सुभाष गाताडे हिंदी और मराठी के जाने माने
लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. समालोचन के लिए इधर अपने जीवन-प्रसंगों पर लिख
रहें हैं. उनके आत्म का पहला हिस्सा ‘मैं भी अश्वत्थामा ?’ आपने पढ़ा है.
‘जिस सुबह पिता गुजरे’
मार्मिक और विचलित करने वाला तो है ही यह भी बताता है कि जीवन कितना विचित्र और
अकल्पनीय है. हमारे सामान्य परिवारों में किस तरह से कुछ बड़ा घटित होता रहता है.
प्रस्तुत है.
(दो)
जिस सुबह पिता गुजरे
सुभाष गाताडे
ऐसा नहीं हुआ
कि
पृथ्वी का चलना
अचानक थम गया,
न चिड़ियों की
वह आवाज़ें
जो कभी कभी
बगल के पेड़ से
सुनायी पड़ती थीं
बिल्कुल विलुप्त हो गयीं,
जिन्दगी हमेशा की
तरह
वैसी ही चलती
रही
बदस्तूर
घर से निकलना
काम पर
काम से घर
लौटने की तर्ज
पर
सुदूर तालीम के
लिए गयी बेटी
की आवाज़
सुनने के लिए
दिल की बेचौनियां
वैसी ही रहीं
फरक महज इतना
पड़ा
कि
उस अलसुबह
यह बात शीशे
की तरह साफ हुई कि
अब
जमाने की सारी
धूप
अपनी ही पीठ
पर पड़ा करेगी
बिल्कुल सीधे
और यह एहसास
गहरा गया कि
यकायक यतीम हो
जाना
हर बच्चे की
नियति में शुमार
होता है
शायद.
(पिता के न
रहने का एक साल - 17 नवम्बर 2017)
कुछ दिन ऐसे
बीतते हैं गोया
उस दिन-रात का हर
लमहा, हर पल आप को
याद रह जाता है.
जैसे 27 साल के
लम्बे वक्फे़ के
बाद भी मैं बता सकता
हूं कि जिस सुबह मेरी
बेटी जन्मी उसकी
पहले की रात मैंने किस
उत्कंठा, बेचैनी और अदृश्य से डर के
साये में बीतायी.
या चंद माह
पहले, जुलाई 2020 में गुजरी
अम्माजी (अंजलि की
मां) का अंतिम
दिन किस तरह बीता था,
शाम के वक्त़
कैसे उनकी सांस
तेज हो चली थी और
वह अशुभ संकेत
मिल गया था, किस तरह
रात के ठीक
12 बज कर 25 मिनट
और कुछ सेकेण्ड पर अपनी संतानों
और अन्य आत्मीयों
के बीच उन्होंने
अंतिम सांस ली थी, जब
हम सभी उन्हें
घेरे खड़े थे.
मेरे पिता- जिन्हें
हम ‘बाबा’ कह कर पुकारते थे - जिस
दिन गुजरे वह
दिन मेरे लिए
आज भी ऐसा ही दिन
है.
मैं आप को
बता सकता हूं
कि सुबह किस
समय इम्तियाज़ जो इंजिनीयरिंग
की तालीम ले
रहा था और साथ-साथ
किसी होम हेल्थकेयर
सर्विसेस में नौकरी
करता था, और बाबा की
देखभाल के लिए आता था, ने मुझे आवाज़
दी- भैयाजी! और
दूसरे कमरे में
बिस्तर पर अर्द्धनिद्रा
में पड़े मैंने
अंदाज़ लगाया था
कि वह क्यों
बुला रहा है?
उस नौजवान इम्तियाज़
का मैं ताउम्र
शुक्रगुजार रहूंगा क्योंकि
मेरे पिता के अंतिम दिनों
को बेहतर बनाने
में वह जुटा रहता था.
सितम्बर माह के 2016 के अन्त में रात
में किसी समय
वह गिर गए थे और
फिर कभी सामान्य जिन्दगी में
लौट नहीं सके
थे. गिरने में
उनके कुल्हे की हड्डी टूट गयी थी और
इस सदमे ने उनकी मानसिक
स्थितियों पर भी
असर पड़ा था. अस्पताल के बिस्तर
पर उन्हें मिथ्याभास
होता रहता था.
उन्हें लगता रहता
था कि वह किसी मंदिर
में है या जिस कस्बे
में उनका बचपन
एवं किशोरावस्था बीता था , वहां के घर में
है.
ऑपरेशन हुआ. सफल
भी हुआ!
घर लौटे, लेकिन
आखरी लगभग दो सप्ताह वह
‘अपनी दुनिया’ में ही रहते थे,
जब उन्हें अपने
बड़े भाई- जिनका
नाम अण्णा था
और जिनका लगभग
25 साल पहले ही इन्तक़ाल हो गया था- याद
करते रहे. उन्हीं
का नाम लेते
थे.
कभी-कभी ही ठीक
बात करने की स्थिति में
होते.
ऐसा इत्तेफ़ाक था कि शाम के
वक्त़ पिता थोड़े
नॉर्मल हो जाते थे और
इम्तियाज़ के साथ
बात करते रहते
थे.
इंजिनीयरिंग के उस
छात्र के लिए-
जो अभी अपनी
पढ़ाई में मुब्तिला था- वह पूछते रहते
थे कि- ‘तुम्हारी
शादी कब होगी?’
वह बेचारा कुछ
कहने से सकुचाता
रहता था.
कभी-कभी मन
का पारंपारिक कोना
विद्रोह कर देता है कि तुम कितने नाकारा
थे कि अपने पिता की
सेवा अकेले नहीं
कर सके, किसी
एजेंसी का सहारा
लेना पड़ा.
ईमानदारी की बात
कहता हूं कि वे मेरे ही
पिता थे जिनके
साथ साठ साल में कुछ
माह कम का सान्निध्य, साथ, स्नेह
मुझे मिला था;
और इसके बावजूद
उनकी सेवा में
शारीरिक और मानसिक
थकान इस कदर तारी रहती
थी कि एक सीमा के
बाद चाह कर भी कुछ
अधिक कर पाने में हम
असमर्थ थे. और न केवल
हम दोनों बल्कि
वे तमाम आत्मीय- जिनमें से कइयों
से खून का रिश्ता भी
था. कइयों
से खून का रिश्नता नहीं था लेकिन
खून से कई बार अधिक गाढ़ी दोस्ती का, कामरेडशिप का रिश्ता
था, वे पिता की सेवा
में जुटे रहते
थे.
कई बार प्रोफेशनल सेवाओं का भी सहारा लेना पड़ा था. इम्तियाज़ की हमारे घर में एंटरी इसी तरह हुई थी.
2
पिता अचानक नहीं चले गए थे.
उनके जाने का
आभास हमें हो गया था.
वर्ष 2016 की शुरू
में ही लगने लगा था
कि साल पूरा
करना उनके लिए
मुश्किल साबित होगा.
ऐसा कोई प्रमाण
नहीं पेश कर पाउंगा जो
बता सके कि ऐसा क्यों
लग रहा था, फिर भी
जब जब उन्हें
देखता तब यही बात लगने
लगती.
वह अधिक भूलने
लगे थे.
कभी-कभी अपने
में खो जाते थे.
टीवी का रिमोट
कन्टोल हाथ में रख कर
वह पहले आराम
से चैनल बदलते
रहते थे और अपने मनमुआफिक
आगे पीछे करते
रहते थे, लेकिन
अब वह छोटीसी
गतिविधि में भी वह गड़बड़ाने
लगे थे.
हाथ में रखी
चाय कई बार उनके हाथ
से कप के साथ गिर जाती थी. और ऐसी
घटना होने पर उनके चेहरे
का भाव अलग किस्म का
रहता था. जिसमें
वह ऐसा ‘लुक’ देते कि जो
कुछ हुआ है, उसमें उनका
कोई दोष नहीं
है.
कई बार ऐसा
होता था कि वे बेहद बेतरतीब
बातें बोलते, जिसका
न कोई ओर हो ना
छोर हो.
एक सुबह जब
मैं चाय लेकर
उनके बिस्तर के
पास गया तब उन्होंने मुझे पूछा
‘मेरी शादी कब
हो रही है’!
मुझे लगा कि शब्दों के
चयन में कुछ गड़बड़ी हो गयी है फिर मैंने पूछा
कि ‘किसकी शादी',
बोले- 'मेरी शादी.'
मैंने बात टाल
दी और कोई दूसरा किस्सा
शुरू किया.
लगता है कि
मौत महज कोई घटना नहीं
होती, वह एक सिलसिला होता है,
जब रफता-रफता
एक एक अंग आप का
साथ छोड़ देता
है. पिताजी का
एक एक अवयव गोया अपने
काम बन्द कर रहा था
या धीमा हो चला था.
उसी साल अप्रैल
माह में उन्होंने
उम्र के नब्बे
वसंत पार किए थे और
इस ‘बर्थडे ब्वॉय’ को फोन करके
या मिल कर मेरे तमाम
आत्मीयों ने उनके उस
दिन की रौनक बढ़ा दी
थी.
वह एक भरी
पूरी जिन्दगी जिए
थे.
तीन भाइयों के
बीच मझले भाई
के तौर पर वह थे,
बड़े भाई अण्णा
उर्फ नारायण थे
तो उनसे छोटे
थे मधुकर.
हमारे दादाजी क्या
व्यवसाय, पेशा करते
थे, इसका अन्दाज़ा
नहीं है, शायद
अपने भाई के साथ संपत्ति
विवाद में उन्होंने
काफी समय बीताया
था और इसी के चलते
या कुछ अन्य
वजहों से वह कानूनी विवादों
में उलझे रहते
थे. पिताजी ही
बताते थे कि घर में
लगे म्युनिसिपालिटी के
पानी के नल को लेकर
उनका सरकारी मुलाजिमों
से विवाद हुआ
था, हो सकता है कि
बातें महज बातों
की सीमा से आगे बढ़
गयी थीं और मामला अदालत
चला गया था और दादाजी
को कुछ माह की जेल
की सज़ा हुई थी. पिता
की मां अर्थात
मेरी दादी बहुत
पहले ही गुजर गयी थी.
नियमित आय नहीं
होने के चलते उनके बेहद
मेधावी सबसे बड़े
बेटे - जिन्हें हम
अण्णा काका कहते
थे - को फौज में भरती
होना पड़ा था, अंदाज़ा यही
है कि वह पूरे बीस
साल के भी नहीं हुए
थो. दूसरे विश्वयुद्ध
के दौरान वह
बर्मा की तरफ पहुंचे थे.
उनकी तनखा आने
लगी और घर की आर्थिक
स्थिति थोड़ी ठीक
हो गयी.
स्कूल के बाद
की पढ़ाई के लिए पिता
पुणे के एस पी कॉलेज
पहुंचे थे. पढ़ने
लिखने का शौक पहले से
ही था, जो अब और
बढ़ा था. पुणे
में पढ़ाई के दौरान भी
अपने आप को आर्थिक तौर
पर मजबूती दिलाने
के लिए प्रेस
में या किसी अख़बार में
वह काम भी करते थे.
डिग्री हासिल करने
के बाद सेन्टल
एक्साइज डिपार्टमेंट में
इन्स्पेक्टर के तौर
पर भर्ती हुए,
मगर पढ़ने का शौक बना
रहा था. वह लिखते भी
थे, कहानियां लिखते
थे, जो मराठी
की अग्रणी पत्रिकाओं
में ही नहीं बल्कि अंग्रेजी
के ‘कैरवान’ आदि में छपती थी
और राष्टभाषा समिति
आदि द्वारा संचालित
हिंदी पत्रिकाओं में
कभी कभी छपती
थीं.
मेरे बचपन में
ही हम पुणे आ गए
थे. मां जिन्हें
हम आई नाम से पुकारते
थे, हम तीन भाई बहन- रेखा, सुनिल और
मैं सबसे छोटा- और बाबा, पांच
लोगां का परिवार
था, दो कमरे के मकान
का किराया 35 रूपए
था.
हम स्कूल में
ही थे तब बाबा का
तबादला मुंबई हुआ,
मुंबई पूरी गृहस्थी को ले जाना
- न केवल महंगा
था बल्कि साथ
ही साथ हमारी
पढ़ाई को ही प्रभावित करता - इसलिए
उन्होंने एक अनोखा
फैसला लिया, रोज
सुबह की ट्रेन से मुंबई
जाने का और शाम तक
पुणे लौटने का.
ठीक बारह साल
उन्होंने इसे निभाया
था.
घर लौटते कभी
9 बज जाते थे तो कभी
दस, लेकिन हमारे
सवालों के लिए हमेशा ही
तत्पर रहते थे.
चौंतीस पैंतीस साल
बाद नौकरी करके
वह उसी विभाग
में डिप्टी कलेक्टर
के तौर पर रिटायर हुए
थे.
रिटायरमेंट के बाद
पेंशन लेते हुए
लगभग उन्हें तीन
दशक बीत गए थे.
कभी कभी वह
पूछते थे कि उन्हें कितनी
पेंशन मिल रही है, और
जब हम उन्हें
राशि बताते तो
कहते कि आखिर कितनी ज्यादा
है मेरे लिए,
मैं जब रिटायर
हुआ था उस वक्त़ जितनी
तनखा मिलती थी
उससे भी यह कई गुना
ज्यादा है.
2016 के आगमन के
साथ अब लगने लगा था
कि अलविदा का
समय आ गया है.
३
जिन्दगी के बारे में बेहद सकारात्मक नज़रिया रखनेवाले उनके जैसे लोग मैंने बहुत कम देखे हैं, जो हर स्थिति में सुकून रखना जानते हैं, वे उम्र के जिस भी पड़ाव पर रहें, हर लमहे उसका लुत्फ उठाते रहते हैं, न इस बात से उज्र होता है कि अब वह बूढे हो गए हैं, न स्वास्थ्य की किसी परेशानी से बहुत अधिक परेशानी.
बाबा अक्सर एक
फिल्म की कहानी
सुनाते थे जो गोया जिन्दगी
के बारे में
उनके फलसफे को
बयान करती थी.
अंग्रेजी में बनी
कोई वॉर फिल्म
थी, जिसमें युद्धभूमि
पर- जहां रोज
सैकड़ों की तादाद
में लोग मर रहे हैं- सक्रिय एक अफसर
है, जो रोज सुबह उठता
है तो बाकायदा
अपनी दाढी बनाता
है, जिसे यह भी मालूम
नहीं कि वह अगले पल
जिएगा या नहीं.
तमाम चिन्ताओं मे
डूबे सहयोगी अफसर
उसकी इस आदत का गोया
मज़ाक भी उड़ाते
हैं. लेकिन वह
अपने रूटिन में
कोई तब्दीली नहीं
करता और किसी अलसुबह दुश्मन
की गोलियों का
शिकार हो जाता है.
और ऐसे लोग
तो और गिनेचुने
ही मिले हैं
जो खुद एक तरह से
अपनी ही मौत की ‘तैयारी’ में जुटे रहते
हैं अर्थात वह
किस तरह मरना
चाहते हैं या मरने के
बाद उनके शरीर
के साथ क्या
सिलसिला चले!
हमारी पड़ोसी साबिरा
आपा ऐसी ही थीं, जो
बाबा के गुजरने
के दो तीन साल पहले
गुजरी थीं.
उनकी उम्र अधिक
नहीं थी. पैंसठ
भी पार नहीं
किया होगा.
उन्हें दिल की
कोई समस्या थी,
जो बिल्कुल ठीक
हो सकती थी.
अधिक से अधिक बाईपास करना
पड़ता.
लेकिन जब किसी
बीमारी के चलते उन्हें अस्पताल
में भरती करना
पड़ता तो डॉक्टरों
को सख्त हिदायत
देती थी कि वह हार्ट
की समस्या पर
गौर न करें, अधिक से
अधिक कुछ सिम्प्टोमेटिक ट्रीटमेंट दें.
उन्होंने तय किया
था कि जिस आत्मसम्मान के साथ अब तक
उन्होंने एकल महिला
की जिन्दगी बीतायी
है, उसी गरिमा
के साथ वह मौत के
आगोश में चली जाएं.
एग्रिकल्चरल साइंटिस्ट के तौर पर अच्छा कैरियर था उनका. देश
विदेश के दौरे भी किए
थे.
ऐसी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलतीं
कि अपुन जैसा
कोई अपनी देसी
छाप अंग्रेजी को
याद करके लड़बड़ाने
लग जाए.
हर ईद पर
पूरे अपार्टमेण्ट के
लोग उनके यहां
ईदी खाने और उनका आशीर्वाद
लेने पहुंचते.
उनका जिस साल
इन्तक़ाल हुआ उस ईद को
जब हम उनके यहां पहुंचे
तो उन्होंने हम
तीनों को- जीवनसंगिनी
अंजलि और बेटी उर्मि को बिठाये रखा,
काफी देर तक. जब बाकी
लोग रूखसत हुए
तो अपने बेडरूम
में जाकर उन्होंने
कुछ नायाब चीज़
निकाली और उर्मि
को ईदी के तौर पर
दी.
मेरे खयाल से
तीन दशक से अधिक वक्त़
से एकल महिला
की जीवन बीता
रही थीं.
उनके निजी जीवन
का संघर्ष काफी
प्रेरणादायी था.
शादी के कुछ
समय बाद किसी
कान्फेरेन्स के सिलसिले
में वह विदेश
गयी थीं. विदेश
से लौटीं तो
इस दौरान उनके
अपने पति ने दूसरी शादी कर ली थी. घर के अन्दर
सूटकेस रखते ही उन्हें अपने
पति के इस नए रिश्ते
का पता चला था. पति
ने उनसे कहा
कि मैं तो धर्म के
हिसाब से ही चल रहा
हूं, तुम्हारा इस
घर में स्थान
बना रहेगा. वह
वहां अधिक देर
रूकी भी नहीं,
वहीं से अपने माता पिता
के घर पहुंची थीं
पिता पर जोर
डाल कर उन्होंने
अपने पति को तलाक दिया
था, जिसे शायद
खुला कहते हैं.
साबिरा आपा ने
पता नहीं कि
‘लिविंग विल’ की बातें
पढ़ी थी या नहीं, जिसके
तहत व्यक्ति खुद
तय करता है कि स्वास्थ्य
की गंभीर स्थितियों
में महज जिन्दा
रखने के लिए उसके शरीर
पर किस तरह का इलाज
न किया जाए,
मगर मौखिक
तौर पर वे उसे अमल में
लाती रहीं थीं.
वे जब गुजरी
उस वक्त़ हम
लोग दिल्ली के
बाहर थे, लौटे
तो यह दुखद ख़बर मिली.
यह भी जानकारी
मिली कि दिल्ली
के किस कब्रगाह
में उन्हें सूपूर्द
खाक किया गया
था.
हमारे अपार्टमेण्ट के गेट पर एक
छोटासा नोटबोर्ड लगा
है, जिसमें सभी
जरूरी सूचनाएं लिखी
जाती हैं या चिपका दी
जाती हैं.
साबिरा आपा के
न रहने की ख़बर भी
एक नोट में वहां दर्ज
की गयी थी. कुछ ही
घंटों बाद उनके
ही पुराने पड़ोसी
ने उस कागज़ को उतार
कर फाड दिया
था.
यह वही पड़ोसी
था जो ‘विधर्मियों' को सबक सीखाने के प्रशिक्षण लेने
के संगठित प्रयास
में मुब्तिला था
और अलसुबह गणवेश
पहन कर निकलता
था.
४
अगर साबिरा आपा ने किस तरह मरना है यह तय किया था तो बाबा तय करना चाहते थे कि मरने के बाद कैसा बीते?
क्या उनके शरीर
को उसी तरह आग के
हवाले कर दिया जाए, जैसे
कि अब होता आया है
या कुछ अन्य
किया जाए जो समाजोपयोगी भी हो.
बाबा दरअसल देहदान
करना चाहते थे.
और अस्सी साल
पार करने के बाद जब
उन्हें एहसास हुआ
कि अब आखरी घड़ी कभी
भी आ सकती है तो
वह ‘सक्रिय’ हो उठे थे.
और एक तरह
से वह तीस साल से
अधिक वक्फा़ पहले
गुजरी अपनी जीवनसंगिनी
अर्थात मेरी मां
की आखरी ख्वाहिश
को पूरा कर रहे थे,
जिनकी वह इच्छा
उस वक्त़ पूरी
नहीं हो सकी थी.
बस नेत्रदान करके ही संतुष्ट होना पड़ा
था.
आज से ठीक
पैंतीस साल पहले
मेरी मां ने अपनी मृत्यु
के पहले अपने
देहदान की घोषणा
की थी.
ऐसा नहीं था
कि उन्होंने देहदान की
वैज्ञानिक अहमियत के
बारे में जाना
था.
न उन्हें यह
पता था कि सांस रूकने
के बाद भी शरीर के
कई हिस्सों को
निकाल कर दूसरों
के शरीर पर प्रत्यारोपित किया जा सकता है- नेत्रादान के अलावा
आंख पर का पारदर्शी परदा (कार्निया),
हड्डियां, त्वचा, कुछ
मुलायम उतक,
किडनी, लीवर, हृदय, स्वादुपिण्ड जैसे
महत्वपूर्ण अवयवों को
आसानी से प्रत्यारोपित
किया जा सकता है.
न उन्हें इस
बात की जानकारी
थी कि ऐसा करने का
इरादा रखनेवाले लोग
बहुत कम मिलते
हैं, जिसका नतीजा
यही होता है कि जरूरतमंद
मरीजों की लाइन बढ़ती जाती
है, सालों बीत
जाते हैं, ऐसे मरीजों के
इंद्रियों के प्रतिस्थापन
के लिए.
पीछे मुड़ कर
देखता हूं तो थोड़ा चकित
रह जाता हूं
कि मूलतः एक
होममेकर रही मां,
जो बीस के दशक के
उत्तरार्द्ध या तीस
के दशक की शुरूआत में जन्मी थीं और अस्सी के
दशक में हमसे
बिदा हुई थी, जिन्होंने हम तीनों
बच्चों को- रेखा,
सुनिल और अपुन- को पाल-पोंस
कर बड़ा करने
में जिन्दगी बीतायी
थी, उन्होंने आज
भी रैडिकल लगने
वाला यह कदम कैसे उठाया
था?
सच यह है
कि हाल के दिनों में
देहदान, अंगदान को
लेकर निश्चित ही
प्रचार बढ़ा है, कई नामवरों
के उदाहरण सामने
आए हैं, लेकिन
इसे लेकर तमाम
संभ्रम मौजूद हैं,
धार्मिक विचारों के
लोगों के लिए अक्सर ऐसी
बात किसी कुफ्र
से कम नहीं लगती; इस पृष्ठभूमि में मां
का यह निर्णय
बहुत दूरंदेशी दिखता
है.
ऐसा भी नहीं
था कि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में
राजनीतिक सामाजिक हलचलों में
सक्रियता शामिल थी,
जिसने उनके वैचारिक
विकास को प्रभावित
किया हो. हां,
एक किस्सा वह
जरूर बतातीं थीं
1942 के दिनों में
उनके छोटेसे कस्बे-तहसील बार्शी
में (जिला सोलापुर) में निकलनेवाली प्रभातफेरियों में वह कभी शामिल हुई
थीं.
प्रभातफेरी के गाने
की शुरूआती पंक्तियां
जो उन दिनों
गायी जाती थीं
मुझे आज भी याद हैं
: ‘सागरासंगे नदी बिघडली,
नदी बिघडली, सागरची
झाली ; आमीबी घडलो,
तुमीबी घडा ना’ ( सागर के साथ
नदी एक तरह से ‘बिगड़
गयी’ अर्थात अपने
रास्ते से हट गयी और
खुद सागर बन गयी ; हम
भी रचे हैं,
तुम भी रचो)
लेकिन इससे अधिक
राजनीतिक एक्स्पोजर नहीं था.
हां, हम लोग
स्कूल में थे तो वहां
महिला मंडल में
शामिल होती थी,
जिसका संचालन संभवतः
ऐसी महिलाएं कर
रही थीं जो भारतीय जनसंघ
के करीब थीं.
अपनी इन सहेलियों
का दबाव हो या उनकी
अपनी निजी रूचियां
हो, जनसंघ के
जो प्रत्याशी हमारे
इलाके से खड़े होते थे,
उन्हें वह शायद वोट करती
थी.
पांच सदस्यों का हमारा
घर राजनीतिक विविधता
की दिलचस्प तस्वीर
पेश करता था.
पिता ताउम्र कांग्रेस
के साथ विचारधारात्मक
तौर पर सम्बद्ध
रहे थे. 77 के
दिनों में जब जनता पार्टी
की लहर थी तब भी
उन्होंने कांग्रेस के पक्ष में वोट
डालने से तौबा नहीं किया
था. नेहरू के
प्रति उनके विचारों
के प्रति और
स्वाधीन भारत के निर्माण में उनके
ऐतिहासिक योगदान के
प्रति उनकी यह जबरदस्त वैचारिक प्रतिबद्धता
थी कि हम तीनों भाई
बहन अपने अपने
स्कूल के प्रतिकूल
वातावरण के बावजूद
धर्मनिरपेक्षता के रास्ते
पर बने रहे.
और हम जब बड़े हुए
तो वामपंथ की
ओर झुके.
मैं महसूस करता
हूं कि मां ने कभी
यह खुल कर नहीं कहा
कि लेकिन अपने
इस निजी अनुभवों से- जब वह लगभग बारह
साल बिस्तर पर
रही - ईश्वर पर
उनका विश्वास लगातार
कम होता गया
था. एक सच्चे
आस्तिक के तौर पर उन्हें
लगता था कि उन्होंने ईश्वर की
पूजा में कभी कोई कमी
नहीं की, उन्होंने
किसी का बुरा नहीं चाहा,
सभी को सहयोग
देती रही, इसके
बावजूद उन्हें यह
क्यों भुगतना पड़
रहा है.
दरअसल 12 साल तक
गठिया से परेशान
मां ने कहीं देहदान के
बारेमें सुना था और मरने
के काफी पहले
मेरे पिताजी को
भी बताया था
कि वह चाहती हैं
कि उनका शरीर
अगर किसी के काम आ
सके तो अच्छा
रहेगा.
यह कहना गलत
नहीं होगा कि अपने देहदान
की बात एक तरह से
उनकी अपनी ओढ़ी
आस्तिकता के प्रति
उनके मन में प्रस्फुटित विरोध, विद्रोह
का ही ऐलान था.
बड़ी बहन रेखा
मां के अंतिम
दिनों के बारे में बताया
करती है, 87 के
जनवरी के अंत में उन्होंने
अंतिम सांस ली थी.
उन दिनों प्रस्तुत
कलमघिस्सु काशी हिंदू
विश्वविद्यालय में मेकॅनिकल
इंजिनीयरिंग में पीएचडी
में दाखिला लिया
था, लेकिन मूलतः
वामपंथी आन्दोलन के
कार्यकर्ता की तरह
सक्रिय था.
एक-एक करके
रिश्तेदार पहुंचने लगे थे. सभी शोकाकुल
थे.
उनके अन्तिम संस्कार
की बात चल पड़ी तो
पिताजी ने मां की इस
अंतिम इच्छा के
बारे में बताया
तो कुछ अन्य
आत्मीय बेहद दुखी
हुए.
उन्हें मैं दोष
नहीं देता, हो
सकता है उनको एक तरह
से लगा हो कि ऐसा
करेंगे तो मां को मोक्ष
नहीं मिलेगा या
उन्हें यह भी लगा हो
कि यह उसके पार्थिव शरीर की तौहीनी हो.
बात जो भी हो.
ऐसे भावुक क्षणों
में- जब लगभग चार दशक
की उनकी जीवनसंगिनी
बिदा हो चुकी थी- बाबा
के लिए भी आई की
अंतिम इच्छा पूरा
करना संभव
नहीं रहा. तय हुआ कि
मां की आंखें
दान दी जायें.
नेत्राबैंक वाले पहुंच
गए थे. और सभी औपचारिकताएं
पूरी कर वह जल्द ही
घर से निकल गए थे.
उनके मृत शरीर
को अग्नि के
हवाले कर सभी आत्मीय कुछ
घंटों में घर लौट आए.
शाम को नेत्राबैंक
वालों ने सन्देश
दिया कि मेरी मां ने
दो लोगों को
‘दृष्टि’ प्रदान की
है. मालूम हो
कि नेत्राबैंक वालों
का नियम है कि वह
यह नहीं बताते
कि इन नेत्रों
से कौन लाभान्वित
हुआ है, उसकी
निजता बनाए रखते
हैं.
कितना साल हो
गया मां को गुजरे अलबत्ता
अभी भी अपने बचपन-किशोरावस्था के नगर पुणे जाता
हूं तो सड़कों
पर चलते हुए
यही सोचता हूं
कि क्या पता
सामने से गुजरनेवाला
वही व्यक्ति हो,
जिसे मेरी आई ने दृष्टि प्रदान की थी.
क्या पता आई
की ‘आंखें’ मुझे आज भी चुपचाप
निहार रही हों.
5
उस दिन का
किस्सा नहीं भूलता
जब बाबा सुबह
के वक्त़ टहलने
के लिए निकले
तो देर तक लौटे नहीं
थे.
हमारी चिन्ता बढ़ती
जा रही थी. उनके कुछ
गिनेचुने दोस्तों, परिचितों को
हम लोग फोन कर चुके
थे, वह कहीं नहीं थे.
हम लोगों ने
उन्हें एक मोबाइल
भी खरीद कर दिया था,
लेकिन वह कॉल रिसीव नहीं
कर पाते थे.
घंटी बजती रहती
थी.
शायद खाने का
वक्त़ हो रहा था जब
हम पुलिस में
सूचना देने जाने
की सोच रहे थे, तब
अपार्टमेण्ट के गेट
पर दिखाई दिए
थे और हम लोगों ने
चैन की सांस ली थी.
‘कहां
गए थे, बाबा’?
घर पहुंचते ही अंजलि
ने पूछा था.
बगल में खड़ी बेटी उर्मि
दरअसल अपनी मां
का हाथ थामे
उसे सहला रही
थी गोया यह कहते हुए
कि अब जब ‘आजी’- वह उन्हें
इसी नाम से पुकारती थी- लौट
गए हैं, तो यह सवाल
बाद में पूछ लेंगे.
खाना खाते वक्त़
उन्होंने अपनी सुबह
की यात्रा का वृतांत पेश किया- यह पूरी तरह
भांपते हुए कि हम लोग
काफी चिंतित रहे
हैं. वह दरअसल
हमारे घर के पास स्थित
अंबेडकर अस्पताल पहुंचे
थे- जो एक बड़ा सरकारी
अस्पताल है- यह पता करने
के लिए कि देहदान कैसे
किया जाता है?
उन्होंने यह भी
बताया कि वहीं किसी से
मुलाक़ात कर उन्होंने
यह भी जानना
चाहा था कि क्या वह
जीते जी अपनी किडनी या
फेफडे़ को दान कर सकते
हैं.
पता नहीं उनकी
वहां किस किस से मुलाक़ात
हुई थी, लेकिन
वहां खड़े किसी
गार्ड ने उन्हें
समझा बुझा कर रिक्शा में
बिठा कर घर रवाना कर
दिया था, शायद
यह सोचते हुए
कि बूढे की मानसिक स्थिति
ठीक नहीं है.
फिर एक दिन
हम लोग अपने
फैमिली डॉक्टर शर्मा
के पास गए थे, उन्हीं
के बुखार के
लिए दवाई लेने
के लिए.
डॉक्टर शर्मा ने
उन्हें देखा, हमें
दवाई भी दी, यह सिलसिला
पूरा हो गया तो उन्होंने
हम दोनों को
नज़रों से इशारा
किया कि हम उनकी केबिन
के बाहर चले
जाएं. और उन्होंने
डॉक्टर शर्मा से
कुछ बात की.
थोड़ी देर में
ही वह बाहर निकले थे.
चेहरे पर प्रसन्नता
का भाव था.
अगली मुलाक़ात में डॉक्टर
शर्मा ने बताया
कि वह दरअसल
अंगदान, देहदान के
बारे में ही जानना चाह
रहे थे.
६
हम लोग उनके
न रहने की सूचना आत्मीयजनों
को दे रहे थे. और
फिर रोते रोते
ही बड़ी बहन रेखा का
फोन आया था.
‘सुभाष,
अंतिम संस्कार के
बारे में क्या
सोचा है?’
अब सबकुछ इतनी
तेजी से हमारे
सामने घटित हुआ
था कि उनकी इच्छा के
बावजूद हम देहदान
की आवश्यक औपचारिकताएं
पूरी नहीं कर सके थे,
एक झिझक भी रही थी
कि कैसे अपने
पिता को लेकर यह बात
कहीं छेड़ी जाए.
‘विद्युत
शवदाहग्रह ले जाने
की योजना है.’
बहरहाल, शोक के
उस क्षण में
भी उसने याद
दिलाया कि मुझे याद है
ना कि वह देहदान करना
चाहते थे. कहने
का तात्पर्य था
कि उन्होंने रेखा
से भी पहले बात की
थी.
फिर कुछ मित्रों-परिचितों के जरिए देहदान के
लिए संस्थागत संपर्क
हुआ.
उधर से बताया
गया कि जब आप कहेंगे
तब अस्पताल की
गाड़ी पहुंच जाएगी.
हम लोगों ने
उन्हें बताया कि
बाकी आत्मीय जन
शाम तक जुटेंगे
तो वह उसी हिसाब से
आएं.
वैसे एकाध घंटे
के अंदर आई बैंक के
डॉक्टर पहुंचे, उन्होंने
बताया कि आंखें
शरीर का वह हिस्सा होती
हैं, जिनके डिजनरेशन
की प्रक्रिया तेजी
से शुरू होती
है और यह बेहतर होता
है कि मृतक से
उन्हें निकाला जाए
तथा जरूरतमंदों की
आंखों में स्थापित
किया जाए.
कुछ मिनटों में
ही युवा डॉक्टरों
की वह टीम रवाना हो
चुकी थी.
दिन में दोस्तां-मित्रों-रिश्तेदारों का
आने का सिलसिला
चलता रहा.
शीशे की अलमारी
में पिता की बॉडी रखी
गयी थी. उनके
चेहरे पर एक शांति का
एक भाव पसरा
हुआ था, ऐसा लगता था
कि अब अचानक
जग जाएंगे और
आवाज़ देंगे ‘अरे
सुभाष चहा टाक’ (सुभाष चाय बनाना.)
शाम के वक्त़
एम्स की तरफ से एम्बुलन्स
पहुंची. बड़े भाई सुनिल, क्षमाभाभी,
भतीजी राधिका- जो
मुंबई से पहुंची
थी- और रिश्तेदार
तथा अन्य कई आत्मीयजन एकत्रित हुए
थे.
पिता की अर्थी
को एम्बुलेन्स के
साथ आए कर्मचारियों
ने पूरे आदर
के साथ उठाया
और अपार्टमेट के
गेट पर खड़ी एम्बुलेन्स में रखा.
अपार्टमेण्ट के तमाम
लोग गेट पर ही इकटठा
थे.
पिता और मां सदृश्य कइयों ने
मेरे बालों में
हाथ घुमाया और
सांत्वना दी, कुछ
हमउम्र ने महज हाथ दबा
कर अपनी संवेदनाएं
संप्रेषित की, कुछ
की निगाहें ही
दुख की हमारी
इस घड़ी में एक नया
संबल दे रही थी.
एम्बुलेन्स आंखों से
ओझल होने तक मैं उसे
निहारता रह गया.
मेरे जीवन का
एक अध्याय समाप्त
हो चुका था.
मैं जानता हूं
कि मैं तमाम
दुनिया के उन गिनेचुने भाग्यशाली लोगों
में से एक हूं जो
खुद बुडढे हो
जाते हैं लेकिन
जो अपने माता-पिताओं की
स्नेह की चादर में लिपटे
रहते हुए किसी
न किसी रूप
में बच्चे बने
रह सकते हैं.
इंजिनीयरिंग में पोस्टग्रेजुएट
डिग्री हासिल करने
के बाद जब
मैंने एक अलग ढंग से
जिन्दगी जीने तय किया
था, जब आई, बाबा को
बताया कि मैं वामपंथी धारा के एक अदद
कार्यकर्ता के तौर
पर सामाजिक कामों
से ही जुड़ा रहना चाहता
हूं, नौकरी नहीं
करना चाहता हूं
तो भी दोनों
में से किसी ने भी
मुझे भी यह नहीं कहा
था कि मैं इस रास्ते
पर क्यों चल
रहा हूं. बस उन्होंने ऐसी जिन्दगी
के जोखिमों के
बारे में आगाह
करने की कोशिश
की और सेहत का ध्यान
रखने के लिए कहा था.
वैचारिक तौर पर
भले ही हम लोगों में
थोड़ी मतभिन्नताएं रही
हों, लेकिन एक
उदार पिता के तौर पर
उन्होंने अपने विचारों
का लादने की
कभी कोशिश नहीं
की थी.
बचपन से ही
उनके साथ एक मित्रा का
रिश्ता कायम हुआ
था. पूरी जिन्दगी
में महज एक बार उन्होंने
मेरे व्यवहार के
प्रति नाराजगी प्रगट
की थी, डांटा
नहीं था. कुछ समय तक
उन्होंने मुझसे न
बोलने का नाटक किया था.
बस मेरे लिए
उतनीही सज़ा काफी
थी.
मेरी बेटी ने
अपने एक ख़त में कभी
एक उद्धरण भेजा
था :
“Never
be afraid to reach for the stars, because even if you fall, you’ll always be
wearing a 'parent-chute’ "
मेरे लिए यह
‘पेरेन्ट चूट’ ताउम्र उपलब्ध
रहा था.
अब वह 'parent-chute काल
के गाल में समा गया
था.
७
दूसरे दिन सुबह
हम भाई बहन जीजा एम्स
पहुंचे.
दरअसल बहन और
जीजा को पिता के अंतिम
दर्शन करने थे,
वह देर में दिल्ली पहुंचे
थे.
वॉर्ड के गेट
पर डा. नसीम से मुलाक़ात
हुई थी.
उन्होंने कहा की
कि दुख की ऐसी घड़ी
में आम तौर पर लोग
अपने अज़ीज़ों के
संकल्पों को पूरा
करने पर कायम नहीं रह
पाते हैं और हम सभी
इस मसले पर साथ है,
यह सकारात्मक है.
उन्होंने हमें समझाया
कि देहदान की
गयी बॉडीज का
प्रयोग मेडिकल स्टुडेंटस
के अध्ययन के
दौरान भी किया जाता है.
और इस बाबा के इस
पार्थिव पर कमसे कम दो
दर्जन बच्चे अध्ययन
करेंगे.
आईस बॉक्स में
रखी बाबा के पार्थिव को देख कर मन
फिर एक बार विचलित हुआ
था.
सुकून यही था
कि मृत्युके बाद भी वह किसी न
किसी रूप में समाज के
काम आ रह हैं.
मन ही मन
मैंने सोचा हर धर्म मरने
के बाद जीने
की बात कह कर अनुयायियों
को भरमाते रहते
हैं, लेकिन मरने
के बाद ‘जीने
का’ इससे शानदार
तरीका आखिर क्या
हो सकता था भला, जो
पिता ने अपनाया
था.
शोक की उस
घड़ी में भी इस खयाल
ने ही मन की व्यथा
को थोड़ा कम किया था.
बड़े भाई सुनिल
- जो मराठी में
बेहद उम्दा कविताएं
करते रहे हैं
- ने उन्हें याद
करते हुए एक कविता लिखी
थी:
हममें ही छिपे
बैठे हैं बाबा
मुझे अब कभी-कभी अपने में
ही दिखते हैं
बाबा
टीवी लगातार देखते
रहता हूं तो पत्नी कहती
है ‘आ गए बाबा’’
अकेले ही विचार
करते हुए मैं खुद ही
दांत से अपना नीचला होंठ
दबा देता हूं
और मुझे लगता
है कि मैं हुआ बाबा
बच्चे जब मुझ
पर जोर से चिल्लाते हैं खूब गुस्से में
तब मुझे लगता
है कि मैं हुआ बाबा.
आई की याद
आयी तो अपने आप आगे
आते हैं बाबा
मुझे तो सपने
में भी दिखाई
दिए थे बाबा
अपने में होकर
भी बेचैन करते
हैं बाबा
कितने नजदीक होते
हुए भी दूर गए बाबा
______________________________
सुभाष गाताडे का यह अद्भुत संस्मरण जो अपने पिता पर लिखा गया है, इसे अगर एक कहानी की तरह पढ़ा जाय,तो इसका असर दिलो-दिमाग पर कुछ वैसा हीं होगा, जैसा कि उदय प्रकाश की 'तिरिछ' पढ़कर होता है। हालांकि दोनों कथाओं के कथानक और कथ्य में बहुत फर्क है, फिर भी संवेदना के उत्स या स्रोत में कोई बहुत फर्क नहीं है। एक में पिता जहाँ तथाकथित शहरी सभ्यता की अमानवीयता,आज के इस रक्त-पिपासु, अर्थ-प्रधान,व्यवस्थाजन्य संवेदनहीन समय और समाज की क्रूरता के शिकार हो जाते हैं,वहीं यहाँ वे जिंदगी की नश्वरता को स्वीकारते हुए मृत्यु के बाद भी उसे एक नया अर्थ और उसे एक नया जीवन देना चाहते हैं। वो कहानी पिता पर की गयी क्रूरता से हमें संवेदित करती है,तो ये पिता की उस अंतिम इच्छा से जो अपनी मुक्ति के लिए किसी काल्पनिक स्वर्ग में भटकने की बजाय किन्हीं आँखों की रोशनी बनना चाहती है। सुभाष जी को दिल से साधुवाद !
जवाब देंहटाएंपिताजी के बहाने आदरणीय सुभाष जी ने अपना पूरा परिवेश उसकी समेकित संस्कृति और प्रगतिशील मूल्यों की ओर प्रस्थान...सबसे प्रभावशाली था पिता का अंतिम समय में घर से निकलकर देहदान के लिए अस्पताल में परामर्श हेतु जाना...जबकि उस अवस्था में उनका घर से निकलना किसी खतरे से कम नहीं था...सुभाष जी और आपको बधाई!!!
जवाब देंहटाएंऐसा लगा मेरे लिए लिखा गया है.. पिता को खोने के बाद सब बिखर जाता है, एक एक दृश्य इसी तरह मन मस्तिष्क पर अंकित है... सुभाष सर लिख पाज शायद कुछ हल्का कर पाए होंगे स्वयं को.. साधुवाद
जवाब देंहटाएंइसे 'मृत्यु गाथा' कहेंगे। मौत की तरफ खड़े होकर उसके अवलोकन-बिंदु से दुनिया को देखना।
जवाब देंहटाएंजो संबोधन स्मृति पटल पर अंकित हुआ वह है- "सुभाष, चाह टाक।" (सुभाष, चाय बना)
भरी-पूरी उम्र में गए पिता जो विरासत छोड़ गए हैं उसी को सहेजते यह गाथा लिखी गई है।
बहुत-कुछ कहती है तीन मौतों के त्रिकोण पर रची यह 'शोकांतिका'।
आँखें नम होती गईं।
"सागरासंगे नदी बिघडली, नदी बिघडली, सागरची झाली ; आमीबी घडलो, तुमीबी घडा ना" ( सागर के साथ नदी एक तरह से ‘बिगड़ गयी’ अर्थात अपने रास्ते से हट गयी और खुद सागर बन गयी ; हम भी रचे हैं, तुम भी रचो)
नाम दर्ज नहीं हुआ-
हटाएंबजरंग बिहारी तिवारी
सुन्दर संस्मरण
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14.01.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सुभाष जी से बहुत बार फ़ोन पर उनके पिताजी के बारे में पूछा है ऐसा याद आता है. आख़िरी बार जब उनसे पूछा तो उनके पिताजी को गुज़रे कई महीने हो चुके थे.
जवाब देंहटाएंये यादें साझा करने के लिए सुभाष जी का शुक्रिया.
अब एक टेक्निकल बात: ‘सागरासंगे नदी बिघडली, नदी बिघडली, सागरची झाली ; आमीबी घडलो, तुमीबी घडा ना’ के लिखने में शायद गड़बड़ हुई है इसीलिए बजरंग जी के इंटरप्रेटेशन में भी गड़बड़ हो रही है. इसे ऐसे पढ़ा जाना चाहिए: ‘सागरासंगे नदीबी घडली, नदीबी घडली, सागराची झाली ; आमीबी घडलो, तुमीबी घडा ना’.
यहाँ बी = भी और घडणे = बनना या गढ़ा जाना
इस तरफ ध्यान दिलाने के लिए आपका बहुत धन्यवाद भारत भूषण जी।
हटाएंअंजलि- सुभाष से मेरी वर्षों पुरानी मित्रता है लेकिन उनके पारिवारिक जीवन की ज्यादा जानकारी नहीं थी। जानना सुखद था। यह इनके आत्मसंघर्ष का भी बैकड्राप है। सुभाष का वैचारिक गद्य पढता रहा हूुं। इतना भाव- प्रवण लरजता गद्य एक नये सुभाष से मिलवा रहा है। आभार समालोचन इस मार्मिक वृत्तांत के लिए।
जवाब देंहटाएंप्रिय दया शंकर शरणजी, जितेन्द्रजी, सीमाजी, बजरंगजी, ओंकारजी, दिलबागजी, भारत भूषणजी और राजारामजी
जवाब देंहटाएंआप सभी की प्रतिक्रियाएं पढ़ी
और इसी तरह अपने आप से बड़बड़ाते रहने को लेकर उत्साह बना-
सीमाजी का यह कहना 'ऐसा लगा मेरे लिए लिखा गया है' पढ़कर लगा कि अलग अलग घरों , हल्कों में, सरहदों में बंटे मनुष्य की पीड़ा का रंग कितना एक जैसा होता है
मेरे एक युवा कवि मित्र ने निजी सन्देश में लिखा '.. लेख पढ़कर मन भीग सा गया' और मैं खुद फिर भावुक हुआ
खामोश ही रहने का मन था , लेकिन सोचा कि यह तो निरी अभद्रता होगी।
आप सभी का शुक्रिया। आप का स्नेह बना रहेगा इसको लेकर पुरयक़ीं हूँ
सादर - सुभाष
सुभाष जी का ये संस्मरण अभूतपूर्व है,साथ ही दिमाग पर छा सा गया है,
जवाब देंहटाएंये एक लम्बी कहानी के सभी तत्वों को समेटे अभिनव प्रयोग है ।
वाह लाजबाव दिल को छू लिया
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.