(पेंटिग : रज़ा)
राकेश श्रीमाल : (१९६३, मध्य-प्रदेश) कवि, कथाकार, संपादक.
मध्यप्रदेश कला परिषद की मासिक पत्रिका ‘कलावार्ता’ का संपादन. कला सम्पदा एवं
वैचारिकी ‘क’ के संस्थापक
मानद संपादक.‘जनसत्ता’ मुंबई
में 10 वर्ष तक संपादकीय सहयोग. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
की पत्रिका ‘पुस्तक वार्ता’ का ७ वर्षों तक संपादन. वेब पत्रिका ‘कृत्या’ (हिन्दी) का संपादन
ललित कला अकादमी की कार्यपरिषद के सदस्य रह चुके
हैं। कविताओं की पुस्तक ‘अन्य’ वाणी प्रकाशन
से प्रकाशित. इधर कुछ कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं. उपन्यास लिख रहे हैं.
राकेश की कविताएँ प्रेम की सहजता को देखती हैं. उनमें
साहचर्य की वह ‘आदम’ इच्छा है जो इधर विरस
हुई है या अतिरंजित. चोट की तरह बजते इस समय में ये कविताएँ भाषा के लघुतम हलंत
में भी इसे बचा पाती हैं वह प्रेम जिसकी फिक्र उस
चाँद को भी है जिसकी रौशनी से सुलग रही हैं ये कविताएँ.
राकेश श्रीमाल की कविताएँ
इधर देखो
1.
इधर देखो
इस कागज पर क्या लिखा है मैंने
एक ही शब्द की गठरी में
बांध दिए हैं मैंने
आगत-अनागत दुखों और सपनों को
बीते और बीतने वाले समय को
उन पलों की उष्मा को
जिनसे इस गठरी में गांठ बंध पाई
इसी शब्द में
सलीके से तह किए रख दिए हैं
अपने-अपने अधिकार और गुस्सा
बेमतलब की नोंक-झोक के साथ
गूढ़ किस्म की कुछ बातें भी
ऋतुओं से चुराकर थोड़े-थोड़े टुकड़े
ठूंस दिए हैं इस शब्द में
कि ठंड के बाद आ सके गर्मी
बारिश का भी मजा लिया जा सके
अदृश्य करके जोड़ दिए हैं
इसी एक शब्द में
बड़ी संख्या में रविवार भी
मिला जा सकता है
तब दोपहर की नीरवता से
कहीं उकता ना जाएं हम
इसलिए यात्राएं भी चुपके से रख दी हैं
इसी शब्द की एक मात्रा में
इधर देखो
अनंत से धूसर थपेड़ों से बनी स्याही लेकर
समय के विराट असीम कागज पर
लिख दिया है मैंने
प्रे म
2.
इधर देखो
हमारा अपना ही चेहरा
दिख रहा है हमें समय में
असंख्य चेहरों से अलग-थलग
एक दूसरे को देखता हुआ
सुकून से तृप्त होने वाली
जिज्ञासाओं को समेटे
कोई जल्दी नहीं कभी भी
हमें मालूम है
खत्म नहीं होने वाली
साथ रहने की अबोध अकेली इच्छा
इधर देखो
हमारे चेहरे
एक दूसरे को बता रहे हैं
हमारे ही चेहरों का पता
कभी भी
अपरिचित न बनने के लिए.
3.
इधर देखो
वह बन सकता है हमारा घर
एक भी दीवार नहीं है उसमें
इसलिए खिड़कियों की जरूरत भी नहीं
रोज रात को
चांद बन जाया करेगा छत इसकी
दसों दिशाओं में मौजूद ही हैं दरवाजे
मटकी बनाकर रख लेंगे नदी को
प्यास बुझाने के लिए
जो बोएंगे
उसी को खाया जायेगा जीवन भर
सूरज की तपन से
सूखते जाएंगे सारे गीले मौसम
और जीवन का अथक पसीना
लटका दिया जाएगा
पेडों की खूंटी से
हर पल बदलते सपनों को
जीवन के उतार चढाव को
कर देंगी पहाडियां पूरी
बियाबान सन्नाटे में
निकाल लिया करेंगे नींद भी
केवल सहेज कर रखना होगा
हमारे लिखे कागजों को
कोई पढना चाहे अगर
हमारे नहीं रहने के बाद
इधर देखो
इधर ही रहते हैं
हमसे परिचय करने को आतुर
हम जैसे कई सारे लोग.
4.
इधर देखो
मैं तुम्हें खोज रहा हूं
तुम एकाएक ही चली गईं
बिना यह बताए
वापस कब आओगी
अभी भी मेरी डायरी
तुम्हारी तरह मुस्करा रही है
पर मुझे उसमें तुम्हें नहीं खोजना
नहीं खोजना मुझे तुम्हें
पिछले सप्ताह के बीते रविवार के दिन
वह समय ने लील लिया देखते-देखते
तुम्हारे हाथ का स्पर्श भी
वाष्प बनकर उड़ गया
मेरे कमरे से बहुत दूर
इन्हीं शब्दों में इस समय
मैं खोज रहा हूं तुम्हें
ना जाने तुम
किस पैराग्राफ के किस वाक्य में
किस छोटी या बडी मात्रा में
छिपी बैठी मुझे देख रही हो .
5.
इधर
देखो
पहले पहर का चंद्रमा
इंतजार कर रहा है हमसे मिलने की
उकता ना जाए कहीं वह
हमारी राह देखते हुए
मैं जल्दी से निपटा लेता हूं
अपने सारे काम
तुम तो केवल समय का ध्यान रखना
और कुछ नहीं करना
थोड़ा भी झिझकना मत चांद से
वह भी हम जैसा ही होगा
हांलाकि मैं भी पहली बार ही मिलूंगा
हो सकता है
अपनी आदत के मुताबिक
वह दे दे एक सलाह
कैसे बचा सकते हैं हम अपना प्रेम
पर मत आना उसकी बातों पर
बचाने के लिए नहीं है हमारा प्रेम
____
राकेश श्रीमाल
devyani.shreemal@gmail.com
राकेश श्रीमाल की कुछ कविताएँ यहाँ भी .
बुखार में एकांत शीर्षक से कुछ और कविताएँ.
BAHUT HI SUNDAR KAVITAEN HE RAKESH G KO BADHAAI
जवाब देंहटाएंAAJ JANASATTA ME MERA BHI LEKH HAAL HI KI KERAL YAATRA PAR CHAPA HE.
जवाब देंहटाएंसम्मानीय राकेश जी, "ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए" इन चंद शब्दों में जो मूल नवनीतसम शब्द 'प्रेम' है, उसको विविध आयामों में, जीवन की व्युत्पत्ति और अवसान तक के सम्पूर्ण हिसाब-किताब के साथ जीवन की सम्पूर्ण व्याकरण में आप तलाश ही लेते हैं.जो जितना डूबा उसने उतना हे ये मधुर नवनीत चखा. ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होए. वैसे ही जीवन के अवसादों और नीरसता में जो जितना इन कविताओं में डूबा उसने उतना ही व्यक्त प्रेम का आनंद प्राप्त किया. प्रत्येक कविता प्रेम रस से सरोबार और सम्पूर्ण है. भाषा का प्रवाह अपने साथ सहज रूप में प्रवाहित कर रहा है. साधुवाद ! श्री राकेश जी, आपको और आपकी रचनाओं को नमन ! श्री अरुण जी का कोटिशः आभार ! प्रणाम !
जवाब देंहटाएंइन्हीं शब्दों में इस समय
जवाब देंहटाएंमैं खोज रहा हूं तुम्हें
ना जाने तुम
किस पैराग्राफ के किस वाक्य में
किस छोटी या बडी मात्रा में
छिपी बैठी मुझे देख रही हो .
बहुत ही अच्छी कवितायेँ अरुण जी. आपका आभार इन्हें हम तक पहुंचाने के लिए.
abhinandan Rakeshji...dil ko chhu liya in panktoyon ne.....
जवाब देंहटाएंइधर देखो
हमारे चेहरे
एक दूसरे को बता रहे हैं
हमारे ही चेहरों का पता
कभी भी
अपरिचित न बनने के लिए.
एक जादूगर जो जादू दिखता है वो कहते हैं कि “हाथ की सफाई” ये जादूगर “राकेश श्रीमाल जी” जब शब्दों का जाल बिछा देते हैं तो ये पंक्षी प्यासा (भरत तिवारी) जानते हुए भी की बचेगा नहीं जाल के जाल से ... मस्त हो जाता है , और बस ............... असीम खुश
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया की आपने इधर देखा सर !
मन को हिलाते हुए “ऋतुओं से चुराकर थोड़े-थोड़े टुकड़े” और “बड़ी संख्या में रविवार भी” क्या प्रेम है बता गए
“हमारा अपना ही चेहरा
दिख रहा है हमें समय में”
“एक दूसरे को बता रहे हैं
हमारे ही चेहरों का पता
कभी भी
अपरिचित न बनने के लिए.”....................... सर सब कह दिया
यहाँ तो सच में इधर देखने का शुक्रिया तह-ए-दिल से
“हमसे परिचय करने को आतुर
हम जैसे कई सारे लोग.”
तुम एकाएक ही चली गईं
बिना यह बताए
वापस कब आओगी
इन्हीं शब्दों में इस समय
मैं खोज रहा हूं तुम्हें
ना जाने तुम
किस पैराग्राफ के किस वाक्य में
किस छोटी या बडी मात्रा में
छिपी बैठी मुझे देख रही हो .
............. ये मेरी डायरी के पन्ने से आयी है सर , उस डायरी से जिसकी धूल से भी मुहब्बत है
कत्तई नहीं आना है कभी भी नहीं
बचाने के लिए नहीं है हमारा प्रेम
जैसे कि हमारा जीवन.”....
यही जीवन है, तो है..., बस
सादर
भरत तिवारी
नई दिल्ली
४/१२/२०१०
इधर देखो/
जवाब देंहटाएं“हमारा अपना ही चेहरा
दिख रहा है हमें समय में”/
कहीं उकता ना जाएं हम
इसलिए यात्राएं भी चुपके से रख दी हैं..........
इधर देखो
जवाब देंहटाएंअनंत से धूसर थपेड़ों से बनी स्याही लेकर
समय के विराट असीम कागज पर
लिख दिया है मैंने
प्रे म
और ये कागज़ दर्ज है इतिहास के पन्नों पर
भित्ती चित्र सा ...
इधर देखो
हमारा अपना ही चेहरा
दिख रहा है हमें समय में
असंख्य चेहरों से अलग-थलग
एक दूसरे को देखता हुआ
सुकून से तृप्त होने वाली
जिज्ञासाओं को समेटे
कोई जल्दी नहीं कभी भी
रुक सकते हैं तब तक .. जब तक झिमिलायेगा समय
अपनी चाँद -सी चिकनी परत लिए ...
इधर देखो
इधर ही रहते हैं
हमसे परिचय करने को आतुर
हम जैसे कई सारे लोग.
नदी की मटकी , खूँटी पर लटके सपने
गीले मौसम और पहाड़ियां लिए ..
गुज़र जाते हैं
सूरज की तपन पर
पगडंडियाँ बनाते लोग ...
इन्हीं शब्दों में इस समय
मैं खोज रहा हूं तुम्हें
ना जाने तुम
किस पैराग्राफ के किस वाक्य में
किस छोटी या बडी मात्रा में
छिपी बैठी मुझे देख रही हो .
एक कविता भर छुपन-छुपाई लिए ...
पर मत आना उसकी बातों पर
बचाने के लिए नहीं है हमारा प्रेम
जैसे कि हमारा जीवन.
चुकाने के लिए है
जैसे उतारता है चाँद
रात का क़र्ज़
पूर्णिमा बनकर ...
सभी कविताएँ सुन्दर , अप्रतिम ...
इन्हीं शब्दों में इस समय
जवाब देंहटाएंमैं खोज रहा हूं तुम्हें
ना जाने तुम
किस पैराग्राफ के किस वाक्य में
किस छोटी या बडी मात्रा में
छिपी बैठी मुझे देख रही हो
...बहुत सुंदर राकेश जी...
प्रेम वैयक्तिक अनुभूति है, यह सच है लेकिन यह भी उतना ही सच है प्रेम जीवन को उदार बनाता है और दृष्टि को उदात्त। निजी पीड़ाओं और वेदनाओं का अतिक्रमण ही प्रेम का अभीष्ट है, इसी से यह काल का भी अतिक्रमण कर पाता है। दूसरे शब्दों में शाश्वत अभिव्यक्ति होना प्रेम की अनिवार्य शर्त है, ऐसा नहीं है तो उसका मूल्य व्यक्तिगत किस्से से अधिक कुछ नहीं। श्रीमाल जी की कविताएं सच्ची प्रेम कविताएं हैं जो अपने निजी अनुभवों को व्यापक जगत की संवेदनाओं से एकाकार करती हैं। इनमें अनुभूति की तीव्रता तो है लेकिन अभिव्यक्ति का सयंम कहीं टूटा नहीं है। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंबचाने के लिए नहीं है हमारा प्रेम ....sach...bahut sundar
जवाब देंहटाएंArse Baad Rakesh Ki Kavita Samne Aai Thi..Pehele Se Vah Niraala Tha..Uski Sahaj Anubhuti Kabile Taarif Hai..Shubhkamnaayen Deti Hun...
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