माणिक बंद्योपाध्याय: स्वामी - स्त्री : अनुवाद - शिव किशोर तिवारी


माणिक बंद्योपाध्याय (9 May 1908 – 3 December 1956) की १९४४ में लिखी प्रसिद्ध कहानी ‘स्वामी-स्त्री’ का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद शिव किशोर तिवारी ने किया है.  माणिक दा ने ३६ उपन्यास और ढाई सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं हैं जिनपर आधारित कई यादगार फिल्में भी बनीं हैं. 

 

माणिक बंद्योपाध्याय
पति-पत्नी                                                          
शिव किशोर तिवारी

 

रात दस बजे मेनका कमरे में आई. इस घर में भात-पानी का झमेला जल्द ही निबट जाता है. छोटा-सा कमरा है. लम्बान चौड़ाई से दो हाथ ज्यादा होगी, इससे अधिक नहीं. उसका लगभग आधा मेनका-गोपाल की शादी में मिले पलंग ने घेर रखा है. उसके पास निकलने भर का रास्ता छोड़कर बड़े कौशल से गोपाल की कैम्प चेयर आड़ी-तिरछी बिठाई गई है. कुर्सी की चारों ओर निकलने भर की जगह है. उसके सामने एक स्टूल है जिस पर पांव रखकर गोपाल कुर्सी पर चित लेटा रहता है और सिगरेट-बीड़ी पीते हुए किताब पढ़ता है- लोकप्रिय साहित्य, जिसे पढ़कर समय कटता है, मन को आराम मिलता है. जो ऊँचे दर्जे वाले लेखक हैं उनकी भी ऐसी ही किताबें वह पढ़ता है. कमरे के एक कोने में बक्से और सूटकेस जमाये गये हैं– लोहे, टिन और चमड़े से बने. बड़ा बक्सा मेनका की शादी में मिला था; अब भी चमकीला है, बस एक कोना कहीं चोट खाकर जरा पिचक गया है. दीवाल पर कुछ बेकार के चित्र लटके हैं और मेनका-गोपाल की एक बड़ी-सी फोटो. साड़ी, साड़ी पहनने का सलीका, तमाम गहनों और केश-सज्जा को छोड़ दें तो तस्वीर की मेनका और अभी जो कमरे में आई है उस मेनका में खास कोई अंतर नहीं दिखता. बदन थोड़ा भर गया है ऐसा लगता है, पर पक्का नहीं कह सकते. लेकिन फोटो वाले गोपाल की तुलना में कैम्प चेयर वाला गोपाल काफी दुबला दिखता है. फोटोग्राफर के कौशल से नहीं बल्कि सचमुच फोटो का गोपाल अधिक तंदुरुस्त था. शादी के बाद से अब तक वह बहुत दुर्बल हुआ है. यह शादी की वजह से हुआ य़ा नौकरी करने के कारण, कहना मुश्किल है. शादी और नौकरी लगभग साथ-साथ हुई थीं. 

कमरे में आकर मेनका ने सिटकनी बंद की और नाइट गाउन उतार दिया. वह पलंग पर पैर लटकाकर बैठ गई और जोर-जोर से पंखा झलने लगी. “बाप रे ! अब कल पड़ी!”, उसने कहा.

गोपाल ने किताब नीचे करके एक सहमति-सूचक मुसकान दी और वापस पढ़ने में मन लगाया.

“हाय! उबल गई पूरी.”

इस बार गोपाल ने किताब नीचे नहीं की, पढ़ते-पढ़ते बोला, “बुरी गर्मी है.”

“टेबुल फैन तो तुम खरीद नहीं रहे.”

“तुम साड़ी न लेतीं तो...”

“बिना कपड़ों के तो रहा नहीं जा सकता”.

हाथ के पंखे की हवा ठीक से पाने के लिए वह इस तरह बैठी है, मानो कमरे में एक जोड़ी आखें भी न हों, मानो वहाँ सम्पूर्ण एकांत हो. तीन महीने नैहर  में रहकर एक हफ्ता पहले वह वापस आई है. पहले दिन इस तरह हवा नहीं कर सकी. लाज लगती रही, “छी, कपड़ा कैसे उतारे कोई!” जो एक देह, एक मन, एक प्राण हो चुके उनके बीच भी तीन महीने की दूरी ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देती है, दुबारा मिलते ही तत्काल सहज नहीं हुआ जाता. तीन महीने तक उन्होंने एक दूसरे की कल्पना की है, कामना की है, दुख और बेबसी की आहें भरी हैं, अवकाश और मुक्ति का आनंद भी किसी दंड की तरह भोगा है, रात भर जगे हैं, आवेग के बोझ से कभी-कभी कुछ देर को दम घुटता-सा लगा है. दोनों के मन में जाने कितने नये परिवर्तन हुए हैं एक-दूसरे को लेकर. दुबारा मिलने पर एक देह, एक मन, एक प्राण होने में बंद कमरे में पूरी, आधी या चौथाई रात का समय तो लगेगा ही. मशीन के पुर्जे खोलकर दुबारा लगाने में भी समय लगता है– स्वयं विधाता मिस्त्री हों तब भी.

बदन का पसीना सूखने के बाद मेनका पूरब की ओर खुलती दो परदा-लगी खिड़कियों में एक के सामने खड़ी हुई. पास के इकतल्ले घर की छत पर ग्रीष्म की चाँदनी छिटकी हुई है. उसके पीछे तिमंजिले घर की सात खिड़कियों से घर की रोशनी बाहर आ रही है. आजकल सभी खिड़कियों की रोशनियाँ पता नहीं कब बुझती हैं. शादी के बाद कुछ दिनों तक यह बात उसे पता होती थी. चार खिड़कियों पर करीब ग्यारह बजे अँधेरा होता था, दो में बारह के आसपास, और तिमंजिले की कोने वाली खिड़की पर डेढ़-दो बजे. उस कोने वाले कमरे में कौन रहता है या रहते हैं इस बात को लेकर न जाने कितनी ही कल्पनाएँ उसने की हैं. अन्य कल्पनाएँ– जैसे कोई परीक्षार्थी देर तक पढ़ता होगा– उसके मन में टिकती ही नहीं थीं, बल्कि उनकी सम्भावना को ही वह अस्वीकार कर देती थी. उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि उस कोने वाले कमरे में उन-दोनों जैसा ही एक जोड़ा रहता होगा– जिनकी शादी भी नई-नई हुई होगी. मेनका-गोपाल की तरह उन्हें भी ध्यान न रहता होगा कि प्रेम करते-करते कब रात के दो बज गये. वे अपनी रोशनी जल्दी ही बंद कर लेते थे लेकिन. घर के भीतर खुलने वाली उनकी खिड़की केवल फ्रॉस्टेड ग्लास की थी जिससे आर-पार तो नहीं दिखता था पर यह पता चलता था कि रोशनी जल रही है. तिमंजिले वाले सबसे ऊपर रहते थे और उनका कमरा भी कोने का था, इसलिए रोशनी जलाये रखने में कोई बाधा नहीं थी शायद.

मायके से लौटने के दिन वे करीब तीन बजे तक जगते रहे थे, लेकिन उस दिन तिमंजिले मकान की खिड़कियों की ओर देखने का ख्याल तक न आया.

मेनका के मुंह से पछतावे की एक क्षीण ध्वनि स्वगत भाव से निकली. उस दिन कुछ ज्यादा ही हो गया था. एक रात में ही एकरसता-सी आने लगी थी, जैसी मायके जाने के पहले लगातार छह महीने एक दूसरे के साथ रहते हुए आने लगी थी.

नींद आ रही थी. पछतावे वाली बात ने मेनका की नींद तो भगाई ही, और भी कुछ दे गई मानो– अधमुँदी आँखों में एक चमक और पीठ के ठीक बीचोबीच एक मीठी सिहरन. गोपाल मनोयोग के साथ किताब पढ़ रहा है. पढ़ने में विघ्न पड़ने से उसे बड़ी झुंझलाहट होती है. कहता कुछ नहीं पर झुंझलाहट होती है.

बिस्तर पर आकर मेनका कुछ देर इधर-उधर करती रही. फिर उसे याद आया कि देर रात तक जगकर पढ़ते रहने से गोपाल का दिमाग गरम हो जाता है. तब नींद से जगाकर उसे बहुत तंग करता है वह. ऐसा लगता है जैसे शांत, समझदार गोपाल कोई और ही आदमी हो गया हो या उसने शराब पी ली हो. मेनका को इतना विरूप लगता है सब कुछ, गुस्सा आता है! वह क्या कहीं भागी जा रही है? अगले दिन वह कमरे में नहीं आयेगी? बार-बार नींद से उठाकर किसी को कष्ट क्यों देना– जब उसका जी अच्छा न हो तब भी? ऊपर से, वह यदि कोई जरूरी बात कहने के लिए गोपाल को वह खुद आधी रात सोते से जगाये– किसी अज्ञात कारण से उसे नींद न आये, या हठात नींद टूट जाये और जी कैसा-कैसा करे और सारे बदन में बेचैनी के साथ छटपटाहट-सी मालूम हो– तब गोपाल केवल कहेगा, “कल बात करेंगे, कल सुबह”.

तब भी वह गोपाल के सीने में समाने की चेष्टा करती-सी भीगे स्वर में कहे, “सुनते हो? छाती में अजीब जलन हो रही है”, तो “थोड़ा सोडा ले लो” कहकर वह करवट बदलकर सो जायेगा. तब मेनका के सीने में सचमुच जलन होने लगती है. महीने दो महीने में कभी इस तरह नींद नहीं आती या बीच में टूट जाती है– चलो मान लो एसिडिटी के कारण ही– तो क्या बात करने को उसे कोई नहीं मिलेगा? ऐसी जबरदस्त जरूरत के वक्त उसका प्राप्य प्रेम और दुलार उसे नहीं मिलना चाहिए?

कुछ देर इधर-उधर करने के बाद नींद आने लगी. एक जम्हाई लेकर मेनका बोली, “सोओगे नहीं? इतनी देर पढ़ने से कल आँख जो दुखेगी.”

गोपाल बोला, “चैप्टर खतम करके सो जाऊँगा, बस पाँच मिनट और.”

मेनका ने लेटकर आँखें बंद कर लीं. नींद से निढाल होकर पूरी तरह शरीर को ढीला छोड़ देने की क्षमता अब चुक-सी गई है, सो गोपाल जब किताब रखकर, स्टूल को ठेलकर कुर्सी खिसकाकर उठने लगा तो मेनका को आहट लग गई. एक बार आँख खोलकर डरते-डरते गोपाल के चेहरे की ओर देखकर फिर निश्चिंत होकर आँखे बंद कर लीं. आज दिमाग गरम नहीं हुआ है, नींद आ रही है. एक नजर में ही मेनका को अब वह सब पता चल जाता है. गोपाल के चेहरे और आँखों के सारे भाव उसे मन:स्थ हो गये हैं.

बत्ती बंद करके गोपाल अपनी जगह पर लेट गया. एक पाँव मेनका के पावों पर फैला लिया. मेनका ने अस्फुट स्वर में पूछा, “कल छुट्टी है न?” गोपाल ने जवाब में “हूँ” कहा.

दोनों कोई दस मिनट सोये होंगे कि टैक्सी से घर में अतिथि का आगमन हुआ. एकदम अनजाना कोई नहीं, गोपाल के साढ़ू का छोटा भाई रसिक और उसकी पत्नी. गये अगहन में रसिक का विवाह हुआ था. पत्नी को मायके छोड़ने जा रहा है. दिन बारह बजे की रेलगाड़ी पकड़कर साढ़े छह बजे शाम कलकत्ता, वहाँ से फिर नौ बजे की गाड़ी पकड़नी थी. रास्ते में दुर्घटना होने की वजह से लाइन बंद हो गई तो उनकी गाड़ी दस बजे कलकत्ता पहुँची है. इतनी रात कहाँ जायें, यहीं आ गये. वरना इस तरह बिना कोई खबर दिये....

“हमें याद किया और आये यही हमारा सौभाग्य है”.

स्टोव जलाकर मेनका पूड़ियाँ तलने बैठी. गोपाल का भाई साइकिल लेकर खाने-पीने की दुकानों की ओर चला. कम से कम चार किस्म के छेने के पकवान और रबड़ी लाना होगा. और कोने के पंजाबी होटल से पका माँस. अंडे घर में पड़े हैं, मेनका आमलेट बना लेगी. घर में रिश्तेदार आये हैं नई बहू को लेकर. खाने-पीने का जरा कायदे का बन्दोबस्त भी न हो पाया ! धत्...

फिर भी उनकी गाड़ी कल शाम को है. दोपहर के भोजन का कुछ ठीक-ठाक इंतजाम कर लेंगे. महीने के अंत में पैसे खतम होने को आये, लेकिन घर में रिश्तेदार हों तो पैसे की फिक्र करने से कैसे काम चलेगा?

मेनका ने बुआ जी से फुसफुसाकर पूछा, “कनिया को एक कपड़ा तो देना पड़ेगा, क्यों?”

“देना तो चाहिये”.

घर में अप्रत्याशित अतिथि के आने की उत्तेजना को दबाकर मेनका के मन में गोपाल के लिए अब एक ममता जागी. फिर इस महीने बेचारे को कर्ज लेना पड़ेगा. अकेला आदमी खटकर जान दे रहा है, भाई, बहन, फूफी, मौसी उसकी कमाई खसोटकर खा रहे हैं. ऊपर से रिश्तेदारों को मेहमानी करनी है! एक टेबुल फैन तक खरीदने की बेचारे की साध पूरी न हुई. वह खुद भी कैसी है! पसीने से लथपथ ऑफिस से जब लौटता है तो इतना भी नहीं होता कि दस मिनट उसे पंखा झल दे. आज रात पंखा झलकर उसे सुलाकर तब सोयेगी. एक हाथ से पंखा झलना, दूसरे हाथ की उँगलियाँ उसके बालों में...

बरामदे को घेरकर बनाई जगह पर रसिक खाने बैठा, बहू के लिए खाना अंदर कमरे में गया. रसिक के पास बुआ जी बैठीं, बहू के दायें-बायें सटकर बैठीं मेनका की दो ननदें. खाना परोसते हुए मेनका ने लक्ष्य किया कि इधर-उधर डोलता, चक्कर काटता गोपाल बार-बार रसिक की बहू को देख रहा है, बल्कि उत्कंठा के साथ देख रहा है. पहली बार बहू को देखकर गोपाल को मानो अचरज हुआ था. बातचीत की कोशिश करने पर बहू लज्जावश चुप रही तो उसे शायद बुरा भी लगा. छोटी किसी मजाक की बात पर फिक्-से हँसकर उसने जवाब दिया तो गोपाल के आनंद की सीमा न रही जैसे. पूड़ियाँ तलते-तलते मेनका ने यह सब लक्ष्य किया था. इस वक्त दोनों को खिलाने-पिलाने पर नजर रखने के बहाने अंदर-बाहर कर रहा है. इसी दौरान वह रसिक की बहू का सर्वांग आँखों से सहला जाता है. और किसी की नजर में पड़े ऐसा कुछ नहीं कर रहा है. और किसी के बस का नहीं है कि गोपाल के हाव-भाव और सायास सम्भाषण में कुछ और पकड़ सके. दूसरों के पास मेनका की नजर जो नहीं है. परंतु गोपाल ऐसा कर क्यों रहा है? रसिक की बहू सुंदर है इसलिए? लड़की रूपवती है, किंचित उग्र प्रकार का रूप. जो रूप कपड़े-लत्ते खास कुछ ढक नहीं पाते, उलटे उसे और भी उत्कट, और भी ऐन्द्रिय बना देते हैं. बाट के लोग मुंह बाये ताकते रह जाते हैं, घर के लोग सदा सशंक रहते हैं. और रूप के अहंकार में रूपसी के पाँव धरती पर नहीं पड़ते.

गोपाल शांत, भद्र और मधुर रूप का प्रेमी है– जैसा मेनका का रूप है. रसिक की बहू को देखकर विचलित होने वाला तो वह नहीं है.

कमरे में जाकर एक कोंचा देना पड़ेगा– समझना होगा मामला क्या है.

अतिथियों का भोजन समाप्त होते ही शयन की समस्या पर बुआ, मेनका और गोपाल की बैठक हुई. बुआ ने सुझाया कि भोपाल और कन्हाई एक बिस्तर पर सो जाये, रसिक की बहू को अनु-बीनू के साथ कर दिया जाये. एक रात की तो बात है.

गोपाल बोला, “ऐसा भी होता है कहीं? उनकी नई शादी हुई है. उन्हें एक कमरा देना ठीक होगा. हमारा कमरा दे दो”.

“तो वही करो” – बुआ ने हिचकिचाते हुए कहा.

उसके बाद रात एक बजे तक घर की सारी बत्तियाँ बुझ गईं. गोपाल भोपाल की छोटी चौकी पर सोया, मेनका सोयी अनु-बीनू दोनो ननदों के बीच. रात को संयोग से भाभी को बगल में पाकर अनु-बीनू की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. सारी रात जागकर गप करने का इरादा जाहिर करने के बाद पहले दस मिनट फव्वारे की तरह शब्द निकालती तथा दस मिनट और अधनींदी आवाजें निकालती, दोनों आधे घंटे में सो गईं. मेनका जगी रही. गोपाल को कितनी बातें बतानी थीं, लेकिन बात ही न हो पाई. आज की रात-लम्बी, खतम न होने वाली रात–बीतेगी, फिर कल का सारा काटे न कटने वाला दिन, तब कहीं जाकर कल रात 10 बजे बात हो पायेगी. तब तक तो बातें सारी बासी हो जायेंगी. कहने का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा. इसके अलावा, बुआ ने उन दोनों को कल भी रुकने के लिए कहा है– कल का दिन बड़ा खराब है, यात्रा के लिए शुभ नहीं है. रसिक लोग शायद कल भी रुक जाये. उसका कमरा उन्हीं के दखल में रहे. तब तो परसों रात के पहले गोपाल से अकेले मिलना न होगा. कैसा अभागा घर लिया है गोपाल ने, एक फाजिल कमरा तक नहीं है. और हो भी कैसे? भाई, बहनें, मौसी, फूफी से घर अटा पड़ा है. गोपाल की गलती नहीं है– इस घर के लिए भी हर महीने पैंतीस रुपये गिन देना होता है. सबके आराम के लिए खटते हुए तमाम हो गया आदमी! आजकल कुछ बीमार-जैसा भी दिखने लगा है.

कमजोर तो हो ही गया है. परसों जब उसको बाँहों में जकड़ा था; कहाँ, पहले की तरह का जोर तो नहीं था बाँहों में! पास होता तो अभी जाँच लेती कितना कमजोर हुआ है. कल सुबह ध्यान से देखना होगा कि गोपाल का चेहरा कैसा दिख रहा है. कल से थोड़ा ज्यादा दूध और मछली खिलाना ठीक होगा.

इसी वक्त जाकर एक बार देख ले अगर? भोपाल-कन्हाई तो सो ही चुके होंगे. लेकिन बत्ती जलाने से कहीं उनकी नींद टूट गई तो? अँधेरे में बदन को हाथ से सहलाते समय गोपाल ही अगर जग जाये?

आज रात कुछ नहीं होता, आज वह फँसी हुई है. अभी हार्ट फेल होकर मर भी जाये तो गोपाल का जरा-सा स्नेह-स्पर्श तक नहीं मिल पायेगा. कोई उपाय नहीं, कुछ नहीं किया जा सकता. एक अतिरिक्त कमरा इस घर में होता तो...रात की निस्तब्धता मेनका के कानों में झांय-झांय बजती है. बहाने या कैफियत को दरकिनार कर, तर्क और औचित्य को धता बताकर, इस समय उसकी कल्पना सीधे-सीधे, साक्षात् गोपाल की कामना कर रही है- पुराने अभ्यस्त मिलन की पुनरावृत्ति! उसके बाद चाहे मौत आ जाये.

“सुनो!”

एक साथ गरमी और ठंड का अनुभव हुआ मेनका को. वह सिहर उठी.

जंगले की छड़ पर मुंह टिकाकर गोपाल ने आवाज कुछ ऊँची की –“सो गईं क्या? मुझे एक ऐस्पिरिन दे जाओ न”.

मेनका के जवाब देने के पहले ही कमरे के एक कोने से बुआ बोल पड़ीं, “कौन? गोपाल? तबीयत ठीक नहीं लग रही?”

ना, गर्मी से सरदर्द हो रहा है. ऐस्पिरिन चाहिये. तुम न उठो बुआ, तुम्हें उठने की जरूरत नहीं है”.

मेनका दरवाजा खोलकर बाहर आई.

“ऐस्पिरिन तो हमारे कमरे में रखी है”.

“ रहने दो फिर. छत पर जाकर थोड़ी देर वहीं सोता हूँ. भूपाल लोगों के कमरे में बड़ी गरमी है”.

“खुली छत पर सोओगे? तबीयत खराब नहीं होगी?”

“कुछ नहीं होगा. एक पाटी (एक प्रकार की चटाई) बिछा देना”.

मेनका पाटी और एक तकिया लेकर आई. बरामदा पार करके सीढ़ियों की ओर जाते हुए उन दोनों के कमरे की काँच की खिड़की के पास मेनका को रोककर गोपाल दबे गले से बोला, “इत्ती देर में सो भी गये!”

खिड़की पर रोशनी नहीं है. रसिक के खर्राटे बाहर तक सुनाई दे रहे हैं. मेनका बोली, सोयेंगे नहीं? रात कितनी हो गई है!”

मेनका ने छत पर पाटी बिछाकर तकिया लगा दिया. गोपाल ने पूछा, “अपना तकिया नहीं लाईं?”

“मुझे भी सोना है यहाँ?”

गोपाल के हाथ पकड़ते ही वह पाटी पर बैठ गई.- घर के लोग क्या सोचेंगे!

गोपाल ने उसे आलिंगन में कस लिया तो कुछ देर के लिए मेनका की साँस बन्द हो गई जैसे.

अब और सीढ़ी उतर-चढ़ नहीं सकती. एक तकिये से काम चल जायेगा.

तिमंजिले का कोने वाला कमरा रेलिंग के ऊपर से दिख रहा है. इस समय भी उसमें रोशनी जल रही है.

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शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदीअसमियाबंगलासंस्कृतअंग्रेजीसिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और आलोचनात्मक लेखन.
tewarisk@yahoocom

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  1. यह बात तो माननी पड़ेगी कि बांग्ला लेखकों के लेखन में जीवन तत्व बहुत सजल और गीतात्मक है। इस घटनाविहीन कथा में भी कितनी अद्भुत पठनीयता है। स्त्री-पुरुष संयोग के विषय को कितनी गरिमा के साथ लिखा है। शिवकिशोर तिवारी प्रखर विद्वान तो हैं ही , अनुवाद की यह भाषा भी उनके प्रति आदर उतपन्न करती है। यह पाठ उपलब्ध कराने के लिए समलोचन का आभार।

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  2. बहुत सुंदर कहानी है और सबसे आश्चर्य की बात तो है कि १९४४ में लिखी इस कहानी में दाम्पत्य प्रेम है वह कमोबेश आज तक वैसा का वैसा ही है।
    तिवारी जी का बहुत आभार कि उन्होंने इस कहानी का अनुवाद किया। आशा है और भी अनुवाद पढ़ने को मिलते रहेंगे।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07.01.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
    धन्यवाद

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  4. तेजी ग्रोवर6 जन॰ 2021, 7:14:00 pm

    अनुवाद और कहानी दोनों काबिले तारीफ़ हैं।

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  5. शानदार कथा, सुंदर अनुवाद।

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  6. माणिक बंद्योपाध्याय की कहानी निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पति-पत्नी के बीच के अंतर्संबंधों की कहानी है। इसमें आर्थिक अभाव है, संयुक्त परिवार के मूल्यों और उसमें जिंदगी की निजता और स्वछंदता पर पड़ते प्रतिकूल प्रभावों के बावजूद एक घूटनवाली परिस्थिति में भी जीवनयापन की जद्दोजहद इस कहानी को विशेष बनाती है। सामुहिक जिंदगी में कभी मौजूद मानवीय रिश्तों की गरमाहट हीं इस कहानी का मूल्य है ।अनुवाद भी अच्छा लगा।

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  7. एक अच्छी कहानी का उत्कृष्ट अनुवाद - सहज, सरल भाषा, शैली में ।

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