फेसबुक (कहानी ) जयश्री रॉय



सोशल मीडिया आभासी है पर यथार्थ में वास्तविक हस्तक्षेप करता है. कहानी की गीतिका जीवन के तमाम कटु-तिक्त अनुभवों से होती हुई प्रौढ़ता की दहलीज पर फेसबुक पर एक अकांउट खोलती है. यह एक नया संसार तो है पर यह उसके अपने संसार को तहस-नहस कर देता है.

जयश्री रॉय की यह नई कहानी समालोचन पर खास आपके लिए. यह कहानी न जाने कितनी दमित वंचित स्त्रियों की कहानी है पर छल यह है कि यह माध्यम भी उन्हें सबल नहीं करके अकेला छोड़ देता है.


बहुत निपुणता से जयश्री रॉय ने गीतिका को निर्मित किया है. पर कहानी अभी बाकी है. ‘स्क्रीन के बुझ’ जाने के बाद अभी जीवन तो नहीं बुझा है.  


कहानी  
फेसबुक                       
जयश्री रॉय




नोटिफ़िकेशन की घंटी बजी थी, साथ ही मोबाइल का स्क्रीन चमक उठा था. गीतिका की नींद से तंद्रिल होती पलकें अनायास खुल गई थीं- कहीं यह संवेग का मैसेज ना हो! इस सोच के साथ ही उसका दिल धडक उठा था. उसने आहिस्ता से उठ कर अपने बगल में सो रहे बेटे को देखा था- दिन भर का थका-हारा वह गहरी नींद में था. साइड टेबल पर रखे मोबाइल को उठाने से पहले उसने आश्वस्त होने के लिए एक बार दरवाजे की ओर भी देखा था, स्टडी की रोशनी जल रही थी. यानी अनिमेष जग रहा था. एक पल के लिए ठिठक कर उसने धीरे से मोबाइल उठा कर मेसेंजर चेक किया था- संवेग का ही मैसेज था- कैसी हो गुल्लू?

यह सम्बोधन पढ़ते ही उसे जाने क्या होता है. धमनियों में बहता रक्त यकायक उष्ण हो उठता है. लगता है एक ही पल में वह उम्र के अनगिनत बरस फांद कर वही सोलह साल की गीत बन गई है जिसे जमील के लिखे प्रेम पत्र पढ़ते हुये अक्सर बुखार चढ़ आता था! स्कूल यूनिफ़ोर्म की जेब में छिपा वह प्रेम पत्र जैसे कोई बम होता था जो किसी भी क्षण फट सकता था. जब तक किसी सुरक्षित स्थान में उसे छिपा नहीं देती थी, दिल गले में अटका रहता था! उन दिनों उसे पक्का यकीन होता था, जमील का नाम उसके चेहरे पर लिखा हुआ है और सारा शहर जानता है, वह जमील से प्यार करती है.

जमील-संवेग... बीच में रोज-रोज पसरती समय की कितनी बड़ी खाई है! पूरे तीस साल की! अब वह छयालीस साल की है. मेनोपाज से जूझती हुई एक प्रौढ़ा! एक 12 साल के बच्चे की माँ... वह बाथरूम में जा कर चेहरे पर पानी छपक कर खुद को आईने में देखती रही थी. दोनों गाल जल रहे हैं. उत्तेजना में तप कर गहरा सांवला चेहरा बैजनी-सा हो उठा है. तो अब भी ऐसा होता है! वह तो समझती थी वह कब की शुष्क, ऊसर हो गई है. शिराओं में अब खून नहीं दौड़ता,भीतर बहती इच्छाओं की अल्हड़ नदी रेत की ढूहों में बदल गई है ... रात के इस गहन नीरव में कहीं बहुत भीतर रह-रह कर अनायास कूक उठती कोयल को सुनते हुये उसकी पलकें जलने लगती हैं- तो मैं जिंदा हूँ! देह की अमराई एकदम से ठूँठ-बंजर नहीं हो गई है! मगर अनिमेष तो कहता है... अनिमेष का ख्याल आते ही उसकी गीली आँखें पत्थर के बेजान, सख्त टुकड़े में बदल गई थीं- नहीं उसकी कोई बात नहीं! अब एक पल भी उसके नाम बर्बाद नहीं करना...

शायद किन्हीं अर्थों में बेहतर मगर अंततः एक आम भारतीय औरत की-सी ही गीतिका की कहानी है. अब सोचती है तो ऐसा ही लगता है. घर से भाग कर सबकी मर्जी के खिलाफ अंतर्जातीय शादी की तो लगा, बहुत बड़ी क्रान्ति कर रहें! दुनिया बदल कर रख देंगे! शुरू-शुरू में ऐसा होता प्रतीत भी हुआ. उनकी जोड़ी अनोखी थी. साथ चलते रास्ते पर तो लोग मुड़ कर देखते. वो गहरी साँवली, लंबी-चौड़ी, स्थूल; अनिमेष गोरा-चिट्टा, छरहरा. लोग देख कर समझ जाते, अनिमेष उससे उम्र में छोटा है. एक-दो साल से नहीं, पूरे पाँच साल से! ऐसा अमूमन भारतीय समाज में नहीं होता. लोग तरह-तरह की अटकलें लगाते- किसी सेठ की बेटी होगी. दहेज से खरीद लिया होगा वरना कहाँ यह लड़की और कहाँ...

उन दिनों यह बातें उस तक पहुँच कर भी नहीं पहुँचती थीं. बीच में खड़ा अनिमेष सब कुछ खुद पर ले लेता था. उससे कहता था- तुम सुंदर हो! बहुत सुंदर हो! मेरी आँखों से खुद को देखो. वह आईने में प्रतिबिम्बित दोनों के चेहरे से अपनी नजरें फेर लेती- तुम्हारे चाँद-से गोरे-उजले व्यक्तित्व पर मैं चन्द्र गहन-सी लगती हूँ... अनिमेष उसे खींच कर अपने से लगा लेता- सुनो, सुन रही हो! ऐसा मत कहो, मेरे लिए प्रेम का रंग सांवला है, यह दुनिया का सबसे सुंदर रंग है!
वह उसके गाढ़े स्वर की चासनी में लिपटी देर तक पड़ी रहती. बिलकुल सुध-बुध खोई. जैसे नशे में हो. लगता, अनिमेष से लगी-लगी वह भी उजली हो आई है. अंगों में अशर्फियाँ-सी भर गई हैं. वह दमक रही है सर से पाँव तक. ठीक जैसे राधिका अपने श्यामल कृष्ण के स्पर्श से साँवली हो उठती थी! प्रेम का रंग कितना गाढ़ा चढ़ा था उन दिनों! जीवन का हर क्षण ओर-छोर रंग गया था.

जमील हर तरह से उसे प्रताड़ित कर एक दिन अनायास चला गया था. जाते हुये एक बार मुड़ कर भी नहीं देखा था. दिशाहारा-से उन पलों में गहरे आतंक के साथ उसने अनुभव किया था, प्रेम के नाम पर उसने उसके दिल से ही नहीं खेला था, जीवन ही तहस-नहस नहीं किया था, बल्कि जाते-जाते उसकी देह में जहर का बीज भी बो गया था. वह बीज अब हर बीतते दिन के साथ अंकुरित हो रहा था, कोंपलों में फूट रहा था, आकार ले रहा था...

वह दिन गहरी उलझन, अवसाद और भय के थे. अपना शरीर ही अबूझ पहेली बन गया था. तल पेट दुखता रहता, मन कच्चा-कच्चा होता, देह घुलाती रहती. पढ़ाई के टेबल से उठ कर दस बार उबकाई रोकते हुये बाथरूम की ओर भागना पड़ता, स्कूल ना जाने के दस बहाने गढ़ने पड़ते. आते-जाते आईने के पास ठिठक कर खुद को हर कोने से देखती, बिना किसी बात पेट के आगे ओढ़नी खींचती रहती.  अचानक से उसकी दुनिया उलट-पुलट गई थी. वह तो गनीमत थी कि माँ के गुजरने के बाद कोई औरत नहीं थी घर में उस पर नजर रखने के लिए. पिता रिटायर कर गए थे और बड़े भैया नौकरी और अपनी नई मंगेतर को ले कर मशगूल थे.

मगर इन सारी घटनाओं का मूक साक्षी एक मात्र अनिमेष था. अनिमेष जमील का दोस्त था. उसके साथ ही पहले-पहल उसके घर आया था. तब उनकी बेमेल दोस्ती उसे कहीं से खटकी भी थी. बीस साल का जमील अपने चाचा के गराज में मैकेनिक था जबकि अनिमेष आठवीं का छात्र. टाइफाइड तथा कुछ और कारणों से उसके भी तीन साल बर्बाद हो गए थे और उस समय वह दसवीं में पढ़ती थी. जमील के प्रेम में गले-गले तक डूबी उन दिनों उसने उसे ठीक से देखा भी नहीं था. वह जमील का प्रेम पत्र उस तक पहुंचाता और उसके संदेश जमील तक. जब दोनों घर के एकांत में मिलते, वह बाहर रुक कर आने-जाने वालों पर नजर रखता और उन्हें आने वाले किसी संभावित खतरे से आगाह करता.

जमील के चले जाने के बाद गीतिका ने अनिमेष के हाथों ही उसे कई बार संदेश भेजे थे. यह जानकारी भी कि वह प्रेग्नेंट है. जमील नहीं आया था. बस कहला भेजा था कि वह अपना बच्चा गिरा ले. इसके बाद उसके आग्रह पर अनिमेष ही केमिष्ट से दवाई खरीद लाया था.

उन दिनों जब वह ग्लानि, शर्म और दुख से भर कर रोती थी, अनिमेष उसका हाथ पकड़ कर बिना कुछ कहे चुपचाप बैठा रहता था. कहने के लिए उसके पास कुछ था भी नहीं. अपने दोस्त की करतूत से वह क्षुब्ध भी था और कहीं से शर्मिंदा भी. दुख के इन पलों में उसके साथ बने रहना ही उसके लिए उसका साथ देना था और वह यही कर रहा था. जमील को हर तरह से समझा कर और अंत में लताड़ कर उसने उससे बात करना बंद कर दिया था.

रोती हुई अक्सर गीतिका उसकी गोद में ढह पड़ती थी. ऐसे में वह धीरे-धीरे उसके बाल सहलाता या पीठ पर हाथ फेरता रहता. उन नितांत विह्वल क्षणों में भी गीतिका की देह उन आत्मीयता से भरे उष्ण स्पर्शों को अदेखा नहीं कर पाई थी और जल्द दोनों ने समझा था, सहानुभूति से शुरू हुए संबंध की दिशा साहचर्य, आंतरिकता और अनुराग की ओर मुड़ गई है. गीतिका आज नहीं जानती जो कुछ भी उन दोनों के बीच उन दिनों पनपा, वह प्रेम था या कुछ और. वह अकेली थी, गहरे तक आहत और अवसाद ग्रस्त. अनिमेष युवा था और किसी साथ की तलाश में. उन दिनों मन से ज्यादा देह अधिक मुखर थी. इच्छाओं में ज्वार भाटे का समय था. साधारण नाक-नक्श वाली गहरी साँवली और दुबली-पतली गीतिका आकर्षक ना सही, एक किशोर लड़की थी जिसके पास शरीर के नाम पर वह सब कुछ था जिसकी कामना उसे भीतर ही भीतर सता रही थी. इस तरह अपने-अपने अभाव के साथ दोनों मिले थे और अंजाने ही एक-दूसरे के पूरक बन गए थे.

प्यार सिर्फ हौसला ही नहीं देता. बल्कि इसके ठीक उलट तोड़ता और झुकाता भी है. कभी-कभी यह एक शर्मनाक अनुभव हो सकता है. खास कर तब जब दूसरे की नियत में बाल निकल आए. जमील के साथ मन के साथ-साथ शरीर का भी संबंध था मगर तब प्यार में सब कुछ सही लगता था. जिसे मन दे दिया उसे देह दे देना कौन-सी बात थी! प्यार में कुछ गलत नहीं होता...

एक लंबे समय तक बिना यकीन के वह जीती रही थी. एकदम डांवाडोल! सब झूठ, सब दिखावा! प्यार नहीं होता. होती है बस जिस्म की भूख, हबस! उसे लगता, उसकी कोख एक कभी ना भरने वाली खोह में तब्दील हो गई है. रातों को अपने बिस्तर पर हाथ-पाँव सिकोड़ कर पड़ी-पड़ी वह भीतर गूँजते सन्नाटे को सुनती रहती. कोई खंडहर है जिसमें छटपटाती हवा दीवारों से सर टकरा रोती फिरती है. कई बार उसे लगता था, रात के अंतिम प्रहर उसके भीतर कहीं बहुत गहरे कोई बच्चा धीरे-धीरे सुबक रहा है! उसने देखा नहीं था उस बच्चे को कभी मगर पहचानती हमेशा से थी. वह उसका हिस्सा था, उसके प्यार का साकार चेहरा!

एक लंबे समय तक वह उसके अंदर सांसें लेता रहा था, हिलता-डुलता रहा था. इस तरह उसके साथ पल-प्रतिपल जीना वास्तव में उसके अभाव में जीना था और यह बहुत त्रासद अनुभव था. अनिमेष ना होता तो जाने ऐसे में उसका क्या होता! सोच कर अब भी शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ती है.

अनिमेष ने उसे बताया था, मरने से पहले कोई मौत नहीं होती. पहला प्यार हो सकता है,मगर आखिरी प्यार जैसा कुछ नहीं होता. जीवन की शुरुआत ठीक वहीं से होती है, जहां से हम चाहें... तो उसका हाथ पकड़ वह फिर कदम-कदम चलना सीखी थी; सीखी थी फिर से यकीन करना- खुद पर और दूसरों पर भी. लगा था, नहीं, यहाँ सब कुछ इतना गलत भी नहीं. यहाँ प्यार भी है, यकीन भी...

मन सूरजमुखी-सा होता है, हमेशा रोशनी की ओर ही बढ़ना चाहता है. अंधकार एक समय तक के लिए छा सकता है, ओर-छोर पसर कर सब कुछ ढाँप भी सकता है, मगरस्थायी नहीं हो सकता. उसे छंटना ही होता है, आज नहीं तो कल... जाने कितने समय बाद सहमे-ठिठके कदमों से सही, वह भी बाहर निकली थी, चली थी अनिमेष के साथ एक नए रास्ते पर, पहले झिझक,संकोच और संशय के साथ, फिर मजबूत कदमों से. धीरे-धीरे सूरत बदली थी, हालात बेहतर हुए थे, जीवन ऊंची-नीची पगडंडियों से उतर कर सम पर आया था.

उन दिनों वे स्कूल से लौटते हुये दूर तक चलते हुये आते थे. कितनी बातें होती थीं उस बीच. जाने क्या-क्या... अब गीतिका याद भी करना चाहती है तो याद नहीं आता. बहुत पहले की बात है यह सब, शायद पिछले किसी जनम की... अब उन में दिनों कोई बात नहीं होती. सारी बातें खत्म हो चुकी है. अब कुछ बची है तो ढेर-सी शिकायतें और कड़वाहट! वह अक्सर सोचने की कोशिश करती है, कहाँ क्या गलत हो गया! सब कुछ ठीक तो था...

अनिमेष के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं. वह भी भीतर ही भीतर हैरान होता रहता है. जान-बुझ कर तो सायास उसने कुछ भी नहीं किया! जिसे वह हाल तक प्यार समझता रहा था, क्या वाकई वह प्यार था? अब वह नहीं जानता. एक बात वह भूल गया था, चैरिटी में मदद, दया, करुणा दी जा सकती है, प्रेम नहीं! जमील से ठुकराई हुई गीतिका एक बेहद असहाय, कातर लड़की थी. घोंसले से गिरे किसी चिड़िया के बच्चे की तरह उसके शरण आई थी. वह उसे कैसे लौटा देता! आज सोचता है तो लगता है, वह प्यार नहीं, उसका पुरुष अहम होगा. वह अहम जो किसी पीड़ित स्त्री की उपस्थिति में जाग उठता है कि कोई उसके शरण में आया है, उससे दया की अपेक्षा रखता है. कृतज्ञता में छलछलाती गीतिका की आँखें उसे बड़प्पन का एहसास दिलाती थी. उसका आश्रय बनते हुये उसने अपनी जरूरतों को भुला दिया, भुला दिया कि उसे क्या चाहिए... उन दिनों किसी मुसीबत में पड़ी औरत का सहारा बनने का नशा उस पर हावी रहा. बाकी बातें गौण हो गईं.

जमील ने एक बार उसके सवाल के जवाब में कंधे उचका कर कहा था, सुंदर लड़कियों को पटाने में बहुत मेहनत लगती है. बदसूरत लड़कियां आसानी से दाना चुग लेती है. तो यही समझ... तब यह बात सुन कर उसे बुरा लगा था मगर अब जब मुड़ कर गुजरे समय के पार देखता है, एक डर-सा उसे घेर लेता है- कहीं यही बात उसके भी अवचेतन में तो नहीं थी! थोड़ी-सी सहानुभूति और साथ के ऐवज में किस आसानी से गीतिका उसके पास खींची चली आई थी!

सालों वह एक भ्रम में जीता रहा. भ्रम कि गीतिका के साथ उसका जो कुछ भी है वह प्रेम है. कोई दूसरा नाम इस समाज और उससे रचा उसका व्यक्तित्व सहज स्वीकार नहीं कर सकता था. जिस्म की भूख और मन के अभाव को यहाँ समाज की स्वीकारोक्त्ति हासिल नहीं. जबकि प्रेम एक वैध शब्द है.  बहुत आसानी से प्रेम के नाम पर यहाँ मन की अराजक इच्छाओं को चलाया जा सकता है और शायद यही उसके साथ भी हुआ था. अपनी भूख और अहम को उसने पहचानने से अजाने ही इंकार कर दिया था और उसे एक सुंदर और जायज नाम दिया था- प्रेम! शायद ग्लानि के दु:सह्य भार से मुक्त होने के लिए या सबके साथ खुद को भी बहलाने के लिए...अब वह तय नहीं कर पाता, ठगा कौन गया, गीतिका या वह खुद!

खुद को छलने की सजा वह सालों से पाता रहा है, यह किसको बताए! आज वह बयालीस साल का है. एक भरा-पूरा मर्द! वह सुदर्शन है यह वह भी जानता है. वर्षों पहले एक छोटे-से कस्बे का दुबला-पतला किशोर नहीं जो संशय और संकोच से हर पल घिरा रहता था. अब वह एक मल्टी नेशनल में ऊंचेपद पर काम करने वाला अफसर है. आत्म विश्वास और अपने विशिष्ट होने की आश्वस्ति से भरा हुआ. आफिसर्स क्लब की पार्टियों में वह सब के आकर्षण के केंद्र में होता है. खास कर महिलाओं के. गीतिका और उसे साथ देख लोगों की नजरों में हैरत तैर आती है, वह देख सकता था. कई बार वह खुद ग्लानिबोध से भर आया है जब अपने ही अजाने गीतिका के साथ चलते हुये वह दो कदम आगे बढ़ जाता था.
(by Paul Lovering)

गीतिका आम भारतीय लड़कियों से इतर देह संबंधी बर्जनाओं से पूरी तरह मुक्त थी. बिस्तर पर जंगली बिल्ली जैसी आक्रामक तेवर रखा करती थी. संबंध में शरीर के वर्चस्व के दिनों में यह सब कुछ खासा उत्तेजक हुआ करता था उसके लिए. सालों इन्हीं बातों में उलझा रहा, मगर अब लगता है, प्रेम इससे भी आगे की कोई चीज होता है. क्या, वह सोच नहीं पाता. बस एक अभाव जो भीतर गहरे कहीं रात-दिन बना रहता है. रह-रह कर उसे अनमन करता है. लगता है, अब देह से बाहर निकलने का समय है. देह से बाहर निकलना यानी गीतिका से परे हो जाना होगा, उसने कब सोचा था...

अब एक कस्बाई जीवन के संकीर्ण घेरे से बाहर निकल वह देख सकता है, गीतिका में सौंदर्यबोध का नितांत अभाव है. खुद गहरी साँवली हो कर चटक रंगों के प्रति उस में अजीब रुझान है. यह कोई मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया होगी. विपरीत चीजें एक-दूसरे को आकर्षित करती है. हमेशा लाल, पीले, हरे कपड़ों में होती है. साथ ही भड़कीले मेकअप! उसे लगता है लिपस्टिक सिर्फ लाल रंग की ही होती है. फल, हरी सब्जी से तो मानो जन्म का बैर है. सिर्फ आलू खा-खा कर आलू की-सी ही गोल-मटोल होती जा रही है. उसके बनाए खाने पर तेल की कम से कम इंच भर मोती परत तैरती होती है. अनिमेष को अब सोच कर हैरत होती है, कभी इसी औरत से उसने प्यार किया था!

लोग कहते हैं, प्यार कभी नहीं मरता मगर वह अब जानता है, हर चीज की तरह प्यार भी मर सकता है. जिंदा रहने के लिए जिस हवा, धूप, पानी की जरूरत होती है उनके निरंतर अभाव में बेहद हरा-भरा, सजीला पौधा भी एक दिन ठूंठ में तब्दील हो सकता है. अपने भीतर रात-दिन सुगबुहगाती अभाव की प्रतीति को अदेखा कर वह एक खुशफहमी में जिये जा रहा था. खुशफहमी प्रेम में होने की, होते चले जाने की... मगर एक दिन अचानक सच्चाई सामने आ खड़ी हुई थी, अपनी पूरी कौंध के साथ और उसने पाया था, अब तक उसके भीतर जिस प्रेम के होने का विश्वास था, वह देह से उतर गई केचुल के सिवा कुछ भी नहीं था! खोखले सीप-शंख, सुंदर मगर एकदम रिक्त...उनसे आती समुद्र की लहरों की आवाज एक भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं! इस अनुभव के साथ वह उतरे समुद्र के पीछे रह गई रेत की ढूंहों के बीच अवाक खड़ा रह गया था.

दैनंदिन जीवन की सामान्य घटनाओं के बीच कब एक-एक कर प्रेम की नियामतें खत्म हो गई, वह समझ नहीं पाया. साथ-साथ खाने-पीने, सोने के बीच उसके अंदर शनैः-शनैः कुछ कम हो रहा है, बीतता समय अपने साथ उसका बहुत कीमती कुछ चुपचाप बहा ले जा रहा है, उसे पता भी ना चला. एक सफल जीवन के गुमान में वह मगन रहा. वाकई शादी एक आदत की बात है और आदत भले ही सहज ना छुटे, ऊब और एकरसता तो पैदा कर ही सकती है...

बेहद भावुक और सहृदय अनिमेष को गीतिका ने धीरे-धीरे बदलते देखा था. शुरू में उसने देख कर भी नहीं देखा था. यह निश्चिंतता सालों के निष्कलंक साहचर्य और समर्पण से आया था. सुरक्षा कवच के इस सुदृढ़ घेरे से निकलना इतना सहज नहीं था. मगर धीरे-धीरे कुहासा छटा था और सारा परिदृश्य स्पष्ट हुआ था. एक दिन स्तब्ध हो कर उसने महसूस किया था, अनिमेष बदल गया है!

हमेशा ऊष्मा और उत्साह से भरा रहने वाला अनिमेष देखते ही देखते एक बेजान शीला खंड में बदल गया था. पहले बहुत धीरे-धीरे और फिर एकदम से उसने खुद को पूरी तरह समेट लिया था. कुछ इस तरह कि हजार कोशिश कर भी उसे कहीं से उस तक पहुँचने का कोई सिरा नहीं मिल पाया था. खुद तक पहुँचने के सारे कपाट बंद कर वह निर्लिप्त हो गया था. ओह! कैसे यातना भरे दिन थे वे! वह सुबह-शाम, हर दिन, हर पल उस तक पहुँचने की कोशिश में उसके बंद दरवाजे पर दस्तक देती रहती थी. इतना कि उसके दोनों बाजू टूट गए, उँगलियाँ झर गईं, हौसले चूर-चूर हो कर बिखर गए...

वह जानना चाहती थी उसका क्या कसूर है. सबसे बड़ा जुल्म यह था कि अनिमेष कुछ बोलता भी नहीं था. उसकी चुप्पी उसे पागल किए दे रही थी. वह सिर्फ उसका व्यवहार देख रही थी जो सिरे से बदल गया था. पढ़ने-लिखने के नाम पर उसने स्टडी में सोना शुरू कर दिया था. रात-रात भर स्टडी की रोशनी जलती रहती मगर बार-बार नॉक करने पर भी दरवाजा नहीं खुलता. जब भी वह करीब जाने की कोशिश करती, उसे कोई जरुरी काम याद आ जाता या नींद, थकान घेर लेती. अब उनके खाने का प्लेट भी अलग हो गया था. पहले सालों वे एक ही प्लेट से खाते आए थे.

क्लब में जाते तो वह उससे दूर अलग-थलग बैठता. उन दिनों अनिमेष हर सुंदर औरत को बहुत ध्यान से देखने लगा था. वह कुछ कहने जाती तो चिढ़ कर उसके हजार नुश्ख निकालने लगता- तो क्या तुम्हें देखूँ! कुछ सलीका सीखो इनसे. अब तक साड़ी बांधना नहीं आया...

शुरू-शुरू में उसे यकीन नहीं आता था कि अनिमेष उससे इस तरह से बातें कर रहा है. वह आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को देखती और रोती. ओह! यह वही थी! इन कुछ सालों में कितना बदल गई थी वह- चर्बी से ठसाठस भरा मोटा थूल-थूल शरीर, झर-झर कर पतले हो गये बाल, झाई पड़े गाल, फुंसी, मुहासों से भरा चेहरा...  वह भी जानती है, सुंदर तो वह कभी नहीं थी मगर अब बीमारी और उम्र ने उसे एक हद तक विकर्षक भी बना दिया था. एक समय के बाद उसने आईने के सामने खड़ी होना ही छोड़ दिया था. अपना आप ही जैसे असहनीय हो उठा था उसके लिए.

अनिमेष को अब उस में ऐब ही ऐब नजर आते थे. खाने में तेल, ज्यादा नमक... अनगिनत शिकायतें! सबसे ज्यादा जो दुखता था वह था दूसरों से तुलना- मिसेज शुक्ला को देखो, कितने सलीके से सजती-संबरती हैं, उमा जी का ड्रेसिंग सेंस भी कमाल का, और एक तुम हो! कुछ भी डाल लेती हो! और कुछ नहीं तो अपनी ढलती उम्र का तो ख्याल करो! साथ निकलते शर्म आती है...

गीतिका अनिमेष को देखती है. इन दिनों सजने-संबरने में वह काफी दिलचस्पी लेने लगा है. तरह-तरह के आफ्टर सेव, कोलोन, सर्ट्स, कुर्ते की ऑन लाइन शॉपिंग... सालों का लड़कानुमा दुबला-पतला चेहरा परिपक्व हो कर निखरा है. वातानुकूलित कमरे में बैठे-बैठे धूप से संबलाया रंग भी अधिक गोरा हो आया है. लाल कुर्ते में दमकते उसके चेहरे की ओर देखते हुये उसका दिल बैठने लगता है- कहीं कोई इश्क-विश्क का तो चक्कर नहीं! आजकल जिस तरह से अपना मोबाइल सम्हालता फिरता है! बाथरूम में भी मोबाइल...

जो वह नहीं करती थी कभी अब वही करने लगी है- दिन में दस बार अनिमेष को फोन करके टोह लेने की कोशिश करती है कि वह कहाँ है; वह जब बाथरूम में होता है, उसके जेब की तलाशी लेती है, कपड़े सूंघ कर देखती है, लांड्री में देने से पहले उन्हें ध्यान से देखती है... असुरक्षा ने उसे कितनी कुंठित, कितनी शक्की बना दिया है!

आजकल फेसबुक एक नया शगल हुआ है. जब देखो फेसबुक में! ऐसा क्या है फेसबुक में! उसे फेसबुक आदि के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं. हाल ही में नया स्मार्ट फोन लिया है. वह भी बेटे की जिद्द पर कि ममा सबके पास होता है, ले लो! फिलहाल उलट-पुलट कर ही देख रही. वह अपने घर-गृहस्थी में उलझी रही और जमाना जाने कहाँ से कहाँ चला गया! रातों को बिस्तर में पड़ी-पड़ी वह तकिये में मुंह छिपा कर रोती रहती. सब कहते थे, गीत तू बड़ी किस्मत वाली, तुझे अनिमेष-सा नेक, सजीला दूल्हा मिला है... उसके सौभाग्य को किसकी नजर लग गई!

उस दिन बेटे के कराटे क्लास के बाहर मिसेज कक्कर ने उसे फेस बुक दिखाया था- आप फेसबुक में नहीं हैं? आपके श्रीमान तो हर वक्त फेसबुक पर ही रहते हैं. देखिये, अभी भी ऑन लाइन हैं... कमाल का कमेन्ट करते हैं... उसने देखे थे उसके कमेन्ट महिलाओं की तस्वीरों पर-अप्रतिम’,‘अद्भुत’,‘अद्वितीयअपनी सबसे सुंदर फोटो उसने प्रोफ़ाइल पर लगायी हुई थी. उस पर कमेन्ट की भरमार थी, खास कर औरतों की! आफिसर्स क्लब में उसे आँखों ही आँखों में निगलने वाली तमाम मिसेज कुलकर्णी, बालिया, मजूमदार यहाँ भी टूटी पड़ रही थीं. देख कर उसका खून देर तक खौलता रहा था.


उस दिन घर लौट कर उसने अनिमेष से अपना फेसबुक अकाउंट खुलवाया था. अनिमेष ने बिना कोई सवाल के कौतुक से मुस्कराते हुये उसका अकाउंट खोल दिया था. प्रोफाइल पिक्चर चुनते हुये तंज करने से नहीं चुका था- कोई भी लगा लो, क्या फर्क पड़ता है! अकाउंट खोल कर एक मुद्दत बाद वह दिनों तक रोमांच का अनुभव करती रही थी. पहले-पहल तो फेसबुक पर आने का एक मात्र उद्देश्य अनिमेष की गतिविधियों पर नजर ही रखना था मगर धीरे-धीरे उसने अनुभव किया था, फेसबुक इसके अलावा भी और बहुत कुछ है. शुरू-शुरू में कॉलोनी की दो-चार परिचित ही लाइक, कमेन्ट करते. प्रोफ़ाइल पर चार लाइक पड़े थे. देख कर अनिमेष मुस्कराया था- अरे वाह! चार लाइक्स! तुम तो छा गई यार गीत! वह भीतर ही भीतर कट कर रह गई थी. अनिमेष के नए प्रोफ़ाइल पर चार सौ लाइक, तीन सौ कमेन्ट आए थे, उसने देखा हुआ था. उसके बार-बार कहने पर भी अनिमेष ने दिनों तक उसका फ्रेंड रिकवेस्ट स्वीकार नहीं किया था. मित्र बनने के बाद भी उसके पोस्ट्स पर एक बार भी नहीं आया. शिकायत करने पर करवट बदल कर लेट जाता- कहीं तो पीछा छोड़ो!

बेटे ने प्रोफ़ाइल पिक देख कर मुंह बनाया- ऊँह ममा! फेसबुक पर कोई ऐसी तस्वीर लगाता है. यह तो आधार कार्ड में लगाने लायक है! सुन कर उसका चेहरा उतर गया था- तो अच्छी तस्वीर कहाँ से लाऊं! जैसी सूरत, वैसी ही ना आएगी! उसकी बात पर उसका बारह साल का बेटा ऐसे हंसा था जैसे उसने कोई निहायत बचकानी बात कर दी हो- ओहो! फॉटोशॉप के जमाने में सूरत की क्या चिंता करती हो. बताओ, तुम्हें क्या बनना है? प्रियंका चोपड़ा, श्रद्धा कपूर या तुम्हारी वही- रेखा...बेटे ने धड़ाधड़ कई ऐप डाउन लोड कर दिये थे- यह लो, ब्युटि प्लस, स्नैपसीड, रेटरिका... जो बनना है बन जाओ- गोरी, दुबली, लंबी...

वह अपने बेटे का चेहरा देखती रह गई थी. अब तक नाक पकड़ कर दूध पीने वाला और बात-बात पर रोने वाला उसका गोलू इतना सब कुछ कैसे जानता है! उसकी बहनें ठीक ही कहती हैं, वह अब तक सोई ही रही...

इसके बाद इंटरनेट ने एक नई दुनिया ही खोल दी थी उसके सामने. पहले संकोच से, फिर उत्साह के साथ वह आगे बढ़ी थी. अब तक बहुत छोटी-सी थी उसकी दुनिया जिसके केंद्र में अनिमेष और उसका बेटा ही था. उनके इर्द-गिर्द वह किसी उपग्रह की तरह चक्कर लगाती रहती थी. उन्हीं से जीवन, वही जीवन का उद्देश्य भी. अपना कुछ नहीं. रोशनी, ऊर्जा सब उधार की... बेटे ने फोटो एडिट करके दिया तो वह खुद को पहचान ही नहीं पाई. एकदम गोरी-गुलाबी, चमकती हुई. वह चाह कर भी तस्वीर का गोरापन कम नहीं कर पाई. बचपन से अपनी गहली साँवली त्वचा के लिए उसने कम उपहास-अवहेलना नहीं झेली थी. पहले-पहल तो चटक रंग कपड़े पहनने में भी संकोच होता था. गली के बच्चे काली मैया कह कर चिढ़ाते थे. उसके जन्म के समय तो सुना था दादी आँख पर आँचल धर रोने ही बैठ गई थी कि एक तो तीसरी बेटी ऊपर से इतनी काली! कवि मामा ने ढांढस बँधाया था, आषाढ़ में आई है बिटिया, श्यामल मेघ-सी साँवली, कृष्णा... सुन कर दादी चिढ़ गई थी- तुम्हारी कविता से दुनिया नहीं चलती, समझे!

धड़कते दिल से प्रोफ़ाइल बदला और फिर हैरत से देखा, दो घंटे में सौ लाइक्स. कमेंट्स उससे भी ज्यादा- ब्यूटीफूल, सुंदर, अनुपम... यह सब उसके लिए था! उसे यकीन नहीं आ रहा था. अनिमेष को दिखाया तो वह बिना कुछ बोले ऑफिस के लिए निकल गया. उसकी चुप्पी में उसे कहीं कुछ जलने की बू आई. दिनों बाद मन को ठंडक पहुंची. वह दिन उसके जीवन की एक नई शुरुआत का दिन था.

इसके बाद फ्रेंड रिक्वेस्टकी झड़ी लग गई. देखते ही देखते मित्र संख्या पाँच हजार की सीमा छूने लगी. इनबॉक्स में सैकड़ों संदेश- गुड मॉर्निंग, गुड नाइट से ले कर पिक्चर्स और शेर ओ शायरी, कविता आदि. यह एक अजीब किस्म का नशा था. कल तक वह एक अधेढ़ होती उपेक्षित हाउस वाइफ़ थी जिसके लिए किसी के पास समय नहीं था और आज जैसे अचानक से कोई सेलीब्रिटी हो गई थी. जाने कितने लोगों के आकर्षण के केंद्र में हो आई थी वह! सब चैट करने, फोन नंबर लेने के लिए आतुर! पचास को छूती-छूती उम्र के अवसाद के साथ अनिमेष की जानलेवा उदासीनता तो थी ही, साथ ही बुझने से पहले एक बार पूरी कौंध से जल उठने की कोई छिपी अभिलाषा भी शायद रही होगी. एक औरत होने की हैसियत से अब भी अपनी क्षमता और प्रभाव आजमाने का दुर्वार लोभ, लंबी अवधि से बार-बार आहत हो रहे अहम को दुरुस्त करने की जरूरत... वह बांध टूटी नदी की तरह अपना कूल-किनारा तोड़ कर अबाध्य बह चली थी, बिना इस बात की परवाह किए कि वह किस दिशा में जा रही है; इस उद्दाम प्लावन की परिणति क्या होगी!

गहरे नशे की-सी अवस्था में उसे लग रहा था, कैशोर्य के वे सुनहरे दिन लौट आए हैं जब उठती उम्र का लावण्य उसके साधारण शक्ल-सूरत पर भी हल्दी के उबटन की तरह चढ़ा था. चलते हुये कुछ लोग उसे मुड़ कर देखने लगे थे, पत्थर में लिपटे खत भी आँगन में गिरते थे, सर्दी की धूप में छत पर कभी बैठी तो पड़ोसियों के घर कई आईने एक साथ चमक उठते थे. स्कूल में भी किताबों में छिप कर कुछ प्रेम पत्र उस तक आए थे. उन्हीं दिनों तो जमील उसके जीवन में आया था! वह भी क्या दिन थे! लोगों की नजरों ने उसे कुछ खास होने का एहसास करवाया था. उसे लगता था, वह यकायक कुछ हो गई है. बार-बार आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को देखती थी, घर से निकलने के पहले बनती-संबरती थी. एक बार उसके लिए उसके स्कूल के दो लड़कों के बीच मारपीट भी हो गई थी. यह सब किसी के भी अहम के लिए बहुत आश्वस्ति भरा अनुभव हो सकता था...

जिस्मानी तौर पर उसका जीवन कुछ अर्थों में बेहतर हो कर भी चार दीवारी के भीतर कैद एक आम भारतीय स्त्री का जीवन ही था जिसकी दुनिया घर की जिम्मेदारियों के इर्द-गिर्द एकरस निरंतता के साथ बरसों-बरस किसी चक्र की तरह घूमती रही थी. निजता के क्षण बस उतने ही जो हर तरह के घरेलू काम के बाद बच जाते थे. अपनी सोच के दायरे में भी उसका स्व सबसे आखिरी में होता था. भुलता हुआ-सा! तरजीह की फेहरिस्त में दाल, चाबल, आटा पहले आता था, उसके सपने बहुत बाद में. याद गली का हर चेहरा धुंधला पड़ने लगा था गुजरते वक्त के साथ.

मगर अब जैसे संभावनाओं की एक पूरी दुनिया खुल गई थी उसके जीवन में फेसबुक के साथ. जाने कब के बिछड़े परिचित, बचपन की सहेलियाँ, संबंधी एक-एक कर आ जुड़े थे फ्रेंड लिस्ट में! देखते ही देखते कुनबा बढ़ा था आभासी दुनिया का. हर पल नोटिफिकेशन की घंटी बजती रहती, मेसेज बॉक्स, फ्रेंड रिकवेस्ट आदि की भीड़ लगी रहती. उसने धीरे-धीरे फोटो डालना, टैग करना आदि सीखा था. इन नए तजुर्बों में गज़ब का रोमांच था. पाँच इंच का वह छोटा-सा फोन जैसे पूरी दुनिया पर खुलने वाली एक जादुई खिड़की था जिस पर बैठी वह हर क्षण इधर-उधर झाँकने को लालायित रहती थी. सुबह उठते ही सबसे पहले फोन उठा कर मैसेज देखना, सबके गुड मॉर्निंग का जवाब देना, फेसबुक का जायजा लेना उसके रूटीन में शामिल हो गया था. दिन भर काम के बीच भी मन मोबाइल पर ही अटका रहता. हर पाँच-दस मिनट में मोबाइल उठा कर चेक करना एक तरह की बाध्यता.

इनके पीछे कभी दाल जल रही थी तो कभी बेटा टिफिन में जैम-ब्रेड ले कर ही स्कूल जा रहा था. अनिमेष लंच ब्रेक में घर आता तो अक्सर खाना तैयार नहीं मिलता. पूछने पर वह डिफेंसिव हो उठती और झगड़ने लगती. फेसबुक ने गीतिका को एक नए आत्म विश्वास से भर दिया था. शादी के बाद हर तरफ से कट कर इस नई जगह के अजनबी परिवेश में वह जिस तरह से खुद को अकेली और असहाय पाती थी वह एकदम से चला गया था. फेसबुक के हजारों दोस्तों, क्ंप्लीमेंट्स, मेसेज, फोन, चैट से घिरी उसे लगता, वह अकेली नहीं है. उसके भी कई अपने हैं जो उसे सराहते हैं, उसकी बात सुनते हैं और साथ भी देते हैं. रात के किसी भी प्रहर उसके एक आह्वान पर दस लोग निकल आते हैं, मदद के लिए हाथ बढ़ाते हैं!

तो अब बात-बात पर वह फेसबुक की ओर दौड़ती है, हजारों लोगों से दिल की बात इस तरह शेयर करती है जैसे वे अदेखे,अजाने लोग उसके बचपन की सहेलियाँ हो. रात को नींद नहीं आ रही, तबीयत खराब है, यह पका रही, वह खा रही... साथ ही हर रोज आठ-दस सेल्फी, खुद के उठाए फोटो... उसकी आत्मीय बातें, खुलापन, भावुकता आभासी दुनिया की भीड़ को खूब भा रही थी. कोई प्रगतिशीलता तो कोई स्त्रीवाद के नाम पर उसे ऊपर और ऊपर चढ़ाये जा रहे थे. लोगों की शह पा कर उसके भीतर लंबे समय से दबा पड़ा लावा फूट पड़ा था और वह स्त्री समस्याओं पर जम कर लिखने लगी थी. देखते ही देखते दमित और कुंठाग्रस्त औरतों की एक बहुत बड़ी संख्या उसके आसपास इकट्ठी हो गई थी. 
(by Paul Lovering)

स्कूल के दिनों में डायरी में छिप-छिप कर कवितायें लिखा करती थी. एक दिन हिम्मत करके उनमें से एक एफबी पर डाल दिया अपनी सोती हुई तस्वीर के साथ. दिन भर में दो सौ कमेन्ट आ गए. साथ ही किसी पत्रिका के संपादक का उसे अपनी पत्रिका में छापने का ऐलान! इससे हौसला बढ़ा तो डायरी, कविता आदि नियमित लिखने लगी और जल्द ही फेसबुक की चर्चित लेखिका बन गई! ऊपर से  रूप की प्रशंसा! इसके जादू से बाहर आना तो एकदम कठिन था. जो कमप्लीमेंट उम्र के सोलहवें साल पर नहीं मिल पाये थे वह सैतालीस साल की उम्र में मिल रहे थे.

रात के एकांत में ऑन लाइन हो कर उसे प्रतीत होता वह कोई सुंदर सेलीब्रेटी है. रह-रह कर बज उठती मैसेंजर की घंटी और स्क्रीन पर चमक उठते रोमांटिक संदेश उसे किसी फिल्म से निकले ड्रीम सीक्वेंस जैसे लगते- हाई ब्यूटीफूल! हैलो बेबी! मुझसे दोस्ती करोगी? क्या कर रही हो... अब अनिमेष की उपेक्षा, अपना एकाकीपन उसे नहीं चुभता. भांड में जाये वह और उसका प्यार. वह अकेली नहीं ना उसे चाहने वालों की कमी है. हालांकि इन मैसेजों का जवाब देने की उसकी हिम्मत नहीं होती मगर वह उन्हें स्वप्न भरी आँखों से बार-बार पढ़ती रहती.

मगर बहुत दिनों तक इसके आकर्षण से बाहर रहना उसके लिए संभव नहीं रह गया. खास कर उस गहरे साँवले लड़के के आकर्षण से जिसका नाम संवेग था. कैसी उदास आँखें थीं उसकी... बातें भी औरों से हट कर. जैसे शब्द-शब्द कविता! बहुत दिनों तक वह उससे निर्लिप्त रह नहीं पाई और धड़कते दिल से उसके साथ चैट करने लगी, पहले कभी-कभार फिर नियमित. संवेग की बातों से लगता था वह निहायत अकेला है और जीवन से विरक्त भी. पहले दिन से ही वह उसे बताने लगा था कि ना जाने क्यों, उसकी तस्वीर देखते ही उसे उससे प्यार हो गया है. उसकी इस हद तक बेलाग बातों ने जहां गीतिका को स्तंभित कर दिया था वही उसकी निर्भीकता और स्पष्टवादिता ने प्रभावित भी किया था. एक अर्से से प्रेम और साहचर्य के अभाव में मरुभूमि बन चुकी गीतिका के लिए यह शब्द बारिश की बूंदों की तरह सुखद थे जिन्हें पढ़ते हुये अपने ही अजाने वह भीतर ही भीतर हरिया उठी थी.

वह खुद क्या चाहती थी उसे पता नहीं मगर कुछ था जो उसे हवा में तिनके की तरह उड़ाए ले जा रहा था. ना चाहते हुये भी वह उसके आमंत्रण पर चैट पर बैठ जाती. उसके दिलफरेब बातों पर सिहरती हुई हाँ हूँ में जवाब देती रहती. रात-दिन, सुबह शाम... अब हर वक्त उसे भी संवेग के मैसेज का इंतज़ार रहता. कोई उसके रूप पर मोहित है, उसे दीवानों की तरह चाहता हैहर तरह से शुष्क उसके जीवन में यह सब मौसम की पहली बारिश-सा सरस, सुंदर था. इनसे बूंद-बूंद तर हो कर वह मिट्टी की तरह सौंधी महक से भर उठी.

उसे उसकी कई बातें अनिमेष की याद दिलाती थी. कभी वह भी इसी तरह की बातें किया करता था.इस एहसास ने उसे कहीं से शंकित भी कर दिया था. उसके लिए यह जानना जरूरी था कि संवेग एक हकीकत है, कोई आभासी दुनिया का छ्ली नहीं. निश्चिंत होने के लिए उसने उसे तरह-तरह से परखा था. उससे फोन पर बात करने की जिद्द की थी. संवेग ने बात की थी. फिर उसने उससे कहा था जब अनिमेष उसके सामने हो तब उसे मैसेज करे. संवेग ने मैसेज किया था. अब गीतिका हर तरह से आश्वस्त हो गई थी संवेग के बारे में कि वह ना अनिमेष है ना कोई बहुरूपिया. इस विश्वास के साथ ही उसकी हर तरह की वर्जनाएं टूट गई थीं. वह संवेग के साथ पूरी तरह खुल गई थी. हर सुबह बेटे और अनिमेष के घर से निकलते ही वह चैट करने बैठ जाती. शाम बेटे को कराटे स्कूल छोड़ पार्क में बैठी-बैठी भी वह फोन, चैट में मगन रहती. रात देर तक चैट कर सुबह उठ नहीं पाती और सर दर्द, तबीयत खराब होने का बहाना बना पड़ी रहती. रस भीनी, मन की निसिद्ध इच्छाओं की बातें,कविताओं का आदान-प्रदान, तस्वीरें...देह की बातें करते हुये गीतिका वही सोलह साल की लड़की हो जाया करती थी जिसके लिए स्पर्श की कल्पना रोमांच के साथ एक कौतुक मिश्रित भय भी जगाया करती है. संवेग उसे ऐसी-ऐसी उत्तेजक तस्वीरें भेजता था जिन्हें देख कर वह रात भर सो नहीं पाती थी. धीरे-धीरे उसने भी अपनी निजी तस्वीरें, अंतर्वस्त्रों के साइज, कामनाओं का लेखा-जोखा उसे सौंप दिये थे.

अनिमेष कुछ हैरत, कुछ कौतूहल के साथ गीतिका में आए परिवर्तन देख रहा था. जाने इन दिनों उसका ध्यान किधर था. अपने में खोई-खोई रहती, घर की ओर भी उदासीन. तबीयत की बात कर दिन चढ़े तक सोई रहती है. आए दिन ऑफिस जाने से पहले उसे गोलू को भी स्कूल के लिए तैयार करना पड़ता है. लंच ब्रेक पर आ कर कई बार लांच नहीं मिलता. कुछ कहने जाओ तो काटने को दौड़ती है. कई बार ऑफिस में उसके खिलाफ शिकायत करने की भी धमकी दे चुकी है. बात-बात पर नारी अस्मिता और नारी के अधिकार पर भाषण शुरू कर देती है. कुछ समय से अपने रख-रखाव पर विशेष ध्यान देने लगी है. जन्म की आलसी शाम गिरने तक कई किलोमीटर चल आती है. फैशन का भी वही आलम. जब देखो किसी ना किसी ऑन लाइन स्टोर का कूरियर बॉय दरवाजे पर खड़ा है. हर दूसरे दिन फोन रिचार्ज करने का निर्देश भी!

ऑफिस में सब दबी जुबान बात करते. उसके फेसबुक पोस्ट्स उसके लिए खासा सर दर्द बन गए थे. खास कर सेल्फीस. नित नई मुद्रा और परिधान में. फॉटोशॉप की महिमा से एकदम स्नो व्हाइट! फिर वह हृदय विदारक विलाप, गीत, शेर, कवितायें... लोग चेहरे पर गंभीरता ओढ़ कर पूछते, अनिमेष बाबू! घर पर सब ठीक है ना? वह क्या जवाब देता. बस सब से बचता फिरता.

और एक दिन वह मेल आया था! देख कर वह सन्न रह गया था. गीतिका का किसी संवेग से हॉट चैट! पन्ना-पन्ना. साथ ही अंतरंग मुद्राओं और वस्त्रों में तस्वीरें! अपनी आँखों से देख कर भी वह विश्वास नहीं करना चाहता था मगर उनके निहायत निजी जीवन की बातें, तस्वीरें, विवरण उसे यकीन करने पर बाध्य कर रहा था. उसने उसी दिन गीतिका से सीधे-सीधे पूछा था. सुनते ही घर में बंद पड़ गई बिल्ली की तरह वह आक्रामक हो उठी थी. घबराहट और गुस्से में जाने क्या-क्या अनर्गल बोलती चली गई थी- उसका अकाउंट हैक किया गया है, यह उसे बदनाम करने के लिए किसी की चाल है आदि-आदि और अंत में चांटे से तिलमिला कर- अगर वह उसकी जिस्मानी जरूरतों को पूरी नहीं कर सकता तो उसे पूरा हक है कि वह किसी और से संबंध बनाए! सुनते हुये अनिमेष का धैर्य जवाब दे गया था और उसने उसे कई चांटे जड़ कर उसके माँ-बाप को फोन लगाया था.

अब गीतिका नर्म पड़ी थी और रोते हुये माफी मांगना शुरू कर दिया था कि उससे भूल हो गई. वह उसे एक मौका दे. आगे से ऐसा कभी नहीं होगा. स्कूल से लौट कर बेटा भी माँ को रोते हुये देख कर रोने लगा था. दोनों को इस तरह रोते देख अनिमेष वहाँ से चला गया था.

इसके बाद दिनों तक गीतिका चुप पड़ी रही थी. इस बीच अनिमेष अपने मोबाइल में उसका फेसबुक अकाउंट खोले उसकी गतिविधियों पर नजर रखने लगा था, उसे उसका पासवर्ड पता था ही. साथ ही वह उसका कॉल लॉग भी चेक करता. गीतिका का टेक्नॉलॉजी ज्ञान शुरू से शून्य था. हर बात के लिए वह अनिमेष या मुंबई में रहने वाली अपनी बहन पर ही निर्भर करती थी. अनिमेष देख रहा था कि अब वह कॉल लॉग, चैट मिटाने लगी थी और थोड़े ही दिनों बाद अपना फेसबुक पासवर्ड भी बदल लिया था. शायद अपने किसी फेस बुक शुभचिंतक या बहन के परामर्श से. मगर अनिमेष के फोन पर उसका फेसबुक खुला ही रह गया है इस बात का उसे एहसास नहीं था.

अनिमेष ने कहा था, अब अगर उसने एक भी गलत हरकत की, वह सभी को सच्चाई बताने पर बाध्य हो जाएगा. इस बात ने गीतिका को सहमा दिया था. अपने निजी जीवन में अब तक उसकी छवि एक सीधी-सादी घरेलू औरत की थी. जहां अनिमेष के उजले रंग, आकर्षक चेहरे और स्मार्टनेस के कारण लोग उसे तेज-तर्रार और अग्रेसिव समझते थे वहीं उसके साधारण रूप-रंग और स्थूल काया के लिए उसे घरेलू और सीधी-सरल. वह सबके स्नेह और सहानुभूति की पात्र थी- गीतिका जैसी सादा औरतें कभी कुछ गलत कर नहीं सकती! चालाक तो उसका पति है. देखते नहीं उसकी कंजी- भूरी आँखें, लच्छेदार बातें...

हाल ही में पायी हुई आजादी का स्वाद, शोहरत, तारीफ और रोमांस उससे भुल नहीं पा रहा था. वास्तविक जीवन में बस अकेलापन और उदासी थी, आभासी दुनिया में सब कुछ परीकथाओं-सा सुंदर, स्वप्निल! घर की दहलीज के भीतर वह एक माँ, हाउस वाइफ़, नेट के विंडों के पार एक सुंदर, सबके आकर्षण की केंद्र नायिका! अब रोटी पकाने, स्वेटर बुनने में उसका दिल नहीं लगता. अब वह जानती है, घर की चार दीवारी के बाहर हवा, धूप और रोशनी है. जिस वक्त वह बेटे को थपक कर सुलाने की कोशिश करती, उसका बेलगाम मन अपने काल्पनिक रेशमी बाल खोले अपने किसी प्रेमी के साथ तेज बारिश के बीच लंबी ड्राइव पर निकल जाता. बिस्तर पर पड़ी-पड़ी उसे संवेग के शब्द याद आते. गहरे विषाद के साथ जिस्म के रोएँ थियरा उठते. जाने उसने किस जन्म का बैर निभाया था! उससे चैट के दिनों में लगता था वह प्रेम में है. अब जानती है, वह बस भूख थी. जीवन के अकाल से उपजी सर्वग्रासी भूख!

सालों देह-मन की क्षुधा, अभाव के बीच वह किसी तरह जीती रही थी मगर संवेग ने इस तरह आ कर एक सूखे जंगल में आग लगा दी थी और अब यह आग दावानल बन गई थी. दिन-रात देह में कुछ धू-धू जलता है, मन भीगी लकड़ी-सा धुआँता रहता है. अपनी हताशा में वह रात-दिन फेस बुक पर रोती रहती. इसके पीछे उसके भीतर का अभाव तो था ही, साथ ही कहीं से एक डिफेंस मेकानिज़्म भी था- अनिमेष के किसी भी तरह के हमले के विरुद्ध अपनी सीधी-सादी और अच्छी औरत होने केछवि निर्माण की स्ट्रेटेजी!

दूसरी तरफ मैसेज बॉक्स में लुभावने निमंत्रणों के अंबार लगे रहते. अपनी बहन आदि से पूछ कर जब वह इस बात के लिए पूरी तरह आश्वस्त हो गई कि पासवर्ड बदलने के बाद अब उसका फेस बुक सुरक्षित है, वह फिर अपनी पुरानी दिनचर्या में लौट गई थी. सारी वर्जनाओं को तोड़ कर. वह जीना चाहती है और जीने के लिए कोई भी कोशिश नाजायज नहीं हो सकती!

विडम्बना यह कि इस बार उसे एक साथ दो लोगों से प्रेम हो गया! एक तेज तर्रार जर्नलिस्ट और दूसरा एक रेडियो जॉकि! जर्नलिस्ट की हिम्मत भरी बातों की वह दीवानी थी तो रेडियो जॉकि के जादू भरी आवाज की. दोनों फेस बुक पर चमकने वाली उसकी तस्वीरों पर फिदा थे. आवाज भी उसकी भारी और सांद्र थी. गीतिका की औरत को उनकी मर्दानगी आकर्षित करता था.

दोनों ने शुरू-शुरू के चैट में ही उससे शब्दों के माध्यम से जिस्मानी ताल्लुक स्थापित कर लिए थे. उनके सामने वह बिलकुल दुर्बल पड़ जाती. वे आते और उससे अपनी मनमानी कर चल देते. फोन पर भी वही सब. फोन रख कर उसे प्रतीत होता, वह हर तरह से रुँद्ध गई है. रेडियो जॉकि अपनी नशीली आवाज में जब कहता गुड नाईटी’, नाईटी के भीतर उसकी देह पिघलने लगती. जर्नलिस्ट से वह अपनी दुख भरी कहानी सुनाती और वह उसे एक दिन सारी तकलीफों से निजात दिलाने का वादा करता. अड़तालीस छूते-छूते एक बार फिर वह अपने कैशोर्य में लौट गई थी. कभी जर्नलिस्ट के वाल पर उसकी दूसरी प्रशंसिकाओं के साथ होड़ लेती तो कभी रेडियो जॉकि के साथ भीगी, सांद्र आवाज में देर तक बातें करती. मान-मनुहार, रूठना-मनाना...
सोलह साल की मुग्धा की तरह अभिसार में डरना, सिहरना, खुद को तुम्हारी पगलू दोस्त कहना... जर्नलिस्ट भावुक हो कर कहता, मुझे लग रहा है मैं तुम्हें अनिमेष से छिन रहा हूँ या मैं तो मर ही जाऊंगा अगर किसी दिन तुम कहो, रवीश, तुम भी देह से आगे बढ़ ना सके! जॉकि कहता, सब कुछ छोड़ कर मेरे पास आ जाओ...

वह बार-बार उनसे पूछती रहती, उनके चैट कहीं अनिमेष पकड़ तो नहीं पाएगा और दोनों उसकी मासूमियत पर मुस्करा पड़ते. उन दोनों की बातों से और फेस बुक के सैकड़ों लाइक्स, कमेंट्स से वह एक बार फिर खुद को मजबूत महसूस करने लगी थी. वह अकेली नहीं, कमजोर नहीं, सब उसके साथ है!

अनिमेष किसी तरह अपने गुस्से पर काबू रख कर गीतिका की हरकतों पर नजर रख रहा था. उसके सब्र की अब इंतिहां होने लगी थी. गीतिका से उसका मन फिर गया था मगर आज भी वह उसके बच्चे की माँ और उसका परिवार थी. हजार प्रलोभनों के बावजूद उसने कहीं और जा कर अपनी जरूरतों को पूरी करने की कोशिश नहीं की थी. गीतिका के प्रति सारे दायित्त्वों का निर्वहन भी उसने आज तक किया था. सामाजिक प्रतिष्ठा और बेटे की खातिर उसने गीतिका को उसकी पहली गलती के लिए माफ कर आगे बढ़ने का निर्णय लिया था. मगर गीतिका...!

रात के एक बजे अनिमेष के सामने गीतिका का फेसबुक खुला हुआ था. गीतिका अपने कमरे में बंद हो कर एक साथ अपने दो प्रेमियों के साथ हॉट चैट पर थी. एक उससे अपनी गोद पर बैठने के लिए इसरार कर रहा था तो दूसरा कहीं मिलने की योजना बना रहा था. पढ़ते हुये अचानक अनिमेष के भीतर एक विस्फोट-सा हुआ था और वह अपना सुध-बुध खो बैठा था. काँपते हुये उसने गीतिका के दरवाजे पर धीरे-से दस्तक दिया था और जैसे ही थोड़ा रूक कर उसने दरवाजा खोला था, उसे खींचते हुये ड्राइंग रूम के सोफ़े पर गिराया था और कई चांटे एक साथ तरातर जड़ दिये थे. इस आकस्मिक घटना से गीतिका सन्न रह गई थी और पूरा माँजरा समझ आते ही डर से पीली पड़ गई थी. मोबाइल अब भी उसके हाथ में था और चश्मा टूट कर दूर जा गिरा था.

इसके बाद वह रो-रो कर माफी मांगती रही थी मगर अनिमेष पर तो जैसे भूत सवार था. उसने एक-एक कर उसके सारे रिशतेदारों को, दोस्तों को फोन कर उसके बारे में बताया था और फिर उसे घर से बाहर धकेल कर पीछे से दरवाजा बंद कर लिया था. सीढ़ी पर बैठ रोते-रोते अचानक गीतिका की सांस रूक-सी गई थी. उसने विस्फारित आँखों से देखा था, बाहर चारों तरफ गहरा अंधकार था और तेज बारिश हो रही थी. दूर कहीं सियार की हूक सुनाई दे रही थी. अपने तमाम दोस्त, लाइक्स, कमेंट्स, इमोजी, स्माइली और फूल-पत्ते समेट कर जगमगाती आभासी दुनिया यकायक अन्तरिक्ष के असीम अंधकार में अंतर्ध्यान हो चुकी थी और पीछे बची रह गई थी वह- अकेली और असहाय! हाथ में मोबाइल पकड़े जिसका स्क्रीन बुझ कर काला पड़ चुका था.
12/10/2017)
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जयश्री रॉय
18 मई, हजारीबाग (बिहार)
एम. ए. हिन्दी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवा विश्वविद्यालय

अनकही, तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी, कायांतर, फ़ुरा के आंसू और पिघला हुआ इन्द्रधनुष, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह) औरत जो नदी है, साथ चलते हुये, इक़बाल, दर्दजा (उपन्यास), तुम्हारे लिये (कविता संग्रह) हमन हैं इश्क मस्ताना (सम्पादन - कहानी-संग्रह)

युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012, स्पंदन कथा सम्मान, 2017      
संपर्क : तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा - 403 517
09822581137 / jaishreeroykathakar@rediffmail.com

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  1. अपने चेहरे के खुरदरे यथार्थ पर आभासी फेसबुक चेहरा लगाकर एक नया समाज बन रहा है। जयश्री राय की यह कहानी 'फेसबुक' इसी समाज की संवेदनशील सभ्यता समीक्षा करती है ।
    सब्य साचिन

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  2. जयश्री रॉय की कहानी 'फेसबुक'आभासी दुनिया की वह कथायात्रा है जिसमें वासना और उद्दाम काम को स्वप्न से सत्य बनते देर नहीं लगती. सपने में आए प्रेम के प्रेत के देह के बुखार में बदल जाने जैसे यथार्थ को रेखांकित करती कहानी है 'फेसबुक'. यह कहानी उस सत्य को भी उजागर करती है ,जहां न केवल किशोर या युवा वर्ग बल्कि प्रौढ़ वर्ग भी आभासी दुनिया का बुरी तरह से शिकार है . यह रंगीन कल्पना लोक के यथार्थ के ब्लैक एंड व्हाइट में रूपान्तरित होने की दारुण कथा भी कही जा सकती है.
    भाषा और शिल्प के स्तर पर भी यह कहानी अपने प्रभाव और प्रवाह में बराबर बांधे रखने में पूर्ण सक्षम है. आम जीवन की भाषा कैसे ख़ास बनती है, उस बदलाव को भी यहां महसूसा जा सकता है.गीतिका के जीवन में आए जमील से लेकर अनिमेष तक उसकी देहगंध से ही बंधे और बिंधे रहते हैं. मानव मन की अंतःसलिला के संवेग को स्त्री-पुरुष से ऊपर उठकर सोचने-समझने की ज़रूरत है . इसी समझ के अभाव में अनिमेष का पहले गीतिका के लिए उपेक्षा भाव फिर उससे भटकन का शिकार बनी गीतिका के प्रति उपजे आक्रोश दोनों में स्त्री देह ही केंद्र में है. जयश्री रॉय स्त्री-पुरुष दोनों को इससे मुक्त करने के प्रयास में हैं इसीलिए जहां वह घर से बाहर की जाती है तो उसके मोबाइल के स्क्रीन की कालिमा अपनी संपूर्ण चमक के साथ कौंधती है,जिस पर श्वेत-धवल लिपि में स्त्री देह को समझने की नयी इबारत लिखी जानी है . -डॉ.गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'

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  3. योगिता यादव20 अक्टू॰ 2017, 2:55:00 pm

    जयश्री राॅय मेरी प्रिय लेखिका हैं। उनकी कई कहानियां पढ़ी हैं। पर इसमें उनका स्‍वर सुनाई नहीं देता। गीतिका की बजाए यह अनिमेष की दृष्टि का कोण अध‍िक महसूस हो रही है। कृपया अन्‍यथा न लें। जिन्‍हें प्‍यार करते हैं, शिकायत उन्‍हीं से होती है।

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-10-2017) को
    "भाईदूज के अवसर पर" (चर्चा अंक 2764)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    दीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. एक बार फिर से एक जबरदस्त कहानी ।

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  6. जयश्री रॉय20 अक्टू॰ 2017, 5:28:00 pm

    आभार समालोचन!

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  7. रोहित सक्सेना20 अक्टू॰ 2017, 5:33:00 pm

    आभासी दुनिया के कारण जीवन मे आए बदलावों को ठीक से खोल नहीं पाई कहानी। कहानी ने जैसे सतह पर ही दम तोड़ दिया। चूंकि कहानी का कोई फोकल पॉइंट तक नहीं बन पाया है, कहानी अनिमेष और गीतिका दोनों में किसी के साथ न्याय नहीं कर पाती। शीर्षक, कथानक, शिल्प सब इतने लीनियर हैं की कहानी समय और स्थिति का कोई क्रिटीक नहीं तैयार कर पाती। जयश्री राय जैसे मजबूत कहानीकार से ऐसी कमजोर कहानी की उम्मीद नहीं थी।

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  8. BHASHA AUR SHILP BAHUT ACHCHHA HE LEKIN KAHANI ATIREK KI SHIKAR HE

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  9. मै जयश्री की कहानियों की गहरी पाठक हूँ।अभी दर्दजा का दर्द से बाहर नहीं निकल पाई।सच कहूं तो इस कहानी में समसामयिक सच्चाई तो है पर जयश्री कही भटक गयी हैं। मै खुद इस तरह की घटना की प्रत्यक्ष दर्शी हूँ।
    ओर् इस तरह के आभासी संबंधो की मानसिकता को समझने की कोशिश करती हूँ। कहानी में औरतो के मन धँसे सूने उन ओने कोनो की बात तो आई ही नहीं जो ऐसे आभासी सम्बन्धो को बढाने के लिए दोषी हैं। ये जयश्री की कुछ सतही कहानी है।

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  10. अनिमेष जोशी20 अक्टू॰ 2017, 8:33:00 pm

    कहानी का फैलाव बहुत सतही है। काश लेखिका विषय की गहराइयों में उतर कर इस समसामयिक मुद्दे की अच्छी छानबीन कर पातीं। चरित्रों का विकास भी कहानी और विषय के अनुरूप नहीं हो पाया है। कहानी ने निराश किया।

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  11. कहानी शुरुआत से ही लचर लगी जो अंत तक आते-आते हड़बड़ी का शिकार हो कर हाँफने लगी। कहानीकार अपने सभी पुरुष पात्रोंके प्रति अत्यधिक सॉफ्ट हैं। एक बारगी पढ़ के विश्वास नहीं होता कि यह एक स्त्री द्वारा लिखी हुई कहानी है। वैसे मैं जयश्री जी की कहानियों का मुरीद हूँ पर इस बार इस कहानी में उनकी खूबियाँ नहीं जाहिर हुई।

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  12. लोग लकीर के फकीर हैं। जो पॉपुलर है, चलन में है, वही पढ़ना, लिखना, देखना चाहते हैं। स्त्री विमर्श चल रहा है तो स्त्री का महिमा मंडन ही करना है। वह देवी है, अलौकिक गुणों से युक्त है, दुखियारी है, दुनिया की सताई हुई है। वह कभी कुछ गलत कर ही नहीं सकती। इसी मानसिकता के अधीन कमेंट किया जा रहा है। फौरी कमेंट कर निकल जाना रचना के साथ अन्याय है। गहराई में उतर नहीं सके, न्याय कर नहीं सके जैसी टिप्पणियां करके निकल जाना भी एक तरह की बेईमानी है। कहानी बहुत धैर्य से एक समसामयिक विषय को उठाती है और एक एक कर् पात्रों की मनोदशा और परिस्थितियों को जीवंतता के साथ प्रस्तुत करती चलती है। यहां लग रहा एक सुनियोजित ढंग से कहानी को ध्वस्त करने की प्रक्रिया चल रही है। यह सब दुर्भाग्यपूर्ण है। कहानी एक ज्वलन्त मुद्दे पर है और हर तरह से न्याय करने की एक ईमानदार कोशिश दिखती है।

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  13. सर्वेश्वर21 अक्टू॰ 2017, 5:54:00 pm

    सुभाष पंत जी एक वरिष्ठ और अच्छे कथाकार हैं। ज्ञानपीठ नवलेखन और हंस कथा सम्मान से सम्मानित योगिता यादव भी समकालीन कहानी का एक महत्वपूर्ण नाम हैं, गीता गैरोला जी भी एक प्रबुद्ध पाठक हैं। इनलोगों की टिप्पणियों को लकीर के फकीर या फौरी कमेन्ट की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अन्य पाठकों की प्रतिक्रिया भी सुचिन्तित है। कहानी पढ़ने के बाद मेरी भी इनसे सहमति है। इन बिन्दुओं पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

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  14. जी बिल्कुल श्रीमान सर्वेश्वर, आलोक रंजन, कहानी में पुरुष पात्र के चरित्र को भी उदघाटित किया गया है समान तन्मयता से(शब्द संख्या की बात नहीं) मगर उस बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। और पुरुष पात्र जो कुछ गलत कर रहे उड़का पता भी लेखक ही देती है, पाठक अनुमान नहीं लगाते। कोई अला है कोई फला है इसलिए वह जो कहे सही है यह तर्क ठहरा तो फिर लेखक भी प्रतिष्ठित है, उस पर टीका टिप्पणी क्यों! वही प्रतिक्रिया सुचिंतित जिनसे आपकी सहमति हो, यह भी गजब तर्क। बहरहाल मेरा बेनामी नाम भी उतना ही सच जितना सर्वेश्वर या आलोक रंजन। चलिये आलोक रंजन के तर्ज पर मैं त्रिलोक भंजन। नमदकार!

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    1. है त्रिलोक भंजन! काश आप यह समझ पाते कि यहां लोग कहानी पर अपनी सहमति असहमति प्रकट कर रहे हैं कोई भी लेखक पर टीका टिप्पणी नही कर रहा। ईश्वर आपकी यह तिलमिलाहट शीघ्र शांत करें।

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  15. जयश्री से जिस सू्क्ष्मता, जटिलताओं के उद्घाटन,तहदारियों की उम्मीद हुआ करती है,इस कहानी में सिरे से नदारद है। स्त्री की ऊब, अकेलापन, खालीपन कुछ भी उभर नहीं पाया है

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  16. चोर की दाढ़ी में तिनका! तभी सुनियोजित बुलडोज़िंग की बात पर यह आक्रामकता! बहरहाल लगे रहिये। कोई habitual ट्रोल लग रहे। मेरी ओर से बात ख़त्म! आपका त्रिलोक भंजन!��

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    उत्तर
    1. प्रिय त्रिलोक भंजन जी, ये कोई habitual ट्रोल नहीं, वरिष्ठ कथाकार, आलोचक और कवयित्री अर्चना वर्मा जी हैं। इन्होंने अरुण देव जी के फेसबुक वाल पर भी अपनी टिप्पणी कुछ इस तरह दी है -
      जयश्री से जिन सूक्ष्मताओं, जटिलताओं के उद्घाटन, तहदारियों की उम्मीद रहती है, इस कहानी मेँ सिरे से नदारद हैँ। ऊब अकेलापन, खालीपन, संवादहीनता, कहीं किसी पुल की तलाश - कितने ही संभव आयाम हो सकते थे। बिना खोजे छूट गये हैँ। जैसे कहानी का कच्चा खाका हो। थोड़ा crude & distasteful। I am disappointed.

      अब तो शांत हो जाइए, यह जयश्री जी के उन पाठकों की प्रतिक्रिया है जो उनके लेखन को बेहद पसंद करते हैं। निश्चित तौर पर आप भी उनके हार्डकोर फैन होंगे पर आपका इस तरह आक्रामक हो के लिखना यकीनन उन्हें भी बुरा लग रहा होगा।


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  17. एक होता है लीच- तुम वही हो यार! मुंह में नमक पड़ गए लीच की तरह कब से तिलमिला रहे। ट्रोल तुम जैसों को कहा था, किसी और को नहीं। फिर जो आलोचना करे वही प्रतिक्रिया सही! खोज खोज कर ला रहे! घर जाओ, कुछ काम करो। कब से तंबू लगा के पड़े हो! यह जंतर-मंतर ना है!

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  18. हद कर दी आपने प्रिय त्रिलोक भंजन जी, खुद तिलमिलाए हुये हैं और दूसरे को ऐसा कह रहे। और गलतफहमी भी कैसी कि इनके पीछे ट्रोल लग गया है। ऐसी कौन सी महान टिप्पणी कर दी भाई साहब या बहन जी जो भी हों आप कि ट्रोल दौड़ पड़ें। माना कि इस कहानी का, आपका और इस नाचीज का भी कोई स्तर न हो पर ट्रोल का तो है, वे भला आप जैसों के पीछे लग के अपना स्तर क्यों खराब करें। साधु-साधु!!!

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  19. बढ़िया कहानी, सूक्ष्म विवेचन, पर कहानी में सिर्फ एक ही चरित्र पर गाज गिरा दी, एक चरित्र का पूरी तरह चरित्रहनन, कारण स्पष्ट करते हुए भी समाधान नहीं

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  20. महेश चन्द्र शर्मा, राय बरेली22 अक्टू॰ 2017, 10:47:00 pm

    कहानी का विषय समसामयिक है। भाषा मे प्रवाह है। पर कहानी कोई गहरा प्रभाव नहीं छोड़ती। इसे थम के और जम के लिखा जाना चाहिए था। कहानी को जल्दी में समेटने के कारण निर्वाह नही हो पाया है।

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  21. भाई/बहिन आलोक रंजन(एक काल्पनिक नाम से कोई स्त्री या पुरुष बनने की कोशिश तो कर सकता है, बन नहीं सकता) आपसे जाना जिनके पीछे ट्रोल हो वे महान हस्ती होते हैं। तो मुझ पर यह कॄपया क्यों भाई/बहिन? अजब-गजब तर्क आपके। छेनी-हथौड़ी ले कर पोस्ट मार्टम करने बैठे हैं। भुर्ता बना कर छोड़ेंगे! अब तंबू उखाड़िये, आप तो डेरा जमा लिए।

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  22. जयश्री राय कि कहानी "फेसबुक" एक अच्छी कहानी है|

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  23. औसत से कमतर कहानी।

    संजीव झा, मधुबनी

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