मसीह अलीनेजाद: ईरान मे स्त्री की स्वाधीनता का सवाल: प्रीति चौधरी


ईरान की मसीह अलीनेजाद आज इस्लामिक देशों में स्त्री की आज़ादी के संघर्ष की प्रतीक हैं. उनके इस अभियान को पूरे विश्व समुदाय से समर्थन और सहयोग मिला है. लगभग चार साल पहले पत्रकार और लेखिका वर्षा सिंह ने इ मेल से उनसे बातचीत की थी जो, जो समालोचन पर प्रकाशित हुई थी.

आज मसीह अलीनेजाद की प्रसिद्ध क़िताब ‘The Wind In My Hair:My Fight for Freedom in Modern Iran’ की चर्चा कर रहीं हैं लेखिका प्रीति चौधरी. 


मसीह अलीनेजाद
ईरान मे स्त्री की स्वाधीनता का सवाल                                             
प्रीति चौधरी 




कोविड के कहर से जुड़ी खबरों ने लगातार विचलित किए रखा,लोगों के लिए जो कर सकती थी उसे करने की सामर्थ्य भर कोशिश भी की पर वो नाकाफ़ी रहा. अवसाद और दुखों के बीच निजात मिले तो कहाँ? कहाँ मिले थोड़ी राहत? निजात मिली, कुछ राहत नसीब हुई या और भी वृहत्तर दुखों से सामना हुआ कह नहीं सकती. मैंने कहीं नामवर सिंह का साक्षात्कार पढ़ा था, जिसमें किताबें उन्हें दुखों से उबारतीं हैं जैसी कोई बात कही थी उन्होंने. उनकी इस बात को मैंने कई बार आज़माया है.

किताबें सच में उबारती हैं. मनुष्य के संघर्ष की दुर्धष कहानियाँ, हवा के विपरीत खड़े होने का साहस सच में न्याय के पक्ष में खड़े होने जाने के लिए प्रेरित करतीं हैं. हमें जो आज़ादी सहज उपलब्ध है (हालाँकि हाल के दिनों में उस पर ख़तरे बढ़े हैं) उसे पाने के लिए दुनिया के बहुत सारे हिस्सों के तमाम लोग अभी भी स्वप्न देख रहे हैं. 

The Wind In My Hair 
My Fight for Freedom in Modern Iran 

किताब ऐसी ही इंसानी जिजीविषा की कहानी है. ईरानी पत्रकार मसीह अलीनेजाद आज दुनिया भर में जानी जाती हैं. ईरान के छोटे से गाँव घोमीकोला से निकली, अशिक्षित और बेहद गरीब परिवार की लड़की का न्यूयार्क तक का सफर एक ऐसी पत्रकार का संघर्ष है जिसने लड़की होने के नाते बचपन से ही पाबंदियाँ झेली और बालसुलभ छोटी छोटी ख़ुशियों से महरूम रही. भाई की तरह साईकिल चलाने की इच्छा से शुरू हुआ उसका विद्रोही तेवर और सवाल करने की आदत से शुरू हुई लड़ाई उसे कैसे एक दिन ईरान के इस्लामी गणराज्य के ख़िलाफ़ खड़ा कर द्ती है और वह हमारे समय के एक बड़े जनआंदोलन की प्रणेता बन जाती है,जिसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई देती है. तीन सौ पंचानबे पन्नों में समायी इस संघर्ष गाथा ने बतौर पाठक मुझे अंत तक बाँधें रखा. 

ईरान की जेलों में भरे गये नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के हालात हों या फिर महिलाओं की निगरानी कर रही नैतिक पुलिस के दमन की दास्तान, मसीह के पाठक सबसे रूबरू होते चलते हैं. पर्यावरण से लेकर ईरान के परमाणु संयत्र तक के मसले जो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के लिए परिचित से विषय हैं पर इन मुद्दों का नयापन इस बात में है कि आस्ट्रेलिया, जर्मनी और यूरोपीय संघ की महिला नेत्रियों (मंत्रियों)द्वारा कैसे ईरान की यात्रा के दौरान राज्य सत्ता के तुष्टिकरण के प्रयास किए गये ना कि ईरान की महिलाओं के संघर्ष के साथ खड़े होने को तरजीह दी गयी. यहाँ यह समझा जा सकता है कि महिला राजनयिकों की प्राथमिकता अपने देश के कूटनीतिक हितों को पूरा करने की रही होगी ना कि राज्य के ख़िलाफ़ चल रहे किसी आंदोलन के साथ एका देखा दिखाने की. लेकिन मसीह अलीनेजाद का मानना है कि यह शोषण और अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होने का मामला भी था जहां ये नेत्रियाँ चूक गयीं.

इस किताब के सबसे दिलचस्प और रोमांचक प्रसंग मुझे मसीह अलीनेजाद के मजलिस यानि ईरानी संसद की रिपोर्टिंग के दौरान उनकी पत्रकारिता के उत्स रूप में दिखते हैं जब वे एक के बाद एक सांसदों और संसदीय प्रक्रिया के भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए इस्लामी गणराज्य के राजकाज की परतें उतारती हैं. सारा मामला ही सरकार द्वारा जन प्रतिनिधियों को अवैध और अकूत लाभ पहुँचाने का है ताकि वे सरकार के एहसानों से दबे रहें. जनता के साथ होती साज़िशों का पर्दाफ़ाश करती, कई अख़बारों में एक साथ पहले पन्ने पर छपने वाली इस जाँबाज़ पत्रकार को मजलिस अंततः आजिज़ आकर बरखास्त कर देती है, और उनका प्रेस पास भी छिन जाता है. मजलिस से बाहर की गयी पत्रकार को जनता ने सिर आँखों पर बैठा लिया. मसीह की जान पर खतरा है, उसकी कभी भी गिरफ़्तारी हो सकती है या जान ली जा सकती है पर मसीह की कलम रुकती नहीं. यहाँ यह साझा करना ज़रूरी है कि मसीह की विस्फोटक खबरों के सूत्र भी मजलिस के ही कुछ सदस्य हैं. यानि घने अंधेरे में भी कुछ दीये जलते ही हैं. मजलिस में कुछ ऐसे लोग थे जो जनता तक सच पहुँचाना चाहते थे. 

मसीह अलीनेजाद की आत्मकथा में ईरान के तमाम राजनीतिक घटनाक्रम के चित्रण के साथ वहाँ के सुधारवादी और रूढ़िवादी धड़ों के एजेंडे और विरोधाभासों का भी परिचय मिलता है .ईरान के सारे प्रमुख राजनीतिक व्यक्तियों उनके विचारों के साथ ही समूची चुनाव प्रक्रिया पर एक इनसाइडर पत्रकार के रूप में मसीह के बेहद धारदार विश्लेषण हमें पढ़ने को मिलते हैं. ये इस महिला पत्रकार के तेवर ही हैं जिसे मजलिस और सांसद बर्दाश्त नहीं कर पाते और अंततः मसीह को एक दिन ईरान से ही बेदख़ल कर दिया जाता है.

विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक, फ़ारसी की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत फ़िरदौसी,रूमी और हादी के देश को किस तरह 1979 की क्राति के बाद से इस्लामी क़ानून के नाम पर एक बंद और कट्टर समाज में बदला गया ये किताब उसका भी बयान है. और ये भी कि ईरान में इसके विरोध की आवाज़ें शुरू से ही मौजूद रही हैं, जबरिया सहमति तानाशाही की पुरानी फ़ितरत है. हिजाब को संस्कृति का हिस्सा बनाना और धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान घोषित करना ही मसीह अलीनेजाद की सबसे बड़ी आपत्ति है. वे बार बार हर जगह अपना स्टैंड साफ करती हैं कि वे हिजाब के ख़िलाफ़ नहीं हैं, वे ईरान की महिलाओं के लिए “चयन की आज़ादी चाहती हैं. जिस महिला की इच्छा ना हो हिजाब पहनने की, उसे अपराधी करार दे जेल में ना डाला जाये. 

वे हिजाब की अनिवार्यता को ठुकराती हैं. सोचिए कि जब सात साल की उम्र से एक बच्ची सोते समय भी हिजाब पहनती हो और तीसेक साल की उम्र के आस पास किसी दिन, हवा के एक झोंका आये और बिना हिजाब वाली उसकी ज़ुल्फ़ों की लटों को छूकर निकल जाय और उसकी छूअन की सिहरन लड़की को अंदर तक महसूस हो तो कैसा लगा होगा. हवा का जुल्फों में अटक जाना और बालों का उड़ना यदि मसीह अलीनेजाद को अपनी आज़ादी का आख्यान लगता है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है. 

ज़ाहिर है मसीह को ये आज़ादी ईरान में नहीं बल्कि लंदन में नसीब होती है. हालाँकि कुछ साथी महिला पत्रकारों के साथ हिजाब उतारने का संक्षिप्त एडवेंचर वे लेबनान में भी कर चुकी हैं. लेबनान में ही अपनी एक साथी के साथ अमरीकी दूतावास तक पहुँच जाना (ईरान का घोषित शत्रु) खासा मनोरंजक भी है. तीसरी दुनिया के देश की एक सहज जिज्ञासा कि देखें तो दुनिया की महाशक्ति का दूतावास है कैसा! 

अमरीका के प्रति आकर्षण सिर्फ़ उसका महाशक्ति होना नहीं, मसीह के लिए वह मार्टिन लूथर किंग का भी देश है जिनके विश्व-प्रसिद्ध भाषण “आय हैव अ ड्रीम को इंसाफ़ पसंद पीढ़ियाँ दोहराती रहती हैं. हाईस्कूल में जब मसीह पढ़ रही होती है उनका कविताओं से प्रेम उफान पर है, पर इस्लामी क्रांति के बाद के ईरान में अगर सार्वजनिक रूप से कुछ पढ़ा जा सकता है तो वह है क़ुरान. अच्छी आवाज़ के कारण मसीह स्कूल की असेंबली में क़ुरान की आयतों का सस्वर पाठ करने के कारण जानी जाती है पर मसीह की चेतना के क्या कहने. एक ख़ास दिन वह माइक से क़ुरान की आयतों की बजाय प्रेम कविता सुनाने लग जाती है और बच्चे खुशी से तालियाँ बजाने लगते हैं. 

मसीह को स्कूल से निलंबित कर दिया जाता है और इसी मोड़ पर हम मसीह की अनपढ़ माँ ज़रीन के क़द्दावर व्यक्तित्व को ठीक से जान पाते हैं. बेटी के विचारों से उसकी सहमति नहीं पर वह इसे अपराध नहीं मानती और अपनी बेटी के बचाव के लिए शिक्षा व्यवस्था के उच्च अधिकारियों से भिड़ जाती है और उन्हें अपने तर्क से लाजवाब कर देती है. जरीन आला अधिकारी से जिरह करती हैं कि बच्ची के मन में सवाल का होना गलत नहीं, व्यवस्था के पास उन सवालों का समुचित जवाब होना चाहिए जिससे बच्ची को गुमराह होने से बचाया जा सके. मसीह की माँ अत्यंत परिश्रमी, स्वाभिमानी और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्री है, जो स्थानीय भाषा मजारियन में बेहतरीन तुकबंदी करने के लिए पूरे गाँव में जानी जाती है. मसीह की गढ़न में माँ का स्वाभिमान दिखता है अंतर ये है कि बेटी के हाथों में माँ ने किताब पकड़ा दी जिससे वो हमेशा महरूम रहीं और किताबों ने उनकी बेटी का पूरा जीवन बदल दिया. किताबों की सोहबत में मसीह ने अपने घर की दीवार पर एक फ़ोटो फ़्रेम टांगा जिसमें दार्शनिक देकार्त के वाक्य चमक रहे थे....'आय थिंक देयरफोर आय एम' (मैं सोचती हूँ इसलिए मैं हूँ)

बेटी सोचती है इसीलिए उसे लगता है कि सिर ढँकना सिर्फ़ सिर ढँकना नहीं है औरत की पूरी सोच को नियंत्रित करने की साज़िश है. पढ़ाकू बेटी ने अनुवाद के सहारे चार्ल्स डिंकस से लेकर मार्क्स तक को पढ़ लिया तो आस्था के भरोसे चलने वाली चीजें उसके समाने टिकती भी तो कहाँ. एक स्कूल से निकल दूसरे में जाने के बाद भी मसीह अपने इरादों से चूकती नहीं. वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए अपने जैसे हमराय युवाओं के साथ मिलकर स्टडी सर्किल बनाती है,पर्चे लिखकर रात को शहर की दीवारों पर चिपका डालती है. मसीह का साथ देने के लिए उसके पास दोस्तों की छोटी सी टोली है, जिसमें उसका भाई अली और दोस्त रेज़ा है जो आगे चलकर मसीह का शौहर बनता है. होने वाले शौहर से मसीह विवाह पूर्व एक शर्त रख देती है वो है तलाक़ लेने का अधिकार. तलाक़ का अधिकार पुरूषों का विशेषाधिकार था ना कि औरतों का. ये अलग बात है कि मसीह का तलाक़ बड़ी जल्दी हो जाता है वो भी शौहर द्वारा ये कह कर दिया जाता है कि उसे किसी और औरत से प्रेम है. देखा जाय तो मसीह शादी के लिए बनी ही नहीं थी उसके सपने और सरोकार बहुत बड़े थे इसलिए शादी टूटने के बाद वह दुखी ज़रूर हुई पर जल्द ही समझ गयी कि तलाक़ ने उसको अपनी काबिलीयत और संभावनाओं को तराशने का मौक़ा दिया है और मसीह ने बेशक इस मौक़े को जाया नहीं होने दिया. हमेशा कमतरी का एहसास दिलाने वाले पति से मुक्ति पा मसीह अलीनेजाद की लेखन क्षमता को फूलने फलने के सारे संयोग हासिल हुए.

ईरान के प्रभावशाली अख़बारों और समाचार एजेंसियों के साथ काम करने वाली मसीह अलीनेजाद के सामने पूरा आसमान खुला था, पर ढंका था तो सिर और वो व्यवस्था जिसकी पड़ताल वो गहरे धंस कर रही थी. तभी जब मजलिस (ईरान की संसद) ने मसीह को निष्कासन दिया तो एक ब्लॉग ने शीर्षक दिया "285 Deputies Against One Journalist

मजलिस की रिपोर्टर रही पत्रकार को ईरान में तो सब जान रहे थे पर अब मजलिस से निर्वासन के बाद जब बीबीसी ने उस पर खबर बनायी और फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने उसका साक्षात्कार प्रकाशित किया तो अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी मसीह अलीनेजाद ने अपनी दस्तक दे दी.

मसीह अलीनेजाद के जीवन की दूसरी और तीसरी पारी जो लंदन और अमरीका में शुरू होती है वो उनके विलक्षण पत्रकारीय कौशल और वक्तृत्व क्षमता की तसदीक करता है. सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों के बख़ूबी इस्तेमाल और तकनीकी की मदद से अपने लोगों से जुड़े रहने के उनके जज़्बे और हज़ारों मील दूर रहकर भी ज़ुल्म और प्रतिरोध की कहानियों को पहले फोन पर घंटों सुनने फिर लिखकर उनका दस्तावेज़ीकरण कर टीवी कार्यक्रम तैयार कर उनको दुनिया से साझा करने का अद्भुत साहस उनके व्यक्तित्व को नयी ऊँचाई तो प्रदान करता ही है, उन्हें मानवाधिकार और महिला अधिकारों के लिए समर्पित कार्यकर्ता के रूप में भी स्थापित करता है. मसीह स्वीडन की नारीवादी सरकार के दोहरे मानदंड पर (जब वे पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का तो पोस्टर बना उनके मर्दवादी होने का मज़ाक़ उड़ाती हैं पर ईरान जाकर वे संस्कृति के सम्मान के नाम पर पितृसत्तात्मक महिला विरोधी शासन व्यवस्था के सामने स्कार्फ़ से सिर ढंक लेती हैं) सवाल उठाती हैं तो अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के इस्लामोफोबिया पर भी प्रहार करती हैं और अमरीकी अप्रवासियों के प्रति उनके रवैये को लेकर चल रहे विरोध प्रदर्शनों में बढ़ चढ़कर हिस्सेदारी करती रही हैं. मैक्सिको की सीमा पर दीवार बनाने की ट्रंप की घोषणा पर मसीह के हाथ में पोस्टर है जिसपर लिखा है ...हम सब अप्रवासी हैं, पुल बनाओ दीवार नहीं (Make bridge not wall) 

मसीह को अमरीका का प्रजातंत्र रोमांचित और स्तब्ध करता है. अमरीका का राष्ट्रपति यदि दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति है तो उस सबसे ताकतवर व्यक्ति के सामने अमरीकी औरतें विरोध दर्ज करने सड़कों पर उतर रहीं थीं. मसीह लिखतीं हैं कि विरोध प्रदर्शन के दौरान उनको ये खटका लगा रहता था कि अभी सादे कपड़ों में कोई ख़ुफ़िया दस्ता जुलूस के बीच से प्रकट होगा और गिरफ्तारियाँ होंगी. पर यह अमरीका था ईरान नहीं. बताते चलें कि एक्जाइल में लंदन में रह रही मसीह ने अंग्रेज़ी सीखने के लिए आक्सफोर्ड के एक कालेज में दाख़िला लेने के साथ ही हाड़ तोड़ लेखन कर अपना पेट पालने के लिए कड़ी मेहनत की और अपने बच्चे को भी ईरान से बाहर ले आयीं और बेहतर तालीम दी. वैसे एक अच्छी माँ ना बन पाने का दुख मसीह को सालता रहा है ख़ासकर उसके लिए ढंग से खाना ना बना पाने की कसक. घरेलू कामकाज मसीह के लिए कभी प्राथमिक नहीं रहे इसमें शऊर से ज़्यादा समय और सरोकार का मसला रहा .निश्चित रूप से मसीह को ज़िंदगी में कुछ दूसरे बड़े काम करने थे. मसीह को खाना बनाना भले ना आये अपनी भुक्खड़ प्रवृत्ति का जिक्र उन्होंने कई जगह किया है. दूसरों के घर का बचा खुचा खाना खाने और पैक करके ले आने में भी मसीह को कभी कोई गुरेज़ नहीं रहा.

लंबे समय तक मसीह खुद को लगभग बदसूरत भी मानतीं रहीं क्योंकि ईरानी सौंदर्यबोध के हिसाब से वो एक ऊँची आवाज़ वाली आकर्षण विहीन पतली काया मात्र थीं. अपने लक्ष्य के प्रचार प्रसार के लिए मसीह ने शायद ही कोई कोशिश छोड़ी हो. विश्व प्रसिद्ध फ़ैशन पत्रिका वोग के लिए पोज़ देना हो या टेडटाक के जरिए पश्चिमी श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचाना मसीह अलीनेजाद के my stealthy freedom अभियान के लाखों समर्थकों ने ईरान के अंदर और बाहर उनका हौसला बढ़ाया है.किताब की शुरुआत ही अंधेरों से आँख मिलाने के हौसले से शुरू होती है. डरने पर अंधेरा हमें लील लेगा, आँखें खोले रहने पर राह सूझने की उम्मीद बनी रहती है. यह सीख मसीह की अशिक्षित माँ ज़रीन की है जो पीढ़ियों के अनुभव से उपजी है.

समालोचन के पाठकों से एक और ज़रूरी बात करते चलें कि मसीह अलीनेजाद की किताब “द विंड इन माई हेयर” मैंने कतई नहीं पढ़ी होती अगर इससे पहले मैंने किम घटास की किताब BLACK WAVE नहीं पढ़ी होती. किम घटास की किताब इस सवाल से ही शुरू होती है कि what happened to us? मध्यपूर्व की राजनीति में दिलचस्पी लेने वालों के लिए यह एक उपयोगी पुस्तक तो है ही साथ ही इसका जो प्रमुख प्रश्न है कि आखिर उदार इस्लाम ने उग्र इस्लाम के आगे घुटने कैसे और क्यों टेक दिए?? जवाब में वह इसके लिए 1979 के साल में घटित दुनिया की तीन प्रमुख घटनाओं को आधार बना अपने तर्क पेश करती है. यह किताब भी लेबनान में जन्मी एक महिला पत्रकार ने लिखी है. लेबनान, इजिप्ट (मिश्र)फ़िलिस्तीन,ईरान, इराक़, सीरिया, टर्की, सऊदी अरब, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से लिए गए दर्द और षड्यंत्र के आख्यानों से बुनी इस किताब में आंसू हैं,अफ़सोस हैं,पेट्रोल के पैसों की हैवानियत है, ज़ुल्म की मुख़ालिफ़त के लिए दी गयीं कुर्बानियाँ हैं, सबसे बढ़कर बदलती दुनिया की उदासियाँ हैं. लिखना है इस किताब पर भी .यहीं ...शायद जल्दी ही.

मसीह अलीनेजाद से बातचीत : वर्षा सिंह
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प्रीति चौधरी कविताएँ लिखती हैं.  साहित्यिक-सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय हैं और विमर्श में उनकी रूचि और गति है.
preetychoudhari2009@gmail.com

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  1. मसीहा अलनेजाद की किताब पर प्रीति चौधरी का यह परिचयात्मक आलेख मध्य पूर्व की राजनीति में रुचि रखने वालों के अलावा दमन और शोषण के खिलाफ विपरीत स्थितियों में काम करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए भी एक प्रेरक शब्द चित्र है ।
    ईरान जैसे कट्टरवादी देश में संस्कृति को अपनी तरह से व्याख्यायित करने वाले सत्ताधीषों के बीच अपनी समस्त सीमाओं के साथ काम करने वाली मसीह का यह जीवन वृतांत किताब के रूप में एक मशाल की तरह ऐसे लोगों के लिए काम करेगा । हमे लिंग और धर्म की मानसिकता से परे इस जीवन गाथा को देखना होगा
    । इस आलेख के लिए प्रीति चौधरी को और इसके प्रकाशन के लिए समालोचन और भाई अरुण देव को बहुत-बहुत धन्यवाद ।

    शरद कोकास

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  2. बहुत उम्दा लेख .प्रीति जी को बहुत बधाई .

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  3. बहुत बढ़िया लेख जो हिंदी के पाठकों को पड़ोस के देश में चल रहे आंदोलन का परिचय कराता है।यदि इस किताब के कुछ महत्वपूर्ण उद्धरण भी प्रीति जी देती तो सोने में सुहागा हो जाता।
    प्रीति जी और समालोचन को रोशनी आने देने वाली ऐसी खिड़की खोले रखने के लिए बधाई।
    यादवेन्द्र

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  4. प्रीति जी के मसीह एलिनेजाद के निर्भीक व्यक्तित्व पर लिखे इस आलेख को पढ़ना सुखद था. ईरान में एक ओर स्त्रियों की स्वतंत्रता पर इतनी पाबंदियां हैं ,वहीं दूसरी ओर फर्रुखजाद जैसी अप्रतिम साहस और स्वातंत्र्य की कवियत्री– फिल्मकारा, फर्जाने मिलानी और मसीह अलीनेजाद जैसी लेखक– पत्रकार... इन्होंने जिस स्वातंत्र्य को जिया है और जिसे जीने के हक़ के लिए सतत संघर्ष किया है उसे देख मन भर– भर आता है🌳🌳🌳

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  5. मैम आपके गहन अध्ययन से लाभान्वित होने का अवसर अक्सर हमें प्राप्त होता है । इसके लिए हम आपके आभारी है । आपकी के द्वारा लिखित समालोचना पढ़ते हुए , ऐसा प्रतीक हुआ जैसे हम खुद पुस्तक को पढ़ रहे हो ....

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  6. दया शंकर शरण1 जून 2021, 7:49:00 pm

    बहुत हीं सुंदर और प्रेरक समीक्षा। यह एक स्त्री जो अनेक वर्जनाओं और धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध संघर्ष करती हुई अपना मुकाम हासिल करती है,वह अपने समाज के साथ-साथ दुनिया के अन्य समाजों की शोषित स्त्रियों के लिए भी एक आदर्श हो जाती है। हर स्त्री उसकी मुक्ति में अपनी मुक्ति देखती है और इसतरह उसके संघर्षों से अपने को आइडेंटिफाई करती है। मेरी समझ से यही चीज़ अधिक मूल्यवान होती है। मसीह अलीनेजाद को उनके संघर्षों के लिए और प्रीति चौधरी को इस आलेख के लिए बधाई !

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  7. आत्मकथाएँ हमें प्रेरणा देती हैं , ख़ास कर स्त्रियों की आत्मकथाएँ ।

    प्रीति जी आप द्वारा लिखा गया यह लेख निश्चित रूप से स्त्री सशक्तिकरण का एक पन्ना पाठकों की सामने खोलता है।

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  8. अद्भुत लिखा है प्रीति। किसी किताब पर लिखे को पढ़कर यदि उस किताब को पढ़ने की इच्छा हो जाए तो उससे सुंदर लिखा और क्या होगा। और बाक़ी तो क्या ईरान, क्या भारत और क्या यूरोप। स्त्री की आज़ादी पर घर से लेकर बाहर तक असंख्य बंधन हैं और एक स्त्री का पूरा जीवन सिर्फ़ इन्हें समझने में ही निकल जाता है। इनसे मुक्त होने की कोशिश मसीह जैसी कुछ गिनी चुनी महिलाएँ ही कर पाती हैं। उनका बड़ा योगदान यही है कि वे बाक़ियों के लिए पथ प्रशस्त करती चलती हैं। फिर से कुछ अन्य गिनी चुनी महिलाएँ उन रस्तों पर चल पड़ती हैं और कारवां बनता चला जाता है।

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