हिंदी की नई रचनाशीलता का क्षेत्र ‘सीकरी’ से बाहर का क्षेत्र है अब. आशीष पहाड़ के रहने वाले हैं, उनकी कविताओं में उनका अपना अनुभव तो है ही उसे अभिव्यक्त करने के हुनर में भी परिपक्वता है. दरअसल ये कविताएँ परायेपन से उपजी भर कविताएँ नही हैं इसमें कथ्य का नेपथ्य अपनी चेतना का साथ मौजूद है.
माँ और पहाड़
सीढ़ियों पर चढ़ता हूँ
तो सोचता हूँ माँ के बारे
कैसे चढ़ती रही होगी पहाड़ .
जेठ के उन तपते घामों में
जब मैं या दीदी या फिर छोटू बीमार पड़े होंगे
तो कैसे हमें उठाकर लाती रही होगी
हमारा लाश सा बेसुध तन
डॉक्टर के पास .
घास और लकड़ी के बड़े-बड़े गठ्ठर
चप्पल जितनी चौड़ी पगडंडियों पर लाना
कोई लतीफ़ा तो न रहा होगा
वो भी तब जब कोई ऊँचाई से खौफ़ खाता हो .
जंगलों की लाल तपती धूप
नई और कमजोर माँ पर रहम भी न करती रही होगी
माँ के साँवलेपन में ईष्टदेव सूरज
करीने से काजल मढ़ते होंगे
और माँ उन्हें सुबह-सुबह ठंडा जल पिलाती होगी .
पूर्णिमा पर चाँद की पूजा करने वाली
अँधेरे में डरते-डरते छत पर जाती होगी
और भागती होगी पूजा जल्दी से निपटाकर
डर से - जैसे सन्नाटा पीछा कर रहा हो,
खुद को सँभालती हुई तंग छज्जे पर .
हममें से कोई रो पड़ता
और उसकी नींद स्वाह हो जाती .
हमें सुलाने के लिए कभी-कभी
रेडियो चलाती
धीमी आवाज में गढ़वाली गीत सुनती,
गुनगुनाती भी .
उन पहाड़ों की परतों के पार
शायद ही दुवाएँ, प्रार्थनाएँ जाती रही होंगी
जाती थी सिर्फ एक रोड़वेज़ की बस
सुबह-सुबह
जो कभी अपनों को लेकर नहीं लौटती थी .
पिताजी एक गरीब मुलाजिम रहे,
आप शायद दोनों का अर्थ बखूबी जानते होंगे
गरीब का भी और मुलाजिम का भी .
छब्बीस की उम्र में
चार कदम चलकर थकने लगता हूँ मैं
साँस किसी बच्चे की तरह
फेफड़ों में धमाचौकड़ी करने लगती है,
बात-बात पर मैं अक्सर बिखर सा जाता हूँ .
क्या इसी उम्र में माँ भी कभी निराश हुई होगी
अपने तीन दुधमुँहे बच्चों से,
पति का पत्र न मिलने की चिन्ता भी बराबर रही
होगी .
थकता, टूटता हूँ तो करता हूँ माँ से बातें
(फोन पर ही सही)
निराशा धूप निकलते ही
कपड़ों के गीलेपन के जैसे गायब हो जाती है,
सोचता हूँ
वो किससे बातें किया करती होगी तब
दुःख दर्द में
अवसाद की घड़ियों में,
ससुराल की तकलीफ़ किसे कहती होगी
वो जिसकी माँ उसे ५ साल में ही छोड़कर चल बसी थी
.
भाषा
कोई नई भाषा सीखना
कुछ नये अक्षरों और उच्चारणों को
जानना भर नहीं है,
नई आकृतियों का ज्ञान भर नहीं .
बल्कि उस भाषा या बोली के
बोलने वालों के
सुख-दुख, अच्छे-बुरे की
पहचान करना है .
किसी भाषा का खो जाना
सिर्फ कुछ शब्दों की मौत नहीं
एक समाज विशेष
संस्कृति विशेष का स्वाह हो जाना है .
पहाड़े
उन दिनों पहाड़े याद करना
मुझे दुनिया का सबसे मुश्किल काम लगता था,
पहाड़े सबसे रहस्यमयी चीज .
९ के पहाड़े से तो मैं हमेशा चमत्कृत रहा
वो मुझे अहसास दिलाता
एक सुसंस्कृत बेटे का
जो घर से बाहर जाकर भी
घर के संस्कार न भूले .
मैं देखता कि कैसे
६ के पहाड़े में आने वाली सँख्यायें
३ के पहाड़े में भी आती
मगर छोटे-छोटे क़दमों में,
मुझे लगता एक पिता
अपने बच्चे की कलाई थामे
१२, १८, २४ वाली धरती पर कदम रख
रहा है
और बच्चा
६, ९, १२ वाली धरती पर,
पिता के दो क़दमों के बीच की दूरी
बच्चे के क़दमों की दूरी की दूनी रहती .
१० का पहाड़ा हुआ करता था मासूम
पहली पंक्ति में बैठने वाले बच्चे की तरह
जिसकी ऐनक नाक पर टिकी होती
जो बालों पर कड़वा तेल पोतकर आता
और बाल ख़राब होने पर बहुत रोता था .
१७ का पहाड़ा सबसे बिगड़ैल
गुण्डे प्रवृत्तिके छात्र की तरह .
सर्दियों में हम धूप में बैठकर गणित पढ़ते
बस्ते में रहती एक पट्टीपहाड़ा
जिसे हम रटते रहते,
मौखिक परीक्षा में १९ का पहाड़ा पूछा जाता
सुनाने पर पूरे २० अंक मिलते .
कभी-कभी नगर में पहाड़ा प्रतियोगिता होती
मैं २५ तक पहाड़े याद करता
और देखता कि कुछ बच्चों को ४२ का भी पहाड़ा याद
है,
हालाँकि समय गुजरते उन्हें भी २५ तक ही ठीक से
पहाड़े याद रहते .
मुझे २५ के पहाड़े से अगाध प्रेम रहा
जो बरकरार है .
उन दिनों
पहाड़ों की गुनगुनी धूप में
पहाड़े याद करना
जीवन की सबसे बड़ी चुनौती थी .
सोचता हूँ फिर से वे दिन मिल जाएँ
फिर से मिल जाय पीठ पर हाथ फेरती गुनगुनी धूप
मास्टर जी की डाँट,
अबकी बार इन चुनौतियों के बदले
मैं भी ४२ तक पहाड़े याद कर लूँगा
कभी न भूलने के लिये .
प्राथमिकता और विकल्प
वह मेरे लिए प्राथमिकता रही
सदैव,
बिना किसी अन्य विकल्प के .
मैं उनके लिए एक विकल्प रहा
सदैव,
किसी अन्य प्राथमिकता के लिए .
यहाँ के रहे न वहाँ के
मैंने महसूस किया अपनी नकली कविता की पंक्तियों
को
मँहगे आवरण में लिपटे सस्ते माल की तरह,
मैंने लम्बे समय तक धूल से वह वस्तु बचाये रखी
जो शायद उतनी कीमती नहीं थी .
मैंने महसूस किया कि जिसे मैं,
मैं-मैं लिखता रहा
वह अंत में कोई और
निकला
जिसे मैं या तो पहचान न सका
या समय के साथ भूल सा गया .
मैंने कागजों पर जिक्र किया सलीके से बने तालाबों का
इस जिक्र में जमीन गाँव की थी
पर तालाब कुछ-कुछ पाँच सितारा होटलों के
स्वीमिंग पूल जैसा .
मैंने विदेशी कुत्ते को सहलाते हुए मवेशियों के
बारे में रचा
सोफे पर पैर पसारकर कहवा पीते हुए
मैं आलसी बैल की नस्ल को ‘पमेलियन’ तक लिख गया,
मैं अपनी ढोंगी शहरी सभ्यता के चलते गोबर न लिख
पाया
मैं डरता रहा अपनी मँहगी कलम के बदबूदार हो
जाने से
और इस गंध से सरस्वती के प्राण त्याग देने के
भय से .
स्कूल से चुराई हुई रंगीन चौकों का
बुझी बीड़ी के टुकड़ों को फिर से लाल करने का
अपनी कक्षा में फिसड्डी होने का,
मैंने कभी जिक्र करना उचित नहीं समझा
या यूँ कह लें
मैंने ये बातें समझदारी से छिपा ली .
मैं कंचे, गिल्ली-डंडे की बलि चढ़ाकर क्रिकेट-क्रिकेट चिल्लाया
कुछ दिन सिक्कों को सामने बने छिद्र में डालने
वाला खेल खेला
माचिस के पत्तों की ताश भी खेली
पत्थरों की बट्टियाँ भी
मौजे से बनी गेंद और पिट्ठू भी,
मगर मैंने बराबर ध्यान रखा कि
मेरा देहातीपन गले में बँधे ताबीज की तरह
झाँकने न लगे .
दरअस्ल मैं तुलसी-पीपल तो लिख ही नहीं पाया
स्याही में निब डुबो-डुबोकर
सिर्फ धन-वृक्ष लिखता रहा .
मैं अपनी पैंट के छिद्रों को शब्दों से ढाँपता
रहता
जैसे माँ रफू किया करती थी,
मगर मेरे ढाँपनेपन में
वो सलीके वाला रफूपन हमेशा नदारत रहा .
किसान काका के दर्द को लिखते हुए
मैंने अपने गालों पर कुटिल हँसी महसूस की
उसके दर्द की कराह पर
स्वयं के होंठों पर तर्जनी रख दी
और फिर शहरी बनने का स्वाँग करता रहा,
न मेरा अधकचरा शहरीपन उसकी तकलीफ कम कर पाया
न मेरा भीतरी गँवारपन उसकी जान बचा पाया .
मैं भीतर ही भीतर खेत के पुस्तों सा टूटता रहा
किताब की जिल्द सा उधड़ता रहा
दरकता रहा समुद्र तट पर बनी मूरत जैसा
सावन के धारों सा बहता रहा, अनवरत, अकेला
मैं शहर में रहा खोखली शान से
सम्पन्नता के दरमियान,
मैं विलासिता की सीमा परसुखमय जीवन गुजारता रहा
और फिर उसी मँहगी कलम से
‘सी.एफ.एल.’ की दूधिया रौशनी में
एक गरीब की कविता लिखता रहा .
मंगलाचार पर कवि का स्वागत।
जवाब देंहटाएंकविताओं की सांद्रता रोकती है यहाँ।
Badhai Aashish ko ... aseem sambhavnaaon se bharpooor yuva kavi
जवाब देंहटाएंArun Dev..... aapka bahut shukriya Aasheesh ki kavita sajha karne k liye.... mujhe naye kaviyon ko talash rahti hai...kuchh naya padhne kuchh nayi jagaho par utarne k liye.... beshak inke pas abhi bahut naya aur bahut kuchh hai kahne ko... ek bar fir kavi parichay k liye dhanyawaad
जवाब देंहटाएंकविता बेहद सराहनीय है .सरलता , अनोखा अन्दाज व विषय में नवीनता से कविता प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त हुई है .
जवाब देंहटाएंअपने अतीत से संवाद स्थापित करती ईमानदार कविताएँ..आशीष जी को बधाई.
जवाब देंहटाएंbahut achchi kavityein. aashish se bahut umeedein hain.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 05-06-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1634 में दिया गया है
जवाब देंहटाएंआभार
पूर्णिमा पर चाँद की पूजा करने वाली
जवाब देंहटाएंअँधेरे में डरते-डरते छत पर जाती होगी
और भागती होगी पूजा जल्दी से निपटाकर
डर से - जैसे सन्नाटा पीछा कर रहा हो,
खुद को सँभालती हुई तंग छज्जे पर .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
सभी कविताएं अच्छी लगी..नएपन का आभास है..
जवाब देंहटाएंकविता की गूँज से भरी आशीष की कविताओं को मंगलाचार में जगह मिलना ही उपलब्धि है
जवाब देंहटाएंआप सभी का तहेदिल से आभार..
जवाब देंहटाएंभाई अरुण जी का शुक्रिया ! :)
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