मध्यकाल के कवि केवल कवि नहीं थे, जैसे कबीर निरे कवि नहीं हैं, रैदास भी उसी तरह से भारतीय समाज की विसंगतियों के बीच पथ-प्रदर्शक, और नेतृत्वकर्ता की भूमिका का निर्वहन कर रहे थे. मध्यकाल के सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष धार्मिक मुहावरों में खड़े किये जाते थे और लड़े जाते थे.
'गुरुग्रन्थ साहब' में कई संत कवियों
की कविताओं को सम्मलित किया गया है. उनमें से संत रैदास के छह पदों का आज की हिंदी
कविता की शैली में रूपांतरण सदानंद शाही ने किया है और संत रैदास के आदर्श राज्य की कल्पना
बेगमपुर पर एक टिप्पणी भी लिखी है.
संत रैदास और कबीर एक नया शहर बसाना चाहते थे. उस शहर का नाम उन लोगों ने रखा था ‘बेगमपुर’. रैदास इस शहर के मुख्य आर्किटेक्ट थे. उन्होंने बेगमपुर का नक्शा बनाया था जिसमे उन्होंने अपनी कल्पना के शहर की खूबियाँ बताई हैं.
संत रैदास के पद
सदानन्द शाही
सदानन्द शाही
संत रैदास और कबीर एक नया शहर बसाना चाहते थे. उस शहर का नाम उन लोगों ने रखा था ‘बेगमपुर’. रैदास इस शहर के मुख्य आर्किटेक्ट थे. उन्होंने बेगमपुर का नक्शा बनाया था जिसमे उन्होंने अपनी कल्पना के शहर की खूबियाँ बताई हैं.
उन्होने शहर का नाम रखा बे-गमपुर. यहाँ रहने वाले को न कोई दुख होगा न ही किसी तरह की चिन्ता होगी. किसी तरह का टैक्स देने की फिक्र नहीं होगी. उस
शहर में न किसी तरह का अपराध होगा न ही दण्ड का विधान. किसी को किसी तरह का भय भी
नहीं होगा सब निर्भय होंगे. यहाँ की शासन व्यवस्था सुद्र्ढ़ होगी. वह खौफ के बल पर
नहीं, बल्कि प्रेम और सद्भाव के बल
चलेगी. इस शहर के सभी नागरिक निर्भय होकर
रहेंगे. यह ऐसा खूबसूरत वतन होगा जहाँ
खैरियत ही खैरियत होगी.
इस शहर की बादशाहत मजबूत और मुकम्मल होगी. किसी को संविधान विरुद्ध कुछ करने का साहस नहीं होगा. इस शहर के सभी रहवासी अव्वल दर्जे के नागरिक
होंगे. किसी को भी दूसरे या तीसरे दरजे का
नागरिक नहीं समझा जाएगा. किसी से भेद भाव नहीं किया जाएगा. भरपूर रोजी रोटी और आबोदाना के लिए यह शहर मशहूर होगा.
इस शहर में रहने वाले सुखी और हर तरह से सम्पन्न होंगे. किसी पर कोई रोक टोक नहीं होगी. जिसका जहाँ कहीं भी जाने का मन करेगा वह वहाँ आ जा सकेगा. ऐसे शहर की कल्पना संत रैदास ने की है. सभी तरह के मोह और बन्धनों से मुक्त संत रैदास की संगत उसे ही नसीब होगी जो उनके सपनों
के शहर बेगमपुर का नागरिक होगा.
अगर हम भेद-भाव रहित समता पर आधारित
समाज बनाना चाहते हैं तो इस नक्शे को फिर से खोजना होगा. जाहिर है यह नक्शा और कहीं नहीं रैदास की कविता
मेँ ही मौजूद है. इसलिए जरूरी है कि रैदास कि कविता को आग्रह मुक्त होकर पढ़ा जाय. इसी पढ़ने के क्रम मेँ
रैदास के कुछ पदों का आधुनिक हिन्दी कविता के ढंग मेँ रूपांतर हो गया है, जिसे यहाँ साझा कर रहे हैं. आइये इन पंक्तियों के सहारे
बेगमपुर का नक्शा तलाशने की कोशिश करें.
अरे हे अनंत !
हे अंतर्यामी !
तोही मोही मोही तोही अंतरु कैसा ।
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत का दूसरा पद सिरी रागु, राग- गउडी
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत का तीसरा पद,राग गउडी
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत रैदास का चौथा पद,राग गउडी
जैसे कुएं का मेढक
देश विदेश की खबर नहीं जानता
वैसे ही विषयों के मोह में पड़ा
मेरा मन
लोक परलोक कुछ नहीं समझता।
(इसलिए)
हे सभी भुवनों के नायक !
बस एक क्षण के लिए दर्शन दे दो
हे माधव ! मलिन हो गयी है मेरी मति
तुम्हारा मर्म समझ नहीं पाता
कृपा करो, मेरा भ्रम दूर करो
मुझे सुमति देकर मर्म समझा दो
तुम्हारे गुण की अपार महिमा
योगी जन भी नहीं समझ पाते
उसे प्रेम भक्ति के नाते
रैदास चमार कह पा रहा है।
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत रैदास का पांचवा पद गउडी पूरबी
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत रैदास का छठा पद गउडी बैरागनि
सतिजुगि सतु तेता जगी
प्रभु की पहचान भी अपने जन से होती है(एक)
तुझमे मुझमें, मुझमें तुझमें अंतर क्या
सोना और सोने के कंगन में
जल और तरंग में भेद कैसा ?
अरे हे अनंत !
जो हम न करते होते पाप
तुम्हारा नाम पतित पावन कैसे होता ?
हे अंतर्यामी !
तुम जो यह नायक बने हुये हो
बताओ तो ज़रा !
ठीक है कि-
प्रभु से ही होती है जन की पहचान
लेकिन यह भी तो उतना ही सच है कि
प्रभु की पहचान भी अपने जन से होती है।
हे मेरे प्रभु !
ऐसा विचार दो
कि शरीर तुम्हारी आराधना करे।
अरे ! रैदास को कोई समझावे
(कि) सब (जन) समरस हैं
सब (जन) एक हैं ॥
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत का पहला पद, सिरी रागु
तोही मोही मोही तोही अंतरु कैसा ।
कनक कटिक जल तरंग जैसा । 1 ।
जउ पै हम पाप न करता अहे अनंता ।
पतित पावन नामु कैसा हुंता । । 1 । ।
तुम्ह जु नाइक आछहु अंतरजामी ॥
प्रभु ते अनु जानीजे जन ते सुआमी ॥ 2॥
सरीरु आराधे मो कउ बीचारु देहू ॥
रैदास समदलु समझावे कोऊ॥ 3॥
(दो)
मत करो देर
मेरी संगति बुरी है
मेरे कर्म कुटिल हैं
बुरा है मेरा जनम
दिन रात इसी सोच में डूबा रहता हूँ
हे मेरे राम गुसाईं!
मेरे प्राणों के प्राण !
मुझे भुलावों मत
मैं तुम्हारा हूँ ।
मेरी विपदा दूर करो
यही तुम्हारा सहज सुभाव है
नहीं मैं नहीं छोडूँगा तुम्हारे चरण
मिट जाएगा मेरा चैन॥
रैदास कहता है
तेरी सभा में पड़ा हुआ हूँ
मेरे कर्म कुटिल हैं
बुरा है मेरा जनम
दिन रात इसी सोच में डूबा रहता हूँ
हे मेरे राम गुसाईं!
मेरे प्राणों के प्राण !
मुझे भुलावों मत
मैं तुम्हारा हूँ ।
मेरी विपदा दूर करो
यही तुम्हारा सहज सुभाव है
नहीं मैं नहीं छोडूँगा तुम्हारे चरण
मिट जाएगा मेरा चैन॥
रैदास कहता है
तेरी सभा में पड़ा हुआ हूँ
मत करो देर
अपने जन से जल्दी मिलो॥
अपने जन से जल्दी मिलो॥
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत का दूसरा पद सिरी रागु, राग- गउडी
मेरी संगति पोच सोच दिनुराती ॥
मेरा करमु कुटिलता जनमू कुभांती॥ 1॥
राम गुसईयां जीअ के जीवना ॥
मोही न विसारहु मैं जनु तेरा ॥ 2॥ रहाउ॥
मेरी हरहु विपति जन करहु सुभाई ॥
चरन न छाड़उ सरीर कल जाई ॥2॥
कह रैदास परउ तेरी साभा
बेगी मिलहु जन करि बिलांबा ॥3॥
मेरा करमु कुटिलता जनमू कुभांती॥ 1॥
राम गुसईयां जीअ के जीवना ॥
मोही न विसारहु मैं जनु तेरा ॥ 2॥ रहाउ॥
मेरी हरहु विपति जन करहु सुभाई ॥
चरन न छाड़उ सरीर कल जाई ॥2॥
कह रैदास परउ तेरी साभा
बेगी मिलहु जन करि बिलांबा ॥3॥
(तीन)
मेरा शहर है बेगमपुर
मेरा शहर है बेगमपुर
यहाँ न दुख है न दुख की चिन्ता
न माल है न लगान देने की फिक्र
न खौफ, न खता न गिरने का डर
मुझे मिल गया है ऐसा खूबसूरत वतन
जहाँ खैरियत ही खैरियत है।
यहाँ न दुख है न दुख की चिन्ता
न माल है न लगान देने की फिक्र
न खौफ, न खता न गिरने का डर
मुझे मिल गया है ऐसा खूबसूरत वतन
जहाँ खैरियत ही खैरियत है।
मजबूत और मुकम्मल है यहाँ की बादशाहत
यहाँ न कोई दोयम है न तेयम
सब अव्वल हैं यहाँ
आबोदाना के लिए मशहूर
यह शहर
दौलतमन्दों से
अटा पड़ा है
जिसे जहाँ भावे वहाँ जाये
नहीं है
कहीं कोई रोक टोक
सभी बन्धनों से मुक्त
रैदास चमार कहता है
जो इस शहर में रहने वाला है
वही मेरा मित्र है।
यहाँ न कोई दोयम है न तेयम
सब अव्वल हैं यहाँ
आबोदाना के लिए मशहूर
यह शहर
दौलतमन्दों से
अटा पड़ा है
जिसे जहाँ भावे वहाँ जाये
नहीं है
कहीं कोई रोक टोक
सभी बन्धनों से मुक्त
रैदास चमार कहता है
जो इस शहर में रहने वाला है
वही मेरा मित्र है।
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत का तीसरा पद,राग गउडी
बेगमपुरा शहर को नाउ॥
दुखू अंदोह नहीं तिहिं ठाउ॥
ना तसवीस खिराजु न मालु ॥
खउफ़ु न खता न तरसु जवालु ॥ 1॥
अब मोहीं खूब वतन घर पाई॥
ऊंहाँ खैरि सदा मेरे भाई ॥ 1॥
काइमु दाइमु सदा पातिसाही ॥
दोम न सोम एक सौ आही॥
आबादानु सदा मसहूर ॥
ऊंहाँ गनी बसहिं मामूर ॥2॥
तिउ तिउ सेल करहि जिउ भावे
महरम महल न को अटकावै ॥
कहि रैदास ख़लास चमारा ॥
जो हम सहरी सो मीतु हमारा ॥
जो हम सहरी सो मीतु हमारा
दुखू अंदोह नहीं तिहिं ठाउ॥
ना तसवीस खिराजु न मालु ॥
खउफ़ु न खता न तरसु जवालु ॥ 1॥
अब मोहीं खूब वतन घर पाई॥
ऊंहाँ खैरि सदा मेरे भाई ॥ 1॥
काइमु दाइमु सदा पातिसाही ॥
दोम न सोम एक सौ आही॥
आबादानु सदा मसहूर ॥
ऊंहाँ गनी बसहिं मामूर ॥2॥
तिउ तिउ सेल करहि जिउ भावे
महरम महल न को अटकावै ॥
कहि रैदास ख़लास चमारा ॥
जो हम सहरी सो मीतु हमारा ॥
जो हम सहरी सो मीतु हमारा
(चार)
मेरे राम का रंग मजीठ है
घट अवघट घने पहाड़ों में
आ गया मेरा यह निरगुन बैल
राम से बस्स एक विनती है
मेरी जमा पूंजी बचा लेना
आ गया मेरा यह निरगुन बैल
राम से बस्स एक विनती है
मेरी जमा पूंजी बचा लेना
है कोई जो राम का सौदा करना चाहे आए
मैं अपना माल लिए जा रहा हूँ
मैं अपना माल लिए जा रहा हूँ
मैं ही हूँ राम का सौदागर
सहज का व्यापारी मैं ही हूँ
मैंने राम नाम का धन लाद लिया है
जबकि दुनिया विष लादे घूम रही है
सहज का व्यापारी मैं ही हूँ
मैंने राम नाम का धन लाद लिया है
जबकि दुनिया विष लादे घूम रही है
यहाँ और वहाँ के ज्ञानीजनों (पंडितों)
जो भी उल जुलूल मन में आए लिख लो
मैंने त्याग दिया है सारा जंजाल
मुझे नहीं लगेगा यमदंड
कुसुंभ के रंग जैसा है यह संसार
रैदास चमार कहता है
मेरे राम का रंग
मजीठ है, मजीठ॥
जो भी उल जुलूल मन में आए लिख लो
मैंने त्याग दिया है सारा जंजाल
मुझे नहीं लगेगा यमदंड
कुसुंभ के रंग जैसा है यह संसार
रैदास चमार कहता है
मेरे राम का रंग
मजीठ है, मजीठ॥
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत रैदास का चौथा पद,राग गउडी
घट अवघट डूगर घणा
इक निरगुणु बैलु हमार ॥
रमईए सिउ एक बेनती
मेरी पूंजी राखु मुरारि॥ 1॥
को बनजारो राम को
मेरा टांडा लादिआ जाइ रे ॥1॥
हउ बनजारो राम को
सहज करउ ब्यापारु ॥
मैं राम नाम धनु लादिया
बिखु लादी संसारि॥2॥
उरवार पार के दानीआ
लिखि लेहु आल पतालु ॥
मोहि जम डन्डु न लागई
तजीले सरब जंजाल ॥3॥
तैसा इहु संसारू ॥
मेरे रमईए रंग मजीठ का
कहु रैदास चमार ॥4॥
इक निरगुणु बैलु हमार ॥
रमईए सिउ एक बेनती
मेरी पूंजी राखु मुरारि॥ 1॥
को बनजारो राम को
मेरा टांडा लादिआ जाइ रे ॥1॥
हउ बनजारो राम को
सहज करउ ब्यापारु ॥
मैं राम नाम धनु लादिया
बिखु लादी संसारि॥2॥
उरवार पार के दानीआ
लिखि लेहु आल पतालु ॥
मोहि जम डन्डु न लागई
तजीले सरब जंजाल ॥3॥
तैसा इहु संसारू ॥
मेरे रमईए रंग मजीठ का
कहु रैदास चमार ॥4॥
(पांच)मेरा भ्रम दूर करो
जैसे कुएं का मेढक
देश विदेश की खबर नहीं जानता
वैसे ही विषयों के मोह में पड़ा
मेरा मन
लोक परलोक कुछ नहीं समझता।
(इसलिए)
हे सभी भुवनों के नायक !
बस एक क्षण के लिए दर्शन दे दो
हे माधव ! मलिन हो गयी है मेरी मति
तुम्हारा मर्म समझ नहीं पाता
कृपा करो, मेरा भ्रम दूर करो
मुझे सुमति देकर मर्म समझा दो
तुम्हारे गुण की अपार महिमा
योगी जन भी नहीं समझ पाते
उसे प्रेम भक्ति के नाते
रैदास चमार कह पा रहा है।
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत रैदास का पांचवा पद गउडी पूरबी
कूपु भरिओ जैसे दादिरा
कछु देसु बिदेसु न बूझ ॥
ऐसे मेरा मनु बिखिया बिमोहिया
कछु आरा पारु न सूझ ॥ 1॥
सगल भवन के नाइका
इकु छिनु दरसु दिखाइ जी ॥1॥ रहाउ॥
मलिन भई मति माधवा
तेरी गति लखी न जाइ॥
तेरी गति लखी न जाइ ॥
करहु क्रिपा भ्रमु चूकई
मै सुमति देहु समझाइ॥2॥
जोगीसर पावहि नहीं
तुअ गुण कथनु अपार ॥
प्रेम भगति के कारणे
काहू रैदास चमार ॥3॥1॥
कछु देसु बिदेसु न बूझ ॥
ऐसे मेरा मनु बिखिया बिमोहिया
कछु आरा पारु न सूझ ॥ 1॥
सगल भवन के नाइका
इकु छिनु दरसु दिखाइ जी ॥1॥ रहाउ॥
मलिन भई मति माधवा
तेरी गति लखी न जाइ॥
तेरी गति लखी न जाइ ॥
करहु क्रिपा भ्रमु चूकई
मै सुमति देहु समझाइ॥2॥
जोगीसर पावहि नहीं
तुअ गुण कथनु अपार ॥
प्रेम भगति के कारणे
काहू रैदास चमार ॥3॥1॥
(छह)भीतर के विविध विकार धुलेंगे कैसे
सतयुग में सत्य
त्रेता में यज्ञ
द्वापर में पूजाचार।
पहले के तीन युगों में
यही तीन साधन थे
कलियुग में है
बस नाम का आधार
पार कैसे पाएंगे
मुझे कोई समझाकर नहिं कहता (वह उपाय)
जिससे छूट जाए आवागमन
(लोग) कई तरह से धर्म का निरूपण करते हैं
जिसे पालते हुये दिखते हैं सबलोग
किन्तु (मालूम नहीं)
वह कौन सा धर्म है
जिससे छूटेगा कर्म का बंधन
वह कौन सा धर्म है
जिसे साधने से
सब सधेगा ?
शंका में डालते हैं
कर्म और अकर्म
विचारने वाले वेद पुराण
हृदय में बसा संशय
और अभिमान कैसे मिटेगा॥
बाहरी जल से पखारते हैं
भीतर के विविध विकार
धुलेंगे कैसे ?
बाहर की शुद्धि तो
हाथी के नहान की तरह है
(जो नहाने के तुरंत बाद बदन पर धूल डाल लेता है)
जैसे सूर्य के प्रकाश (के छू जाने) से
रात की क्या गति होती है
सारा संसार जानता है।
पूर्व में लिखे ललाट का लेख
परम पारस गुरु मिलता है
उनमन मन मन से मिला
खुल गया बज़्र कपाट
भक्ति की युक्ति ने
मति को सत्य कर दिया
भ्रम बंधन विकार
कट गए
भक्ति के रस से मन मिले
गुण निरगुन
एक हो गए
त्रेता में यज्ञ
द्वापर में पूजाचार।
पहले के तीन युगों में
यही तीन साधन थे
कलियुग में है
बस नाम का आधार
पार कैसे पाएंगे
मुझे कोई समझाकर नहिं कहता (वह उपाय)
जिससे छूट जाए आवागमन
(लोग) कई तरह से धर्म का निरूपण करते हैं
जिसे पालते हुये दिखते हैं सबलोग
किन्तु (मालूम नहीं)
वह कौन सा धर्म है
जिससे छूटेगा कर्म का बंधन
वह कौन सा धर्म है
जिसे साधने से
सब सधेगा ?
शंका में डालते हैं
कर्म और अकर्म
विचारने वाले वेद पुराण
हृदय में बसा संशय
और अभिमान कैसे मिटेगा॥
बाहरी जल से पखारते हैं
भीतर के विविध विकार
धुलेंगे कैसे ?
बाहर की शुद्धि तो
हाथी के नहान की तरह है
(जो नहाने के तुरंत बाद बदन पर धूल डाल लेता है)
जैसे सूर्य के प्रकाश (के छू जाने) से
रात की क्या गति होती है
सारा संसार जानता है।
पूर्व में लिखे ललाट का लेख
परम पारस गुरु मिलता है
उनमन मन मन से मिला
खुल गया बज़्र कपाट
भक्ति की युक्ति ने
मति को सत्य कर दिया
भ्रम बंधन विकार
कट गए
भक्ति के रस से मन मिले
गुण निरगुन
एक हो गए
अनेक यत्न किए
किए अनेक निग्रह
टाले से भी न टला
भ्रम फांस
(इस विधि से)
नहीं उपजती प्रेम भगति
इसीलिए रैदास
उदास है।
किए अनेक निग्रह
टाले से भी न टला
भ्रम फांस
(इस विधि से)
नहीं उपजती प्रेम भगति
इसीलिए रैदास
उदास है।
गुरु ग्रंथ साहब मेँ दिया संत रैदास का छठा पद गउडी बैरागनि
दुआपरि पूजाचार॥
तीनौ जुग तीनौ दिड़े
कलि केवल नाम अधार ॥1॥
पारु कैसे पाइबो रे ॥
मो सउ कोऊ न कहै समझाइ॥
जा ते आवा गवनु बिलाइ॥1...रहाउ॥
बहु बिधि धरम छूटीऐ
जीह साधे सभ सिधि होई ॥2॥
करम अकरम बीचारिऐ
संका सुनि बेद पुरान ॥
संसा सद हिरदै बसै
कउनु हिरै अभिमानु॥3॥
बाहरु उद कि पखारीऐ
घट भीतरि बिबिधि बिकार ।
सुध कवन पर होइबो
सुच कुंचर बिधि बिउहार ॥4॥
रवि प्रगास रजनी जथा
गति जानत सभ संसार ॥
पारस मानो ताबो छुए
कनक हॉट नहिं बार ॥5॥
परम परस गुरु भेटीऐ
पूरब लिखत लिलाट॥
उनमन मन मन ही मिले
छुटकत बजर कपाट॥6॥
भगति जुगति मति सति करी
भ्रम बंधन काटि बिकार ॥
सोई बसि रसि मन मिले
गुण निरगुन एक बिचार ॥7...
अनिक जतन निग्रह कीए टारी
न टरै भ्रम फास ॥
प्रेम भगति नही ऊपजै ता
ते रैदास उदास ॥8॥
तीनौ जुग तीनौ दिड़े
कलि केवल नाम अधार ॥1॥
पारु कैसे पाइबो रे ॥
मो सउ कोऊ न कहै समझाइ॥
जा ते आवा गवनु बिलाइ॥1...रहाउ॥
बहु बिधि धरम छूटीऐ
जीह साधे सभ सिधि होई ॥2॥
करम अकरम बीचारिऐ
संका सुनि बेद पुरान ॥
संसा सद हिरदै बसै
कउनु हिरै अभिमानु॥3॥
बाहरु उद कि पखारीऐ
घट भीतरि बिबिधि बिकार ।
सुध कवन पर होइबो
सुच कुंचर बिधि बिउहार ॥4॥
रवि प्रगास रजनी जथा
गति जानत सभ संसार ॥
पारस मानो ताबो छुए
कनक हॉट नहिं बार ॥5॥
परम परस गुरु भेटीऐ
पूरब लिखत लिलाट॥
उनमन मन मन ही मिले
छुटकत बजर कपाट॥6॥
भगति जुगति मति सति करी
भ्रम बंधन काटि बिकार ॥
सोई बसि रसि मन मिले
गुण निरगुन एक बिचार ॥7...
अनिक जतन निग्रह कीए टारी
न टरै भ्रम फास ॥
प्रेम भगति नही ऊपजै ता
ते रैदास उदास ॥8॥
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सुंदर पहल। अनुवाद की गरिमा।पाठकों और युवाओं के लिये आवश्यक।
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतर और नितांत प्रासंगिक भी!
जवाब देंहटाएंIss anuwad se bahut logo ko labh milega.Aap ko bahut bahut dhanyawad aur badhai.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और सार्थक भावानुवाद।। संत कबीर की तरह, रैदास भी सामाजिक समरसता के कवि रहे हैं। और आर्थिक समरसता के पुरोधा भी।। कहा जाता है कि वे रोज दो जोड़ी जूते बनाते थे। एक जोड़ी की आय से अपना जीवन यापन करते थे और दूसरी जोड़ी की आय से सामाजिक उद्धार।।
जवाब देंहटाएंअत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर जानकारी व अनुवाद
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