तुम कहाँ गए थे लुकमान अली

(photo courtesy Tribhuvan Deo)


सौमित्र मोहन (१९३८- लाहौर) का लुकमान अली कभी-कभी अकविता के ज़िक्र में किसी लेख में दिख जाता पर पर इधर कई दशकों से सौमित्र मोहन कविता की दुनिया से निर्वासित थे.

बकौल केदारनाथ अग्रवाल ‘हिंदी कविता को मुक्तिबोध और राजकमल चौधरी के बाद सौमित्र मोहन (लुकमान अली  कविता) ने आगे ले जाने का काम किया’. वह सौमित्र मोहन कहाँ गुम कर दिए गए थे. जो दिल्ली साहित्य के तंत्र के लिए कुख्यात है, ऐन उसके दिल के पास रहते हुए भी उनपर किसी की नज़र नहीं पड़ी.  

जिस कवि ने कविता की एक धारा का प्रतिनिधित्व किया हो वह इतना उपेक्षित कैसे रह सकता है भला.

८० वर्षीय हिंदी के इस महत्वपूर्ण कवि की सम्पूर्ण कविताओं का संग्रह 'हापुड़' से प्रकाशित हुआ है. साहित्य अकादमी समेत तमाम संस्थाओं के समक्ष अब कम समय बचा है इस ‘उपेक्षा’ के अपराध से अपने को बरी करने के लिए.

संग्रह ‘आधा दिखता वह आदमी’ की भूमिका  से कुछ अंश और उनकी आकार  में कुछ छोटी कविताएँ ख़ास आपके लिए.




आधा   दिखता   वह   आदमी  :  सौमित्र मोहन      




आरंभिक

१. इस किताब में मेरी कुल १४९ कविताएँ हैं. मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे इन्हीं कविताओं से जानें – पहचानें. यही मेरी ‘सम्पूर्ण कविताएँ’ हैं हालांकि इनके श्रेष्ठ होने के बारे में मेरा कोई दावा नहीं है.

२. ऐसा नहीं है कि मेरी काव्य-रचना इतनी भर रही है. हर कवि की तरह मेरे पास भी अभ्यास- कविताओं का एक ज़खीरा था जिसे मैंने दिल कड़ा कर नष्ट कर दिया है. ऐसी कविताओं की संख्या लगभग ३०० रही होगी – १९५६ से अब तक की अवधि में. इसके लिए मुझे अपने घनिष्ठ मित्रों तक की मलामत सहनी पड़ी है. उनका कहना है कि इन कविताओं पर फिर से काम किया जा सकता था. पर मुझे इसका रत्ती भर संताप नहीं है.

३. मुझे अक्सर ‘अकविता’ के खाँचें में रख दिया जाता है लेकिन मेरी गति और नियति वही नहीं है. मैंने कविता को अपने ढंग से बरता है – इसमें अतियथार्थवादी बिम्बों, फैंटेसी और इरॉटिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग हुआ है. अपनी दुनिया को समझने का यह मेरा तरीका है. जो बाहर है, वही भीतर है. मेरे लिए यथार्थ के दो अलग स्तर नहीं हैं.

४. मैं उस दौर का हिस्सा रहा हूँ. जिसने अपने से पहले की पीढ़ी को धकेल कर अपने लिए जगह बनाई थी. इस नई पीढ़ी ने कविता को एक नया ‘डिक्सन’ दिया था और मध्यवर्गीय सामाजिकता तथा भ्रष्ट शासन –तन्त्र पर खुल कर चोट की थी – अश्लील कहलाए जाने का जोखिम उठा कर.

५. १९६० के दशक में हुए लेखन को जोरदार आलोचक नहीं मिले अन्यथा इस पीढ़ी को ‘अराजक’ कहे जाने की शर्म नहीं उठानी पड़ती.
(२०१८)

___________________________


(रेखांकन : जय झरोटिया)




पहला प्यार
मैंने तुम्हें होठों पर चूमा.
तुमने घाटी पर फैली
            धूप को
आधा ढंक दिया.




गृहस्तिन
वह बातें करती है
और रोती है.
और चुप रहती है
और हंसती है
वह कुछ नहीं करती
और सभी कुछ सहती है.






दोपहर में विश्राम
टोकरे के पास रखा
       कटोरदान
धूप की मांस्पेशियाँ.





स्मृति भ्रम
ओह – तुम्हारी याद !
चांदनी में एक पक्षी
          उड़ गया.





बारहमासा -१
एक दीवार कच्ची पक्की.
कुछ पत्तियां
नीचे गिरी हैं.

हवा
उन्हें लिए जा रही है
उठाए उठाए.

यह मौसम नहीं
उसका नशा है,
चीज़ों को बिगाड़ते हुए
धीरे-धीरे

बारिश में
रंग
बदल रहे हैं
कितने.
इसके बावजूद
भले-भले





बारहमासा – २
घास के फूल
मानसून की चमकती बिजली में
खिले क्यों हैं ?





साक्ष्य
दीवार में काफी बड़ा सुराख़ बना हुआ था

एक बच्चा कूद कर
जब बाहर आता है तो
बाकी लड़के उस पर टूट पड़ते हैं
बच्चे के लिए बचने का उपाय
वही सुराख़ है जिसमें से वह इधर आया था.

इस घटना का साक्ष्य केवल काल है !







पश्चात् – संवेदन
मैं रंगों की वादी में धकेल दिया गया हूँ-
         कोई एक रंग चुनने के लिए :
लेकिन मुझसे
अमलतास के फूलों में डूबता
                सूर्यास्त
अलग नहीं किया जाता.





पूर्णिमा
एक कुहुकती हुई गंध
        आकाश की.
नदी में
बहता हुआ संगमरमरी दीया.





मई – जून
दर्पण की चौंध की तरह
ठहर गई है
        दोपहरी.





वय : संधि
एक हरी टहनी पर
    श्वेत फूल
धीरे से आ.!





ब्लैक आउट
भूरी बिल्ली का एक बच्चा
     चांदनी खुरच रहा है

दीवार से.




निंदा
एक पुरानी दीवार में से कीड़े
              चुनता हुआ
               कठफोड़वा
कहाँ ? कहाँ ?
___________
mohansoumitra@gmail.com




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  1. राजेन्द्र सिंह4 जून 2018, 8:21:00 am

    किसी भी पत्रिका की यही भूमिका होती है कि वह अपने समय के महत्वपूर्ण लेखन का नोटिश ले और जो उपेक्षित रह गए हैं उनपर ध्यान आकर्षित करें. आश्चर्य है आजतक किसी और पत्रिका ने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया. यह समालोचन का सबसे सराहनीय अंक है. आपको सलाम.

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  2. स्वागत है सर , आप के बहाने अराजक परंपरा की याद हो आई। एम करते हुए साहित्य के इतिहास मे आप का नाम सुना था। एक जगदीश गुप्त भी थे शायद । ये कविताएं लाजवाब हैं । इन्हे पढे बिना हिंदी कविता का कोई भी पाठ मुकम्मल नहीं है ।

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  3. और अराजकता शर्म तो कतई नहीं है।


    बल्कि ताकत ही है ।

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  4. बहुत-बहुत धन्यवाद.संभव हो तो 'लुकमान अली' कविता का पुनर्प्रकाशन किया जाय.

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  5. कवि भाई सौमित्र मोहन जी के बारे में इस सम्मान के साथ आपका यह ज़िक्र मूल्यवान है अरुण देव जी अत: आदर के योग्य। संस्थायें और हिंदी-समाज अपना-अपना जाने। मुझ जैसे स्नेही एकान्त रहते हुए भी स्नेह और आदर के साथ यथासाध्य सौमित्र जी के संपर्क में हैं। किन्तु हम न तो कोई संस्था हैं ना ही संस्था के बराबर कोई समकालीन कवि !
    अपनी तरह इन विचारों में आप सक्रिय हैं महसूस करके, तसल्ली तो होती है। धन्यवाद भाई।

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  6. पुष्पेन्द्र फाल्गुन4 जून 2018, 12:11:00 pm

    मुझ जैसों के लिए तो आप बहुत ही बड़ी सौगात लेकर आए हैं... यह तय है कि न आपका ब्लॉग साधारण है और न ही आपका काम, यह कोई सर्टिफिकेट नहीं है, एक समर्पित व्यक्ति की दूसरे समर्पित व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है... सौमित्र मोहन जी को थोड़ा-बहुत पहले पढ़ना हुआ है और उन्हें इस तरह फिर से पढ़ना निश्चित तौर पर हम जैसे नौसिखियों के लिए एक पाठ है...

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  7. स्वदेश दीपक के प्रिय कवि!
    पढ़वाने के लिए आभार Arun Dev जी !

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  8. सौमित्र एक दौर में बहुत सारे लोगों के प्रिय ‌कवि रहे।

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  9. सौमित्र मोहन को प्रस्तुत करने के लिए मैं आपको कितने धन्यवाद दूं । वे दिल्ली के कुहासे में धूमिल हो गए थे ।। साहित्य के लिए दिल्ली एक कृतघ्न शहर है ।
    सम्भावना से उनका संग्रह लुकमान अली का प्रकाशन हुआ था । एप्रेल 18 में हापुड़ में इस संग्रह के प्रकाशधीन होने की जानकारी मिली । उनकी यहां प्रकाशित कविताओं के बारे में कहा जाय । अच्छी कविताएं खुद अपनी समीक्षा होती है । कुछ कहा जाना खलल डालने जैसा काम है ।
    पहला धन्यवाद सम्भावना के सूत्रधार मित्र अशोक अग्रवाल और उनके साहबजादे अभिषेक को , दूसरा आपके खाते में लिख रहा हूँ । आपने उनके महत्व को पहचाना ।
    सौमित्र जी को दिल से बधाई । कविताएं अपनी जगह खोज लेती हैं

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  10. पुष्पेन्द्र फाल्गुन4 जून 2018, 12:14:00 pm

    साक्ष्य और पश्चात् - संवेदन जैसी कविता लिखने वाले कवि तक प्रणाम पहुँचे... ''बच्चे के लिए बचने का उपाय वाही सुराख़ है जिसमें से वह इधर आया था... इस घटना का साक्ष्य केवल काल है...'' इन पंक्तियों में न जाने कितने संकेत और सन्देश, जो जैसा चाहे गहि ले... हिन्दी भाषा के कर्ता-धर्ता चाहें तो बचाव का यही एक उपाय है उनके पास...

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  11. Wah, अरुण जी, कहाँ कहाँ से ढूंढ के ला रहे है आप हीरे हमारे लिए

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  12. इंटेंस कवि होने के साथ साथ एक अच्छे बर्ड-वाचर, कुशल छायाचित्रकार और यारों के सहृदय यार भी हैं।

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  13. सौमित्र जी को चर्चा में लाना जरूरी है। धन्यवाद अरुण जी।

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  14. अहा.. आभार बहुत सौमित्र जी को पढवाने के लिये...
    लेकिन यह उम्मीद भी आपसे ही रखी जा सकती है...
    हिंदी साहित्य की विधार्थी रही हूं सो उन्हे भी पढा भी है और उनके बारे में भी पढा है...
    आज उनकी कविताओं से भी ज्यादा कहीं उनका विचार पढना अच्छा लगा.

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  15. तुम कहाँ लुक गए सौमित्र कवि....

    मैं अक्सर सोचती हूँ कि साहित्य में 'तंत्र,मंत्र और मठ सँस्कृति' कब और कैसे पसर गई कि उसके चलते कई उम्दा लेखक उपेक्षित होते रहे - इस हद तक कि वे गुमनामी में चले गए ।

    लेकिन, यदि तंत्र और गुटबन्दी से परे साहित्यकारों का एक समूह सौमित्र जी जैसे अनेक पठनीय कलमकारों को गुमनामी के अँधेरों से खींच कर, उजालों में लाएँ, तो सम्भव है कि भविष्य में कोई भी रचनाकार कमतरी के भाव का शिकार होकर, एकाएक ग़ायब न हो।

    इस दिशा में 'समालोचन' के माध्यम से अरुण जी का यह क़दम सराहनीय है ।

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  16. सौमित्र जी को पहली बार पढ़वाने के लिए धन्यवाद आपका. प्रस्तावना भी उतनी ही सार्थक है जितनी सौमित्र जी की कविताएँ. साक्ष्य, पश्चात संवेदन और बारहमासा विशेषकर याद रह जाने वाली कविताएँ हैं. सौमित्र जी का अभिनंदन.

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  17. रतलाम,मध्यप्रदेश से बंसीलाल गाँधी द्वारा प्रकाशित और मुझ विष्णु खरे द्वारा आज से 52 वर्ष पहले, यानी 1966 में, सम्पादित पत्रिका 'वयम्' में सौमित्र मोहन की लम्बी कविता 'लुकमान अली' का शायद कहीं भी पहला अंश छपा था जिसे मैं दिल्ली से स्वयं सौमित्र से बमुश्किल झटक कर लाया था.वह शुरू से ही अपने प्रकाशन को लेकर किसी मलंग या सूफ़ी की तरह निस्पृह और उदासीन रहा है और सिर्फ़ हँस देता है.जगदीश चतुर्वेदी की कदाचित् सबसे चर्चित कविता 'इतिहास-हन्ता'भी उसके साथ उसी अंक में प्रकाशित हुई थी.गंगाप्रसाद विमल और श्याम परमार जैसे (अ)कवि भी थे.
    फिर मैंने उसके कुछ अंग्रेज़ी अनुवाद किए जो रमेश बख्शी द्वारा सम्पादित 'आवेश' के अंग्रेज़ी विशेषांक के मेरे द्वारा सम्पादित कविता खंड में छपे.
    अशोक वाजपेयी ने अपनी 'पहचान' सीरीज़ में सौमित्र की विलक्षण पहली पुस्तिका 'चाकू से खेलते हुए' को भी प्रकाशित कर हिंदी कवि-आलोचक बिरादरी को चमत्कृत कर दिया.
    मैंने हिंदी कविता के अपने एक छोटे-से अंग्रेज़ी-अनुवाद संकलन 'The People and the Self' में 1983 में सौमित्र के दो काव्यांश लिए.
    ( अब दिवंगत ) डॉ लोठार लुत्से के साथ मैंने हिंदी कविता का एक संचयन 'Der Ochsenkarren' जर्मन अनुवाद में दक्षिण जर्मनी के फ्राइबुर्ग से अनूदित-सम्पादित किया था.
    सौमित्र मोहन की कविताओं को पढ़ना,बर्दाश्त करना,समझ पाना आदि आज 60 वर्षों बाद भी आसान नहीं है.कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों के अधिकांश स्त्री-पुरुष विद्यार्थी और मुदर्रिस तो उसकी केंद्रीय कविताओं को पढ़ने के बाद सेमी-कोमा में चले जाएँगे.वही हाल आज के ज़्यादातर कवियों-आलोचकों का होगा.लेकिन उसके यहाँ कुछ रचनाएँ बेहद प्रयोगधर्मा,मार्मिक और 'कॉमिक' भी हैं.'न्यू राइटिंग इन इंडिया' के मित्र संपादक आदिल जस्सावाला 1971 में उसे अंग्रेज़ी अनुवाद में पढ़कर देर तक हँसते रहे थे.वह ऐसा देसी कवि है जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है.

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  18. क्षमस्व,अंतिम पाँचवीं पंक्ति के पहले यह अंश छूट गया था : ''उसमें सौमित्र मोहन के हमारे दो अनुवाद मूल हिंदी से जर्मन में थे और बहुत पसंद किए गए''.

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  19. Tewari Shiv Kishore4 जून 2018, 5:16:00 pm

    'साक्ष्य' श्रेष्ठ कविता है। हम इसे एक्ज़िस्टेंशल मनोविज्ञान की कविता भी कह सकते हैं और विकल्पहीनता की भी।दीवार से घिरा हिस्सा मातृकुक्षि की सुरक्षा का रूपक और बाहर की दुनियाँ आत्मोपलब्धि के संघर्ष का रूपक। या पूरा परिदृश्य विकल्पों की व्यर्थता का रूपक। इसी तरह काल के एकमात्र साक्ष्य (साक्षी?) होने में भी ईश्वर को ख़ारिज करने से लेकर व्यक्ति के अकेलेपन तक अनेक अर्थछवियां हैं।

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  20. भोपाल में भी एक कवि हैं (थे) जिनको दुबारा सामने लाने की ज़रूरत है। वे हैं जितेंद्र कुमार। जिनका एक संग्रह है "ऐसे भी तो संभव है मृत्यु". और भी संग्रह हैं उनके।

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  21. जितेन्द्र कुमार का एक समूचा संग्रह ''आईने में चेहरा'' अशोक वाजपेयी के 'कविता की थोक ख़रीद अभियान' के दौरान जितेन्द्र की अनुमति से पूरा-का-पूरा मैंने दिल्ली के तब एक छोटे,नए प्रकाशक सुरेश अग्रवाल के लिए सम्पादित,डिज़ाइन और प्रोड्यूस किया था.जितेन्द्र ने कहा तो था कि वह उसे बहुत पसंद आया है लेकिन वह सौमित्र जैसा होने के साथ-साथ temperamental भी बहुत था.

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  22. हेमंत शेष5 जून 2018, 7:52:00 am

    वरिष्ठ कवि सौमित्र मोहन ( ज. १९३८, लाहौर ) की नई किताब, जो उनकी चुनी हुई १४९ छोटी-बड़ी कविताओं का ‘संभावना प्रकाशन’, हापुड़ से छपा नवीनतम संचयन है- “आधा दिखता वह आदमी” डाक में कल ही मिला है और इस बीच उसे लगभग पूरा उलट-पुलट भी गया हूँ – इसलिए कि सिर्फ इस किताब की रस्मी-पहुँच ही कवि को और प्रकाशक को न दूँ , सरसरे ढंग से पहली दफा में मन में जो कुछ बना- उस आधे-अधूरेपन में भी आप को शामिल करूं ये फिर से ज़ाहिर करते हुए कि मैं समीक्षक नहीं हूँ – महज़ एक पाठक ही हूँ, और यह टिप्पणी किसी भी कोण से एक मुकम्मल ‘समालोचन’ तो खैर है ही नहीं !

    प्रसिद्ध चित्रकार जय झरोटिया के सार्थक आवरण-पृष्ठ और भीतर दो एक सर्जनात्मक रेखांकनों से सज्जित इस संचयन से गुज़रते हुए एक पाठक के बतौर मुझे ये सारी रचनाएं ‘प्रचलित’ से अलग पगडंडी और दिशा की तरफ जाती ‘प्रयोगप्रिय’ कवितायेँ लगीं; और मुझे यह भी ज़रा जल्दी से कह देना चाहिए-यह अलग जाना बेशक सौमित्र मोहन के कलाप्रेमी-कवि का का कथ्य और निर्वहन, दोनों निगाहों से, भरा-पूरा मौलिक प्रस्थान है |

    सौमित्र मोहन को भले ही ‘अकविता’ के एक ‘कोष्टबद्ध कवि’ की शक्ल में हिंदी-कविता के एक दौर-विशेष में जहाँ अपने साथ के कुछेक कवियों – राजकमल चौधरी, मलयराज चौधुरी, जगदीश चतुर्वेदी, शलभ श्रीराम सिंह, मोना गुलाटी, गंगाप्रसाद विमल आदि २ के साथ जल्दी से पहचान लिया गया हो- भले ही इन सब की कीर्ति और कमोबेश उनकी कविता की ‘प्रासंगिकता’ या मूल्यवत्ता बस एक धूमकेतु की तरह ध्यानाकर्षक, पर क्षणिक रही हो- सहानुभूत आलोचना की गैर-मौजूदगी का खामियाजा सौमित्र मोहन को भी ज़रूर उठाना पड़ा होगा क्यों कि एक काव्यान्दोलन के रूप में ‘अकविता’ का प्रभा-मंडल निष्प्राण और निस्तेज होते ही, उनकी बकाया गैर-आन्दोलनवादी कविता भी समय द्वारा (या कुछ हद तक आलोचना द्वारा ) हाशिये पर धकेल दी गयी |

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  23. हेमंत शेष5 जून 2018, 7:53:00 am

    'कविता के नए प्रतिमान’ में तो नामवर जी ने शायद ‘अकविता’ पर तो एक वाक्य भी नहीं लिखा, ‘फ़िलहाल’ में वाचाल-आलोचक अशोक वाजपेयी ने ज़रूर सौमित्र मोहन की कविताओं पर कुछेक पैरे लिखते इस आन्दोलन के दौरान ही उपजी उनकी ‘लुकमान अली’ कविता की मलामत इन शब्दों में की थी- ........ “ पूरी कविता चित्रों, बिम्बों, नामों, चुस्त फिकरेबाजी, सामान्यीकरण का एक बेढब सा गोदाम बन कर रह गयी है | लुकमान अली जैसे सार्वजनिक- चरित्र काव्य-नायक के होते हुए भी कविता में कोई गहरी नाटकीयता नहीं आ पाती और कविता भाषा और बुनियादी तौर पर ‘लिरिकल’ कल्पनाशीलता की, अगर कमलेश के एक शब्द का प्रयोग करें , ‘फिजूलखर्ची’ बन कर रह जाती है |...”

    नतीजन सौमित्र जी को खुद इस संकलन “आधा दिखता वह आदमी” के अपने वक्तव्य “आरंभिक” में कहना पड़ा है - ..... “1960 के दशक में हुए लेखन को ज़ोरदार आलोचक नहीं मिले, अन्यथा इस पीढ़ी को ‘अराजक’ कहे जाने की शर्म नहीं उठानी पड़ती ....”

    हालाँकि ( आलोचक नहीं ) कवि, केदारनाथ अग्रवाल की टिप्पणी को वह ‘अकुंठ, खरी और ‘पौज़िटिव’ प्रतिक्रिया’ के रूप में कृतज्ञता से याद करते हुए स्वीकारते हैं- ‘उस लेख ने इन्हें लिखने का हौसला दिया |’

    यहाँ मैं नयी एक सांस्कृतिक बहस के बीज छिपे देखता हूँ – रचना और आलोचना के अंतर संबंधों पर दुबारा बहस की संभावना|

    बहरहाल अभी तो सौमित्र जी पर ही टिकें|

    अगर इस किताब के बारे में अपने मन में उपजी पहली और टटकी राय देनी पड़े तो मैं कहूँगा- कविता की एकतानता एकरसता और रूढ़ बद्धता को तोड़ने की मुहिम के अंतर्गत लिखी यह किताब उस पहल की तरफ भी इशारा करती है जहाँ एक साहसी कवि अपनी भाषा और कविता-संरचना में बहुत कुछ मौलिक होने की कोशिश कर रहा है- अलोकप्रिय होने, कहीं-कहीं या अक्सर भाषाई स्फीती, और काव्यात्मक-अर्थहीनता के खतरे उठा कर भी कुछ ‘हिम्मतवर’ कुछ मौलिक, कुछ मूर्तिभंजक कविता रचने की बड़ी ‘लाउड’ सी पहल ......

    और मुझे यहाँ यह भी लिख देना चाहिए कि उनकी इस किताब में चुनी गयी किसी भी रचना में ‘अश्लील’ होने का आक्षेप निराधार है, मुझे उनकी कविता कई जगह भले ‘अर्थ्च्युत’, व्याकरण-असम्मत और ‘सायास’ या 'प्रयत्नसाध्य' कविता लगी हो – उन पर लगाये गए अश्लीलता के आरोप में दम नहीं है !
    (‘पुनरावलोकन” नहीं, जैसा सौमित्र जी की एक कविता का शीर्षक है- व्याकरण के लिहाज़ से सही शब्द ‘पुनरवलोकन’ या ‘पुनर्विलोकन’ ही बनता है!)

    कवि के एक और स्थाई अफ़सोस का बयान किया जाय !

    सौमित्र जी लिखते हैं- ......... “ मुझे अक्सर ‘अकविता’ के खांचे में रख दिया जाता है लेकिन मेरी गति और नियति वही नहीं है | मैंने कविता को अपने ढंग से बरता है – इस में अति यथार्थवादी बिम्बों, फेंटेसी और एरोटिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग हुआ है | अपनी दुनिया को समझने का यह मेरा तरीका है | जो बाहर है वही भीतर है | मेरे लिए यथार्थ के दो अलग स्तर नहीं हैं |....”

    बात में दम है | यहाँ फिर प्रश्न आलोचना की वैधता का खड़ा होता है | क्या एक कवि को आजीवन एक ही कटघरे में कैद खड़ा रखा जा सकता है ? मैंने सौमित्र मोहन की किताब बिना उनकी संक्षिप्त भूमिका पढ़नी शुरू की थी और कवितायेँ पढ़ जाने के बाद, सब से अंत में ‘भूमिका’ पर आया, किन्तु अगर वह अपनी व्यथा न लिखते तब भी मेरा जैसा अनपढ़ पाठक भी यह तो जान ही लेता कि उन्होंने कविता लिखने के एकाधिक रूप अपनाए हैं : ‘अकविता’ वाला जाना-पहचाना ढंग भी उनसे छूटा है और बीच-बीच में विषय और कहन के अनुरूप कविता के फॉर्म की ओर भी उन्होंने अपनी दिलचस्पियों को मंद पड़ने नहीं दिया है |

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  24. हेमंत शेष5 जून 2018, 7:54:00 am

    सौमित्र मोहन की कविता के सम्बन्ध में सब से महत्वपूर्ण तथ्य, जिसका उल्लेख शायद इन पंक्तियों के अलावा और किसी ने आज तक शायद ही किया हो ( ज्योतिष जोशी जैसे हमारे कॉमन-मित्र ने भी नहीं – जिन्होंने पुस्तक का ब्लर्ब लिखा है) कि सौमित्र ऐसे कवि हैं जिनकी रचना पर अगर सब से स्पष्ट और गहरा असर है तो वह अपनी या पश्चिमी साहित्य परम्परा का उतना नहीं, जितना आधुनिक-कला का है !

    एक साहित्येतर विधा – चित्रकला के प्रभाव से उन्होंने अगर अपने लिए अपनी कविता के लिए काव्य-विचार और उसकी भाषिक-सरणी का चुनाव किया है तो वह हिंदी के उन अपवाद कवियों में से हैं ( जिन में मैं खुद अपने आप को शामिल करता हूँ ) जो Abstract Expressionism, Neo-Expressionism, Graffiti-Art, Modern Sculpture, Advertizing, आदि से कई चीज़ें अनजाने में अपने अध्ययन या दिलचस्पी की वजह से अचेतन प्रभाव के रूप में सहज ही लेते हैं....साहित्य में आधुनिक-कला से इस तरह लेना- कोई पोर्ट्रेट बनाना नहीं, एक एब्सट्रेक्ट मल्टी-मीडिया कोलाज की रचना करने जैसा है! इस तरह सौ. मो. की कविता में परम्परा से भिन्न होने का संकल्प ही वह ध्वज-दंड है जिसे थाम कर वह हिचकोले देती ऊबड़ खाबड़ सड़क पर कविता का रास्ता तय करते हैं- कभी दौड़ते, कभी हाँफते, कभी ठिठकते हुए !

    मुझे अब यह भी शायद लिख देना चाहिए कि भले कविता की प्रकृति का क्षण-केन्द्रित होने के नाते अधिकांशतः फौरी महत्व रहा हो- उनकी पूरी रचनाधर्मिता को एक वृहत्तर आशय में देखा जाना ज़रूरी है और वह यह कि दार्शनिक गहराई, काव्यात्मक-निस्संगता, और तटस्थ-भाव की अनुपस्थिति की अपनी सीमाओं के बाजूद अपने तत्क्षण और तत्काल में ये रचनाएं भाषा-कौतुक, दुस्साहसी खिलंदड़ेपन, विपर्यस्त-मुहावरे और भिन्न करने कहने के उपक्रम में हिंदी की कविता में कुछ बेढब/ अटपटा/ रोचक/ और मौलिक भी जोडती हैं और यही प्रकारांतर से कवि-कर्म की उनकी सार्थकता भी है |

    यहाँ एक और बात पर गौर किया जाना ज़रूरी है – और वह है- कविता के कथ्य से उसके शीर्षक का अ-साम्य ! जगह की कमी से ज्यादा उदाहरण दिए जाने संभव नहीं है, पर पृष्ठ १०१ पर एक कविता है- ‘राष्ट्रीयकरण’ जो कवि के मित्र जगदीश चतुर्वेदी को समर्पित या उन्हें संबोधित है...इसकी अंतिम पंक्तियाँ :

    एक मेज़ में सुराख़ कर के वह नीचे समुद्र खोज रहा है
    उसने अपनी जुराबें हाथ में पहन ली हैं
    कल वह अपने पछतावे दूसरों की जेबों में रखता रहा था
    उसने देखा था कि घुटनों में मुखौटे बाँधने से लोग डरते नहीं
    वह इन सारी स्थितियों का ज़िम्मेदार खुद था
    “माफ़ कीजिये ! देखिये आप अज्ञेय पढ़ें या शमशेर,
    आप अंडर वियर ज़रूर साफ़ और धुला हुआ पहनें ! खुदा हाफ़िज़!”
    ***

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  25. हेमंत शेष5 जून 2018, 7:55:00 am

    ज़ाहिर है अपनी कविता-भाषा में सौमित्र मोहन आधुनिक चित्रकला के रास्ते से आने वाले अतियथार्थवादी बिम्बों के सहारे अनुभव को सान्द्र और कुछ हद तक दुर्बोध/ जटिल बनाने के पक्षधर तो निस्संदेह हैं , पर मेरे जैसे साधारण पाठक के निकट ऐसी सनसनीखेज़ पंक्तियों का विसर्जन भी एक खास तरह के निरर्थकता-बोध में ही होता है |

    किन्तु यहाँ मुझे बरबस कृष्ण बलदेव वैद साहब जैसे असाधारण रूप से अच्छे कथा लेखक की स्मृति में लौटना ज़रूरी लगता है जिनके सारे गद्य-सफ़र में भाषा का ऐसा अटपटा/चटपटा बर्ताव बेहद ज़िम्मेदार तरीकों से आया है और बार बार आया है |

    भाषा को तोडना मरोड़ना भी एक मान्य और स्वीकृत रचना-प्रविधि है- अपने भीतर की उथल पुथल, व्यग्रता, असंतोष , ऊहापोह और बेचैनी के रूपायन की कोशिश, किन्तु भाषिक संरचना में अराजक विपर्यस्तता और अनुत्तरदायी प्रयोगशीलता प्रारंभिक रूप से आप को एक पल के लिए चमत्कृत ज़रूर करती है- सघन काव्यानुभव में बदलने से पहले ही यह फिकरेबाजी एक जल्दी से बुझ गयी फुलझड़ी का असर देती जल्दी ही धुंआ देने लग जाती है| शायद अकविता के साथ ये समस्या कुछ ज्यादा ही रही थी !

    प्रसंगवश मैं यहाँ अपनी लिखी उस अत्यंत कड़ी समीक्षा की याद ज़रूर करूंगा जो मैंने अशोक जी की पत्रिका ‘बहुवचन’ में कवयित्री तेजी ग्रोवर की एक किताब के प्रसंग में लिखी थी | या तो गोविन्द द्विवेदी जी ने ‘पूर्वग्रह’ में मेरी लम्बी कविता ‘जारी इतिहास के विरुद्ध’ (१९७३) की ऐसी कड़ी समीक्षा लिखी होगी या मैंने तेजी ग्रोवर की किताब की !

    पर हाँ, अगर सौमित्र मोहन की इन कविताओं को सन साठ और तत्काल बाद के मोहभंग-काल के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यह कहा जा सकता है- वह अपनी नकारात्मक शैली में भी, मानवीय-संबंधों और बदलते समय-समाज के अनेक विद्रूप एक ऐसे मल्टीमीडिया कोलाज की सूरत में उपस्थित करना चाहते हैं जिस के चित्रकार के लिए पहली प्राथमिकता है अभिव्यक्ति, संप्रेषण शायद उतनी नहीं....इसलिए यह आकस्मिक नहीं कि यहाँ बहुत सारा ऐसा हिस्सा है जो लगभग अमूर्त क्षेपक है, जैसे अनुपयोगी खरपतवार !

    आधुनिक शहरी मनुष्य के केन्द्रविहीन होने के त्रास की ये रचनाएं एक विसंगत, निरर्थक और टूटे बिखरे जीवन पर कविता के उस आर्तनाद जैसी भी हैं जो लिखे जाने के इतने बरसों बाद करुण आर्तनाद की बजाय अब एक अरण्य-रोदन सा लगता हो- किन्तु अपने समय के व्यर्थता-बोध विसंगति और पाखण्ड को बहुत कुछ गद्यात्मक ढंग से पहचानने और उसके दंश-विष से अपनी भाषा को साहसिक बनाते हुए एक प्रतिकार में तब्दील करने का प्रयोजन भी इस आर्तनाद या अरण्य रोदन का है !

    सौमित्र मोहन को सिर्फ इसलिए नहीं पढ़ा जाना चाहिए कि हमें हिंदी कविता के बदलते हुए मिजाज़ के चित्र मिल सकें और सिर्फ इसलिए भी नहीं कि हापुड़ के संभावना प्रकाशन ने बहुत सुरुचिपूर्वक ये किताब छापी बल्कि इसलिए कि यह एक समय के चर्चित रचनाकार की पहलों और प्राथमिकताओं का ब्यौरा देती किताब भी है – अपने समय से उसकी असहमतियों का 'घोषणा-पत्र' तो यह कमोबेश है ही

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  26. आप ने समय की मार झेल रहे कवि को सामने लाकर ईमानदार संपादक का दायितव निभाया .ऐसे बेईमान समय में जब लोग अपना नफा नुकसान देखकर लोगों को पहचाने हैं आप की जितनी भी तारीफ की जाय कम है .

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  27. आज सुबह ही वरिष्ठ कवि मित्र सौमित्र मोहन का फोनियाना इसलिए अच्छा लगा क्योंकि उन्होंने "आधा दिखता वह आदमी" के अपने भीतर से बाहर आने की खुफिया सूचना //देरी से सही //मुझे भी दी। उसकी बाबत पिछले साल से- मिलने पर चर्चा शुरु होती रही और फिर वह दूसरी तरफ़
    मुड़ जाते। फिर चर्चा होने पर डिटेल्स सामने आई। आज उन्होंने यह खबर देकर जैसे चमत्कृत कर दिया। समालोचन भी देख लेने को कहा । उन्हें पहचान सीरीज के दिनों से
    थोड़ा-थोड़ा प चानता आ रहा हूं। दोस्ती गाढ़ी है पर कभी-कभार मिलते रहने तक सीमित। समालोचन में इस संग्रह का जगत--पाठ रू-ब-रू है और संग्रह अभी बांचा नहीं है।

    मेरे दो प्रिय फौलादी कवि हेमन्त शेष और विष्णु खरे ने शायद खरा-खरा सब कह दिया है। मेरे लिए फिर भी एक और दृश्य बिम्ब माध्यम से इन कविताओं के कलेजे तक पहुंचना बाकी रहेगा। यह माध्यम सिनेमा के मेटाफर को भी इस्तेमाल करती कविताओं के लिए सटीक रहेगा ।।संग्रह का उसी तरह इंतजार रहा है जैसे कभी पोलांस्की की फिल्म A Knief In The Water का किया था । उसे मैक्समूलर भवन में देखा था, तो चकित था । अब फिर चकित होने का क्षण उपस्थित होगा। एक काव्य -पाठ में
    सौमित्र के इस नये लहजे और आक्रामक सौन्दर्य-बोध की महक मिल चुकी है । यकूम बात अभी इतनी ही कह पा रहा हूं। शायद लुकमान अली दरकती दुनिया के बारे में कुछ अलग सबके कान में कह गया हो जो लोकतान्त्रिक किताबी दुनिया की सहमति/असहमति और बकबास से बेहतर कलाओं का हिस्सा हो ।।आमीन ।।
    प्रताप सिंह //

    यम

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  28. हेमन्त जी ने कलाओं से अचेतन प्रभाव पाने और उसके भाषिक सरणी के सांकेतिक जिक्र से ज्यादा कुछ कह दिया है। सौमित्र की छायाकारी की अप्रतिम कला के उनके काव्य शरीर में प्रवेश कर जाने की ओर अभी ध्यान नहीं गया है।आज भी - मैंने मांडू नहीं देखा "का सौमित्र का रचा
    स्वदेश दीपक का छायाचित्र देखता हूं तो कंपकपी चढ़ती. है। इस छायाचित्र के केंद्र में रहस्यमय दीपक जी के खंडित जीवन का बायोपिक वेदना की एक घड़ी के कोलाज को भी दहका रहा है। भुवनेश्वर की तरह ही। सदी का,अधपकी उम्र का बौद्धिक नाराज चेहरा, जलने से पहले ही सिगरेट की तरह सुलगने को तत्पर और इंस्पेक्टर ग्लाड के जैसे ओवरकोट को बेहतरीन लबादे सा पहने सबसे उदास कविता नाटक तथा मायापोत उपन्यास के विभाजित स्ववदेश दीपक को मैं यहां सौमित्र के छायाचित्र में सम्पूर्ण दर्ज और जज़्ब होते देख रहा हूं। क्या उसकी आधी छायाएं भी इस संग्रह में कहीं तो स्पेस खोज रही होंगी। सौमित्र ने इस मायावी माध्यम को तरजीह दी है या नहीं। ? यह भी कहना नयी उम्मीदों के जल्दबाजी में पठार चढ़ना होगा। इस तरफ़ भी दरवाजा तो खुलता तो लगता है। खैर इस पर फिर कभी।
    विष्णु जी ने वयम् में इन्हें दर्ज किया। अन्य मुहानो से झांक रही लहर, आवेश , आमुख का समय भी याद आ रहा है। सौमित्र के लहर और आवेश के तेश भरे दिन भी जरूर
    कहीं तप रहे होंगे।।
    सौमित्र के बहाने जीवन्त टेम्परामेंटल जितेद्र कुमार को भी विस्मृत सितारे की तरह अरसे बाद हथेली पर रख दिया गया है उनकी चमक का अहसास कराते हुए। नाम तो और भी हैं जो अपने एकाध संकलन से ही अलग से शिल्प से आलोकित हुए और भूला दिए गए । उनमें
    त्रिभुवन का संग्रह कुछ इस तरह आना,स्व. संजीव मिश्र का कुछ शब्द जैसे मेज, प्रतापराव कदम का कपड़ों में कबूतर , वेदप्रकाश वाजपेयी का दीर्घतमा, अमित कल्ला का होने न होने से परे और कुन्तल कुमार जैन का जहाँ मुनाफा सबकुछ हुजुर" भी लगभग भूला दिए गए हैं। कुंतल के नाम पर किसी को आपत्ति हो तो हो।उसका अपना मुहावरा तो था ।
    बाकी की धार से भी गहरे तदात्म होने अथवा नक्कादों की नक्काशी को कोसने का यह समय नहीं है। याद तो श्रीकान्त कान्त वर्मा भी आते हैं। जिन्होंने 1980--82 के दौर में कहा था ..."मेरा पूरा मूल्याकंन नहीं हुआ।"सांध्य समाचार"को दिए इटरव्यू में।। उन्होंने मगध में एक सूत्र वाक्य में यह सच भी कहा था...
    " केवल शब्द ने शस्त्र रख दिए हैं
    केवल शब्द लड़ रहा था ।।"
    अपने समय की एक लड़ाई चुपचाप भी बड़ा कवि लड़ता है। सौमित्र ने अपने औजार {काव्य-रूपक} नये अर्थों की जमीन पर धैर्य के साथ बरते हैं। उनका एक वैचारिक पक्ष
    अथवा पत्रिका में भी सामने आया था।
    आधा दिखता वह आदमी फिर हमारे सामने है बिना किसी जिरह की बख़्तर पहने !!!
    प्रताप सिंह //

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  29. बहुत नए लोगों के लिए भी सौमित्र मोहन तक पहुंच अब आसान बनेगी। इस संग्रह के लिए प्रकाशक को धन्यवाद।

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  30. सौमित्र मोहन को समालोचन पर देखना बहुत सुखद है. मुझे उन दिनों की याद हो आयी जब उनसे मिलना इतना कठिन न था. उनकी कविताएँ हमारे लिए बेश्कीमिती हैं, वे गुरु कविताएँ हैं, कवियों को बहुत कुछ चुपके से सिखा जाती हुई. कोई कवि कैसे लिख पता है अंततः यह तो उसके बस में नहीं है, लेकिन वह किन पाठों में स्वयं का पाठ और पथ खोजता है, यह बात महत्वपूर्ण है. सौमित्र मोहन जी को प्यार भरी याद भेजती हूँ...और उनकी कविता से अपने रिश्ते को बनाये रखने की कोशिश हमेशा करती रहूंगी.

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  31. अच्छा किया कविताओं को नष्ट कर दिया आपने... और कोई संताप भी नहीं. यह काम कवि खुद कर सके इससे बेहतर कुछ भी नहीं. यही मैं भी करना चाह रही हूँ, कर भी रही हूँ. और केवल कविताओं के साथ नहीं...और बहुत कुछ ऐसा है जिसे नष्ट किया जाना चाहिए...बहुत ममता से, उनकी खातिर जिन्हें हमारे कागज़ों-पत्तरों से अंततः वास्ता रखना पड़ता है.

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  32. सौमित्र मोहन, और उन जैसे कुछ और कवि भी, क्यों दब गये थे, ओझल हो गये थे (कुछ अभी भी दबे हुए हैं), यह भी एक प्रश्न है जिसे किसी को, विशेषकर किसी आलोचक को, उठाना चाहिए। मेरी समझ में एक कारण नामवर सिंह जैसे आलोचकों का पिछले 40 वर्षों के दौरान अतिशय प्रभाव था जिन्होंने एक खास तरह की कविता को पाला-पोसा, प्रोत्साहित किया और दूसरों को दबने दिया। यह वही धारा थी जिसे जनवादी-प्रगतिशील कहा गया। इसे काफी aggressively promote किया गया, दूसरे दबते गए।

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  33. जब मैं साहित्य अकादेमी में था तब सौमित्र ने 'भारतीय साहित्य के निर्माता' श्रृंखला में अंग्रेज़ी से ''बाणभट्ट'' और महान ओड़िया उपन्यासकार ''फकीरमोहन सेनापति'' मोनोग्राफों का हिंदी अनुवाद किया था.यह दोनों पुस्तिकाएँ आज भी उपलब्ध हैं और ख़ूब पढ़ी जाती हैं.
    सौमित्र ने अपने संघर्ष के दिनों में,और उनके बाद भी,बहुत अच्छे और महत्वपूर्ण अनुवाद किए हैं,मसलन प्रिंसिपल मागो की कला पुस्तक का.उसका यदि पूरा बायो-डेटा कभी छपे तो उसका समूचा योगदान सामने आएगा.डिजिटल फ़ोटोग्राफ़ी आने से पहले कई बार उससे टेली-लेन्सों पर ईर्ष्यालु चर्चा हुई है.

    सवाल यह भी है कि ''सामना बरक्स'' और ''सारांश व्यथा'' जैसी उसकी कविताएँ नामवर सिंह सरीखे दर्जनों ''आलोचक'' क्या कभी देख-समझ पाए ? और धूर्त,दुमुंहा जनवाद-प्रगतिवाद विरोधी गिरोह,जो अब टसुए बहा रहा है ? जबकि जो सौमित्र की क़द्र करते आए हैं उनके लिए वह हमेशा रहा है और रहेगा.वह कभी कहीं नहीं गया था,यहीं हमारे बीच और साथ था.

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  34. हमेशा सजग रहकर किए गए तत्पर अनुवाद की गलियों से गुजरने का अवसर अखबार में रहते हुए रोज ही मिलता था। साहित्य में वह तत्परता नहीं भोगनी पड़ती। वहां थोड़ी तसल्ली रहती है। सौमित्र जी ने इस काम को कितने दूर तक किया ,यह तो विष्णु जी ने अपने अनुभवों से यहां दर्ज किया ही है। आचार्य मागो की अंग्रेजी में छपी किताब के हिन्दी अनुवाद को श्री राम सेन्टर में एक शाम सरसरी तौर पर देखने का मौका मिला था। रायल एक्टिवो साइज में छपी उस पुस्तक को सौमित्र पूरी शालिनता और संकोच से
    साथियों के दर्शनार्थ प्रस्तुत कर रहे थे। कलावंत पता नहीं कितना झांक पाए, किंचित अपनी तुरन्ता- राय सूरज घई जैसे मर्मज्ञ ही दे सकते थे। वही हुआ । बाद के दिनों में
    N.B.T.के लिए सौमित्र ने टैगोर की किताब का अनुवाद पूरा कर लिया तो बताया ।फिर एक शाम मंडी हाउस मिलना हुआ। कहा तुम्हारे वास्ते यह है -पढ़ना ।और फिर मेरे हाथों में "राष्ट्रवाद" की वह अनुपम कुंजी थमा दी ,जो
    रवीन्द्र-चिन्तन का सार-रूप है। बाकी समकालीन कला के, उनके संभाल और सम्पादन में निकले कुछ अंकों की पूंजी भी फुरसत में देखता-पढ़ता हूं तो कुछ समय के लिए उनका कवि और छायाकार ओट में खड़े मिलते हैं और एक मंजे हुए कुशल कारीगर की छाप समकालीन कला के वरकों पर उभरने लगती है। सिरेमिक के काम को पूरा अंक देकर शायद उन्होंने इस पत्रिका को उन दिनों एक नया आयाम दिया। बहुत ही अलग और पायेदार काम था यह ।। "कला-दीर्घा " जैसी सम्पन्न और प्रयोगशील पत्रिकाओं से कहीं बेहतर ।

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  35. Unknown शीर्षक से टिप्पणी स्वर्गीय विष्णु खरे की है.

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