कथा- गाथा : नुरीन : प्रदीप श्रीवास्तव

(by david-lambertino)









साहित्य में शामिल होने का रास्ता यह है कि प्रसिद्ध पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ छपें, छपती रहें, महत्वपूर्ण किसी प्रकाशक से आपका संग्रह निकले. विमोचन आदि हो, समीक्षाएं छपें और फिर बड़े लेखक-आलोचक आपकी कहीं कुछ चर्चा कर दें. एक-दो जगह आपको बोलने के लिए बुला 
लिया जाए, एकाध सम्मान मिल जाए आदि. इसे ही मुख्यधारा कहते हैं.


ऐसे बहुत से लेखक भी हैं जिनकी रचनाएँ किसी बड़ी पत्रिका में नहीं छपतीं  उनका संग्रह कोई बड़ा प्रकाशक नहीं छापता. वे अपने खर्चे से अपना संग्रह प्रकाशित कराते हैं, कोई परिचित लेखक उसकी भूमिका लिख देता है और वे अपना संग्रह लेखकों-संपादकों और मित्रों को इस प्रत्याशा से भेजते हैं कि कोई उसे पढ़ ले. यह भी एक बड़ी दुनिया है. साहित्य की यह भी एक धारा है.


इसका भी लेखा-जोखा किसी आलोचक-इतिहासकार को रखना चाहिए. आधुनिक हिंदी साहित्य में इस धारा का इतिहास नहीं लिखा गया है. कला के स्तर पर इस धारा में सौष्ठव की कमी और विचारों की अपरिपक्वता फिर भी दिखे पर जो समाज का निम्नवर्गीय प्रसंग है वह यहाँ सच्चाई से सामने आता है.


प्रदीप श्रीवास्तव का कहानी संग्रह ‘मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां’ मार्च २०१८ में मुझे मिला. इसे उन्होंने खुद ही छपवाया है. साथ में कुछ कहानियां भी उन्होंने भेजी. दो समीक्षाएं भी भिजवाई. पर समालोचन इन्हें प्रकाशित करने से बचता रहा.


उनकी यह नई कहानी प्रकाशित करते हुए मुझे यह कहना है कि भले ही यह कहानी ढीली है और इसमें समकालीन कथा का तेज़–तरार्र मुहावरा नहीं है. पर समाज की कटु वास्तविकता तो है ही. कैंसरग्रस्त पिता, लाचार दादा और क्रूर माँ के बीच नुरीन जो कर रही है क्या पता ऐसी कई  लडकियाँ इसी समय में कर रही हों.


नुरीन
प्रदीप श्रीवास्तव



नुरीन होश संभालने के साथ ही अपनी अम्मी की आदतों, कामों से असहमत होने लगी थी. जब कुछ बड़ी हुई तो आहत होने पर विरोध भी करने लगी. ऐसे में वह अम्मी से मार खाती और फिर किसी कमरे के किसी कोने में दुबक कर घंटों सुबुकती रहती. दो-तीन टाइम खाना भी न खाती. लेकिन अम्मी उससे एक बार भी खाने को न कहती. बाकी चारो बहनें उससे छोटी थीं. जब अम्मी उसे मारती थी तो वह बहनें इतनी दहशत में आ जातीं कि उसके पास फटकती भी न थीं. सब अम्मी के जोरदार चाटों, डंडों, चिमटों की मार से थर-थर कांपती थीं. वह चाहे स्याह करे या सफेद, उसके अब्बू शांत ही रहते. अम्मी जब आपा खो बैठतीं, डंडों, चिमटों से लड़कियों को पीटतीं तो बेबस अब्बू अपनी एल्यूमिनियम की बैशाखी लिए खट्खट् करते दूसरी जगह चले जाते.

उनकी आंखें तब भरी हुई होती थीं. जिन्हें वह कहीं दूसरी जगह  बैठ कर अपने कुर्ते के कोने से आहिस्ता से पोंछ लेते. वह पूरी कोशिश  करते थे कि कोई उन्हें ऐसे में देख न ले. लेकिन अन्य बच्चों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील  नुरीन से अक्सर वह बच नहीं पाते थे. तब नुरीन चुपचाप उन्हें एक गिलास पानी थमा आती थी. खुद पिटने पर वह ऐसा नहीं कर पाती थी. उसे अब्बू की हालत पर बड़ा तरस आता था.

छह साल पहले एक दुर्घटना में उनका एक पैर बेकार हो गया था. कई और चोटों के कारण वह ज़्यादा देर बैठ भी नहीं सकते थे. रही-सही कसर मुंह के कैंसर ने पूरी कर दी थी. तंबाकू-शराब के चलते कैंसर ने मुंह को ऐसा जकड़ा था कि जबड़े के कुछ हिस्से से लेकर जुबान का भी अधिकांश हिस्सा काट दिया गया था. जिससे वह बोल भी नहीं सकते थे. उनकी इस दयनीय स्थिति पर भी अम्मी उन्हें लताड़ने-धिक्कारने, अपमानित करने से बाज नहीं आती थी. शायद ही कोई ऐसा सप्ताह बीतता जब वह अब्बू को यह कह कर ना धिक्कारती हों कि ये पांच-पांच लड़कियां पैदा कर के किसके भरोसे छोड़ दी, कौन पालेगा इनको, तुम्हारा बोझ ढोऊं कि इन करमजलियों का, अंय बताओ किस-किस को ढोऊं. जब अब्बू उनकी इन जली-कटी बातों पर प्रश्नों और लाचारी से भरी आंखों से देखते तो अम्मी किचकिचाती हुई यह भी जोड़ देती अब हमें क्या देख रहे हो जब कहती थी तब समझ में नहीं आया था, तब तो दारू भी चाहिए, मसाला भी चाहिए, खाओ, अब हमीं को चबा लो.यह कहते हुए अम्मी पैर पटकती, धरती हिलाती चल देती थी. और अब्बू बुत बने बैठे रहते.

नुरीन को अम्मी की बातें, गुस्सा कभी-कभी कुछ ही क्षण को ठीक लगता था कि अब्बू के बेकार होने के बाद घर-बाहर का सारा काम उन्हीं के कंधों पर आ गया. घर के उनके कामों में जहां अब्बू को कपड़े पहनने में मदद करना तक शामिल है वहीं बाहर का सारा काम, सारे बच्चों के स्कूल के झमेले और फिर दिन में तीन बार आरा मशीन पर जाना. पहले दादा को आरा मशीन पर पहुंचाना, फिर दोपहर का खाना देने जाना, शाम को उनको घर ले आना. अब्बू के बेकार होने के बाद दादा एक बार फिर से आरा मशीन  का अपना पुश्तैनी धंधा देखने लगे थे. नौकरों के सहारे बड़ा नुकसान होने के कारण उन्होंने मजबूरी में यह कदम उठाया था कि चलो बैठे रहेंगे तो कुछ तो फर्क पडे़गा.

नुरीन हालांकि घर के कामों में अम्मी की बहुत मदद करती थी. उम्र से कहीं ज़्यादा करती थी. इसके चलते उसकी पढ़ाई भी डिस्टर्ब होती थी. ऐसे माहौल में नुरीन को कभी अच्छा नहीं लगता था कि कोई मेहमान उसके घर पर आए. लेकिन मेहमान थे कि आए दिन टपके ही रहते थे. शहर के अलग-अलग हिस्सों में सभी रिश्तों की मिला कर उसकी छह से ज़्यादा फुफ्फु और इनके अलावा चाचा और ख़ालु थे. इन सबमें उसे सबसे ज़्यादा अपने छोटे ख़ालु का आना खलता था. वह न दिन देखें ना रात जब देखो टपक पड़ते थे. बाकी और जहां परिवार के सदस्यों को लेकर आते थे. वहीं वह अकेले ही आते थे.

अब्बू के एक्सीडेंट के समय जहां कई रिश्तेदारों ने बड़ी मदद की थी वहीं इस ख़ालु ने खाना-पूर्ती करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. अब्बू के कैंसर के इलाज के वक़्त भी यही हाल था. नुरीन को अपने इस ख़ालु के चेहरे पर मक्कारी-धूर्तता का ही साया दिखता था. वह चाहती थी कि अम्मी भी ख़ालु की इस धूर्तता को पहचानें. उसे बड़ा गुस्सा आता जब वह अम्मी के साथ अकेले किसी कमरे में बैठकर हंसी-मजाक करता, बतियाता, चाय-नाश्ता करता. और अब्बू अलग-थलग किसी कमरे में अकेले बैठे सूनी-सूनी आंखें लिए दीवार या किसी चीज को एक टक निहारा करते. उस वक़्त उसका मन ख़ालु का मुंह नोच लेने का करता जब वह अम्मी के कंधों पर हाथ रखे बगल में चलता हुआ रसोई तक चला जाता. या फिर जब वह दोनों कमरे में बातें कर रहे होते तो उसके या किसी बहन के वहां पहुंचने पर अम्मी गुस्से से चीख पड़तीं.

उसे यह भी समझने में देर नहीं लगी थी कि उसकी ही तरह अब्बू भी अंदर-अंदर यह सब देख कर बहुत चिढ़ते हैं. मगर उनकी मज़बूरी यह थी कि वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं सकते थे. दादा की कुछ चलती नहीं थी. घर चलता रहे इस गरज से वह बेड पर आराम करने की हालत में हिलते-कांपते आरा-मशीन का धंधा संभालते थे. उन्हें मौत के करीब पहुंच चुके अपने बेटे के इलाज की चिंता सताए रहती थी. वैसे भी अब्बू के इलाज के चलते घर अब तक आर्थिक रूप से बिल्कुल टूट चुका था. बाकी दोनों बेटे मुंबई में धंधा जमा लेने के बाद से घर से कोई खास रिश्ता नहीं रख रहे थे. इन सबके बावजूद उनकी हिम्मत पस्त नहीं हुयी थी. तमाम लोगों का बड़ा भारी परिवार होने के बावजूद वह खुद को एकदम तन्हा ही पाते थे. मगर फिर भी उनकी हिम्मत में कमी नहीं थी.

नुरीन उनके इस जज्बे को सलाम करती थी. और अब्बू के साथ-साथ दादा की सेवा में भी कोई कसर नहीं छोड़ती थी. वह दादा से कई बार बोल चुकी थी कि दादा उसे काम-धंधे में हाथ बंटाने दें. लेकिन दादा बस यह कह कर मना कर देते कि बेटा मैं अपने जीते जी तुम्हें लकड़ी के इस धंधे में हरगिज नहीं आने दूंगा. दुकान पर मर्दों की जमात रहती है. वहां तुम्हारा जाना ठीक नहीं है. दादा की इस बात पर वह चुप रह जाती और मन ही मन कहती दादा वहां तो बाहरी मर्दों की जमात से आप मेरे लिए खतरा देख रहे हैं. लेकिन घर में धूर्तों की जो जमात आती रहती है उसमें मैं कितनी सुरक्षित हूं इस पर भी तो कभी गौर फरमाइए.

यह सोचते-सोचते उसकी आंखें भर आतीं कि अब्बू देख कर भी कुछ करने लायक नहीं हैं और दादा घर में धूर्तों की जमात पहचानने लायक नहीं रहे. वह हर ओर अंधेरा ही अंधेरा देख रही थी. इस अंधेरे को दूर करने की वह सोचती और इस कोशिश में घर के ज़्यादा से ज़्यादा काम करने के बावजूद जी जान से पढ़ाई करती. अपनी बहनों को भी पढ़ने के लिए बराबर कहती और बहनों को अपने साथ एक जगह रखती. रिश्तेदारों से दूर रहने की कोशिश करती. घर के इस अंधेरे में दरवाजों, कोनों, दीवारों से टकराते, गिरते-पड़ते उसने ग्रेजुएशन कर लिया. इस पर उसने राहत महसूस की और सोचा कि आगे की पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी भी तलाशेगी.

ग्रेजुएशन  किए अभी दो-तीन महिना भी ना बीता था कि पूरे घर पर कहर टूट पड़ा. एक दिन अब्बू के मुंह से खून आने पर जांच कराई गई तो पता चला कि कैंसर तो गले में भी फैला हुआ है और लास्ट स्टेज में है. और अब्बू का जीवन चंद दिनों का ही रह गया है. यह सुनते ही दादा को तो जैसे काठ मार गया. नुरीन को लगा कि जैसे दुनिया ही खत्म हो गई. अब्बू भले ही अपाहिज हो गए थे. गूंगे  हो गए थे. लेकिन एक साया तो था. अब्बू का साया. अम्मी और वह दोनों अब्बू को लेकर फिर पी.जी.आई., लखनऊ के चक्कर लगाने लगी थीं. अब अम्मी को देख कर नुरीन को ऐसा लगा कि मानो अम्मी के लिए यह एक रूटीन वर्क है. अब्बू की सामने खड़ी मौत से जैसे उन पर कोई खास फ़र्क नहीं था. मानो वह पहले ही से यह सब जाने और समझे हुए थीं कि यह सब तो एक दिन होना ही था. जल्दी ही पी.जी.आई. के डॉक्टरों ने निराश हो कर अब्बू को घर भेज दिया. कहा कि ऊपर वाले पर भरोसा रखें. अब हमारे हाथ में कुछ नहीं बचा. आप चाहें तो टाटा इंस्टीट्यूट, मुंबई ले जा सकती हैं. यह सुन कर अम्मी एकदम शांत हो गईं. भावशून्य हो गया उनका चेहरा. वह खुद रो पड़ी थी. पिछली बार जिन रिश्तेदारों ने पैसे आदि हर तरह से सहयोग किया था. वही सब इस बार खानापूर्ति कर चलते बने.

पैसे की तंगी पहले से ही थी. ऐसे में लाखों रुपए अब और कहां से आते कि अब्बू को इलाज के लिए मुंबई ले जाते. सबने एक तरह से हार मान ली. अब पल-पल इस दहशत में बीतने लगा कि वह मनहूस पल कौन सा होगा जिसमें मौत अब्बू को छीन ले जाएगी. इधर कहने को दी गईं दवाओं का कुछ भी असर नहीं था. अब मुंह में खून, भयानक पीड़ा से अब्बू ऐसा कराहते कि सुनने वालों के भी आंसू आ जाएं. इस बीच नुरीन ने देखा कि वह मनहूस ख़ालु अब आ तो नहीं रहा लेकिन फ़ोन पर अम्मी से पहले से ज़्यादा बातें करता रहता है. अब्बू की इस हालत और ख़ालु की कमीनगी से नुरीन का खून खौल उठता था.

वह अब दादा की आंखों में भी गहरा सूनापन देख रही थी. उन्होंने मुंबई में अपने बाकी बेटों को फ़ोन किया कि तुम्हारा एक भाई मौत के दरवाजे पर खड़ा है. तुम लोग मदद कर दो तो किसी तरह मुंबई भेज दूँ, वहां उसका इलाज करा दो. मगर उन बेटों ने मुख्तसर सा जवाब दिया कि अब्बू यहां इतनी मुश्किलात हैं कि हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे. डॉक्टर, हॉस्पिटल तो वहां भी बहुत अच्छे से हैं. वहीं कोशिश करिए.

दादा को इन बेटों से इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं थी. मगर उम्मीद की हर किरण की तरफ वह आस लिए बेतहाशा दौड़ पड़ते थे. नुरीन भी दादा के साथ ही दौड़ रही थी. बल्कि वह उनसे भी आगे निकल जाने को छटपटाती थी. तो इसी छटपटाहट में उसने मुंबई में चाचाओं को खुद भी फ़ोन लगाया कि आप लोग अब्बू को बचा लें. वह ठीक हो जाएंगे तो आप सबके पैसे हर हाल में दे देंगे. नुरीन जानती थी कि उसके चाचा इतने सक्षम हैं कि अब्बू का मुंबई में आसानी से इलाज करा सकते हैं. मगर उन चाचाओं ने नुरीन की आखिरी उम्मीद का सारा नूर खत्म कर दिया.

हार कर वह अम्मी से बोली थी कि एक बार वह भी चाचाओं से बोले. लेकिन वह तो जैसे अंजाम का इंतजार कर रही थीं. नुरीन की बात पर टस से मस नहीं हुईं . कुछ बोलती ही नहीं. बुत बनी उसकी बात बस सुन लेती थीं. नुरीन हर तरफ से थक हार कर आखिर में दादा के पास पहुंची. उनके हाथ जोड़ फफक कर रो पड़ी कि दादा अब्बू को बचा लो. सबने साथ छोड़ दिया दादा. अब आप ही कुछ करिए. अब तो अम्मी भी कुछ नहीं बोलती. दादा बिना अब्बू के कैसे रहेंगे हम लोग.

नुरीन को दादा पर पूरा यकीन था कि वह कितना भी जर्जर हो गए हैं, लेकिन फिर भी वह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वालों में नहीं हैं. कोई न कोई रास्ता निकालने की कोशिश जरूर करेंगे. नुरीन के आंसू उसकी सिसकियों को सुन कर दादा भी रो पड़े थे. मगर जल्दी ही अपने आंसू पोंछते हुए बोले अल्लाह-त-आला पर भरोसा रख बच्ची वह बड़ा रहम करने वाला है, तेरे आंसू बेकार ना जाएंगे मेरी बच्ची. इस पर नुरीन बोली थी लेकिन दादा लाखों रुपए कहां से आएंगे. कोई रास्ता तो नहीं दिख रहा. सबने मुंह मोड़ लिया है. दादा वक़्त बिल्कुल नहीं है. नुरीन को दादा ने तब बहुत ढाढ़स बंधाया था. लेकिन खुद को लाचार समझ रहे थे.

पैसे का इंतजाम कहीं से होता दिख नहीं रहा था. उस दिन वह रात भर जागते रहे. पैसे का इंतजाम कैसे हो इसी उधेड़बुन में फजिर की अजान की आवाज़ उनके कानों में पड़ी. वह उठना चाह रहे थे. लेकिन उनको लगा जैसे उनके शरीर में उठने की ताब ही नहीं बची. बड़ी मुश्किलों बाद कहीं वो उठ कर बैठ सके. उस दिन पूरी ताकत लगा कर वह बहुत दिनों बाद नमाज के लिए खुद को तैयार कर सके.

नमाज अता कर वह बैठे ही थे कि नुरीन फिर उनके सामने खड़ी थी. उसने आंगन की तरफ खुलने वाली कमरे की दोनों खिड़कियां खोल दी थीं. कमरे में अच्छी खासी रोशनी आने लगी थी. वह दादा के लिए कॉफी वाले बड़े से मग में भर कर चाय और एक प्लेट में कई रस लेकर आई थी.

वह दादा को बरसों से यही नाश्ता सुबह बड़े शौक से करते देखती आ रही थी. खाने-पीने के मामले में उसने दादा के दो ही शौक देखे थे एक चाय के साथ बर्मा बेकरी के रस खाने और हर दूसरे-तीसरे दिन गलावटी कबाब के साथ रुमाली रोटी खाने का. जब खाते वक़्त कोई मेहमान साथ होता तो वह यह कहना ना भूलते कि भाई इस शहर के गलावटी कबाब और इस रुमाली रोटी का जवाब नहीं. लोग भले ही काकोरी के गलावटी कबाब को ज़्यादा उम्दा मानें लेकिन मुझे तो यही लज़ीज़ लगते हैं.

यदि कोई कहता कि अरे काकोरी लखनऊ से कौन सा अलग है. तो वह जोड़तेजाना तो जाता है काकोरी के नाम से ही ना. फिर वह शीरमाल और मालपुआ की भी बात करते. नुरीन को अच्छी तरह याद है कि दादा ने कई बार यह भी कहा था कि अगर मुझे कोई दूसरी जगह तख्तो-ताज भी दे दे और वहां गलावटी कबाब न हो तो मैं वहां ना जाऊं.जब मुंह में डेंचर लग गए तो कहते इस डेंचर ने सारा स्वाद ही बिगाड़ दिया.

नुरीन ने दादा को अब्बू के पहले ऑपरेशन के बाद पल भर में अपनी इस प्रिय चीज को हमेशा के लिए त्यागते देखा था. तब उन्होंने यह कहते हुए कबाब, रोटी से भरी प्लेट हमेशा के लिए सामने से परे सरका दी थी कि जब यह मेरे बेटे के गले नहीं उतर सकती तो मैं इसे कैसे खा सकता हूं.

उस दिन के बाद नुरीन ने दादा को इस ओर देखते भी ना पाया. आज उन्हीं दादा ने रस भी खाने से साफ मना कर दिया. कहा नुरीन बेटा अब कभी मेरी आंखों के सामने यह ना लाना.उन्होंने कांपते हाथों से चाय उठाकर पीनी शुरू कर दी थी. उन्होंने इसके आगे कुछ नहीं कहा था लेकिन नुरीन ने उनकी भरी हुई आंखें देख कर सब समझ लिया था. फिर जल्दी से कुछ बिस्कुट लाकर उनके सामने रखते हुए कहा दादा बिस्कुट भी खा लीजिए, खाली पेट चाय नुकसान करेगी. नुरीन के कई बार कहने पर उन्होंने एक बिस्कुट खाया फिर भर्रायी आवाज़ में उससे अब्बू के बारे में पूछा. नुरीन बोली रात भर दर्द के मारे कराहते रहे. घंटे भर पहले ही सोए हैं. नुरीन की सूजी हुई आंखें देख कर उन्होंने पूछा था तू भी रात भर नहीं सोई.नुरीन ने साफ बोल दिया कि कैसे सोती दादा, अब्बू के पास कोई भी नहीं था. अम्मी बोलीं थी कि उनकी तबियत ठीक नहीं है. वो दूसरे कमरे में सो रही थीं. अभी कुछ देर पहले ही उठी हैं.

दादा को चुप देख कर नुरीन फिर बोली दादा अब्बू का इलाज कैसे होगा. सबने साथ छोड़ दिया है. तब वह बोले ठीक है बेटा सबने साथ छोड़ दिया है लेकिन अभी मेरी हिम्मत ने साथ नहीं छोड़ा है. मेरी उम्मीद अभी नहीं टूटी है. अपने सामने अपने बेटे को बिना इलाज मरने नहीं दूंगा. भले ही मकान-दुकान बेचने पड़ें. झोपड़ी में रहना पड़े रह लूंगा, मगर हाथ पे हाथ धरे बैठा नहीं रहूंगा. तभी नुरीन को लगा जैसे अब्बू के कराहने की आवाज़ आई है. मैं अभी आई दादा कहती हुई वह अब्बू के कमरे की ओर दौड़ गई. उसको यूँ भागते देख उन्हें लगा कि उनका बेटा शायद जाग गया है. उम्र ने उनके सुनने की कुवत भी कम कर दी थी. इसीलिए नुरीन को जो आवाज़ सुनाई दी उसका उन्हें अहसास ही नहीं था. नुरीन को जाते देख वह यह जरूर बुद-बुदाए थे कि न जाने तुम सब की मुकद्दर में क्या लिखा है. फिर उनका दिमाग रात में सोची इस बात पर चला गया कि अब काम-धाम कुछ करने लायक रहा नहीं. आरा-मशीन का धंधा भी बड़ा मुश्किलों वाला हो गया है. रोज कुछ न कुछ लगा ही रहता है.

मुंशी विपिन बिहारी के सहारे यह काम अब कब तक खीचूंगा. गुंडे-माफिया दुकान की लबे रोड लंबी-चौड़ी जमीन पर नज़र गड़ाए हुए हैं. बरसों से गाहे-बगाहे धमकाते आ रहे हैं. सब शॉपिंग-कॉम्प्लेक्स, अपॉर्टमेंट बनवा कर अरबपति बनने का ख्वाब पाले हुए हैं. यहीं शाद होता तो खुद ही कुछ करता. लखनऊ युनिवर्सिटी पास ही है, हॉस्टल ही बनवा देता तो कितना कमाता. मगर जब ठीक था तो मेरी कुछ सुनता नहीं था. होटल से लेकर ना जाने काहे-काहे का ख्वाब वह भी पाले हुए था. अब ना मेरा ठिकाना है ना उसका. इधर बीच भूमाफिया और भी ज़्यादा सलाम ठोकने लगे हैं. जीते जी यह हाल है मरने के बाद तो सब ऐसे ही इन सब को मार धकिया के कब्जा कर लेंगे.

माफिया तो माफिया ये एम.एल.सी. माफिया तो आए दिन हाथ जोड़-जोड़ कर और डराता है. भाई-परिवार सब के सब एक से बढ़ कर एक हैं. चुनाव के समय चचाजान, चचाजान कह के एक वक़्त पूरे डालीगंज में घुमा लाया था. मैंने कभी बेचने की बात ही नहीं की थी. लेकिन न जाने कितनी बार कह चुका है. चचा जब भी बेचना हो तो हमें बताना आपको मुंह मांगी रकम दूंगा. सारे काम काज बैठे-बैठे करा दूंगा. क्यों न इसे ही बेच दूं. किसी और को बेचा तो टांग अड़ा देगा. माफिया ऊपर से नेता. जान छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा. दुकान भी जाएगी पैसा भी नहीं मिलेगा. पांच-छः साल पहले ही साठ-सत्तर लाख बोल रहा था. कहता हूं अब सब कुछ बहुत बदल चुका है.

प्रॉपर्टी के दाम आसमान को छू रहे हैं. सवा करोड़ दे दो तो लिख देता हूं तुम्हारे नाम. सवा करोड़ कहूंगा तो एक करोड़ में तो सौदा पट ही जाएगा. इतने में शाद का इलाज भी करा लूंगा. सत्तर-पचहत्तर लाख जमा कर ब्याज से किसी तरह घर का खर्च चलाऊंगा. इसके अलावा अब कोई रास्ता बचा नहीं है. मकान बेचने से इसका आधा भी ना मिलेगा. पुराने शहर की इन पतली-पतली गलियों और आए दिन के दंगे-फसादों से आजिज आ कर लोग पहले ही नई कॉलोनियों की तरफ खुले में जा रहे हैं तो ऐसे में यहां कौन आएगा. नुरीन के दादा ने सारा हिसाब-किताब करके नेता माफिया के घर जाने के लिए अपने मुंशी को फ़ोन कर कहा कि किसी कारिंदे को आटो के साथ भेज दे. वह नुरीन या उसकी अम्मी को लेकर नहीं जाना चाहते थे. फ़ोन कर के उन्होंने रिसीवर रखा और एक गहरी सांस ले कर बुदबुदाए. जाने मुकद्दर में क्या लिखा है. इस बुढ़ापे में ऊपर वाला और ना जाने क्या-क्या करवाएगा.

वह करीब दो घंटे बाद जब माफिया नेता के यहां से लौटे तो बड़ी निराशा के भाव थे चेहरे पर. कारिंदा उन्हें उनके कमरे में बेड पर बैठा कर चला गया था. वह ज़्यादा देर बैठ न सके और बेड पर लेट गए. नुरीन उसकी बहनें अम्मी कोई भी आस-पास दिख नहीं रहा था. गला सूख रहा था मगर किसी को आवाज़ देने की ताब नहीं थी. काफी देर बाद नुरीन दरवाजे के करीब दिखी तो उन्होंने कोई रास्ता न देख अपनी छड़ी जमीन पर भरसक पूरी ताकत से पटकी कि आवाज़ इतनी तेज हो कि नुरीन सुन ले. इससे जिस तरीके से आवाज़ नुरीन के कानों में पहुंची उससे वह सशंकित मन से दौड़ी आई दादा के पास और छड़ी उठा कर पूछा अरे! दादा क्या हुआ ?आप कहां चले गए थे ? अम्मी आपको दुकान तक छोड़ने जाने आईं तो आप ना जाने कहां चले गए थे. वह बहुत गुस्सा हो रही थीं. उन्होंने नुरीन की किसी बात का जवाब देने के बजाय इशारे से पानी मांगा.

नुरीन पानी लेकर आई तो पीने के कुछ देर बाद बोले तेरे अब्बू कैसे हैं ?’ नुरीन ने कहा सो रहे हैं. लेकिन आप कहा चले गए थे ?’ तब वह बोले शाद के इलाज के लिए पैसे का इंतजाम करने गया था. उनकी यह बात सुन कर नुरीन कुछ उत्साह से बोली तो इंतजाम हो गया दादा.' इस पर वह गहरी सांस लेकर बोले अभी तो नहीं हुआ. बड़ी जालिम है यह दुनिया. सब मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं. मगर परेशान ना हो मैं जल्दी ही कर लूंगा . और हां सुनो कुछ देर बाद मुझसे मिलने कोई आएगा. उसे यहीं भेज देना. और देखना उस समय कोई शोर-शराबा न हो.

नुरीन दादा की बात से बड़ी निराश हुई. पानी का खाली गिलास लेकर वह बुझे मन से रसोई में चली गई. अम्मी कुछ काम से बाहर जाते समय खाना बनाने को कह गई थीं. मगर उसका मन कुछ करने का नहीं हो रहा था. वह अच्छी तरह समझ रही थी कि हर पल अब्बू उन सबसे दूर होते जा रहे हैं. उसने सोचा कि दादा से पूछूं कि वह कहां से कैसे कब तक पैसों का इंतजाम कर पाएंगे. फिर यह सोच कर ठहर गई, कि कहीं वह नाराज न हो जाएं. वह समझदार तो बहुत थी लेकिन अभी दादा की तकलीफ का सही-सही  अंदाजा नहीं लगा पा रही थी.

दादा बेड पर लेटे-लेटे उस बिल्डर का इंतजार कर रहे थे. जिसे वह बात करने के लिए फ़ोन कर बुला चुके थे. क्योंकि माफिया नेता ने उन्हें निराश किया था. वह अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे थे. उसने बड़ी होशियारी से उनकी खूब आव-भगत की थी. गले लगाया था. बड़े आत्मीयता भरे लफ्ज़ों में कहा था. 'अरे चचाजान आप परेशान न होइए. आपको शाद के इलाज के लिए जितना पैसा चाहिए बीस-पचीस लाख वह ले जाइए. पहले उसका इलाज कराइए बाकी सौदा लिखा-पढ़ी होती रहेगी. आप जो रकम कहेंगे हम देने को तैयार हैं. मगर पहले शाद का इलाज जरूरी है. चचा ये बड़ी भयानक बीमारी है. संभलने का मौका नहीं देती. और फिर शाद का मामला तो बहुत गंभीर है. पहले ही एक ऑपरेशन हो  चुका है.

उसकी बात याद कर उन्होंने मन ही मन उसे गरियाते हुए कहा कमीना मुझे कैसे डरा रहा था. बीस-पचीस लाख में करोड़ों की प्रॉपर्टी हड़पना चाहता है. बीस-पचीस लाख दे कर पहले फंसा लेगा फिर औने-पौने दाम देगा कि इससे ज़्यादा नहीं दे पाऊंगा चाहे दें या ना दें. मेरे पैसे वापस कर बात खत्म करिए. और क्योंकि तब पैसे वापस करना मेरे वश में नहीं होगा. तब औने-पौने में सब लिख देने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं होगा. इसके चक्कर में पड़ा तो यह तो दर-दर का भिखारी बना देगा. कमीना कितना पीछे पड़ा हुआ था. कि पैसा लिए ही जाइए. जब दाल नहीं गली तो कैसे आवाज में तल्खी आने लगी थी. देखो अब यह बिल्डर क्या गुल खिलाता है.

जब तक बिल्डर आया नहीं तब तक वह इन्हीं सब बातों में उलझते रहे. इस बीच नुरीन के बड़ी जिद करने पर उन्होंने मूंग की दाल की थोड़ी सी खिचड़ी खायी थी. जब ढाई-तीन घंटे बाद बिल्डर आकर गया तो उससे भी उन्हें कोई उम्मीद नहीं दिखी. उसने सीधे कहा कि वह एरिया ऐसा है जो अपॉर्टमेंट या शॉपिंग-कॉम्प्लेक्स दोनों ही के लिए कोई बहुत अच्छा नहीं है. फिर भी हम कोशिश करते हैं. कुछ बात बनी तो आएंगे.

नुरीन के दादा ने देखा कि उसकी मां इस दौरान खिड़की के आस-पास बराबर बनी हुई है. उसकी इस हरकत पर उन्हें गुस्सा आ रहा था कि यह छिप कर जासूसी कर रही है. बिल्डर अभी उन्हें निराश करके गया ही था, वह अभी निराशा से उबर भी न पाए थे कि वह अंदर आ गई और सीधे बेलौस पूछताछ करने लगी कि यह क्या कर रहे हैं?‘ उनके यह बताने पर कि शाद के इलाज के लिए दुकान बेच कर पैसे का इंतजाम कर रहा हूं.तो वह बहस पर उतर आई कि आप बिना बताए ऐसा कैसे करने जा रहे हैं.

वह मेरे शौहर हैं, जो करना है मैं करूंगी. मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मुझे क्या करना है क्या नहीं. आपको कुछ करने की जरूरत नहीं. आप तो हम सबको भीख मंगवा देंगे.‘  नुरीन के दादा उसकी अम्मी की इन बातों का आशय समझते ही सकते में आ गए. उसने सख्त लहजे में कहा था कि आप दुकान नहीं बेचेंगे. इस पर क्रोधित हो कर उन्होंने भी पुरजोर आवाज़ में कहा वो तो मैं भी जानता हूं कि वह तुम्हारा शौहर है और तुम उसके साथ क्या कर रही हो. लेकिन उससे पहले वह मेरी औलाद है, मेरे जिगर का टुकड़ा है. मैं उसे अपने जीते जी कुछ नहीं होने दूंगा. प्रॉपर्टी मेरी है, मैं उसे बेचुंगा, उसका इलाज कराऊंगा. मुझे रोकने वाला कोई कौन होता है. अगर मेरे रास्ते में कोई आया तो मैं उसे छोडूंगा नहीं, पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगा.

जब और ज़्यादा बोलने की ताब ना रही तो वह अपना थर-थर कांपता शरीर लेकर बेड पर लेट गए. इस बीच दोनों की तेज़ आवाजें सुन कर नुरीन दौड़ी चली आई थी. वह अब्बू के पास बैठी थी तभी  उसने यह तेज़ आवाज़ें सुनी थीं. उसकी बाकी बहनें  भी आ गई थीं. मगर सब अम्मी का आग-बबूला चेहरा देख कर सन्न खड़ी रह गईं. नुरीन भी कुछ बोलने की हिम्मत न कर सकी. क्षण भर भी न बीता कि अम्मी दरवाजे की ओर पलटी और चीख पड़ी यहां मरने क्यों आ गई सब की सब. इतने बड़े घर में कहीं और मरने का ठौर नहीं मिला क्या?‘

अम्मी का भयानक चेहरा देख सभी सिहर उठीं. सभी देखते-देखते वहां से भाग लीं. नुरीन भी चली गई. तब उसकी अम्मी बुद-बुदाई देखती हूं बुढ़ऊ कि बिना मेरे तू कैसे कुछ करता है. कब्र में पड़ा है, ऊपर खाक भर पड़ने को बाकी रह गई है और हमें धमकी दे रहा पुलिस में भेजने की, मुझे पुलिस के डंडे खिलाएगा. घबड़ा मत पुलिस के डंडे कैसे पड़वाए जाते हैं यह मैं दिखाऊंगी तुझे. अगला दिन तू इस घर में नहीं पुलिस के डंडों, गालियों के बीच थाने में बिताएगा. नुरीन को बरगला कर उसे मेरे खिलाफ भड़काए रहता है ना, देखना उसी नुरीन से मैं तुझे न ठीक कराऊं तो अपनी वालिद की औलाद नहीं.

इसके बाद नुरीन की अम्मी का बाकी दिन, सोने से पहले तक का सारा समय बच्चों को मारने-पीटने, गरियाने, शौहर की इस दयनीय हालत में भी उनको झिड़कने और अपने दुल्हा-भाई से कई दौर में लंबी बातचीत करने में बीता. रात करीब दस बजे दुल्हा भाई को उन्होंने घर भी बुलाया. फिर उसको और नुरीन को लेकर एक कमरे में घंटों खुसुर-फुसुर न जाने क्या बतियाती रही. नुरीन के अलावा बाकी बच्चों को दूसरे कमरे में सोने भेज दिया था. बातचीत के दौरान नुरीन कई बार उठ-उठ कर बाहर जाने को हुई, लेकिन उन्होंने उसे पकड़-पकड़ बैठा लिया. उस रात उसे सुलाया भी अपने ही पास. यह अलग बात है कि नुरीन रात भर रोती रही, जागती रही, सो नहीं पाई.

अगली सुबह रोज जैसी सामान्य ही दिख रही थी. नुरीन दादा को उनका नाश्ता दे आई थी. मगर उसके चेहरे पर अजीब सी दहशत, अजीब सा सूनापन ही था. वह खोई-खोई सी थी. फिर ग्यारह बजते-बजते उसकी अम्मी उसे तैयार कर चौक थाने पहुंच गई. जब घंटे भर बाद नुरीन को लेकर लौटी तो उसने सबसे पहले ससुर के कमरे की ही जांच-पड़ताल की. वहां दो लोगों को बैठा पाकर भुन-भुनाई बुढ्ढा प्रॉपर्टी डीलरों का जमघट लगाए हुए है. सठिया गया है. कुछ देर और सठिया ले. तेरा सठियानापन ऐसे निकालूंगी कि कब्र में भी तेरी रुह कांपेगी. दुल्हा-भाई को लोफर कहता है ना .... घबरा मत.

इधर नुरीन ने कमरे में पहुंचते ही बुर्का उतार कर फेंका और फूट-फूटकर रो पड़ी. उसकी अम्मी बाकी बहनों को दूसरे कमरे में बंद कर उसके पास पहुंची. बोली देख मैं जो भी कर रही हूं तेरे अब्बू की जान बचाने के लिए कर रही हूं. मैं उनको और किसी को भी कुछ नहीं होने दूंगी. अब तू खुद ही तय कर ले कि अपने अब्बू की मौत का गुनाह अपने सिर लेना चाहती है या उनकी जान बचा कर अल्लाह की नेक बंदी बनना चाहती है.

अम्मी की बातों का नुरीन पर कोई असर नहीं था. वह फूट-फूटकर रोती ही रही. उसे थाने से आए हुए घंटा भर न हुआ था कि इंस्पेक्टर दो कांस्टेबलों के साथ आ धमका. घर के दरवाजे से दादा के कमरे तक उन्हें उसकी अम्मी ही लेकर गई. उसके दादा बेड पर आंखें बंद किए लेटे हुए थे. प्रॉपर्टी डीलर कुछ देर पहले ही जा चुके थे. कमरे में इंस्पेक्टर, कांस्टेबलों के जूतों की आवाज़ सुन कर दादा ने आंखें खोल दीं. दाहिनी तरफ सिर घुमा कर तीन लोगों को अम्मी संग खड़ा देख वह माजरा एकदम समझ ना पाए. तभी इंस्पेक्टर बोला जनाब उठिए आपसे कुछ बात करनी है. इंस्पेक्टर का लहजा बड़ा नम्र था. शायद दादा की उम्र और उनकी जर्जर हालत देख कर वह अपने कड़क पुलिसिए लहजे में नहीं बोल रहा था. चेहरे पर अचंभे की अनगिनत रेखाएं लिए दादा उठने लगे. उठने में उनकी तकलीफ देखकर इंस्पेक्टर ने उन्हें बैठने में मदद की और साथ ही प्रश्न भरी नजर नुरीन की अम्मी पर भी डाली.

दादा ने बैठ कर कांपते हाथों से चश्मा लगाया और इंस्पेक्टर की तरफ देखकर बोले जी बताइए क्या पूछना चाहते हैं,‘ दादा का चेहरा पसीने से भर गया था. इंस्पेक्टर ने उनका नाम पूछने के बाद कहा आपकी पोती नुरीन ने कंप्लेंट की है कि आप आए दिन उसके साथ छेड़-छाड़ करते हैं. आज तो आपने हद ही कर दी, सीधे उसकी आबरू लूटने पर उतर आए. उसके अब्बू बीमार हैं, लाचार हैं तो आप उसकी मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं.

इंस्पेक्टर इसके आगे आपनी बात पूरी ना कर सका. दादा दोनों हाथ कानों पर लगा कर बोले तौबा-तौबा, या अल्लाह ये मैं क्या सुन रहा हूं. इस उमर में इतनी बड़ी जलालत भरी तोहमत. या अल्लाह अब उठा ही ले मुझेयह कहते-कहते दादा गश खाकर बेड पर ही लुढ़क गए. इस पर इंस्पेक्टर ने एक जलती नजर अम्मी पर डालते हुए कहा इनके चेहरे पर पानी डालिए और अपनी बेटी को भी बुलाइए.

इस बीच इंस्पेक्टर ने मोबाइल पर अपने सीनियर से बात की जिसका लब्बो-लुआब यह था कि मामला संदेहास्पद है. दादा को जब तक होश आया तब तक इंस्पेक्टर ने नुरीन से भी पूछताछ कर मामले को समझने की कोशिश की. लेकिन नुरीन ने रटा हुआ जवाब बोल दिया. अब तक उसके ख़ालु सहित कई लोग आ चुके थे.

घर के बाहर भी लोगों का हुजूम लगने लगा था. लोगों तक बात के फैलते देर न लगी. छुट्टभैये नेता मामले को तूल देने की फिराक में लग गए. किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि अब तक अस्सी-बयासी वर्ष का जीवन इज्ज़त से बेदाग गुजार चुके असदुल्ला खां उर्फ मुन्ने खां अपनी पोती के साथ ऐसा करेंगे . अपने समय के मशहूर कनकउएबाज (पतंगबाज) मुन्ने खां का आस-पास अपने समय में अच्छा-खासा नाम था. पूरे जीवन उन पर किसी झगड़े-फसाद, किसी भी तरह के गलत काम का आरोप नहीं लगा था. मजहबी जलसों में भी वह खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे. लोगों के बीच उनकी जो छवि थी उससे किसी को उन पर लगे आरोप पर यकीन नहीं हो रहा था. थाने उनके पहुंचने के साथ ही लोगों की भीड़ भी पहुंचने लगी थी. लोगों को समझ ही नहीं आ रहा था, कि आरोपित, आरोपी दोनों एक ही परिवार के एक ही घर के सदस्य हैं. किसको क्या कहें. थाने पर वरिष्ठ अधिकारियों ने समझा-बुझा कर भीड़ को वापस किया. मुन्ने खां, नुरीन उसकी अम्मी से कई बार पूछ-ताछ की गई. नुरीन से महिला अफसर ने बड़े प्यार से सच जानने का प्रयास किया. लेकिन नुरीन ने हर बार उसे वही सच बताया जो उसकी अम्मी और ख़ालु ने रटाया था. इससे वह बुरी तरह खफा हो गई.

अंततः मुन्ने खां को हवालात में डाल दिया गया. अगले तीन दिन उनके हवालात में ही कटने वाले थे. क्योंकि अगले दिन किसी त्योहार की और फिर इतवार की छुट्टी थी. नुरीन जब अम्मी, ख़ालु के साथ घर पहुंची तो देखा रात नौ बजने वाले थे फिर भी घर के आस-पास दर्जनों लोगों का जमावड़ा था. सारे लोगों के चेहरे घूम कर उन्हीं लोगों की तरफ हो रहे थे. अंदर पहुँचते ही नुरीन फूट-फूटकर रोने लगी. अब तक एक-एक कर सारी फुफ्फु-फूफा, ख़ालु-खाला सब आ चुके थे. घर लोगों से भर चुका था. साथ ही दो धड़ों में बंटा भी हुआ था. एक धड़ा दादा की लड़कियों उनके परिवारों का था जो दादा को अम्मी की साजिश का शिकार एकदम निर्दोष मान रहा था. दूसरी तरफ नुरीन की ननिहाल की तरफ के लोग थे जो मासूम नुरीन को दादा के जुल्मों का श्किार, उनकी करतूतों की सताई लड़की मान रहे थे. जो यह कहने से ना चूक रहे थे कि बेचारी के बाप की अब-तब लगी है. और बुढ्ढा उसे अभी से अनाथ समझ हाथ साफ करने में लगा हुआ है. तो कोई बोल रहा था कि ऐसे गंदे इंसान को तो दोज़ख में भी जगह न मिलेगी. अरे इसकी हिम्मत तो देखो. इसे तो जेल में ही सड़ा कर मार देना चाहिए. नुरीन के कानों में यह बातें पिघले शीशे सी पड़ रही थीं. उसके आंसू बंद ही नहीं हो रहे थे. मारे शर्मिंदगी के वह कमरे से बाहर नहीं निकल रही थी. दरवाजा अंदर से बंद कर रखा था.

सारी फुफ्फु उससे बात कर सच जानना चाह रही थीं. लेकिन अम्मी और उनका धड़ा मिलने ही नहीं दे रहा था. देखते-देखते घर में ही दोनों धड़ों के बीच मार-पीट की नौबत आ गई. फिर फुफ्फु -फूफा सारे और मुहल्ले के कई लोगों का हुजूम थाने पहुंचा कि किसी तरह दादा को छुड़ाया जाए जिसका जो बन सका फ़ोन-ओन सब कराया गया. लेकिन पुलिस ने कानून के सामने विवशता जाहिर करके सबको वापस भेज दिया. उन सबके आने पर नुरीन की अम्मी ने एक और हंगामा किया. अपने सारे लोगों के साथ मिलकर किसी को घर के अंदर नहीं घुसने दिया. बात बढ़ गई. आधी रात हंगामा देख किसी ने पुलिस को फ़ोन कर दिया. पुलिस ने मामले की गंभीरता को देखते हुए फुफ्फु-फूफा आदि सबको उन्हें उनके घर वापस भेज दिया. नुरीन करीब तीन बजे कमरे से बाहर निकल कर अब्बू के पास गई. अब तक अम्मी सहित सब सो रहे थे. उसने अब्बू को देखा वह भी सो रहे थे. वह उनके सिरहाने खड़ी उनके चेहरे को अपलक निहारती रही. उसे लगा जैसे अब्बू के शरीर में कोई जुंबिस ही नहीं हो रही है.

उसने घबराते हुए उनके हाथ को पकड़ कर हलके से हिलाया, कोई जवाब न मिला तो उसने दुबारा हिलाते हुए अब्बूआवाज़ भी दी तो इस बार उन्होंने हल्के से आंखें खोल दीं. नुरीन को लगा वह नाहक घबरा उठी थी. अब्बू तो पहले जैसे ही हैं. मगर उनकी आंखों में हल्की सी सुर्खी जरूर आ रही थी. उसने अब्बू के कंधे पर कुछ ऐसे थपकी दी जैसे कोई मां अपने दुध-मुंहे बच्चे को थपकी देकर सुलाती है. उसने देखा अब्बू ने भी आंखें बंद कर ली और सो गए. अगला पूरा दिन अजीब से कोहराम और कशमकस में बीता. जंग का मैदान बने घर में उसे लगा कि एक पक्ष जहां दादा को छुड़ाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है वहीं अम्मी और उनका गुट दादा को हर हाल में लंबी सजा दिलाने में लगा है. इतना ही नहीं अम्मी उस पर बराबर नजर भी रखे हुए हैं, किसी से मिलने भी नहीं दे रही हैं. इस बीच मान-मनौवल, दबाव, सुलह-समझौते की सबकी सारी कोशिशें अम्मी की एक ही बात के आगे ढेर होती रहीं कि मैं ऐसे आदमी को बख्श के अपने सिर पर गुनाह का बोझ न लादुंगी जिसने मेरी जवान, मासूम बेटी की इज़्जत पर हाथ डाला है.

नुरीन ने देखा कि अम्मी के बेअंदाज तेवर के आगे सब धीरे-धीरे पस्त होते जा रहे हैं. इतना ही नहीं लोगों के बीच यह बात भी दबे जुबान हो रही है कि ऐसी औरत का क्या ठिकाना, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ना जाने किस पर क्या आरोप लगा दे.

ऐसी ही किच-किच के बीच पूरा दिन बीत गया. ना ठीक से खाना-पानी. न ही आराम! समोसा चाय, नमकपारा, चाय पर ही सब रहे. मर्द लोग बाहर खा-पीकर आते रहे. उसने अब्बू के लिए उनके हिसाब से लिक्वड फूड नली के जरिए दिया. उसे दिनभर सबसे ज़्यादा कुढ़न अम्मी और ख़ालु के बीच गुपचुप होती गुफ्तगू से हुई. काली रात फिर घिर आई. बड़ी जिद पर उसे अम्मी ने अपने कमरे में सोने की इजाजत दी. वह जब सोने के लिए कमरे में पहुंची तो देखा उसकी बहनें सो चुकी हैं. उसके तख्त पर का बिस्तर गायब था. मतलब साफ था कि किसी मेहमान के लिए ले लिया गया था. उठाने वाले को यह परवाह बिल्कुल नहीं थी कि वह कैसे सोएगी. आधी रात में कोई और रास्ता ना देख वह बिना बिस्तर के ही लेट गई. कम रोशनी का एक बल्ब अंधेरे से लड़ने में लगा हुआ था.

दो दिन से ठीक से सो ना पाने. खाना-पीना न मिलने, भयंकर तनाव के चलते उसे सिर दर्द हो रहा था. आंखें जल रही थीं. मगर फिर भी उसका मन दादा पर लगा हुआ था. उसका मन बार-बार उस हवालात में चला जा रहा था जिसमें दादा बंद थे. वह यह सोच-सोच कर परेशान होने लगी कि उनकी जर्जर-सूखी हड्डियां हवालात की पथरीली जमीन का कैसे मुकाबला कर रही होंगी. अब तक तो उनका अंग-अंग चोटिल हो चुका होगा. जिस तरह से उन्हें जीप में बिठाया गया. थाने पर इधर-उधर किया गया उस कड़ियल व्यवहार, कड़ियल माहौल को वह कितना झेल पाएंगे. दो-चार दिन भी झेल पाएं तो बड़ी बात होगी. अम्मी के दबाव उनके डर के चलते मैंने एक फरिश्ते जैसे इंसान पर वह भी अपने सगे दादा पर एकदम झूठा वह भी इतना घिनौना आरोप लगाया. इन खयालों ने उसे भीतर ही भीतर और तोड़ना शुरू कर दिया. उसकी आंखों के  किनारों से आंसू निकल कर कानों तक जा कर उन्हें भिगो रहे थे. इस बात पर वह सिसक पड़ी कि वह अम्मी, खालू की साजिश का आखिर विरोध क्यों न कर पाई. तमाम बातों पर अम्मी से अकसर भिड़ जाने की उसकी हिम्मत आखिर कहां चली गई थी कि दादा पर ऐसा आरोप लगाया.

वह दादा जो मेरे अब्बू, हम सबके भविष्य के लिए अपनी जान से प्यारी दुकान, पुरखों की निशानी कैसे एक पल गंवाए बिना बेचने लगे. और एक अम्मी है. जो अब्बू का क्या होगा उसे इससे ज़्यादा चिंता प्रॉपर्टी की है. उसे बचाने के लिए इस हद तक गिर गई. मुझे अब्बू के नाम पर कितना डरा धमका रही हैं. एक तरह से ब्लैकमेल कर रही हैं. अब्बू की जान का भय दिखा कर ब्लैकमेल कर रही हैं. जब कि सच यह है कि ऐसे तो अब्बू जितने समय के मेहमान हैं वह भी ना चल पाएंगे. और मुझे तो मुंह दिखाने लायक ही नहीं छोड़ा है. मैं किस तरह लोगों को अपना मुंह दिखाऊंगी. सच तो सामने आएगा ही. दादा छूटेंगे ही. या अल्लाह मैं कैसे करूंगी इन सबका सामना. अपना यह काला मुंह दुनिया के किस कोने में ले जाऊंगी. कहां छिपाऊंगी अपना गुनाह. अल्लाह कभी माफ नहीं करेगा मुझे. पुलिस वाले जिस तरह बार-बार पूछताछ कर रहे हैं, मैं ज़्यादा समय उनको अंधेरे में रख नहीं पाऊंगी. वैसे भी उन सब की हमदर्दी दादा ही के साथ है. उन्हें सिर्फ़ प्रमाण नहीं मिल पा रहा है कि झूठ पकड़ सकें. जिस दिन वह मेरा झूठ पकड़ेंगे. उस दिन मुझे जेल भेजे बिना छोडे़ंगे नहीं. और तब मुझे सजा होने से कोई नहीं बचा सकेगा. मैं बर्बाद हो जाऊंगी. बताते हैं लेडीज पुलिस भी बहुत मारती है.

अम्मी के दबाव में मैंने जो गुनाह किया है उसकी सजा अल्लाह जो देगा वो तो देगा ही. पुलिस उससे पहले ही हड्डी-पसली एक कर देगी. दुनिया थूक-थूक कर ही ऐसी जलालत की दुनिया में झोंक देगी कि मेरे सामने सिवाय कहीं डूब मरने के कोई रास्ता नहीं होगा. अम्मी का यह झूठ-गुनाह बस दो चार दिन का ही है. उसके गुनाह से मैंने यदि समय रहते निजात ना पा ली तो सब कुछ बरबाद होने, तबाह होने से बचा ना पाऊंगी. समय रहते अम्मी के गुनाह की इस दुनिया को नष्ट करना ही होगा, इसी में पूरे परिवार और उनकी भी भलाई है. नुरीन लाख थकी-मांदी, भूखी-प्यासी थी लेकिन दिमाग में चलते इन बातों के बवंडर से खुद को अलग नहीं कर पा रही थी. आंखों में गहरी नींद थी लेकिन उन्हें बंद कर वह सो नहीं पा रही थी. उसके दिलो-दिमाग इंतिहा की हद तक बेचैन थे, तालाब से बाहर छिटक गई मछली की तरह उसकी तडफड़ाहट बढ़ती ही जा रही थी कि कैसे इस हालात को बदल दे. जो कालिख खुद पर पोत ली है उसे साफ कर पाक-साफ बन जाए. उलझन तड़फड़ाहट बेचैनी इतनी बढ़ी कि वह उठ कर बैठ गई.

अगली सुबह उसकी अम्मी जल्द ही उठ गई. उसने रात भर एक सपना कई बार देखा कि नुरीन अपनी सारी बहनों को लिए घर के आंगन में एक तरफ खड़ी है. वो उन्हें जो भी बात कहती है, उसे नुरीन और उसकी बहनें एक दम तवज्जोह नहीं दे रही हैं. और जब वह गुस्से में उन्हें मारने दौड़ती है तो वह सब नुरीन के पीछे-पीछे कुछ कदम बाहर को जा कर एकदम गायब हो जाती हैं. उन्होंने बेड पर से उतरने के लिए दोनों पैर नीचे लटकाए, दुपट्टे को ओढ़ने के लिए कंधे पर पीछे फेंका तो उनको लगा कि उसके एक कोने पर कुछ बंधा हुआ है. दुपट्टे के छोर को वापस खींचा तो देखा उनका शक सही था. वह मन ही मन बोलीं मैं तो दुपट्टे में यूं कभी कुछ बांधती नहीं. कल सोते वक्त भी कुछ नहीं था मेरे हाथ में जो बांधती. मन में बढ़ती जा रही इस उलझन के बीच ही उन्होंने गांठ खेल कर देखा तो उसमें किसी कॉपी के कई पन्ने बंधे हुए थे. जिसके पहले पन्ने पर बड़े अक्षरों में सिर्फ़ इतना लिखा था. अम्मी यह सिर्फ़ तुम्हारे लिए है. आगे के पन्नों को पूरा जरूर पढ़ लेना.यह लाइन पढ़ते ही उसकी अम्मी भीतर ही भीतर कुछ बुरा होने की आशंका  से घबरा उठी. उन्होंने अपनी धड़कनों के बढ़ते जाने को स्पष्ट महसूस किया. साथ ही पूरे शरीर में एक थर-थराहट भी.

जल्दी से अगला पन्ना खोल कर पढ़ना शुरू किया. पहली लाइन पढ़ते ही दिल धक् से हो कर रह गया. चेहरे पर पसीने की बूंदें चमक उठीं. हथेलियां नम हो उठीं. कुछ क्षण अपने को संभालने के बाद उन्होंने पहली ही लाइन से फिर पढ़ना शुरू किया. नुरीन ने बिना किसी अभिवादन के सीधे-सीधे लिखना शुरू किया था कि 



अम्मी मैं हमेशा के लिए घर छोड़ कर जा रही हूं. इसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम ज़िम्मेदार हो. मैं तुम्हारे गुनाहों में अब और साथ नहीं दे सकती. इसलिए मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है. इससे भी पहले यह कहूंगी कि मैं अपने अब्बू को निरीह, लाचार अब्बू को तुम्हारे गुनाहों के कारण समय से पहले मौत के मुंह में जाते नहीं देख सकती. और साथ ही यह भी कि तुम अब्बू के इलाज में अकेली सबसे बड़ी बाधा हो, रुकावट हो. अम्मी मैंने अब तक अपने जीवन में  तुम्हारी जैसी औरत नहीं देखी जो संपत्ति के लालच में अपने शौहर को मौत के मुंह में धकेल दे. मुफ्त की संपत्ति पाने के लिए फरिश्ते जैसे अपने ससुर पर अपनी पोती की इज्जत लूटने का घिनौना इल्जाम लगा दे. तुम लालच में इतनी अंधी हो गई हो कि अपनी बेटी की इज्जत पूरी दुनिया के सामने उछालते तुम्हें जरा भी संकोच शर्म नहीं आई. तुमने पलभर को भी यह ना सोचा कि अस्सी बरस के ऐसे इंसान पर तुम आरोप लगा रही हो जो चलने-फिरने, खाने-पीने में भी लाचार है. वह मेरी जैसी लहीम-सहीम एक जवान लड़की की इज़्जत क्या लूट पाएगा.

तुम्हें यह आरोप लगाते हुए जरा सी यह बात समझ में न आई कि दुनिया तुम्हारी इन बातों पर कैसे यकीन कर लेगी. हर आदमी शुरू से ही तुम पर ही शक कर रहा है. पुलिस को दुनिया ऐसी-वैसी कहती रहती है. लेकिन वह सब भी तुम्हीं पर शक कर रहे हैं कि तुमने मुझ पर कोई न कोई दबाव बना कर ही मुझे इस साजिश में शामिल किया है.

अम्मी तुम्हें भले ही पुलिसवालों, दुनिया वालों की नज़र में खुद के लिए लानत-मलामत ना दिख रही हो लेकिन मैंने इन सबकी नज़रों में अपने लिए गुस्सा, नफरत, लानत-मलामत सब देखा है. किसी के सामने पड़ने पर शर्म के मारे मैं जमीन में धंसी चली जाती हूं. मुझे लगता है कि जैसे सचमुच ही सरेराह मेरी इज़्जत लुट चुकी है. पुलिस वालों ने जिस तरह से सच जानने के लिए तरह-तरह के सवाल किए वह मैं बता नहीं सकती. तुम्हें भले ही इन बातों से कोई फर्क ना पड़े लेकिन मुझे वह सब सुन कर लगता है कि इससे अच्छा था कि मैं मर ही जाती.

उस महिला अधिकारी ने बड़ा साफ-साफ पूछा कि तुम्हारे दादा ने यह छेड़खानी पहली बार की या इसके पहले कितनी बार की. उन्होंने तुम्हारे शरीर के किस-किस हिस्से को छुआ. वह मुझसे सच उगलवाने पर इस कदर तुली हुई थी कि शरीर के अहम हिस्सों की तरफ इशारा करके पूछती यहां छुआ या यहां छुआ. किस तरह से.....छी . मैं जवाब दे पाने के बजाय फूट-फूट कर रो पड़ी थी अम्मी. मुझे यह सब सुन कर लग रहा था मानो सचमुच मेरी इज़्जत लुट रही है.  असहनीय थी मेरे लिए वह जलालत.

मैं उस पुलिस अधिकारी को क्या बताती कि मेरे दादा के हाथ हमेशा हम सब बच्चों की भलाई के लिए, दुआ के लिए ही उठे. सिर पर हाथ हमेशा आशीर्वाद के लिए ही रखा. लेकिन अम्मी मैं ऐसी खुर्राट पुलिस ऑफिसर के भी सामने, ऐसी जलालत भरी स्थिति में भी टूटी नहीं. झूठ को बराबर सच बनाए रही. रोती रही मगर अड़ी रही. क्यों कि अब्बू का चेहरा बराबर मेरे सामने था. और तुम्हारी धमकी बराबर कानों में गूंजती रही, कि जरा भी तूने सच बोला तो अब्बू का मरा मुंह देखेगी.तुम बराबर झूठ पर झूठ बोलती रही कि तुम और ख़ालु अब्बू के इलाज के लिए पैसे का इंतजाम बस कर ही चुकी हो. अम्मी यह सब जानते हुए भी मैं सिर्फ़ इस लिए तुम्हारे इशारे पर नाचती रही क्योंकि मैं किसी भी सूरत में अब्बू को नहीं खोना चाहती. और इसीलिए यहां से भागने का भी फै़सला लिया. हमेशा  के लिए. क्योंकि मैं जानती हूं कि मैं यहां रहूंगी तो तुम तो अब्बू का इलाज कराने से रही. ऊपर से दादा को भी छोड़ोगी नहीं. इस हालत में इस तरह तो वह यूं ही चल बसेंगे. इसलिए मैं जा रही हूं. सबसे पहले मैं यहां से जाकर पुलिस को विस्तार से ई-मेल करूंगी. कि दादा को किस तरह झूठी साजिश रचकर फंसाया गया. मुझे साजिश में शामिल होने के लिए फंसाया गया, विवश किया गया.

इन सारी बातों की मैं विडियो रिकॉर्डिंग कर के विडियो भी पुलिस को मेल कर दूंगी. कि दादा बिल्कुल बेगुनाह हैं उन्हें तुरंत छोड़ दिया जाए. इस काम के लिए मैं तुम्हारा मोबाइल ले जा रही हूं. यह काम पूरा होते ही कोरियर से भेज दूंगी. क्योंकि अपने पास रखूंगी तो पुलिस इसके सहारे मुझ तक पहुंच जाएगी. सच जानने के बाद वह तुम्हें नहीं छोड़ेगी. इसलिए मैं दादा को भी फ़ोन करके उनसे गुजारिश करूंगी कि वो ख़ालु को छोड़कर हमें, तुम्हें और बाकी सबको बख्श दें. पुलिस को किसी भी तरह मना कर दें. उन्हें अब्बू का वास्ता दूंगी. अल्लाह-त-अला का वास्ता दूंगी कि हम भटक गए थे. हमें माफ कर दें. हमें पूरा यकीन है कि वे ऐसे नेक इंसान हैं कि हम ने उनसे इतनी घिनौनी ज़्यादती की है लेकिन वह फिर भी हमें बख्श देंगे. वो इतनी कूवत रखते हैं कि हमें जरूर बचा लेंगे.

अम्मी अब तुम यह सोच रही होगी कि इस सबसे अब्बू का इलाज कहां से हो जाएगा. तो अम्मी यह अच्छी तरह समझ लो कि जब मुझे यह पक्का यकीन हो गया कि यह कदम उठाने से दादा को बचाने के साथ-साथ अब्बू के इलाज का भी रास्ता साफ हो जाएगा तभी मैंने यह क़दम उठाया. मैं दादा से साफ कहूंगी कि आप छूटते ही सबसे पहले जो प्रॉपर्टी बेचना चाहते हैं तुरंत बेचकर अब्बू का इलाज कराएं. और घर में शांति बनी रहे इसके लिए वह तुम पर किसी सूरत में कोई केस न करें. तुम्हें बख्श दें. एक तरह से यह तुम्हारे लिए सजा भी है. मैं उनसे यह भी कहूंगी कि दादा मुझे भूल जाओ. क्योंकि मेरे वहां रहने पर आप यह सब नहीं कर पाएंगे. क्योंकि अम्मी ख़ालु के साथ कोई ना कोई साजिश रच कर मुझे फंसाए रहेंगी.

अम्मी मैं दादा को यह भी बता दूंगी कि तुमने किस तरह प्रॉपर्टी के चक्कर में मेरा निकाह ख़ालु के लड़के दिलशाद से करने की साजिश रची है. अम्मी तुम प्रॉपर्टी के चक्कर में इस कदर गिर जाओगी मैंने यह कभी भी नहीं सोचा था. तुम्हें यह भी ख़याल नहीं आया कि मैं भी एक इंसान हूं कोई भेड़-बकरी नहीं कि जहां चाहे बांध दिया, जब चाहा तब जबह कर दिया.

इस निकाह के बारे में सोचते हुए तुम्हें यह ख़याल तो करना चाहिए था कि जिस लड़के के साथ मैं बचपन से खेलती-कूदती, पढ़ती-लिखती आई, जिसे मैंने हमेशा सगा भाई माना. उसे सगे भाई का दर्जा दिया, चाहा-प्यार किया और उसने भी हमें हमेशा सगी बहन माना, प्यार दिया. उससे तुम मेरा निकाह करने का फै़सला किए बैठी हो. ख़ालु तो ख़ालु ठहरे, वह जानते हैं कि घर में कोई लड़का है नहीं. मकान-दुकान मिलाकर कई करोड़ की प्रॉपर्टी है जो अंततः लड़कियों को ही मिलेगी. इस स्वार्थ में अंधे हो उन्होंने तुम्हें फंसाया फिर अपने लड़के को मुझसे निकाह के लिए तैयार कर लिया. जब से तुम दोनों ने दिलशाद को इसके लिए तैयार किया है तब से उसको मुझसे मिलने नहीं दिया. क्योंकि तुम्हें यह डर है कि मुझसे मिलने के बाद वह मुकर ना जाए.

अम्मी तुम्हें सोचना चाहिए था कि आखिर मैं ऐसे शख्स से कैसे निकाह कर लूंगी जिसे बचपन से भाई की तरह देखती रही हूं. फिर अचानक उसे शौहर मान लूं. उसके बच्चों को पैदा करने लगूं. छी.... अम्मी मुझे घिन आती है. यह खयाल आते ही उबकाई आने लगती है. मैं दिलशाद को भी समझा कर मेल करूंगी. मुझे यकीन है कि वह भी क़दम पीछे खींच लेगा. मैं उसको यह भी समझाऊंगी कि यदि तुम्हारे अब्बू, मेरी अम्मी मेरी छोटी बहनों से निकाह की बात चलाएं तो भी तुम ना मानना. बल्कि ऐसे किसी गलत काम को तुम रोकना भी.

अम्मी मैं एकदम समझ नहीं पा रही कि आखिर ख़ालु ऐसा कौन सा काला जादू जानते हैं कि इतनी आसानी से तुम्हें बरगलाया. अपने इशारे पर तुम्हें नचाते हुए एक के बाद एक गुनाह करवाए जा रहे हैं. अम्मी जरा सोचो कि इससे बड़ा गुनाह क्या होगा कि तुम उनके बहकावे में आकर अपने शौहर से दगा कर बैठी. मेरी जुबान यह कहते नहीं कांप रही अम्मी कि तुम लंबे समय से यह इंतजार कर रही हो कि कब तुम्हारे शौहर इस दुनिया से कूच कर जाएं.

अम्मी यह कहने की हिम्मत इस लिए कर पाई हूं, क्योंकि तुम्हारी हरकतों ने दिलो-दिमाग से तुम्हारे लिए सारी इज्जत धो डाली है. जिस तरह तुमने अपनी जवान लड़कियों के सामने, घर में शौहर के रहते ख़ालु से नाजायज संबंधों की पेंगें बढ़ाईं उससे अम्मी मन में तुम्हारे लिए नफरत ही नफरत भर गई है. अपने शौहर की लाचारगी का जैसा फ़ायदा तुम उठा रही हो अम्मी वैसा शायद ही कोई बीवी उठाती हो. जरा सोचो अम्मी तुम्हारी इस घिनौनी, जलील हरकत से अब्बू पर क्या बीतती होगी. अम्मी गुनाह करके ज़्यादा दिन बचा नहीं जा सकता. और अब यही तुम्हारे साथ भी हुआ. मैं जा रही हूं. मेरे जाने से तुम्हारे और कई गुनाह भी बेपर्दा हो जाएंगे. कम से कम दादा के साथ तुमने जो किया वह तो बेपर्दा हो ही जाएगा.

जहां तक बाकी गुनाहों की बात है तो समय के साथ वह अपने आप ही खुल जाएंगे. क्योंकि गुनाह एक दिन खुद पुरजोर आवाज़ में दुनिया के सामने सच बोल ही देता है. अम्मी मैं पुलिस को यह भी कह दूंगी कि मैं अब बालिग हूं. मैं कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हूं. अब मैं घर में नहीं रहूंगी. इसलिए मुझे ढूंढ़ा ना जाए. दादा से कह कर सारे केस समाप्त करवा लूंगी. अम्मी मुझे अपनी हिम्मत, अपनी क्षमता पर यकीन है. एक दिन अपना एक मुकाम जरूर बनाऊंगी. जिस दिन कुछ बन गई उस दिन एक बार घर जरूर आऊंगी. माना दुनिया बहुत खतरनाक है. एक अकेली लड़की का उसमें रहना दुनिया के सबसे भयानक खतरे का सामना करने जैसा है. शेर, चीतों, भालुओं जैसे हिंसक जानवरों से भरे जंगल में अकेले घूमने जैसा है. अम्मी, ख़ालु जैसे लोगों के चलते खतरे का सामना तो मैं अपने घर में भी करती ही आ रही हूं.

अम्मी इसी खतरनाक दुनिया में एक लड़की पढ़-लिख कर, मेहनत करके, होटल में वेटर से लेकर ना जाने क्या-क्या काम करके आगे बढ़ती है, अपने इसी मुल्क में केंद्रीय मंत्री बन जाती है. और भी ऐसी ना जाने कितनी लड़कियों ने अपना मुकाम बनाया है तो मैं भी क्यों नहीं बना सकती. अम्मी मैं जिस दिन कुछ बन जाऊंगी उस दिन अपनी बहनों को भी साथ ले जाऊंगी. और हां मैं तुम्हारा बुर्का पहन कर जा रही हूं. बड़ा खूबसूरत है. तुम भले ही छिपाओ लेकिन मुझे मालूम है कि किसने दिया है. वैसे भी क्या वाकई तुम्हें बुर्के की जरूरत है भी.

अम्मी तुमने मेरे सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं छोड़ा है. इसलिए जा रही हूं. हो सके तो गुनाहों से तौबा कर लेना. ज़िंदगी बड़ी खूबसूरत है. इसे खूबसूरत बनाए रखना अपने ही हाथों में है. अच्छा अल्लाह हाफिज.


नुरीन के खत को पूरा पढ़ते-पढ़ते नुरीन की अम्मी पसीने से नहा उठीं. उन्हें सब कुछ हाथों से निकलता लग रहा था. हाथों से कागजों को मोड़ कर उन्हें जल्दी से एक अलमारी में रख कर ताला बंद कर दिया. और दुल्हा-भाई को फ़ोन करने के लिए उस कमरे में जाने को उठीं जिसमें लैंडलाइन फ़ोन रखा था. पसीने से तर उनका शरीर कांप रहा था.

उन्होंने दरवाजे की तरफ क़दम बढ़ाया ही था कि एकदम से नुरीन सामने आ खड़ी हुई. वह एकदम हक्का-बक्का पलभर को बुत सी बन गईं. नुरीन भी उनसे दो क़दम पहले ही स्तब्ध हो ठहर गई. उसकी अम्मी के दिमाग में एक साथ उठ खड़े हुए अनगिनत सवालों ने उन्हें एकदम झकझोर कर रख दिया. फिर भी घर में मेहमानों की मौजूदगी का ख़याल उनके शातिर दिमाग से छूट न सका. वह दांत पीसती हुई आग-बबूला हो बोलीं कलमुंही तू तो जहन्नुम में चली गई थी फिर यहां मरने कैसे आ गई. कहीं ठिकाना नहीं लगा.

यह कहती हुई वह नुरीन की तरफ बढ़ने को हुई तो वह बेखौफ बोली दिलशाद से बात करने के बाद मैंने इरादा बदल दिया. उसकी इस बात का अम्मी ने ना जाने क्या मतलब निकाला कि उस पर हाथ उठाती हुई बोली हरामजादी मुझको बदचलन कहते तेरी काली जुबान कट कर गिर न गई. अम्मी के ऐसे रौद्र रूप से पहले जहां नुरीन दहल उठती थी वह इस वक़्त बिल्कुल नहीं डरी और अम्मी के उठे हाथ को बीच में ही थाम कर बोली बस अम्मी ... अब भी संभल जाओ नहीं तो मैं चिल्ला कर सबको इकट्ठा कर लूंगी.कल्पना से परे उसके इस रूप से उसकी अम्मी सहम सी गईं. उन्हें  जवान बेटी के हाथों में गजब की ताकत का अहसास हुआ. उन्होंने अपना हाथ नुरीन के हाथों में ढीला छोड़ दिया तो नुरीन ने उन्हें अपनी पकड़ से मुक्त कर दिया.

दोनों मां-बेटी पल-भर एक दूसरे की आंखें में देखती रहीं. नुरीन की आंखें भर चुकी थीं. अम्मी की आंखें क्रोध से धधक रही थीं. सुर्ख हुई जा रही थीं. सहसा वह बोलीं मालूम होता तू ऐसी होगी तो पैदा होते ही गला घोंट कर कहीं फेंक देती. इतना ही नहीं यह कहते-कहते उन्होंने नुरीन को पकड़ कर एक तरह से उसे जबरन बेड पर बैठा दिया. फिर बोलीं 

मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि तू ऐसी नमक हराम, एहसान फरामोश होगी. इतनी बदकार होगी कि अपनी अम्मी को ही बदनाम करने पर तुल जाएगी. बदचलन कहने में जुबान नहीं कांपेगी. तेरी जैसी औलाद से अच्छा था कि मैं बे औलाद रहती. अरे! आज तक सुना है कि किसी लड़की ने अपनी अम्मी को ऐसा कहा हो. उसकी जासूसी की हो. चली थी घर छोड़ कर भागने, मुकाम बनाने, अब्बू का इलाज कराने, उस बुढ्ढे को छुड़ाने, कर चुकी सब. अपनी यह मनहूस सूरत लेकर बाहर निकलने में जान निकल गई. घबरा नहीं मैं तेरी सारी मुराद पूरी कर दूंगी. अब तेरी रुह भी इस घर से बाहर ना जाने पाएगी. देखना मैं तेरा क्या हाल करती हूं.

अम्मी तुम्हारे जो दिल में आए कर लेना, मार कर फेंक देना मुझे, मैं उफ तक न करूंगी. मगर पहले अब्बू का इलाज हो जाने दो.इतना सुनते ही अम्मी उसकी फिर बरस पड़ीं. बोलीं हां .... ऐसे बोल रही है जैसे करोड़ों रुपए वो कमा के भरे हुए हैं घर में और बाकी जो बचा वो तूने भर दिए हैं.

अम्मी उन्होंने कमा के करोड़ों भरे नहीं हैं तो तुमसे या दादा से भी कभी इलाज के लिए एक शब्द बोला भी नहीं है. जो भी उनका इलाज अभी तक हुआ है वह दादा ने खुद कराया है. एक बाप ने अपने बेटे का इलाज कराया है. और वही बाप आगे भी अपने बेटे का इलाज कराने के लिए अपनी संपत्ति बेच रहा है तो तुम्हें क्यों ऐतराज हो रहा है.

उसकी इस बात पर उसकी अम्मी और आग बबूला हो उठीं. किच-किचाते हुए बोलीं चुप .... .इसके आगे वह कुछ और ना बोल सकीं. क्यों कि नुरीन बीच में ही पहले से कहीं ज़्यादा तेज आवाज़ में बोली बस अम्मी! बहुत हो गया. मेरे पास अब फालतू बातों के लिए वक़्त नहीं है. मैं थाने जाकर अपनी कंप्लेंट वापस लेने के लिए दिलशाद को बुला चुकी हूं. वह कुछ देर में आता ही होगा. मैं हर सूरत में दादा को छुड़ा कर आज ही लाऊंगी समझीं. अब इस बारे में मैं तुमसे या किसी से भी ना एक शब्द सुनना चाहती हूं और ना ही कहना चाहती हूं.

नुरीन की एकदम तेज हुई आवाज़, एकदम से ज़्यादा तल्ख हो गए तेवर से उसकी अम्मी जैसे ठहर सी गई. उन्हें बोलने का मौका दिए बगैर नुरीन बोलती गई. उसने आगे कहा और अम्मी यह भी साफ-साफ बता दूं कि मैंने घर छोड़ने का इरादा बाहर आने वाली दुशवारियों से डर कर नहीं बदला. मैंने घर छोड़ने का इरादा दिलशाद से बात कर यह समझने के बाद बदला कि जिस मकसद से मैं यह क़दम उठा रही हूं वह तो पूरा ही नहीं होगा. दिलशाद ने साफ कहा कि ऐसे कुछ नहीं हो पाएगा. केस उलझ जाएगा. पुलिस पहले तुमको ढूढ़ने में लग जाएगी. और कोई आश्चर्य नहीं कि अपनी योजना पर पानी फिर जाने और लेटर में लिखी तुम्हारी बातों से खिसियाई, गुस्साई अम्मी तुम्हारे फूफा वगैरह पर यह आरोप लगा दें कि उन लोगों ने उनकी लड़की नुरीन का अपहरण करा लिया या हत्या कर दी.


वह कुछ भी कर सकती हैं ऐसा ही कोई और बखेड़ा भी खड़ा कर सकती हैं. ऐसे मैं दादा का छूटना, अब्बू का इलाज तो दूर की बात हो जाएगी. तुम्हारी अम्मी घर के ना जाने कितनों और को अंदर करा देगी. तुम भाग कर ना अपनी बहनों को बचा पाओगी और ना खुद को. जैसे उन्होंने तुम्हारा निकाह मुझ से तय कर दिया. वैसे ही तुम्हारे ना रहने पर तुम्हारी बहनों का निकाह ऐसे ही तय कर देंगी. मेरे इंकार करने पर दूसरे भाइयों से कर देंगी. कुल मिला कर पूरा घर तबाह हो जाएगा. जब कि यहां रह कर जो तुमने तय किया है वह सब हो जाएगा. घर की और ज़्यादा थू-थू भी नहीं होगी. मुझसे जितनी मदद हो सकेगी मैं वह सब करूंगा.

अम्मी मुझे दिलशाद की सारी बातें एकदम सही लगीं. मुझे जब पक्का यकीन हो गया कि मैं यहां रह कर ही सब कुछ कर पाऊंगी तभी मैंने अपना इरादा बदला. अम्मी दिलशाद ने सच्चे भाई होने का अपना हक बखूबी अदा किया है. वह कुछ ही देर में यहां आने वाला है. मैं फिर तुमसे कह रही हूं कि अपनी जिद से अब भी तौबा कर लो. दादा को छुड़ाने साथ चलो. अब्बू का इलाज करवाने के लिए वह जो करना चाहते हैं वह उन्हें करने दो. इससे मेरी, तुम्हारी इस घर की दुनिया में और ज़्यादा बदनामी होने से बच जाएगी. हम दोनों ये कह देंगे कि गलतफहमी के कारण यह गलती हो गई. थाने वाले मान जाएंगे. वह सब तो पहले से ही दादा को बेगुनाह मान कर ही चल रहे हैं.

अम्मी मान जाओ अभी भी वक़्त है, इससे ऊपर वाला हमें बख्श देगा. वरना ये तो गुनाह-ए-कबीरा है जो कभी बख्शा नहीं जाएगा. इसलिए कह रही हूं कि तैयार हो जाओ हमारे साथ चलो. क्योंकि अब मैं किसी भी सूरत में पीछे हटने वाली नहीं, एक बात तुम्हें और बता दूं कि मैं यहां तुम से यह सब कहने नहीं आई थी. मैं तो इरादा बदलने के बाद जो खत तुम्हारे दुपट्टे में बांध गई थी उन्हें वापस लेने आई थी. जिससे कि तुम उन्हें ना पढ़ सको. उनमें लिखी बातों से तुम्हें दुख न पहुंचे. मगर बदकिस्मती से आज तुम रोज से जल्दी उठ गई और खत पढ़ लिया. उनमें लिखी बातों के लिए अभी इतना ही कहूंगी कि मुझे माफ कर दो या बाद में जो सजा चाहे दे लेना, मगर अभी चलो.

नुरीन अपनी बात पूरी करके ही चुप हुई. उसकी अम्मी दो बार बीच में बोलने को हुई लेकिन उसने मौका ही नहीं दिया. उसके तेवर ने उसकी अम्मी को यह यकीन करा दिया कि बाजी अब उसके हाथ से निकल कर बहुत दूर जा चुकी है. अब भलाई अगली पीढ़ी की बात मान लेने में ही है. नहीं तो इसके जोश में उठे कदम से वह भी हवालात का सफर तय कर सकती है. साजिश रचने के आरोप में. करमजला दिलशाद इसके साथ है ही. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. जिसे सुन नुरीन फिर उनसे मुखातिब हुई. कहा लगता है दिलशाद आ गया है. तुम साथ चल रही हो तो मैं रुकूं नहीं तो अकेले ही जाऊं.

उसकी अम्मी ने एक जलती हुई नज़र उस पर डालते हुए नफरत भरी आवाज में मुख्तसर सा जवाब दिया चलती हूं.इस बीच घर में ठहरे कई मेहमान जाग चुके थे उनकी आवाजें आने लगी थीं. नुरीन बाहर दरवाजा खोलने को चल दी. वह बात किसी और तक पहुंचने से पहले अम्मी को लेकर थाने के लिए निकल जाना चाहती थी. जिससे बाकी सब कोई रुकावट ना पैदा कर दें. उसे लगा कि थाने पर जल्दी पहुँच  कर इंतजार कर लेना अच्छा है. लेकिन यहां रुकना नहीं.
____________________________
प्रदीप श्रीवास्तव
(लखनऊ में 1 जुलाई, 1970)
मन्नू की वह एक रात (उपन्यास) तथा दो कहानी संग्रह, एवं नाटक प्रकाशित

सम्पर्क     
ई-6, एम-212, सेक्टर-एम, अलीगंज, लखनऊ, उत्तर प्रदेश-22602
pradeepsrivastava.70@gmail.com/ ७८३९३१७०७२ 

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  1. Wah अरुण ऐसे प्रतिभा से दमकते लेखकों की सीरीज शुरु करो। साधुवाद तुम्हें।

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  2. समालोचन पर कुछ भी स्पैम नही है अब जगह बन जायेगी शुभकामनाएँ प्रदीप जी ।

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  3. प्रदीप जी ने अपना यह संग्रह मुझे भी भेजा था। दो तीन कहानियाँ पढ़ीं। कहानियां अपने आस पास के यथार्थ को लेकर अपने अनुभव के दायरे में बुनी गई हैं।
    पर जैसा आपने कहा कि हो सकता है भाषा और शिल्प को कसकर इन्हें और बेहतर बनाया जा सकता था पर इनमें जो सच अपनी पूरी चमक के साथ कौंधता है उसे लेखक ने कहीं धुंधला नहीं पड़ने दिया।
    अच्छी बात किसी धारा से आए प्रकाश में आनी ही चाहिए।
    आपको और प्रदीप जी को बधाई..

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  4. वैसे लेखकों में से भी बहुत से ऐसे ही हैं. ऐसे होकर ख़ुद को वैसे समझने वालों की भी कमी नहीं.

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  5. नीरज मिश्रा3 सित॰ 2018, 3:06:00 pm

    बहुत जरूरी पहलू पर बात रखी आपने अरुण जी।इसी धारा के लोगों को ही प्रोत्साहित करने की जरूरत है।जो आप जैसे सुधी लोग बखूबी कर रहे हैं।इसके लिए आपको दिल से धन्यवाद

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  6. विवेक चतुर्वेदी3 सित॰ 2018, 3:07:00 pm

    बहुत वाजिब सवाल... क्योंकि कई बार साहित्य की मुख्यधारा अपने भीतर प्रवेश देने के लिए बहुत संकल्प...कई बार ढीटपन की भी की मांग करती है जिसे एक अतिसंवेदनशील रचनाकार स्वीकार नहीं कर पाता और डायरी लेखन, अंतरंग मित्र सभा में वाचन या स्वयं के प्रकाशन तक सीमित रह जाता है..अभी हमने जबलपुर में हिंदी कविता पर "एक सांझ कविता की" किया तो सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में पहचानी जाने वाली भारती शुक्ला की कविताएं सुनकर श्रोताओं में बैठे वरिष्ठ कहानीकार ज्ञानरंजन भी चौंक उठे
    साहित्य के राजमार्ग के साथ अपरिचित उपमार्गों की पड़ताल करने का आपकी ये पहल बेहतरीन है..
    साधुवाद आपको...

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  7. लीना मल्होत्रा राव3 सित॰ 2018, 3:08:00 pm

    आपकी बात को आगे बढाते हुए कहना चाहती हूँ किवह लोग जो पुरस्कार की जोड़ तोड़ और मुख्य धारा में PR के बल पर धाकड़ जमा लेते हैं उनके भीतर अति सम्वेदनशीलता का अभाव ही होता है फिर भी वह लगातार लिखते रहते हैं छपते रहते हैं और कइयों को दरकिनार कर मुख्य लेखक बन जाते हैं चाहे उनकी रचनायें स्तरीय न हों । अरुण जी ने नए रचनाकारों को सदैव प्रोत्साहन दिया है उन्हें साधुवाद।

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  8. स्वप्निल श्रीवास्तव3 सित॰ 2018, 3:10:00 pm

    प्रदीप ने मुझे कहानी संग्रह भेजा था । इन कहानियों में गजब की पठनीयता है । जीवन यथार्थ की अभियक्ति है ।

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  9. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-09-2018) को "काश आज तुम होते कृष्ण" (चर्चा अंक-3084) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    श्री कृष्ण जन्माष्टमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  10. नए लेखकों को जगह देने का सिलसिला शुरू करने के लिए साधुवाद .........अच्छी कहानी

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  11. शुरुआत हम सभी लेखकों की इसी प्रकार की कच्ची पक्की कहानियों से होती है

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  12. Samalochan ka aur Arun dev Sir ka bahut aabhar naye lekhko ko jagah dene ke liye.

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