रितुरैण : नामवर, केदार, दूधनाथ : शिरीष कुमार मौर्य





कवि–आलोचक  शिरीष कुमार मौर्य इधर बहुत दिनों से दृश्य से अनुपस्थित थे. जैसा समय है उसमें कई बार यही विकल्प बचता है. नामवर सिंह के महाप्रस्थान ने उन्हें विचलित किया है. अपने तीन प्रिय लेखकों पर उन्होंने यह स्मृति-रितुरैण भेजा है. 








रितुरैण नामवर 

ऋतु वसन्त कुछ सिसकी 
फाल्गुन की संधि पर

काम पर जाते हुए अचानक भय से
ठिठ‍का मैं
नैनीताल से पहले का बूढ़ा पहाड़
कुछ धसका
हवा में उड़ता हुआ सा गिरा एक बहुत बड़ा पत्थर
कुछ पल के लिए 
राह को रुकना पड़ा

मोबाइल पर संदेश की आवाज़ भी
यों सुनाई दी
बहुत पुराना बांज का पेड़ उखड़ा हो जैसे गांव में

चला गया वर्षों से बस्ती में रुका हुआ हरकारा
पिछले कई दिनों से
आंख में अटका हुआ आसूं
ढुलक गया भाषा के
रह-रहकर
रूखते कपोलों पर

उम्र पूरी कर
अभिमान के साथ गया है कोई
अकस्मात आघात नहीं
होने को अत्यन्त प्राकृत
यह क्षय है

पर
हिन्दी में कोई बड़ा न रहा
अब
समकालीनता बस
कुछ
छुटभैयों का
अभयारण्य है
(2019)
*** 









रितुरैण केदार 

जाता वसंत
केदार को ले गया
और मैं हठी
लौटा तक नहीं
शोक की ख़ातिर भी

जैसे समुद्र में डाल्फिन का खिलंदड़ापन
बेहद गंभीर और जानलेवा
ऐेसे रहा हिंदी का एक कवि
कविता में

वह इंग्लिश चैनल का नमक लाया
गंगा के पानी तक

सहज
सुन्दर
सौम्य
पर विकट बलियाटिक भी

कुछ मनुष्यवत पाप सहेजे
पछतावे का कोई काँपता-सा आँसू टिका हो जैसे
भाषा के कपोलों पर

कपाल पर ज्यों पसीने की बूँद थरथरायी हो
सूखने से पहले

लेकिन समाज यह हमारा
न तो उस पछतावे को पहचानता है
जो वैष्णव आत्माओं की
सदियों पुरानी परम्परा की आँखों में
सदा ही बहता आया है

न उस पसीने को
जो इस वसुंधरा पर बेहद साधारण जनों के
होने की महक है

कोई कोई कवि महान हो जाता है
जिसे हृदय में छुपाए
उस शिशुवत मनुष्यता का तो
उल्लेख ही
अब व्यर्थ है

केदार के चले जाने का अर्थ खोजते
समकालीन अपराधियो !
अगर है
तो केदार के बच जाने का
इस खंख समय में
कुछ अर्थ है. 
(2018)
***








रितुरैण दूधनाथ

बहुत बूढ़े गरुड़ भी
डाल पर बैठे हुए नहीं मरते
वे भरते हैं
एक आख़िरी उड़ान
तेजस्वी और शानदार

ऑंखों  से लगभग ओझल
बहुत ऊपर
वे मँडराते हैं
हम ही
उन्हें देख नहीं पाते हैं 
उनके डैनों की परछाई तक
धरती पर
दिखाई नहीं देती

उनकी स्मृति भी उतनी ही ताक़तवर
एक गरुड़ होती है

और सुबहों से अलग
उसी स्मृति के मज़बूत पंजों में दबी हुई
अचानक
एक सुबह होती है
जीवन में

हम देखते हैं
कठिन ऋतुओं का परिन्दा उड़ चुका
कोहरे को चीरती उसकी उड़ान
पूरब से पश्चिम की ओर
धुएँ की लकीर की तरह दिखती है

जो
सूर्य का साथ करने को उड़ा है
उसके
झुलसे हुए डैनों की
थोड़ी सी हवा
धरती पर बच गई है

शिशिर के अंत पर
उसने वसंत का नहीं ग्रीष्म का वरण किया है 
और जो फँसा है शोकगीत
मेरे कंठ में
घुटा घुटा सा
वह विशाल किंतु बूढ़े डैनों वाली
इसी रितु की रु्वेण* हैं 
(2018)
***
*रूदन


_______





शिरीष कुमार मौर्य
वसुंधरा III, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा
रामनगर
जिला-नैनीताल
(उत्तराखंड) 244 715 

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  1. अद्भुत कविताएं।

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  2. 'रितुरैण नामवर' विशेष रूप से अच्छी लगी।

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  3. नरेश गोस्वामी22 फ़र॰ 2019, 12:29:00 pm

    निस्पंद कर दिया है इन कविताओं ने...अचंभित हूँ कि कोई ऐसे भी याद कर सकता है अपने वरिष्ठों को।

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-02-2019) को "करना सही इलाज" (चर्चा अंक-3256) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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