राजेन्द्र
यादव हिंदी पट्टी के सबसे प्रभावशाली संपादक रहे हैं. उनके संपादन में निकलती
पत्रिका (हंस) हिंदी में आधुनिक रचनाशीलता, तीक्ष्ण वैचारिकता और तार्किक
हस्तक्षेप का एक बेहद असरदार और मजबूत मंच थी. न जाने कितने लोग हंस पढ़कर रचनाकार
हुए, उनमें जनचेतना के अंकुर फूटे.
एक बेहतर संपादक असहमतियों का सम्मान करता है और सार्थक रचनाकारों की अथक खोज़ में मुब्तिला रहता है. इस यात्रा में उसे तमाम अनगढ़ हीरे मिलते हैं जिन्हें वह गढ़ता है. मैत्रेयी पुष्पा राजेन्द्र यादव की एक ऐसी ही हीरा हैं.
संपादक और
लेखक के बीच तमाम तरह के रिश्ते बनते हैं. आत्मीय से बढ़कर कई बार रागात्मक और
घनिष्ठ भी. राजेन्द्र
यादव और मैत्रेयी पुष्पा की घनिष्ठता से हिंदी जगत सु/कु परिचित है. यह जो हिस्सा
है उसमें मीता की उपस्थिति है. मीता कौन हैं और राजेन्द्र
यादव से उनका क्या रिश्ता था. इसे आप पढ़ कर जान सकेंगे.
इस संस्मरण
से आप एक (कु) प्रचारित लेखक, विचारक, संपादक को शायद बेहतर और स्वस्थ ढंग से समझ
सकें.
वह सफर था कि मुकाम था
मैनें मीता को देखा है
मैत्रेयी पुष्पा
राजेन्द्र जी को किसी भी भयानक या खतरनाक आदमी या बीमारी की खबर देना उनको दुखी करने या डराने जैसा नहीं होता था, रोमांचित होते तो लगता खुश हो रहे हैं. जैसे बिना दहशतों के रास्ता क्या और बिना खतरों के जिन्दगी क्या!
पूछ ही सकती हूँ कि अगर उनके टेस्ट नार्मल थे तो डॉक्टर साहब (मेरे पति) उनको लेकर एम्स क्यों गए थे? जल्दी से जल्दी कैज्युअलिटी में दाखिल क्यों कराया था? कमरा तो बाद में मिला
ऐसी बिना सिर-पैर की बातें मेरे पास तमाम जमा हैं, उनका उल्लेख करना जरूरी नहीं क्योंकि मैं फिर ‘राजेन्द्र कथा’ से भटक जाऊँगी.
राजेन्द्र जी के लिवर के ऊपर एब्सिस (फोड़ा) बन गया. मामला गम्भीर था.
राजेन्द्र यादव तब तक कैज्युअलिटी में ही थे कि मैं और डॉक्टर साहब अपनी गाड़ी लेकर मन्नू को लिवाने पहुँचे. हौजखास तक जाते हुए भी हम घबराए हुए थे. माना कि हम बहुत नजदीकी शुभचिन्तक थे लेकिन परिवारी या किसी तरह से संबंधी तो नहीं थे. हमारी औकात इस समय ‘निजी’ के नाम पर कुछ नहीं थी. मन्नू भंडारी लाख दर्जे अलग रहती हैं उनसे मगर हैं तो उनकी पत्नी ही. उनका संबंध आधिकारिक है. हमने उनको नहीं बताया तो जवाबदेह हम होंगे. एकदम अपराधी घोषित कर दिए जाएँगे और बेपर की आशंकाएँ उठेंगी. ऐसे समय आपका प्रेम भले पहाड़ जैसा बना रहे मगर उसकी वकत राई भर भी नहीं होती.
उफ! मन्नू दी तैयार नहीं थीं आने के लिए. बात भी ठीक थी कि जब वे अपनी बीमारी में राजेन्द्र जी को नहीं आने दे रहीं तो उनकी बीमारी में क्यों जाएँ ? हम दोनों थे कि घबराहट के मारे हुए. गिड़गिड़ाने लगे कि मन्नू दी किसी तरह चलें. डॉक्टर साहब तो ‘चलिए-चलिए’ की रटन लगाए हुए थे.
मैनें डॉक्टर साहब से कहा -‘‘तुम अस्पताल चलो राजेन्द्र जी के पास, मैं मन्नू दी को लिवा लाऊँगी. डॉक्टर नवल से कहना डायबिटीज एक्सपर्ट को बुला लें.’’
मन्नू दी अब तैयार हों, जब तैयार हों, हमें भी हड़बड़ी मची थी. वे जो भी कुछ सोच-समझ रही हों, हमें देर हो रही थी.
खैर, मन्नू दी तैयार हुईं. हमारी जान में जान आई कि जिन्दगी भर साथ निभाने के वादे पर विवाहिता होनेवाली पत्नी ने हमारी अरज सुन ली, इन अलगाव भरे दिनों में कड़वे अनुभवों से गुजरते हुए. मुश्किल लम्हे उनके लिए भी और हमारे लिए भी. सद्भाव ने मुश्किल हल कर दी.
यह बात प्रसंगवश यहाँ आ रही है जिसे मैं कुछ पंक्तियों में ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में भी लिख चुकी हूँ.
इसके बाद मन्नू दी रोज आती रहीं सबेरे के दस या ग्यारह बजे और उनके पतिव्रत की महिमा ने साहित्य का एरिया ऐसा पुण्य-पवित्र बना डाला जैसा कि पौराणिक कथा की सती शांडिनी की पति भक्ति ने. मन्नू दी के भाग्य में अकूत यश है, यह भी मैनें तभी जाना कि हर हाल में हर दिशा से उनकी ओर ख्याति खिंची चली जाती है.
रात के समय का जिम्मा किशन पर रहा जो राजेन्द्र जी का ड्राइवर था और घर में रहकर तीमारदार की भूमिका बखूबी निभाता रहा उनके अन्त समय तक.
अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद मन्नू जी ने अपने अलगाव को सुरक्षित रखा. आने-जाने की औपचारिकता या लोक-लाज अस्पताल तक ही थी जहाँ तमाम साहित्यकार आते-जाते. वे इस नाजुक मौके की नब्ज पहचानती थी कि राजेन्द्र जी के आसपास दिखने में उनके बड़प्पन और पति की बेजा हरकतों के ग्राफ की नाप-तौल होगी और वे उत्तम कोटि नारी की उपमा बनेंगी.
यदि इस तरह से सोची-समझी नीति न होती तो अस्पताल से छुट्टी होने के बाद राजेन्द्र जी को वे अपने घर हौजखास में आने देतीं जो कि उन्होंने किसी भी तरह राजेन्द्र जी को अपने घर टिकाना मंजूर नहीं किया. हाँ, इतना उपकार जरूर किया कि बेटी रचना से कह दिया कि वह कुछ दिन पिता को अपने घर रहने दे. काश, ऐसा तब भी कहा होता जब राजेन्द्र यादव हौजखास से निकलकर मयूर विहार केदारनाथ जी के फ्लैट में किराए पर आए थे. रचना तो तब भी मन्नू जी के घर के ठीक सामने वाले घर में रहती थी मगर तब उनका निकाला जाना दोनों ने तय किया था. और आज तक यह खुलासा नहीं हुआ कि वे क्यों निकाले गए?
मैं चाहती थी एम्स से डिस्चार्ज होने के बाद राजेन्द्र जी हौजखास ही रहें क्योंकि आगे कोई दिक्कत आती है और अस्पताल ले जाने की अनिवार्यता होती है तो हौजखास ही सबसे नजदीकी जगह है. डी.एल.एफ. तो कोसो-कोस दूर....
और हुआ भी यही. उनकी तबियत फिर बिगड़ी. रचना के घर से उनको किसी तरह लाया गया और एम्स में भर्ती कराया फिर से.
अबकी बार वे अस्पताल से निकलकर रचना के घर हरगिज न जाना चाहते थे. और यह भी कि पत्नी या बेटी में से कोई भी उनके साथ आने को तैयार है या नहीं ? राजेन्द्र जी न जाने क्या-क्या विकल्प खोज रहे थे? या कि वास्तविक संबंधों को ही विकल्पों में तब्दील किए जा रहे थे?
वे अस्पताल में ही मुझसे कुछ गोपनीय कहना चाहते थे मगर समय ने इतना एकान्त दिया ही नहीं कि वे अपने मन की बात कह पाते. मयूर विहार आकर उन्होंने मुझे बुलाया.
उन्होंने मुझ नाम बताया लेकिन मैं यहाँ लिखूँगी नहीं क्योंकि उन्होंने हमेशा उनका नाम छिपाया और उनको मीता नाम से लिखा.
मुझे हँसी आ रही थी, इस उम्र में भी भाभी का पहरा.प्यार करने वालों को किसी भी उम्र में आजादी नहीं मिलती...
फोन करने का जिम्मा मैनें ले लिया. क्या-क्या कहना है, यह भी सोच लिया-बीमार हैं. आपको याद करते हैं, बहुत याद करते हैं. मुश्किल से जिंदगी बची है. यहाँ मयूर विहार वाले घर में अकेले हैं.
वे कहते हैं कि आपने उनको बिना किसी दुविधा के अपनाया है. यहाँ तक कि उनकी अपंगता से उपजी कुंठा से भी बचाती रही हैं.
उसे भूल नहीं पाया मैं. कहाँ-कहाँ नहीं बुलाया था उसे रात-बेरात, जगह-बेजगह, वह हाजिर रही है. मई की चिलचिलाती धूप में भर दोपहर रेतीले मैदान में दो मील तक मेरे रिक्शे का धक्का देते हुए ले जाना पड़ा था उसे. रेत में पाँव धँस जाते थे.
इतनी सारी बातें. तमाम यादें और उद्गार.
मैं सोचने लगी हूँ, राजेन्द्र जी ने इनका असली नाम क्यों छिपाया , मन्नू दी ने भी उनको ‘मीता’ ही लिखा है. दलील यह कि उनकी बदनामी होगी. अरे, जिसने मोहब्बत में जीवन होम कर डाला, उसको बदनामी डराएगी ? प्रेम करने की सजा में प्रेमी ने ही गुमनाम कर दिया या शादी न करने का दंड दिया है.
अगर मन्नू भंडारी राजेन्द्र यादव से प्रेम करती रहतीं, शादी नहीं करतीं, तो उनका नाम मन्नू की जगह कुछ और रख दिया जाता ? राजेन्द्र यादव का नाम जस का तस क्यों रहा ? उनको बदनामी का डर नहीं ? राजेन्द्र जी की यह कायरता चरम पर है. शादीशुदा जिन्दगी ने उन्हें अपने शिंकंजे में ऐसा कसा है कि सिर उठाने तक साहस नहीं. मन्नू जी ने ब्याह रचाया, यह हिम्मत भारी से भारी हुई कि मोहब्बत हौसला हार बैठी. जिसका नाम फख्र से लेना चाहिए था, उसको छिपाकर क्या सिद्ध किया ? क्या आपका दाम्पत्य उसकी प्रेम तपस्या से भयभीत होने लगा ? या आपको अपनी शादी प्रेम की हिलती-डुलती कीली पर टिकी महसूस होती रही?
एक निर्भीक स्त्री को लांछन, बदनामी और तोहमतों के झूठे पर्दे के पीछे छिपाना आपके द्वारा स्थापित किए स्त्री विमर्श पर कलंक है. अपने प्रेमपत्र लौटाने का तकाजा करना, आपको किस ऊँचाई पर ले जाता है ? ऐसी कुछ बातें, ऐसे ही कुछ अपमान आपके विश्वासघात बन गए जिन्हें आपने समझा ही नहीं, जिया भी. खोए हुए रास्तों पर बार-बार जाने की अदम्य आकांक्षा आखिरकार भटकन बनकर रह गई.
फोन आया, राजेन्द्र जी बोले-‘‘डाक्टरनी, आओ देखो, कौन आया है.’’
डनकी मोटी मर्दानी आवाज में मिश्री घुली थी. हिन्दुस्तान अपार्टमेंट के उस घर में खील-मखाने की ब्रजमंडल से कोई गोपिका आई है इस इन्द्रप्रस्थ में.
राजेन्द्र जी का घर खील-मखाने हो रहा है. दरो-दीवार पुलकित हैं, द्वार और झरोखे मुस्करा रहे हैं. बहुत लोग आते-जाते रहे हैं यहाँ, इस तरह अपना कोई पहली बार आया है. चिड़िया कौआ भी अपनी लय, धुन बजा रह हैं या आज ही सुनाई दे रही है.
मीता! गोरा रंग, लम्बा कद और अंडाकार के साथ गोलाई लिए चेहरा. आँखों में तैरती मुस्कराहट. बिना आवाज वाली बोली जैसा कुछ. वे हँस तो नहीं रहीं, घर ही खिलखिला उठा है. मैं गौर से देखती हूँ कि एक स्त्री को स्त्री की तरह. साड़ी बाँधने का सलीका और उठने-बैठने का आकर्षक अन्दाज. गरिमा से दीप्त व्यक्तित्व की स्वामिनी, मीता! कन्धे तक कटे बालों वाली आधुनिका की छवि. राजेन्द्र जी ने बताया कॉलेज में प्रिंसिपल ...
मैं बराबर उनको देख रही हूँ. घूरना जैसा न लगे, नजर दूसरी ओर मोड़ लेती हूँ.
किससे प्रेम किया मीता ? साहित्य-जगत के खलनायक से ? पत्नी के मुजरिम से ? बेटी के गुनहगार से ? नहीं-नहीं, और भी इल्जाम...सती सावित्रियों का शील भंग करने वाले से ? इस ‘सेक्स मास्टर’ से मोहब्बत कैसे चलती रही मीता, यहाँ के नैतिकता के पुजारी आपकी निष्ठा पर भौचक हैं. ऐसी बहुत सी बातें मीता सुनती रही हैं फिर भी मानती रही हैं कि उनको राजेन्द्र से प्रेम है. निश्छल, निष्कपट प्रेम ने मानो कुछ नहीं सुना.
बीमारी से जूझकर उठे हैं राजेन्द्र जी. लगता है, बीमारी के बाद मीता का दरस-परस उनके लिए ताकत देने वाला टानिक है, नहीं तो कमजोर आवाज खनक कैसे उठती.
घर की रसोई महक उठी है, मीता अपने हाथों भोजन की व्यवस्था कर रही है. वे राजेन्द्र जी की पसंद की सब्जियाँ बनाने के जनत में रोज ही रहती है. मेंथी-पालक चुनती हैं. आटा भी खुद ही गूँथना है, मरीज के पथ्य के लिए जरूरी जो है.
और वह गीत वे गुनगुना रही हैं-
‘‘मेरे आग्रह पर वह कलकत्ता भी आई और साथ ही ठहरी भी. सारे दिन हम लोग कलकत्ता घूमते और रात की बातें करते हुए प्रतीक्षा करते कि कौन विवाह के लिए पहल करता है. ऐसी बातों के लिए उसमें स्त्रियोचित संकोच नहीं था. आखिर बात मैनें ही उठाई. बहुत खूबसूरती से उसने जो कुछ कहा, उसका आशय यही था कि हम मित्र हैं और जिन्दगी भर हमें एक दूसरे की मित्रता की जरूरत पड़ेगी. शायद मेरे सिवा उसने इतनी गहराई से किसी को जाना भी नहीं है इसलिए यह सवाल भी बेमानी है कि कहीं कोई और उसके मन में है.’’
तब ? वे तो मित्र थीं, मित्र रहीं, साथ नहीं छोड़ा. यों तो कई बार उमड़ आया होगा इस प्रेमिका के दिल का हाहाकार...राजेन्द्र जी, आप ही बेवफा हो गए.
कोई ईर्ष्या ...डाह...कैसे पूछा जाए इस मुस्कराते होठोंवाली स्त्री से ? मैनें मान लिया राजेन्द्र जी बेघर हो गए पत्नी के घर से, मगर प्रेमिका के दिल में बड़े आराम से रहते हैं. मीता, अपने आसपास के लोगों में कि पढ़ते समय सहपाठियों में शेरनी का दर्जा पाए रहीं. दबंग और दुस्साहसी, बेबाक ऐसी कि छल-कपट दूर-दूर भागे. राजेन्द्र यादव के प्रेमपाश की बुलबुल बनी रहीं. आज भी अपनी मोहब्बत की आजादी को बचाए हुए. राजेन्द्र जी बड़े लेखक तो मीता बड़े कॉलेज की प्रिंसिपल, एक दूसरे को लूटने-खाने के लिए साथ-साथ यात्राओं पर नहीं निकलते थे. शक-सुबहों से दामन छुड़ाकर ‘अपना केवल प्यार’ ही बचाने के उपक्रम थे.
मेरी निगाह में ‘समकालीन साहित्य समाचार’ में छपा मन्नू भंडारी का साक्षात्कार आ गया. वे कहती हैं-‘‘राजेन्द्र ने अलग होकर मीता से शादी क्यों नहीं कर ली ?’’ यह कैसा क्षुब्ध शहीदाना जुम्ला फेंका है! मन्नू जी ने! किसी की जीवन भर की बनाई प्रेम तस्वीर पर गंदे धब्बे की तरह पड़ा यह वाक्य. जीवन की संध्या और शादी जैसा क्रूर मजाक! कैसे पूछा जाए कि राजेन्द्र यादव ने तलाक लिया या नहीं ?
मुझे ही नहीं पढ़ना चाहिए था यह साक्षात्कार क्योंकि मैं मीता की सादगी और सहिष्णुता गरिमा के डूबी थी. एक प्रेम सरोवर राजेन्द्र जी के घर लहराया था और उस सरोवर में प्यार का जीवित पंछी अपनी प्यास बुझाता था, यह लालन-पालन किसके बस का होगा ? होंगी राधा, मीरा भी होंगी और मोहब्बत की मंजिल में लैला, हीरा और सोहनी भी एकतारा बजाती हैं, लेकिन राजेन्द्र जी की मीता का प्रणय गीत आज हम लिख रहे हैं और आशा करते हैं. उनके प्यार की दास्तान की वजह से मेरी किताब जिंदा रहेगी. कहते हैं न ‘न हयन्ते हन्यमाने शरीरे’-प्यार आत्मा की तरह कभी मरता नहीं.
आपके इस प्रेम में कितना सेक्स था, कितनी मोहब्बत और यह सब कब था, कब नहीं, इसके ब्यौरे तो आप ही जाने! हम तो इतना ही जान पाए हैं कि अपनी इस प्रेम-कहानी को पूरी करते हुए आप दोनों काँटों की सेज पर सोए हैं. कोई नहीं समझ पाया कि तन-मन को मिलन की इतनी ही लालसा रहती होगी, जितनी कि मछली को पानी की रहती है, जितनी कि फूल को हवा की रहती है, जितनी कि आँखों को दर्शन की रहती है. लेकिन इन सबके बिना भी जिंदा रहना केवल उस मोहब्बत भरी जिंदगी का ही साहस हैं. जो आपने और आपकी मीता ने जी है.
एक जगह की बात है, संभवतः मुंबई के कल्याण की, जहाँ एक कॉलेज में मन्नू जी पर लेख पढ़ा जा रहा था या जहाँ कहीं भी पर्चे पढ़े जाते हैं वहाँ अक्सर यह सुनने को मिल जाता है कि राजेन्द्र यादव ने अपनी दुष्टता और लम्पटता के चलते मन्नू जी को छला है. लेखन को क्षति पहुँचाई है, उनकी थीम चुराई है, नहीं तो आज मन्नू जी साहित्य को कितना कुछ दे चुकी होतीं! बेशक हम भी यह मानते हैं कि निरंतर लेखन करता हुआ रचनाकार समाज को समय के बदलाव के साथ साहित्य के बदलाव को चित्रित करता जाता है. मन्नू जी भी आवाज बुलंद करती हुई अपनी रचना साहित्य को अर्पित करतीं.
लेकिन मन्नू जी का काम राजेन्द्र यादव ने रोका, उनके लेखन में अड़ंगा लगाए, ये सब बेकार की बातें हैं. कोई किसी को नहीं रोक सकता. रोकेगा तो कब तक रोकेगा और फिर मन्नू भंडारी इतनी निरीह, मासूम और नादान नहीं हैं कि रुक जाएँ. उन्होंने अपने रसूखवाले पिता से विद्रोह किया है जिनके मुकाबले राजेन्द्र यादव किस खेत की मूली हैं! और फिर जो मैनें देखा है, राजेन्द्र जी को तो संपर्क में आया आदमी बिना लेखन किए सुहाता नहीं. दफ्तर में वीना, दुर्गा और किशन भी लेखक हो जाएँ तो उनका मन और कार्यालय खिल उठे.
मन्नू जी के लिए तो राजेन्द्र जी के लिखे सम्पादकीय गवाही देते हैं कि किसी न किसी बहाने वे मन्नू भंडारी का जिक्र ले ही आते हैं. यह बात सारे पाठक जानते हैं, निहितार्थ न समझ पाते हो, यह दीगर बात है.
पति-पत्नी का रिश्ता सीधा-सादा चले तो इससे आसान कोई राह नहीं और अगर कुछ उलझ जाए तो दाम्पत्य लड़खड़ाने लगता है. धोखे बाजियों के हाथ और छल-प्रपंचों के जाल में यहाँ कौन आया कौन नहीं, इसका फैसला एकतरफा नहीं होना चाहिए. क्या मीता इस प्रपंच की शिकार नहीं हुई ? उन्हें अपने नाम तक से बेदखल कर दी यादव दम्पती ने. कौन है मीता ? कैसी है मीता ? कितनी मीताएँ हैं शामिल? आप कल्पना करते रहिए, मीता को असली नाम पर गुमशुदा ही पाएंगे. पाठक भी ठगा सा रह जाता है और मीता भी क्या आश्वस्त होती होगी ?
बेशक, विवाह प्रेमी-प्रेमिकाओं को अपने वजूद से बेदखल करके ही मानता है. प्रेमियों के अस्तित्व का खात्मा यहीं होता है. हवन कुंड की आग में स्मृतियों को जलाने का नियम है. इसलिए तो वैवाहिक प्रेम की जिंदगी को सुरक्षित मान लिया गया है. इसी प्रकार के प्रेम को साधते रहना विवाह की आदर्श स्थिति है. सवाल उठता है कि साधने की जरूरत क्यों पड़ती है ? क्या वैवाहिक प्रेम में अपना बल नहीं होता कि उसे तमाम व्रत-उपवासों, सुहागिक गहनों और मांग सिंदूर और माथे की बिंदियों के रूप में पताका-सा फहराते रहना होता है.
मगर यह प्रेम होता है हम नहीं मानते क्योंकि जहाँ स्त्री-पुरुष को साथ रहकर सेक्स करने और बच्चा पैदा करने की सामाजिक अनुमति मिलती है, वहाँ प्यार की तड़प का क्या मतलब ?
राजेन्द्र जी, सोचना तो यह भी लाज़मी है कि आप विवाह की ओर बढ़ लिए, लेकिन मोहब्बत की तलब से छुटकारा नहीं पा सके. मीता छूट गई लेकिन प्यार ने अपना पीछा नहीं छोड़ा क्योंकि वह आपकी अनुभूत भावना थी. इसी भावना की खोज में कभी आप भरे-पूरे हुए तो कभी आप लुट-पिटकर बेघर हो गए. कभी प्रेम के शहंशाह तो कभी गृहस्थ से धक्के खाते फकीर. ऐसे में ही जब कभी किसी स्त्री में आपकी डगमगाती कश्ती की पतवार थाम ली तो आप किनारों की आस में बह उठे.
आप मानने लगे कि आप शादी के लिए नहीं बने थे. शादी का फैसला आपको ता जिंदगी चिढ़ाता रहा. क्या यहाँ हम यह न मान लें कि प्रेम की पहचान में आप चूक गए या विवाह और प्रेम के मामले में आप कनफ्यूज्ड रहे. कितने बुद्धिशील और तर्कवादी आप थे, स्त्री के मामले में आपकी समझदारी पर प्रश्नचिन्ह लगते रहेंगे. किसी स्त्री ने आपकी प्रतिभा का लोहा माना और आपको वर के रूप में चुना. यह कैसा तालमेल है ? पत्नी का अधिकार लेकर अपनी लेखकीय आकांक्षाओं को आसान गति देने के लिए राजमार्ग खोज लिया. बहुत खूब, उनका सोचा-समझा सब कुछ हुआ, आप ही सद्गृहस्थ नहीं बन पाए. पिता बने पर पिता के कर्तव्ष्य क्या होते हैं, कंटस्थ नहीं किए. आप प्रेमी कदापि नहीं थे यहाँ, पति थे, याद क्यों नहीं रहा ?
वैसे यह तो होता आया है जो आपके मामले में भी हुआ कि पाणिग्रहण संस्कार के बाद पति-पत्नी के बीच लाख छल-छदमों का दौर चले, पत्नी घाटे में नहीं रहती. वह हक रखती है अपने कैसे भी व्यवहार-बर्ताव का, मोह का या क्रूरता का, इंसाफ का या नाइंसाफी का, वह बदनाम नहीं होती क्योंकि वह धर्मपत्नी होती है. क्योंकि उसके पास सारे हकों और गरिमामय जीवन के लिए वैवाहिक सनद के रूप में अचूक ताबीज होता है जिसे मंगलसूत्र या सुहाग कहते हैं.
मगर प्रेमिका ? प्रभा खेतान की आत्मकथा यहीं तो कहती है कि मंगलसूत्र की महिमा युगों-युगों से है...
फिर क्यों प्रेम करती हैं स्त्रियाँ ? प्रेम के बिना जिन्हें जीवन सूना लगता है, वे ऐसी ही योद्धा होती हैं जैसे एक वीर आदमी का युद्ध के मैदान में जाए बिना दिल नहीं मानता.
बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं कि मन्नू भंडारी का नाम ख्यात लेखिका के लिए तो रहेगा ही लेकिन राजेन्द्र यादव की पत्नी के रूप में अमर रहेगा, ऐसे ही जैसे कि पत्नी का नाम रहता है. मीता को कितने लोग जान पाएंगे ? कितने लोगों को पता चलेगा कि मीता ने ही स्त्री की स्वतंत्रता का सूत्र राजेन्द्र यादव को पकड़ाया था ?
मैं यह दावा करती हूँ कि राजेन्द्र यादव नाम का व्यक्ति, जिसे आप महान लेखक और चिंतक और अद्भुत विचारक मान रहे हैं, वह आजीवन मीता की जैसी मोहब्बत के लिए तरसता और तड़पता रहा. यहाँ न कोई छल था, न छदम था, न धोखेबाजी का खेल, सब कुछ मोहब्बत के रसायन में घुला हुआ और ईमानदार पछतावे.
मीता! आपके पास आज भी वह साड़ी जरूर होगी जो बिहार से आई खास मधुबनी चित्रकारी में सज्जित थी. मेरे सामने वह दृश्य ज्यों का त्यों है कि राजेन्द्र जी की तीमारदारी के बाद विदा बेला आती जा रही थी. मगर मनुहार थे कि नित नए ताजा.‘ ठहर जाओ कुछ दिन और.’
‘अभी ना जाओ छोड़कर...’ किसी ने गाया नहीं, लेकिन हर कोने से पुकार...
हम लोग मयूर विहार के हिन्दुस्तान अपार्टमेंट के फ्लैट के ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठे थे. राजेन्द्र जी सामने वाले सोफे पर ऐन मीता के सामने...दृश्य था कि मुग्ध समय!!
उनकी गोद में धर दी वह सौगात.
हमे लगा वे अपनी प्रीति का दुशाला ओढ़ा रहे है. मीता की अपनी मोहब्बत की चादर के ऊपर जिस पर दूजा रंग चढ़ा ही नहीं.
साड़ी, साड़ी नहीं थी, मोहब्बत का परचम थी. राजेन्द्र जी का बीमार चेहरा अपनी रंगत में पीला-पीला नहीं था. प्रेम ही प्रेम था जिसके हम चश्मदीद गवाह बने. न जाने कितने अधूरी इच्छाओं और दमन से बनी लौह कड़ियाँ टूटती चली जा रहीं थी. वे चुपचाप बैठी थी और मेरा दिल भर आया. राजेन्द्र जी उन्हें निहार रहे थे कि अब न जाने कब मिले...
पूरे बीस दिन का साथ रहा, एक अरसा जैसा गुलजार दिन और तारो भरी रातें!
________
वह सन्
1998 का साल था और अक्टूबर का महीना. वह महीना राजेन्द्र जी के लिए बीमारी लेकर आया
था तो उससे पहले वे प्रसार भारती के सदस्य चुने गए थे. खुशखबरी और बीमारी गड्डमड्ड
थीं. और राजेन्द्र जी अपने स्वभाव में अलमस्त.
जब रोग बर्दाश्त
के बाहर हो गया, अपने साथ बुखार और कँपकँपी ले आया तब वे जैसे अपने
हंस कार्यालय में बेचैन हुए.
‘डाक्टरनी’ उनकी आवाज में अपने लिए पुकार. ऐसा जब भी होता मैं समझ लेती, राजेन्द्र जी को छींक आने से लेकर लिवर, शुगर,
ब्लडप्रेशर, बुखार-खाँसी कुछ भी हो सकता है. कोई
छोटा फोड़ा-फुंसी ही हो-‘डाक्टरनी’ की बाँग
आ ही जाती है.
‘‘आप हमारे ‘तिरुपति आई सेंटर’ आ जाइए राजेन्द्र जी.’’
‘‘तुम भूखे पेट बुलाओगी.’’
‘‘वह तो है. मगर टेस्ट के
बाद नाश्ता कराने की मेरी जिम्मेदारी.’’
वे आए, टेस्ट हुआ. शुगर लेबल खतरनाक स्तर पर मिला - 400
राजेन्द्र जी को किसी भी भयानक या खतरनाक आदमी या बीमारी की खबर देना उनको दुखी करने या डराने जैसा नहीं होता था, रोमांचित होते तो लगता खुश हो रहे हैं. जैसे बिना दहशतों के रास्ता क्या और बिना खतरों के जिन्दगी क्या!
तब की बात करते
हुए मुझे आज अर्चना वर्मा का वह लेख याद आ रहा है जिसमें उसने लिखा है कि राजेन्द्र
जी का शुगर लेवल खतरनाक ढ़ंग से बढ़ा रहा था और मैत्रेयी ने अपने यहाँ टेस्ट कराकर उसे
नार्मल बता दिया.
अब कोई बताए
कि ऐसे दुष्प्रचार के लिए मैं क्या करूँ!
पूछ ही सकती हूँ कि अगर उनके टेस्ट नार्मल थे तो डॉक्टर साहब (मेरे पति) उनको लेकर एम्स क्यों गए थे? जल्दी से जल्दी कैज्युअलिटी में दाखिल क्यों कराया था? कमरा तो बाद में मिला
ऐसी बिना सिर-पैर की बातें मेरे पास तमाम जमा हैं, उनका उल्लेख करना जरूरी नहीं क्योंकि मैं फिर ‘राजेन्द्र कथा’ से भटक जाऊँगी.
राजेन्द्र जी के लिवर के ऊपर एब्सिस (फोड़ा) बन गया. मामला गम्भीर था.
राजेन्द्र यादव तब तक कैज्युअलिटी में ही थे कि मैं और डॉक्टर साहब अपनी गाड़ी लेकर मन्नू को लिवाने पहुँचे. हौजखास तक जाते हुए भी हम घबराए हुए थे. माना कि हम बहुत नजदीकी शुभचिन्तक थे लेकिन परिवारी या किसी तरह से संबंधी तो नहीं थे. हमारी औकात इस समय ‘निजी’ के नाम पर कुछ नहीं थी. मन्नू भंडारी लाख दर्जे अलग रहती हैं उनसे मगर हैं तो उनकी पत्नी ही. उनका संबंध आधिकारिक है. हमने उनको नहीं बताया तो जवाबदेह हम होंगे. एकदम अपराधी घोषित कर दिए जाएँगे और बेपर की आशंकाएँ उठेंगी. ऐसे समय आपका प्रेम भले पहाड़ जैसा बना रहे मगर उसकी वकत राई भर भी नहीं होती.
उफ! मन्नू दी तैयार नहीं थीं आने के लिए. बात भी ठीक थी कि जब वे अपनी बीमारी में राजेन्द्र जी को नहीं आने दे रहीं तो उनकी बीमारी में क्यों जाएँ ? हम दोनों थे कि घबराहट के मारे हुए. गिड़गिड़ाने लगे कि मन्नू दी किसी तरह चलें. डॉक्टर साहब तो ‘चलिए-चलिए’ की रटन लगाए हुए थे.
मैनें डॉक्टर साहब से कहा -‘‘तुम अस्पताल चलो राजेन्द्र जी के पास, मैं मन्नू दी को लिवा लाऊँगी. डॉक्टर नवल से कहना डायबिटीज एक्सपर्ट को बुला लें.’’
मन्नू दी अब तैयार हों, जब तैयार हों, हमें भी हड़बड़ी मची थी. वे जो भी कुछ सोच-समझ रही हों, हमें देर हो रही थी.
खैर, मन्नू दी तैयार हुईं. हमारी जान में जान आई कि जिन्दगी भर साथ निभाने के वादे पर विवाहिता होनेवाली पत्नी ने हमारी अरज सुन ली, इन अलगाव भरे दिनों में कड़वे अनुभवों से गुजरते हुए. मुश्किल लम्हे उनके लिए भी और हमारे लिए भी. सद्भाव ने मुश्किल हल कर दी.
यह बात प्रसंगवश यहाँ आ रही है जिसे मैं कुछ पंक्तियों में ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में भी लिख चुकी हूँ.
इसके बाद मन्नू दी रोज आती रहीं सबेरे के दस या ग्यारह बजे और उनके पतिव्रत की महिमा ने साहित्य का एरिया ऐसा पुण्य-पवित्र बना डाला जैसा कि पौराणिक कथा की सती शांडिनी की पति भक्ति ने. मन्नू दी के भाग्य में अकूत यश है, यह भी मैनें तभी जाना कि हर हाल में हर दिशा से उनकी ओर ख्याति खिंची चली जाती है.
रात के समय का जिम्मा किशन पर रहा जो राजेन्द्र जी का ड्राइवर था और घर में रहकर तीमारदार की भूमिका बखूबी निभाता रहा उनके अन्त समय तक.
अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद मन्नू जी ने अपने अलगाव को सुरक्षित रखा. आने-जाने की औपचारिकता या लोक-लाज अस्पताल तक ही थी जहाँ तमाम साहित्यकार आते-जाते. वे इस नाजुक मौके की नब्ज पहचानती थी कि राजेन्द्र जी के आसपास दिखने में उनके बड़प्पन और पति की बेजा हरकतों के ग्राफ की नाप-तौल होगी और वे उत्तम कोटि नारी की उपमा बनेंगी.
यदि इस तरह से सोची-समझी नीति न होती तो अस्पताल से छुट्टी होने के बाद राजेन्द्र जी को वे अपने घर हौजखास में आने देतीं जो कि उन्होंने किसी भी तरह राजेन्द्र जी को अपने घर टिकाना मंजूर नहीं किया. हाँ, इतना उपकार जरूर किया कि बेटी रचना से कह दिया कि वह कुछ दिन पिता को अपने घर रहने दे. काश, ऐसा तब भी कहा होता जब राजेन्द्र यादव हौजखास से निकलकर मयूर विहार केदारनाथ जी के फ्लैट में किराए पर आए थे. रचना तो तब भी मन्नू जी के घर के ठीक सामने वाले घर में रहती थी मगर तब उनका निकाला जाना दोनों ने तय किया था. और आज तक यह खुलासा नहीं हुआ कि वे क्यों निकाले गए?
मैं चाहती थी एम्स से डिस्चार्ज होने के बाद राजेन्द्र जी हौजखास ही रहें क्योंकि आगे कोई दिक्कत आती है और अस्पताल ले जाने की अनिवार्यता होती है तो हौजखास ही सबसे नजदीकी जगह है. डी.एल.एफ. तो कोसो-कोस दूर....
और हुआ भी यही. उनकी तबियत फिर बिगड़ी. रचना के घर से उनको किसी तरह लाया गया और एम्स में भर्ती कराया फिर से.
अब पारी की
दूसरी शुरुआत थी.
अबकी बार वे अस्पताल से निकलकर रचना के घर हरगिज न जाना चाहते थे. और यह भी कि पत्नी या बेटी में से कोई भी उनके साथ आने को तैयार है या नहीं ? राजेन्द्र जी न जाने क्या-क्या विकल्प खोज रहे थे? या कि वास्तविक संबंधों को ही विकल्पों में तब्दील किए जा रहे थे?
वे अस्पताल में ही मुझसे कुछ गोपनीय कहना चाहते थे मगर समय ने इतना एकान्त दिया ही नहीं कि वे अपने मन की बात कह पाते. मयूर विहार आकर उन्होंने मुझे बुलाया.
‘‘आप ठीक तो हैं न ?’’
‘‘हाँ, बीमारी
के बाद मरीज जैसा होता है, वैसा ही हूँ.’’ वे बिस्तर पर लेटे हुए थे.
‘‘तो मुझे किसलिए बुलाया ?’’
‘‘तुम मेरी घनिष्ठ मित्र हो न,
इसलिए.’’
‘‘ठीक है, मान
लिया, अब बताइए भी न! कोई जरूरत ?’’
‘‘नहीं डाक्टरनी,
कोई जरूरत नहीं. बस एक काम था, तुम ही कर सकती
हो.’’ उनकी आवाज थी कि एक अनुनय...
‘‘मैं कर सकती हूँ तो जरूर करूँगी.’’
कहने के बाद मैं कई ऐसे काम सोचने लगी जिन्हें वे मुझे सौंप सकते थे,
मसलन-कुछ दवाएँ, कुछ खास खाने की चीजें जैसा कुछ.
उन्होंने मेरी
ओर कागज की एक बहुत छोटी चिट बढ़ाई. हाथ काँप रहा था.
‘‘इसमें एक नम्बर लिखा है,
टेलीफोन कर दो.’’
‘‘कहाँ करना है ? अच्छा, मैं घर से मोबाइल फोन ले आऊँगी, आप ही कर देना बिस्तर पर लेटे-लेटे.’’
‘‘आगरा करना है, लेकिन मैं नहीं करूँगा.’’
‘‘क्यों, आप
क्यों नहीं ?’’
‘‘अरे यार, तुम
भी! सारी बात पूछकर मानोगी. उसकी भाभी मेरी आवाज पहचानती है, उसे फोन नहीं देगी.’’
‘‘उसको किसको ?’’
उन्होंने मुझ नाम बताया लेकिन मैं यहाँ लिखूँगी नहीं क्योंकि उन्होंने हमेशा उनका नाम छिपाया और उनको मीता नाम से लिखा.
मुझे हँसी आ रही थी, इस उम्र में भी भाभी का पहरा.प्यार करने वालों को किसी भी उम्र में आजादी नहीं मिलती...
फोन करने का जिम्मा मैनें ले लिया. क्या-क्या कहना है, यह भी सोच लिया-बीमार हैं. आपको याद करते हैं, बहुत याद करते हैं. मुश्किल से जिंदगी बची है. यहाँ मयूर विहार वाले घर में अकेले हैं.
उधर से प्रश्न
आएगा - तो ?
कहूँगी, आपको बुला रहे हैं, आप आएँगी न ?
वे कहते हैं कि आपने उनको बिना किसी दुविधा के अपनाया है. यहाँ तक कि उनकी अपंगता से उपजी कुंठा से भी बचाती रही हैं.
वे बताते हैं-कभी
देखा-देखी हुई, तब से अब तक संग-साथ नहीं हुआ.
उसे भूल नहीं पाया मैं. कहाँ-कहाँ नहीं बुलाया था उसे रात-बेरात, जगह-बेजगह, वह हाजिर रही है. मई की चिलचिलाती धूप में भर दोपहर रेतीले मैदान में दो मील तक मेरे रिक्शे का धक्का देते हुए ले जाना पड़ा था उसे. रेत में पाँव धँस जाते थे.
इतनी सारी बातें. तमाम यादें और उद्गार.
मैं सोचने लगी हूँ, राजेन्द्र जी ने इनका असली नाम क्यों छिपाया , मन्नू दी ने भी उनको ‘मीता’ ही लिखा है. दलील यह कि उनकी बदनामी होगी. अरे, जिसने मोहब्बत में जीवन होम कर डाला, उसको बदनामी डराएगी ? प्रेम करने की सजा में प्रेमी ने ही गुमनाम कर दिया या शादी न करने का दंड दिया है.
अगर मन्नू भंडारी राजेन्द्र यादव से प्रेम करती रहतीं, शादी नहीं करतीं, तो उनका नाम मन्नू की जगह कुछ और रख दिया जाता ? राजेन्द्र यादव का नाम जस का तस क्यों रहा ? उनको बदनामी का डर नहीं ? राजेन्द्र जी की यह कायरता चरम पर है. शादीशुदा जिन्दगी ने उन्हें अपने शिंकंजे में ऐसा कसा है कि सिर उठाने तक साहस नहीं. मन्नू जी ने ब्याह रचाया, यह हिम्मत भारी से भारी हुई कि मोहब्बत हौसला हार बैठी. जिसका नाम फख्र से लेना चाहिए था, उसको छिपाकर क्या सिद्ध किया ? क्या आपका दाम्पत्य उसकी प्रेम तपस्या से भयभीत होने लगा ? या आपको अपनी शादी प्रेम की हिलती-डुलती कीली पर टिकी महसूस होती रही?
एक निर्भीक स्त्री को लांछन, बदनामी और तोहमतों के झूठे पर्दे के पीछे छिपाना आपके द्वारा स्थापित किए स्त्री विमर्श पर कलंक है. अपने प्रेमपत्र लौटाने का तकाजा करना, आपको किस ऊँचाई पर ले जाता है ? ऐसी कुछ बातें, ऐसे ही कुछ अपमान आपके विश्वासघात बन गए जिन्हें आपने समझा ही नहीं, जिया भी. खोए हुए रास्तों पर बार-बार जाने की अदम्य आकांक्षा आखिरकार भटकन बनकर रह गई.
फोन आया, राजेन्द्र जी बोले-‘‘डाक्टरनी, आओ देखो, कौन आया है.’’
डनकी मोटी मर्दानी आवाज में मिश्री घुली थी. हिन्दुस्तान अपार्टमेंट के उस घर में खील-मखाने की ब्रजमंडल से कोई गोपिका आई है इस इन्द्रप्रस्थ में.
राजेन्द्र जी का घर खील-मखाने हो रहा है. दरो-दीवार पुलकित हैं, द्वार और झरोखे मुस्करा रहे हैं. बहुत लोग आते-जाते रहे हैं यहाँ, इस तरह अपना कोई पहली बार आया है. चिड़िया कौआ भी अपनी लय, धुन बजा रह हैं या आज ही सुनाई दे रही है.
मीता! गोरा रंग, लम्बा कद और अंडाकार के साथ गोलाई लिए चेहरा. आँखों में तैरती मुस्कराहट. बिना आवाज वाली बोली जैसा कुछ. वे हँस तो नहीं रहीं, घर ही खिलखिला उठा है. मैं गौर से देखती हूँ कि एक स्त्री को स्त्री की तरह. साड़ी बाँधने का सलीका और उठने-बैठने का आकर्षक अन्दाज. गरिमा से दीप्त व्यक्तित्व की स्वामिनी, मीता! कन्धे तक कटे बालों वाली आधुनिका की छवि. राजेन्द्र जी ने बताया कॉलेज में प्रिंसिपल ...
मैं बराबर उनको देख रही हूँ. घूरना जैसा न लगे, नजर दूसरी ओर मोड़ लेती हूँ.
यह मीता, रेणु की हीराबाई ? आधी सदी से ज्यादा वक्त गुजर गया,
राजेन्द्र यादव से लगा नेह फीका नहीं पड़ा या जीया जा रहा है अपने मन
का जीवन ? प्रमाणित कर डाला है कि प्रेम कहानियाँ न झूठी होती
हैं, न काल्पनिक. इस तरह की प्रेमकथा में टूटन-फूटन के लिए भी
जगह नहीं.
किससे प्रेम किया मीता ? साहित्य-जगत के खलनायक से ? पत्नी के मुजरिम से ? बेटी के गुनहगार से ? नहीं-नहीं, और भी इल्जाम...सती सावित्रियों का शील भंग करने वाले से ? इस ‘सेक्स मास्टर’ से मोहब्बत कैसे चलती रही मीता, यहाँ के नैतिकता के पुजारी आपकी निष्ठा पर भौचक हैं. ऐसी बहुत सी बातें मीता सुनती रही हैं फिर भी मानती रही हैं कि उनको राजेन्द्र से प्रेम है. निश्छल, निष्कपट प्रेम ने मानो कुछ नहीं सुना.
बीमारी से जूझकर उठे हैं राजेन्द्र जी. लगता है, बीमारी के बाद मीता का दरस-परस उनके लिए ताकत देने वाला टानिक है, नहीं तो कमजोर आवाज खनक कैसे उठती.
घर की रसोई महक उठी है, मीता अपने हाथों भोजन की व्यवस्था कर रही है. वे राजेन्द्र जी की पसंद की सब्जियाँ बनाने के जनत में रोज ही रहती है. मेंथी-पालक चुनती हैं. आटा भी खुद ही गूँथना है, मरीज के पथ्य के लिए जरूरी जो है.
और वह गीत वे गुनगुना रही हैं-
मन रे, तू काहे न धीर धरे...
वो निरमोही
मोह न जाने, जिनका मोह करे...
इतना ही उपकार
समझ जितना कोई साथ निभा दे...
मेरी समझ में
आ गया कि उन्होंने इतना ही साथ स्वीकार किया है जितना राजेन्द्र जी ने दिया या मीता
ने माना. राजेन्द्र जी खुद लिखते हैं -
‘‘मेरे आग्रह पर वह कलकत्ता भी आई और साथ ही ठहरी भी. सारे दिन हम लोग कलकत्ता घूमते और रात की बातें करते हुए प्रतीक्षा करते कि कौन विवाह के लिए पहल करता है. ऐसी बातों के लिए उसमें स्त्रियोचित संकोच नहीं था. आखिर बात मैनें ही उठाई. बहुत खूबसूरती से उसने जो कुछ कहा, उसका आशय यही था कि हम मित्र हैं और जिन्दगी भर हमें एक दूसरे की मित्रता की जरूरत पड़ेगी. शायद मेरे सिवा उसने इतनी गहराई से किसी को जाना भी नहीं है इसलिए यह सवाल भी बेमानी है कि कहीं कोई और उसके मन में है.’’
तब ? वे तो मित्र थीं, मित्र रहीं, साथ नहीं छोड़ा. यों तो कई बार उमड़ आया होगा इस प्रेमिका के दिल का हाहाकार...राजेन्द्र जी, आप ही बेवफा हो गए.
कोई ईर्ष्या ...डाह...कैसे पूछा जाए इस मुस्कराते होठोंवाली स्त्री से ? मैनें मान लिया राजेन्द्र जी बेघर हो गए पत्नी के घर से, मगर प्रेमिका के दिल में बड़े आराम से रहते हैं. मीता, अपने आसपास के लोगों में कि पढ़ते समय सहपाठियों में शेरनी का दर्जा पाए रहीं. दबंग और दुस्साहसी, बेबाक ऐसी कि छल-कपट दूर-दूर भागे. राजेन्द्र यादव के प्रेमपाश की बुलबुल बनी रहीं. आज भी अपनी मोहब्बत की आजादी को बचाए हुए. राजेन्द्र जी बड़े लेखक तो मीता बड़े कॉलेज की प्रिंसिपल, एक दूसरे को लूटने-खाने के लिए साथ-साथ यात्राओं पर नहीं निकलते थे. शक-सुबहों से दामन छुड़ाकर ‘अपना केवल प्यार’ ही बचाने के उपक्रम थे.
मेरी निगाह में ‘समकालीन साहित्य समाचार’ में छपा मन्नू भंडारी का साक्षात्कार आ गया. वे कहती हैं-‘‘राजेन्द्र ने अलग होकर मीता से शादी क्यों नहीं कर ली ?’’ यह कैसा क्षुब्ध शहीदाना जुम्ला फेंका है! मन्नू जी ने! किसी की जीवन भर की बनाई प्रेम तस्वीर पर गंदे धब्बे की तरह पड़ा यह वाक्य. जीवन की संध्या और शादी जैसा क्रूर मजाक! कैसे पूछा जाए कि राजेन्द्र यादव ने तलाक लिया या नहीं ?
मुझे ही नहीं पढ़ना चाहिए था यह साक्षात्कार क्योंकि मैं मीता की सादगी और सहिष्णुता गरिमा के डूबी थी. एक प्रेम सरोवर राजेन्द्र जी के घर लहराया था और उस सरोवर में प्यार का जीवित पंछी अपनी प्यास बुझाता था, यह लालन-पालन किसके बस का होगा ? होंगी राधा, मीरा भी होंगी और मोहब्बत की मंजिल में लैला, हीरा और सोहनी भी एकतारा बजाती हैं, लेकिन राजेन्द्र जी की मीता का प्रणय गीत आज हम लिख रहे हैं और आशा करते हैं. उनके प्यार की दास्तान की वजह से मेरी किताब जिंदा रहेगी. कहते हैं न ‘न हयन्ते हन्यमाने शरीरे’-प्यार आत्मा की तरह कभी मरता नहीं.
आपके इस प्रेम में कितना सेक्स था, कितनी मोहब्बत और यह सब कब था, कब नहीं, इसके ब्यौरे तो आप ही जाने! हम तो इतना ही जान पाए हैं कि अपनी इस प्रेम-कहानी को पूरी करते हुए आप दोनों काँटों की सेज पर सोए हैं. कोई नहीं समझ पाया कि तन-मन को मिलन की इतनी ही लालसा रहती होगी, जितनी कि मछली को पानी की रहती है, जितनी कि फूल को हवा की रहती है, जितनी कि आँखों को दर्शन की रहती है. लेकिन इन सबके बिना भी जिंदा रहना केवल उस मोहब्बत भरी जिंदगी का ही साहस हैं. जो आपने और आपकी मीता ने जी है.
एक जगह की बात है, संभवतः मुंबई के कल्याण की, जहाँ एक कॉलेज में मन्नू जी पर लेख पढ़ा जा रहा था या जहाँ कहीं भी पर्चे पढ़े जाते हैं वहाँ अक्सर यह सुनने को मिल जाता है कि राजेन्द्र यादव ने अपनी दुष्टता और लम्पटता के चलते मन्नू जी को छला है. लेखन को क्षति पहुँचाई है, उनकी थीम चुराई है, नहीं तो आज मन्नू जी साहित्य को कितना कुछ दे चुकी होतीं! बेशक हम भी यह मानते हैं कि निरंतर लेखन करता हुआ रचनाकार समाज को समय के बदलाव के साथ साहित्य के बदलाव को चित्रित करता जाता है. मन्नू जी भी आवाज बुलंद करती हुई अपनी रचना साहित्य को अर्पित करतीं.
लेकिन मन्नू जी का काम राजेन्द्र यादव ने रोका, उनके लेखन में अड़ंगा लगाए, ये सब बेकार की बातें हैं. कोई किसी को नहीं रोक सकता. रोकेगा तो कब तक रोकेगा और फिर मन्नू भंडारी इतनी निरीह, मासूम और नादान नहीं हैं कि रुक जाएँ. उन्होंने अपने रसूखवाले पिता से विद्रोह किया है जिनके मुकाबले राजेन्द्र यादव किस खेत की मूली हैं! और फिर जो मैनें देखा है, राजेन्द्र जी को तो संपर्क में आया आदमी बिना लेखन किए सुहाता नहीं. दफ्तर में वीना, दुर्गा और किशन भी लेखक हो जाएँ तो उनका मन और कार्यालय खिल उठे.
मन्नू जी के लिए तो राजेन्द्र जी के लिखे सम्पादकीय गवाही देते हैं कि किसी न किसी बहाने वे मन्नू भंडारी का जिक्र ले ही आते हैं. यह बात सारे पाठक जानते हैं, निहितार्थ न समझ पाते हो, यह दीगर बात है.
अब किसने किस
को छला ?
पति-पत्नी का रिश्ता सीधा-सादा चले तो इससे आसान कोई राह नहीं और अगर कुछ उलझ जाए तो दाम्पत्य लड़खड़ाने लगता है. धोखे बाजियों के हाथ और छल-प्रपंचों के जाल में यहाँ कौन आया कौन नहीं, इसका फैसला एकतरफा नहीं होना चाहिए. क्या मीता इस प्रपंच की शिकार नहीं हुई ? उन्हें अपने नाम तक से बेदखल कर दी यादव दम्पती ने. कौन है मीता ? कैसी है मीता ? कितनी मीताएँ हैं शामिल? आप कल्पना करते रहिए, मीता को असली नाम पर गुमशुदा ही पाएंगे. पाठक भी ठगा सा रह जाता है और मीता भी क्या आश्वस्त होती होगी ?
बेशक, विवाह प्रेमी-प्रेमिकाओं को अपने वजूद से बेदखल करके ही मानता है. प्रेमियों के अस्तित्व का खात्मा यहीं होता है. हवन कुंड की आग में स्मृतियों को जलाने का नियम है. इसलिए तो वैवाहिक प्रेम की जिंदगी को सुरक्षित मान लिया गया है. इसी प्रकार के प्रेम को साधते रहना विवाह की आदर्श स्थिति है. सवाल उठता है कि साधने की जरूरत क्यों पड़ती है ? क्या वैवाहिक प्रेम में अपना बल नहीं होता कि उसे तमाम व्रत-उपवासों, सुहागिक गहनों और मांग सिंदूर और माथे की बिंदियों के रूप में पताका-सा फहराते रहना होता है.
मगर यह प्रेम होता है हम नहीं मानते क्योंकि जहाँ स्त्री-पुरुष को साथ रहकर सेक्स करने और बच्चा पैदा करने की सामाजिक अनुमति मिलती है, वहाँ प्यार की तड़प का क्या मतलब ?
राजेन्द्र जी, सोचना तो यह भी लाज़मी है कि आप विवाह की ओर बढ़ लिए, लेकिन मोहब्बत की तलब से छुटकारा नहीं पा सके. मीता छूट गई लेकिन प्यार ने अपना पीछा नहीं छोड़ा क्योंकि वह आपकी अनुभूत भावना थी. इसी भावना की खोज में कभी आप भरे-पूरे हुए तो कभी आप लुट-पिटकर बेघर हो गए. कभी प्रेम के शहंशाह तो कभी गृहस्थ से धक्के खाते फकीर. ऐसे में ही जब कभी किसी स्त्री में आपकी डगमगाती कश्ती की पतवार थाम ली तो आप किनारों की आस में बह उठे.
आप मानने लगे कि आप शादी के लिए नहीं बने थे. शादी का फैसला आपको ता जिंदगी चिढ़ाता रहा. क्या यहाँ हम यह न मान लें कि प्रेम की पहचान में आप चूक गए या विवाह और प्रेम के मामले में आप कनफ्यूज्ड रहे. कितने बुद्धिशील और तर्कवादी आप थे, स्त्री के मामले में आपकी समझदारी पर प्रश्नचिन्ह लगते रहेंगे. किसी स्त्री ने आपकी प्रतिभा का लोहा माना और आपको वर के रूप में चुना. यह कैसा तालमेल है ? पत्नी का अधिकार लेकर अपनी लेखकीय आकांक्षाओं को आसान गति देने के लिए राजमार्ग खोज लिया. बहुत खूब, उनका सोचा-समझा सब कुछ हुआ, आप ही सद्गृहस्थ नहीं बन पाए. पिता बने पर पिता के कर्तव्ष्य क्या होते हैं, कंटस्थ नहीं किए. आप प्रेमी कदापि नहीं थे यहाँ, पति थे, याद क्यों नहीं रहा ?
वैसे यह तो होता आया है जो आपके मामले में भी हुआ कि पाणिग्रहण संस्कार के बाद पति-पत्नी के बीच लाख छल-छदमों का दौर चले, पत्नी घाटे में नहीं रहती. वह हक रखती है अपने कैसे भी व्यवहार-बर्ताव का, मोह का या क्रूरता का, इंसाफ का या नाइंसाफी का, वह बदनाम नहीं होती क्योंकि वह धर्मपत्नी होती है. क्योंकि उसके पास सारे हकों और गरिमामय जीवन के लिए वैवाहिक सनद के रूप में अचूक ताबीज होता है जिसे मंगलसूत्र या सुहाग कहते हैं.
मगर प्रेमिका ? प्रभा खेतान की आत्मकथा यहीं तो कहती है कि मंगलसूत्र की महिमा युगों-युगों से है...
फिर क्यों प्रेम करती हैं स्त्रियाँ ? प्रेम के बिना जिन्हें जीवन सूना लगता है, वे ऐसी ही योद्धा होती हैं जैसे एक वीर आदमी का युद्ध के मैदान में जाए बिना दिल नहीं मानता.
बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं कि मन्नू भंडारी का नाम ख्यात लेखिका के लिए तो रहेगा ही लेकिन राजेन्द्र यादव की पत्नी के रूप में अमर रहेगा, ऐसे ही जैसे कि पत्नी का नाम रहता है. मीता को कितने लोग जान पाएंगे ? कितने लोगों को पता चलेगा कि मीता ने ही स्त्री की स्वतंत्रता का सूत्र राजेन्द्र यादव को पकड़ाया था ?
मैं यह दावा करती हूँ कि राजेन्द्र यादव नाम का व्यक्ति, जिसे आप महान लेखक और चिंतक और अद्भुत विचारक मान रहे हैं, वह आजीवन मीता की जैसी मोहब्बत के लिए तरसता और तड़पता रहा. यहाँ न कोई छल था, न छदम था, न धोखेबाजी का खेल, सब कुछ मोहब्बत के रसायन में घुला हुआ और ईमानदार पछतावे.
मीता! आपके पास आज भी वह साड़ी जरूर होगी जो बिहार से आई खास मधुबनी चित्रकारी में सज्जित थी. मेरे सामने वह दृश्य ज्यों का त्यों है कि राजेन्द्र जी की तीमारदारी के बाद विदा बेला आती जा रही थी. मगर मनुहार थे कि नित नए ताजा.‘ ठहर जाओ कुछ दिन और.’
‘अभी ना जाओ छोड़कर...’ किसी ने गाया नहीं, लेकिन हर कोने से पुकार...
हम लोग मयूर विहार के हिन्दुस्तान अपार्टमेंट के फ्लैट के ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठे थे. राजेन्द्र जी सामने वाले सोफे पर ऐन मीता के सामने...दृश्य था कि मुग्ध समय!!
सुनहरे रेशम
की साड़ी पर मधुबनी कलाकारी. राजेन्द्र जी को मीता के लिए यही साड़ी पसंद आई.
उनकी गोद में धर दी वह सौगात.
हमे लगा वे अपनी प्रीति का दुशाला ओढ़ा रहे है. मीता की अपनी मोहब्बत की चादर के ऊपर जिस पर दूजा रंग चढ़ा ही नहीं.
साड़ी, साड़ी नहीं थी, मोहब्बत का परचम थी. राजेन्द्र जी का बीमार चेहरा अपनी रंगत में पीला-पीला नहीं था. प्रेम ही प्रेम था जिसके हम चश्मदीद गवाह बने. न जाने कितने अधूरी इच्छाओं और दमन से बनी लौह कड़ियाँ टूटती चली जा रहीं थी. वे चुपचाप बैठी थी और मेरा दिल भर आया. राजेन्द्र जी उन्हें निहार रहे थे कि अब न जाने कब मिले...
पूरे बीस दिन का साथ रहा, एक अरसा जैसा गुलजार दिन और तारो भरी रातें!
प्यार की अपनी
माँग, अपनी जिद, घर ने आजादी दे दी.
जिन्दगी का
बढ़ा हिस्सा है बिछोह, मोहब्बत ने समय का हिसाब माँग लिया.
अलग होना था, अलग हो गए .
दूर जाना था, दूर चले गए मगर मन गुँथा रह गया आपस में. वियोग की एक न चली. राजेन्द्र जी
मीता का गीत गाते रहें.
(राजकमल पप्रकाशन से इसी वर्ष प्रकाशित 'वह सफर था कि मुकाम था' का एक हिस्सा)
(राजकमल पप्रकाशन से इसी वर्ष प्रकाशित 'वह सफर था कि मुकाम था' का एक हिस्सा)
मैत्रेयी पुष्पा
30नवम्बर 1944 (सिकुर्रा)
अलीगढ़
उपन्यास
बेतवा बहती रही, इदन्नमम,
चाक, झूला नट, अल्मा
कबूतरी, अगनपाखी, विज़न, त्रियाहठ, कही ईसुरी फाग
कहानी संग्रह
चिन्हार, गोमा हंसती
है, ललमनियां, पियरी का सपना, प्रतिनिधि कहानियां
आत्मकथा
कस्तूरी कुंडल बसे, गुड़िया भीतर
गुड़िया
कथा रिपोर्ताज
फायटर की डायरी, चर्चा हमारा,
खुली खिडकियॉं, सुनो मालिक सुनो
सम्मान
सार्क लिटरेरी अवार्ड, द हंगर प्रोजेक्ट का सरोजिनी नायडू पुरस्कार, प्रेमचंद सम्मान, वीर सिंह जूदेव कथा सम्मान, साहित्यिक कृति सम्मान, कथा पुरस्कार, कथाक्रम सम्मान, साहित्यकार सम्मान, नंजना गड्डू तिरूवालम्बा पुरस्कार, सुधा साहित्य सम्मान
सार्क लिटरेरी अवार्ड, द हंगर प्रोजेक्ट का सरोजिनी नायडू पुरस्कार, प्रेमचंद सम्मान, वीर सिंह जूदेव कथा सम्मान, साहित्यिक कृति सम्मान, कथा पुरस्कार, कथाक्रम सम्मान, साहित्यकार सम्मान, नंजना गड्डू तिरूवालम्बा पुरस्कार, सुधा साहित्य सम्मान
संपर्क
सी - 8, सेक्टर 19, नोएडा, उ.प्र.
सी - 8, सेक्टर 19, नोएडा, उ.प्र.
मैत्रेयी जी की यही बेबाकी हम जैसों को उनके प्रशंसक बनने पर मजबूर करती है.... सलाम.... उनको, राजेन्द्र यादव को... उनके तमाम जीवंत किरदारों को
जवाब देंहटाएंराजेंद्र जी स्वयं में बेमिसाल हैं। हां, वह 'थे' कभी नहीं हो सकते, हमारे जैसे अनेकों लोगों के लिए वह हमेशा आसपास ही महसूस होते रहेंगे।.. मैत्रेयी जी ने पूरे संदर्भ को एकदम चलचित्र की तरह उपस्थित कर दिया है। कई स्थानों पर विचलित करने वाले दृश्य.. इस पीस में उभरने वाली मन्न्ू जी की छवि चिंता में डाल देने वाली है, कई बार गहरे अफसोस से भरने वाली भी.. किसी बीमार सामान्य परिचित व्यक्ति के प्रति भी इस कदर निष्ठुर कैसे हुआ जा सकता है.. और यदि वह व्यक्ति जीवन-पथ पर लंबी दूरी तक साथी रहा हो, तब तो किसी भी असहमति को एक झटके से तिरोहित किया जा सकता है.. बेशक ऐसा ही किया भी जाना चाहिए था.. बहरहाल, रिश्ते व व्यक्तिगत व्यवहारों की ऐसी सारी बातें अब बातें ही हैं.. राजेंद्र जी हमारे साहित्य के एक शिखर हैं, हमेशा रहेंगे.. नमन
जवाब देंहटाएंउस पूरे समय और उसके तमाम अंतर्विरोधों के बीच दो दोस्तों के अनेकानेक जीवन्त प्रसंगों को सामने लाती किताब। कई संस्मरण तो जज़्बात की आंच पर धीमे धीमे पके हैँ।
जवाब देंहटाएंअभी हाल ही में एक रामविलासी आलोचक से सामना हुआ था !! वह अकादमीशियन भी था। मरहूम राजेन्द्र जी को उल्टा-सीधा बोल रहा था। हंस की वैमर्शिकता को गरिया रहा था। राजेन्द्र जी से हिंदी की ब्राह्मणवादी पुरुषसत्ता कहीं इसलिए भी तो द्वेष तो नहीं रखती कि वे स्त्रियों में ख़ासे लोकप्रिय थे ? मैत्रेयी जी का संस्मरण अच्छा लगा। जिस प्रेम की तड़प को वे शब्दों के बीच लाना चाहती थीं वह आयी है।
जवाब देंहटाएंआत्मीय संस्मरण है। इससे कहानी का एक और अदेखा पहलू सामने आता है। फिर भी किसी को भी अंतरंग भावनात्मक सम्बन्धों पर लिखते हुए जजमेंटल होने से बचना चाहिए। ऐसे संस्मरण में तटस्थता ही सबसे बड़ा मूल्य होता है।जजमेंट पाठक पर छोड़ देना चाहिए
जवाब देंहटाएंइस आशा और उम्मीद के साथ कि इसे बस एक टिप्पणी की तरह पढा जाये-जैसा कि होता आया है व्यक्तिगत और लेखकीय विद्वेष की तरह नहीं-
जवाब देंहटाएं'निसंदेह यह हिस्सा बहुत बांधने वाला ठहरा ...और कई वाजिब प्रश्नों से जूझनेवाला भी ..मैत्रेयी जी की भाववादी शैली इसे रोचक और आत्मीय गढ़न देती है ...
पर बाबजूद इस सबके वह चालाकी भी यहां स्पष्ट दीखती है , जिसमें कुछ चेहरों को खल बनाने की कोशिश एक दृश्य और सम्बन्ध रचने से कहीं ज्यादा मुखर है ...वे चेहरे कौन हैं यह हम सभी बूझ रहे हैं ...और तो और इस प्रक्रिया में राजेन्द्र जी भी अछूते नहीं रह जाते.
कुछ प्रश्न है यहा ंजैसे कि मीता का वास्तविक नाम राजेन्द्र जी और मन्नू जी द्वारा न दिया जाना ...मन्नू जी का अस्वस्थता के बाद राजेंद्र जी को अपने घर न ले जाना आदि आदि ...अलग होने मतलब यहां अलग रहने से समझा जायेगी..तो हैरत यह भी है कि जो बातें उनके इर्द गिर्द के अधिकतम लोगों को फ्ता है वो राजेन्द्र जी की इतनी करीबी मैत्रेयी जी नहीं जानती ....
प्रेम में प्रिय पात्र को नये या कहें तो प्रिय सम्बोधनों से नवाजने की एक परम्परा रही है और हम सब यह ज़ानते हैं कि ऐसा इसलिये कदापि नहीं कि हम सामने वाले को उसके व्यकित्व से उसके नाम से बेदखल याकि वंचित करना चाहते हैं ....
मैत्रेयी जी ने जैसा कि खुद लिखा है कि अब भी उम्र की इस अवस्था में भी राजेन्द्र जी उनके सम्मान और चिंता में इस तरह जुडे और उलझे थे की उन्होने फोन करने के लिये मैत्रेयी जी से कहा ...वे खुद ही अगर फोन कर लेते, यां फिर मीता जी की भाभी जी उन्हें दो चार सुना ही लेती कुछ तो इसे उन्हें या इन्हें कितना फर्क पड़ने वाला था ...
Bilkul sahi aur jahan tk mujhe lgta h Rajendra ji ki habits bn gyi thi mnnu ji ko preshan krne unki life me sabke liye time tha Sirf mnnu ji ke liye nhi
हटाएंऔर जहां तक नाम का प्रश्न है, दुनिया जाने कि ना जाने उनका हर करीबी जानता है ...
जवाब देंहटाएंनिसंदेह मैत्रेयी जी भी जानती होंगी ...पहले ना भी पता हो तो फोन करने के क्रम में या फिर उन बीस दिनों में ज़रूर जान गई होंगी .जो साहस दो कमजोर लोग नहीं कर सकें, वो साहस हमेशा से ही अपने लेखन में साहसिक रही मैत्रेयी जी को तो दिखाना ही चाहिये था ...
रहा सवाल मन्नू जी का तो इस पर साधिकार कुछ इसिलिये कह सकती हूँ क्योंकि एक वक्त पर मैं तीन दिनों तक रोज जाकर उनका इंटरव्यू करती रही थी ...जो किसी पत्रिका के लिये थी, पर बाद में मैने यह तय किया कि इसे कहीं भी न दूं ...ध्यान देने वाली बात यह कि तब तक मैं सभी इंटरव्यू लिखकर ही करती थी ,यह पहली बार था कि राजेंद्र जी ने मुझे एक छोटा सा टेप रिकार्डर थमा दिया था ...और किशन ही मुझे वहां रोज छोड़ने जाया करता था ...
खैर इतर बातों से अलग बात फिर उसी मुद्दे की. मन्नू जी ने तब कहा था समकालीन भारतीय साहित्य और फिर अनेक जगह आये उस आत्मकथा अंश के लिये -मेरी कलम वहीं आकर रुक गई थी जहां से बातें उस तीसरी स्त्री मीता की शुरू होती है ...मैं अपनी तरफ और अपने अनुभवों से कैसे किसी को तोल या फिर हेय साबित कर सकती थी ...मैं जो भी लिखती वह मेरा निजी मत होता मेरे निजी विचार ...पर राजेंद्र ने जब मुड़ मुड़के देखता हूँ लिखा तो मुझे लगा मैं ही संकोच करती रही राजेन्द्र तो आखिर लिख ही गये. यह वो ही सद्भाव है एक स्त्री का दूसरी के प्रति कहें तो लेखक से भी इतर स्त्री के स्त्री के प्रति सम्मान को रेखांकित करता है, जहां वे बार बार कहती है कि मीता क्या सोचती थी ...उसने शादी से क्यों इंकार किया ...इंकार करने के बाद भी वह चाहे राजेन्द्र के अनुरोध पर ही सही उनकी ज़िंदगी में क्यों लौटी ...यह तो सिर्फ मीता ही बता सकती है ... हम दो लोग चूंकि लेखक ठहरे अपनी तरफ से उसे दोषी और निर्दोष साबित करने वाले होते कौन हुए?
मन्नू जी वाला यह सद्भाव निसंदेह मैत्रेयी जी के इस संस्मरण में नहीं दिखाई पड़ता ...
लगता है जैसे सबसे ज्यादा दुख मैत्रेयी जी को मन्नू जी की उनके शब्दों में ही कहें तो मन्नू जी के
सती-सावित्री वाली छवि,और उनके उस अपार यश और लोकप्रियता से ही है ...और इस लेख का मुख्य मकसद भी कहीं इसी के इर्द गिर्द है ....
हां मन्नू जी खुद राजेन्द्र यादव से अलग हुई ..उनके इस निर्णय में सिर्फ उनकी बेटी ही नहीं परिवार के अन्य स्त्रियों की भी सहमति थी ...ज़िनमे उनकी नन्दें भी शामिल थी...मतलब राजेन्द्र जी की सगी बहने भी ....
निर्णय लेने का हक हम सबको है ...जिस तरह मीता को अपने तमाम प्यार के बाबजूद शादी ना करने का हक ...उन बीस दिनों में बुलाये जाने पर आने और फिर चले जाने यानी रोके जाने के बाबजूद नहीं रुकने का हक, जिस तरह राजेन्द्र जी के ज़िंदगी के कुछ अंतिम सालों में एक बहस में अपने समर्थन में न पाने पर राजेन्द्र जी से दूरियां बना लेने और बार बार बुलाने पर भी मैत्रेयी जी का न आने का हक ...ठीक उसी तरह मन्नू जी का भी निर्णय ...या फिर कहें तो हक ...
गोकि तबतक दोनों अलग अलग रहने लगे थे तो अगर मन्नू जी से शादी करने का निर्णय अगर एक गलत निर्णय था तो उसे सुधारने का समय था यह, मीता और राजेन्द्र जी दोनों के लिये ...पति नामधारी उस निरीह प्राणी से मुक्ति का वह समय ज़िसकी दुहायी मैत्रेयी जी यहां बार बार देती दिखती हैं ...
गोकि यह संभव ना हुआ ...और इसमें भी कहीं ना कहीं मीता की ज़िद के साथ साथ राजेन्द्र जी के उस आत्म सम्मान का भी हाथ हो, जहां तमाम प्यार के बाबजूद ठुकराये जाने के साथ मन्नू जी के द्वारा सहर्ष सगर्व अपनाये जाने की वह नामालूम सी चेतना भी कहीं शामिल हो.'
मैत्रेयी जी का लेख बडी सहृदयता से और तटस्थ भाव से लिखा गया हूँ । उन्हें बधाई देता हूँ । मैं भी राजेन्द्र यादव के सम्पर्क में आया था । वे एक जीवन्त व्यक्ति थे ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंबहुत ही आत्मीय और पाठक को भावुक कर देने वाला संस्मरण है। शायद 'मीता' को लेकर मेरी जानकारी में इस तरह पहले किसी ने नहीं लिखा है। लेकिन मन्नूजी और रचनाजी के लिए जिस तरह मैत्रेयीजी इस संस्मरण में निर्णयात्मक दिख रही हैं, वह इसे निर्दोष तो नहीं ही रहने देता, इसके लिखे जाने की मंशा को भी प्रश्नांकित कर जाता है। क्या ही अच्छा होता यदि मैत्रेयीजी ने तटस्थता का निर्वाह करते हुए उन परिस्थितियों की व्याख्या का अधिकार अपने पाठकों-प्रशंसकों के जिम्मे छोड़ दिया होता! तब इस आत्मीय और तरल गद्य को हम पारदर्शी भी कह पाते और प्रतिक्रिया में हमारी जुबान से सिर्फ 'वाह' निकलता। फिलहाल हम 'आह!' कहने को ही विवश हैं।
जवाब देंहटाएं1977 म्जेइन मन्नू जी के हाथों जोधपुर में "संभावना कथा पुरस्कार" प्राप्त करते हुए औपचारिक रूप से मिलना हुआ था । उन्हीं दिनों मैं "एक इंच मुस्कान" पढ़ रहा था । कई समीक्षकों ने मन्नूजी के लिखे अध्यायों की बहुत तारीफ की है पर मुझे उन दिनों भी राजेन्द्र यादव के लिखे अंश अधिक अपील कर रहे थे । सम्भवतः 1988 में राजेंद्र यादव जी से श्रीडूंगरगढ़ में तीन दिवसीय आयोजन में खूब अनौपचारिक रूप से मिलना हुआ । बहुत सी बातों पर उनसे घनघोर असहमतियों के बावजूद राजेन्द्र जी मुझे जीवंतता और प्रतिभा से लबरेज़ लगे ।
जवाब देंहटाएंबेशक वे विवाह के लिए बने ही नहीं थे । कम से कम मन्नू जी से शादी का फैसला तो बेशक गलत ही था । इसमें मन्नू जी का दोष नहीं । उनकी प्रुकृति और राजेंद्र जी एक दूसरे के लिए बने ही नहीं थे ।
बेशक दोनों रचनाकारों की रचनात्मकता पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ा है जिसका अनुमान लगाना भी सम्भव नहीं । मैत्रेयी जी की राजेन्द्र जी से मित्रता पर बात फिर कभी ।
मन्नु जी और राजेन्द्र जी में अलगाव की वजह गुप्त नहीं है
जवाब देंहटाएंमैत्रेयी जी से मिलना और उनको पढ़ना हमेशा ही सुखद रहा है.बावजूद इसके कहना यह है कि इक्कीसवीं सदी के युवा हिन्दी पाठकों (यदि वह कहीं है) की अब इन संस्मरणों में शायद ही रूचि होगी.वजह यह कि रोजाना अनेकानेक विकृतियों से दो-चार होने के बावजूद भारतीय समाज में पहले के मुकाबले काफी बदलाव आया है.किसी महानगर में स्थित तमाम विश्वविद्यालय परिसरों में उपलब्द्ध स्वछंदता के मद्देनज़र है अब हिन्दी विभाग के विद्यार्थियों की मीता के किस्से में क्या दिलचस्पी होगी.किसी भी स्त्री या पुरुष के निजी जीवन में विचलन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.ऐसे में किसी लेखक के निजी जीवन की अन्दुरुनी बातों का महिमा मंडन करना अब शायद प्रासंगिक न हो.
जवाब देंहटाएंराजेंद्र जी को पूरा हिंदी जगत उनकी पारदर्शिता के लिए पारदर्शिता के साथ प्यार करता रहेगा।
जवाब देंहटाएंहंस पत्रिका के संपादकीय लेखों का इंतज़ार इस जीवन के प्रखुख इंतज़ारों में शामिल रहा है । राजेंद्र यादव जी इस देश के एक श्रेष्ठतम लोकतांत्रिकीय व्यक्तित्त्व थे जो खुद आलोचना करने के साथ ही स्वयं की आलोचना ऐसे सुनते समझते थे मानो खुद ही खुद के आलोचक हों , आपका व्यक्त्तिव अनूठा था , कोई तुलना ही व्यर्थ होगी ।
जवाब देंहटाएंमन्नू भंडारी जी की शालीन खामोशी ही बहुत कुछ संवाद कर रही है इस सब "storm in tea cup'' हल्ले में
जवाब देंहटाएंज़ाहिर सी बात है,राजेन्द्र यादव को "बेहतर" जानने का दावा करनेवाले मन्नू जी के लिए नकारत्मकता ही परोसेंगे
आज राजेन्द्र जी अपना पक्ष रखने को हैं नही ,मन्नू जी अपनी dignified silence maintain करेंगी ,बाकी लोग आधी हक़ीक़त,आधा फ़साना ले कर व्यस्त हैं
लेखकों संपादकों को राजेन्द्र यादव के व्यक्तित्व और असहमति की ताकत पहचानना सीखने की बड़ी जरूरत है !
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र यादव जी की तर्क-क्षमता गजब की थी , सामाजिक-राजनीतिक विमर्शों को लेकर उनके सम्पादकीय का मैं क़ायल रहा हूँ. हंस में प्रकाशित रचनाओं के साथ ही सम्पादकीय पढने के लिए अधिक उत्सुक रहा करता.
जवाब देंहटाएंमीता का योगदान राजेन्द्र जी के जीवन में मन्नू भंडारी से अधिक मैत्रेयी जी ने माना है। वैसे राजेन्द्र जी से मेरी एक मुलाक़ात है, वह बहुत लोकतान्त्रिक और अलग तरह के इंसान थे। विश्व पुस्तक मेल में जब मनोहर श्याम।जोशी का क्याप आया तो मैंने उन्ही से उसका अर्थ पूछ लिया। उनके साथ राजेन्द्र जिनके।अलावा विष्णु खरे भी बैठे थे। राजेन्द्र जी ने मनोहर श्याम जोशी से तुरन्त कहा तुम कोई आसान से शब्द का शीर्षक नहीं चुन सकते थे। जोशी जी ने फिर मुझे क्याप का अर्थ भी बताया।
जवाब देंहटाएंमैत्रेयी जी जैसी वरिष्ठ और सुसंस्कृत लेखिका की कलम से अपने Mentor राजेन्द्र यादव जी के लिए 'अपंग,अपाहिज'शब्दों का प्रयोग आहत करने वाला और शर्मनाक है !इसके अलावा, मन्नू जी की नकारात्मक छवि उकेरने का कार्य और भी खेदजनक है ! अगर कोई भी रचनाकार - वरिष्ठ या नवोदित - किसी अन्य लेखक पर अपमानजनक प्रहार करता है तो, यह उस प्रहारी की कुण्ठा का प्रमाण है ! जब वह वार करने वाली, मैत्रेयी जी जैसी बुज़ुर्ग और वरिष्ठ लेखिका हो, तो मामला दुगुना-चौगुना अफसोसनाक हो जाता है ! फिर , जो मन्नू भंडारी जी अपनी सादगी, निश्छलता और बेजोड़ लेखन के लिए जानी जाती है ,जिनका व्यक्तिगत और लेखकीय जीवन निर्विवाद और निर्विकार रहा हो, जिन्होंने वैवाहिक जीवन में कष्ट और वेदना ही झेली हो और फिर भी , आज तक कभी किसी के खिलाफ एक शब्द न कहा हो, ऐसी उम्दा इंसान पर ' निराधार' तीर चला कर उस इंसान को आहत करना, अक्षम्य अपराध है !
जवाब देंहटाएंDerogatory & Offensive writing that hurts anybody's dignity , should be discarded & banned as per law.And we should not forget that when we use the word ' Derogatory' , it means '' ......the text is redundant,, filled with trivialities, disparaging , insulting & disrespectful remarks.
जवाब देंहटाएंSanjeev Chandan wrote on his Facebook wall -
जवाब देंहटाएं(You people think, what a trash this book carries..)
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.मैत्रेयी पुष्पा की किताब (वह सफ़र था कि मुकाम था) से वे कुछ वाक्य और प्रसंग जो मैं समझ नहीं पा रहा , शायद आप समझा पायें.
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1, यह सब राजेंद्र जी किसके लिए कह रहे हैं? क्या वे नहीं चाहते कि उनकी पत्नी उनकी बूढ़ी मर्दानी अक्षमता समझें और जवान औलाद के सामने इस प्रकरण को न उघाडें. नहीं चाहते ऐसा कुछ?
समझ नहीं पा रहा कि 'यह बूढ़ी मर्दानी अक्षमता' जिसे जवान औलाद के सामने नहीं खोलना है, तब लगभग 65 के हो चुके राजेंद्र जी के लिए तब 50 साल की मैत्रेयी का सम्मानित और प्रेम भरा उदगार है या किसी गुप्त पीड़ा का बदला लेने की सुप्त इच्छा, जो वे अब व्यक्त कर रही हैं. क्या यह किसी सखा की पंक्तियाँ हो सकती हैं अपने सखा के लिए- सखेव सख्युः भाव वाले राजेंद्र जी के प्रति यह कौन सा गुप्त आक्रोश है?
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2. यहाँ गाँव और शहर का फर्क नहीं होता. यहाँ अमीर गरीब की बात नहीं होती. मौक़ा लगे तो दलित भी अपने पुरुष होने को परिभाषित कर देता है.
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समझ नहीं पा रहा कि मैत्रेयी यहाँ किस मानस और दलितों के लिए किस स्टीरियो टाइप के भाव से अपनी बात कह रही हैं, क्या बायनरी बना रही है गाँव-शहर और अमीर गरीब का. क्या कहना चाह रही दलितों के बारे में- दलित माने दलित, पुरुष नहीं पुरुष तो सवर्ण ही होगा. मैंने बहुत कोशिश की इसे दलित स्त्री के व्यू प्वाइंट से समझने की लेकिन पूरा संदर्भ एक सवर्ण लोकेशन का है. मैत्रेयी भले ही ब्राह्मण परिवार में पैदा होकर यादव परिवार में पली-बढीं, लेकिन क्या वे ब्राह्मण-बोध और समझ से यह वाक्य नहीं लिख रहीं.
इसे पढ़ना अनिवर्चनीय अनुभूति सा सुखद रहा,कुछ प्रश्न भी जन्मे मन में
जवाब देंहटाएंइस त्रिकोण में किसी को नायक नायिका का दर्जा देना उचित नहीं लगता।हालातों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।पर अगर भूमिका के लिहाज से देखा जाए तो राजेन्द्र की भूमिका कायर इंसान की रही है।अगर संघर्ष के नजरिए से देखा जाए तो मन्नू जी का जीवन संघर्ष व रचनात्मक संघर्ष अभिनंदन योग्य है।आज ही उनकी "एक कहानी यह भी" पढ कर पूरी की है।मैत्रेयी जी एक स्त्री होकर भी मन्नू जी के प्रति न्याय नही कर सकी हैं इस लेख में।
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