युवा
अविनाश लेखन के शुरुआती दौर में हैं, यह कहानी प्रेम, ऊब और अपराधबोध के इर्दगिर्द रची गई
है. पठनीय है.
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कहानी
जिल्द
अविनाश
1.
ऑफिस छूटे
काफी वक़्त हो गया था. पहले तो वक़्त पानी की तरह बहा फिर धीरे धीरे जमने लगा. जब निठल्लापन
पूरी तरह जम गया तब वक़्त पानी से भरा एक चट्टान बन गया. वक्त गतिमान है, जब वह रुकता
है तो उसकी गति का भार आदमी की देह पर थिरकने लगता है. जब देह पर यह चट्टान लद जाता
है तब सारे फैसले खुद-ब-खुद होने लग जाते
हैं. दिन एक दूसरे की कार्बन-कॉपी बनाते चलते हैं. कुछ भी नियंत्रण में नहीं रह पाता.
नियंत्रण ठहर कर हासिल हो भी नहीं सकता.
समय का खेल
भी पूरब के जीवन में अजीब रहा था. जब भी वह उसे थामना चाहता, वह फुदक कर आगे बढ़ जाता.
जब उसका पहला ब्रेकअप हुआ था तब वह संध्या के साथ बिताये गये सभी पलों को फ्रीज़ कर
देना चाहता था पर मुई किस्मत कि अगले पल की आँच ने उस जम रहे बर्फ को पिघला दिया.
जब पूरब के पिता बीमार थे तब वह समय को रोक देना चाहता था, उनको सुनना चाहता था -
तब जब वह अपने बारे में कुछ बता रहे हों, पर रेत की तरह मुट्ठी से पिता और वक़्त दोनों
फिसल गये. ऐसे ही जब सत्रह की उम्र में सिगरेट पीने की लत लगी थी (उसे हमेशा चोरी
छुपे पीना पड़ता क्योंकि पिता के गुप्तचर कभी भी धर सकते थे) वह कश भरकर सारा समय अपने
भीतर सँजो लेना चाहता था, पर वक़्त धुएँ से रेस करता हुआ भग जाता. वक़्त ऊपर को धुआँ
हो जाता और नीचे पूरब राख की तरह स्थिर हो जाता. वह जितना पकड़ने की कोशिश करता, वक़्त
उतनी ही तेज निकल जाता.
समय जैसे
वह खरगोश हो, जिसे कछुआ कभी पीछे ही नहीं कर सकता. मुझे कछुआ खरगोश वाली कहानी बिल्कुल
नहीं जँचती - जब खरगोश सो जाता होगा, तब कछुए की तो जीतने की इच्छा ही ख़त्म हो जाती
होगी. कछुए का आत्म-गौरव उसके चलने की इच्छा को खत्म कर देता होगा. वह दौड़ ही कैसा
जिसमें प्रतियोगिता ना हो. यह कहानी दरअसल कछुए के लगन की नहीं बल्कि उसके अक्षमता
की कहानी है. पूरब के सामने जब समय ठहर गया तब उसका मन ही भाग गया - उसे छूने की,
पकड़ने की, थामने की - इच्छा से. उसने समय को नजरअंदाज कर दिया. उसके लिए, उसकी दुनिया
में समय का कोई अस्तित्व नहीं था.
2.
सलोनी तीन साल पुरानी है. या यूँ कहें कि उसे मैं तीन सालों से जानता हूँ. इस तीन साल में मैं उसके बस इन्हीं तीन सालों को जान पाया हूँ - जैसे उसका कोई भी अपना इतिहास ना हो. उसके सारे इतिहास की तरफ बस इस एक वाक्य की खिड़की खुलती - उसका नाम सलोनी उसकी बुआ ने रखा था, माँ और बुआ की बनती नहीं थी तो उसकी माँ उसे पिंकी बुलाती थी, पूरब को उसे पिंकी बुलाने का हक प्राप्त है - और बंद हो जाती.
जब सलोनी
को देखो तो ऐसा लगता है जैसे शादी के साथ उसका पुनर्जन्म हुआ है. पिछले जन्म की सभी
यादें किसी पोटली में बांध कर कहीं दबा दी गई हैं. समय तभी तक चलता है जब तक आपके
पास याद करने की चीजें हो, जैसे ही आपके पास कोई अपना इतिहास नहीं बचता वैसे ही आप
और समय एक गति से बढ़ रहे होते हैं. रिलेटिवली आप और समय दोनों स्थिर हो जाते हैं.
सलोनी के जीवन में समय का ठहराव था, यह उसे नियंत्रण देता था.
आफिस जाते
हुये वह कभी देर नहीं होती थी, जिससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह ऑफिस जाना
पसंद करती होगी, पर ज्ञात हो की सलोनी की स्थिरता के कारण उसके किसी भी चीज के बारे
में बस अंदाजा मात्र ही लगाया जा सकता है. वह तीन साल पहले भी काम करती होगी ऐसा लगता
है, पर यह कौन जानता है?
पहले पहल
जब वह ऑफिस से आती तो डिनर तैयार रहता, फिर धीरे धीरे डिनर तो नहीं बनता पर सब्जी
कटी होती, फिर बस बर्तन धुले होते और अब बस पूरब का खालीपन बोझ बनकर घर के कोनों को
भर रहा होता. इसीमें सलोनी थोड़ा ज्यादा देर ऑफिस में रुकने लगी. घर का बेहयापन अब
उससे इकट्ठा नहीं किया जाता. यह बदलाव इतनी मद्धम गति से हुआ था कि सलोनी को कुछ भी
अटपटा नहीं लगा. उसके लिये भूत काल झड़ते जाता था - वह वर्तमान को स्वीकारती और उसी
में बस जाती. पर पूरब के लिये सलोनी का लेट आना एक जरूरी घटना थी. सलोनी के लिए एक
पल को भी वक़्त की गति नहीं रुकी, जीवन का नियंत्रण नहीं खोया. सबकुछ उसी तरह रहा,
जैसे पहले हुआ करता था.
3.
एक परत पर
एक परत और चढ़ा दी. फिर एक और. इतनी परतें हो गईं कि असल सतह किसी बीती सदी की बात
लगती. पूरब को अपनी किसी भी स्मृति में झांकने के लिये जाने कितनी परतें भीतर जाना
होता. वह जब भी स्मृतियों में उतरता, वहाँ अटक सा जाता. भविष्य तब तक उसके उपर भार
बनकर लदता रहता. सुखद स्मृतियों से उसे बाहर आने का मन भी नहीं करता.
ढूँढते ढूँढते
उसने संध्या को फेसबुक पर खोज निकाला था. इस खोज के बाद वह बहुत जोर से चीखा था (यह
बात सलोनी को पड़ोस वाली आंटी ने बताया था, यह जोड़ते हुये कि पूरब और उसके बीच में
सबकुछ ठीक तो है?). संध्या भी इसी शहर में थी (अपने पति और बच्चे के साथ), उसकी शादी
पूरब से तीन साल पहले हुई थी और अब एक चार साल का बच्चा था जो उसके जीवन को बचपने
की चौखट पर ला खड़ा किया था. यह सब उसके फेसबुक वाल से पता चला जिसपर संध्या के साथ
सभी तस्वीरों में उसका बेटा गोंद की तरह चस्पा था. ढूँढने पर भी पूरब को संध्या के
स्कूली दिनों की कोई तस्वीर नहीं दिखी. क्या सचमुच औरतें शादी के बाद नया जन्म ले
लेती हैं? खैर, वह तस्वीर इसलिये ढूँढ रहा था ताकि - "पहचान रही हो या भूल गई",
यह भेज कर वह बात शुरू कर सके, पर उसे निराशा हाथ लगी. अब इम्प्रैशन जमाने के लिये
पूरब ने उसे एक ई-पत्र लिखने का सोचा.
प्रिय संध्या,
तुम्हें शायद
सबकुछ भूल गया हो या याद भी हो तो इतना धुंधला जैसे सबकुछ पर काई लग गई हो - पर मुझे
तुम्हारे साथ बिताये गये सभी पल अक्षरशः याद हैं.
मैं तुम्हें
साधारण मैसेज भी कर सकता था पर उसमें अपने पुराने प्रेम की गमक नहीं आ पाती, इसलिये
एक ई-पत्र लिख रहा हूँ. तुम्हारी शादी हो गई, एक प्यारा सा बच्चा भी है, पर तुम्हारे
चेहरे की वह मुस्कान अभी भी बनी रहती है. यदि प्रलय आयेगा भी तो यह मद्धम मुस्कान
देख कर शायद लौट जाये और भूली बिसरी स्मृतियाँ भी इस मुस्कान की सीढ़ी पर चढ़ कर अपनी
जगह बना ले. खैर, पिछले कुछ दिनों से तुम्हारी बारम्बार याद आ रही थी जैसे मानो मैं
किसी टाइम मशीन में बैठ कर दुबारा स्कूल पहुँच गया हूँ और तुम्हारे साथ भागकर उस सिनेमा
हाल में स्पाइडर मैन देख रहा हूँ. संयोग ऐसा कि तुम फेसबुक पर “पीपल यू मे नो” में
दिख गई,
यह संयोग मात्र नहीं है शायद ईश्वर की कोई नियति है, पर हम क्या जानते हैं?
आशा है तुम
अच्छी होगी, मेमोरी पर जोड़ डालोगी तो शायद याद आ जाऊँ, फिर कुछ पुरानी सी महक भी तुम
तक आ जाये. जब पूरे संतोष में हो तब आराम से रिप्लाई करना, संयोग हुआ तो मिलते हैं.
तुम्हारा
पूरब.
यह पत्र
लिख कर पूरब ने उसे दुबारा पढ़ा. कुछ वर्तनी की अशुद्धियाँ ठीक की, कहीं कहीं सटीक
शब्द जोड़े, पर कुल मिला-जुला कर पत्र यही था. इसे लिख कर भेजने के बाद उसे पहले अपने
इस जिनियस तरीके पर खुशी हुई फिर एक अनजाना दोष-भाव उस पर तारी हो गया.
उसने पत्र
में कितना सच और कितना झूठ लिखा था? उसने अपनी शादी की बात भी नहीं की, वह चाहता था
(चाहता क्या शिद्दत से उम्मीद कर रहा था) कि संध्या को सबकुछ याद हो उसके बारे में
और वह दौड़ी हुई अपने पूरब के पास चली आये. जब उसने अंत में लिखा की जवाब आराम से देना
- जब सबकुछ याद आजाये तब देना - दरअसल वह, यह जाँचना चाहता कि वह उसकी स्मृति में
कितना हरा है. जितनी जल्दी रिप्लाई उतना ही वह उसके स्मृति के करीब है. यह सब आखिर
उसने किसलिये किया था? बस इसलिए कि उसके पास करने को कुछ भी नहीं था और वह बोर हो
चुका था? क्या यह बस एक खेल है जिसे वह आभासी दुनिया में खेल रहा है? क्या पूरब को
संध्या की वास्तव में याद आती है या बस इसलिए की उसके पास याद करने को कुछ नहीं है
वह अपना इतिहास कुरेदता रहता है. यदि संध्या सबकुछ छोड़कर उसके पास आना चाहेगी तब पूरब
क्या करेगा? यह अपराध बोध, पूरब को दबाये जा रहा था.
इसी बीच
उसे यह भी बार बार ध्यान आता कि इतने देर हो गये अभी तक कोई रिप्लाई क्यों नहीं आया.
क्या उसे अपना टेक्स्ट डिलीट कर देना चाहिये? पर उसने इस विचार के उलट फैसला लिया.
इतने में
ही संध्या का मैसेज आया - उसमें उसने पत्र को प्यारा कहकर शुक्रिया कहा - और वहाँ
से दोनों की बात आगे बढ़ गई. पत्र का लक्ष्य अब खत्म हो चुका था. गौड़. क्या मैसेज की
जगह पत्र लिखने का कोई और भी महत्व था? नहीं, यह बस एक जीनियस तरीका बन कर रह गया,
स्मृति के मलबे में दबे कन्वर्सेशन को जीवित करने का. पूरब का झूठ भी अब नगण्य हो
गया था. उसकी झूठ जरूरत थी जिससे बात को आगे बढ़ाया जा सके. इस झूठ का कोई भी असर नहीं
था.
4.
"आज
आधे घण्टे पहले ही", एक मुस्कुराती सी आवाज ने सलोनी के अकेलेपन को भेदा.
"अरे,
घर की घड़ी खराब है, ध्यान ही नहीं दिया समय का, मुझे तो लगा लेट हो गई हूँ, दौड़ते
दौड़ते आई", यह बोलते हुए सलोनी की आँखें नीची हो गईं. वह उस मुस्कान से नजरें
छुपा रही थी जो उसके हर जवाब में अपना ही एक अलग आशय ढूंढती हैं. वह मुस्कान एक सवालिया
मुस्कान भी थी, क्या सच में उसके घर की घड़ी खराब है? घड़ी खराब होना एक ऑटोमेटेड रेस्पॉन्स
था, जिससे सलोनी खुद सन्न थी, पर सच में उसने टाइम कब देखा था? वह समय के चक्र से
इतनी अभ्यस्त थी कि उसे हर काम को, बिना घड़ी देखे, समय पर करना आता था.
रमेश, सलोनी
के ऑफिस में नाईट शिफ्ट में काम करता था. जब सलोनी आती, तब वह निकल रहा होता. दोनों
एक ही डेस्क पर काम करते थे. रमेश हर रोज ऐसे आधे घण्टे देर से घर जाता और इसी बीच
दोनों थोड़ी देर बात कर पाते. सलोनी को रमेश से बात करना पसन्द था, वह औरों की तरह
तय शब्दों में उससे बात नहीं करता था, उसके बातों में - घर, पति, स्मृतियाँ, बच्चे,
फ्यूचर प्लान्स - जैसे शब्द नहीं आते थे. दोनों एक दूसरे को स्वतंत्र यूनिट समझते
थे जिससे वह एक दूसरे को किसी अन्य के सम्बंध में खुद को नहीं डिफाइन करते थे. उनकी
बातों में एक इंडिविजुअलिस्म था जिसे दोनों बहुत खूब सजा कर रखते थे. इंडिविजुअल किसी
भी भाषा का कितना सुंदर शब्द है - वह व्यक्ति को प्रकृति से परे एक सत्ता मानता है
- शायद ही कोई दूसरा शब्द इसका सम अर्थी हो.
"अब
जब पहले आ ही गई हो तो चलो कॉफी पीते हैं?"
"अरे!
पर तुम्हारा काम?"
"काम
हो चुका है मेरा, मैं काम से अधिक तुम्हें इम्पोर्टेंस नहीं देता, फिकर नॉट"
सलोनी मना
भी नहीं करना चाहती थी पर वह सवाल उसके अंदर से प्रोग्राम्ड वॉइस की तरह निकल आया.
वह रमेश के साथ चल पड़ी.
"यहाँ
कैपचीनो अच्छा मिलता है, तुमने ट्राई किया है?"
"नहीं,
पर आई ट्रस्ट योर टेस्ट, फिकर नॉट". यह कहते हुये एक हल्की मुस्कान उसके चेहरे
पर भी टहल गई. उसे तुरन्त अपनी इस मुस्कान पर अफसोस हुआ, वह खुद के आगे चली गई थी
शायद. रमेश ने उसकी तरफ एक अजीब सी कोमलता में देखा. इस तरीके से पूरब ने उसे कब देखा
था? पर अजीब बात यह रही की उसके इस तरह से देखने पर सलोनी को पूरब की याद ज़रा भी नहीं
आई. इस कोमलता ने उसके मन में विशेष स्थान बना लिया.
"आह!
यह अच्छी कॉफी है"
"थैंक
गॉड, आई पास्ड"
एक खुशनुमा
माहौल बंध गया था, बातों की जगह अब नई चकित करने वाली खामोशियों ने ले लिया. खामोशियाँ,
बातों से ज्यादा अंतरंग होती हैं, आपको भीतर तक भेद देती है, शब्द तो बस आपके बदन
और दिमाग में टहलते हैं. कई बार दोनों के हाथ एक दूसरे से टकराये, किसी ने कोई विरोध
नहीं दर्ज किया, कुछ भी आकवर्ड नहीं बनने दिया. बीस मिनट का समय अपने भीतर पूरा भविष्य
समेटे हुये था. बड़ी देर में गुजरा. एक एक पल सुखद.
"इस
सन्डे मेरे हाथ की स्पेशल दाल खाना चाहोगी?" उसने यह नहीं पूछा कि वह फ्री है
या व्यस्त, वह आना चाहेगी या नहीं. रमेश ने उसे कमांड दिया कि वह उसके पास इस संडे
को आये फिर चुने की वह क्या खाना चाहेगी. सलोनी ने कुछ नहीं बोला. वह कई बार इससे पहले भी रमेश के छोटे
मोटे निवेदनों को अनसुना कर देती थी. रमेश इस मौन को चीर कर शब्द निकाल लेना चाहता
था, उसका बदन एक ज्वर में तपने लगा, आँख ब-मुश्किल खुली हुई थीं, कंठ पर पर समय की
कमी का शंख बंध गया जिसने उसकी आवाज को सोख लिया. उसने कुछ नहीं बोला. सलोनी को ऑफिस
निकलना था. रमेश वहीं बैठा उसे जाते हुये देखता रहा.
5.
रमेश ने
जिस कमांडिंग तरीके से उसे घर बुलाया था, वह चाह कर भी उसे नजरअंदाज नहीं कर पा रही
थी. दिन भर उसके भीतर इस बात की खींचातानी चलती रही कि अचानक उसे क्या हो गया है,
वह रमेश को अब उस तरह क्यों नहीं अनसुना कर पा रही जैसे करती आई थी. वह जाना चाहती
थी. वह जाना चाहती थी क्योंकि उसे बुलाया गया था. उसके मन में पूरे दिन रमेश घूमता
रहा, बीच में उसने यह भी सोचा कि उसके यहाँ जायेगी तो वह जगह कैसी होगी, दाल सच में
अच्छी बनायेगा वो, फिर उससे हट कर सोचने लगी की वह मना नहीं कर पायेगी, पूरब से क्या
कहेगी वह?
संध्या
से संडे को मिलना तय हुआ था. मिलने की खुशी ने पूरब को गदगद कर दिया था. उसके अंदर
वह फिर से स्कूल वाले दिनों का उत्साह भर आया था. पुरानी प्रेमिकाएं अपने भीतर इतिहास
का साजो-सामान ले आती हैं. पूरब उससे कैसे मिलेगा, क्या क्या करेगा, क्या क्या बतियायेगा,
सब सोचने लगा. उसे वह सबसे अच्छे रेस्तरां में ले जाना चाहता था. उसकी खुशी सिर्फ
उस तक नहीं पर घर के हर कोने तक फैल गई. उसने सलोनी के मनपसन्द की डिनर बनाई. वह सोचने
लगा, सलोनी सारे काम करती है, उसकी भी कुछ जिम्मेदारी बनती है.
जब सलोनी
घर पहुँची तब भी उसके दिमाग में रमेश चल रहा था. वह घर में आये बदलाव को नजर तक नहीं
दी. भारी दिमाग से बस जो परोसा गया उसे स्वीकार कर लिया. सलोनी के मन में चल रहे जद्दोजहद
को पूरब भाँप नहीं पाया. उसके उत्साह ने उसके दुःखों को समझने की शक्ति को क्षीण कर
दिया था. पहले से भी पूरब के भाव-पक्ष में कोई इंगित करने लायक विशेषता नहीं थी.
"मैं
संडे को अपने स्कूल दोस्त से मिलने जा रहा"
इस पर कोई
जवाब नहीं मिलने पर पूरब को हल्का सा डर लगा. कहीं सलोनी को यह पता तो नहीं चल गया
कि वह संध्या से मिलने जा रहा है. उसने हल्के स्वर में कहा, "सलोनी! संडे को
मैं बाहर जा रहा हूँ"
सलोनी जैसे
किसी लम्बी नींद से जागी हो. वह उनींदे कहती है, "कहाँ? कोई जरूरी काम है?"
"हाँ,
स्कूल के दोस्त आ रहे हैं कुछ, काफी साल हुये"
सलोनी ने
सहमति में सिर हिलाया. वह कहना चाहती थी कि अच्छा है, मैं भी अब रमेश को हाँ बोल देती
हूँ. उसके आँखों में एक चमक लौट आई थी, उसके भीतर चल रही दुविधा को एक अंत मिल गया
था. उसने खाने की खूब तारीफ की. पूरब ने एक बार और बताया वह रेस्तराँ जायेगा, थोड़ा
महंगा पड़े शायद, पर सलोनी ने कहा, क्या हो गया, काफी टाइम बाद मिल रहे हो.
दोनों सोने
चले गये. सलोनी की आँखों में रमेश का ख्वाब चलने लगा, पूरब की नींद पैसे की जरूरत
से गायब रही. सलोनी को खुद नहीं समझ आया कि वह उसे पैसे दे दे, वह तो हमेशा खुद दे
देती है उसे जरूरत के पैसे. उसने अपने आप को जबरदस्ती समझाया की वह कल सुबह मांगेगा.
पर रात भर उसे नींद नहीं आई. वह रात भर बिस्तर पर कुम्हलाता रहा. कभी उसके मन में
संध्या से मुलाकात की तो कभी पैसा मांगने के सही तरीके की फोटो उभरती रही.
सुबह पूरब
जल्दी उठा, उसने पैसे माँगने की हिम्मत जुटाई. इससे पहले उसने सलोनी से कभी पैसा नहीं
माँगा था, सलोनी खुद उसे लाकर दे देती थी. उसे कभी जरूरत ही नहीं पड़ी थी. वह अभी उसी
डर में था जब वह अपनी माँ से पैसे माँग रहा होता था. उसे एक कन्विंसिंग बहाना चाहिए
होता था.
"अरे,
संडे के लिये कुछ पैसे चाहिए थे", पूरब ने तब बोला जब सलोनी तैयार होकर काम को
निकलने वाली थी. आज फिर से वह आधे घण्टे पहले पहुँचना चाहती थी. वह रमेश को बताना
चाहती थी कि उसे कैपचिनो खूब पसन्द आया था.
"हाँ
बोलो कितने चाहिए". पूरब शर्म से भर गया, उसका मुँह बन्द हो गया था. वह सलोनी
में अपनी माँ को देख सकता था, जब वह खुश रहती तो ऐसे ही पूछतीं और पूरब कोई भी जवाब
ना होने का कारण शांत रह जाता, उसकी माँ हंसने लगती.
"कितने
दे दूँ बाबा"
"देख
लो"
"अच्छा,
यह मेरा कार्ड रख लो, जितना लगे तुम देख लेना, मैं लेट हो रही हूँ"
सलोनी चली
गई. पूरब कार्ड लिए यह सोचता रहा उसे इतनी शर्म क्यों आई, आखिर सलोनी ही तो इतने दिनों
से उसे पैसे दे रही थी. क्या वह मांगा इसकी शर्म थी या वह जिस कारण से मांग रहा था
उसकी शर्म?
6.
रमेश का
घर बिल्कुल वैसा था जैसे सलोनी ने सोचा था. घर के हर सामान से अकेलेपन की चीखें उभर
रही थीं, फिर भी उनमें शालीनता व्याप्त थी. सभी चीजों के जैसे निश्चित जगह थे, और
वह उन्हीं जगहों में थे. सुव्यवस्थित, सुनियोजित. एक पुराना ग्रामोफ़ोन था जो ओवर-यूज्ड
लग रहा था. पुराने रिकार्ड्स थे, दीवार जर्जर हो चुकी थी पर कमरे में पड़ने वाली रोशनी,
और कृत्रिम बल्ब उसके कमरे को एक कलात्मक करैक्टर दे रहे थे. सलोनी जैसे किसी संग्रहालय
में आ गई हो जहाँ लोगों के बेशकीमती चीज सहेजे गये हों पर लोग गायब हों. एक अकेला
संग्रहालय. कितना निर्वात भरा हुआ था हर सामान में. सलोनी के आने से जैसे बरसों से
अटकी साँस, उनमें वापस आ गई हो.
"दाल
सच में खूब बनाई है"
एक मुस्कान
तैर आई रमेश के चेहरे पर.
"आने
का फैसला यानि गलत नहीं लिया मैडम ने"
सलोनी शांत
थी. उसे इसका जवाब नहीं देना था. वह अपनी नजरें इधर उधर घुमाने लगी. रमेश बर्तन किचन
सिंक में डाल आया. सलोनी उसके रिकार्ड्स चेक कर रही थी.
"कैन
आई हैव अ डांस विथ यू"
सलोनी ने
उसकी तरफ एक विस्मय भरे प्रेम से देखा. उसकी आँखें कितनी सुंदर थीं, जैसे उनमें मंथन
का सारा अमृत भरा हो. उसके हाथ अपने आप बढ़ गये. ग्रामोफोन बजने लगा.
साथ डांस
करने से आप बेहद करीब आ जाते हैं. संगीत अपनी धुन पर दो बदनों के थिरकन को तारतम्य
कर देता है. दो बदन जैसे दुनिया से अलग एक सजाये स्टेज पर मंचन कर रहे हों और पूरी
दुनिया अपनी दुनियादारी में मगन है. सलोनी और रमेश हँसते, खिलखिलाते, करीब आते, शर्माते,
आगे बढ़ते, पीछे जाते, थकान को पीछे छोड़े डांस कर रहे थे. कुछ देर तक थकान को धोखा
देने के बाद, सलोनी बिस्तर पर लेट गई. रमेश उसके बगल में लेट गया. दोनों अपने अपने
दिमाग में अभी आई करीबी को टहला रहे थे. अब इसके आगे क्या करना है? कितना दूर, कितना
पास. तभी रमेश सलोनी की तरफ अलसाई आँखों से देखता है, उसके नजरों में कुछ ऐसा है जिससे
सलोनी पर शर्म तारी हो जाता है. सलोनी उससे ज्यादा देर तक नजरें नहीं मिला पाती.
रमेश सलोनी
को अपने पास खींच लेता है, सलोनी खुद का भार शून्य कर देती है. रमेश हाथों से सलोनी
को सहलाने लगा, उसके होंठों पर अपनी उँगलियाँ फिराने लगा, सलोनी आँख बन्द कर रमेश
का बदन सोचने लगती है. रमेश और सलोनी चूमने लगे - चूमने में दोनों अपने अपने भय और
शर्म उतार कर मन के गहरे कोनों में फेंकते - दोनों बदनों को एक दरार जोड़ रही होती
है. रमेश अपने कपड़े उतारने लगा, वह सलोनी को भी कपड़े उतारने को कहा. सलोनी आँखें बन्द
किये हुए सोचती है, उसने रमेश को इतनी चीजों से मना किया है. वह कपड़े उतारने लगती
है. एक एक कर के उसका बदन कमरे की रंगत में घुलता जाता है, कपड़े की परत अब उसे बचाने
को नहीं होती है. बिल्कुल नंगी, रमेश के सामने वह आँखें खोली खड़ी है. उसे खुद हैरानी
होती है कि उसकी आंखें बन्द क्यों नहीं हुईं. वह बिस्तर से धीरे धीरे नीचे आती है,
रमेश के अंग को हाथ में लेकर सहलाने लगती है. उसकी आँखें रमेश की आंखों पर टिकी हैं.
वह अपने मुँह में रमेश को भरती है पर उसकी आँखें रमेश के चेहरे पर ही टिकी होती हैं.
रमेश की आँखें बन्द हैं, वह स्वप्न में जा चुका है, सलोनी उसे यह खुशी देना चाहती
है. सलोनी सोचती है उसने रमेश को जिस सुख से वंचित कर रखा है, जिस जहालत से वह रमेश
को बांधे हुए है, वह उसे तोड़कर रमेश पर सबकुछ लुटा देना चाहती है. रमेश, सलोनी के
मुख-भीतर ही स्खलित हो जाता है. सलोनी थोड़ा मुस्कुराती है. वह थोड़ा आगे बढ़ती है. रमेश
को हल्के धक्के से बिस्तर पर गिरा देती है. रमेश के ऊपर वह किसी यंत्र की तरह सवार
होती है. उसका बदन जैसे एक गिटार स्ट्रिंग हो और वह ग्रामोफोन से स्पर्धा कर रही हो,
वह तेज होती जाती है, और तेज, और तेज और फिर फाइनल क्वार्टेट का संगीत अपने चरम पर
बजता है, दोनों एक दूसरे के अंदर स्खलित हो जाते हैं. रमेश के स्खलित होते ही उसके
भीतर डिसगस्ट का भाव भर जाता है.
वह जितनी
जल्दी हो सके, सलोनी के बदन से दूर हो जाना चाहता है. उसके लिये, सलोनी एक वैश्या
जैसी हो जाती है - वह शादीशुदा होने के बाद जब उसके साथ सेक्स की है तो वह औरों के
साथ भी जरूर की होगी. रमेश जल्द से खुद को धोकर कपड़े बदलने चला जाता है. सलोनी इस
बात से खुश होती है कि उसने अपने बदन को पहचाना है. रमेश को सुख देने का गर्व उसके
नंगे बदन पर तरंग की तरह कंपन कर रहा है. वह आँखें मूंद कर रमेश के स्खलित होते समय
चेहरे का ध्यान करती है. सलोनी ने पूरे प्रक्रम में एक बार भी आँखें नहीं बन्द की
थीं. वह अब इसको बार बार अपने मन में प्ले कर सकती थी. सलोनी यह सुख रमेश को पहली
और आखिरी बार दे रही थी. रमेश, सलोनी के साथ अब दुबारा नहीं होना चाहता था, उसका आकर्षण
अब बदन के कोफ्त में बदल गया था. सबकुछ शरीर तक ही रुक गया. आत्मा भी स्तनों और यौन
लिंग पर उतर आई थी.
कमरे में
रमेश के लिये सलोनी का बदन भी एक निर्वात लगने लगा. सलोनी खुद के प्रदर्शन पर बेहद
खुश थी. वह घर जाना चाहती थी, रमेश उसे अपने कमरे में नहीं रखना चाहता था.
7.
संध्या
जब रेस्तराँ में आई तब पूरब अपने घड़ी को ठीक कर रहा था, उसने संध्या को आते हुए नहीं
देखा. जब पूरब ऊपर देखा तो संध्या खड़ी थी, अपनी मुस्कान ओढ़े, पहले से जरा ज्यादा मोटी,
पहले से जरा ज्यादा बूढ़ी, पहले से जरा ज्यादा कृत्रिम, पहले से जरा ज्यादा दूर.
"बैठने
को भी नहीं पूछोगे?"
झेंपते
हुए, "आओ बैठो, इसमें पूछने की क्या बात है"
संध्या भद्दी
औरत थी. इसके अलावा पूरब के मन में कोई और शब्द नहीं आया. उसे लगा जैसे उसके साथ धोखा
हुआ है, पर क्या सच में धोखा हुआ था? यह सब तो पूरब ने ही प्लान किया था. उसने खुद
को बुझाया कि संध्या एक पुरानी दोस्त है जिसपर वक़्त का पहाड़ टूट गया. जहाँ पूरब के
लिये वक़्त गतिहीन था, शायद संध्या के लिये वह तेजी से गुजरा. समय आखिर किसके हिस्से
किस तरह आयेगा कौन जानता है. उसे संध्या पर एक तरस भाव आया. उसे लगने लगा जैसे वह
कोई एहसान कर रहा हो उसपर.
"यहाँ
पर सबसे फेमस क्या है?"
"सर,
पनीर कोफ्ता"
"वही
ले आओ फिर दो प्लेट"
संध्या के
चेहरे की मुस्कान अभी भी स्थिर थी, जैसे उसकी मुस्कान उसका पीछा ना छुड़ा रही हो. पूरब
को याद आया उसने पत्र में इसी मुस्कान को प्रकृति की मुस्कान बोला था शायद, पर उसे
इस मुस्कान में संध्या के अस्तित्व का दुख झलक रहा था. अब दो पुराने प्रेमी नहीं मिल
रहे थे, दो पुराने दोस्त जिसमें एक समय के हिसाब से छोटा होता गया है. पूरब उससे उसके
दुःख की कथा सुनना चाहता था, पर हैरत करने वाली बात थी उसके जीवन में कोई ऐसा दुख
नहीं था. अब पूरब को अपना दुःख उसके सामने भारी लगने लगा, जो सिम्पथी थी उसकी जगह
एक ईर्ष्या ने ले ली. वह बार बार उसको निहारता, उसमें पुरानी संध्या को खोजना चाहता
था, पर वह कहीं नहीं थी. पूरब को इस बात का भरोसा ही नहीं हुआ कि कोई बदल सकता है
समय के साथ. बदलाव एक प्रोग्रेशन हो और परिस्थितियों का जवाब भर नहीं हो. वह भीतर
ही भीतर टूटने लगा.
दोनों अपनी
अपनी प्लेटें खत्म कर चुके थे. पूरब उससे पूछने लगा कि वह अब पूरे दिन क्या करती है?
बच्चे के अलावा और कोई काम पसन्द का पर पाती है वह? यह सब रूटीन सवाल जवाब हुये, फिर
एक मौन बैठ गया दोनों के बीच. कोई भी पुरानी बात याद ही नहीं आ रही थी. जो कमरा पूरब
ने बुक किया था, उसकी याद आई, वहाँ संध्या के साथ जाने का मन तो नहीं हुआ पर वह पैसे
बर्बाद नहीं होने देना चाहता था. दोनों कमरे के लिए चल दिए.
वहाँ रूम
पूरी तरह एक नवयुवती का स्वागत करने के लिए सजा था. पूरब शर्म से गड़ गया. संध्या ने
यह देख कर उसे तिरस्कृत निगाहों से देखा. वह कहने लगी उसने क्या समझ रखा है, वह ऐसी
औरत नहीं है वह दोस्त समझकर मिलने आई थी. पूरब का मन वैसे भी कुछ ऐसा नहीं था, वह
बीच में ही उसे रोककर भगा देना चाहता था, पर वह संध्या को मनाने लगा. उसने कहा इसमें
उसका कोई दोष नहीं है, होटल वालों को शायद लगा हो यह पति-पत्नी हैं इसलिए ऐसा सजा
दिया हो. उसने ऐसा क्यों किया उसे कोई अंदाजा नहीं था. उसने कैबिनेट से शराब की बॉटल
निकाली. वह पीने लगा, दोनों फिर से बातें करने लगे. जैसे जैसे शराब उसके भीतर जाने
लगी दोनों स्मृतियों में खो गये. पूरब को अब पुरानी संध्या दिखने लगी जिससे मिलने
के लिए वह कितने जतन करता था, जिसने उसके मासूम दिल को बेरहमी से तोड़ दिया था. पूरब
को अचानक से इस बात पर गुस्सा आया. संध्या ने ब्रेकअप का कोई रीज़न नहीं दिया था. उसने
अचानक संध्या से पूछ लिया - "तुमने मुझे क्यों छोड़ा था?" इस अचानक हुये
सवाल से वह सकते में आ गई, उसे कोई जवाब नहीं सूझा. पूरब ने लगभग चिल्लाते हुये कहा,
"क्यों छोड़ा था? उस सूरज के लिये?" संध्या पूरब के ऐसे व्यवहार से सहम उठी,
वह सोचने लगी कि वह कमरे में आई ही क्यों. उसको अपने पति और बच्चे की याद आने लगी.
संध्या पर लगी इज्जत और समाज की जिल्द को पूरब एक एक कर के फाड़े जा रहा था. वह और
तीख़ा होते जा रहा था. उसने संध्या के हाथ कस कर पकड़ लिये और उसे चूमने की कोशिश करने
लगा, संध्या चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रही थी, उसके आँखों से आँसू झरने लगे. वह जैसे
खुद के शरीर को छोड़ चुकी थी.
उसके आँसू देख कर पूरब लौट आया, स्मृतियों से दूर, आज
में. वह उसके चेहरे पर खिंचे बूढ़ेपन की दरारों को देख रहा था. संध्या को तार तार हुआ
देख रहा था. उसकी आँखें बन्द हो चुकीं थीं, जैसे उसका रेप हुआ हो. पूरब अचानक से उससे
दूर हो गया, माफी मांगी, रोने लगा. उसके सामने सलोनी का चेहरा उभर आया, उसे गिल्ट
होने लगा. अपनी पत्नी से उसे डर लगने लगा. संध्या अपना सामान उठा कर कमरे से निकल
गई, बाहर निकलने से पहले पूरब को लाललियत नजरों से देखी जिससे बस खूबसूरत सिम्पथी
झड़ रही थी. पूरब अकेला सिमट कर रो रहा था. उसका वक़्त फिर बहने लगा था. यहाँ से वह
भाग जाना चाहता था पर वह हिल नहीं पा रहा था.
8.
जब लड़खड़ाते
कदमों से पूरब घर पहुँचा तब सलोनी कुछ गुनगुना रही थी. पूरब बिल्कुल ही सहमा हुआ लग
रहा था. उसके आँखों में अपराधी की तरह का कथ्य था. सलोनी उसके पास दौड़ी हुई गई, उसे
अचानक ख़्याल आया उसने पूरब को काफी समय से अकेला छोड़ दिया है. उसके अंदर की ममता जाग
गई. वह पूरब को बिठाई और उसे सहलाने लगी. उसे संभालने देने लगी. पर पूरब अचानक रोने
लगा, उसने सलोनी को कसकर जकड़ लिया.
"मुझे
माफ कर दो, मुझे माफ कर दो"
"क्या
हुआ पूरब"
"पिंकी....
मुझे माफ कर दो प्लीज, मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ"
सलोनी ने
कितने दिनों बाद पिंकी सुना था. सलोनी को डर-सा लगा. उसकी स्मृति बन रही थी, जिसमें
पूरब उसे पिंकी कहता था.
"मैं
बहुत बुरा हूँ, मैनें धोखा दिया है तुम्हें"
"क्या
हुआ, आराम से बताओ"
पूरब ने
सबकुछ बताया. कैसे उसने उसे धोखा देना चाहा, पर ऐन वक़्त पर उसका चहरा उभर आया और उसने
खुद को रोक लिया. पर चीट करने का ख्याल भी चीटिंग ही है, ऐसा पूरब का मानना था. वह
खुद सिकुड़ता जा रहा था, सलोनी के उर में कुछ अजीब सा होने लगा.
वह उठ कर
वहाँ से चल दी. उसके सामने रमेश का चेहरा घूमने लगा, जिसे वह खुश कर के आई थी, उसे
अपने ऊपर डिसगस्ट होने लगा. उसकी स्मृतियाँ जैसे कहीं खो गई थी कई सालों से और अब
वह सब एक साथ फ़्लैश हो रही थीं. वह उनके भार को नहीं झेल पाई. उसने खुद को कमरे में
बन्द कर लिया. वह यातना से गुजर रही थी. जब आप खुद के नजरों में अपराधी हो जाते हैं
तब आप खुद को जो सजा देते हैं वह कोई दुश्मन नहीं दे सकता. आप अपने मन को दोषी की
तरह ट्रीट करते हैं. आपका अपराध बोध आपको कोई काम करने नहीं देता. सलोनी जिसके लिए
भूत का कोई अस्तित्व नहीं था अब एक साथ ही उभर आया था, वक़्त ठहर गया और वह क्षीण हो
गई.
पूरब को
लगा, सलोनी उससे गुस्सा है. वह मनाने नहीं गया. वह खुद एक अपराधी था. पूरब के लिए
अब सबकुछ भविष्य में था, सलोनी का पास्ट ही उसे जकड़े रखा था.
एक जिल्द
जो दोनों के बीच था, जो उनके शादी का सबसे
महत्वपूर्ण जोड़ था, वह अब फट चुका था. दोनों अपराधी थे. सलोनी कमरे से कई दिन बाहर
नहीं आई, पूरब उतने ही दिन काउच से नहीं उठा.
वक़्त ने
उन दोनों को लटका रखा था. दोनों घड़ी की सुइयां हो चुके थे.
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अविनाश
24/07/1997, देवरिया (उत्तर-प्रदेश)
amdavinash97@gmail.com
8750622193
अच्छी कहानी है। अविनाश को बधाई
जवाब देंहटाएंशानदार लेखन
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत अच्छी कहानी लिखी हैं लेख़क साहब ।। बहुत उम्दा है ये👍👍
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कहानी।
जवाब देंहटाएंआभार🌼
हटाएंअच्छी कहानी ।
जवाब देंहटाएंबधाई,लेखक और समालोचक दोनों को ।
आभार आपका🌻
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