मनुष्य के पास विकसित भाषा है, भाषा में ही वह
रहता है. किसी भी समाज के सांस्कृतिक पतन की आहट उसकी भाषा में सुनी जा सकती है. सबसे
पहले भाषा पतित होती है, गिरती है.
राजनीति मनुष्यों के समूह की सार्वजनिक हित-चिंता
और हित-साधन का माध्यम है. वह सत्ता है इसलिए उसे प्राप्त करने की अनैतिकताएं और
असामाजिकताएं भी हैं. और यह सब भाषा में ही घटित होते हैं.
भारतीय राजनीति में भाषा का अवमूल्यन प्रत्यक्ष
तो है ही अभूतपूर्व भी है, जिसे हम लोकप्रिय संस्कृति कहते हैं वहाँ भी यह चरम पर
है. तथाकथित कवि सम्मेलन और हास्य के टी वी कार्यक्रम बिना दैहिक और भाषाई फूहड़ता
के आज पूरे नहीं होते, और सितम यह है कि हमें इसकी आदत पड़ती जा रही है.
यहाँ भाषा को लेकर शुद्धतावादी रुढ़िवाद का
समर्थन नहीं किया जा रहा है. सन्दर्भ से च्युत भाषाई कुरुचि ही अभद्रता है.
लेखक यादवेन्द्र जी ने समकालीन भारतीय राजनीति
में भाषाई गिरेपन पर यह टिप्पणी लिखी है आपके लिए.
भाषा का अवमूल्यन
यादवेन्द्र
'मनुष्य भाषा के पिंजरे में कैद रहता है'
नीत्शे
(यादवेन्द्र) |
इस चुनाव में शब्दों और विचारों को इतनी कुत्सित और अश्लील ढंग से प्रस्तुत किया है कि लगता ही नहीं शालीन और सभ्य समाज में यह सब हो रहा है. चौंकाने वाली बात यह कि यह दलदल निरक्षरों ने नहीं पढ़े लिखे महानुभावों ने पैदा किया. सबसे बड़ी बात है कि हर कोई बिना सोचे समझे यह बोलता चला गया कि चुनाव एक निश्चित अवधि में पूरी हो जाने वाली प्रक्रिया है और इसके परिणामों के आधार पर देश और समाज को पूर्ववत काम करना पड़ेगा पर निकट अतीत में जो शाब्दिक और भावनात्मक गंदगी फैलाई गई इसकी दुर्गंध उसकी सड़न आसानी से जाने वाली नही, बहुत दिनों तक हमें इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा. कोई आश्चर्य नहीं कि यह बाद में एक सांस्कृतिक महामारी का रूप ले ले जिसमें बड़ी संख्या में और व्यापक रूप में हमें अपने प्रियजनों की बलि (मेरा आशय शारीरिक और भावनात्मक दोनों से है) देनी पड़े. इसके दुष्परिणाम अकल्पनीय रूप से भयावह होंगे और उन्हें भुगतना हमारी नियति होगी.
सत्तापक्ष अपने कामकाज पर वोट माँगने की बजाय विरोधियों को नित नए भद्दे और फूहड़ विशेषणों से सम्बोधित कर रहा था- कॉंग्रेस की विधवा से लेकर भ्रष्टाचारी नम्बर एक और महामिलावट से लेक्ट कत्ल की रात और टुकड़े टुकड़े गैंग जैसे जुमलों वाली एक आदिम बर्बर शब्दावली गढ़ रहा था. चाहे दिखावे के लिए हो इस अघोषित युद्ध में पप्पू पप्पू कह कर अपमानित किये जाने वाले राहुल गांधी ने भाषाओं की क्रूरता को रेखांकित करते हुए एक तर्कसंगत बात कही :
'मैं राजनीति में एक नई भाषा के लिए संघर्ष कर रहा हूँ. मुद्दों पर हम चाहे कितनी तल्ख़ी से लड़ें झगड़ें- विचारधारा को लेकर एक दूसरे के साथ घमासान करें. पर एक दूसरे के लिए घृणा और हिंसा वाले शब्दों का प्रयोग न करें, यह देश के लिए बहुत बुरा है.'
ऐसे में हो यह रहा है कि अनेक शब्दों के अर्थ बदल रहे हैं और कई बार वे बेमायना हो जा रहे हैं. देखते देखते चौकीदार शब्द की हमारे समय में ऐसी लानत मलानत की जाएगी कभी किसी ने सपने में सोचा था?
भाषा के दुरूपयोग पर प्रचुर काम करने वाले
अमेरिकी भाषाविज्ञानी प्रो. स्टीवन पिंकर का
कहना है कि
"प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद भाषा की अशुद्धता और दुरूपयोग में सबसे ज्यादा वृद्धि हुई है, अब भाषा पर नियंत्रण रखने वाली कोई अथॉरिटी नहीं है बल्कि यह 'विकि' की तरह काम करने लगी है जिसमें लाखों लाख लेखक और इस्तेमाल करने वाले लोग इसमें पल पल अपनी सुविधा और जरूरत के हिसाब से संशोधन करते रहते हैं."
पिंकर कहते हैं कि आम तौर पर लोग इस भ्रम में
रहते हैं कि शब्दकोश भाषा के दुरुपयोग पर अंकुश रखते हैं जबकि सच्चाई सिर्फ़ इतनी
है कि शब्दकोश शब्दों के समय के साथ बदलते अर्थों का लेखाजोखा रखते हैं. वे नए नए मुहावरों, शब्दप्रयोग, इंटरनेट के
अनुसार संक्षिप्तीकरण इत्यादि का हवाला देकर कहते हैं कि यही कारण है कि आज के समय
की बड़ी विडम्बना यह है कि "अच्छे लोग खराब भाषा का प्रयोग करने लगे हैं."
इस संदर्भ में जॉर्ज ऑरवेल के 1946 के अल्पज्ञात निबन्ध 'पॉलिटिक्स एंड द इंग्लिश लैंग्वेज' का हवाला दिया जाता है जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया को लक्षित कर कहता है कि हमारे समय में राजनैतिक भाषण और लेखन (यानी भाषा) अरक्षणीय (इन डिफेंसिबल) की रक्षा करने में जुटा हुआ है, यहाँ तक कि भारत में ब्रिटिश राज को जारी रखने, रूस में राजनैतिक उछाड़ पछाड़ और निष्कासन और यहाँ तक कि जापान पर एटम बम गिराने तक को जायज ठहराने के तर्क गढ़े जा रहे हैं. वे आगे कहते हैं कि एक के बाद दूसरे नेता भाषा का प्रयोग जानकारी देने के लिए नहीं बल्कि सत्य पर पर्दा डालने के लिए कर रहे हैं. भाषा की कुटिल राजनीति के प्रति सचेत करते हुए वे कहते हैं कि जनता के साथ संवाद की भाषा सीधी सरल होनी चाहिए पर जानबूझ कर असली मकसद छुपाने के लिए भाषा का सायास दुरुपयोग किया जा रहा है.
इस संदर्भ में मुझे बरसों पहले पढ़ी और अनुवाद
करके डायरी में रखी मेरे प्रिय अमेरिकी कवि डब्ल्यू एस मेरविन की 'शुक्रिया' कविता याद आ रही है जो बड़े तीखे, गहरे और करुण ढंग से हमारे दिन दिन विकृत और हृदयहीन होते
जाते समय में शब्द और उसके मायने के बीच की भयावह खाई को रेखांकित करती है....डर
लगता है देख कर कि मुँह से आदतन 'शुक्रिया शुक्रिया' उगलते हुए हम मनुष्यता को चुनौती देने वाले किस अंधेरे की
ओर पहुँच गए.
______
शुक्रिया
डब्ल्यू एस मेरविन
सुनो
उतरती हुई रात को हम कहते हैं शुक्रिया
पुल पर ठहर कर झुकते हैं रेलिंग पर
शीशे के घरों से निकलते हैं बाहर
मुँह में ठूँसे हुए खाना और निहारने लगते हैं
आकाश
और बोलते हैं : शुक्रिया
पानी के बगल में खड़े होकर
हम शुक्राना अदा करते हैं पानी का
खिडकियों पर खड़े होकर निहारते हैं बाहर का
नजारा
अपनी दिशाओं में
अस्पतालों के चक्कर लगा कर
लूट खसोट के बाद
या अंत्येष्टियों से लौट कर घर आते हैं
तो बोलते हैं: शुक्रिया
किसी इंसान के मर जाने की खबर सुन कर
चाहे उसे चीन्हते हों या नहीं
बोलते हैं: शुक्रिया
टेलीफोन पर हम दुहराते रहते हैं: शुक्रिया
चौखटों पर हों, कार में बैठे हों पिछली सीट पर
या एलीवेटर में हों
हर जगह हम बोलते रहते हैं: शुक्रिया
युद्ध को याद करें
या
दरवाजे पर आये पुलिस वाले को
हम अदा करते ही हैं :शुक्रिया
कोई सीढ़ियों पर पैर पटक पटक कर चलता है
तब भी हम शुक्रिया बोलते हैं
बैंक जाते हैं तब बोलते हैं: शुक्रिया
अफसरों और धनाढ्यों के सामने जब पड़ते हैं
और उन सभी के सामने भी जो
कुछ भी हो जाए कभी बदलेंगे नहीं जिनके चाल चलन
उनको देखते ही हम अनायास बोलने लगते हैं:
शुक्रिया ..... शुक्रिया !!
अपने आसपास दम तोड़ते जानवरों को देखते हुए
भाव विह्वल हो हम बोल पड़ते हैं: शुक्रिया
घड़ी की सुई से तेज रफ़्तार में
देखते हैं कैसे मिनट मिनट में कटते जा रहे हैं
जंगल
तब भी हम अदा करते हैं: शुक्रिया
दिमाग से जैसे पट पट मरते जा रहे हैं सेल
वैसे ही मिटते जा रहे शब्दों को देख कर भी
हम यही कहते हैं : शुक्रिया शुक्रिया !
दैत्य की मानिंद जैसे जैसे हम पर चढ़ते आ रहे
हैं शहर
वैसे वैसे बदहवासी में हम बोलते जाते हैं:
शुक्रिया शुक्रिया !
कहीं कोई सुने न सुने बस हम बोलते जाते हैं:
शुक्रिया शुक्रिया !
शुक्रिया शुक्रिया रटते जाते हैं हम
और हाथ हिलाते रहते हैं
आसपास तेजी से घिरते जाते अंधेरे में
__________
T h a n k s
W. S. Merwin
Listen
with the night falling we are
saying thank you
we are stopping on the
bridges to bow for the railings
we are running out of the
glass rooms
with our mouths full of food
to look at the sky
and say thank you
we are standing by the water
looking out
in different directions.
back from a series of
hospitals back from a mugging
after funerals we are saying
thank you
after the news of the dead
whether or not we knew them
we are saying thank you
looking up from tables we are
saying thank you
in a culture up to its chin
in shame
living in the stench it has
chosen we are saying thank you
over telephones we are saying
thank you
in doorways and in the backs
of cars and in elevators
remembering wars and the
police at the back door
and the beatings on stairs we
are saying thank you
in the banks that use us we
are saying thank you
with the crooks in office
with the rich and fashionable
unchanged we go on saying
thank you thank you
with the animals dying around
us
our lost feelings we are
saying thank you
with the forests falling
faster than the minutes
of our lives we are saying thank
you
with the words going out like
cells of a brain
with the cities growing over
us like the earth
we are saying thank you
faster and faster
with nobody listening we are
saying thank you
we are saying thank you and
waving
dark though it is
सही कहा
जवाब देंहटाएंदेश और दुनिया में भाषा के लगातार गिरते स्तर पर बहुत महत्वपूर्ण लेख। २००० के बाद से यह गिरावट दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है और वे लोग स्वयं ही शब्दों का माखौल उड़ाते पाए जा रहे हैं जिन पर भाषा को बचाने और समृद्ध करने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। इसका जीता जागता उदहारण इस बार आम चुनाव और उससे पहले चले टीवी डिबेट हैं।
जवाब देंहटाएंकविता शुक्रिया में व्यंग्य मारक है।
बेहतरीन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंभाषा का पतन संस्कृति का पतन।
बहुत ही सटीक विश्लेषण है । मौजूदा दौर में भाषा का ये पतन चिंता का कारण बनता जा रहा है ।
जवाब देंहटाएंएक अच्छी भावात्मक टिप्पणी।
जवाब देंहटाएंभाषा में गिरावट सिर्फ एक संकेत है । गिरावट कहीं और है जो मनुष्य के भीतर है । गिरावट ही क्यों, बनावट और मिलावट भी अनायास नहीं आती। दूसरा भीतर कुछ और है और बाहर भाषा में कुछ और यह और खतरनाक है। एक अर्थ में यह ठीक है कि आज का मनुष्य भाषा में वही है जो वह है दरअसल । इसे आसानी से चिन्हित किया जा सकता है । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंअच्छा लेख, जाने क्यों मुझे छोटा लगा, यह विषय और विस्तार की अपेक्षा रखता था और लेखक 700 से अधिक शब्द लिखने में सक्षम थे।
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ कि यह विषय ज्यादा विस्तार की माँग करता है...अभी इसपर काम कर रहा हूँ,इसे भूमिका के तौर पर लीजिये।
हटाएंयादवेन्द्र
जरूरी आलेख जो हमारे समय की भाषा और व्यवहार में आ रही गिरावट को दर्ज करता है। कविता भी बेहद मार्मिक है। समालोचन और यादवेंद्र जी का बहुत बहुत शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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