नरेश सक्सेना से संतोष अर्श की बातचीत (दूसरी क़िस्त)

(द्वारा संतोष अर्श)












‘वह सिर्फ सूरज ही होता है
जो मारा जाता है हर शाम
और फिर
रोशनियों के कटे हुए सिर
टाँग दिए जाते हैं खंभों से
ताकि ऐसी बदमाशी करने का साहस
फिर किसी और में न हो

और सचमुच किसी में नहीं होता
वह सिर्फ सूरज ही होता है
हर सुबह’
(नरेश सक्सेना)

वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना से युवा आलोचक संतोष अर्श की बातचीत का यह दूसरा हिस्सा प्रस्तुत है जो फिल्मों और प्रेम पर एक तरह से केन्द्रित हो गयी है, हालाँकि इसकी शुरुआत कवि मुक्तिबोध की कविता से हुई है.

नरेश जी के पास अनुभव की बड़ी लम्बी फिल्म है, ब्लैक एंड वाईट, धूसर और इस्टमैनकलर. कभी जब वे इसे संपादित करेंगे उनकी कविताओं की तरह कसी हुई एक फ़ीचर फिल्म हमें मिलेगी. तबतक उनके जीवन के हिस्से संतोष अर्श ने इस दिलचस्प बातचीत में जो खोले हैं, उन्हें पढ़ें. और इसे संभव करने में संतोष के साथ शोधार्थी पूजा का भी शुक्रिया अदा करें.




मैं उल्का फूल फेंकता मधुर चन्द्रमुख पर                      
(नरेश सक्सेना से संतोष अर्श की बातचीत भाग-२)


(कवि के जीवनानुभवों का प्रमाणन उसकी कविता में प्रकट साक्ष्यों से होता है. नरेश सक्सेना के पास लिखा हुआ कम है, संभवतः इसीलिए बताने के लिए बहुत कुछ है. वह सलीक़ा जो कविता में मिलता है, संभाषण में भी देखा जा सकता है. उनके पास कविता का एक ज़माना भी है, जिसमें वे हमें अपने साथ ले कर जा सकते हैं. जैसे कविता जीवन की एक गहरी (इंटेन्स) अभिरुचि है, उसी तरह जीवन को अभिरुचि में परिवर्तित कर देने का हुनर कवियों-कलाकारों में होता है. बातचीत के इस भाग में हम कविता, कवियों, जीवानुभूतियों के साथ सिनेचर्चा की ओर भी बढ़े हैं. कला-साहित्य-सिनेमा के दृश्य-श्रव्य-भाषिक माध्यमों के गहन जुड़ाव से बातचीत अपने उरूज़ पर पहुँच रही है. निजी जीवन में स्त्री-पुरुष संबंधों की कोमल और प्रेमपूर्ण व्याख्या भी है. पाठक इस बातचीत में रस ले रहे हैं, इस हेतु उनका अभिवादन. आगे और अच्छी चर्चा मिलेगी. इस बातचीत को ध्वनि से लिपि तक लाने में सहयोग करने वाली रिसर्च स्कॉलर पूजा का एक बार पुनः आभार. बातचीत के पिछले खण्ड में विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ सुनकर सोमदत्त को चक्कर आ गया था. वहीं से आगे बढ़ते हैं.)
संतोष अर्श
संतोष अर्श : मुक्तिबोध की कविताएँ ?
नरेश सक्सेना : नहीं-नहीं, विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ. उनमें एक कविता तो थी कि- ‘एक क्लर्क अपनी रीढ़ की हड्डी खींच-खींचकर मेज़ पर फैला रहा है. और वो रीढ़ की हड्डी खींच-खींचकर इतनी ऊँची कर देना चाहता है, कि उस पर चढ़कर आसमान में पहुँच जाए. और चाँद-तारे तोड़ लाये. जिसका वादा उसने अपनी प्रेमिका से किया है. इस तरह की और भी कविताएँ थीं... कि वो जो खिड़की की जाली है, वो पेड़ पर पड़ती है. और पेड़ पर चिड़िया है, तो वो तो फँसती नहीं है उसमें...वो तो उड़ जाती है. फिर वो जाली जो है…वो जो खिड़की से दिखता तालाब है, उस तालाब में पड़ जाती है. लेकिन वो मछली तो उसमें फँसती नहीं है. ख़ैर हम लोग निकले वहाँ से तो सोमदत्त का चेहरा मैंने देखा...तो मैंने उसे हिलाया.

मैंने कहा, सोमदत्त क्या हुआ? बोले, यार ये कैसी कविताएँ लिखता है ? मैंने (हँसी) कहा, क्यूँ ? परसाई जी ने तो कहा था, उससे मिलना. ये क्या रीढ़ की हड्डी खींच-खींच के आसमान पे पहुँचा रहा है ? (देर तक हँसते हुए) अब सोचिए ज़रा! नाइंटीन फिफ़्टीएट...काव्यभाषा और कविता के रूप देखिए उस समय. जो भी हमारे कवि वरिष्ठ हैं, जिसमें कुँवरनारायण, केदारनाथ सिंह उनकी काव्य-भाषा उस समय की देखिए. जो कविताएँ उनकी फिफ़्टीसेवेन-फिफ़्टीएट में छपी होंगी. अलग तरह के काव्य हैं. ये इस तरह के बिम्ब और भाषा तो थी ही नहीं !! तो मैंने कहा, यार ऐसा नहीं है. चलो बैठ करके कहीं चाय-वाय पीते हैं. रास्ते में एक ढाबे में बैठ करके उन्हें पानी पिलाया, चाय पिलायी. अच्छा मुझे वो कविता (सोचते हुए) सरल लगी. मैंने कहा, देखो ऐसा है उसे अभी ठीक से लिखना आता नहीं है. नौसिखिया कवि है. लेकिन वो बात ग़लत नहीं कह रहा है. क्योंकि हमारे यहाँ फ़र्स्ट ईयर में जो ड्राइंग का पीरियड होता था, वो चार घण्टे का होता था. और मेज़ पर झुके-झुके रीढ़ की हड्डी में, मेरे दर्द होने लगता था. दो-तीन घण्टे बाद. तो फिर मैं क्या करता था कि मेज़ पर उल्टा पीठ के बल उसको, रीढ़ की हड्डी को रगड़-रगड़ के सीधा करता था और फिर काम करना शुरू करता था. तो मैंने कहा, देखो रीढ़ की हड्डी ताननी पड़ती है. अगर ज़्यादा काम करना पड़े तो. तो एक क्लर्क को ओवरटाइम करके ही कुछ मिल सकता है.

क्लर्क की तनख़्वाह कितनी होगी ? तो वो जितना ओवरटाइम करता है, उतना उसकी रीढ़ की हड्डी में... तो उसको खींच-खींच के बड़ा करता है. अब ये है कि वो बड़ा करता है तो इतना बड़ा कर देना चाहता है... उसकी इन्कम का साधन रीढ़ की हड्डी को खींचना है. ओवरटाइम करके. उससे वो पैसे लेगा और कमाकर चाँद-तारे तोड़ लेगा. ख़ैर बहुत बाद में मैंने देखा. ये कविता उनके किसी संग्रह में नहीं मिलेगी आपको. नहीं है. शायद नहीं है. बाद में मैंने देखा कि मुक्तिबोध के यहाँ है. तो उसमें जो आदमी है, वो कंधे पर चढ़ जाता है, पीठ पर सवार होकर...और आसमान में चला जाता है:

मैं जब से जन्मा इस साले ने कष्ट दिया
उल्लू का पट्ठा चढ़ा हुआ है कंधे पर
मैं उल्का फूल फेंकता मधुर चन्द्रमुख पर
मेरी छाया गिरती है दूर नेब्युला में’

नेब्युला और 1958 ? तो ये तो स्पेस साइंस का शब्द है. जो आज तो हमारी जानकारी में है, लेकिन उस समय कहाँ नेब्युला ? और हिंदी कविता में नेब्युला ? (हँसते हुए) तो उनकी कविता से ये फैंटेसिकल है कि वो आसमान तक ऊँचा चला जाता है. इतना ऊँचा कि उल्काओं के फूल चन्द्रमुख पर फेंक रहा है और छाया गिर रही है नेब्युला पर. क्योंकि आकाश में छाया कहाँ गिरेगी? तो छाया बनने के लिए वो जगह, जहाँ पर धूल के बादलों से इनकी रचना हो रही है, तारों की, तारों की रचना की जगह बताई जाती है. ख़ैर, वो तो सब बाद की बातें हैं, लेकिन वो मुक्तिबोध से डायरेक्ट...उनके यहाँ... उनके यहाँ एक मूँछों पर कविता है. वो भी पता नहीं कहीं आपको मिलेगी
या नहीं. मेरे पास ही है. (हँसी फूटी) वो मेरे पास है, यानी मेरी स्मृति में है कि-

समता की होड़ में देखता हूँ
औरतों के भी मूँछें
कि उनके हाथ मूँछें,
पाँव मूँछें, सीना मूँछें.’

क्या बात है ? और फिर मज़ा ये कि उन मूँछों में बंधे हुए लाल-पीले रिबन और उनमें खुंसे हुए फूल. ये कविता मुझे तो बहुत अच्छी लगी. ये कहीं और नहीं मिलेगी. लेकिन ये एफ.टी.आई.आई. पुणे के कोषागार में मिलेगी. क्योंकि मेरी पत्नी जब वहाँ फ़िल्म इंस्टीट्यूट में गयीं 1970 में, तो मैंने उन्हें ये कविता बतायी. उनको एक शॉर्ट फ़िल्म बनानी थी, मतलब वो फ़िल्म डायरेक्शन की स्टूडेंट थीं वहाँ पर. उन्होंने कहा मुझे एक्सरसाइज़ में एक छोटी-सी फ़िल्म बनानी है. तो मुझे कुछ बताइये, क्या कोई कविता  है ? तो मैंने कहा, ये कविता कितनी अच्छी है: ‘समता की होड़ में देखता हूँ औरतों के मूँछें.’

उन्होंने वो फ़िल्म उस पर बनायी है. उसका एग्जिस्टेंस अगर कहीं नहीं होगा, तो मेरी स्मृति में है. या फिर वो एफ.टी.आई.आई. के सिनेमाकोश में अगर बची होगी तो होगी. क्योंकि उस समय ये डिज़िटल फॉर्मेट नहीं आया था. ये सेलुलाइड पर बनी हुई फ़िल्म थी. सिक्स्टीन एम.एम. पर बनायी थी शायद. अब बची होगी तो बची होगी वरना तो बड़े-बड़े फ़िल्म डायरेक्टर्स की...भारत के ऋत्विक घटक जैसों की फ़िल्में ख़त्म हो गयीं. सत्यजीत रे की तो हॉलीवुड ने बचा लीं, क्योंकि ऑस्कर वगैरह उनको मिल गये थे. मेरी अपनी फ़िल्म जिस पर मुझे नेशनल अवॉर्ड मिला था वो भी ख़त्म हो गयी. फँफूद लग जाती है ना उस पर ! सेलुलाइड... क्योंकि वो तो बनाई थी मैंने. पैंतीस एम.एम. का प्रिंट था मेरे पास. सिनेमाहॉल में दिखाने वाला. वो तो ख़त्म हो गयी. फँफूद लग जाती है और डिज़िटल फॉर्मेट में हम ट्रान्सफ़र करा नहीं पाये. और बॉम्बे फ़िल्म लेबोरेटरी बंद हो गयी. जो दादर में थी. उन्होंने कई बार हमसे कहा कि साहब अपना नेगेटिव ले जाइये यहाँ से. और तो हम कहाँ ले जाते ?

जब बॉम्बे फ़िल्म लेबोरेटरी बंद हुई तो हज़ारों फ़िल्में जो अवॉर्ड विनिंग थीं और बड़े डायरेक्टर्स की थीं, वो सब लेकर के दूसरे लेबोरेटरीज़ में गये तो उनके भाव बहुत बढ़ गये. वहाँ जगह नहीं थी रखने की. उनके पास भी एक सीमित जगह थी रखने की. बहरहाल मैंने कहा छोड़ो यार. गयी तो दोबारा बनायेंगे हम इसे ! और दोबारा क्या बनती है ? तो हम भी लापरवाह आदमी हैं. वो फ़िल्म तो मुझे इसलिए मिल गयी थी, कि मेरी पत्नी को बनानी थी. वो एफ.टी.आई.आई. पुणे की ग्रेजुएट थीं. तो उनके नाम से फ़िल्म मिली. वो चली गयीं. बाई द टाइम्ड फण्ड फेयर रिलीज्ड... दैन शी वेन्ट ऑन टु बिकम द फार सेक्रेटरी ऑफ़ अम्बेसी ऑफ़ इण्डिया. ऐट दैट लेविल सी वॉज़ डायरेक्टर इण्डियन कल्चरल सेंटर इन सूरीनाम, साउथ अमेरिका. वो वहाँ चली गयीं. अब इनके पास फंड्स आ गये तो वो लैप्स होने को हुए. इन्होंने कहा साहब जनवरी आ गयी है और मार्च में फंड्स लैप्स हो जाएँगे. मैंने बहुत से डायरेक्टर्स के नाम बताये, लेकिन कोई बनाने को राज़ी नहीं हुआ. बाय चान्स जल्दी का वक्त था और फंड्स भी कम थे, तो बोले कि बताइए ! देखिये हमारा तो फंड्स लैप्स हो जाएगा. तो मैंने कहा देखिये, आप कहें तो फ़िल्म मैं बना दूँ आपकी. फंड्स तो लैप्स नहीं होंगे. बोले आपने कभी बनाई ? मैंने कहा नहीं कभी नहीं बनाई. तो बोले कैसे बना देंगे ? मैंने कहा, मुझे आता है मैं बना दूँगा. भाई इसका स्क्रीन प्ले तो मेरा लिखा हुआ है न ! मुझे मालूम है क्या शॉट्स लेने हैं !

ख़ैर तो सेक्रेटरी से मेरी मुलाकात हुई. उसने यही सवाल किया, कि जब बनाई नहीं तो कैसे बना लोगे ? मैंने उसको एक सीन एक्सप्लेन किया. फिर उन्हीं के सामने मैंने कैमरामैन और एडीटर से बम्बई में थे, उनसे मैंने बात की, कि रॉ स्टॉक मिलेगा या नहीं ? कण्ट्रोल था रॉ स्टॉक उस ज़माने में फ्री नहीं मिलता था. तो उन्होंने कहा गवर्नमेंट की फ़िल्म है, तो मिल जायेगी. लेटर लेकर आना पड़ेगा. आप बम्बई आइये तुरंत और मैं रिलीज़ करवा दूँगा. उस समय के.के. पम्मी कैमरा मैन थे एफ.टी.आई.आई. से ट्रेण्ड, इसलिए मैं जानता था उनको. जाता-आता रहता था. उन्होंने कहा नरेश जी मैं तो शूटिंग करने हैदराबाद चला जाऊँगा अगले हफ़्ते. यही हफ़्ता है मेरे पास. तो मैंने कहा अब तय करिये अगर बनवाना है. उन्होंने ये देखा कि मेरे कॉन्टेक्स्ट हैं और कॉन्फिडेंस है. बहुत सारी नई शर्तें लगाकर उन्होंने काम किया. ख़ैर मुझे उस साल 1991 में शॉर्ट फ़िल्म कैटेगरी में नेशनल अवॉर्ड मिला.

संतोष अर्श : थीम क्या थी फ़िल्म की ?
नरेश सक्सेना:  ‘सम्बन्ध’ नाम की फ़िल्म थी और मेरी एक कविता है, एक पेड़ के कटने के बारे में. वो लोकगीत की तर्ज़ पर है- ‘अरे कोई देखो मेरे आँगन में गिरा...’

संतोष अर्श: ‘उसे ले गये.’ (कविता के विषय में मेरी जानकारी से नरेश जी ख़ुश दिखे)
नरेश सक्सेना : अरे कोई देखो मेरे आँगन में गिरा, जैसे कोई ले जाए लावारिस लाश घसीटकर, ऐसे उसे ले गये.’

संतोष अर्श : उसमें तो इको-फ़ेमिनिज्म है. उसको मैंने कोट किया है. कहीं कुछ लिखते हुए.
नरेश सक्सेना: उस कविता की ख़ासियत...उसमें ये है, कि उस फ़िल्म में इस कविता के एक भी शब्द का पाठ नहीं है. कविता-पाठ नहीं है...उसमें...फ़िल्म में, बिलकुल नहीं है. सारे दृश्य हैं और साउंड ट्रैक पर है वो. और उसी मोताज़ की वज़ह से वो नेशनल अवॉर्ड मुझे मिला. वो नेशनल अवॉर्ड मिलना मुश्किल होता है. मुश्किल माने, जैसे बंग्ला फ़िल्में बनीं. बारह फ़िल्में बनीं, उसमें से जो बेस्ट होगी, उसे अगर अवॉर्ड मिला तो बारह में से एक फ़िल्म को मिल गया. और उड़िया की मान लीजिए छह ही फ़िल्में बनीं, उसमें से छह में एक अच्छी थी तो उसको भी नेशनल अवॉर्ड. वो भी नेशनल अवॉर्ड कहलाता है. लेकिन जो शॉर्ट फ़िल्म्स और डाक्यूमेंट्रीज़ हैं, पचास मिनट से छोटी कोई भी हो, वो सब इकट्ठी कर दी जाती हैं एक साथ. तो उसमें सैकड़ों होती हैं. शॉर्ट फ़िल्म कैटेगरी में. उसका जूरी भी अलग होता है. और उसमें अवॉर्ड लेना इसलिए मुश्किल होता है कि जितने बड़े सेलिब्रेटेड डायरेक्टर्स हैं न, उन सबकी फ़िल्में शामिल होती हैं. क्योंकि गवर्नमेंट के...किसी की सेंटेनरी है, किसी के पचास साल पूरे हुए हैं, कोई स्पेशल ओकेज़न हो रहा है और कॉर्पोरेट की फ़िल्में हैं, गवर्नमेंट की फ़िल्में हैं, उसके लिए वो ये कहते हैं कि भई प्रकाश झा से कॉन्टेक्ट करिये, गोविन्द निहलानी से कहिये कि फ़िल्म बनायें, किसी बड़े डायरेक्टर से... वो बड़ा डायरेक्टर भले ही दस मिनट की फ़िल्म के दस लाख या पचास लाख माँगे, वो देते हैं. उनकी कमाई तो उसी से होती है. डाक्यूमेंट्री से. उनको कमर्शियल फ़िल्म्स के फ़ाइनेंसर मिलते नहीं हैं. मुश्किल होता है. कमर्शियल फ़िल्म्स के डायरेक्टर्स मिलना. अब उन सेलिब्रेटेड डायरेक्टर्स को जो पुराने स्टाइल के ग्रेट फ़िल्म्स मेकर्स थे, उनको मिलता नहीं है. वो यही सब करते हैं, अपनी अर्निंग के लिए. उनकी फ़िल्मों के साथ कम्पटीशन होता है आपका. (हँसते हुए)

संतोष अर्श : तो आपने ‘सम्बन्ध’ फ़िल्म को दोबारा बनाने की कोशिश नहीं की ? अब तो यह बहुत आसान हो गया है. क्योंकि हमारी पीढ़ी के लोग जो नहीं देख पायें हैं, वो कैसे देखेंगे फिर उसको ?
नरेश सक्सेना : अब मैं कविताएँ लिखूँ ? या कविता पाठ करूँ शहर-शहर जाकर या फ़िल्में बनाऊँ? (हँसते हुए)


संतोष अर्श:  नहीं तो आप किसी को लगाकर केवल इंस्ट्रक्ट करके बनवा सकते हैं मेरा ख़याल है.
नरेश सक्सेना: कोई राज़ी हो तो मैं ज़रूर बना दूँगा.

संतोष अर्श : आपको कैसी फ़िल्में देखना पसंद है ? क्या भारतीय सिनेमा ही देखते हैं ? या फिर हॉलीवुड वगैरह भी देखते हैं ?
नरेश सक्सेना : नहीं-नहीं-नहीं...मैं हॉलीवुड भी देखता हूँ.

संतोष अर्श : कुछ संज़ीदा फ़िल्मों के नाम भी बताइये.
नरेश सक्सेना: अरे भाई अकीरा कुरोसावा की फ़िल्में जो हैं- रोशोमोन, सेवेन समुराई जो हैं या वो जो बिल्कुल शुरुआत हुयी थी उसकी...बाइसिकिल थीव्स...डी’सिका की. दैट वाज़ द बिगिनिंग एण्ड आई थिंक बेटर द रियली स्टिल. ऋत्विक घटक की फ़िल्में...सत्यजीत राय से जब पूछा गया, कि आपके लिए आइडियल डायरेक्टर कौन हैं ? कहाँ से सीखा आपने ? तो उन्होंने एक डी’सिका का नाम लिया कि मैंने डी’सिका से सीखा है. बोले डी’सिका से कहाँ से सीख लिया आपने ? वो इटैलियन डायरेक्टर था. ये इंग्लैण्ड से होकर लौटे थे. इन्होंने कहा, मैंने उस फ़िल्म को चालीस-पचास बार देखा. और एक-एक शॉट, एक-एक कट और साउंडट्रैक मुझे याद है उसका. मेरी तो ट्रेनिंग वही है. और जब अकीरा कुरोसावा से पूछा था, कि आपको किसकी फ़िल्में पसंद हैं ? तो उन्होंने कहा, सत्यजीत राय की. (हँसी) 

संतोष अर्श : इधर तीन-चार दशकों से स्टीवन स्पीलबर्ग छाये रहे हैं. आपको उनकी फ़िल्में कैसी लगती हैं ? 
नरेश सक्सेना : स्पीलबर्ग की कई फ़िल्में देखी हैं. लेकिन एक फ़िल्म उसकी टेन मिनट्स है, (इस नाम से स्पीलबर्ग की कोई फ़िल्म मिली नहीं. शायद कोई और हो और नरेश जी की स्मृति में न हो) जिसमें उसको...एक क़ैदी को हैंग किया जाता है और उसका पाखाना निकल जाता है. उसकी चड्ढी गीली हो जाती है. बूँदें टपकती हैं उसकी. फ़िल्म इंस्टीट्यूट में जाता रहता था. जब मेरी पत्नी वहाँ पर थीं, तीन साल. शादी के बाद मैंने अपनी पत्नी को तीन साल हॉस्टल में रखा. पढ़ाया उनको. क्योंकि मैं फ़िल्म में इंट्रस्टेड था. (हँसते हुए) और मैं इतना इंट्रस्टेड था फ़िल्म में, कि मैं देखने गया ऋत्विक घटक की फ़िल्म मेघे ढाका तारा. बीच में गैप आ जाता है ना ! एग्ज़ामिनेशन के बीच छुट्टी. तो पिछले दिन एग्ज़ाम था. अगले दिन छुट्टी थी फिर अगले दिन एग्ज़ामिनेशन था. तो मैं अपने एक मित्र के साथ गया. मैंने कहा यार बंग्ला फ़िल्म आई है और उसकी बड़ी तारीफ़ है, तो चल के देखते हैं. 

वो कहने लगे, अरे नरेश यार कल एग्ज़ामिनेशन है. ये है, वो है. अरे, मैंने कहा मैटिनी शो चल रहे हैं. दो घण्टे की छोटी फ़िल्में होती हैं ये. तो हम लोग थोड़ा देर से पहुँचे. ख़ैर फ़िल्म देखी. फ़िल्म देख के निकले तो साढ़े छ: बजे वाले शो की बुकिंग चालू थी. मैंने कहा, हम सेकेण्ड शो भी देखेंगे इसका. बोले पागल हो गए हो ? कल फेल हो जाओगे. हमने कहा, यार एग्ज़ामिनेशन हर साल होता रहेगा. ये फ़िल्म जाने कब मिलेगी हमें देखने को. बंग्ला फ़िल्में कहाँ...? कभी-कभार आती थीं. मैं दूसरा शो देखने चला गया. वे तो चले गए हॉस्टल वापिस. इतना मुझे पैशन था फ़िल्म देखने का ! और फ़िल्म देख-देख करके ही मैं फ़िल्म बनाना सीख गया था. मतलब ये पता था कि क्या करना होता है. साउंडट्रैक क्या होता है ? साउंडट्रैक की उतनी अच्छी ट्रेनिंग आपको दुनिया की कोई किताब, कोई डायरेक्टर दे नहीं सकता. अगर मेघे ढाका तारा आपने न देखी हो तो देखिये. क्या बात है ! अरे मेघे ढाका तारा ग़ज़ब की फ़िल्म है.

संतोष अर्श :  कोई एक फ़िल्म अगर आपको चुननी हो वर्ल्ड सिनेमा से ?
नरेश सक्सेना :  ये बड़ा मुश्किल है. हर फ़िल्म में कुछ न कुछ अपना नया होता है. हर फ़िल्म अलग-अलग प्वाइंट ऑफ़ व्यू से बनती है. मैं तो उसी फ़िल्म को ग्रेट कहूँगा जिसको देख करके मुझे आइडिया आया. अपने पेड़ के कटने का मोताज़ बनाने का. एक शॉर्ट फ़िल्म थी. कौन डायरेक्टर था मैं भूल गया. और उसका नाम भी भूल गया. वो कुछ ऐसा था कि जैसे किसी ब्रिज का नाम है. (स्मृति पर ज़ोर डालते हुए) कि जैसे ह्वाट हैपेंड ऑन दैट ब्रिज. उसमें एक क़ैदी को...शायद वो सेकेण्ड वर्ल्ड वॉर का टाइम रहा होगा और उसमें एक पुल के ऊपर एक क़ैदी को फाँसी दी जानी है. वो आर्मी के बूट्स और ब्रिज. और उसपे उनका आना-जाना जो कुछ भी है. और वो फंदा लटका हुआ है और उसको चढ़ाया जा रहा है स्टूल के ऊपर. फंदा डाला जाता है गले में और सडेनली क्या होता है, कि वो एकदम से नीचे गिरता है. पानी में कूद जाता है. या क्या होता है. पुल के नीचे पानी है. नदी बह रही है. और उसके ऊपर फ़ायरिंग होनी शुरू होती है. और वो लेकिन तैर रहा है. वो जा रहा है और फ़ायर हो रहे हैं. 

तो एकदम से ऐसी रिलीफ़ मिलती है. और फिर अपने घर जा रहा है वो. निकल गया. तमाम आर्मी उसके पीछे लगी हुई है, लेकिन वो जंगलों में किसी तरह होकर अपने घर पहुँच जाता है. वहाँ उसकी पत्नी झूला झूल रही है. बच्ची है. और उसके...लेकिन एक फैन्टेसिकल सीन है कि जिसमें उसके घर का दरवाज़ा जो है, वो अपने आप खुल रहा है उसके लिए. और बार-बार खुल रहा है. और वो घर की तरफ़ दौड़ रहा है. और बार-बार वो गेट खुल रहा है. और तब वो नदी में भाग रहा है. नदी में तैर के निकल रहा है. गोलियाँ चल रही हैं. एक कोरसनुमा गीत चलता रहता है- द लिविंग मैन, द लिविंग मैन, द लिविंग मैन. उसी के बाद खटाक से आवाज़ होती है और देखते हैं कि ब्रिज के ऊपर वो रस्सी खींच दी गयी है. और वो लटक के मर गया है. इस फ़िल्म को देखकर मैं तो एकदम से हिल गया.

संतोष अर्श : नाम आपको याद नहीं है ?
नरेश सक्सेना : न डायरेक्टर का नाम याद है, न फ़िल्म का. उस फ़िल्म के नाम में ब्रिज आता है. जैसे दी इंसिडेंट ऑन द हावड़ा ब्रिज. (संभवतः यह फ़िल्म ‘अ ब्रिज ऑन द रीवर क्वाय’ हो) ऐसा ही कुछ है उसका नाम. मैंने देखा. और मेरी जो फ़िल्म है...मेरी कविता में तो पेड़ कट जाता है, कट गया है. और उसे ले गये. लेकिन ये एनवायरन्मेंट एण्ड इकोलॉजी डिपार्टमेंट के फंड्स से बनने वाली फ़िल्म थी. तो इसमें तो पेड़ को बचाना था.

संतोष अर्श:  आपकी दो कविताओं में मैंने इकोफ़ेमिनिज़्म नोटिस किया है. एक तो ये है, जिस पर आप ने फ़िल्म बनायी और दूसरी ‘पृथ्वी क्या तुम स्त्री हो’ करके.
नरेश सक्सेना : पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो...!


संतोष अर्श: क्या आप कभी-कभी स्त्री की तरह भी सोचते हैं ?
नरेश सक्सेना : हाँ ! देखिये हर मनुष्य के भीतर स्त्री है. वो तो आप देखें कि जो शरीर की रचना है, उसमें स्त्री और पुरुष का जो हिस्सा है, वह एक्स-एक्स और एक्स-वाय है.

संतोष अर्श : (बीच में रोक कर) नहीं-नहीं वो तो है ही, लेकिन इसे सोचना थोड़ा डिफ़रेंट है.
नरेश सक्सेना : तो वो जो स्त्री के मन की तमाम भावनाएँ कोमल हो सकती हैं; संरक्षण की, बचाने की, उसमें पुरुष उसकी बराबरी तो नहीं कर सकता. लेकिन ये समझ लीजिए कि उसको अगर अपना बच्चा बचाना है, जो कि उसका बच्चा है, अगर उसको अपना स्वरूप बचाना है...उसके बच्चे में उसका चेहरा हो सकता है, उसकी आँखें हो सकती हैं, उसकी आवाज़ हो सकती है. अगर उसे अपने आपको भविष्य के लिए बचाना है, क्योंकि वो तो नहीं रहेगा. तो स्त्री ने चूँकि उसको गर्भ में रखा है और उसको बचाया है गर्भ में नौ महीने. चोट न लग जाए कहीं बच्चे को गर्भ में, उससे बचाना है. तो ये दोनों मिलकर के ही...ये जो शिव की पूर्णता की कल्पना है. अर्द्धनारीश्वर... वो एक आदर्श कल्पना है. और वो अगर...उसका कॉन्सेप्ट ही नहीं होता हमारे दर्शन में...वो आया ही वहाँ से है. आगे देखिये केदारनाथ सिंह की वो कविता है- ये शहर आधा जल में है और आधा शव में है, आधा मन्त्र में है, वो क्या-क्या है ?


संतोष अर्श: बनारस...!!
नरेश सक्सेना : बनारस कविता में ! और धूल का एक गुबार उड़ता है और एक भिखारी के पात्र में गिरता है. तो वो पात्र में है ऐसा नहीं. वो नहीं कह रहे हैं. वही तो मैं कह रहा हूँ कि धूल गिरती है...उसके भिखारी के पात्र में. ये मैं कह रहा हूँ. केदारनाथ सिंह नहीं कह रहे हैं ये. बहुत एब्स्ट्रैक्ट और अमूर्त कविता है वो. आधा मन्त्र में है. उसके सिलसिले में एक कथा मैं आपको सुनाऊँ कि जो बहुत छोटी-सी है...

संतोष अर्श : (बीच में टोक कर) कथा बाद में, पहले मैं एक सवाल करना चाहता हूँ.
नरेश सक्सेना : छोटी सी ही कथा है ! लेकिन मैं तो बोलता ही चला जा रहा हूँ. (हँसते हुए)

संतोष  अर्श : ‘सुनो चारुशीला’ पत्नी प्रेम की कविता है. तो क्या और भी स्त्रियों से आपके संबंध रहे हैं, पत्नी के अलावा ?
नरेश सक्सेना : हाँ क्यों नहीं !!

संतोष अर्श : विवाह से पूर्व या विवाह के बाद ?
नरेश सक्सेना: देखिये स्त्रियों में तो मेरी दादी, माँ, बहनें, सभी आ गयीं. और उनके अलावा अगर प्रेमिकाओं के बारे में पूछें, स्त्री-पुरुष संबंध के बारे में, तो मेरे नाक-नक़्श सीधे-साधे सरल थे. लेकिन कविताएँ तो मैं बाद में लिखता था. उससे पहले तो मैं बाँसुरी बजाता था. माउथऑर्गन बजाता था. तो मेरे पास ऐसे तमाम तरह की चीज़ें थीं जिनसे कि लोग मेरी तरफ़ आकर्षित हों. और मैं सबसे अच्छा बजाता था. ऐसा नहीं...साधारण नहीं बजाता था. मुझसे अच्छा बजाने वाला...माउथऑर्गन को तो लेकर के मैं ये मानता था, कि मुझसे अच्छा बजाने वाला भारत में कोई है ही नहीं. क्योंकि जो रिकॉर्ड सुनता था. उनसे वैसा ही या उनसे अच्छा मैं बजा लेता था. वो तो जब मैंने आर.डी. बर्मन को सुना...मैं बताऊँ आपको... आर.डी. बर्मन को मैंने सुना एक फ़िल्म है, जिसमें एक गीत है- ‘चुपके से मिले प्यासे-प्यासे’ उसमें माउथऑर्गन बजता है और उसको सुनकर के मुझे लगा कि यार ये आदमी मुझसे अच्छा बजा लेता है. यही समझिये पहली बार मुझे यह एहसास हुआ कि ये आदमी तो बहुत अच्छा बजाता है. ख़ैर, तो मैं जो भी बजाता था बहुत अच्छा बजाता था. बहुत पॉपुलर था मैं पूरे शहर में. वो ग्वालियर हो या जबलपुर हो या बनारस हो. मुझे शहर के बहुत लोग जो संगीत प्रेमी थे, वो जानते थे. क्योंकि मुझसे अच्छा कोई बजा नहीं लेता था. तो मेरे आकर्षण में बहुत-सी स्त्रियाँ थीं. और मेरी पत्नी से भी तो मेरा प्रेम विवाह ही हुआ है. तो बहुत लड़कियाँ थीं. जबलपुर में ही थीं. इन्जीनियरिंग कॉलेज में. मेरा सबसे लम्बा प्रवास तो वहीं हुआ. और मेरी पत्नी की तमाम मित्र थीं वहाँ. वो सब भी मुझे पसंद करती थीं. आकाशवाणी में उनका यहाँ जॉब था. वो बाक़ायदा जॉब में थीं. उनको मैंने रिजाइन करवा कर फ़िल्म इंस्टीट्यूट भेजा था. वो कहती थीं कि लोग चाहते हैं कि गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया में उनकी पत्नी को जॉब मिल जाए. और मुझे इतना बढ़िया जॉब मिला हुआ है आकाशवाणी में. और आप कहते हैं कि रिजाइन कर दो.

(नरेश सक्सेना अपनी प्रिया-पत्नी के साथ)
मैंने कहा तुम्हारे अंदर जो क़ाबिलियत है, बहुत बड़ी है. ये बहुत छोटी जगह है जहाँ पर तुम हो. ख़ैर तो वो वाक़ई...उसके बाद मैंने उन्हें फ़िल्म इंस्टीट्यूट भेजा. तीन साल वहाँ पढ़कर आयीं और यहाँ पे डायरेक्टर हुईं. एस.आई.ई.टी. की. स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशनल टेक्नोलॉजी. वहाँ पर हुईं. और मुझसे बड़े पदों पर हुईं. उनका बड़ा नाम था शहर में. शी बिकेम द डायरेक्टर ऑफ़ लखनऊ फ़िल्म फ़ेस्टिवल. जिसमें सारी अवॉर्ड विनिंग फ़िल्म थीं. रेयर फ़िल्म्स थीं. यानी प्रकाश झा की ‘दामुल’ सबसे पहली बार लखनऊ में ही दिखाई गई थी. और ऐसा कोई बड़ा डायरेक्टर हिंदुस्तान का नहीं था जो लखनऊ में मौज़ूद न हो. और बड़ी धूम थी उनकी लखनऊ में. पोस्टर लगे हुए थे दीवारों पे. तीन सिनेमाघरों में फ़िल्में चल रही थीं और डायरेक्टर विजय नरेश थीं उसकी. (हँसी) ख़ैर तो आकाशवाणी में, दूरदर्शन में गाती थीं वो. आकाशवाणी में भी उनकी तमाम मित्र थीं. वो सब भी मुझे पसंद ही करती थीं. मैं उन्हें लेने और छोड़ने जाता था. और भी...ऐसा भी नहीं था...मुझे पसंद करने वाली लड़कियाँ बहुत थीं. लेकिन मैं अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता हूँ. प्रेम करता हूँ. उनसे अच्छी लड़की मुझे कोई लगती ही नहीं है, ये भी सब जानते थे.

संतोष अर्श: यानी एक तरह की लॉयल्टी रही ?
नरेश सक्सेना : हाँ लॉयल्टी थी.

संतोष अर्श:  आपके संबंध भी एक ही स्त्री से रहे. दूसरी औरतों से किसी स्थिति में नहीं रहे?
नरेश सक्सेना : लगभग नहीं रहे. मतलब प्रेम रहा और मैंने प्रेम को स्वीकार भी किया.

संतोष अर्श : तो आपकी जो पत्नी बनी थीं, उनसे पहले भी किसी स्त्री से प्रेम हो चुका था ?
नरेश सक्सेना : वो एक प्रेम कि... उसको उतना गंभीर प्रेम न मानें. लेकिन प्रेम की आकांक्षा तो सब में होती है. और वो मुझमें थी. और वो चलती रही. बेईमान मैं नहीं रहा. और रहा तो इतना कम, इतनी कम बेईमानी थी...नहीं रहा, ऐसा मुझे नहीं कहना चाहिए. लेकिन जो भी था, उसका बहुत कुछ आभास मेरी पत्नी को था. और उनसे जब कोई प्रेम-निवेदन करता था, तो वो भी मुझे बता देती थीं. उनकी पर्सनालिटी तो मुझसे बड़ी पर्सनालिटी थी. विजय की. (कुछ भावुक हो कर)

संतोष अर्श : आपको कभी ऐसा महसूस तो नहीं हुआ कि पत्नी की पर्सनालिटी जो है, वो सुपरसीड कर रही है ?
नरेश सक्सेना : नहीं सुपरसीड तो नहीं...उनकी मान्यता तो शहर में बहुत बड़ी थी. सुंदर बहुत थीं. उनकी तरफ़ आकर्षित बहुत लोग होते थे और वे मुझे बताती रहती थीं. लेकिन जैसा मैंने कहा कि शादी के बाद मैंने पढ़ाया था उन्हें. इंग्लिश उनकी बहुत कमज़ोर थी. मैंने उनको इंग्लिश पढ़ाई. मैंने उनको फ़िल्म के बारे में पढ़ाया. मैंने उनको कम्पटीशन के लिए तैयारी करवाई. उनको अपने जनरल नॉलेज से मैंने बताया कि क्या-क्या सवाल पूछे जा सकते हैं. तो जैसा कि मैंने कहा, कि वो तुम्हारे जनरल नॉलेज के पेपर में जो एफ.टी.आई.आई. का ऑल इण्डिया सेलेक्शन होता है वहाँ पे... और ये समझ लीजिए कि वहाँ पर पन्द्रह सीट थी. डायरेक्शन के स्टूडेंट के लिए. जिसमें से दो-तीन जो थीं, वो रिज़र्व थीं फॉरेन स्टूडेंट के लिए और शिड्यूल्ड-ट्राइब कास्ट के लिए. तो मेरे ख़याल से दस-बारह कुल सीट्स होती थीं ऑल ओवर इण्डिया. और अकेली थीं. तो उनको मैंने पढ़ाया था, इसलिए वो इन्फ़ीरियरिटी मुझमें नहीं थी. और ये उनको पता था कि उनको मैंने ही इनिशिएट किया. मैंने ही सिखाया. जैसे कि मैंने उनको बताया. मैंने फ़िल्मों के नाम बताये. मैंने जैसे बताया कि हिचकॉक...अल्फ्रेड हिचकॉक एक मिस्ट्री फ़िल्म के बहुत बड़े डायरेक्टर हैं. हिचकॉक की द बर्ड्स फ़िल्म है एक, जिसमें चिड़ियाँ आक्रमण करती हैं. तो वर्टिगो नाम की एक फ़िल्म थी. वो भी बहुत पॉपुलर थी.

हिचकॉक की फ़िल्म है वो...एम.जी.एम, मेट्रो गोल्डविन मेयर. इसका शॉर्ट फॉर्म आ सकता है. कि ये क्या चीज़ है ? हिचकॉक का नाम आ सकता है. ये कौन हैं ? द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई इसका डायरेक्टर डेविड लीन, जिसने बाद में और बड़ी फ़िल्में बनायीं. डॉक्टर ज़्हिवागो जैसी उसकी बनाई हुई फ़िल्में हैं. डेविड लीन की तो... ही वॉज़ वेरी-वेरी पॉपुलर इन दोज़ डेज़ एक्चुअली. तो मैंने कहा डेविड लीन ये हैं. एम.जी.एम. ये है. हिचकॉक हैं. इनके नाम आ सकते हैं तुम्हारे जनरल नॉलेज में. तुम्हारा फ़िल्म में कितना इन्ट्रेस्ट है, ये जाँचने के लिए. और फ़िल्म के बेसिक प्रिंसिपल्स क्या हैं ? ये ल्युमिअर ब्रदर्स जो हैं, इन्होंने क्या किया था ? और जो मेमोरी होती है, रेटिना पर जो इमेज बनती है, वो वन अपॉन सिक्स्टीन सेकेण्ड तक बनी रहती है. अगर वन अपॉन सिक्स्टीन सेकेण्ड के पहले ही कोई दूसरी इमेज़ आ जाए तो दोनों इमेज़ जुड़ जाती हैं आपस में. और यही फ़िल्म की कंटिन्यूटी बनाती है. मूवी का भ्रम होता है हमें. और जो कैमरा...मूवी कैमरा शूट करता है, वो अलग-अलग फ्रेम्स कट-शूट करता है. लेकिन वो शटर स्पीड होती है, कट-कट-कट-कट-कट-कट-कट वो शूट करती चली जाती है. तो तमाम सारी उनको किताबें भी पढ़ायीं. जो कुछ भी था, वो सब. सेलेक्ट हो गयीं वो. बहुत टॉप पे जाकर सेलेक्ट हुईं. फिर वो ज़माना था, जब लड़कियों को फ़िल्म इंस्टीट्यूट में भर्ती नहीं किया जाता था. ऋत्विक घटक उनके वाइस प्रिंसिपल थे. ऋत्विक घटक थे और वो जो बंग्ला फ़िल्म डायरेक्टर थे…

संतोष अर्श : मृणाल सेन !
नरेश सक्सेना : हाँ ! मृणाल सेन. वे उनके जूरी में थे. सेलेक्शन कमेटी में थे. अब ये सब लोग जो थे, ये डाक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर थे. एक्चुअली बेसिकली ये मानते थे कि यथार्थवादी जो फ़िल्म है, उसको शूट करना कैमरामैन का काम नहीं है, वो एटैनमेंट करेगा. वो सब तो कैमरामैन कर लेगा हीरो को, और दूसरी सामान्य शूटिंग. लेकिन किसी दंगे की शूटिंग करनी है आपको, किसी बाढ़ की शूटिंग करनी है, रात को, दिन को, भीड़ में, खाईं-खंदक में जाकर, पहाड़ पे जाकर के तो डायरेक्टर को अपने कंधे पर कैमरा लेकर जाना पड़ता है, लड़की लोग कहाँ जाएगा ? कैसे बनायेगा फ़िल्म ? (मृणाल सेन के लहजे में) तो उन्होंने कहा कि तुम कैसे बनायेगा फ़िल्म? लड़की लोग का काम नहीं है ये. उसमें ताक़त चाहिए. तो मुझे मालूम थी ये बात. मैंने कहा कि तुमसे वो यही कहेंगे. उनका कहना था कि आप स्क्रीन प्ले राइटिंग का कोर्स करिये, आप फ़िल्म एडिटिंग का कोर्स करिये, आप साउंड रिकॉर्डिंग एंड साउंड इन्जीनियरिंग का कोर्स कर लीजिए. फ़िल्म डायरेक्शन में हम लड़कियों को एडमिशन नहीं देते. तो उन्होंने कहा सर अगर आपको...ये मेरी बातचीत उनसे पहले ही हो गई थी, कि उनसे कह देना कि सर अगर आपको लगता है कि लड़कियाँ कभी ये काम नहीं कर सकतीं और लड़कियों ने कभी दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं किया जो पुरुष करते हैं, ताक़त के काम, तो फिर रहने दीजिए मुझे. मैं कोई दूसरा काम ढूँढूंगी. तो उन्होंने यही कह दिया, कि अगर आपको नहीं लगता कि लड़कियों ने कभी अपने जीवन में कोई ऐसा काम नहीं किया जो पुरुष ताक़त से कर सकते हैं...क्योंकि इसमें सिर्फ़ ताक़त ही नहीं लगती तो रहने दीजिए. तो वो सोच में पड़ गये थे. उन्होंने आपस में बात की और कहा कि ठीक है. लेट अस गिव हर ए चांस. तो शी वाज़ दी फ़र्स्ट वुमन हू हैव बीन सेलेक्टेड एज़ ए फ़िल्म डायरेक्शन स्टूडेंट. वो पहली महिला थीं.

(बीच में उनकी बहू आ गयी हैं. उन्हें किनारे बुला रही हैं, एक मिनट बात करने के लिए. नरेश जी ने उन्हें पास में बुला लिया. उन्हें पूछना था, कि सब्ज़ियाँ कौन सी बनें ? नरेश जी ने मेरी ओर इशारा करके कहा, इनसे पूछिये ये क्या खाएँगे ? मैंने संकोच में कहा, मैं कुछ भी खा लूँगा. वे कह रही हैं, दाल और एक शोरबे वाली सब्ज़ी और एक सूखी सब्ज़ी है. मूली की भुजिया के प्रश्न पर नरेश जी ने कहा, वे ज़रूर खाएँगे. फिर तय हुआ कि आज भिंडी की भुजिया बनेगी. मूली की कल बनेगी.)       

संतोष अर्श : आपको क्या पसंद है खाने में ?
नरेश सक्सेना : खाने में मुझे...मैं तो सब बहुत शौक़ से खाता हूँ.


संतोष अर्श : प्रिफ़रेंस क्या है ? वेजिटेरियन, नॉनवेजिटेरियन ?
नरेश सक्सेना : मैं तो दोनों खाता हूँ. वेज भी खाता हूँ नॉनवेज भी खाता हूँ.


संतोष अर्श : शराब भी पीते हैं ?
नरेश सक्सेना : शराब नहीं पीता.


संतोष अर्श :  पी ही नहीं कभी, या नहीं...?
नरेश सक्सेना : नहीं-नहीं मैं पीता हूँ, तो साथ देने के लिए. कभी-कभी आधा चौथाई पेग मैं ले लेता हूँ. इसलिए कि मैं...मतलब बिरादरी से बाहर न माना जाऊँ. एक गिलास मेरे सामने भी रखा रहता है. लेकिन सच्चाई ये है कि मैं नहीं पीता.

संतोष अर्श : मतलब कभी उस तरह से नहीं पी कि हैंग ओवर हो गया हो ?
नरेश सक्सेना : पहली बार शुरू-शुरू में पी. उसके बाद देखा कि तबीयत खराब हो रही है. थोड़ा पियो तो कुछ समझ में नहीं आता, मज़ा नहीं आता. ज़्यादा पियो तो फिर उल्टियाँ होती हैं. तो मैंने कहा ये बेकार है यार. (हँसते हुए)

संतोष अर्श : सिगरेट भी नहीं पीते हैं ?
नरेश सक्सेना : सिगरेट भी नहीं पीता, पान भी नहीं खाता, तम्बाकू नहीं खाता. तो मेरे कोई ख़र्च अपने ऊपर नहीं हैं...
(क्रमश:)
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पहला हिस्सा यहाँ पढ़ें

नरेश सक्सेना से संतोष अर्श की बातचीत 

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  1. रोचक वार्तालाप नरेश जी से...मैंने उनके जयपुर में PLF दर्शन किए थे फरवरी में...बधाई...

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  2. भिक्षु भारत30 मार्च 2020, 11:59:00 am

    कविता से सिनेमा तक बातचीत के कई आयाम हैं। हिंदी में सिनेमा पर ऐसी बातचीत मैंने कभी नहीं पढ़ी। स्त्री-संबंधों पर कैसे मुखर सवाल संतोष अर्श ने पूछ लिये हैं। अच्छी बातचीत। आगे की बातचीत का इंतजार रहेगा।

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  3. पंकज चौधरी30 मार्च 2020, 12:00:00 pm

    संतोष अर्श ने नरेश सक्सेना जी से अच्छी बातचीत कर ली है। कवियों के पास फिल्मों की भी साफ-शफ्फाक समझ होनी चाहिए। बातचीत से जाहिर हुआ है। नरेश जी से पहले मेरा ख्याल है कि विष्णु खरे के पास भी वर्ल्ड क्लासिक फिल्मों की आला समझ थी। बर्गमैन, गोदारा, फेलिनी, जॉन स्टूवर्ट, ग्रेटा गार्बो को खरे जी की लेखनी के माध्यम से ही जाना था। बाद में उनकी फिल्में भी देखीं। खैर, एक ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए दोनों का शुक्रिया।

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  4. स्वप्निल श्रीवास्तव30 मार्च 2020, 12:01:00 pm

    नरेश जी से मिल कर यह सहज लग जायेगा कि वह कवि है । इस तरह का अनुभव मुझे उनके साथ लखनऊ से खंडवा की यात्रा में मिला जहां हम शमशेर सम्मान में जा रहे थे । जब उन्होंने रेल के डिब्बे में कविता सुनना शुरू किया लोग वहां इकट्ठा हो गए । वह जिस तरह कविता पाठ करते हैं वह विरल है । वह कला हम कवियों के पास नही है ।
    संतोष अर्श ने कविता से अलग उनके जीवनानुभवों पर बातचीत की है इसलिए यह इंटरव्यू परम्पगत होने से बच गया है । आप दोनों को साधुवाद ।

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  5. रंजना मिश्रा30 मार्च 2020, 4:30:00 pm

    बहुत अच्छी बातचीत। औपचारिकता और परंपरागत इंटरव्यू से इतर रखा इसे संतोष अर्श जी ने। नरेश जी ने कम लिखा है पर वे निस्संदेह हमारे समय के अग्रणी कवियों में से एक हैं। समालोचन का धन्यवाद।

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  6. नरेश सक्सेना30 मार्च 2020, 4:32:00 pm

    शुक्रिया पूजा, अरुणदेव और संतोष अर्श । न याद दिलाते तो, क्या पता भूल ही जाता।
    82वां बरस है। भूलना शुरू होचुका है।
    कुछ यादें जब तेरह का था मुरैना में और बांसुरी बजाता था,कुछ उन्नीस बरस का जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज में जहाँ, विनोदकुमार शुक्ल,ग्यानरंजन,सोमदत्त, मलय, ललित सुर्जन,हरिशंकर परसाई थे और मुक्तिबोध आतेजाते रहते।
    कुछ ग्वालियर, बनारस,जौनपुर, कोलकाता, भोपाल,और, मुंबई जहाँ फ़िल्म ऐडिट की, दिल्ली जहाँ निर्देशन के लिये जूरी का स्पेशल मेंशन अवार्ड मिला और लखनऊ की,जहाँ पहली बार फ़िल्म शूट की, और जहाँ अब भी हूं।

    संतोष जी आपके धीरज को नमस्कार।

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  7. Arun Dev ji, जिस फिल्म का ज़िक्र नरेश जी कर रहे हैं उसका नाम 'एन अकरेंस एट आउल क्रीक ब्रिज' है। यह 1962 की एक फ्रेंच शॉर्ट फिल्म है।

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    1. नरेश जी का एक इन्टरव्यू मैनै भी लिया था,कविता पर अनौपचारिक बातचीत जैसा,जब वो रिटायरमेन्ट के बाद देहरादून में एडीबी के प्रोजेक्ट पर तैनात थे,दसेक साल पहले।आधार पत्रिका के वास्ते इन्टरव्यू दो सिटिंग में लिया गया था । उनकी फिल्म संबंधी इतनी गहन रुचि व जानकारी का तब मुझे भान न था,संतोष जी की बातचीत से उनके इस पक्ष का खोद खोद कर उद्गघाटन हुआ,अच्छा लगा। अपनी अतृप्त रूचि के संवरण हेतु अर्धांगिनी को कितने त्याग तपस्या से उन्होंने तैयारी कराई,व उस क्षेत्र के मुकाम तक पंहुचाया,यह माद्दा सब पुरूषों में कंहा होता है ?जाहिर है वे पत्नी से बहुत प्रेम करते थे।उनके स्वस्थ व्यक्ति दीर्घायु जीवन की कामना करता हूं।

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  8. उस फ़िल्म का नाम है "An occurrence at Owl Creek Bridge" by Robert Enrico, a French Director (1962). यह फ़िल्म एक अमरीकी लेखक ऐम्ब्रोज़ बियर्स की कहानी पर आधारित है। कहानी का नाम और फ़िल्म का नाम एक ही है। आज भी यह बहुत लोगों की संदीदा फ़िल्म है।

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