सहजि सहजि गुन रमैं : राकेश श्रीमाल



मैं और कविता ::



जीवन के सबसे खूबसूरत पल वे होते हैं जब आप किन्हीं बातों में, कुछ पढ़ते हुए, कुछ देखते हुए, कभी स्मृतियों में टहलते हुए तो कभी अपने एकांत से मिलते हुए कुछ ऐसा सोच लेते हैं जो शब्दों में ढलकर कविता बन जाती है,  तब हम लगभग विस्मित कर देने वाली धुंधली सी एक ऐसी अबूझ जमीन पर अपने आप को अवाक खडा पाते हैं जहां कविता का अपना ऐश्वर्य और वैभव आपको अपनी तरफ सम्मोहित करता रहता है. बार बार कविता की उस जमीन से प्रेम करने की इच्छा होती हैं.


उसके पास थोडी देर के लिए जाकर सुस्ताने का मन करता है. आखिर समूचा जीवन तो वहां बिता नहीं सकते. वहाँ टहलते हुए लगता है कि मैं किसी महासागर के बीच कहीं सुदूर किसी ऐसे सूनसान टापू में खडा हूँ जहाँ मैं अपने आप से मिल पाता हूँ और अपना ही परिचय हमेशा पहली बार जानता हूँ.

मुझे कविता से प्रेम करते हुए वह मिलता है जो अन्यत्र कहीं नहीं हैं. ना इस जीवन में और ना ही इस जीवन के बाद. 





रज़ा



कविताएँ -


कोई आया है शायद

वह कॉलबेल नहीं है केवल
किसी किस्म की आहट भी नहीं
खटखटाहट तो कतई भी नहीं
ध्वनि, संकेत, पहचान से परे
वह है समय की क्षीण फुसफसाहट

कोई आया है शायद
इस घर में
इस जीवन में

किसी अपरिचय को
परिचय में बदलने

ऐसे ही जिएं हम 

ऐसे ही रखा करो तुम अपने बाल
ऐसे ही खुश भी रहा करो
अपनी ही समझा करो हर सुबह
सहेली की तरह मिला करो शाम से

तितली की तरह उड़ा करो
फूलों पर अपना ही राज समझकर
चाँद से ऐसे बात किया करो
गोया वह बचपन का दोस्त हो

हर रविवार लिखा करो मां को पत्र
याद किया करो पुराना शहर
छत पर टहल आया करो कभी यूं ही
कभी बेमतलब भी मुस्काराया करो

पाना है तुम्हें खुद अपने को ही
चुनना है तुम्हें अपना ही भविष्य
सजाना है अपने ही सपने
बिठाना है जिंदगी को पास   

जब रहेगें हम हमेशा साथ
अच्छे लगेंगे हमारे अभाव भी
शब्द होंगे हमारे संगी मित्र
लाड़ करेंगी हवाएं हमसे
बरस कर चाहेगा हमें
सबके सामने बादल भी

ऐसे ही बीते हमारा पूरा जीवन
ऐसे ही जिएं हम    


अपने ही बनाए दृश्य में

वह आवाज लगा रही है
मैं इस शहर में रहते हुए उसे सुन नहीं पा रहा हूँ

मुझे दिख रहा है उसकी आवाज का
धुंधला सा दृश्य

वह अभी-अभी नहाकर निकली है
दो चोटी बनाने को सोचते हुए
वह हरी बिंदी लगा रही है
अब जब वह नाश्ता करेगी
मेरी याद में उसकी आवाज
निःशब्द भीतर ही भीतर गूंजने लगेगी
उसे लगेगा
उसके होठों पर समय ने रख दी है
एक अदृश्य बाँसुरी

वह उठ रही है
वह चल रही है
ऊपर के कमरे के छज्जे पर खड़े
वह पड़ोस का कोई घर देख रही है

वह उठते-बैठते जागते-सोते
हर पल आवाज लगा रही है
मैं अपने ही बनाए दृश्यों में
उसकी आवाज को सुन रहा हूँ


अनकहा

वह थोड़ा मुस्कराती है
थोड़ा उदास रहती है
कभी कभी
कर लेती है गुस्सा भी

कभी पकड़ लेती है हाथ
तो कभी छूना चाहती है
अनदेखा भविष्य

कोई नहीं
जो समझ पाए
वह प्रेम करती है
या प्रेम करना चाहती है


मंत्रोच्चार

एक अनिवार्य अचरज की तरह
तुम रहती हो हमारे प्रेम में
स्वप्न के अगोचर दरवाजे से निकल
किसी नित्यचर्या का सत्त अनावरण करने

गद्य के ठसपन से दूर
लय के उन्मुक्त रंजन में
बावली सी एक अनंत व्याप्ति
अपनी चैहद्दियों से निकल
परिष्कृत उल्लास जैसी

कोई नहीं समझ पाएगा कभी
हमारे प्रेम के मितकथन
ना सूफी इबारतें
ना ही कोई निगुर्णी भजन
मीरा के इकतारे की गूंज भी

अनाडी हैं सारे भाष्यकार
जो देख ही नहीं सकते
हमारे प्रेम के असीम विस्तार को


हमारा ही प्रेम
उधेड़ता है दिन की व्यस्तताओं को
रात भर सुकून से तुरपाई करने

निर्लिप्तता का अछूतापन
उद्घाटित न हो कभी
अपनी वयस्कता में भी
यही इच्छा है हमारी
हमारे ही प्रेम से

बहुत आभार इन शब्दों का
जिनमें दर्ज हो पा रहा है हमारा प्रेम
किसी मंत्र की तरह
हमारे बाद भी
उच्चारित होने के लिए

  
मौजा

यह कोई भी नहीं सोचता
न जाने कहाँ से बना है यह शब्द
धूल से पैरों को बचाने के लिए

कितने ही रंगो में से
पसंद किया जा सकता है इसे
उस रंग से बचाने
जिसका कोई स्थायी भाव नहीं अभी तक

किसी मौसम में
रखवाली भी करता है यह
दूसरे शब्द ठिठूरन से

पहनने के लिए ही बने होते हैं कुछ शब्द
पहनकर फिर उतारने के लिए

कभी पेन से लिखकर
कभी मशीनों में ढ़लकर
तो कभी
स्नेह भाव से
सलाइयों में बुनते हुए

जमीन और आदमी के बीच
अपनी छोटी सी सत्ता को बचाए हुए

बहुत सलीके से
समेट लेता है यह शब्द
समय की सारी दुर्गन्ध
इसी समय में धोए जाने के लिए
धोकर ही भुलाया जा सकता है शायद
अतीत की बदबू को
इसी समय की
रस्सी में सूखाते हुए


कभी किसी समय में

परसिस खंबाटा
बाहर आ जाओ अब तो गार्डन वरेली से
‘‘कैच मी, इफ यू केन’’ से
पकड ही लेगा आने वाला समय
तुम्हारी सूखी गंधरहित हड्डियों के साथ
खडा कर देगा तुम्हें नीलामी के लिए

तब कहाँ ठौर पाओगी तुम
उस मंडी से इस बाजार में

कोई काम नहीं आएगी
सिल्क के वस्त्रों की मासूमियत भी
दूध से धोए जाने के बावजूद

कोई याद भी नहीं करेगा
बनते बाजार के शुरूआती दिनों में
एक खामोश नींव बन
सदा के लिए गुम हो गई हो तुम

नहीं मालूम मुझे
तुम्हारा रक्त
पनपता है अब किन रगो में
किस मौल-तोल के साथ
किस तरह के बाजार में

मेरे सपनों की धुंध में
बची हो अब भी तुम
किसी स्टिल लाइफ जैसी
समूची दुनिया को देखती हुई

तुम्हें जानकर दुख होगा शायद
कोई नहीं देख पाता अब तुम्हें
उस तरह भी नहीं
जैसे कैमरा देख पाता था तुम्हें
कभी किसी समय में..........


(अभिनेत्री, माडल परसिस खंबाटा ने गार्डन वरेली कपड़े के ब्रांड का विज्ञापन किया था जिसमें यह पंक्ति भी आती है- कैच मी, इफ यू केन)

 राकेश श्रीमाल की १०१ प्रेम कविताओं का संकलन कोई आया है शायद शीघ्र प्रकाशित .

15/Post a Comment/Comments

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  1. कोई आया है शायद
    इस घर में
    इस जीवन में

    सभी कवितायेँ अच्छी लगीं. परसिस खंबाटा की भी अच्छी याद दिलायी. पता नहीं कहाँ से एक छोटे से पुर्जे पर लिक्खा एक वाक्य याद आ रहा है - 'यूं फैसिनेट मी'

    जवाब देंहटाएं
  2. पहनने के लिए ही बने होते हैं कुछ शब्द
    पहनकर फिर उतारने के लिए

    कभी पेन से लिखकर
    कभी मशीनों में ढ़लकर
    तो कभी
    स्नेह भाव से
    सलाइयों में बुनते हुए

    जमीन और आदमी के बीच
    अपनी छोटी सी सत्ता को बचाए हुए

    बहुत ही खूबसूरती से बखाना है भाई शब्द की सत्ता को

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरे सपनों की धुंध में
    बची हो अब भी तुम
    किसी स्टिल लाइफ जैसी
    समूची दुनिया को देखती हुई

    वाह, सभी कविताएं एक से बढ़कर एक....बधाई..

    जवाब देंहटाएं
  4. सभी कवितायें बहुत खूबसूरत हैं !

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत आभार इन शब्दों का
    जिनमें दर्ज हो पा रहा है हमारा प्रेम
    किसी मंत्र की तरह
    हमारे बाद भी
    उच्चारित होने के लिए

    बहुत अच्छी कवितायें हैं, राकेश जी बधाई, सचमुच मार्मिक हैं ये अभिव्यक्तियां।

    जवाब देंहटाएं
  6. खूबसूरत कविताएँ जेसे किसी का मासूम बचपन/जेसे दिल की ख्वाहिशों का लढ़कपन/सागर सी गहराई हैं इनमें /
    आसमा सी उचाई हैं इनमे ............मेरी ढेरों शुभकामनाएँ

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  7. अपनी ही समझा करो हर सुबह
    सहेली की तरह मिला करो शाम से
    .......
    छत पर टहल आया करो कभी यूं ही
    कभी बेमतलब भी मुस्काराया करो

    बहुत सुंदर व मर्मस्‍पर्शी कविताएं.. बधाई।

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  8. अच्छी कविताएँ हैं , अरुण .. समालोचन नयेपन के साथ आता है .. बहुत आभार इन शब्दों का
    जिनमें दर्ज हो पा रहा है हमारा प्रेम
    किसी मंत्र की तरह
    हमारे बाद भी
    उच्चारित होने के लिए

    सुन्दर कविताओं के लिए कवि और अरुण का आभार !

    जवाब देंहटाएं
  9. हमारा ही प्रेम
    उधेड़ता है दिन की व्यस्तताओं को
    रात भर सुकून से तुरपाई करने
    कवितायें पढ़ने के बाद जीवन में किया गया पहला प्रेम याद आ गया कवि को बधाई और अरूण जी का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  10. कोई आया है शायद इस घर में इस जीवन में

    किसी अपरिचय को
    परिचय में बदलने
    --------------
    हमारा ही प्रेम
    उधेड़ता है दिन की व्यस्तताओं को
    रात भर सुकून से तुरपाई करने
    ------------------------
    बहुत आभार इन शब्दों का
    जिनमें दर्ज हो पा रहा है हमारा प्रेम
    किसी मंत्र की तरह
    हमारे बाद भी
    उच्चारित होने के लिए

    अच्छी कवितायें पढ़वाने के लिये आप दोनों का शुक्रिया!!!

    जवाब देंहटाएं
  11. बधाई प्रेमहीन होते जाते समय में प्रेमकविताओं के नये संकलन पर ।

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  12. rakesh ji, kavitaye bahut hi achchi hai. maja aya aur ANKAHA kavita se purane din bhi yad aye.

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  13. शब्द..
    जमीन और आदमी के बीच
    अपनी छोटी सी सत्ता को बचाए हुए !
    ...शब्द
    गहरी अनुभूतियां,मर्मस्पर्शी संवेदनाएं । इन कविताओं को पढ़कर हम राकेश के मन की बैचेनियों और उथल-पुथल की भी थाह लेते हैं। उन्हें जो भी जानते हैं..वो जानते है..राकेश के दिलो-दिमाग़ हमेशा एक कविता सांस लेती रहती है। वो जब भी कहीं पल भर को रूकते है। शब्द की सत्ता अपने होने का अहसास करा ही देती है। अच्छा लगा इन कविताओं को पढ़कर । एक बार फिर इस आत्मीय हस्ताक्षर से मिलकर।

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  14. यह पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध हो तो लिंक प्रदान करें

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