मनोज मल्हार की फिल्मों और नाटकों में भी रुचि है, समालोचन पर उनकी कविताएँ पहली बार आ रहीं हैं. इन कविताओं में बहुत कुछ ऐसा है जो विस्मित करता है. कथ्य में परिपक्वता है पर शिल्प में अभी गुंजाइश है.
मनोज मल्हार की कविताएँ
(एक)
इतिहासकार का जादू [1]
इतिहासकार शुरू करता है
भारी-भरकम
लयबद्ध आवाज की निरंतरता
सर्वप्रथम
मंचीय प्रकाश को गायब कर देती है
धीरे-धीरे
इंसानी शक्ल, कद काठी नहीं रहने देती
अनैतिहासिक
अन्धकार के जाल को भेदते हुए
हमें
ऐसे प्रकाश व्यवस्था में ले जाती हैं
जहां
गुजरे ज़माने के सिक्के हैं
माटी
के नीचे दबे पाषाण, गुफा चित्र
वनैले
अँधेरे में पेड़ की टहनी से चिपका है मानव
अस्तित्व
की लड़ाई प्रतिदिन लड़ता
भवन,
भवन के कंगूरे और स्थापत्य हैं
ताम्रपत्रीय
अवशेष, स्तम्भ, स्नानागार और भित्तिचित्र
अद्भुत
भवन और पूजा स्थल
पुराणों
के पृष्ठों पर अंकित कथाओं के विश्लेषण का युद्ध है
एक–एक
खुदे अक्षर और चिन्ह की व्याख्या की लड़ाई
शब्दों
से चित्र बनने की प्रक्रिया में
हम
देखते जाते हैं विशालकाय मैदान में खड़ी सेनाएं
राजाज्ञाएं, युद्ध
धीरे-धीरे
मन स्वीकारता है
सत्य
एक बहुआयामी और पेचीदा चीज है,
निष्कर्ष
पर पहुँचने की जल्दबाजी ना करो
हर
निष्कर्ष और नियमन को साक्ष्य चाहिए
हर
विश्लेषण को तर्क चाहिए
यहाँ
तक कि हर भगवान् को हमारी मान्यता चाहिए
जब
हम कहते हैं राजा
तो
साथ में है उसका प्रतिलोम प्रजा
एक
है आज्ञा देने वाला तो
बहुत
हैं आज्ञा मानने वाले
जब–जब
राजाज्ञा न मानने वाले
एकजुट
होते हैं ...तब
इतिहास
की एकरसता टूटती है
तब
नये अध्याय जुड़ते हैं
तब
नई तस्वीरें शब्दों को मजबूती देती हैं.
(दो)
पटरियां,
तार और खम्भे की जुगलबंदी
वह
कुछ अनूठा ही है
इंसानी
बस्तियों से दूर
बहुत
बड़े आसमान के नीचे
ऊंची
रेखाओं पर दो पटरियां सामानांतर
सदैव
रोड़ों से ढंके, बंधनों से बंधे.
नसीब
कुछ इस तरह
की
अगर कभी मिले, या कोशिश भी की
विद्रूप
हो उठती है वो स्थली
तीव्र
गति से पलटने उलटने की अनियंत्रित, अपरिचित
अनियोजित
खरोंचों से बिंध जाती हुई
पटरियों
के पास घास होते है छोटे-लम्बे
कोमल
और कठोर का अजीब मिलन
पटरियां
नहीं खिसकना चाहती जरा भी
वे
घासों की यार होती हैं
सृष्टि
के अजब नियमों की तरह
चार
पांच तार अपनी दूरी बनाये रखते हुए
पटरियों
के ऊपर होते हैं
इनके
बीच अजब सा रिश्ता है
दोनों
धूप में सूखते है,
सर्दी
में फैलते है
बारिश
में भीगते हैं.
उनका
मौन ब्रह्मांडीय है.
न
शब्द, न स्वर,
एक
सर्वथा अपरिभाषित मौन
जैसे
झुर्रियों से भरे दो चेहरे
रोज
डूबते सूरज को देखते हुए
निःशब्द
बातें करते हों
एक
ही तरफ देखने पर
खम्भों
की पंक्ति
अनुशासित
सैनिक की कतार लगती है
बहुत
दूर पत्तों पेड़ों के आवरण में
प्रवेश
कर जाती हुई
तीसरा
भी है–
पटरियों
और तार को मिलाता
आध्यात्मिक
विश्वास वाला खम्भा
इसकी
जड़ें पटरियों के बेहद करीब होती हैं
और
शीर्ष तार के वजन को संभालता
एक
तरफ से देखकर कह सकते हैं–
यह
तार और पटरियों को मिला रहा है
तो
दूसरी ओर से देखकर
ये
पटरियों और तार को मिलने नहीं दे रहा
अजब
स्थिति है बेचारे की
ये
उसका अपना चयन नहीं है
अस्तित्व
पाने के बाद उसने खुद को इसी रूप में पाया है
मेरी
यह छोटी सी कामना है
अपनी
दूरियों, नजदीकियों और स्थितियों के साथ
इस
विराट आसमान के नीचे
पटरियों,
तार और खम्भे की जुगलबंदी कायम रहे
घास उगती रहे कठोरता की जमीन पर भी
धूप
बारिश हवा इन्हें जीवन देती रहे.
(तीन)
वाइड
एंगल में एक छात्रा
कुछ
पीलेपन की शिकार दूब
धूप
मरियल बीमार आलसी-सी
ठहरी
हुई दिशाएँ आकाश पूरा परिवेश
दूर
सामने बहुत दूर नज़र आते पत्तों के झुण्ड भी खामोश
खामोश
है पक्षीगण
इस
स्वप्निल से वाइड एंगल में
ठीक
बीचोबीच बैठी हुई
दोनों
हथेलियों पर किताब थामे
चेहरे
नीचे को 45 डिग्री के कोण पर
उसके
दोनों तरफ समानुपात में
दूब
का विस्तार लिए मैदान.
एक
फ्रेम में बंद ये चीजें
चित्रकला
की पूर्णता सी
ज्यों
विलगा दिया गया हो
समुद्री
सतह से स्वर्णकलश
या
फिर चाँद का एक टुकड़ा
बिखर
गया हो कहीं और
खुले
आकाश तले
दुनियावी
भीड़भाड़ से दूर
छपे
हुए अक्षरों में उलझी वो
शायद
इतिहास की जंगों को जान रही होगी
या
फिर राजनीतिक कार्य प्रणाली को
या
फिर संभव है
आजकल
की कोई रोडसाइड की
बेस्टसेलर
के दावों से युक्त
किताब
पढ़ रही हो
पर
उसका इस तरह का एकांत
किताबों
में डूबे रहना
कई
तरह के रहस्य उत्पन्न करता हुआ
क्यों
वह भीड़ से अलग है
उसने
दोस्त क्यों नहीं बनाए
या
फिर सर्दी की मरियल सी धूप में
वहीं
क्यों बैठी है वो?
रहस्य
कई सारे
पर
सबसे खूबसूरत कि
डूब
कर शब्दों की दुनिया में गोते लगा रही वो
सार्वजानिक
रूप से.. छुपकर नहीं.
(चार)
‘अपराध
और दंड’ [2]
पढ़ने के बाद
गेहूं
के भूसे की मरी रंगत में लिपटा
धब्बेदार,
धूसर शहर
दिनों
की घटनाएं
एकदम
खिसकती चट्टान सी
गिरती
हैं..अचानक
शहरी
हो हल्ले में
गर्मी
के दिनों के
तीव्र,
आवेशी दृश्य की तरह
कंपकपाती
है
अशांति
की आशंका,
बीमार
गंधाते समाज को
दूध
पिलाता समाज....
धूल
की कीचड़दार पर्तों में लिपटे
बड़े
रोड़े गड्ढे गहरे
हवा
का जोरदार झोंका
और
धुल से ढँक जाती है दिशाएँ
राह
में देने फैलाये ज़र्द गेरुआ ट्रक
बड़े
खतरनाक ढंग से मुडती हैं टायरें
वीभत्स
ढंग से टकराती हैं
पिलाई
रोशनी की आड़ी तिरछी रेखाएं
छायाएं
नाच उठती हैं
पास
कहीं कर्कश संगीत गूंजता है
पेड़
की डालों से कौवों का झुण्ड उड़ा जाता
कांव–कांव का रौरव फैलाता
फिर
जान पर बन आयी है
पानी
का कैन लादे
रस्कोलनिकोव [3]
असहाय
नज़रों से घूर रहा है
वह
घूर रहा है
और
उसके सामने है रंगीनियों की चकाचौंध
नियोनी
रश्मियों के पुंज!
बहुत
बड़े साइनबोर्ड में
उन्मुक्त
हँसी बिखेरती तारिकाएँ
वह
घूर रहा है
क्रूरता
के मासूम से दिखते चेहरों को
जो
रात के अँधेरे में दानव अवतार लेते हैं
और
मंदिरों –मस्जिदों में
ताले
लटक जाते हैं
असहाय
नज़रों से घूर रहा, वह
शर्तिया
अपराध करेगा
फिर
दूनिया [4] के
कदमों को चूम, कहेगा –
“मैं
तुम्हारे नहीं, समस्त पीड़ित मानवता के
क़दमों
चूम रहा हूँ”
तंग
गलियों में वो फक्कड़
ठोकरें
खायेगा,
भूख
से अकड़ी अंतड़ियाँ लिये
माँ
के दुखों को याद कर
वह
फिर वार करेगा
खौफनाक
अपराध !
पत्थर,
चाकू, लाठी
सामूहिक
दहन की सामग्रियों से
सज्जित
नैतिकताएं,
तमाम
धर्मशास्त्रों की आयतें
खतरनाक
अपराधी बतायेंगी
धीरे
धीरे
धुंधली
पड़ती जाएँगी
श्रेष्ठ
मानवीय भावनाएं
आप
दार्शनिक होते होते
एकदम
से चिल्ला उठेंगे –
‘हाँ
हाँ! अपराधी है वह !
खून
किया है उसने!’
मगर
रस्कोलनिकोव को नहीं रोक पाएंगे
माथे
पर शिकन, आँखों में जलन लिये
विश्थापित, दर- बदर
इनके
भीतर जी उठेगा रस्कोलनिकोव
पवित्र
और ‘वांटेड’ अपराधी
दोस्तोयेव्स्की.
(पांच)
जब
मैं चाँद के साथ होता हूँ
मैं जब चाँद के साथ होता हूँ
और
कुछ भी नही होता मेरे साथ
सिर्फ
अँधेरा होता है
बलवती
उन्मत्त वेगवान होती
चांदनी
के रंग में विलीन हो जाती हुई
आसपास
नन्हें पंछियों की उड़ाने
मस्ती
का माहौल बनाती हैं
उनके
आकार बार बार
चाँद
के आर पार.
जब
चाँद
काली
घटाओं से कुछ वक़्त निकाल
मुझे
सराबोर करता है
एक
विस्मृत सी दुनिया
किस्से
किताबों में सीमित दुनिया
नमूदार
होने लगती है
जब
मैं चाँद के बेहद करीब होता हूँ
अपनी
सारी झिझक छोड़ चांदनी
अद्भुत
स्निग्ध पीलेपन से नहला देती है...
सरसों
के झूमते फूलों के अनंत विस्तार का पीलापन
जिसमें
ताम्बे का खनक पीलापन मिल गया हो
अद्भुत
रहस्यमय आकाशीय पीलापन
तस्वीरों
से उतरकर
स्त्रियों
की एक टोली
पीली
गगरी लिए चलायमान– सी
होती है.
खिले
हुए रंग बिरंगे फूलों का पूरा एक बाग गुजर जाता है
ठीक
मेरी आँखों के आगे से
हवायें
डालियों को हिला हिला जाती हैं.
झूमते
हुए पत्तों पर चांदनी
लहरों
सी मचल जाती है
नन्ही
पंछियों की उड़ान में नर्तन.
और
अब, कान्हा की बांसुरी की लहरें
फिजाओं
में बिखरने लगी हैं.
शायद
राधिका करीब है कहीं.
रहस्य–सी, उन्माद-सी, जादू–सी
जब
मैं चाँद के बेहद करीब होता हूँ
ग़ालिब
चांदनी से नहायी डगर पर झूम रहे होते हैं
रवीन्द्र
संगीत का ताल सध रहा होता है, और
मीरा
घुँघरूओं को छनछना रही होती है
जब
मैं चाँद के बेहद करीब होता हूँ
और
कुछ भी नहीं होता वहाँ
सिर्फ
मैं, चांदनी, पत्तों
से भरी डालें
पक्षियों
के कलरव.
निरंतर
निहारा करते करते
मुझमें
समा जाती है चांदनी.
मैं
चाँद हो जाता हूँ
और
मुझसे बूँद बूँद बरसने लगती है चांदनी
बहुत-बहुत बधाई मनोज भाई। अरुण देव भाई साहेब का भी शुक्रिया कि उन्होंने मनोज जैसे होनहार कवि को समालोचन पर प्रकाशित किया।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन।मनोज भाई साहब की कविताओं को अकादमी ऑफ फ़ाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर के युवा कविता पाठ के आयोजन में सुना था।बधाई मनोज जी को हार्दिक बधाई और अरुण जी आपको धन्यवाद साझा करने के लिए।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार अरुण देव जी.. इस प्रोत्साहन के लिए. बेशक़ आपके सुझावों को अमली जामा पहनाने की कोशिश रहेगी. ��������
जवाब देंहटाएंअच्छी गम्भीर कविताएं
जवाब देंहटाएंअपराध और दण्ड वाली सबसे बढ़िया लगी मुझे
अच्छी कविताएँ, मनोज जी को शुभेच्छाएँ!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20.02.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3617 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत ही सुंदर कविता पहली बार पहुंचा आपके ब्लॉग पर देख कर अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंBahut bahut badhai sir 👏👏
जवाब देंहटाएंकवि के रूप में मनोज मल्हार को लंबे समय से जानता हूँ।
जवाब देंहटाएंउनकी कविताई का प्रशंसक भी हूँ।
वे दायित्वबोध से लैस कवि हैं।
समालोचन पर उन्हें पाकर खुशी हुई।
अरुणदेव जी की सतर्क टिप्पणी उनका पाथेय बने- यही कामना है।
बहुत खूब भैया.....
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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