निर्माता अनुष्का शर्मा की पहली फ़िल्म एनएच -१० चर्चा में है. इसमें खुद अनुष्का ने भी अभिनय किया है. इसके निर्देशक नवदीप सिंह ने इस फ़िल्म में जोखिम भरे प्रयोग किये हैं. आनर किलिंग पर अब तक की यह सबसे प्रभावशाली फ़िल्म है.
सारंग
उपाध्याय अलग ढंग के फ़िल्म समीक्षक हैं.. वह गहराई
से फ़िल्म में उतरते हैं- उसके
सामाजिक, राजनीतिक
मंतव्य को टटोलते हैं और क्रिएटिव ढंग से लिखते हैं. इस आलेख में वह जिस तरह से फ़िल्म की कहानी
बयां कर रहे हैं , वह अपने
आप में रुचिकर है. यह आलेख फ़िल्म
देखने के लिए रूचि पैदा करता है और फ़िल्म देखने की दृष्टि भी देता है.
एनएच-10 - इस रात की सुबह नहीं ..!
सारंग उपाध्याय
आगे बसंतपुरा जाने के लिए शॅार्टकट पूछने का दृश्य फिल्म
का टर्निंग पॉइंट है. रास्ता पूछने के लिए उतरे अर्जुन को ग्रामीण अटपटा जवाब देते
हैं और उसके साथ मसखरी करते हैं. निर्देशक ने यहां दर्शकों को शायद यह बताने का प्रयास किया
है कि आप देश के उस हिस्से में हैं, जिसे हरियाणा कहते हैं और जहां के समाज पर जाति, गोत्र और धर्म की घनी छाया है. कार के शीशे के पास खड़ा एक अंजान आदमी दुष्चक्र
की दहलीज पर मिला अनहोनी का आखिरी संकेत है, जो इस बार मीरा को मिलता
है, लेकिन उसके चेहरे में मीरा को घट चुकी अनहोनी की छाया दिखाई
देती है और अब वह उसे खारिज कर देती है.
अनहोनी संकेतों की केंचुली में रहती है और
घटनाओं के साथ रेंगती है. हादसे यात्राओं की छाया होते हैं. हाइवे की यात्राएं अक्सर घटनाओं और
दुर्घटनाओं का दुष्चक्र
रचती हैं. कई
दुष्चक्र व्यवस्था के होते हैं, तो कई
समाज के अपने. सामाजिक
रूढ़ियां और मान्यताएं दिन के समय अजगर होती हैं और रात के अंधेरों में आदमखोर हो उठती हैं.
फिल्म एनएच 10 इंडिया के चमचमाते हाइवों के किनारों से
सटे भारत के झुरमुट, झाड़ियों और अधकचरे जंगलों के उबड़-खाबड़ रास्तों का सफर है. 115 मिनिट की इस फिल्म में जातिवाद की कट्टर
मान्यताएं, खाप नाम की खूनी बन चुकी धारणाएं, और सम्मान की रक्षा में हत्यारी बन चुकी मानसिकताओं का नंगा चित्र दिखाई देता
है. नपे-तुले और सीधे शब्दों में यह फिल्म हरियाणा में स्त्री की सामाजिक स्वतंत्रता
की लड़ाई का पहला अध्याय है.
आइए चलते हैं निर्देशक नवदीप सिंह
के कैमरे की आंखों से दिल्ली से पंजाब के फजलिका जाने
वाले वाले 403 किलोमीटर लंबे हाइवे की यात्रा पर जहां
जीवन बचे रहने की कला नहीं है
बल्कि इस देश की सामाजिक रूढ़ियों से युद्ध है.
अर्जुन सिंह (नील भूपलम) और (अनुष्का शर्मा) मीरा सिंह गुड़गांव स्थित एक कंपनी में काम
करते हैं.
महानगरीय जीवन शैली में जी रहा और आधुनिक परिवेश में रचा-बसा यह नवविवाहित जोड़ा अपने कामकाजी जीवन से संतुष्ट है. कुछ संतुष्टि विलासिता और साधनों पर जमी भाप होती है और थोड़ी सी असुविधा और कठिनाइयों के बीच उड़ती
रहती है.
एक दिन अर्जुन और मीरा देर रात पार्टी में
जाते हैं, लेकिन ऑफिस में हो रही प्रॉडक्ट लॉचिंग
का फोन मीरा को वहां से अकेले लौटाता है. महानगर की आधुनिकता रातों की
पार्टियों में सिगरेट फूंकती है और शराब के नशे में जल्दी सो जाने वाले शहरों को
कोसती है. पहले पहर की रात में, सो चुके शहर के बीच ऑफिस जाने के लिए चमचमाती सड़क पर गाड़ी
दौड़ाती मीरा का दो मोटरसाइकिल सवार पीछा
करते हैं और मौका पाकर उस पर हमला करते हैं. कुछ समझने से पहले ही मीरा खुदको अपराधिक तत्वों की गैंग
से घिरा पाती है. लेकिन उसकी सूझबूझ और चपलता दिखाकर निर्देशक नवदीप सिंह ने
दूसरे दिन का वह दृश्य रचा है, जहां वे फिल्म का पूरा प्लाट बुनते हैं.
थाने में पत्नी पर हमले की रिपोर्ट दर्ज
कराने गए अर्जुन को पुलिस वाला सुरक्षा के लिए रिवॉल्वर रखने की सलाह देता है. इस संवाद के साथ की ‘यह शहर बढ़ता बच्चा है, कूद तो लगायेगा ही’. पुलिस
की ओर से अपराध
की शिकायत पर यह जवाब, फैलते
महानगरों मे कानून के सिकुड़ जाने का बयान है. हर तरह के अपराध स्वाइन फ्लू हो चुके हैं, यहां सुरक्षा ही बचाव है.
थाना इंचार्ज थाने में बैठे अर्जुन को
डीआईजी आनंद सहाय से उसकी दोस्त की याद खुद दिलाता है. उच्चवर्ग में पुलिस के आला अफसरों से पहचान सारे अपराधों
को माफ करने का विश्वास होता है. ऐसे विश्वास अक्सर कस्बों और गांवों का यथार्थ होते हैं. सहाय मुसीबत में सहायता का प्रतीक भर हैं. लाइसेंस और पर्सनल गन दोनों वहीं से आती हैं. गन के आने से दंपती खुदको सुरक्षित और दूसरों से ज्यादा हमलावर समझता
हैं.
धीमी गति से भरे दृश्य, उनके बीच तारतम्य और बिना म्युजिक का
बैकग्राउंड, फिल्म
के तापमान में थ्रिल पैदा करता है. वीक एंड
पर काम से निपटकर पत्नी मीरा के जन्मदिन
पर अर्जुन उसे ऑफिस लेने आता है. गुडगांव
के एक भव्य ऑफिस में 10 पुरुषों
के सामने कंपनी के एक बेबी प्रॉडक्ट पर प्रजेंटेशन देती मीरा का दृश्य देश में लड़कियों की प्रगति का प्रतीक है. खासकर हरियाणा में जहां लड़कियां परिवार
और पुरखों की पीढियों के सम्मान और इज्जत का भार ढो रही हैं और थोड़ा सा सम्मान इधर-उधर होने पर मार दी जाती हैं. हालांकि प्रगति के इस
सोपान पर भी कामकाजी महिलाओं के प्रति पुरुषों का नजरिया कैसा है, यह इसी दृश्य में दर्शक देख सकते हैं.
मीरा के जन्मदिन को सेलिब्रेट करने के साथ ही यह
नवविवावहित जोड़ा लंबी छुट्टियों पर जाने की तैयारी करता है. ऑफिस प्रिमाइसेस में गाड़ी से पत्नी मीरा को लेने पहुंचे अर्जुन का
सिक्योरिटी गार्ड से झंझट का दृश्य, फिल्म के ताने-बाने को बारिकी से बुने जाने की बानगी है. नवदीप की रियलिस्टिक अप्रोच, कहानी को हौले से कहने और आहिस्ता से बढ़ने का ढंग भविष्य में उनकी
ओर से कुछ अच्छी और यथार्थपरक फिल्मों की खेप देने को लेकर आश्वस्त करता है. बावजूद इसके मीरा और अर्जुन छुट्टियां मनाने कहां जाते हैं, यह साफ नहीं है. हां फिल्म में बसंतपुरा
का जिक्र आता है, लेकिन स्पष्ट नहीं है.
छुट्टियां मनाने के लिए एनएच10 हाइवे से निकले अर्जुन और मीरा की इस
यात्रा में निर्देशक नवदीप सिंह कहानी कहने के ढंग का चुनाव कर लेते हैं. धीमी लय और गति के साथ
चलती फिल्म दृश्यों और छोटे संवादों से एक थ्रिलर को बुनना शुरू करती है. थ्रिल की ओर बढ़ती फिल्म में गाड़ी के भीतर मीरा और अर्जुन के बीच हल्के-फुल्के रोमांस से मन में प्रेम
के फूल खिलते हैं. अनुष्का के खूबसरत चेहरे की हंसी कब हमारे चेहरे पर मुस्कान
छोड़ती है, पता ही नहीं चलता. दृश्य छोटा है, लेकिन खूबसूरत है.
यात्रा के साथ ही फिल्म अनहोनी के संकतों के बीच रेंगने
लगती है. टोल नाके पर टैक्स भरते हुए नवदीप अनहोनी का पहला संकेत
देते हैं, जब टोल वाला अर्जुन से कहता है- रोड का वह साइड इसलिए बंद
है क्योंकि टोल मांगने पर चार लौंडो ने टोल वाले को गोली मार दी. बाजू की सीट पर बैठी पत्नी के पूछने पर अर्जुन उसे यह वाकया बताना पसंद नहीं करता. अनहोनी को घटने से रोकने का पहला संकेत संभवत: अर्जुन खारिज कर बैठता है.
नवदीप सिंह |
फिल्म गंभीरता का लिहाफ ओढ़ने लगती है. खाना खाने के लिए एक ढाबे पर रुकने का विचार सहजता के साथ
आकार लेता है. ढाबे पर रुकते समय कार के सामने आए लड़का और लड़की दुष्चक्र
की सीमा में प्रवेश है. ढाबे पर बने शौचालय में मीरा
का जाना और वहां बैठकर सिगरेट पीने के दृश्य से निर्देशक ने इस समय की नब्ज पर
हाथ रखा है.
यह सीन कमाल है, जब शौचालय के दरवाजे पर
चॉक से लिखे गए ‘रंडी साली’ शब्द को मीरा बाकायदा कागज से पोंछकर मिटाती है. स्त्री, अस्मिता और इस पूरे पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के वजूद
पर सवाल उठाते इस सीन से निर्देशक ने इस दौर के आडम्बर के कपड़े उतारे हैं. शौचालय के भीतर दौड़ती, भागती और हांफती एक लड़की
मीरा से अपने पति और अपनी जान बचाने की गुहार लगाते हुए अंदर आती है. यहां दुष्चक्र का इस दंपती से सीधा संवाद है. मीरा का इस लड़की से छिटक जाना और उसके मामले में न पड़ते हुए
दूरी बनाए रखने की कोशिश सभ्य समाज का वास्तविक चेहरा है. शौचालय की अंधेरी दीवार के पीछे छिपकर जान बचाने के लिए खडी लड़की का दृश्य महिला
सशक्तिकरण के मुंह पर तमाचा है. टेबल पर ठंडी होती चाय एक दूसरी दुनिया का प्रतीक है. गोभी और दाल फ्राय के ऑर्डर के लिए
बैठी मीरा हमारे घर का भी मामला है.
अर्जुन और मीरा ढाबे के बाहर बैठे हुए हैं कि तभी सामने चीखने
और चिल्लाने की आवाजें आती हैं. चंद लोग एक लड़के और लड़की को बुरी तरह पीटते हुए उन्हें
गाड़ी में बैठाते हैं. ये वही लड़की और लड़का हैं जो ढाबे पर एंट्री के दौरान कार के
सामने आते हैं. यह वही लडकी है, जो शौचालय में मीरा से मदद
की गुहार लगाती है. इस वही लड़की और लडके को अर्जुन बुरी तरह पिटते देख नहीं
पाता और वह बीच-बचाव करता है. समाज अक्सर वही करता है, जो उसकी रेंज में होता है. ढाबे के लोग तमाशा देखते हैं, लेकिन अर्जुन लड़की को बेरहमी से पीटते लड़के को रोकने का
प्रयास करता है. हिंसक, बर्बर और खून का प्यासा बना लड़का (दर्शन कुमार) अर्जुन को केवल इतना कहता है- बहन है म्हारी. इतना सुनते ही अर्जुन
पीछे हट जाता है. मीरा और अर्जुन पूरे दृश्य को मूक दर्शक बने देखते हैं. मारपीट के इस दृश्य को निर्देशक ने फिल्मी पर्दे की ढिशुमSSSढिशुम से कोसो दूर खड़ा कर दिया है.
यह मारपीट किसी कस्बे के मोहल्ले या महानगर के मेन एरिया का
वास्तविक दृश्य है, जिसे हमने और आपने संभवत: देखा होगा, (मैने महसूस भी किया है.) और जाहिर है पीड़ित की आवाजों को नजरअंदाज
करते हुए दो हाथ दूर खड़े हो गए हों. लेकिन अर्जुन इस हिंसक दृश्य से द्रवित हो लड़की को कार में
धकेलते भाई को फिर रोकता है, लेकिन भाई का जवाब पूरी फिल्म की दिशा मोड़ने के लिए काफी
है. भाई (दर्शन कुमार) अर्जुन को बुरी तरह से झापड़ मारकर बीच में पड़ने के लिए नहीं
कहता है. दंपती दुष्चक्र के भीतर प्रवेश कर जाते हैं.
दूसरे का निजी मामला तब तक ही निजी है, जब तक वह किसी दूसरे के भीतर प्रवेश न
करे. दुर्घटनाओं
की लपटें अक्सर परिवारों से उठती हैं और सारे समाज को जला देती हैं जबकि हम उसे
बुझा सकते थे. समाज कई
परिवारों का ही तो नाम है. फिर तो पूरा
विश्व ही कुटुम्ब है. पूरे
समाज के सामने एक परिवार के प्रेमी और प्रेमिकाएं मरने तक पीटे जाएं और रोकने पर
रोकने वाला मार खा जाए तो उसके शर्मिंदगी और अपमान की हद है. तब जबकि पुलिस के आला अधिकारी डीआईजी उसके
दोस्त हैं और उसके पास लाइसेंसधारी गन है.
सभी लोगों के बीच में चांटा खाकर अपना सा
मुंह बनाकर गाड़ी चला रहा अर्जुन शर्मिंदगी
की इसी आग में झुलसता है. बदले की
भावना उसकी गाड़ी की गति में दिखाई देती है. मीरा अर्जुन को समझा रही है, लेकिन अपमान
में झुलस रहा अर्जुन उसी काली स्कॉर्पियो को ढूंढ रहा है, जिसमें बैठे लड़के को डरा-धमका कर और चांटा मारकर उसके ईगो को तसल्ली
मिलेगी. दूर
सामने दूसरी सड़क पर जा रही वह स्कॉर्पियो अर्जुन की आंखों में उतर रही है. वह गाड़ी रोकता है, पीछे बैग से उसी गन को निकालता है, जिसे भारी लगने पर मीरा ने अपने पर्स से
निकालकर रख दिया था. मीरा सब
समझ रही है. मना कर
रही है, पति को
रोकने, समझाने
के जितने जतन उसने छोटे से दांपत्य जीवन में सीखें हैं, सारे के सारे गिड़गिड़ाहट में उतार दिए. लेकिन पत्नी के सामने किसी दूसरे मर्द से
मार खाया हुआ पति विवेक को पसीने में निथार चुका है और वह धूप में पसीना बनकर उड़ रहा है.
यहां सारे निर्णय जोश के हैं. सिंह दंपती अपनी गाड़ी झुरमुट, झाड़ियों से सजी एक जंगल की डेल पर काली स्कॉर्पियो के पीछे
खड़ी करते है. हथियारों के भीतर हिंसा और हमलावर
प्रवृत्ति अदृश्य रूप में अपना काम करती है और वे इंसानी हाथ में पड़ते ही अक्सर मूल
प्रवृत्ति को बदल देते हैं.
निर्देशक ने इस पूरे दश्य से फिल्म को वहां
ले जाकर खडा किया है, जहां से
दर्शक बार-बार पीछे लौटकर पीछे लौटना चाहेगा, लेकिन उसके बस में नहीं होगा. ऐसे दृश्य दर्शकों के भीतर अफसोस और खीज
पैदा करते हैं, जो
अंततोगत्वा पात्रों के साथ परिणाम के सिरहाने बैठकर पछतावा करते हैं.
दोपहर से सांझ में उतरते सूरज की ढलती, लेकिन तपती धूप में अर्जुन हाथ में बंदूक
लिए झाड़ियों में छिपकर एक टीले
के निचले हिस्से में अपने समय का नंगा यथार्थ देखता है. लड़की और लड़के को
पूरी बर्बरता, अमानवीयता, नृशंसता और बेहद क्रूरता से मारते ये
पांचों लोग इस देश के अंधेरे में छिपा वह सच है, जिसका महानगरीय मध्यवर्गीय समाज सामना कम
ही करता है. किसी
दूसरी जाति के लड़के से प्रेम का पाप कर बैठी लड़की से
मारपीट के यह दृश्य अपील करूंगा कि बच्चों को न दिखाएं और न ही गर्भवती महिलाओं
या किसी अन्य संवेदनशील मन के व्यक्ति को. हिंसा के दृश्य स्क्रीप्ट की जरूरत है. निर्देशक ने जिस तरह से फिल्माया है
फिलहाल उस पर खामोशी.
उधर, बंद कार में बैठी पत्नी मीरा के खून से बेचैनी
हरकत के जरिये बाहर आती है. पेन को
लगातार बंद चालू करती मीरा गांव वाले समझकर लोगों को डराने, धमकाने गए पति को कॉल करती है, लेकिन पति का फोन कार के भीतर ही बजता है. कार में अकेली बैठी मीरा को देखकर हाथ में गेंदे का फूल लिया 35 साल का एक युवक कार के शीशे से झांकता है
और बाहर से मीरा को देने की कोशिश करता है. वह मीरा से पूछता है यह गाड़ी थारी है. मूल रूप
से मंद बुद्धि इस व्यक्ति को मीरा सही पहचानती है, और बाहर आकर पति का हुलिया व शक्ल उससे
पूछती है कि क्या आपने उस एक व्यक्ति को देखा है?
आधे बीहड़ में आवाज लगाती मीरा पति
अर्जुन को ढूंढ रही है. साफ
आसमान में गुजरते हवाई जहाज का दृश्य देश में विरोधाभास का प्रतीक है. बिना बैग्राउंड
साउंड के मीरा की अर्जुनSSअर्जुन आवाज
के साथ-साथ चलता कैमरा आपको यहां एक थ्रिलर के
साथ अकेला छोड़ देता है. मीरा की
पीठ के पीछे दौड़ते और बदहवास पैरों की एक आवाज है, जो अर्जुन की है, जिसमें डर है, भय है और घबराहट है और चिंता समायी है, एक बडी मुसीबत में फंस जाने की. सामने वही मनोरोगी व्यक्ति है, जिसे बहला कर मीरा आगे आई थी. घबराया अर्जुन उसी पर बंदूक तान देता है. मीरा समझाती है कि वह पागल है, लेकिन बेहद डरा, सहमा और बदहवास अर्जुन स्तब्ध सा कुछ
समझने की स्थिति में पहुंच पाए, इससे
पहले उसके सिर पर एक जोरदार प्रहार होता है.
फिल्म की शुरुआत आपको इसके बेहतरीन स्क्रीन
प्ले के प्रति आश्वस्त करती है. शुरुआत
में स्क्रीन पर चलते टीम के नाम, पीछे
सुनाई पड़ती हंसी, तमिल के संवादों से भरी यह हंसी (तमिल में प्रेमिका का प्रेमी को प्रेम का
इजहार है). यह फिल्म
की सुखद यात्रा की बानगी है. अर्जुन
के सिर पर प्रहार के बाद कैमरा सीधे इस नवदंपती के जीवन के प्रेम में डूबीं तस्वीरों
में धीमे से चंद संवादों के साथ सरकता है. नवदीप कैमरे को थामते हैं, गति देते
हैं और एकाएक झटके के साथ उसे वहां रोक देते हैं, जहां पात्र कहानी को आगे बढाते हैं. यह एल्बम सीधा जाकर अर्जुन के मोबाइल में
सिमट जाता है, जो लड़की के भाई के हाथ में है. हिंसा में डूबे और पीछे लड़के और लड़की दोनों को गाड़ने
की तैयारी में पांचों बर्बर अपराधियों के बीच गिड़गिड़ाते मीरा और अर्जुन पूरी तरह से
दुष्चक्र में हैं. यहां
अर्जुन की पत्रकार न होने की सफाई है. डीआईजी से मित्रता का प्रभाव और डर है. हिसाब बराबर होने की समझौता भरी बात है. पत्नी मीरा की भैया करके गुहार है, लेकिन बदले में……!
मृत्यु का आलिंगन कर रही लड़की अधमरे लड़के से मिलने के लिए हाथ बढाती है. यह दृश्य भाई की आंखों में खून उतार देता
है और गुस्से से आग बबूला भाई मौत में डूब रही लडकी के सीने में गोली उतार देता
है. गोली की आवाज के साथ चिड़ियों के उड़ने की आवाज पूरी फिल्म को एक थ्रिल देती है. लड़की को गोली मारने से पांचों में सबसे उम्रदराज मामा नाम
का पात्र नाराज है. वह लड़की के भाई को डांटते हुए हाथ
में सब्बल देता है और कहता है- अरे जब गोली ही मारणा था तो यह सब क्यों
किया. ले अब
सब्बल, भेद दे इसे भी (लडके को) . यह दृश्य और संवाद क्या हमारी ग्रामीण
पारंपरिक समाज की सपाट संवदेनहीनता का प्रतीक है? क्या गांवों की पारंपरिक हरियाली के भीतर कुछ ऐसा है, जो मनुष्यता के कोमल तंतुओं को मुरझा रहा
है और ऐसी बर्बर हिंसा में डूबो रहा है? गांवों की दमकती उजास के भीतर ऐसा कौन सा
अंधियारा फैला है, जो मनुष्य मन को इतना काला कर गया है? टीवी पर
उडती हुई हरियाणा की खाप पंचायतों के निर्णय की खबरें, ऑनर किलिंग में मारी गई लडकियों के फ्लैश, क्या इनके पीछे की दुनिया ऐसी ही है? ऐसी घटनाओं
को अंजाम देने वाले क्या ऐसे ही नृशंस हत्यारे होते है? मामा अपने भांजों को यह सलाह भी देता है- लडके और
लडकी को भी मारकर यहीं गाड देते हैं.
लड़के को मारते देख मीरा की आत्मा कांप उठती है. मनोरोगी युवा हाथ में बंदूक लेकर, डरे हुए दंपती के पास पहुंचता है और मीरा
को फिर से गेंदे का फूल देता है. अर्जुन
मीरा से फूल लेकर उससे बंदूक मांगने के लिए कहता है. युवा नहीं मानता. अर्जुन गाड़ी की चाभी पर समझौता करता है
और आखिरकार बंदूक अपने कब्जे में ले लेता है. बंदूक हाथ में आते ही अर्जुन उसे मनोरोगी
युवा पर तानता है और चाभी मांगता है. युवा
मना करता है, माहौल
में एक गर्माहट फैल जाती है. उसे सभी
चाभी देने की सलाह देते हैं, लेकिन वह
नहीं देता. डरा, हड़बड़ाया और घबराया
अर्जुन चाभी छीनने के चक्कर में युवा पर गोली चला देता है. चाभी जमीन पर बेदम होकर पड़े युवा के हाथ में अब भी
फंसी रहती है. पीछे
लोगों को अटैक करता देख मीरा अर्जुन को भागने के लिए कहती है. दोनों वहां से भागकर गाड़ी के पास आते हैं. गाड़ी के कांच बंद हैं, लेकिन पीछे आते अपराधियों को देखकर मीरा
डर जाती है और अर्जुन और मीरा हाथ में बंदूक लेते, पीछे आते अपराधियों को डराते हुए दूर
झाडियों से भरे मैदान में दौड़ते हैं. सूरज
सांझ को निगलता रात के आगोश में छिप गया है. रात घिर गई है और एक-दूसरे से
बेहद प्रेम करने वाला यह जोड़ा पीछे पड़ी मृत्यु से जंग करता जीवन
की तलाश में रात को एक बीहड़ में भाग रहा
भटक रहा है.
डरे, सहमे, घबराए और थके-मांदे मीरा और अर्जुन के सामने रात की सड़क भी बेसहारा साबित होती
है. सड़क पर किसी भी गाड़ी को रोकने के प्रयास में, लेकिन पीछे अपराधी अपनी स्कॉर्पियो लेकर उनका
पीछा करते हैं. गुस्से
में अर्जुन फिर उनकी गाड़ी पर गोलियां उतारता है. यह दृश्य अपनी वास्तविकता में संपूर्ण
है. गोलियां दागते अर्जुन और मीरा आखिर रोड
के उस पार भागते हैं और एक गड्ढे में गिर जाते हैं. जहां दोनों को अलग-अलग भागना पडता है. रात के अंधेरों में चंद हत्यारे लोग, उनकी आवाजें एक नवविवाहित जोड़ा वह भी जुदा
हो गया. दोनो को
अलग-अलग भागते हैं. अर्जुन एक अंधेरी खोह में छिप जाता है
जबकि अनुष्का दूसरी ओर पीछे लगे दो लोगों का ध्यान अपनी ओर से हटाने में कामयाब
होती है. एक
दूसरे को ढूंढते आखिरकार दोनों मिल जाते हैं और फिर भागते हैं. रात के अंधेरे का यह दृश्य आपको अपनी सीट
से उठने नहीं देगा. भागते-दौड़ते और बुरी तरह थके दोनों लोगों पर फिर
हमला होता है. इस बार
एक अपराधी अर्जुन को पकडता है और उसकी जांघ पर चाकू घोंप देता है. मीरा उस हत्यारे को गन चलाकर मार देती
है. चाकू लगने से बुरी तरह घायल जैसे-तैसे दोनों एक रेल्वे ब्रिज के नीचे जगह
तलाशते हैं. सामने ब्रिज
से गुजरती ट्रेन के इंजिन की रोशनी मीरा और अर्जुन की आंखों पर पड़ती है. दोनों ट्रेन को गुजरता हुआ देखते हैं. तेज रफ्तार से जाती ट्रेन घायल पति को
संभालती मीरा के लिए उम्मीद की किरण है. यह दृश्य फिल्म के बेहतरीन दृश्यों में से एक है. ट्रेनें केवल मशीनी लोहा नहीं जो पटरियों
पर घिसता रहता है बल्कि वह संबंधों की लड़ियां होती है, जो एक शहर से दूसरे शहर आती जाती रहती है. यहां ट्रेन उम्मीद का प्रतीक है.
रेलवे पुल के नीचे बेहोश होते पति को होश
में बनाए रखने के लिए तमिल में मीरा एक बार फिर प्रेम का इजहार करती है. जिसे देखकर अर्जुन मुस्कुरा देता है. यह दृश्य एक महान दृश्य है. मुसीबत, संघर्ष, भयाक्रांतता और मृत्यु की काली छाया के
बीच प्रेम भीतर मुक्ति, निर्भयता, निश्चिंतता और जीवन के सुनहरे सपनों को
जगा देता है. घबराई
मीरा पति के जेब से पैसे ढूंढती है और नहीं मिलने पर हाथ से घड़ी उतारकर वहां से
दूर रात को पुलिस चौकी ढूंढने निकल जाती है. यहां फिल्म का इंटरवल है.
आगे कहानी आपको किसी नजदीकी थियेटर में या
घर पर सीडी प्लेयर या फ्री में फिल्म को डाउनलोड करके देखने को मिल सकती है. हां इंटरवल के बाद की कहानी आपको इस व्यवस्था
में गांवों में पुलिस थानों की स्थिति, गोत्र, जाति, धर्म से संचालित पुलिसवालों की मानसिक अवस्था, रात को परेशान घूमती एक औरत के संघर्ष पर
निगाहें, पीछे पड़े
हत्यारे, गांव की
महिलाओं द्वारा महिलाओं की ही शोषण की दास्तानें देखने को मिलेंगी. सो इंटरवल के बाद यह फिल्म और भी
बेहतरीन बन पड़ती है.
दीप्ती नवल छोटी सी भूमिका में प्रभावी
बन पड़ी हैं. लड़की के
भाई का किरदार निभाते दर्शन कुमार कुछ न बोलकर प्रभावित करते हैं. अंतिम दृश्य अब तक के सबसे बेहतरीन और एक
स्त्री मुक्ति के महान दृश्यों मे से एक है, वह है सिगरेट पीकर लड़की के भाई की ओर
देखती मीरा. निश्चित
ही यकींन मानिए आप इस एक दृश्य के लिए इस फिल्म को देखें. बाकी की कहानी आपके लिए. थ्रिलर है सो मजा किरकिरा हो जाएगा.
हां फिल्म पर आगे कहूं तो नवदीप फिल्म को एक सरल रेखा में आगे बढाते हैं. शांत, स्थिर और साधारण कैमरा एंगल्स के बीच फिल्म को बुनते हुए
निर्देशक ने स्क्रीन प्ले की बजाय कहानी की कसावट और उसके थ्रिलर होने की ताकत
पर ज्यादा भरोसा किया. फिल्म कहानी प्रधान है. एक दृश्य से दूसरे दृश्यों के साथ इसका आगे बढना और
दर्शकों को अब क्या होगा के रास्ते पर कौतुहलता के साथ एक जैसा बांधे रखना इसकी शानदार खूबी है. अमेरिका से निर्देशन सीखने समझने वाले नवदीप सिंह के खाते
में कुछ अच्छी विज्ञापन फिल्में हैं. एनएच10 उनकी पहली फिल्म मानी जा सकती है. इस फिल्म को उनका मास्टर पीस नहीं कर सकते, लेकिन जैसा की पहले कहा आने वाले समय में उनसे कुछ अच्छी
उम्मीदे हैं. सो उन्हें बधाई.
इधर बतौर निर्माता अनुष्का शर्मा की भी यह पहली फिल्म है. एक ऐसे दौर में जबकि फिल्म निर्माण में पैसा लगाना खतरे
से खाली नहीं उन्होंने यह खतरा उठाया. एक बार में नवदीप की कहानी
पर भरोसा करके खुदको फिल्म निर्माण में उतारने के लिए तैयार करना उनके लिए किसी
जोखिम से कम नहीं था. वे भी इंडस्ट्री में नई हैं. यह भी बडा हिम्मत भरा काम है. उनकी पिछली फिल्म पीके थी जो अभिनय के लिहाज से एक दम
डिफरेंट जॉनर की रही. सूचना है कि उन्होंने पीके और एनएच10 एक और फिल्म बॉम्बे वेलेट, तीनों की शूटिंग को दिन की पारियों में पूरा किया है. यदि यह सूचना सही है तो उनकी अभिनय क्षमता में बेहद निखार
आया है. इस फिल्म के प्रति उनकी रियलिस्टिक अप्रोच, अभिनय और एक ही समय में इतने अलहदा पात्रों को जीकर इतने
मेहनत से पूरे किए दृश्य सभी के लिए उन्हें बधाइयां. नील के अभिनय में एक सरलता है. नो वन किल्ड जेसिका, शैतान, डेविड उंगली और अनिल कपूर द्वारा निर्मित टीवी सीरियल 24 उनके खाते में है. नये चेहरे उम्मीद जगाते
हैं और अभिनय की स्वाभाविकता से बरबस ही दर्शकों को वे अपना बना लेते हैं. नील नये होने के बाद भी पर्दे का पुराना चेहरा दिखाई देते
हैं. उन्हें भी बधाइयां.
फिल्म पर केवल इतना ही कि इसकी कहानी आपको हरियाणा की खाप
पंचायतों की दुनिया से रूबरू कराती है. ऐसा नहीं है कि यह खाप
पंचायतों की कार्यशैली को पर्दे पर उतारने का पहला प्रयास है, निर्देशक अजय सिन्हा की 2011 में आई खाप फिल्म उसी धारा की है, लेकिन वह इतना प्रभाव नहीं छोड पाई. दरअसल सामाजिक यथार्थ सभी की आंखों से दो चार होता है, लेकिन फिल्म के जरिये उसे एक संपूर्ण पैकेज में परोसना
निर्देशक की अपनी कला है, जिसमें कम ही लोग सफल हो पाते हैं. गैंग्स ऑफ वासेपुर अनुराग कश्यप की निर्देशन कला की ही
सुंदर बानगी है. बिहार का समाज पर्दे पर आया, लेकिन जैसा कि पहले कहा छाप नहीं छोड पाया. अनुराग ने उसे बडा कर दिया. देव- डी भी इसी का उदाहरण है.
इस फिल्म की सबसे बडी खासियत यह आपको अपने समाज से उठाकर उस
पूरे समाज की भयावहता से गुजारती है और उसे अपनी फिल्मी परिणति प्रदान करती है. फिल्म में अतियथार्थ कल्पना की सीमा में प्रवेश करने
लगता है. कई दर्शक इसे एक घटना को कुछ ज्यादा ही खींचने वाली फिल्म
कह सकते हैं, लेकिन यह फिल्म की अपनी जरूरत है. हिंसा और मारपीट के विभत्स और मन को सहमा देने वाले दृश्य
भी कहानी की जरूरत है. यह फिल्म अतियथार्थ में कल्पना में शामिल नहीं होती. खूबसूरती निर्देशक की यह है कि उसने इसने फिल्म के अंत को
काल्पनिकता से जोडकर इसे फिल्म बने रहने दिया. वरना कैमरे पर डॉक्यूमेंट्री बनाने के आरोप लगते. खास बात यह है कि फिल्म में हरियाणा के खाप पंचायतों के
आधिपत्य वाले गांव, जिले उनकी कार्यशैली, सोच और उनका समाज पर
प्रभाव व उनके विरूद्ध जाने का परिणाम निर्देशक ने दर्शक पर थोपा नहीं है बल्कि
उसे बेहद कुशलता के साथ प्रतीकों में परोस दिया है. जैसा कि पहले कहा, यह आपको अपने समाज से इसी
देश के ही एक अलग समस्याग्रस्त समाज के भीतर से गुजारती भर है. अपने प्रस्तुतीकरण के जरिये उसमें सफल होती है. कैमरा एक कहानी कहते हुए आपसे अपनी बात कहकर निकल जाता है. फिल्म का नाम एक हाईवे पर है और हाईवे जोडने का काम करते
हैं. फिल्म एक पडाव का दृश्यांकन भर है.
इधर, हरियाणा में 2012 में आई लगातार रेप की खबरें, वहां का समाज, उनकी अपनी मान्यताएं, परंपराएं और उन सबके भीतर रहती स्त्री की दुनिया को सामने
लाने के लिए निर्देशक ने पात्रों के अपने संसार के साथ प्रवेश किया है और वह उस
समाज के ध्यान रहे पूरे समाज नहीं बल्कि उसके एक हिस्से से जूझते हुए आखिरकार
बिखर जाते हैं. हरियाणा का समाज, खाप पंचायतें और वहां की
स्त्री की सामाजिक स्थिति इस फिल्म के बहाने केंद्र में आते हैं. उस पर बहस संभव है और फिल्म देखने के बाद हर दर्शक देश
में गांवों और कस्बों की स्त्रियों की इस दशा पर सोचेगा जरूर. वैसे स्त्रियों की स्थिति पर देश 16 दिसंबर 2012 की घटना के बाद से ही स्तब्ध है.
उडती- उडाती खबर 2007 में आई हॉलीवुड फिल्म डेथ ऑफ ट्रूथ से इसके प्रभावित होने की है. यह फिल्म देखी नहीं, लेकिन वह कुछ साइकोकिलर का गणित है और कहानी के स्तर पर मामला दूसरा समझ में आता है. फिर यदि है भी तो यह कोई नई बात नहीं है. हर निर्देशक अपने कैमरे का एंगल हॉलीवुड से सैट करता है. बडे और दिग्गज निर्देशकों, पटकथा लेखकों की लंबी फेरहिस्त है, सो इस पर समय जाया नहीं. यह फिल्म देखने लायक है. दर्शक अपनी राय रखें वे ही शानदार समीक्षक हैं. हां इस समीक्षा को अपनी और अंतिम न मानते हुए, फिल्म के बैनर फैंटम प्रोडक्शन्स, क्वीन स्लेट फिल्म्स और डिस्ट्रीब्यूशन के लिए इरोज इंटरनेशनल को बधाई. बधाई फिल्म निर्माताओं की लंबी टीम कृषिका लुल्ला, अनुष्का शर्मा, कर्नेश शर्मा, विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाने और अनुराग कश्यप को. और निर्देशक नवदीप सिंह को भी. कलाकारों अनुष्का शर्मा, नील भूपलम, दर्शन कुमार और दीप्ती नवल के साथ अन्य कलाकारों को भी बधाई.
उडती- उडाती खबर 2007 में आई हॉलीवुड फिल्म डेथ ऑफ ट्रूथ से इसके प्रभावित होने की है. यह फिल्म देखी नहीं, लेकिन वह कुछ साइकोकिलर का गणित है और कहानी के स्तर पर मामला दूसरा समझ में आता है. फिर यदि है भी तो यह कोई नई बात नहीं है. हर निर्देशक अपने कैमरे का एंगल हॉलीवुड से सैट करता है. बडे और दिग्गज निर्देशकों, पटकथा लेखकों की लंबी फेरहिस्त है, सो इस पर समय जाया नहीं. यह फिल्म देखने लायक है. दर्शक अपनी राय रखें वे ही शानदार समीक्षक हैं. हां इस समीक्षा को अपनी और अंतिम न मानते हुए, फिल्म के बैनर फैंटम प्रोडक्शन्स, क्वीन स्लेट फिल्म्स और डिस्ट्रीब्यूशन के लिए इरोज इंटरनेशनल को बधाई. बधाई फिल्म निर्माताओं की लंबी टीम कृषिका लुल्ला, अनुष्का शर्मा, कर्नेश शर्मा, विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाने और अनुराग कश्यप को. और निर्देशक नवदीप सिंह को भी. कलाकारों अनुष्का शर्मा, नील भूपलम, दर्शन कुमार और दीप्ती नवल के साथ अन्य कलाकारों को भी बधाई.
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उप समाचार संपादक
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samiksha bahut acchi hai . ise padhkar NH-!0 dekhne kii ichha hai.
जवाब देंहटाएंअच्छी विवेचना।
जवाब देंहटाएंसटीक समीक्षा । बधाई ।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा अच्छी है। फ़िल्म देखने की इच्छा हो आई। शुरुआत की भाषा आलोचना में रचना पढ़ने का सुख देती है। काश भाषा और विचारों की वही त्वरा और सघनता अंत तक बनी रहती!
जवाब देंहटाएंराकेश जी से सहमत हूँ सारंग जी . अच्छी समीक्षा है. फिल्म देखने का मन बनाती है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा।
जवाब देंहटाएंसटीक समीक्षा
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सभी का। फिल्म देखें। कुछ अलग देखने का अनुभव होगा। खासकर वह जो अक्सर आंखों से ओझल रहता है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाषा और लय में समीक्षा... पढ़ते रहने की जिज्ञाषा को बढ़ाता है .... फ़िल्म के पहले भाग की समीक्षा और व्योरा खुल कर है ..दुसरा भाग उस तुलना में छूटता सा प्रतीत होता है... फ़िल्म देखने के बाद सब अच्छाई के बीच जो मुझे कहने का मन है वह यह की कहानी और घटनाओं की सत्यता में भी कुछ चीजें सेंसर या कम कर दिखाना मांगती है .... जिस जघन्य ह्त्या को बेहद बर्बर और क्रूरता से सीन में संपादित करते हैं ... देखने वाले दहल जाते हैं ....यहाँ लेखक ने भी उस दृश्य का जिक्र किया है खाप का सामाजिक नजरिया प्रस्तुत किया है पर दृश्य का चित्रण यथावत नहीं किया .. ऐसा फ़िल्म में भी होना चाहिए था ... यह क्रूरता न देखने के लिए बेबस से आँख बंद किये बैठे थे ... कुछ अपराधिक मानसिकताएं बेशक उबाल ले सकती हैं ....
जवाब देंहटाएंडॉ नूतन गैरोला
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