुन न सके. 

वे नाश्ता करने में व्यस्त हो गए और प्रतिभा जी ने हमें आग्रह किया हम सब भी नाश्ता लेकर उसमें व्यस्त होने के नाटक करते हुए इंतज़ार कर रहे थे कि एक बार बेन्द्रे साहब हमें देखें. जब वे चाय की प्याली भर रहे थे मैंने उनसे निवेदन किया सर हम लोग एक प्रदर्शनी लगा रहे हैं जिसके उद्घाटन के लिए आपसे अनुरोध है. पहली बार उन्होंने कुछ कहा वो बगैर मेरी तरफ़ देखे कि नहीं मैं उद्घाटन नहीं करूँगा. यह ठीक भी था कि कलाकार का मन नहीं है उद्घाटन करने का. मैंने उनसे आग्रह किया कि सर हमारी प्रदर्शनी तीन दिनों के लिए है और हम चाहते हैं कि किसी भी एक दिन आप वहाँ आयें. नहीं मैं नहीं आऊँगा. बेन्द्रे साहब की आवाज़ इतनी कटु होगी यह हम लोगों को पता न था. उन्होंने अपनी चाय पीकर प्याली रखी और अख़बार उठाकर वापस पढ़ने लगे. उनका यह कृत्य मुझे बहुत अपमानजनक लगा.

(अखिलेश)

ऐसा नहीं था कि वे मुझे नहीं जानते थे, वे पिता के मित्रों में से एक थे और कई बार घर आ चुके थे हम सब से परिचित भी थे. उन्होंने हम चारों की तरफ़ देखा तक नहीं. ये बात असहनीय थी. जैसे-तैसे हम लोग भालू के घर से निकले और रास्ते में आने वाली पुलिया पर मैंने साइकिल रोककर हमारे तीनों मित्रों के लिए बेन्द्रे के चित्रों की आलोचना शुरु कर दी. भालू के घर तीन-चार चित्र लगे थे जिन्हें हम सब ने कई बार ध्यान से देखा हुआ था और उसकी तारीफ भी किया करते थे. उनके रंग लगाने के साहस की प्रशंसा भी आपस में करते थे. 

उन दिनों तक हमें यह पढ़ाया गया था कि बेन्द्रे हिन्दुस्तान के अकेले चित्रकार हैं जो रंग-बाज हैं. मैंने आहिस्ता-आहिस्ता उनके रंगों और उससे उत्पन्न प्रभाव की आलोचना उस वक़्त तक की, जब तक मन शान्त नहीं हुआ. इसी दौरान मैंने बेन्द्रे के रंग-प्रयोग की तुलना रज़ा के रंग-प्रयोग से की जिसमें रज़ा का रंग प्रयोग का जोख़िम और उसका सघन प्रभाव का जिक्र था. बाद में मुझे भी अपने इस विश्लेषण पर आश्चर्य हुआ नतीजे में मैंने रज़ा को पहला ख़त इसी बात को लेकर लिखा. जो लगभग चौदह पन्नों का था. उस ख़त का कोई जवाब नहीं आया और मैं भी भूल-भाल गया.

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क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       

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  1. Thanks for sharing .An intimate portrayal of Great Artist from the memories of another sensitive painter of our time.A must for younger generation who is intrested in Art.

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  2. पढ़ गई! रंगों की दुनिया में ही रहती हूँ। जो रंग नहीं पाती, लिख जाती हूँ। रोचक!

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  3. यह कमाल की सीरीज है। वाह समालोचन।

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  4. अखिलेश जी ने बड़ी उत्सुकता उत्पन्न करके छोडा है।
    हुसैन की कला को समझने की प्रक्रिया कितनी दिलचस्प है?

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