क्षमा करो हे वत्स ! : जीवन राग और अनबीते व्यतीत की मृत्युकथा : अल्पना सिंह















कथाकार देवेन्द्र की कहानी नालंदा पर गिद्ध का ज़िक्र कुछ दिन पहले समालोचन पर नरेश गोस्वामी की कहानी पिरामिड के नीचे के सन्दर्भ में हुआ था. 

देवेन्द्र की एक और चर्चित कहानी है ‘क्षमा करो हे वत्स’, यह अपने दस वर्षीय पुत्र के अपहरण और हत्या पर एक पिता का दारुण आख्यान है, कहते हैं कथाकार को इसे लिखने के बाद दुबारा पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई थी. इस कहानी और इस तरह के प्रसंगों की चर्चा अल्पना सिंह अपने इस आलेख में कर रहीं हैं.



क्षमा करो हे वत्स !
जीवन राग और अनबीते व्यतीत की मृत्युकथा              
अल्पना सिंह











था जीवन की मार्मिक आलोचना है. वस्तुतः कथाकार तर्कशीलता की संभावनाओं और विचारों का एक सम्पुट लेकर एक नई कथायोजना को जन्म देता है. ये सत्य कथाएँ वह अपने जीवन और आसपास के वातावरण से ग्रहण करता है. ऐसे ही कथाकार हैं देवेन्द्र. इनकी कहानी ‘क्षमा करो हे वत्स’ को पढ़कर निर्मल वर्मा के दो कथा-वृतांत याद आते हैं. ‘कव्वे और काला पानी’ कहानी और ‘अंतिम अरण्य’ नामक अपने उपन्यास में वे अस्थि विसर्जन के दो दृश्य हैं :
     
-‘लग रहा था, जैसे चालीस साल पुराना शरीर जो मैं अपने साथ लाया था, अब किसी दूसरे देह में स्वप्न की तरह चल रहा था, जिसका साहिब जी से उतना ही सम्बन्ध था जितना मेरा उन अस्थियों से, जिनकी पोटली मेरे साथ चल रही थी, और हम तीनों के भीतर एक ही आकांक्षा सुलग रही थी, अपने को जल प्रवाह में डुबोने की, जहाँ हम एक दूसरे से अंतिम रूप से मुक्त हो सकें.’
                                                         ---‘अंतिम अरण्य’
      -“मैंने उनकी नंगी देह को देखा, एक-एक हड्डी सर्दी की सफेद धूप में चमक रही थी, ठिठुरती कृषकाय देह नहीं, बल्कि ऐसा पिंजर जो देह को अपनी ठठरी-गठरी में गरमाये रखता है....नहीं, नहीं उन्हें मैंने पहले नहीं देखा था, लेकिन उन्हें देखते हुए मुझे अचानक अपने पिता की अस्थियाँ याद हो आयीं, जिन्हें गठरी में बांधकर मैं कनखल ले गया था..’’
                                                      ---‘कव्वे और कालापानी’


मृत्यु के क्षण तक कौन होगा जो जीवन की अभिव्यक्ति न चाहता हो. रचनाकार जीवन के झीने परदे से मृत्यु की यही सलवटें देखता रहता है. अकेलापन और आत्मनिर्वासन की प्रक्रिया से गुजरकर वह जीवन के सच और झूठ को मिलाता है. ‘शाश्वत वर्तमान’ का यही ‘गुप्त कोड’ उसे मुक्ति नहीं दे पाता. इवान इलिच की भीतर भी वही चाह, मृत्यु के समय जन्मती है. संदर्भ कथाकार देवेन्द्र की कहानी ‘क्षमा करो हे वत्स!’ का है. यह कहानी एक आत्मकथ्य है जो एक पिता ने अपने दस वर्षीय पुत्र के अपहरण और निर्मम हत्या पर लिखी है. इस कहानी को पढ़ते हुए प्रथमदृष्टया ही अनेक प्रश्न सामने आ खड़े होते हैं. यह कहानी सबसे बड़ा प्रश्न हमारे समाज और उसकी न्याय व्यवस्था पर उठाती है.

देवेन्द्र के पुत्र अंशुल (जिसका नाम वह भविष्य में ‘उपमन्यु’ या ‘कोलंबस’ रखना चाहते थे, लेकिन उन्हें इसका अवसर ही नहीं मिलता है.) का अपहरण हो जाता है. अपहरण के ग्यारह दिन बाद उसका शव, शव भी नहीं, शरीर के क्षत-विक्षत अंग ‘ताजी खोपड़ी, जबड़े के दाँत और कुछ हड्डियाँ.. खोपड़ी में माँस का नामोनिशान तक नहीं था’ मिलते हैं. और इन ग्यारह-बारह दिनों में पुलिस, कोतवाली, दरोगा, एस. पी. सब तमाशबीन की भूमिका में रहे और बराबर सत्य पर पर्दा डालते रहे. वह भी तब जबकि सबूत और साक्ष्य भी समानांतर उपस्थित रहे. उसके बाद गाँव वालों को अंशुल के ‘पैंट, चड्डी, बनियान, फटा शर्ट और कीचड़ लगा चप्पल तथा कुछ और हड्डियाँ, सिर के बाल आदि अलग-अलग जगहों से मिले. फंदे में बनी एक रस्सी भी थी. शेष बहुत सारी हड्डियाँ नहीं मिलीं. हत्या किसी घर में की गई थी. उसे सिर्फ सूरजमुखी के खेत में फेंका गया था.’ एक छोटे से गाँव में इतनी निर्मम हत्या हो जाए और हत्यारे खुले आम घूमते रहें, यह स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी विडम्बना है. इस मृत्यु के बाद से ही देवेन्द्र का अपने देश की न्याय व्यवस्था से मोह भंग हो जाता है, जो उनकी अन्य कहानियों में भी यथा स्थान भी दिखाई देता है.

अज्ञेय ने लिखा है कि ‘आसन्न मृत्यु की एक गंध होती है...यह गंध इतनी स्पष्ट होती है कि मनुष्य उसे पहचान सकता है.’ योको को सेल्मा का कमरा उस विशेष मृत्युगंध से भरा हुआ लगता है और उसे उबकाई आ जाती है. वह भी तब जबकि सेल्मा अभी जीवित है.... विलियम वर्ड्सवर्थ की एक कविता है ‘लूसी ग्रे’. यह एक छोटी लड़की की मृत्यु पर पर लिखी गयी कविता है. इस कविता के कथानक की पृष्ठभूमि में वह वास्तविक घटना है जो उनकी बहन डोरोथी ने वर्ड्सवर्थ को सुनाई थी. यह घटना यॉर्कशायर में हैलिफ़ैक्स शहर में घटी थी. बच्ची के माता-पिता बदहवास उसकी खोज में भटकते रहे थे लेकिन वह नहीं मिली और उसका शव एक नहर में पड़ा पाया गया था. सत्य घटना को वर्ड्सवर्थ ने अपनी कल्पना के आधार पर इस अमर कृति की रचना की. कविता में एक पंक्ति है कि उन घाटियों से गुजरते समय एक फैन या खरगोश देखने का अवसर प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन आप लुसी ग्रे के निर्दोष और मासूम चेहरे को अब कभी नहीं देख पाएंगे.’ माता- पिता को बच्ची के अवशेष के रूप में बर्फ पर बने बच्ची के पैरों के छोटे-छोटे निशान भर दिखते हैं और वह रो कर कह उठते हैं- ‘In heaven we all shall meet. कविता की पंक्तियाँ विचलित करती हैं. शायद इसी कारण मैथ्यू अर्नोल्ड ने इसे "एक खूबसूरत सफलता" माना है.

पॉल डी मैन ने भले ही लुसी ग्रे कविता को अपने संदर्भों में परिभाषित करते हुए माना कि मृत्यु उसे एक गुमनाम इकाई में बना देती है", किन्तु यह बात लूसी और अंशुल दोनों के लिए गलत है. इस कविता ने लूसी को और इस कहानी ने अंशुल को इतिहास में दर्ज कर अमर कर दिया है. यह कविता सत्यांश होकर भी कवि की कल्पना है, यह स्वानुभूत नहीं है. मृत्यु को काल्पनिक आधार पर व्याख्यायित करना रोमांचकारी होता है क्योंकि इस व्याख्या में स्वानुभूति कम होती है इसलिए लेखक के लिए वर्णन करना सरल और सहज रहता है. रचने में कठिन और भयावह तब होता है जब उसका सम्बन्ध स्वयं से हो.

मृत्यु पर बात करते हुए हुए अलबर्ट कामू का उपन्यास The Stranger (अजनबी) अनायास याद आ जाता है. इस उपन्यास का प्रारम्भ भी एक मृत्य से हुआ है. यह मृत्यु कथानायक की माँ से सम्बंधित है. हालाँकि माँ की मृत्यु और उसके अंतिम संस्कार तक का वर्णन पाठक में अजीब बेचैनी पैदा करते हुए भी एक ऊब से भर देता है. प्रारम्भ से अंत तक पूरे उपन्यास में माँ की मृत्यु किसी प्रेत की तरह छायी रहती है. इस मृत्यु-वर्णन से पाठकों में संवेदना उत्पन्न नहीं होती बल्कि क्षोभ सा होता है. ऐसी ही मृत्यु नासिरा शर्मा ने ‘पारिजात’ में रच डाली है. ‘पारिजात’ में कदम-कदम पर मृत्यु हो रही है, किन्तु वहाँ मृत्यु सूचनात्मक अधिक है. शाश्वत होने पर भी मृत्यु का अपना अलग एक वितान है, किन्तु पारिजात में यह वर्णात्मक है इसलिए पाठक इन ब्योरों से भी ऊब जाता है. कहना यह है कि मृत्यु को रचना सहज नहीं होता.

‘क्षमा करो हे वत्स !’ कहानी से गुजरते हुए बरबस निराला और उनकी कविता ‘सरोज स्मृति’ याद आती है. यद्यपि दोनों के सन्दर्भों में पर्याप्त भिन्नता है फिर भी कुछ साम्य भी है. ‘क्षमा करो हे वत्स’ आत्मकथ्य है, ‘सरोज स्मृति’ भी आत्मकथ्य है. दोनों रचनाओं में विधाओं की भिन्नता है. ‘सरोज स्मृति’ कविता है और ‘क्षमा करो हे वत्स!’ एक कहानी है. दोनों का सृजनकर्ता एक पिता है. एक पुत्री का पिता है, एक पुत्र का पिता. दोनों के अपने जीवन-संघर्ष हैं, जो आंतरिक स्तर पर तो भीषण हैं ही साथ ही साथ पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से भी चिंतित करने वाले हैं. कविता के पिता ने अपनी पुत्री को खोया है पर कहानी के पिता ने एक पुत्र को खोया है.

जिन अभावों में सरोज का पालन पोषण हुआ, पिता उससे संतुष्ट नहीं है, वह अपनी ‘शुचिते’ को  ‘चीनांशुक’ न पहना पाने और उसे ‘दधिमुख’ न रख पाने के दुःख से व्यथित हैं. इस कारण पुत्री को उसके ननिहाल भेज देते हैं. सम्भव हैं वहाँ उसकी उचित देख-भाल हो सके. देवेन्द्र के भीतर भी पुत्र को साथ न रख पाने अपराधबोध है. 'गाँव में दूध-दही है. इसकी माँ हैं. फिर ग्रामीण संस्कार भी जरूरी हैं' जैसे तर्क द्वारा वह स्वयं को बचाते हैं और पुत्र से सैकड़ों किलोमीटर दूर यायावरी के साथ अपने दिन काटते हैं. किसी भी पिता के मन में अपनी सन्तान के विवाह को लेकर कुछ अलग ही उमंग होती है. निराला प्रसन्न है, पुत्री के विवाह के लिए योग्य वर की तलाश पूरी होती है और उन्हें अपनी पुत्री की ‘पुष्प-सेज स्वयं रचने’ का सौभाग्य मिलता है. देवेन्द्र इस सुख की कल्पना के अंतिम छोर पर हैं, जहाँ यह परिहास का विषय ही बना हुआ है. उनका वात्सल्य संवाद क्रीड़ाओं से अभिव्यक्त होता है. पिता पुत्र के मध्य हुए संवाद को देवेन्द्र ने इस तरह लिखा है-


''अच्छा बेटा एक बात बताइए. आप किसके पास सोते हैं?''
-''मम्मी के पास.'' - उसने मेरी ओर हँसते हुए देखा.
''नहीं आप यह बताइए कि आप किसकी पत्नी के पास सोते हैं?''

मैंने विनोदमयी संवाद क्रीड़ा शुरू कर दी है. उसकी आँखों में सतर्कता चमकी और वह मुस्कराने लगा - ''आपकी पत्नी के पास सोता हूँ.''

''ठीक! तब मैं भी आपकी पत्नी के पास सोऊँगा. कोई आपत्ति?''
दुकान पर बैठे लोग हँसने लगे. वह शरमा गया - ''मैं शादी ही नहीं करूँगा.''



बात यहीं समाप्त नहीं होती है, बल्कि समयांतर से अंशुल प्रतिप्रश्न करता है- 'यह बताइए कि मेरी पत्नी क्या आपकी माँ लगेगी?' पुत्र के इस शातिर प्रश्न, जोकि एक तरह से उत्तर है, पर पिता को हसीं आ जाती है.

निराला को अपनी पुत्री स्वर्ण स्वरुप लगती है, उसे ननिहाल से अपने घर लाते हुए वह अपने दारिद्र्य पर सकुचा उठते हैं, और कहते हैं- ‘ले चला साथ मैं तुझे कनक/ ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण-झनक’. देवेन्द्र को भी अंशुल असाधारण सा लगता है, इसलिए वह कहते हैं- 'अपना बेटा सभी को अच्छा लगता है. पता नहीं इस वजह से या क्या है. अंशुल मुझे कुछ विलक्षण लगता है.' अंतिम निष्कर्ष के रूप में निराला सरोज के पालन-पोषण के लेकर स्वयं को निरर्थक पिता मानकर कहते हैं- ‘धन्ये, मैं पिता निरर्थक था/ कुछ भी तेरे हित न कर सका!’ इसका कारण यह है कि वे ‘उपार्जन को अक्षम’ हैं और इसी लिए पुत्री का उत्तम पोषण नहीं कर सके. देवेन्द्र अंशुल को लेकर अपराध-बोध से ग्रस्त हैं इसलिए अपने ‘अपराध बोध से बचने के लिए अंशुल से जुड़े सवालों को टाल जाते’ हैं. वह खड़े एकटक देखते हैं नन्हें पैरों के छोटे-छोटे डग भरता अंशुल चला जा रहा था. धूप से जलकर उसके गाल एकदम लाल पड़ गए थे. आँखें डबडबा गईं. दिल में घबराहट सी होने लगी.' फिर से वह अपराध-बोध और पश्चाताप से बेचैन हो जाते हैं.

निराला की पुत्री ने उन्नीसवें वर्ष में प्रवेश किया है. अपनी संतान को युवा होते देखने की चाह किस पिता में नहीं होती ? इस मामले में निराला देवेन्द्र से कुछ अधिक समृद्ध कहे जा सकते हैं कि उन्होंने ‘बाल्य की केलियों का प्रांगण’ पार करती ‘कुंज-तारुण्य सुघर’ होती और ‘लावण्य-भार’ से ‘थर-थर काँपते कोमलता पर सस्वर’ द्वारा दिनों दिन बढ़ती अपनी पुत्री को निहारने का सुख प्राप्त किया था. सन्तति की बाल-क्रीडाओं से कवि का उर प्रफुल्लित होता है. छोटी सी बालिका यौवन के द्वार पर दस्तक दे रही है. पिता इस बसंत का मुक्तकंठ से स्वागत करता है. देवेन्द्र इस सम्पूर्ण सुख से वंचित पिता हैं. पुत्र की बाल क्रीड़ाओ को देखने का अवसर उनकी बेरोजगारी लील गयी, जो कुछ बचा वह समय के हाथों स्वाहा होता गया.

सरोज की मृत्यु का कोई एक कारण उत्तरदायी नहीं था, लेकिन बहुत से कारण उसके हत्यारे हो सकते हैं. हत्यारे को लेकर सरोज की मृत्यु कोई बहुत बड़ा प्रश्न अनुत्तरित छोड़ कर नहीं गयी थी (यह बात अलग है कि निराला ने अन्य के साथ ही दुलारे लाल भार्गव को भी इस मृत्यु का कम जिम्मेदार नहीं माना). लेकिन अंशुल की मृत्यु के प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं. अंशुल (कोलंबस, उपमन्यु) को किसने मारा ? हत्यारा कोई तो है, पड़ोस में है, समाज में है, हम में और आप में हैं, लेकिन कौन है ? सभी हत्यारे हैं लेकिन कोई भी हत्यारा नहीं है. तब फिर इस मृत्यु का जिम्मेदार कौन है ? हम, आप, पड़ोस, समाज, राज्य, क़ानून या हमारी न्याय व्यवस्था ? ऐसी अनगिनत घटनाओं से दिन पर दिन जर्जर होता जा रहा एक ऐसा देश जिसकी, न्यायपालिका से सामान्य जन का विश्वास उठ चुका है, उससे देवेन्द्र प्रश्न करते हैं-

‘जज साहबान! आप मुझसे बार-बार अपराधी की सच्ची शिनाख्त माँगते हैं. हम कहाँ से वे गवाह लाएँगे जिन्होंने हत्या करते देखा हो. अगर यही होता तो हत्या क्यों हो पाती? उसकी खोपड़ी पर माँस तक नहीं है, लेकिन आप कहते हैं कि एकदम सच्ची पहचान होनी चाहिए. अंशुल की हत्या हुई है. हत्या किसने की है? यह रहस्य आप नहीं खोल पाते जबकि सुरक्षा और न्याय देने का ठेका आपने ले रखा है. बहुत सीधा-सा तर्क है जिस काम के लिए हम सौंपे गए हैं अगर उसे नहीं कर पाते तो उससे अलग हट जाना चाहिए. अगर हम ऐसा नहीं करते तो निठल्ले और बेईमान बनने से बच नहीं सकेंगे.’

किन्तु यह अरण्य रोदन कहाँ किसी के कानों तक पहुंचा. अपने एकलौते पुत्र को खो कर एक पिता न्यायमूर्ति से यह कहने के लिए बाध्य है कि- ‘मैं असली अपराधी आपको मानता हूँ.’ इसे झुठलाया नहीं जा सकता.

भारतीय चुनावों का अपना रक्त रंजित इतिहास रहा है. चुनाव की आड़ में कितनी पुरानी रंजिशों का निपटारा हो जाता है, इस बात के आंकड़े काल्पनिक ही रहेंगे, क्योंकि इनका कहीं कोई हिसाब ही नहीं होता है. पंचायती चुनावों की स्थिति पर देवेन्द्र लिखते है- ‘समूचा प्रदेश अपने सीमित मताधिकार के जरिए जनतंत्र का स्वप्न देखकर खून में सराबोर हो चुका है. सरकार ने थानों को सख्त हिदायत दे रखी है कि चुनावी झगड़ों को कतई दर्ज न किया जाए. अगर किसी झगड़े का दर्ज होना बेहद जरूरी ही हो जाए तो उसका स्वरूप बदल दिया जाए. 'प्रापर्टी विवाद' अथवा 'प्रेम-प्रसंग'. कोई भी नाम दिया जा सकता है.’ ऐसी भयावह स्थिति में बड़े से बड़ा अपराध भी कितनी निश्चिंतता से किया जा सकता है इसका ज्वलंत प्रमाण अंशुल की हत्या है.

भारतीय सामाजिक संरचना कुछ निश्चित सावयवो पर आधारित है जिनमें व्यक्ति, परिवार, उनकी अन्तःक्रियाएं, उनके मध्य होने वाले मानवीय क्रियाकलाप जैसे उनके आचरण, सामाजिक सुरक्षा और परस्पर स्नेह व सहयोग भाव आवश्यक हैं. यद्यपि समाज को व्यक्ति के सन्दर्भ में एक आवश्यक इकाई माना जाता है लेकिन दुर्खीम ने सामाजिक संरचना में व्यक्ति को गौण माना है, फिर भी उनके आपसी सहयोग के सम्बन्ध को नकारना मुश्किल है. कहना यह है कि समाज व्यक्तियों के समूह और कुछ नैतिक सम्बन्धों से बनता है लेकिन अगर इस कहानी के सन्दर्भ में समाज की परिभाषा की जाए तो कोई निष्कर्ष निकालने में समाजशास्त्रियो को भी दोबारा सोचना होगा. देवेन्द्र की कहानियों में समाज अपनी संरचना में पूरी तरह से असफल रहा है. वह कौन सा समाज है जिसमें देवेन्द्र रहते हैं ?


बनारस से लेकर मरदह (गाँव) और लखीमपुर से लेकर पिपनार (गाँव) तक फैला  समाज और उसके ‘नपुंसक चरित्र हत्याओं का समूह अपनी प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न भूमिका में सक्रिय और तत्पर था. मित्र बन कर ही किसी ने अंशुल की हत्या की थी. ये लोग भी मेरे मित्र थे. इस समय ये मेरे सामने छिन्न-भिन्न पड़ी बेटे की अस्थियाँ थीं और माथे पर लाश हो चुकी पत्नी को बचाने की जिम्मेवारी. लेकिन मेरे मित्रगण हत्या, प्रेम-प्रसंग, बलात्कार आदि की सनसनीखेज तस्वीरें बनाने में मशगूल थे. ये लोग वर्षों मेरे साथ रहे हैं. मेरे बारे में उनकी सोच यही थी... असहायता और अपमान के बोझ से तिल-तिल टूटता बिखरता मैं माथा पकड़ कर लंका की सड़क पर बैठ गया.’ व्यक्ति जो मित्र है और जिससे समाज का निर्माण हुआ है, उसकी नैतिकता और मूल्य यहाँ पतन के चरम पर हैं.

व्यक्ति समाज का प्रमुख अंग है. उसकी सोच के निर्धारण में सामाजिक घटनाओं की मुख्य भूमिका रहती है. समाज से ही व्यक्ति में सामुदायिकता की भावना का विकास होता है. व्यक्ति के भीतर आस्था और विश्वास जन्म लेते हैं, परस्पर सौहार्द्य पनपता है. पुत्र की हत्या के साथ ही देवेन्द्र के भीतर से इन सब कोमलतम भावों की भी हत्या हो जाती है. इस हत्यारे समय में, जबकि प्रतिदिन हमारे मूल्यों, मान्यताओं और संवेदनाओं की निर्मम हत्या की जा रही तब कोई भी व्यक्ति खुद की आस्था को कैसे बचा सकता है ? देवेन्द्र भी इसका अपवाद नहीं बनते है, और लिखते हैं- ‘ईश्वर और उसके नियमों में मेरी कोई आस्था नहीं रह गई है...असंग जीवन की निर्मम तटस्थता मेरे प्राण-प्राण में समा गई है. सामाजिक संबंधों की कोई चाह नहीं. स्मृतियों और सपनों के असंख्य दंश से क्षत-विक्षत कैसा होता जा रहा है मेरा जीवन.’

पुत्र की मृत्यु ही वह कारण है जिसने देवेन्द्र को मृत्यु से इतना निर्विकार कर दिया कि वह उनकी कथाओं का अनिवार्य हिस्सा बन गयी. ‘एक खाली दिन’ में पति की मृत्यु पर पूरी तरह उदासीन पत्नी है. जो पति के शव को श्मशान में रख कर रेस्टोरेंट में में भरपेट खाना खाती है, और वेटर को विशेष रूप से फ्रिज़ में रखा ठंडा आम लाने के लिए कहती है. ‘स्वान्तः सुखाय’ कहानी का पुत्र है, जो पिता की मृत्यु की सूचना मिलने पर सोचता है कि घर जाने से पहले अपनी गर्लफ्रेंड के साथ सिनेमा ही देख लेने में क्या बुराई है. संभव है कि पुत्र की हत्या ने ही देवेन्द्र को हत्या की मनोवृत्तियों पर सोचने पर विवश कर दिया हो और तब से वह निरंतर हत्याओं पर विभिन्न द्रष्टिकोण से सोचने पर बाध्य हुए हों. इसी भीषण अनुभव से गुजर कर ही वह हत्या को लेकर एक नया दर्शन गढ़ देते हैं. उनकी ‘समय-बेसमय’ और ‘रंगमंच पर थोड़ा रूक कर’ दोनों ही कहानियों में हत्या होती है, दोनों में हत्यारे का चरित्र भिन्न है. जैसे— इस हत्यारे समय में रहते हुए अगर आप हत्या करना नहीं जानते तो तय मानिए दूसरे लोग आपकी हत्या कर डालेंगे .’ ‘मरना सचमुच कितना भयानक होता है, हत्यारों को अवश्य ही यह जानना चाहिए.’ (रंगमंच पर थोड़ा रुककर ) ‘क्या इतना दहशत भरा होता है आदमी का मरना.’ ‘मृत्यु से हजार गुना भयावह होता है मृत्यु का खौफ.

वहाँ सिर्फ आदमी नहीं मरता है. आदर्श, विचार, आस्थाएँ तिल-तिल कर धीरे धीरे सबकी मृत्यु होती जाती है. मनुष्यता मरती है इस तरह.(रंगमंच पर थोड़ा रुककर) ‘हत्या करने वाले एकदम दूसरे ढंग के आदमी होते होंगे. वह किसी हत्यारे को बहुत करीब से देखना, जानना और समझना चाहता था. वह उसके सपनों के बारे में जानना चाहता था.... हत्यारे के लिए पुलिस, कानून और जेल इन सबसे ज्यादा खतरनाक उसके अपने सपने होते होंगे. चालाक से चालाक आदमी अपने को जेल, कानून और पुलिस से भले ही बचा ले, लेकिन नींद और सपनों को लेकर वह क्या करेगा?’ और यह भी कि ’कोई किसी की हत्या कैसे कर सकता है! उसे विश्वास करने में मुश्किल हो रहा था कि आराम से बस में सफर करने वाला आदमी हत्यारा हो सकता है - एकदम आम लोगों के बीच आम आदमियों की ही तरह. उसके लेखे हत्यारे रात के अँधेरे में दबे पाँव निकलने वाले कुछ-कुछ विचित्र और भयावने होते होंगे. उनकी आँखें लाल होती होंगी. भेड़िये की तरह चालाक और चौकन्ने वे लोग कभी हँसते नहीं होंगे. न उनकी स्मृतियाँ होती होंगी, न सपने. यह कैसा, जो आराम से बस में सफर कर रहा है. पान खा रहा है, और ऊँची-ऊँची आवाज में बात कर रहा है. (समय बे-समय) ऐसा चिंतन उनकी कहानियों में बिखरा पड़ा है.

जीवन में आये इस भीषण झंझावात से निकल कर और एक दुःस्वप्न को साथ ले कर देवेन्द्र ‘लखीमपुर जाने वाली एक बस में अपने शरीर को रख देते हैं.’ उनके कान में अंशुल के शब्द कविता के रूप में गूंजते हैं- ‘हम अब कभी और कहीं नहीं मिलेंगे पापा!!’ मानो वर्ड्सवर्थ ने सूचना दी हो- But the sweet face of Lucy Gray/ Will never more be seen’. कहानी की अंतिम पंक्ति है- ‘एक क्षत-विक्षत घर से निकल कर मैं पुनः अपने एकांत और निरापद मकान पर लौट आया इस प्रार्थना के साथ कि- 'हे भगवान! मुफ्त के उपदेशकों से बचा सको तो जरूर बचाए रखना.' रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ‘चित्त जेथा भयशून्य’ का एक पद है- जेथा तूच्छ आचारेर मरू-वालू-राशि/ विचारेर स्रोतपथ फेले नाइ ग्रासि-/ पौरूषेरे करनी शतधा नित्य जेथा तुमि/ सर्व कर्म चिंता-आनंदेर नेता’ (जहाँ विचारों की सरिता/ तुच्छ आचारों की मरू भूमि न खोती हो/ जहाँ पर सभी कर्म, भावनाएँ, आनंदानुभुतियाँ/ तुम्हारे अनुगत हों...’)(अनुवाद शिवमंगल सिंह ‘सुमन’) और उस स्थान पर पहुँचाने की प्रार्थना जहाँ चित्त भयशून्य हो जाए. सम्भवतः देवेन्द्र के लिए ऐसा कोई स्थान सृष्टि पर नहीं रहा होगा. लखीमपुर तो कर्मक्षेत्र था, वहाँ तो उन्हें पहुंचना ही था, पर जानने वाले जानते हैं कि देवेन्द्र ने लखीमपुर में क्या खोया और क्या पाया है.


कौन विश्वास करेगा कि इस कहानी को लिखने के बाद कथाकार ने स्वयं इस कहानी को दोबारा कभी नहीं पढ़ा, याकि कहा जा सकता है कि वह इसे गढ़ने के बाद फिर पढ़ ही न सके. कारण, इस कहानी को लिखने में उन्हें जिस भीषण मानसिक यंत्रणा और पीड़ा से गुजरना पड़ा होगा, उससे दोबारा गुजरने में स्वयं को अक्षम पाते होंगे. उनके भीतर तो इस कहानी के सृजन के साथ ही कलमतोड़ देने का एक प्रण था जो समय के साथ टूट गया (जो भला ही रहा). उनके भीतर लगातार इस बात का संघर्ष चलता रहा कि हत्यारे ने अंशुल की हत्या करके अधिक से अधिक क्या किया ? उसकी सत्तर या अस्सी वर्ष की उम्र खत्म कर दी. यह तो आने वाला वक्त ही निर्धारित करेगा कि कोलंबस कितनी शताब्दियों तक इतिहास में कितने प्रसंगों में, कितनी बार याद किया जाता रहेगाऔर चूँकि जैसा कि देवेन्द्र ने कहानी में लिखा है कि- 

मेरे पास कवि की कल्पना है और लुहार की भट्ठी. शब्दों का साथी मैं उन्हें मन मुताबिक जब, जहाँ जैसे चाहूँगा ढाल लूँगा.’ और उन्होंने ढाल भी दिया.
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  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (23-01-2019) को "अब G+ खत्म होने वाला है" (चर्चा अंक-3225) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. 'क्षमा करो हे वत्स' 'हंस' के 1995 के जिस अंक में प्रकाशित हुई थी , वह मेरा उस पत्रिका का या किसी भी साहित्यिक पत्रिका का पहला अंक था जिसे मैंने उत्सुकता वश खरीदकर पढ़ा था , ��, और उसके बाद हंस अबतक नियमित है अपनी पढान में . भौतिकी गणित की दुनिया से निकले एक युवा का सामाजिक सरोकारों वाले साहित्य से प्रथम सामना जैसे

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  3. उफ्फ, कितनी ह्रदयविदारक और मार्मिक कथा है।अल्पना जी ने इसे उसी तन्मयता और मार्मिकता से पकड़ा भी है।शानदार।

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  4. अच्छा लिखा है आपने। कायदे से पढ़ कर लिखा है । वैसे देवेंद्र जी के लिए उनकी दो कहानियां ही पर्याप्त है ।
    हिंदी साहित्य में इन्हीं दो कहानियों की वजह से देवेंद्र जी जाने जाएंगे। नालंदा पर गिद्ध और क्षमा करो हे वत्स।

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