कथा- गाथा : चोर - सिपाही : मो. आरिफ












युवा कथा आलोचक राकेश बिहारी के स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी विमर्श’ के अंतर्गत आपने- 
  
1.              लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ (रवि बुले)
2.            शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट’ (आकांक्षा पारे)
3.            नाकोहस’(पुरुषोत्तम अग्रवाल)
4.            अँगुरी में डसले बिया नगिनिया’ (अनुज)
5.            पानी’ (मनोज कुमार पांडेय)
6.            कायांतर’ (जयश्री राय)
7.            उत्तर प्रदेश की खिड़की’(विमल चन्द्र पाण्डेय)
8.            नीला घर’ (अपर्णा मनोज)
9.            दादी,मुल्तान और टच एण्ड गो’ (तरुण भटनागर)
10.           कउने खोतवा में लुकइलू’ (राकेश दुबे)
11.           ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ (पंकज सुबीर)
12.          अधजली (सिनीवाली शर्मा)
13.          ‘जस्ट डांस’ (कैलाश वानखेड़े)
14.           'मन्नत टेलर्स’ (प्रज्ञा)
15.           ‘कफन रिमिक्स’  (पंकज मित्र)

कहानियों की विवेचना पढ़ी. आज इस क्रम में प्रस्तुत है मो. आरिफ की चर्चित कहानी ‘चोर- सिपाही’ की विवेचना.


साम्प्रदायिकता चाहे बहुसंख्यक की हो या अल्पसंख्यक की दोनों भयावह और बुरे हैं और दोनों एक दूसरे के लिए खाद-पानी का काम करते हैं. मो. आरिफ की कहानी ‘चोर- सिपाही’ में दोनों मौजूद हैं और इसे वह एक बच्चे की निगाह से लिखते हैं. राकेश बिहारी ने इस कहानी की आलोचना में पत्र- शैली का प्रयोग किया है. कृति को परखने का यह रचनात्मक उपक्रम आपको पसंद आएगा.





चोर सिपाही
मो. आरिफ



हले डायरी के बारे में दो शब्द मेरी ओर से, फिर तारीख-ब-तारीख डायरी. सलीम से जो डायरी मुझे मिली थी उसे मैंने ज्यों की त्यों नहीं छपवाया. सलीम की ऐसी कोई शर्त भी नहीं थी. पहले तो वह इसे मेरे हवाले ही नहीं करना चाहता था, क्योंकि उसका मानना था कि यह डायरी, और देखा जाए तो कोई भी डायरी, व्यक्तिगत और गोपनीय दस्तावेज होती है. लेकिन पूरी डायरी देखने के बाद मुझे लगा था कि इस लड़के की डायरी में ऐसे विवरण हैं... सारे नहीं, कुछेक... जो व्यक्तिगत और गोपनीय का बड़ी आसानी से अतिक्रमण करते हैं. उन्हें पब्लिक डोमेन में लाना ही मेरी मंशा थी. मैंने उसे समझाया तो वह मान गया. दरअसल वह पूरी तरह समझा नहीं, बस मान गया. अपना लिखा हुआ छप रहा है... इस उत्कंठा में उसने डायरी मुझे सौंप दी, यह कहते हुए कि आप लेखक हैं... डायरी में जो अच्छा लगे छपवा दें, यानी जो हिस्से लोगों के सामने लाने हैं उन्हें अपनी शैली में, अर्थात एक लेखक की शैली में, एक लेखक की भाषा में, परिवर्तित करके प्रकाशित कर दें. बाकी के हिस्से में तो बस रोजमर्रा की जिंदगी है, उसके अहमदाबाद प्रवास की दिनचर्या है. 


वह भी उन सात आठ दिनों की दिनचर्या जब उसके मामू के मुहल्ले में कर्फ्यू जैसे हालात थे और वह एक दिन एक घंटे एक पल के लिए भी घर से बाहर नहीं निकल पाया. घर में पड़े पड़े कोई क्या करेगा. सलीम की डायरी ऐसे माहौल और मानसिकता में रोज-ब-रोज लिखी गई थी जिसमें बहुत सारे ब्योरे थे. इन इंदिराजों को पूरा का पूरा लोगों के सामने परोसने का कोई अर्थ नहीं था. मेरी रुचि तो कुछ विशेष प्रसंगों और संदर्भों में ही थी.


लेकिन यहाँ एक समस्या थी. जैसा कि आप आगे देखेंगे, डायरी सिलसिलेवार ढंग से लिखी गई थी. दस अप्रैल से शुरू हो कर, यानी जिस दिन वह अहमदाबाद अपने मामू के यहाँ पहुँचता है, 18 अप्रैल तक जिस दिन वह अपने मामू से कहता है, अब मेरा मन यहाँ नहीं लग रहा है घर भिजवा दें. 19 और 20 अप्रैल वाले पेज भी भरे हुए थे, लेकिन उनमें कुछ मेरे काम की सामग्री नहीं थी सिवा इसके कि इस्माईल मामू की बड़ी याद आ रही है, गुलनाज अप्पी ने मेरी पतंगों का पता नहीं क्या किया होगा, नानी शायद अगली बार आने तक नहीं बचेंगी और मुमानी जान मेरे पहुँचते ही तुमको ये पका कर खिलाएँगे, तुमको वो पका कर खिलाएँगे का खूब राग अलापीं, लेकिन उसके बाद माहौल ऐसा बना कि उन्हें अपनी पाक कला का प्रदर्शन करने का मौका ही नहीं मिला. तो बतौर लेखक मेरी समस्या यह थी कि जो ब्योरे मुझे सार्थक लगे थे उन्हें अगर मैं बीच-बीच में से उठा कर उपयोग में लाता तो बात न बनती. 



उनका संदर्भ और उनका निहितार्थ आगे-पीछे की तारीखों में थे जिन्हें सलीम रोजमर्रा के ब्योरे या बोरिंग दिनचर्या कह रहाथा. तो मैंने उन्हें भी बिना कोई छेड़छाड़ किए उसी तरह ले लिया. वैसे भी सलीम की दिनचर्या मुझे इतनी उबाऊ नहीं लगी. कुछ ब्यौरे तो बड़े मजेदार लगे. लेकिन आगे बढ़ने से पहले मुझे सलीम से कुछ और बिंदुओं पर सफाई चाहिए थी. पहले तो भाषा को ले कर. जब पहली बार मैंने डायरी पढ़ी तो लगा इसमें किसी तरह की छेड़छाड़ या कत रब्यौंत करना उचित नहीं होगा जबकि काँट छाँट की गुंजाइश बनती थी. जब मैंने डायरी दूसरी बार पढ़ी तो मैंने नोट किया कि विवरणों में उर्दू के शब्द बहुधा से भी अधिक ही आ रहे थे और कुछ तो ऐसे शब्द थे, जिनके लिए हिंदी के या फिर आमफहम उर्दू के शब्द हम हिंदुस्तानी भी कह सकते हैं, प्रयोग करना आवश्यक लगा. मुमानी की जगह मामी, सितम की जगह जुल्म, सितमगर की जगह जालिम, अस्मत की जगह इज्जत मुझे ज्यादा मौजूँ लगा. 15 अप्रैल को सलीम ने अपनी मामी के हवाले से यह दर्ज किया है - मामी आसमान की ओर हाथ उठा कर बोलीं...ऐ अल्लाह, रहम करना, मौला हिफाजत... जानमाल की और हमारी अस्मतों की. उन्होंने बहुत सितम ढाहे हैं हम पर... सितमगर हैं ये लोग. 


तो जहाँ जरूरी लगा मैंने शब्द बदल दिए, यह मानते हुए कि सलीम ने इतनी छूट मुझे दे दी है. इसी प्रकार कहीं-कहीं हिंदी के ऐसे क्लिष्ट और पुरान शब्दों का प्रयोग किया है जो अब चलन में नहीं रहे. फर्ज कीजिए कोई कहे म्लेच्छ बाहर से आ कर.... ऐसे वाक्यों से अप्रचलित शब्दों को सुविधापूर्वक हटा दिया है. लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी कर सका हूँ. ऐसा जल्दबाजी में हुआ लगता है. सलीम की ननिहाल के कुछ सदस्य विशेषकर उसके छोटे मामू हिंदुओं के लिए काफिर, आतंकवाद के लिए दहशतगर्दी, फासिस्ट के लिए मोदी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. सलीम से पूछ कर ऐसे शब्दों को मैंने हटा दिया है. तथ्यों को ले कर भी मैंने कुछ लिबर्टी ली है. ऐसे विवरण जिनसे पता चलता है कि दंगों या धमाकों के समय अल्पसंख्यक समुदाय के लोग बहुसंख्यकों के बारे में, अपने नेताओं के बारे में, यहाँ तक कि गांधी और नेहरू के बारे में, और यह भी कि अपने देश हिंदुस्तान के बारे में कैसी घटिया-घटिया बातें करते हैं, गुस्से में क्या-क्या बोल जाते हैं, उन्हें मैंने सेंसर कर दिया है. 

आगे जब डायरी शुरू होगी तो ऐसे कई आपत्तिजनक स्थल हैं जिनमें मैंने जानबूझकर काफी शालीन शब्दों का प्रयोग किया है, जब कि सलीम का कहना था कि मैं उन्हें वैसा ही रहने दूँ. हाँ, 18 अप्रैल के पेज पर जो कुछ भी दर्ज है, वह हूबहू सलीम की डायरी से उतारा गया है, सिर्फ एक अपवाद है. भीड़ जब मामू के घर पहुँचती है तो लोग भगवा गमछा पहने रहते हैं. सलीम ने इसका बड़ा सजीव और अगर सच कहें तो आतंकित कर देने वाला चित्रण किया है. मैंने इसे छाँट दिया है. बाकी इस तारीख में, मैंने कहीं कलम नहीं चलाई है. पराग मेहता से जुड़े कुछ प्रसंग मेरे द्वारा संपादित किए गए हैं लेकिन सिर्फ शब्दों के स्तर पर. सलीम के अहमदाबाद से लौट आने के लगभग डेढ़ महीने बाद गुलनाज अप्पी ने उसे एक पत्र लिखा. डायरी के अंत में उस पत्र को उसके मूल रूप में ही दे दिया गया है.

अब दो-तीन ऐसी बातें जो या तो मुझे ऊलजलूल लगीं या पूरी तरह गैरजरूरी. सलीम ने इन्हें बहुत चाव से लिखा था. जब मैंने उन ब्यौरों और तथ्यों को छोड़ देने की बात उसे फोन पर बताई तो पहले तो वह चौंका, कुछ असमंजस में पड़ गया, फिर बोला, ठीक है भाईजान, कोई बात नहीं. मैंने सारी बातें ईमानदारी से दर्ज की हैं. आपकी मर्जी क्या लेते हैं, क्या छोड़ते हैं. मैंने डायरी आपको सौंप दी है.

एक जगह उसने लिखा है - संभवतः सलीम ने स्वप्न में ऐसी बातें देखी थीं या फिर उसकी अतिशय कल्पना की उपज हो सकती हैं'उधर से शोर उठा... ईंट पत्थर आने लगे. सब लोग ईंट पत्थर रोड़ा ढेला बरसा रहे थे... आग लगा रहे थे. दुकान और मकान जला रहे थे. यहाँ तक कि उधर के जानवर और पक्षी कुत्ते बिल्ली गधे घोड़े खच्चर बंदर कौव्वे कबूतर सुग्गे गौरैया सभी पत्थर बरसाने में शामिल थे. इधर के पुरुष और पशु पक्षियों ने कुछ देर तक उनका मुकाबला किया लेकिन जल्दी ही पस्त हो कर घरों में छुप गए. खाली पेड़ पालो ही अपनी जगह से नहीं हिले. न हमारी तरफ से न उनकी तरफ से. भविष्य में शायद पेड़ पालो भी इसमें शामिल हो जाएँ. मुझे यह सब कपोल कल्पित लगा और मैंने इसे पूर्ण रूपेण संपादित कर दिया. एक दूसरे स्थल पर उसने नानी के हवाले से दर्ज किया है, 'गोधरा के समय जब उन लोगों ने तुम्हारे नाना और मझले मामू को गांधी चौक पर आग लगा के जलाया तो मझले मामू 'अम्मा बचाओ अम्मा बचाओ' और नाना 'हिंदुस्तान हमारा है हिंदुस्तान हमारा है' बोल कर चिल्लाते रहे... जब तक कि जल कर राख नहीं हो गए. सलीम ने आगे लिखा है, 'मामूवाली बात सच मालूम पड़ती है, नाना वाली नहीं. नानी सठिया गई हैं, गढ़ती हैं.' मैंने इसे भी डायरी से खारिज कर दिया है.

अपने मामू और किन्हीं मानसुख पटेल की दोस्ती, उनके बीच हुए वार्तालाप और उनकी अप्रासंगिक कहानियों के भी डायरी में कई इंदिराज हैं. वह लिखता है,  'दोनों के बीच दाँतकटी रोटी का संबंध है. आज मामू ने एक फोटो दिखाई जिसमें वह और मानसुख पटेल एक ही आइसक्रीम से मुँह लगा कर खा रहे हैं... यह नैनीताल की फोटो है जब वर्षों पहले वे लोग वहाँ भ्रमण पर गए थे. मामू ने एक-दूसरे के यहाँ की दावतों के बारे में भी बताया. मानसुख के घर पर कढ़ी, खिचड़ी और ढोकला, मामू के यहाँ मीट पुलाव और बिरियानी. नवरात्र दशहरा में साथ-साथ गर्बा और ईद में दिन भर ताश के पत्ते और शाम को सिनेमा. और सबसे मजेदार बात जो मामू ने बताई, वह यह कि कैसे उन्होंने मानसुख को बड़े का गोश्त विशेषकर कबाब और निहारी की आदत डाली और कैसे मानसुख पटेल ने उन्हें शराब पीना सिखाया.'  वगैरह-वगैरह.... मैंने इसे गैर जरूरी डिटेल समझ कर डायरी की सीमा से परे रखा है.

और अंत में इस डायरी के नामकरण के बारे में. डायरी के सारे इंदिराजों को पढ़ कर लगता है जैसे यह कोई क्रमबद्ध आख्यान हो. इसी आख्यान का नाम 'चोर सिपाही' रखा गया है. जैसा कि सलीम ने बताया कि कर्फ्यू में वह, उसकी गुलनाज अप्पी और कुछ दूसरे बच्चे समय काटने के लिए घर में चोर सिपाही का खेल खेलते थे. बचपन में हम सभी ने यह खेल खेला है. मेरा अपना यह प्रिय खेल था. जब घर से बाहर निकलने में रिस्क हो, फुटबाल, क्रिकेट और आवारागर्दी पर रोक हो, तो बच्चे क्या खेलें?  चोर सिपाही. जान भी बची रहे,  मनोरंजन भी हो जाए. सलीम ने अपनी डायरी में संभवतः 16 या फिर 17 अप्रैल वाले विवरण में इस खेल का खूब मनोयोग से वर्णन किया है. इस खेल को जैसा मैं समझता हूँ और सलीम ने जैसा वर्णन किया है, दोनों में बस थोड़ा ही फर्क है. इसमें मैंने बिना कोई फेरबदल किए ज्यों का त्यों रख दिया है. आप खुद देखेंगे. अंत में एक बार दुहरा देने में कोई हर्ज नहीं कि डायरी में जहाँ भी लेखकीय फेरबदल किए गए हैं वे भाषा को ले कर मात्र उर्दू और क्लिष्ट हिंदी के शब्दों के स्तर पर हैं. वाक्य रचना सलीम की अपनी है. मैंने उन्हें उनके मूल रूप में ही रहने दिया है.


10 अप्रैल
कल साबरमती एक्सप्रेस से रात दस बजे अहमदाबाद पहुँचा. इस्माइल मामू स्टेशन पर लेने आए थे. उनकी कार बहुत अच्छी है, नई खरीदी है. स्टेशन से घर पहुँचने में सिर्फ बीस मिनट लगे. रास्ते में मामू शहर के बारे में बताते जा रहे थे. हम लोग पटेल मार्ग से गांधी चौक पहुँच रहे हैं. बाईं ओर अटलांटिस मॉल है और सामने अहमदाबाद का सौ साल पुराना ब्रिज दिखाई पड़ रहा है. हरीबत्ती जलते ही हम ठीक उसी के नीचे से पास होंगे. ऊपर से रेलगाड़ी जा रही थी. कुछ दूर और चलने पर मामू ने सड़क के दाहिने हाथ पर इशारा करते हुए बताया कि यह उनका स्कूल है. यह बताते हुए वह खुश हो गए. सलीम मियाँ, हम यहीं पढ़े हैं. मुझे हैरत हुई कि बड़े लोग अपने स्कूल को याद रखते हैं. बोर्ड परीक्षाओं के बाद तो मेरा अपने स्कूल की ओर देखने का मन भी नहीं कर रहा था. रास्ते में मामू का फोन दो बार बजा. एक बार मामी का आया. 



एक बार किन्हीं मानसुख पटेल का. मामी से तो उन्होंने हाँ...हूँ में बातें कीं लेकिन मानसुख से खूब हँस-हँस कर. घर पर सबसे पहले मामी मिलीं, फिर नानी. नानी मुझे लिपटा कर रोने लगीं, अम्मी के बारे में पूछा और बैठ गईं. गुलनाज अप्पी दौड़ी-दौड़ी आईं और मुझसे लिपट पड़ीं. गुलनाज अप्पी पहले छोटी-सी थीं. छोटे मामू को नहीं देखा. मामी ने कई तरह का खाना बनाया था. पर मुझे स्वाद नहीं आया. वह समझ गईं, बोलीं, आज तो पहला दिन है, कल से तुम्हारी पसंद की चीजें बनाऊँगी. अब सोता हूँ... बहुत थकावट लग रही है. कल अम्मी को फोन करके बता दूँगा कि अच्छे से पहुँच गया हूँ और नानी खैरियत से हैं. मामू मामी गुलनाज अप्पी सभी खैरियत से हैं. दरवाजे पर दस्तक हो रही है. छोटे मामू भी आ गए हैं. लेकिन मैं सोता हूँ... उनसे कल मिलूँगा.


11 अप्रैल
साढ़े आठ बजे सो कर उठा. छोटे मामू, मेरे जगने से पहले ही चले गए थे. दस बजे तक नानी के पास बैठा रहा. अम्मी के बारे में बात करना नानी को बहुत अच्छा लगता है. मामी ने नाश्ते में दूध से बनी खीर जैसी कोई चीज दी जो मुझे बहुत अच्छी लगी. गुलनाज अप्पी ने पढ़ाई और एक्जाम के बारे में बातें कीं. बोलीं, पास हो जाओगे बच्चू, लेकिन मुझसे ज्यादा परसेंटेज लाओ तो जानूँ. मैंने पूछा, आपके कितने आए थे अप्पी? उन्होंने कहा, एट्टी. फिर उनके मोबाइल पर किसी का फोन आ गया. वह कोने में चली गईं.



दो बजे दोपहर का खाना खाया फिर सो गया. साढ़े चार बजे उठा. छत पर गया. चारों तरफ का नजारा अच्छा लगा. सुना था अहमदाबाद में लोग पतंग बड़े शौक से उड़ाते हैं. देखा तो बात सच निकली. आसमान में पतंग ही पतंग. इसका मतलब मैं भी पतंग उड़ा सकता हूँ. मामू के घर से थोड़ी दूर पर मस्जिद है. उसकी मीनार से लाउडस्पीकर बँधा है. उस पर अकसर चिड़ियाँ बैठी रहती हैं. मामू की छत से अहमदाबाद का सौ साल पुराना ब्रिज साफ दिखाई पड़ता है. उसके ऊपर से जाती रेलगाड़ी भी. अप्पी भागती हुई छत पर आईं और बोलीं...लो, चाचू जान से बात कर लो. छोटे मामू बोले, अमाँ यार, हमेशा सोते रहते हो. रात में जगे रहना. सलाम दुआ तो कर लें. गुलनाज अप्पी का मोबाइल फिर बजने लगा. वह कोने की ओर भागीं. बगल की आंटी लोग मिलने आईं. वह अम्मी को जानती थीं.

इस्माइल मामू फैक्ट्री से पाँच बजे तक आ जाते हैं. पौने छह बजे तक नहीं आए तो नानी चिंतित होने लगीं. मामी मोबाइल ले कर बैठ गईं. मामू का फोन बिजी जा रहा था. मैंने गेस किया कि मामू मानसुख पटेल से ही बात कर रहे होंगे.

शाम को साढ़े छह बजे होंगे. नानी टीवी के सामने बैठे-बैठे बोलीं, दुल्हन, देखो तो कुछ हुआ है... कुछ ऐसी-वैसी खबर आ रही है... आओ भाई जरा देखो तो...गांधी चौक की तरफ कुछ हुआ है. नानी की आवाज में घबराहट थी, कँप कँपी भी. देखो तो दुल्हन, देखो तो दुल्हन, वह रुक-रुक कर दुहरा रही थीं.

मैं मामी के साथ किचन में खड़ा था. मामी ने गुलनाज अप्पी से कहा... तुम मुर्गा देखती रहो... नमक डाल देना... अम्मा क्यों हड़बड़ाई हैं. वह टीवी रूम की ओर लपकीं. मैं उनके पीछे-पीछे.



टीवी पर अहमदाबाद में अभी-अभी हुए एक के बाद एक बम धमाकों की ब्रेकिंग न्यूज आ रही थी. नानी के मुँह से निकला, अल्लाह खैर करे... यह क्या हुआ, किसने किया. मामी ने भी देखा और जैसे ही पूरा माजरा उनकी समझ में आया वह गेट की ओर भागीं. मैं भी दौड़ा. उन्होंने इधर-उधर देखा, गेट में ताला लगाया और वापस टीवी रूम में. ब्रेकिंग न्यूज का सिलसिला जारी था. मामी मोबाइल में कोई नंबर सर्च करते-करते चिल्लाईँ, गुलनाज, किचन का काम छोड़ो... जल्दी पीछे वाले गेट में ताला मारो. अप्पी भी छोटे मामू को फोन मिलाने लगीं. मामी की भी कोशिश जारी थी. फोन ट्राई करते-करते मामी खिड़की के पर्दे गिराती जा रही थीं. जैसे तूफानी हलचल मच गई. घर से अम्मी का फोन आया. टीवी देख कर डिस्टर्ब हो गई थीं. इसके बाद के हालात सिलसिलेवार ढंग से संक्षेप में लिखता हूँ –

1. इस्माइल मामू बखैर घर पहुँच गए. बताया कि बाहर कुछ तनाव है. नानी और मामी सन्न थीं. अप्पी फोन पर फोन किए जा रही थीं.
2. जहाँ-जहाँ धमाके हुए उनमें मुसलमानों का एक भी रिहायशी इलाका शामिल नहीं था. मेरे मुँह से निकला... चलो यह तो अच्छा हुआ, बच गए. सभी ने मुझे चुप करा दिया, यही तो अच्छा नहीं हुआ. चैनल बदलने का काम अप्पी कर रही थीं... लेकिन एक बार भी सिनेमा और सीरियल पर नहीं ले गईं .
3. बड़े मामू कई बार छत पर गए. नीचे आए. फिर छत पर गए. कुछ देर बाद नीचे आए और गेट की तरफ गए, ताले को हाथ लगाया, इधर-उधर देखा, वापस टीवी रूम में आ गए.
4. छोटे मामू आए. उनके लिए पीछे का गेट खोला गया. वह गुमसुम टीवी के सामने बैठ गए.
5. धमाकों में मरनेवालों की संख्या बढ़ती जा रही थी और साथ में नानी, मामू और मामी के दिलों की धड़कनें भी. मामी तस्बीह पढ़ रही थीं और हाथ उठा कर दुआ कर रही थीं - अल्लाह करे ये हरकत मुसलमानों की न हो. अल्लाह करे....नानी नमाज पढ़ने लगीं.
6. पड़ोस के रशीद मियाँ और शुजाउद्दीन अंसारी सपरिवार टेंपो पर बैठ कर कहीं निकल गए. बाकी लोग तैयारी में थे. किसी सेफ जगह पर जाने की. ऐसे में किसी हिंदू इलाके में जगह मिल जाए!
7. इस बीच मामू ने मानसुख पटेल से दो बार बात की. खाली बात... कोई हँसी-मजाक नहीं. इंस्पेक्टर खान का फोन आउट ऑफ रेंज बता रहा था.
8. गुलनाज अप्पी किचन और टीवी रूम में आ-जा रही थीं. कुकर में धीरे-धीरे मुर्गा पक रहा था. एकदम मरियल आँच पर. जिस समय उनके मोबाइल पर 'हमराज' पिक्चर की तुम अगर साथ देने का वादा करो...वाली धुन बजी, अप्पी टीवी रूम में थीं. मैंने उनका मोबाइल उठा लिया. स्क्रीन पर लिखा था, फातिमा कॉलिंग.... पर मेरे कुछ बोलने से पहले ही उधर से एक पुरुष की आवाज आई, गुलू, तुम लोगों की तरफ गड़बड़ हो सकती है. हमारी कम्युनिटी के लोग ही मारे गए हैं... टेंशन बढ़ रहा है... मैं फिर फोन करूँगा. टेक केयर.
9. अप्पी ने टीवी रूम में खाना लगाया. इस बीच बड़े-बड़े नेताओं द्वारा शांति बनाए रखने की अपील टीवी पर की जा रही थी. नानी ने कहा, खाने का मन नहीं. मामू ने कहा, तबियत ठीक नहीं लग रही. मामी ने कहा, अब मैं अकेले क्या खाऊँ... गुलनाज और सलीम, तुम लोग खा लो. अप्पी के पेट में दर्द होने लगा. खाली मैंने खाया. मैंने कहीं सुन रखा था कि जिस दिन घर में कोई खाना नहीं खाता है वह बड़ा मनहूस दिन होता है, जैसे घर में किसी का इंतकाल हो गया हो.

मैं सोने चला आया हूँ. सब लोग अभी भी टीवी रूम में हैं. रात के साढ़े बारह बजे हैं. मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. आतंकवादियों ने अस्पताल तक को नहीं बख्शा. पूरा मुहल्ला सायँ-सायँ कर रहा है. छोटे मामू बहुत गुस्से में लग रहे थे. बोले, यह तो होना ही था, जैसा करोगे वैसा भरोगे. जबसे आया हूँ, छोटे मामू कुछ अजीब-से लग रहे हैं.... अच्छा अब गुडनाइट.



12 अप्रैल प्रातः चार बजे
आज सुबह चार बजे ही आँख खुल गई. एक बजे सो कर चार बजे उठ गया. दोनों मामू, मामी, अप्पी और नानी बैठे-बैठे, अधलेटे हो कर टीवी देख रहे थे. खाना उसी तरह पड़ा था. शायद रात में वे लोग सोए नहीं. धमाकों में मरने वालों का मातम मना रहे थे क्या? जी नहीं, कभी नहीं. उन्हें तो अपनी पड़ी थी. अपनी जान की फिकर घेरे थी उनको, अपने माल-असबाब के बारे में चिंतित थे वे. फिकर मेरी जान की भी थी उनको. बाथरूम जाते वक्त मैंने नानी को सुना, कहाँ से चला आया यह लड़का. दूसरे की औलाद! पेशाब करके मैं बिस्तर पर वापस चला आया. सभी ने एक-एक करके वजू बनाए और नमाज अदा की. दुवाएँ माँगी. नानी ने मुझ पर फूँक छोड़ा. फिर धीरे से बुदबदाईं, मौला रहम कर. इस बच्चे को अपनी हिफाजत में रख. रहम कर मालिक, रहम... कहते हुए वह टीवी रूम में चली गईं. फिर सबकी सलामती की दुआएँ कीं. नानी जब छोटे मामू के पास पहुँचीं तो उन्होंने मुँह बनाते हुए कुछ कहा जिसे मैं नहीं सुन सका.

मैं सोचता हूँ कि मेरे बारे में सारे लोग इतने फिकरमंद क्यों हो गए. बम ब्लास्ट से अकेले आखिर मुझे क्या खतरा? नानी और मामी बात का बतंगड़ बना रही हैं. लेकिन कुछ बात तो है जिसे ले कर बड़े लोग इतना परेशान हैं. कुछ-कुछ मेरी समझ में भी ये बातें आ रही हैं. जब मैं बात को समझ गया तो मुझे नींद आने लगी. मैं सो गया. सपने में अपनी बोर्ड परीक्षा की सारी उत्तर पुस्तिकाओं को हिंदी, इंगलिश, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र और अपनी चित्रकला की सारी उत्तर पुस्तिकाओं को मैंने देखा. उनमें मेरे द्वारा लिखे सारे उत्तर भाप बन कर उड़ रहे थे. मेरी आँखों के सामने ही मेरे उत्तर मेरी कापियों से नदारद हो गए. कितने सही और सटीक उत्तर थे मेरे. सालभर कितनी मेहनत से रटे थे मैंने. अशोक महान और अकबर महान वाले प्रश्न, पाइथागोरस का सिद्धांत, मेरा देश : भारतवर्ष पर लिखा मेरा निबंध, चित्रकला में बनाया मेरा फूलों का गुलदस्ता... सब भाप बन कर उड़े जा रहे थे. लगता है फेल हो जाऊँगा.



12 अप्रैल 10 बजे से 2 बजे दिन
देर से सो कर उठा. मामी ने फरमान सुनाया, गेट के बाहर और छत के ऊपर नहीं जाना है किसी भी हालत में. इसका मतलब कि बस घर के अंदर दुबके रहो या बड़े लोगों की तरह टीवी देखते रहो. आज मामू अपना रिवाल्वर साफ कर रहे थे. कहते हैं गोधरा के बाद इसे खरीदा. कितनी मशक्कत कितनी भागदौड़ करनी पड़ी इसके लिए. एक का तीन खर्च करना पड़ा. तब कहीं जा कर लाइसेंस मिला. इतने नजदीक से रिवाल्वर मैंने पहली बार देखा था.

इस्माइल मामू अपने इलाके के नेता जैसे हैं. सुबह से कितने लोग उनसे मिलने आए. मामू ने सबको समझाया कि मुहल्ला छोड़ कर कोई कहीं न जाए. हिम्मत से डटे रहें. जो होगा देखा जाएगा. घर में मामू अब हर वक्त अपना रिवाल्वर शर्ट के अंदर छुपाए रहते हैं. यहाँ तक कि मस्जिद जाते समय भी मामू रिवाल्वर को अंदर टाँगे रहते हैं. आज नमाज के बाद इमाम साहब मामू के साथ घर आए. वे मुहल्ले में एक-एक कर सबके घर जा रहे हैं. इमाम साहब ने कहा, सभी नमाज का दामन पकड़े रहें, यह मुश्किल घड़ी है. लेकिन कट जाएगी. इमाम साहब को कहीं से खबर लगी थी कि पटेल मार्ग पर अपने एक आदमी को चाकू से मार दिया गया है. पूरा अहमदाबाद एक बार फिर मुसलमानों से खफा है. और उनका गुस्सा बढ़ता ही जा रहा है....बोलते हुए इमाम साहब की आवाज भर आई... बैठे लोगों के चेहरों परहवाइयाँ उड़ने लगीं. पूरा अहमदाबाद अगर फिर से मुसलमानों से नाराज हो जाएगा तो हम कैसे बचेंगे. कहाँ जाएँगे.... लगा, इमाम साहब रो पड़ेंगे... सभी बैठे हुए लोग रो पड़ेंगे... मामू रो पड़ेंगे... मैं भी रो पड़ूँगा.

अफवाह! अफवाह और सच्चाई में कितना कम फर्क रह जाता है ऐसे मौकों पर! अफवाह सच्चाई से ज्यादा विश्वसनीय लगने लगती है, ज्यादा अच्छी लगने लगती है...कभी-कभी तो उसमें ज्यादा मजा भी आने लगता है. अफवाह न उड़े तो कमरों में बैठे लोग क्या करें, किस विषय पर बात करें, किस डर से विचित्र- विचित्रयो जनाएँ बनाएँ. अफवाहों पर बात करते-करते समय उड़ने लगता है, रात-दिन तेजी से कटने लगते हैं, सिगरेट पर सिगरेट, चाय पर चाय चलने लगती है. लोग एक-दूसरे से सटे-चिपके बैठे रहते हैं... बच्चे बड़ों की बातें सुन कर कभी हँसते हैं तो कभी रोने लगते हैं. लेकिन मैं एक बार भी नहीं रोया. जैसे- अफवाह उड़ी कि दरियापुर मंडी के पास हमला हुआ है, इमाम साहब पिछले दरवाजे से मस्जिद की ओर भागे. उनकी फैमिली मस्जिद के नजदीक रहती है. बाकी पड़ोसी बैठे रहे. मामू ने कहा, आप लोग घबराइए मत. जो होगा पहले मुझे होगा. यह सब सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा. किसी ने पूछा, यह लड़का कौन है. 

मामू ने कहा, मेरा भांजा है. यहाँ घूमने आया है. फिर मामू मेरी ओर देख कर मुस्कुराए. मैं समझ गया. मेरे बड़े मामू मुझ से कह रहे हैं, सीढ़ी तक घूमो, पिछले दरवाजे तक घूमो, टीवी रूम में घूमो, सीढ़ी पर घूमो, लेकिन अगर बाहर वाले गेट तक या छत पर घूमने गए तो देख रहे हो, शूट कर दूँगा. इस्माइल मामू देखने में खूब लंबे-चौड़े हैं, हट्टे-कट्टे हैं, खूबसूरत हैं एकदम नाना की तरह. रिवाल्वर उन पर खूब फब रहा है. अगर कुछ हुआ तो वे पूरे मुहल्ले को बचा लेंगे. वह हमेशा कुछ-कुछ सोचते रहते हैं. जाने क्या-क्या सोचते रहते हैं इस्माइल मामू. छोटे मामू को सुबह से नहीं देखा. नानी और मामी टीवी रूम में बैठी रहीं. अप्पी का मूड आज थोड़ा ठीक है. खाना बनाने वाली दाई दो दिन से नहीं आरही थी तो उन्हें ही चाय बनानी पड़ती थी. तो उनका मूड ठीक कैसे रहता. दाई आज आई है. आते ही उसने मुखबिरी की - लड्डन मियाँ और निजाम साहब आज सुबह-सुबह कहीं निकल गए. उनके घरों में ताला लगा है.



12 अप्रैल पाँच बजे
पुलिस जीप से कुछ घोषणा की जा रही है. अप्पी मुझे ले कर खिड़की से झाँकने लगीं सुनने के लिए. आप अपने घरों को छोड़ कर कहीं और न जाएँ... भागें नहीं. अपने घर-मुहल्ले में ही रहें. जीप हमारे घर के ठीक सामने रुक गई, ठीक हमारी खिड़की के सामने जिसके पीछे हम और अप्पी छिपे खड़े थे. तीन-चार सिपाही नीचे उतर कर इधर-उधर ताक रहे थे. वे सब खाकी में थे. उनके कंधों से लंबी काली बंदूकें लटकी थीं. घर में सभी बात कर रहे थे कि ऐसे माहौल में इनसे बचके रहना चाहिए. खिड़की से देखने पर वे थोड़ा डरावने लग रहे थे. जिसके हाथ में हैंड माइक था वह माइक के मुँह को घरों की छतों और खिड़कियों की ओर घुमा-घुमा कर चिल्ला रहा था. इस बार सरकार ने पूरा बंदोबस्त किया है. कुछ भी नहीं होगा. आप लोगों को डरने की जरूरत नहीं है... इस बार कुछ भी नहीं होगा... घर छोड़ कर भागें नहीं.... जीप आगे बढ़ गई. सिपाही वहीं चहल कदमी करते रहे... बंदूकें टाँगे. मामू, नानी और मामी टीवी रूम में बैठे हैं - न एक-दूसरे की तरफ देख रहे हैं, न ही बात कर रहे हैं. पुलिसवाले वहाँ से आगे बढ़ जाएँ तो शायद उन्हें इत्मीनान हो.




13 अप्रैल
आज तो खाली फोन फोन फोन. पहले अम्मी का फोन घर से. रो रही थीं. रोते-रोते नानी से कह रही थीं, सलीम को कहीं बाहर न निकलने दीजिएगा. दिल बहुत घबरा रहा है. फिर मानसुख पटेल का फोन मामू के पास. घबराना नहीं, भाई. कुछ शरारती लोगों का काम है यह. बहुत लोग मरे हैं. चुन-चुन के रखे थे सालों ने. लेकिन इस बार अहमदाबाद के मुस्लिम भाइयों को डरने की जरूरत नहीं है. मौका मिलते ही आऊँगा. इस्माइल मामू ने धीरे से कहा, मानसुख, अम्मा बहुत डरी हुई हैं.आस-पड़ोस के लोग भी. बस एक बार तुम आ जाओ तो यकीन हो जाएगा. मानसुख पटेल ने भरोसा दिलाया कि वे जल्द आएँगे. फिर फातिमा कॉलिंग.... गुलनाज अप्पी कोना तलाश करने लगीं. जिस कोने में वह पहुँचीं उसके बगल में मैं पहले से खड़ा था. वह बोले जा रही थी पराग, शहर का हाल बुरा है... तुम अपना खयाल रखना. इतने सारे लोग मारे गए... कोई रिएक्शन तो नहीं होगा न! अच्छा सुनो... कलसाढ़े दस बजे रात को इंतजार करूँगी... आओगे? हमारी तरफ तो कर्फ्यू का आलम है. मस्जिद की तरफ से मत आना.

फिर पुलिस स्टेशन से फोन, मामी लैंडलाइन के रिसीवर पर हाथ रख कर फुसफुसाईं, आपसे बात करना चाहते हैं. मामू ने हाथ से इशारा किया, कह दो नहीं हैं... क्या बात है. वे छोटे मामू के बारे में पूछ रहे थे. घर में सभी के हाथ-पाँव फूल गए.... आज अब आगे लिखने का मन नहीं हो रहा. डायरी में पेज भी कम बचे हैं. अब बस एक बात सोचना चाहता हूँ. पराग और गुलनाज अप्पी कल कैसे मिलेंगे.



14 अप्रैल
मुहल्ले की सारी दुकानें बंद हैं. एक भी नहीं खुली हैं. सिर्फ गली के अंदरवाली कल्लू की चाय की दुकान छोड़ कर. लेकिन यहाँ भी लोगों का जमघट नहीं लग रहा. बिजली उसी दिन से कटी है. जेनरेटर चलाना मना है. हम लोग बैटरी पर टीवी देख लेते हैं... पर सबके पास बैटरी नहीं है. लालटेन और मोमबत्ती से किसी तरह काम चल रहा है. नगर पालिका वाले कर्मचारी इस तरफ बिल्कुल नहीं आ रहे हैं. पहले भी कहाँ आते थे. गलियाँ गंधा रही हैं. नालियाँ बजबजा रही हैं. जो लोग कहते हैं मुसलमानों का खाना-पैखाना साथ-साथ होता है तो सही कहते हैं. ये मुहल्ले नगरपालिका के लिए अछूत होते हैं. लेकिन फिलहाल तो धमाकों की वजह से ऐसा हुआ है. देख लो भाई. तुम बम फोड़ो और सजा सबको मिले. एक-दो इधर भी फोड़ देते तो हमारी ये हालत न होती. हम तो जैसे गुनहगार सजायाफ्ता कौम हैं. पर तुम सुधर जाओ तो अच्छा होगा. क्यों हम लोगों को शर्मशार करते हो. मामू मानसुख पटेल से आँख कैसे मिलाएँगे. लेकिन पहले मानसुख पटेल आएँ तो. वे तो अपने एनजीओ के साथ घायलों की देखभाल में लगे हैं.


आज नानी बहुत दुखी थीं. कहने लगीं, कोई मुझे यहाँ से हटा दे... जहाँ पान का पत्ता तक नसीब नहीं. दरअसल उनका हिंदू पान वाला तीन दिन से नहीं आ रहा है. नानी का दम घुटता है. उन्हें खुली हवा चाहिए. आज छोटे मामू पूछताछ के लिए पुलिस स्टेशन बुलाए गए थे. लौटे तो सहमे हुए थे. पुलिस उनसे बाहर से आए कुछ लोगों के बारे में जानकारी चाह रही थी. छोटे मामू को देख कर नानी रोने लगीं. फूट- फूट कर रो रही थीं नानी. किसी बूढ़े व्यक्ति को बच्चों की तरह रोते मैंने पहली बार देखा था. मैं सोचता हूँ कि नाना और मझले मामू के मरने पर नानी इसी तरह रोई होंगी. लेकिन तब मैं यहाँ नहीं था. तो मैं नानी को रोते कैसे देखता. मैंने अम्मी को रोते देखा था. लेकिन मुझे पूरा याद नहीं.मैं छोटा था और अम्मी बूढ़ी नहीं थीं. छोटे मामू आज बहुत गुस्से में थे. गिलास को टेबल पर पटकते हुए बोले, सालों को अगर बम फोड़ना ही था तो... केसर पर फोड़ देते. मासूमों निर्दोषों को मारने से आखिर क्या मिला. सिर्फ पूरी कौम को जिल्लत और परेशानी. और क्या मिला. हमारे ऊपर कभी भी हमला बोल सकते हैं उधर के लोग. इससे अच्छा तो हम हिंदू होते. या फिर दादा पाकिस्तान जा रहे थे तो चले ही गए होते.


नींद आ रही है. डायरी लिखने का मन नहीं. क्या करूँ वही बातें लिख कर बार-बार. पर न लिखूँ तो क्या करूँ. एक बात मुझे बराबर साल रही है. युगों-युगों से एक साथ रहते चले आने के बाद भी हम एक-दूसरे से अचानक नफरत क्यों करने लगते हैं? क्यों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं? क्यों भेड़िए बन जाते हैं हम साल में दो-तीन बार. जिस डोर से हम बँधे हैं वह इतनी कमजोर कैसे है? अगर कमजोर है तो फिर हम बंधे कैसे हैं? वह नफरत की ही डोर है क्या? अच्छा तो इस्माइल मामू और मानसुख पटेल किस डोर से बँधे हैं.... और गुलनाज अप्पी और पराग के बीच भी कोई डोर है क्या. मैं अभी छोटा हूँ, इसलिए मुझे ऐसी बातें शायद नहीं सोचनी चाहिए. लेकिन सच तो यह है कि जब से आया हूँ यही सोच रहा हूँ. यही देख रहा हूँ. धमाके उधर हुए हैं, लेकिन खौफ के बादल इधर छाए हैं. इधर लोगों ने भरपेट खाना नहीं खाया है. इस तरफ के बच्चे खेल कूद से दूर कर दिए गए हैं. इस तरफ की दुकानें सोई पड़ी हैं और अड्डे गुमसुम हो गए हैं. गलियों में सन्नाटे की धुन बज रही है. कुत्ते आवारगी छोड़ लस्त पड़ गए हैं. कौव्वे मुँडेरों पर खामोश बैठे हैं. कबूतरों ने अपने सर परों के अंदर छुपा रखे हैं. कर्फ्यू नहीं लगा है, लेकिन जैसे कर्फ्यू लगा है. उस तरफ से नारे उठ रहे हैं... जो सीधे इस तरफ पहुँच रहे हैं. इस तरफ का चाँद कितना मद्धम है, हवा कितनी गरम बह रही है. 


मैं सुन रहा हूँ, दो-तीन गाड़ियाँ मामू के घर के पास स्लो हुई हैं. जरूर पुलिस की होंगी. वे देखने आए होंगे कि अँधेरे का फायदा उठा कर मुहल्ले के लोग अपना ठौर-ठिकाना कहीं और तो नहीं ले जा रहे हैं. इससे सरकार की बदनामी हो सकती है. वे किसी से बात कर रहे हैं... किसी को मना कर रहे हैं... समझा-बुझा रहे हैं. मैं खिड़की से देख सकता हूँ मोहतशीम साहब हैं, मामू के दोस्त, दो मकान आगे रहते हैं. अपने बीवी-बच्चों के साथ खड़े हैं, उनके बूढ़े माँ-बाप हैं... दो टेंपो सामने खड़े हैं... वहीं अँधेरे में. मैं जानता हूँ कि पुलिसवाले उन्हें मना लेंगे. नहीं तो डर-धमका कर उन्हें वापस भेज देंगे.... अब सो जाता हूँ. सुबह उठूँगा तो छत पर जरूर जाऊँगा. मैं पतंग उड़ाना चाहता हूँ. कल मैं अप्पी या नानी से कहूँगा मुझे पतंगें मँगवा दें... रंग बिरंगी ढेर सारी पतंगें ताकि मैं छत पर खड़े होकर उन्हें उड़ा सकूँ. उधर के लोग समझेंगे इधर सब ठीकठाक है. अच्छा अब गुड नाइट.



15 अप्रैल सुबह
सुबह देर से सो कर उठा और सीधे छत पर गया. रात में ठान कर सोया था कि सुबह छत पर सैर करूँगा. इधर-उधर देखूँगा और मस्ती मारूँगा. मस्ती मारे हुए तो जैसे महीनों बीत गए. परीक्षा में भी इससे ज्यादा ही मस्ती मार लेता था. पिछले पाँच दिनों से जैसे जेल में बंद हूँ. छोटे मामू फिर कहीं गए हैं. इस्माइल मामू की फैक्ट्री बंद है. जब तक हालात मामूल पर न आ जाएँ मामी उन्हें घर के गेट की ओर मुँह भी न करने देंगीं. सुबह-सुबह ही बेकरी वाले मिलने आए मामू से. वे लोग भी उ.प्र. के हैं. कहने लगे उन्हें स्टेशन तक छोड़ दें या छोड़वा दें. कल उनके दो हॉकर गांधी चौक की तरफ बुरी तरह पिट गए थे. बड़ी मुश्किल से जान बची. मामू के बहुत समझाने-बुझाने पर भी जब वे नहीं माने तो मामू ने रिवाल्वर अंदर खोंसा और मामी के लाख मना करने के बावजूद अपनी गाड़ी से उन्हें स्टेशन छोड़ने निकल गए. दो घंटे बाद लौटे तो मामू का मुँह उतरा हुआ था और चाल बेढंगी थी. भीड़ से किसी तरह बच कर आए थे. भीड़ से बचना कोई हँसी-खेल नहीं. जो कभी बचे हैं वही समझ सकते हैं. उसके बाद इस्माइल मामू जो अंदर वाले कमरे में घुसे तो शाम तक बाहर नहीं निकले. जुमे की नमाज भी मिस कर गए. लेकिन मैंने जुमे की नमाज पढ़ी. मुझे तो बाहर की हवा लेनी थी. यही मौका था. यही एक अकाट्य तर्क था. पर जुमे की नमाज छोड़ने वाले एक मामू ही नहीं थे. मस्जिद का सिर्फ आधा पेट भरा था. तमाम लोगों को घर में कैद रहना ज्यादा फायदे का सौदा लगा. था भी.



15 अप्रैल 2:30 बजे
आज छत पर बैठ कर गुलनाज अप्पी से बड़ी मजेदार बातें हुईं. लेकिन पहले नानी की बात. मेरे नमाज से लौटने के बाद मामी ने खाना लगाया और नानी को जगाने लगीं. नानी तो जगी थीं लेकिन उन्हें खाने की परवाह कहाँ. आज नाना और मामू याद हो आए थे उन्हें. इतने दिनों से जज्ब किए बैठी थीं. उनकी आँखों से टपाटप पानी गिर रहा था लेकिन रो नहीं रही थीं. सँभलीं तो नाना और मझले मामू के मारे जाने की पूरी कहानी बताने लगीं. नाना और मामू गोधरा के दंगों में कैसे मारे गए. कैसे भीड़ में फँस गए थे. कैसे वे चिल्लाते रहे. कैसे भीड़ ने उन्हें जला दिया. कहानी खत्म हुई तो मुझसे बोलीं, जाओ देखो तो इस्माइल कहाँ हैं. कहीं फिर बाहर तो नहीं निकले.

नानी जब सो गईं तो मैं गुलनाज अप्पी के पास चला गया. मेरे पहुँचते ही उनका मोबाइल बजा, तुम अगर साथ देने का वादा करो, मैं यूँ ही ... वाली धुन. वह बोलीं, तुम बहुत लकी हो मेरे लिए, देखो तुम्हारे आते ही फातिमा का कॉल आ गया. बोलते हुए वह कोना तलाश करने लगीं. लेकिन वहाँ कोई कोना नहीं मिला. छत पर कोना कहाँ होता है. छोटी-सी छत. मरता क्या न करता. मोबाइल पर हथेली का आड़ बना कर बात करने लगीं. वहीं मेरे सामने. करीब दस मिनट तक... कभी धीमे-धीमे तो कभी बहुत धीमे-धीमे बतियाती रहीं. फ्री हुईं तो मैंने पूछ लिया, ये पराग कौन हैं, अप्पी?

वह मुझे चौंक कर देखने लगीं जैसे छोटी-सी चोरी पकड़ी गई हो. मैंने अपना प्रश्न दुहरा दिया.

तुमने कहाँ सुना, किसने ये नाम लिया?
जी, मैं जानता हूँ... आप ही के मुँह से सुना है.
तुम क्या समझते हो वह कौन है?
आपके दोस्त होंगे.
नहीं, उससे भी बढ़ कर. वह बोल कर कुछ-कुछ हँसते हुए मुझे देखने लगीं कि उनके इस वाक्य का मेरे ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है.
तब आपके प्रेमी होंगे.
आयँ! वह जैसे सोते से जगीं... चौंकते हुए... हड़बड़ाते हुए. फिर शरमा गईं. चेहरा खिल आया अप्पी का. मुस्कुराने लगीं. उन्हें विश्वास नहीं था मैं ऐसा बोल जाऊँगा. मैं बस बिना किसी प्रतिक्रिया के उन्हें देखे जा रहा था.
फिर कहो तो सलीम... क्या कहा तुमने, मेरे क्या होंगे.
आपके प्रेमी. मैंने दुहरा दिया. आपके लवर....
वह बेसाख्ता खिलखिलाने लगीं. उनके दोनों गालों में डिंपल पड़ गए. अप्पी सुंदर लग रही थीं. उनके चेहरे से हया टपक रही थी. खिलखिलाहट रुकी तो बोलीं, उसका पूरा नाम पराग मेहता है, गांधी चौक में रहता है.
पराग मेहता आपके प्रेमी हैं न?
सलीम, प्रेमी का मतलब समझते हो? वह हँसते-हँसते बोलीं.
लड़के आपस में दोस्त होते हैं. लेकिन एक लड़का एक लड़की का प्रेमी होता है, उसका लवर होता है.
अच्छा! वह आँख चमकाते हुए बोलीं. बड़े जानकार हो तुम. अच्छा बताओ, क्या तुम भी किसी के प्रेमी हो?
मुझे एक लड़की अच्छी लगती है. मैंने साफ-साफ बता दिया.
क्या तुम उससे प्रेम करते हो?
वह मुझे अच्छी लगती है.
उसका नाम क्या है?
नीलम.
सुन कर अप्पी खामोश हो गईं. फिर इधर-उधर की बातें करती रहीं. नीलम के बारे में कुछ नहीं पूछा. कुछ भी नहीं कि कहाँ रहती है, कहाँ पढ़ती है, कैसी लगती है. कब से जानते हो... अभी तो तुम बहुत छोटे हो इन बातों के लिए. उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा.
जब मैं सोच रहा था कि अप्पी सचमुच अब नीलम के बारे में कुछ नहीं पूछेंगी तो वे धीरे से बोलीं, किसी अच्छी-सी मुसलमान लड़की से दोस्ती कर लो, सलीम.
शायद गुलनाज अप्पी मुझे चिढ़ा रही थीं. पर अपनी बात बोल कर हँस नहीं रही थीं वह. मजाक में कुछ बोल कर आदमी हँसने लगता है. अप्पी तो खामोश बनी रहीं एकदम गंभीर.

क्यों अप्पी, ऐसा क्यों कहती हैं आप? मैंने पूछा. उन्होंने सर उठा कर मुझे देखा... देखती रहीं. उनके चेहरे पर भाव बदलने लगे. फिर शरारतपूर्ण लहजे में बोलीं, क्योंकि सलीम के साथ अनारकली की जोड़ी होनी चाहिए.

और गुलनाज के साथ? मैंने बिना एक पल गँवाये कहा. नहले पे दहला सुन कर अप्पी मुझे घूरीं और फिर चुप्पी साध ली. कोई जवाब न सूझा उन्हें. बोलीं, अच्छा कोई दूसरी बात करो. मैंने कहा, नहीं अप्पी, मेरी बात का जवाब दीजिए. मैंने अपना प्रश्न फिर दुहराया तो बोलीं, तुम्हारी बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं है. इस प्रश्न का आखिर क्या जवाब हो सकता है? और फिर वे लगभग चहक पड़ीं - और बच्चू सुन लो, तुम्हारी बात का जवाब तुम्हारे हाथ में नहीं, मेरी बात का जवाब मेरे हाथ में नहीं. और सुनो, यह तुम्हारा शहर नहीं है कि छत पर बैठ कर खुली हवा में बैठ कर मुश्किल प्रश्नों के हल ढूँढ़ें. मुझे तो मार्केट की ओर से हंगामा खेज आवाजें आती सुनाई पड़ रही हैं. चलो नीचे.

अप्पी उठीं, अपना दुपट्टा ठीक किया और हवाई चप्पल चट-चट बजाते हुए तेजी से नीचे उतर गईं. उनके पीछे मैं भी.

मेरी बातों से अप्पी अपसेट हो गईं हैं. मैं कल उन्हें मनाऊँगा... उन से टेढ़े-मेढ़े सवाल नहीं करूँगा. आज इतना ही... अब बत्ती बुझा कर सोने और सपने की बारी. मुझे तो नीलम ही अच्छी लगती है. गुड नाइट नीलम. गुड नाइट अप्पी. गुड नाइट पराग मेहता.



16 अप्रैल सुबह
आज अहमदाबाद आए छठा दिन है. लग रहा है छह महीने से यहीं हूँ. आज पराग मेहता को देखा, उनसे बात भी की. लेकिन पहले दिन भर के ब्योरे जिनमें कुछ तो बहुत मजेदार हैं. आज पटेल मार्केट में पीस कमिटी की मीटिंग हुई. इस्माइल मामू ने बताया कि मीटिंग में मानसुख पटेल भी थे, पुलिस विभाग के अधिकारी भी थे. मीटिंग अच्छे वातावरण में हुई. इंस्पेक्टर खान ने मामू को अकेले में बताया कि सिचुएशन पूरी तरह कंट्रोल में नहीं है. स्थिति कभी भी बिगड़ सकती है. सावधानी बराबर बरतने की आवश्यकता है. सब लोग बात कर रहे थे, खान साहब अपने आदमी हैं. उधर की बात इधर बता देते हैं. मामू ने कहा, मानसुख पटेल जल्द ही स्थानीय नेताओं के साथ इधर आएँगे. छोटे मामू ने कटाक्ष किया, मानसुख पटेल को अभी फुरसत कहाँ? इस्माइल भाई से दोस्ती जरूर है, लेकिन वे हैं मोदी के पक्के भक्त.

पिछले दंगों में वह दूसरे पढ़े-लिखे लोगों को लेकर खुद भी लूटपाट में शामिल थे. यह किसी से छुपा नहीं है. अब्बा और मझले भाई को तो लोगों ने उनके घर के पास ही जलाया था. इस पर इस्माइल मामू तमक गए, अच्छा अब चुप रहो छोटे. लूज टाक मत करो. जिन जालिमों ने हमारे अब्बा और भाई को मारा उनसे मानसुख का कोई लेना-देना नहीं. शुरू से मैं देख रहा हूँ तुम मानसुख के बारे में उलटी-सीधी बातें करते रहते हो. अगर उस दिन मानसुख अपने घर होते तो भीड़ में कूद कर अपनी जान दे देते, लेकिन अब्बा और भाई को जरूर बचा लेते. छोटे मामू ने फिर हिट किया, वे घर पर क्यों होते. वे तो अपनी टोली लेकर मुसलमानों की दुकानें लूट रहे थे, उनके घर जला रहे थे. आईकांट बिलीव, आई कांट बिलीव, कहते हुए इस्माइल मामू खिड़की पर खड़े हो गए और बाहर की आहट लेने लगे. घर के पास पुलिस की जीप स्लो हुई थी.




16 अप्रैल 2बजे
छत पर फिर से मैं और अप्पी. मैंने अप्पी से कहा, अप्पी, पतंग उड़ाने का मन कर रहा है, जा कर ले आऊँ क्या? अप्पी बहुत अच्छी हैं. उन्होंने झट फातिमा कॉलिंग को फोन मिलाया और मेरे सामने ही उन्हें डाँट पिलाई कि पिछली रात वादा करके आए क्यों नहीं. आज जरूर आना. सुनो, इधर तो सारी दुकानें बंद हैं, अपनी तरफ से कुछ पतंगें लेते आना... इलाहाबाद से मेरा फुफेरा भाई आया है... बिचारा यहाँ फँस गया है... एक हफ्ते से घर में बंद है... दो दिन से तो हम लोग छत पर आना शुरू किए हैं... वह पतंग उड़ाना चाहता है. और सुनो...इधर भी टेंशन है... अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस के छापे पड़ रहे हैं... बच-बचा के आना. रीगल के पास पहुँचना तो मिस्ड काल दे देना... मैं पीछे वाले गेट पर रहूँगी. इसके बाद अप्पी के मुँह से निकला, धत्‌... आओ तो बताती हूँ.



16 अप्रैल 3 बजे, चोर सिपाही का खेल
मामी के भाई-भाभी अपने बच्चों के साथ मिलने आए. वहीं पास में रहते हैं. फोन से मामी डेली बात करती थीं उन लोगों से. उनकी बेटी फरजाना मुझसे एक क्लास सीनियर, बेटा शेरू एकदम छोटा क्लास थ्री में. बहुत अच्छा लगा कि बाहर से लोग घर में आए. दो-चार मिनट में ही घुलमिल गए. क्या किया जाए... क्या किया जाए... आज तो कुछ करते हैं, इतने दिनों से सड़ रहे हैं. कुछ खेलते हैं. इतने में मामी, नानी लोग छत पर आ गईं और हुक्म हुआ कि बच्चे नीचे जाकर खेलें. अप्पी के नेतृत्व में हम लोग नीचे आ गए. नीचे क्या खेलें... क्या खेलें... अप्पी ने कहा, चोर सिपाही खेलते हैं... इस समय इस खेल से अच्छा कुछ नहीं. हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा का चोखा. फरजाना ने हँसते हुए कहा, हाँ अप्पी, यही खेल ठीक रहेगा. छुपने की प्रैक्टिस भी हो जाएगी... शेरू भी छिपना सीख जाएगा... क्यों शेरू? अगर वे हमला करने आए तो हमें ढूँढ़ नहीं पाएँगे. अप्पी ने फरजाना के गाल पर एक चपत लगाते हुए उसे इंटेलिजेंट गर्ल कह कर शाबाशी दी. फिर बोलीं, इस घर में छिपने की सबसे अच्छी जगह कौन सी है, पता है? हम सब ने एक स्वर में कहा, बताइए, अप्पी बताइए. पिछली बार जब प्राब्लम हुई थी तो आप कहाँ छिपी थीं... 


तब तो आप छोटी थीं. अप्पी ने कहा, रोज मैं अलग-अलग जगह छिपती थी. एक दिन तो अब्बू ने ऊपर पानी की टंकी में ही डाल दिया था उसमें थोड़ा-सा पानी था... और सुनो, उसमें मेढक भी थे...लेकिन उन्होंने मुझे नहीं काटा. शेरू बोला... छी छी अब मैं टंकी का पानी नहीं पियूँगा. अप्पी ने शेरू को चुटकी काटते हुए कहा, तुम चुप करो, तुम तो फ्रिज में या छोटी आलमारी में समा जाओगे. शेरू चुप करने वाला बच्चा नहीं था... बोला, तब तो मजा आ जाएगा... मैं फ्रिज में रखी सारी मिठाइयाँ और अंडे खा जाऊँगा. फरजाना बोली, गुलनाज अप्पी, शेरू को एक झोले में रख कर किचन में टाँग देंगे... वे लोग समझेंगे ढेर सारी सब्जी टँगी है और शेरू बच जाएगा. सब लोग हँसने लगे, शेरू भी. अप्पी ने कहा, देखो बच्चो, इसके लिए जरूरी है कि सभी बच्चों को अपने घर के कोने-कोने की जानकारी होनी चाहिए.


अप्पी ने पूरे घर की सैर करा दी और हर उस जगह... हर उस कोने को दिखाया...जहाँ छिपा जा सकता था. छिपने के हिसाब से मामू का घर शानदार था. बच्चों के छिपने की जगह अलग और बड़ों के छिपने की जगह अलग. हमला बोलने वालों को भनक तकन लगे कि घर के लोग कहाँ गायब हो गए. मामू के घर में मुझे जो सबसे अच्छी जगह लगी वह थी स्टोर रूम में एक बहुत बड़े टीन के बक्से के पीछे की जगह जिसके दोनों ओर टूटी-फूटी रिजेक्टेड चीजों का अंबार था. देखने वाले को ऐसा लगे कि उसके पीछे तो बस चूहे-बिल्ली ही रहते होंगे. वे आएँगे और टीन के बक्से पर लोहे की रॉड से दो-चार वार करेंगे और लौट जाएँगे. आप उनको मुँह चिढ़ाते छुपे बैठे रहिए.


अप्पी कभी-कभी बहुत मस्ती करती हैं. बोलीं, सलीम मियाँ, उस जगह को ललचाई नजरों से मत ताकिए, वह जगह पहले से ही आपकी नानी के लिए रिजर्व है. इधर भीड़ का अंदेशा हुआ कि अब्बू और अम्मी उन्हें उठा कर सीधे बक्से के पीछे रख देंगे. शेरू बोला, और नानी के पास थोड़ी मिठाई रख देंगे अगर उन लोगों ने नानी को देख लिया तो नानी उन्हें मिठाई दे कर बच जाएँगी. नहीं देखा तो नानी खुद खा लेंगी. फिर हम लोगों ने गर्दन मोड़ कर बक्से के पीछे देखा कि यहाँ जब नानी बैठेंगी तो कैसी दिखाई देंगी. सोच-सोच कर हमें खूब हँसी आई. हमने वहाँ से कुछ फालतू सामान हटा दिया कि खुदा न खास्ता अगर ऐसी नौबत आ ही गई तो किसी को भी वहाँ छिपने में सुविधा हो. अप्पी ने फरजाना की ओर मुखातिब होते हुए कहा कि ऐसे में लड़कियों को घर के अंदर नहीं छिपना चाहिए. घर में सेफ नहीं रहता. सबसे अच्छा है कि गैरेज में या फिर बाहर कूड़ेदान के पीछे छिपें. फरजाना ने कहा, अप्पी, मैं जानती हूँ, अम्मी बता चुकी हैं. फिर उसने उसी टीन के बक्से को देखते हुए कहा, भई सब लोग देख लो... कभी भी खाली बक्से में नहीं छिपना चाहिए... यह बहुत खतरनाक होता है. पिछली दफा के दंगों में मेरे पड़ोस के रशीद अंकल और आंटी छत पर जा छुपे और उनके दोनों बच्चे घर में खाली पड़े बक्से में घुस गए. दूसरे दिन जब वे लोग छत से उतरे तो बच्चों को ढूँढ़ने लगे. दोनों बच्चे बक्से के अंदर मरे मिले... क्योंकि उनके अंदर जाते ही बक्से का ढक्कन नीचे गिरा और कुंडी लग गई. 



शेरू बड़े गौर से सुन रहा था... बोला, फरजाना अप्पी, छोटे बच्चों को तब कहाँ छुपना चाहिए? गुलनाज अप्पी समझ गईं कि शेरू डर गया है और यह भी कि शायद छोटे बच्चों के सामने इस तरह की बातें नहीं करनी चाहिए. वह धीरे से बोलीं, शेरू भैया, तुम्हें छिपने की जरूरत नहीं... वे छोटे बच्चों को बिल्कुल नहीं मारते. इतना कहते ही जैसे उन्हें हँसी आ गई... उन्हें कुछ शरारत भी सूझी...बोलीं, खाली जोर से कान उमेठ कर छोड़ देते हैं. शेरू अपना कान छूते हुए गुस्से से बोला, अगर वे मुझे मारेंगे या मेरा कान उमेठेंगे तो हम भी उनको मारेंगे लोहे की रॉड से. फिर वह अपनी फरजाना अप्पी से चिपक गया.


उसके बाद हमने देर तक चोर सिपाही खेला और उन-उन जगहों में छिपे जिन्हें हमने अपने लिए पहले से तय कर रखा था. और उन कोनों में भी छिपे जिन्हें अपने ही घर में हमने पहले कभी नहीं देखा था. उस दिन छुपने और ढूँढ़ने की खूब अच्छी प्रैक्टिस हुई और अंततः छुपने वालों की जीत हुई. एक बात और... इससे हमारा अपने घर के कोने-कोने से परिचय हो गया... कोने-कोने से दोस्ती हो गई. खूब अच्छा टाइम पास हुआ, खूब मजा आया.



16 अप्रैल पाँच बजे
मामी के रिश्तेदार चले गए तो मामी और नानी नीचे आ गईं. यहाँ की काम करने वाली बाई बड़ी वाचाल महिला है. कयामत आ जाए लेकिन चुप नहीं रहेगी. पिछले दंगों से जुड़ी ऐसी-ऐसी कहानियाँ सुनाती है कि बस सुनते रहिए. कुछ सच कुछ झूठ. लेकिन बताने की स्टाइल ऐसी कि जैसे टीवी सीरियल चल रहा हो. मैं और अप्पी बगल वाले कमरे में थे. नानी, मामी और दाई किचन में. हवा ऐसी बह रही है कि बड़े लोग कोई भी बात करें घूम-फिर कर दंगे-फसाद पर ही आ जाती है. मामी बोलीं, पिछले दंगों में कितनी औरतों की इज्जत से खेला दंगाइयों ने. जालिमों ने छोटी उम्र की लड़कियों तक को नहीं छोड़ा. मामी इतना ही बोली थीं कि मेरे कान खड़े हो गए. मुझे आगे सुनने की जिज्ञासा हुई. और शायद अप्पी को भी... क्योंकि उन्होंने टीवी का वाल्यूम कम कर दिया. मैं टीवी देख रहा था पर कान  उधर ही कर लिए. अप्पी कुछ लिखने का नाटक करने लगी थीं. नानी ने बात आगे बढ़ाई, नामुरादों ने उन्हें भी नहीं छोड़ा जो बीमार थीं, उन्हें भी नहीं छोड़ा जो मरने को थीं और उन्हें तक नहीं बख्शा जिनके पैर भारी थे...सातवाँ-आठवाँ महीना चल रहा था. बस कुछ को छोड़ा, दाई ने नानी को लगभग काटते हुए कहा. किन्हें? नानी और मामी की आवाज एक साथ आई. फिर कुछ रुक कर दाई की आवाज : अम्मा, सुन लो... 


अब जिन्होंने चिल्ला कर कहा... गिड़गिड़ा कर कहा कि मुझे छोड़ दो... भैया मुझे न छुओ... महीने से हूँ... मासिक धरम हो रहा है. सुन कर वे गुस्से से दाँत पीसते हुए, चाकू लहराते हुए, तलवार भाँजते हुए आगे बढ़ जाते थे. अम्मा, हमारे मुहल्ले में दुकानें लुटीं, घर जले, लोग मरे, लेकिन अस्मत बची रही. बड़ी मामी ने ठिठोली की, हाय रे तुम्हारा मुहल्ला... क्या एक ही टैम में सबकी सब महीने से होती थीं... और वे इतने भोले थे कि मुओं को शक तक न हुआ. दाई सिलबट्टे को छोड़ कर उनके पास सरक आई. शक हुआ, बाजी, क्यों नहीं हुआ. जिन पर शक हुआ उनको उठा कर ले गए. 


बस उसीके बाद से मुहल्ले की सारी औरतों ने लत्ते ठूँस लिए कि अगर.... वाक्य पूरा भी न हुआ था कि तीनों औरतें ठट्ठा मार कर हँसने लगीं. गुलनाज अप्पी जो साँस बाँधे सुनती जा रही थीं, दाँतों के बीच पेंसिल दबाए खिलखिला पड़ीं. पर बात अभी खत्म नहीं हुई थी. मेरी मामी बड़ी ढीठ हैं - बद्तमीजी की हद तक. खुर्राट स्वर में बोलीं, दो-चार पैकेट अभी मँगवा कर रख लेती हूँ... उधर कोई शोर हुआ और धुआँ उठा, इधर हम झट तैयार हुए. और सुनो, ए रहीमन, जरा दुहराओ तो तुम लोग कैसे गिड़गिड़ाई थीं. जरा हम भी रिहर्सल कर लें. और एक साथ नानी, मामी और दाई की हँसी का फौव्वारा फूट पड़ा. मैंने सोचा, चलो अच्छा हुआ, पिछले पाँच दिनों में पहली बार इस घर में हँसी गूँजी है. लेकिन गुलनाज अप्पी खिसिया गईं. उन्हें पता था मैंने भी सुना है. मुझसे आँख छिपाते हुए बोलीं, अम्मी भी... बस ले कर बैठ गईं उलटी-सीधी. फिर वह मुँह पर किताब रखकर सोने का ढोंग करने लगीं.

शाम को गली में कुछ दुकानें खुलीं. अप्पी ने मामी से जिद की कि खट्टे समोसे खाएँगी. मामी के किचन में कई चीजों की किल्लत चल रही थी उन्होंने एकलिस्ट नानी को थमाते हुए मुझसे उनके साथ दुकान तक जाने को कहा. मामी कीलिस्ट : केयरफ्री (दो बार अंडरलाइन), गरम मसाला, धनिया पाउडर, नमक, पापड़, चीनी, चाय की पत्ती, अरहर की दाल और बर्तन धोनेवाला विम बार.



16 अप्रैल 10बजे रात
फातिमा कॉलिंग... मिस्ड कॉल. गुलनाज अप्पी ने फोन पर हौले से कहा, पीछे वाले गेट के पास आ जाओ. आज अप्पी ने सुंदर-सा फूलदार कुर्ता पहन रखा था. कुर्ते में एक जेब थी. अप्पी ने इधर-उधर देखा, चुपके से हाथ जेब में डाला और लिपस्टिक जैसी कोई चीज निकाल कर जल्दी से अपने होंठों पर चढ़ा लिया. फिर दुनिया में जितनी दिशाएँ होती हैं उतनी दिशाओं में अपने होंठों को घुमा कर चुपचाप खड़ी हो गईं. करीब दस मिनट बाद पराग मेहता आए. सच कहूँ... मुझे बहुत अच्छे लगे पराग मेहता. गोरे, स्मार्ट लेकिन ज्यादा लंबे नहीं. उनके हाथ में कुछ पतंगें थीं अलग-अलग रंग की. उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और पतंगें मेरी ओर बढ़ा दीं. फिर अप्पी से बोले, स्कूटर रोड के किनारे खड़ा है... कुछ लोग उधर ग्रुप में बैठे हैं... आना अच्छा नहीं लग रहा था, वे मुझे घूर रहे थे. कैसी हो... सब कैसे हैं... टेंशन तो है लेकिन कुछ नहीं होगा. मेरा एक दोस्त भी धमाकों में मारा गया है.... पराग मेहता लौटने के लिए बेताब थे. अप्पी ने उन्हें गेट की ओट में खींचते हुए कहा...रुको तो... इतने दिनों बाद देख रही हूँ तुम्हें. 



वह उनकी ऊपरवाली बटन खोल, बंद करने में लगी थीं. फिर पीछे मुड़ कर मुझसे बोलीं, जाओ अपनी पतंगें सीढ़ी के नीचे रख दो... देख लेना सब क्या कर रहे हैं. सीढ़ी वाला दरवाजा बंदकर देना और लौट आना. मैं लौटा तो देखा गुलनाज अप्पी पराग मेहता से लिपटी हुई हैं. मुझे झिझक हुई. अप्पी ने उनके गाल को, उनके माथे को, उनकी नाक को... और नाक के नीचे भी... चूमा. और फिर उनकी पीठ पर एक मुक्का जमाते हुए बोलीं, जाओ भागो डरपोक कहीं के. इतने कम टाइम के लिए आते हो. फिर वे एक पलके लिए रुकीं और पराग मेहता की हथेलियों को अपने गालों तक ले गईं... वहीं सटाए रहीं... सटाए रहीं... फिर धीरे से बोलीं, अच्छा जाओ.... वह दस कदम गए होंगे कि अप्पी को कुछ खयाल आया. वह दबी जबान से चिल्लाईं... लगभग हाँफते हुए... सुनो, उधर मस्जिद की तरफ से मत जाना... आजकल उधर ठीक नहीं है, उधर गोल चौक की तरफ से निकल जाना... पहुँच कर मिस्ड कॉल कर देना. पराग मेहता ने बिना मुड़े अपने दाहिने हाथ को ऊपर उठा कर उँगलियों को हिला दिया जिसका अर्थ था कि हाँ, हाँ, मैं समझ रहा हूँ... गोल चौक की तरफ से ही जाऊँगा.


इसके बाद सब लोगों ने खाना खाया. आज घर का माहौल हलका लग रहा था. पीस कमिटी की मीटिंग से आने के बाद अब जा कर मामू नार्मल थे. छोटे मामू के बारे में पुलिस ने दुबारा फोन नहीं किया था इसलिए उनका भी मूड ठीक था. नानी और मामी का मूड तो दाई की बतकही से ही ठीक हो गया था. गुलनाज अप्पी दौड़-दौड़कर सबके सामने फुलके रख रही थीं. इतने दिनों में पहली बार उन्हें गुन गुनाते सुना था. गुनगुनाए जा रही थीं, गुनगुनाए जा रही थीं. मुझे रंगबिरंगी पतंगों का सोच कर रोमांच हो रहा था. कल दिन भर छत पर खड़े होकर पतंग उड़ाऊँगा.


आज की डायरी काफी लंबी हो गई. सोचता हूँ सो जाऊँ, बाकी जो कुछ आज हुआ उसे कल दर्ज करूँगा. लेकिन नींद नहीं आ रही है. बड़ी बेचैनी है. घर में कोई भी नहीं सो रहा है. जो खुशी और चैन अब तक नसीब हुआ था, वह ठीक बेडटाइम से पहले काफूर हो गया.



16 अप्रैल रात साढ़े ग्यारह बजे
खाना-पीना खत्म करने के बाद मामू ग्यारह बजे की हेडलाइंस सुन रहे थे कि दरवाजे पर दस्तक हुई. बाहर से मिली जुली आवाजें आ रही थीं. अजीब-सी हरकत हो रही थी. मामू ने बगल वाली खिड़की की दरार में आँखें गड़ा कर देखा और दरवाजे की ओर बढ़ गए. करीब पंद्रह-बीस लोग रहे होंगे. मुहल्ले की मस्जिद के पास रहने वाले थे वे सब. उन्होंने पराग मेहता को कस कर पकड़ रखा था. दरवाजा खुलते ही वे लोग पराग मेहता को खींचते हुए पोर्टिको में ले आए. अब तक नानी, मामी, छोटे मामू और गुलनाज अप्पी भी दरवाजे पर आ गए थे. पोर्टिको की लाइट में हम साफ देख सकते थे कि पराग मेहता की जम कर पिटाई हुई है. उनके बाल छितर-बितर हो गए थे. कमीज फट गई थी. नाक से खून की लकीर निकल कर सूख गई थी. मुँह बुरी तरह सूज गया था. पैंट आधा कीचड़ से सना था. एक पैर की चप्पल नदारद थी. उनका सर झुका हुआ था. उन्हें दो लोगों ने दबोच रखा था. बाकी के लोग उन्हें घेर कर खड़े थे. उन लोगों का कहना था कि ये हिंदू लड़का बड़े संदेहास्पद ढंग से मस्जिद के आस पास घूम रहा था. इसकी मंशा सही नहीं लगती. विश्व हिंदू परिषद का मेंबर है. बुलाने पर भागने लगा. रुक जाता तो हम लोग इसकी ये हालत न बनाते. जब हमने इसे घेर कर पकड़ा तो कहने लगा, इस्माइल साहब के यहाँ गया था, कुछ काम था. हम जानते हैं कि साला झूठ बोल रहा है, फिर भी पूछने चले आए.

मामू कुछ देर तक पहचानने की कोशिश करते रहे, लेकिन नहीं पहचान सके. शायद उन्होंने पराग मेहता को कभी सामने से नहीं देखा था. नानी और मामी ने भी आँखपर जोर डाल डाल कर देखा, लेकिन पराग मेहता को पहचान न सकीं. मामी ने बगल में खड़ी गुलनाज अप्पी से धीरे से पूछा, तूने कभी देखा है इसे? गुलनाज अप्पी की आँखें पराग मेहता के ऊपर चिपकी हुई थीं. लगा अब रोईं कि तब. मामी ने दुबारा पूछा तो वह बोलीं, नहीं अम्मी... नहीं देखा इसे कभी... लेकिन इन लोगों ने इसे मारा क्यों? अब्बू से कहिए इसे बचा लें. ये लोग इसे मार डालेंगे. अम्मी, आप अब्बू से कहिए... अम्मी प्लीज... अम्मी.... मामू ने यह बात सुन ली और उन लोगों को समझाते हुए बोले, देखिए अब इसे आप लोग बिल्कुल न मारें-पीटें. इससे बिला वजह गलत फहमी पैदा होगी और तनाव बढ़ेगा. मैं इंस्पेक्टर खान से बात कर लेता हूँ, वे पूछताछ कर लेंगे. सीधे इसे थाने लेजाइए. लेकर जाइए. वे लोग पराग मेहता को खींचते हुए अँधेरे में गायब हो गए.

मुझे लगता है कि इसके बाद पराग मेहता की और प्रताड़ना नहीं हुई होगी और इंस्पेक्टर खान ने उनसे पूछ ताछ करके उन्हें छोड़ दिया होगा. लेकिन एक बात है. मैं गुलनाज अप्पी से बहुत नाराज हूँ. मैं उनसे सचमुच बहुत नाराज हूँ.


17 अप्रैल
आज फिर से सन्नाटा पसर गया है पूरे घर में. मेरा पतंग उड़ाने का मन नहीं हुआ. सब लोग रातवाली घटना के बारे में सोच रहे हैं, लेकिन बात कोई नहीं कर रहा है. सब कोई अलग-थलग कमरों में पड़े हुए हैं. जैसे किसी बहुत बड़ी विपत्ति की आशंका से ग्रस्त हों या किसी अनिष्ट का अंदेशा हो. शायद उधर से इस घटना की प्रतिक्रिया गंभीर हो. कुछ लोगों की नासमझी से पूरे मुहल्ले की जान साँसत में पड़ गई है. मैं अप्पी से नजर नहीं मिला पा रहा हूँ. अप्पी मुझसे बच रही हैं. सुबह से दोपहर हो गई और दोपहर से शाम. अप्पी से बात नहीं हुई. फिर शाम को मैंने उन्हें किचन में पकड़ा, कल आपने झूठ क्यों बोला अप्पी? क्यों पराग मेहता को पहचानने से इनकार कर दिया आपने? वह चुपचाप आलू काटती खड़ी रहीं. न मेरी ओर देखीं न मेरी बात का जवाब दिया. मुझे उन पर गुस्सा आ गया. मैंने उनकी बाँह पकड़ कर उन्हें झिंझोड़ दिया, क्यों नहीं बोलीं आप कि पराग मेहता आपके प्रेमी हैं? अप्पी ने मेरी ओर कातर दृष्टि सेदेखा... और देखती चली गईं. 


उनकी आँखों में जाने क्या था कि... सच कहता हूँ... मैं विचलित हो गया. कुछ देर तक उसी तरह देखते रहने के बाद वह फिर से आलू काटने लगीं नजरें नीची करके. पर मैं बेचैन था. मैंने कहा, अगर आप कह देतीं कि आप उन्हें पहचानती हैं तो उनके लिए कितना अच्छा होता. अप्पी खामोश रहीं. अपने ऊपर नियंत्रण करने की कोशिश में उनका चेहरा अजीब-सा हो रहा था.फिर मैंने देखा कि आलू के टुकड़े भीग रहे हैं. टप टप टप आँसू. फिर सिसकियाँ. फिर अप्पी जोर-जोर रोने लगीं जैसे कोई बच्ची... जैसे कोई छोटी-सी लड़की. अप्पी रोए जा रही थीं. लेकिन पूरा घर चुप था. अप्पी रो रही थीं. मैं चुप था. मामू चुप थे. नानी चुप थीं. मामी चुप थीं. छोटे मामू चुप थे. मानसुख पटेल चुप थे. इंस्पेक्टर खान चुप थे. इधर के सारे लोग चुप थे. इधर के कुत्ते बिल्ली बंदर कबूतर गली कूचे चौक चौराहे नुक्कड़ तिकोने मस्जिद मजार तारे सितारे चाँद सूरज सभी चुप थे. उधर के भी कुत्ते बिल्ली बंदर कबूतर गली कूचे चौक चौराहे नुक्कड़ तिकोने मंदिर शिवालय तारे सितारे चाँद सूरज सभी चुप थे. लेकिन उधर से भी एक रोने की आवाज आ रही थी. यह साधारण रोने की आवाज नहीं थी. यह विलाप था... यह एक हृदय विदारक क्रंदन था... यह मर्मांतक पीड़ा से उपजा एक पुरुष का रुदन था... जो समस्त ब्रह्मांड की चुप्पी को पार करता हुआ हमारे बड़े मामू के किचन तक पहुँच रहा था.



17 अप्रैल, सात बजे शाम
घर में सभी बीमार जैसे लग रहे हैं. कहाँ तो मैं अहमदाबाद घूमने आया था कहाँ इन चक्करों में पड़ गया. मुझे ऐसी चुप्पी, ऐसी खामोशी से नफरत हो गई है. उस चुप्पी के पीछे के षड्यंत्र और इसके पीछे की कायरता को मैं पूरी तरह नहीं समझ पा रहा हूँ. शायद मेरी उम्र आड़े आ रही है. शाम लगभग सात बजे मामू ने अपनी चुप्पी तोड़ी, फोन मिलाया अपने दोस्त मानसुख पटेल को. मामू ने बताया कि मानसुख पटेल नाराज हैं कलवाली घटना को लेकर. कह रहे थे, तुम्हारे रहते हुए उस तरफ ऐसी घटना कैसे घटी? तुम्हें आगे बढ़ कर बचाना चाहिए था. तुम्हारे होते ऐसा कैसे हो गया? पराग मेहता बीजेपी सांसद वीरशाह मेहता का भांजा है. इधर लोग बहुत उत्तेजित हैं... बहुत गुस्से में हैं. लोगों को कैसे समझाऊँ कैसे रोकूँ, मेरे बस में नहीं है.

पहली बार मैंने मामू को मानसुख पटेल से दोस्त की तरह बात करते हुए नहीं सुना. मामू की आवाज में विचलन थी, कमजोरी थी... मिन्नत थी और गिड़गिड़ाहट थी. वे दबे हुए थे. वे मानसुख पटेल को 'तुम' नहीं, बल्कि 'आप' कह कर संबोधित कर रहे थे. आप चाहेंगे तो कुछ नहीं होगा. आप चाहेंगे तो लोग मान जाएँगे. आप उन्हें रोक लीजिए... आप समझा लीजिए.


मानसुख पटेल से बात करके मामू काफी हताश थे. माथे पर हाथ रख कर टीवी के सामने अधलेटे पड़े थे. आज फिर खाना धरा का धरा रह गया. मामी ने इधर-उधर फोन मिलाया. नानी लगातार सजदे में थीं. गुलनाज अप्पी अभी भी गुमसुम. न टीवी न खाना-पीना न बोलना-बतियाना. मुझसे भी नहीं. मामू बार- बार खिड़की से बाहर झाँकते... आहट लेते... वापस टीवी के सामने लस्त बैठ जाते. नमाज के बाद नानी ने सबके ऊपर फूँक छोड़ी - हम सभी के लिए उनका रक्षा कवच. नानी ने आज बड़ी हिम्मत की बात की. टीवी रूम में खड़े-खड़े बड़बड़ाने लगीं, कुछ नहीं होगा... देखती हूँ कौन आता है.... मैं आगे रहूँगी... देखती हूँ आज मैं...वे लोग कोई पत्थर के नहीं बने हैं. नानी की बात सुन कर मेरी बड़ी हिम्मत हुई. मैं समझ गया कि अगर वे आते हैं तो नानी मुझे अवश्य बचा लेंगी.



17 अप्रैल 11 बजे रात
और वे आए. वे एक हादसे की शक्ल में आए.
अगर मैं लेखक या पत्रकार होता तो इस मंजर का बयान अपनी डायरी में बड़े ड्रामाई अंदाज में कर सकता. लेकिन मैं ठहरा कक्षा दस का विद्यार्थी और भाषा पर मेरी पकड़ कुछ खास है नहीं. इस रात की बात को सीधे-सीधे शब्दों में समेट कर जितनी जल्दी हो सके सोना चाहता हूँ. कल मामू से कहना है कि मेरी वापसी का टिकट करवा दें... मुझे अम्मी-अब्बू की याद आ रही है. मैं यहाँ और रहा तो बिना मारे ही मर जाऊँगा. यहाँ इतना डर है कि क्या बताऊँ.

बिना किसी नाटकीयता के लिखूँ तो यह लिखूँगा. दंगे और नरसंहार की प्रस्तावना दरअसल वास्तविक दंगे और नरसंहार से कम डरावनी और कम दुखदायी नहीं होती. इसे कोई तभी समझ सकता है जब वह उससे गुजरा हो. डायरी लिख कर या पढ़ कर उसे नहीं जाना जा सकता. प्रस्तावना में यह होता है कि... रात होती है... और रात गहरी काली होती है. एक पूरा मुहल्ला होता है जिसमें कई घर होते हैं. घरों में मद्धम रोशनी होती है या फिर नहीं होती है. इन्हीं घरों के अंदर हाड़-माँस के बने लोग साँस अंदर-बाहर करते हुए...बैठे...खड़े एक उग्र राक्षसी भीड़ की प्रतीक्षा करते होते हैं. अंदर से वे दोस्तों, शुभचिंतकों, रिश्तेदारों और पुलिस अधिकारियों को फोन करते रहते हैं, लेकिन उनके फोन बंद मिलते हैं. उनमें से कुछ लोग छत पर तो कुछ अपने दरवाजों-खिड़कियों की दरारों पर आँखें और कान गड़ाए कहीं दूर उठ रहे शोर और नारों को सुनने की कोशिश कर रहे होते हैं. फिर क्या होता है कि... पहले बहुत दूर कहीं सन्नाटे को चीरती एक चिल्लाहट उभरती है... फिर अँधेरी सुनसान सड़क पर कुछ कुत्ते भौंकते हुए भाग रहे होते हैं. फिर किसी खौफजदा मनुष्य का सरपट भागते हुए आना. धप...धप...धप...धप करते पैरों की आवाज सहसा नजदीक से नजदीक तर होती हुई... लगेगा आपके तकिए को छूता कोई व्यक्ति जान हथेली पर रख कर निकला! और फिर पड़ोस में या सड़क के उस पार ठीक आपकी खिड़की के सामने एक दरवाजे के खुलने और भड़ाम से बंद होने की आवाज! रात के अँधेरे में आपको कुछ नहीं दिखाई देगा. 


खाली आवाज. फिर छोटे-छोटे समूहों में जान बचा कर भागते लोग... बिना बोले... बिना चिल्लाए... रात के सन्नाटे में... गलियों की ओर, घरों की ओर बेतहाशा... बदहवास भागते लोग! और धड़ाधड़ खुलते-बंद होते दरवाजे! यह उनके आमद की पक्की निशानी है. यह अँधेरी रात में भाले-बरछे और किरासन तेल के गैलन से लैस हमलावर भीड़ के आ पहुँचने की निशानी है. वे आ गएहैं. न शोर मचा रहे हैं... न नारे लगा रहे हैं. उनकी हिंसक और हार्ट फेलकर देनेवाली उपस्थिति में एक अलग तरह का शोर है, एक अलग तरह का नारा है जो दरवाजों और खिड़कियों की ओट में छिपे लोग सुन रहे हैं और जिससे अगले ही पल उनका साबका पड़नेवाला है.

लाल लाल आँखें किए हुए, हाथों में मार डालने के औजार लिए हुए वे हमारी ड्योढ़ी पर खड़े हैं. अगर दरवाजा न खोला गया तो वे उसे तोड़ देंगे और पूरे घर में आग लगा देंगे, और बाहर निकलने के सारे रास्ते बंद कर देंगे. दरवाजे पर भड़...भड़...भड़.

मामी और गुलनाज अप्पी ने रहीमन दाई के बताए नुस्खे के अनुसार झट बाथरूम में घुस कर अपनी तैयारी की. बड़े मामू और मामी ने गुलनाज अप्पी की बाँह पकड़ कर उन्हें टीनवाले बक्से के पीछे... कबाड़ के बीच में... घुसा दिया.फिर मामू ने जल्दी से अपना रिवाल्वर खोंसा, छोटे मामू और मामी को अपनी-अपनी जगह छुपने का इशारा करते हुए छत पर चले गए.

तब नानी ने दरवाजा खोला. मैं नानी के पीछे खड़ा था. नानी ने पूछा, क्या बात है... कौन हैं आप लोग... क्या चाहते हैं? भीड़ में कोई नेता नहीं होता.काली टीशर्ट और नीली जींस पहने एक नौजवान ने पूछा, पराग मेहता की ऐसी हालत किसने की? कल रात वह किसी काम से इधर आया था... वह अस्पताल में बेहोश पड़ा है... उसकी हड्डियाँ टूट गई हैं, मुँह और नाक से खून बंद नहीं हो रहा है... वह मरनेवाला है. नानी ने कहा, देखो, तुम नाहक हमारे ऊपर गुस्सा कर रहे हो. कौन पराग मेहता... उसके साथ क्या हुआ हम नहीं जानते... वह इधर किसी से मिलने नहीं आया था. मैं नानी के बगल में खड़ा था. मैंने अचानक उन्हें चिकोटी काट ली, क्यों झूठ बोलती हो नानी... वह आए तो थे गुलनाज अप्पी से मिलनेतुमने नहीं देखा तो क्या. पर मैं चुप रहा. नानी को मेरी चिकोटी का असर भी नहीं हुआ. नानी का स्वर थरथरा रहा था. उनके पैर काँप रहे थे. 


भीड़ से दो-चार युवक हॉकी और लोहे की छड़ें और करौलियाँ लहराते हुए अंदर चले आए.लेकिन उन लोगों ने घर को कोई विशेष क्षति नहीं पहुँचाई. हॉकी से टेबुल पर रखे फूलदान को तोड़ दिया, लोहे की छड़ को सोफे में घुसेड़ दिया, करौली से किचन में रखे कद्दू को टुकड़े-टुकड़े कर दिया हाथों और पैरों से पोर्टिको में रखे गमलों को गिरा दिया. 

लेकिन पराग मेहता की लाई मेरी पतंगें बच गईं. फिर वे भद्दी-भद्दी बातें बोलते हुए बाहर निकल गए. जाते-जाते भीड़ की नजर मामू की नई कार पर पड़ी. वे उसे ढकेलते हुए बाहर तक ले गए और उसमें आग लगा दी. कार धू-धू करके जलने लगी. एक मिनट में गहरी अँधेरी रात पीली हो गई. काला धुआँ चारों ओर फैलने लगा. वहाँ से कूच करने के पहले भीड़ में से एक ने चिल्ला कर कहा, अगर उसे कुछ हो गया तो हम फिर आएँगे... समझ लो. एक के बदले सौ को मारेंगे.


भीड़ के दूर चले जाने के बाद पड़ोस में और गली के उस पार कुछ खिड़कियाँ खुलीं... कुछ दरवाजे चरमराए. लेकिन जलती कार से उठती पीली लपटों का माजरा समझ में आते ही वे बंद हो गए.


18 अप्रैल साढ़े बारह बजे रात
रात के साढ़े बारह बजे हैं. यह अहमदाबाद में मेरी अंतिम रात है. आज जो हुआ... उसके बाद रात खैरियत से बीत गई और सुबह कोई हंगामा न बरपा हुआ तो इंशा अल्लाह मैं आठ बजे अहमदाबाद मेल पर सवार हो जाऊँगा. लेकिन सबसे पहले वह दर्ज कर लूँ जो कुछ आज घटित हुआ. आज पहली बार मानसुख पटेल को देखा. वह घर पर आए थे. इस्माइल मामू से उनकी मुलाकात का वह क्षण... वह दृश्य मैं कभी न भूल पाऊँगा. यह मैं किसी भावना में बह कर नहीं लिख रहा. यह सच है. अंग्रेजी में जिसे 'मोमेंट ऑफ ट्रुथ' कहते हैं सत्य का वह क्षण, वह पल जो बस कभी-कभी पकड़ में आता है और जो इसी तरह सच प्रतीत होने वाले बाकी दूसरे क्षणों को हमारे अवचेतन से विस्थापित कर देता है. मैं किचन में बिलखती गुलनाज अप्पी को समय के साथ भूल सकता हूँ, मैं सर झुकाए, घायल पराग मेहता को कुछ दिनों बाद विस्मृत कर दूँगा, हो सकता है अहमदाबाद प्रवास के दौरान हुए मेरे सारे अनुभव एक-एक कर भविष्य में होनेवाले दूसरे अनुभवों से पराजित हो कर विस्मरण के गर्त में समा जाएँ, लेकिन मानसुख पटेल और इस्माइल मामूका एक-दूसरे से रूबरू होने का वह मंजर, वह दृश्य... और उससे उपजे इनसानी रिश्तों के आदिम आख्यान को मैं कभी नहीं विस्मृत कर पाऊँगा.

बीती रात की घटनाओं से घर के सारे सदस्य हिल गए थे. घर से थोड़ी ही दूर पर सड़क के किनारे मामू की नई गाड़ी का ढाँचा पड़ा था. मामू ने फैसला किया कि आज शाम तक सारे लोग मामी के भाई के यहाँ शिफ्ट हो जाएँगे. यहाँ अब बिल्कुल सेफ नहीं है. यह भी कि घर का कोई सदस्य न बाहर निकले न छत पर जाए और न ही किसी के बुलाने पर गेट या अंदर का दरवाजा खोले. मामू ने इंस्पेक्टर खान को कई बार फोन किया, पर उधर से कोई जवाब नहीं मिला. मानसुख पटेल को मामू ने जानबूझ कर फिर से फोन नहीं किया. अब तक उन्हें पूरा यकीन हो गया था कि मानसुख पटेल बदल गए हैं. इधर पराग मेहता के बारे में कोई सूचना नहीं थी किवह जिंदा हैं या अस्पताल में दम तोड़ चुका. ऐसी ही उधेड़बुन चल रही थी कि अफवाह आई कि एक भीड़ हमारी तरफ बढ़ी आ रही है. फिर कुछ देर बाद छोटे मामूने पक्की जानकारी दी कि मानसुख पटेल एक भीड़ को लीड करते हुए बढ़े चले आ रहे हैं. पराग मेहता के साथ जो कुछ हुआ वे उसका हिसाब माँगने आ रहे हैं.

मानसुख पटेल सचमुच आ रहे थे. मानसुख पटेल के साथ कई और लोग आ रहे थे. पूरी भीड़. मामू ने छत से जायजा लिया... लेते रहे... नीचे आए...फिर ऊपर गए, फिर ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठ गए... फिर गेट तक जाने को हुए, लेकिन आधे रास्ते से ही वापस आ गए. उनकी बेचैनी कम नहीं हो रही थी. रिवाल्वर को निकालते, पोछते, अंदर खोंसते और फिर निकाल लेते. जब आभास हो गया कि भीड़ एकदम पास आ गई है तो उन्होंने एक बार फिर रिवाल्वर निकाला, गोलियाँ चेक कीं और कमीज में छिपा लिया. और जैसे ही दरवाजे पर दस्तक हुई, मामू को मैंने पसीने से तर होते देखा. उन्होंने मामी को डाँटते हुए कहा, गुलनाज को छिपाओ... खुदा के लिए तुम भी छिप जाओ. जल्दी करो... सलीम से कहो छत पर चला जाए.

मामू डर गए थे. वह भयभीत हो गए थे. मामू अपने दोस्त मानसुख पटेल से डर गए थे. सचमुच, मानसुख पटेल की उपस्थिति भयभीत कर देनेवाली थी.

मानसुख पटेल अपने लोगों को पोर्टिको में ही रुकने का इशारा करते हुए अंदर दाखिल हो गए. अंदर आने के लिए न उन्होंने किसी से पूछा और न ही उन्हें किसी ने मना किया. कमरे में नानी थीं, मैं था और अब मानसुख पटेल थे. मैं और नानी खड़े थे. मानसुख पटेल भी कुछ देर तक खड़े रहे... जैसे कमरे का मुवायना कर रहे हों. और फिर वे साइड सोफे पर बैठ गए. मानसुख पटेल को मैं पहली बार देख रहा था. लेकिन मुझे उनसे कोई डर नहीं लगा. वह मेरे मामू जैसे ही हट्टे-कट्टे और सुंदर थे. उनके चेहरे पर हलकी- हलकी दाढ़ी थी. नानी ने मुझे डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और खुद भी एक कुर्सी खींच कर बैठ गईं. मानसुख पटेल ने चुप्पी तोड़ी, कितने लोग थे कल रात? किसी को पहचाना? कार के अलावा तो किसी और चीज को नुकसान नहीं पहुँचाया? पराग मेहता को इतनी बुरी तरह से किन लोगों ने मारा और क्यों? अब तक हमारे पड़ोसी खलील अंसारी और रहीमन दाई भी ड्राइंग रूम में आ गए थे. नानी चुप थीं. 



खलील मियाँ और दाई अपनी अपनी तरह से उनके सवालों का जवाब देते रहे और उनसे अपने सवाल पूछते रहे. मानसुख पटेल ने बताया कि सारे बम हिंदू इलाकों में ही फटे हैं और दो सौ से ज्यादा लोग मारे गए हैं. अब स्थिति नियंत्रण में है. पुलिस इस बार पूरी तरह मुस्तैद है. सीएम स्वयं स्थिति पर नजर रखे हुए हैं. फिर भी तनाव तो है ही, बात ही ऐसी हो गई है कि लोगों में नाराजगी होना स्वाभाविक है. इस पर खलील मियाँ बोले, लेकिन कल रात तो 2002 वाली बात होते-होते रह गई. एक बार तो लगा था कि इस मुहल्ले के लोग सुबह का सूरज नहीं देख पाएँगे. लेकिन खुदा का लाख-लाख शुक्र है कि उन्होंने सब कुछ किया, लेकिन किसी की जान नहीं ली.

मानसुख पटेल ने इधर-उधर देखा और कुछ चौंकते हुए बोले, अरे इस्सू नहीं दिखाई पड़ रहे हैं, कहाँ हैं... बुलाइए उनको... कहिए कि मैं आया हूँ. कुछ देर फिर धमाकों, पराग मेहता और मामू की कार पर बात करने के बाद उन्होंने इस्माइल मामू के बारे में पूछा. नानी चुप रहीं, लेकिन खलील मियाँ ने मुझसे कहा, कहाँ हैं इस्माइल भाई... बुला दो अपने मामू को. मानसुख पटेल ने फिर अचरज से पूछा, अरे ये गुलू नहीं दिखाई पड़ रही है और भाभी कहाँ हैं? तीनों कहीं बाहर गए हैं क्या? फिर वह हँसने लगे, कहीं पिकनिक- विकनिक मनाने क्या? नानी सन्न बैठी थीं और मैं मानसुख पटेल के दोनों हाथों की उँगलियों को देखे जा रहा था जिनमें उन्होंने नगदार सोने की अँगूठियाँ पहन रखी थीं. उन्होंने मेरी तरफ इशारा किया, कहाँ हैं इस्माइल? मेरे जवाब को सुने बगैर ही वह उठे और कहाँ हो भाई इस्सू, कहाँ हो' कहते हुए अंदरवाले कमरे की ओर बढ़ चले. जिस बेतकल्लुफी के साथ वह अंदर जा रहे थे उससे मैं निश्चिंत हो गया कि घर के अंदरूनी हिस्सों में जाने के लिए उन्हें किसी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है. मैं उनके पीछे-पीछे सरकने लगा.

इस्माइल मामू जहाँ थे, मानसुख पटेल वहीं आ कर खड़े हो गए... लेकिन मेरा पूरा विश्वास है कि यह बात उनकी कल्पना में भी न आई होगी कि अपने बचपन के दोस्त इस्माइल शेख से वे इस प्रकार मिलने को अभिशप्त होंगे. मैं उसी मुलाकात को शब्दों का जामा पहनाने की कोशिश करता हूँ.

उन्होंने फिर आवाज दी, कहाँ हो भाई इस्माइल... अरे भाई देखो मैं आया हूँ.... उनकी नजरें सामने दीवार पर ठहर गईं. सामने बेड था और बेड के ऊपरदीवार पर एक फोटो टँगी थी. फोटो में इस्माइल शेख और मानसुख पटेल थे. मानसुख पटेल के हाथ में एक आइसक्रीम थी और दोनों उसे चाट रहे थे. मानसुख पटेल की होंठों की हरकत से साफ था, फोटो देख कर वे धीमे से मुस्कुरा उठे थे.

मेरे इस्माइल मामू उसी बेड के नीचे छिपे हुए थे. चोर सिपाही के खेल में कुछ ऐसा होता है... असल में ऐसा हो ही जाता है कि छुपने वाला, जिसे चोर कहते हैं, कुछ सुराग छोड़ देता है जिससे वह पकड़ा जाता है. चोर का कोई अंग या उसका कपड़ा या फिर जूता या बाल या ऐसी ही कोई चीज बाहर झाँकती रहती है...और वह इसी बिना पर पकड़ा जाता है. मामू का एक पैर बेड के निचले पट से सटा हुआ थोड़ा-सा बाहर झाँक रहा था. पूरी कोशिश करके इस्माइल मामू जितना अंदर जा सके थे चले गए थे, लेकिन एक पैर पूरा अंदर नहीं जा सका था. मानसुख पटेल की नहीं जानता, लेकिन मैंने मामू के उस पैर को देख लिया.

मामू ने अपने शरीर को सिकोड़ कर अर्धचंद्राकार जैसा कर लिया था. लगता है मामू जल्दी में घुसे होंगे, इसलिए खुद को पूरा नहीं सिकोड़ पाए थे और उनकी अर्धचंद्रा कार वाली स्थिति दरअसल दयनीय कम हास्यास्पद अधिक लग रही थी. और इसी कशमकश में रिवाल्वर अंदर से सरक कर नीचे फर्श पर पड़ा हुआ था. मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि मैं दुबारा झाँक कर देखूँ. किसी बड़े आदमी...जैसे कि मेरे अपने अब्बू या मेरे सामने खड़े मानसुख पटेल जैसे आदमी को उस दशा में लेटे हुए कैसे देखता. इस्माइल मामू को मैं बड़ा बहादुर समझता था.हट्टे-कट्टे, ऊँचे-लंबे थे मामू. उन्हें वैसा देख कर एक पल के लिए मन किया कि गुलनाज अप्पी को बुलाऊँ और दिखा दूँ कि अरे, देखो देखो मामू कैसे छिपे हैं मेरे रिवाल्वर वाले डरपोक मामू! और अप्पी के साथ मिल कर खूब हँसूँ. लेकिन मैं एक बार फिर झुका... झुका रहा... जैसे मुझे काठ मार गया हो. मामू मेरी तरफ नहीं देख रहे थे. उनकी आँखें बंद थीं और वह बहुत धीरे-धीरे साँस ले रहे थे. अचानक उनकी आँख खुली... मुझ पर पड़ी... और वह बड़े धीरे से बोले, बेटा, वे लोग हैं या गए? मैंने उनकी बात का जवाब नहीं दिया... मेरी आँखें उनके लावारिस पड़े रिवाल्वर पर टँगी थीं. मामू को अभी भी आभास नहीं था कि मानसुख पटेल मेरे पास ही खड़े हैं... और अब नीचे झुकनेवाले हैं.

मानसुख पटेल हिचक रहे थे, यह तो साफ था. फिर भी वे बेड के पास बैठे... और धीरे-धीरे अपनी गर्दन को नीचे ले गए. मैंने कुछ सुना... जब कि असल में मैंने कुछ नहीं सुना था. मानसुख पटेल के बगल ही में मैं भी बैठा था, उनकी धड़कन सुन रहा था... लेकिन अगर उन्होंने इस्सू या इस्माइल जैसा कुछ कहा तो मैंने नहीं सुना था. इस्माइल मामू उसी तरह दुबके हुए थे. रिवाल्वर उसी तरह पड़ा हुआ था. मैं सीधे-सीधे मानसुख पटेल को नहीं देख रहा था... खाली उन्हें सुन रहा था... और उनके चेहरे को सुन रहा था. मैंने महसूस किया कि मानसुख पटेल बड़े मामू को उस दशा में देख कर अचंभे, अविश्वास, पीड़ा और लाज से तर हो गए. जैसे उनके शरीर में जान नहीं, उनके शरीर का पूरा सत्व निचुड़ गया है. लगा, वे गिर जाएँगे बैठे-बैठे. अब गिरे कि तब. मामू उन्हें देखे जा रहेथे...डरे-सहमे कोने में दुबके टकटकी बाँधे मानसुख पटेल को देखे जा रहे थे मामू. 



जैसे कोई चोर जो चारों ओर से घिर गया हो और बच निकलने के रास्ते बंद हों. जैसे कोई भयभीत मे मना. लेकिन मानसुख न सिपाही लग रहे थे, न शेर न भेड़िया. खाली उनका चेहरा बेरंग हो गया था, गर्दन के ऊपर खून का प्रवाह नहीं हो रहा था. जैसे समय ठहर गया था, जैसे वह क्षण बर्फ की सिल्ली में जमगया था, जैसे कालचक्र अब कभी आगे नहीं बढ़ेगा. उस रुके हुए पल में जिस शर्मिंदगी ओर बेबसी से मानसुख पटेल गुजरते जा रहे थे उसे डायरी में पूरी सच्चाई के साथ नहीं उतार पा रहा हूँ. वह चाह रहे थे मामू की नजरों से अपनी नजरें हटा लें. लेकिन वे तो वहीं फँस गई थीं. मानसुख पटेल के मुँह से बमुश्किल मामू का नाम फिसला, इस्...मा...इल. मामू बुदबुदाए मान...सुख. फिर मामू ने धीरे-धीरे आँखें खोल दीं. एक बार फिर बुदबुदाए, मानसुख... मैं बाहर निकल सकता हूँ... कुछ करोगे तो नहीं? मामू जैसे याचना कर रहे हों.

मानसुख पटेल ने नहीं सुना. मानसुख पटेल कुछ नहीं सुन रहे थे. वह कुछ भी नहीं सुन पाए. अच्छा हुआ नहीं सुना. यह सुनने के लिए मानसुख पटेल इस दुनिया में नहीं आए थे. लेकिन कौन कह सकता है कि उन्होंने नहीं सुना? नहीं सुना तो आखिर उन्हें चक्कर क्यों आया? दरअसल उनकी जड़ता कुछ देर बाद टूटी... जब कालचक्र फिर से गतिमान हो गया. बेड पर हाथ की पकड़ ढीली हुई... संतुलन थोड़ा बिगड़ा और वे वहीं जमीन पर लुढ़कने लगे... जैसे मूर्छा आई हो. पहले मुझे लगा मेरे ऊपर ही गिरेंगे, लेकिन वे गिरे दूसरी ओर. वे पूरा गिरें...इससे पहले मेरा दाहिना हाथ उन तक पहुँच गया. मैंने सहारा भर देदिया और हौले-हौले वे अपनी दाहिनी ओर लुढ़कते चले गए.


18 जून
अहमदाबाद से लौटने के बाद कई दिनों तक मैं अवसाद से घिरा रहा. किसी काम में मन नहीं लगता था. मामू, मामी, नानी और गुलनाज अप्पी की याद हमेशा आती. बावजूद इसके कि मैं अहमदाबाद नहीं घूमा, वह जगह मुझे अच्छी लगी. किसी शहर को ले कर मैं कभी भी इतना भावुक नहीं हुआ. वैसे मैंने अधिक शहर नहीं देखे हैं - सिर्फ दो-चार. आखिर अहमदाबाद में ऐसा क्या है जो मुझे खींचता है, जो मुझे बुलाता है.... अहमदाबाद में मेरे मामू का घर है, उनकी छत है, उनका किचन है... और हमारी गुलनाज अप्पी हैं, बुढ़िया नानी हैं, गुस्सैल छोटे मामू हैं, डरपोक बड़े मामू हैं और ढीठ-खुर्राट नेक दिल मामी हैं. दो जन औरहैं - मेरे बड़े मामू के दोस्त मानसुख पटेल और मेरी गुलनाज अप्पी के प्रेमी पराग मेहता जिन्होंने मुझ से हाथ मिलाया था, जो मेरे लिए रात में पतंगें लेकर आए थे. जब इन सबके बारे में सोचता हूँ तो लगता है एक बार अहमदाबाद हो आऊँ. लेकिन अम्मी को कौन समझाए! कहती हैं, अब सपने में भी अहमदाबाद के बारेमें मत सोचना. कभी न जाने दूँगी. अब उन्हें क्या मालूम अहमदाबाद मेरे सपनेमें डेली आता है. कभी मामू की छत पर पतंग उड़ा रहा होता हूँ तो कभी मामू की जली हुई कार धू-धू करती दिखाई पड़ती है. कभी खीर और ढोकला खा रहा होताहूँ तो कभी बेड के नीचे छुपे मामू दिखाई पड़ते हैं. एक बार तो गजब ही हो गया. इस्माइल मामू और मानसुख पटेल को साथ-साथ देखा. दोनों एक ही आइसक्रीम को चाट रहे हैं. एक बार उससे भी गजब हो गया. देखा, पराग मेहता दूल्हा बने हैं और गुलनाज अप्पी दुल्हन. पराग मेहता गुजराती परिधान में खूब जम रहे हैं. मैंने गुलनाज अप्पी के कान में कहा, हलो... फातिमा कॉलिंग.... अप्पी बोलीं, धत्‌. अच्छा गुड नाइट, अब सोता हूँ. शायद आज फिर अहमदाबाद सपने में आए.


29 जून
आज अहमदाबाद से चिट्ठी आई है मेरे नाम. गुलनाज अप्पी की है. लिखती हैं :

प्यारे सलीम भैया
, जब से गए हो न कभी फोन किया न खत लिखा. तुम्हारे जाने के बाद यहाँ किसी का मन नहीं लगता था, अम्मी अब्बू दादी सभी तुम्हारे बारे में बात करते रहते थे. तुम्हारी खूब याद आती थी. अभी भी आती है. सबको यही मलाल है कि तुम अहमदाबाद नहीं घूम पाए. खैर.... अब्बू की तबियत नहीं ठीक रहती है. उसी दिन से जो खामोश हुए तो बस अपने में ही खोए रहते हैं. मानसुख अंकल से भी मिलने नहीं गए. न वही मिलने आए. दोनों एक-दूसरे को फोन भी नहीं करते हैं. हमारे एक खालू कनाडा में रहते हैं. वह अब्बू को बुला रहे हैं. अब्बू कहते हैं, सब कुछ बेच कर वहीं चला जाऊँगा. अम्मी भी तैयार लगती हैं, वीजा के चक्कर में हैं. अगले महीने तक जाना हो सकता है. जाने से पहले अम्मी अब्बू फूफीजान से मिलने इलाहाबाद जाएँगे. 

मैं तो नहीं आ पाऊँगी. हाँ, कनाडा पहुँच कर तुम्हें वहाँ की तस्वीरें भेजूँगी. खालू जान बता रहे थे, वहाँ खूब बरफ पड़ती है, कश्मीर से भी ज्यादा. पीएम के बारे में तो तुम्हें नहीं पता होगा. एक महीने तक अस्पताल में पड़े रहने के बाद 18 मई को उनकी डेथ हो गई. हमें डर था कि इसके बाद भारी हंगामा होगा. लेकिन खुदा का शुक्र है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. उनकी सिस्टर मुझसे मिलने आई थी. मुझसे लिपट कर बहुत रो रही थी. तुम्हारी पतंगें पड़ी हैं... अम्मी अब्बू जाएँगे तो भेज दूँगी. खूब पढ़ना और अपना खयाल रखना. 


अप्पी
अहमदाबाद, गुजरात.

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  1. चोर सिपाही संग्रह की पूरी कहानियां लाजवाब और यथार्थ परक हैं | मैंने यह संग्रह अपने पीएच.डी. शोध में सम्मिलित किया है|

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-11-2017) को "मत होना मदहोश" (चर्चा अंक-2795) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. पढ़ी। गजब कहानी है। शरीर के सारे रोयें खड़े हो गए। कुछ कुछ रोने जैसा भी लगा। ढेर सारा अवसाद और शर्म अंदर भर गयी है। पता नहीं हम कभी इस कहानी के सच से मुकाबला कर पायेंगे या नहीं। एक शानदार कहानी पढ़वाने के लिए ह्रदय से धन्यवाद अरुण जी

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  4. राहुल द्विवेदी21 नव॰ 2017, 4:34:00 pm

    अभी कहानी पढ़ी । क्या कहूँ स्तब्ध हूँ एक एक शब्द को पढ़कर...
    आरिफ जी को बहुत बहुत आभार । प्रस्तावना कुछ ज्यादा लम्बी हो गई थी कहीं कहीं थोड़ी बोझिल भी । फिर भी अदभुत किस्सागोई थी ।
    राकेश भाई का लेखन थोड़ा ठहर के । अभी इस कहानी से उबर लूँ..

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  5. गज़ब की कहानी लगी ।सच का सच बयां करती कहानी है ।

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  6. उफ़्फ़ स्तब्ध कर देने वाली कहानी ।शुरुवात में जिस तरह तनाव का चित्रण किया गया है हम उसे पढ़े नहीं बल्कि देखे ,उन दृश्यों के साथ ख़ौफ़ज़दा हुए..रोये,...कमाल की बुनावट है कहानी की । कहानी पढ़ कर सुन्ह हो गए हैं

    कहानी का सकारात्मक अंत सुकून देता है ....अभी भी सवाल पीछा कर रहे हैं ...गुलनाज़ अप्पी और मामू के बारे में....
    मो आरिफ़ जी को बहुत बहुत बधाई पंहुंचे

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