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आलोचक
विचारक पुरुषोतम अग्रवाल ने कथा साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज़ की है. उनकी कुछ
कहानियों प्रकाशित हुई हैं और एक उपन्यास प्रकाशित होने वाला है. इन प्रकाशित
कहानियों में प्रो. अग्रवाल की सृजनात्मकता का एक अलग आयाम उद्घाटित हुआ है.
भारतीय समाज के समकाल की अनेक विडम्बनाओ में से एक है बाज़ार की अपसंस्कृति जिससे
उनकी कहानी ‘चेंग-चुई’ जूझती
है और अपनी गजब की पठनीयता का परिचय देती है. दूसरी विडम्बना है
बौद्धिक वर्ग का अवसरवादी पतन. ‘चैराहे
पर खड़ा पुतला’ जैसे चौराहे पर खड़ा आज का बुद्धिजीवी है. यह
कहानी मेट्रो-इंटेलेक्चुअल के खोखल को बड़ी
संजीदगी से अपना आधार बनाती है और अन्त तक बांधे रखती है. शोध छात्र बिपिन तिवारी ने इन दोनों कहानिओं पर
लगाव से लिखा है.
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‘चेंग-चुई’ और ‘चैराहे
पर पुतला’ कहानी के संदर्भ में कुछ बातें
बिपिन तिवारी
पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इधर दो कहानियां लिखी हैं. पहली कहानी ‘चेंग-चुई’ वसुधा और
दूसरी कहानी ‘चैराहे पर खड़ा पुतला’ नया ज्ञानोदय के फरवरी अंक में छपी है. दोनों कहानियों को पढ़ने के बाद यह कहीं से
भी नहीं लगता कि यह एक आलोचक द्वारा लिखी गई हैं. यह बात कहने का एक खास संदर्भ है.
दरअसल हिन्दी में आलोचक को इस तरह से देखा जाता है कि जैसे वह रचना कर ही नहीं
सकता है, इसलिए
आलोचना लिखकर अपना बायोडाटा बढ़ा रहा है. लेकिन पुरुषोत्तम अग्रवाल की दोनों
कहानियां पढ़ने के बाद यह बात सिरे से खारिज हो जाती है. वैसे यह कोई नई बात नहीं
है. इसके पहले भी आलोचना से रचना और रचना से आलोचना में आवा-जाही होती रही है. अब
बात इन दोनों कहानियों पर. सबसे पहले ‘चेंग-चुई’ कहानी की बात.
चेंग-चुई एक नई ईजाद की हुई पद्धति है. सागरकन्या कहती है-...क्लासिकल
ट्रैडीशंस के साथ लोकल नालेज का हाइब्रिड करके जो रूप रीकंस्ट्रक्ट किया, उसे चेंग-चुई कहते हैं. चेंग-चुई का प्रिंसिपल है कि
ऐसा डोम बनाने से पाजिटिव एनर्जी सारे घर में सर्कुलेट करती है, यहां जो वैक्यूम बनता है, वह सारी निगेटिव एनर्जी को एब्जार्ब
करके, प्यूरीफाई करके उसे पाजिटिव एनर्जी में
बदल कर सारे स्ट्रक्चर में सर्कुलेट कर देता है, स्प्रिुचअल एनर्जी का रिसायकलिंग सिस्टम बन जाता है चेंग-चुई के
हिसाब से डोम बनाने से...अब इन दि एंटायर साउथ एशिया, बस हमारी ही फर्म चेंग-चुई प्रिंसिपल्स
के इन इकार्डेंस मकान बनाती है,...’ इसीलिए
आप जैसे टाप आफिशियल्स की कालोनी का कांट्रैक्ट हमें दिया है. यह कंपनी घरों को
डिजाइन इस तरह से करती है कि घर मकबरे की तरह नजर आते हैं. बस उसमें आप चांदनी रात
में सफेद झक कुर्ता-पाजामा पहन लें तो आप अपने ही भूत से रूबरू हो सकते हैं.
प्रवीण चूंकि हाईक्लास आफीसर है. इसीलिए उसको हाईक्लास कंपनी द्वारा बनाया गया मकबरा
आई मीन मकान दिया जा रहा है. जिसमें तीन कमरे नीचे हैं और दो कमरे ऊपर. इस मकान की
सारी विद्रूपता चेंग-चुई में जाकर रिड्यूस हो जाती है. चेंग-चुई के कारण ही घर में
पाजिटिव एनर्जी सर्कुलेट होती है और सीलन से घर में सम्बन्धों में नमी बनी रहती है.
यानी सब कुछ चेंग-चुई का कमाल है. सागरकन्या प्रवीण की सीलन वाली बात पर कहती है-‘ओ, नो, सर, दिस
इज आलसो चेंग-चुई, ताकि आप कभी भी अपरूटेड महसूस न करें, आपकी जड़ें ही नहीं आपका लेफ्ट-राइट भी
बैक टू फ्रंट, सदा भीतर से नम बना रहे, आपकी पर्सनैलिटी और रिलेशनशिप्स में
कभी रूखापन न आए...’
चेंग-चुई कहानी का पाठ इतना सरल नहीं हैं. यह कहानी अपने में कई पाठ
समाहित किए हुए है. इस कहानी के मार्फत हम आज की पूरी भूमंडलीकरण संस्कृति को समझ
सकते हैं. यानी किस तरह से आज मल्टीनेशनल कंपनियां अपने उत्पादों को बेंच रही हैं
और उसके हिसाब से किस तरह की और कैसी संस्कृति फैला रही हैं इसकी एक झलक कहानी के
माध्यम से देखी जा सकती है. सागरकन्या इस मकान के बारे में जो तर्क देती है वह आज
की पूरी मार्केट संस्कृति का नायाब उदाहरण है. जहां पर सारा ध्यान अपने प्रोडक्ट
को बेचने पर केन्द्रित किया जाता है. प्रोडक्ट कैसा है इसके बजाय उसके विज्ञापन पर
ध्यान केन्द्रित किया जाता है. इसीलिए प्रोडक्ट को किसी मैथालोजी या किसी मिथक से
जोड़ दिया जाता है. चेंग-चुई एक ऐसा ही मिथक है. सागरकन्या इस मकान की खूबियों का
ऐसे बखान करती है कि प्रवीण के पास इसका कोई विकल्प ही नजर नहीं आता है. यानी मन
के सारे संदेह भी इसी मिथक में जाकर रिड्यूस हो जाते हैं. प्रवीण के मन में घर के
आर्कीटेक्चर से लेकर सीलन और भी बहुत सारी चीजों को लेकर सवाल हैं. लेकिन
सागरकन्या इन सारे सवालों का समाधान चेंग-चुई मिथक में रिड्यूस कर देती है. यानी
यह ऐसी संस्कृति है जिसमें आप चुनने के लिए बाध्य हैं. लेकिन आप क्या चुनेंगे, इसके लिए भी आप स्वतंत्र नहीं हैं. यह
नई संस्कृति ही आपको बतायेगी कि क्या चुनना आपके लिए ठीक रहेगा. सम्बन्धों को कैसे
रूखेपन से दूर रखा जा सके इसका भी इलाज चेंग-चुई है और घर में पाजिटिव एनर्जी कैसे
आयेगी इसका भी इलाज चेंग-चुई है.
कहानी एक तरह से इस पूरी भूमंडलीय संस्कृति का एक क्रिटीक भी है.
प्रवीण आज का वह नव मध्य वर्ग है जो इस भूमंडलीय संस्कृति का शिकार है. वह बहुत
कुछ इसी संस्कृति के हिसाब से जीने को विवश है. यह पूरा का पूरा वर्ग विवश इसलिए
है क्योंकि इसका अपना कोई चुनाव नहीं है. वह यह मानकर चलता है कि इस संस्कृति का
हिस्सा बनकर वह ग्लोबल हो जायेगा. जो ज्यादा प्रगतिशील है, ज्यादा आधुनिक है. यानी यह ऐसी
संस्कृति है जिसका हिस्सा होना गौरव की बात है. आज की तारीख में जब दुनिया की आधी
से ज्यादा आबादी इसी वर्ग में तब्दील हो रही है तो वह अपने को पीछे कैसे रख सकता
है. यह नये बनते नव मध्य वर्ग की विडंबना है. जिसके पास मात्र अनंत इच्छाएं हैं.
बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसी वजह से आसान तरीके से इसको अपनी संस्कृति के जाल में
फंसा लेती हैं. अब वह चुनने को मजबूर है. एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा और फिर अगला, यानी यह क्रम कभी खत्म नहीं होता.
सागरकन्या का इस चेंग-चुई पद्धति से बने मकान के बारे में बताने का
जो तरीका है वह आज के किसी भी कस्टमरकेयर पर बैठे किसी भी होस्ट जैसा ही है. इनको
सिर्फ इतना बताया जाता है कि कैसे भी तुमको अपना टारगेट पूरा करना है. इसके लिए
कौन सा मिथक या कौन से राजनेता की शख्सियत काम में आ सकती है इसको विशेष ध्यान रखा
जाय और उसका उपयोग किया जाय. इस संदर्भ में एक बात याद आती है जो कि इस संदर्भ में
बहुत मौजूं है. आज के दसेक साल पहले की बात है जब भव्य शादियों की परंपरा शुरु हुई
थी, जिसमें लाखों-करोड़ों रुपये सिर्फ भव्य
सजावट आदि में खर्च कर दिये जाते थे. समाज का हर खाता-पीता वर्ग अपने
पुत्र-पुत्रियों की शादियां इस ढंग से करना चाहता था कि वह उसकी शानो-शौकत का एक
नजारा प्रस्तुत करे. इसलिए शादियों को भव्य बनाने के लिए मल्टीनेशनल कंपनियों को
करोड़ों रुपये के ठेके दिये जाने लगे. जिसमें सिर्फ यह बताना होता था कि किस महल या
किस देश का परिदृश्य बनाया जाय. ऐसी बारातों में एक दृश्य आमतौर से दिखाई देने
लगा...बारात के स्वागत गेट पर एक तरफ गांधी खड़े हैं और दूसरी तरफ लोहिया या कहीं
कोई दूसरा राजनेता. यानी इन नेताओं की आज हमारे सामज में इतनी सी भूमिका रह गई है.
भला हो उन चंद लोगों का, जिन्होंने अपने लेख आदि के माध्यम से
इसकी तरफ ध्यान दिलाया. तब कहीं जाकर गांधी और लोहिया इस नौकरी से मुक्त हो पाये.
इससे इस पूरी संस्कृति की विडंबना को समझा जा सकता है. यहां गांधी और लोहिया सिर्फ
एक गेटकीपर बनकर रह गए हैं. वह तो इस बात से अपने को गौरवान्वित महसूस करता है कि
इस कंपनी ने क्या डिजाइन तैयार किया है. मांइड ब्लोइंग. सवाल यहां चेंग-चुई का
नहीं है. सवाल है इस संस्कृति में फंसे पूरे के पूरे समाज का. कभी वह चेंग-चुई के
मार्फत अपने जीवन को सुखी-संपन्न बना रहा है तो कभी गांधी व लोहिया को अपने यहां
गेट पर खड़ा करके अपनी शान प्रकट कर रहा है.
चेंग-चुई कहानी के संदर्भ में एक बात कहना और जरूरी है...वह है कहानी
की भाषा. कहानी की भाषा कहानी को और अधिक जीवंत बना देती है. भाषा का प्रवाह
बेहतरीन है. कहानी को बिना किसी रुकावट के एक ही बैठकी में पढ़ सकते हैं. यही किसी
रचना की सार्थकता भी है. कहानी में भाषा की सामर्थ्य साफ तौर से दिखाई पड़ती है.
कहानी में न तो भाषा का खेल किया गया है और न ही कहानी में कथानक का अनावश्यक
विस्तार है. इसीलिए कहानी पढ़ते समय अपने समय के साथ जुड़ने का अहसास होता है.
प्रवीण की विडंबना पूरे मध्य वर्ग की विडंबना बन जाती है. जिसमें आज समाज का बहुत
बड़ा तबका फंसा हुआ है.
अब बात दूसरी कहानी ‘चैराहे
पर पुतला’ की. यह कहानी आज की राजनीति और समाज के
प्रगतिशील तबके पर कड़ा व्यंग्य करती है. कैसे सौंदर्यीकरण के नाम पर चैराहे पर खड़ा
किया पुतला अश्लीलता का पर्याय बन जाता है, कहानी
इसकी बखूबी सच्चाई बयान करती है. आज की राजनीति के संदर्भ में इस कहानी का पाठ और
इसकी प्रासंगिकता बहुत अधिक है. मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो-‘वे सब प्रश्न कृत्रिम, और उत्तर और भी छलमय.’ यानी बनावटी प्रश्न सिर्फ खड़े ही नहीं
किये जाते हैं बल्कि ज्यादा चिंता की बात यह है कि उनके बनावटी उत्तर भी दिये जाते
हैं. ऐसे में ‘चैराहे पर पुतला’ कहानी का मायने और बढ़ जाता है.
कहानी की शुरुआत ही इस तरह से होती है जब दो परस्पर विरोधी पार्टी के
नेता एक-दूसरे से कदम मिलाते हुए एक कलाकार द्वारा बनाए गए पुतले को चड्ढी पहनाने
जा रहे हैं. चूंकि यह पुतला प्रधानमंत्री के किसी घरेलू कलाकार दोस्त ने बनाया था.
सो उसके सौन्दर्य का भी एक खास मायने है. पुतले में एक लड़का सिर से नहा रहा है.
पानी की धार को इस तरह से फिट किया गया है कि वह अनवरत बहती रहती है. समस्या पुतले
को लेकर नहीं है. समस्या है पुतले के कमर के निचले हिस्से को लेकर, जहां पर कलाकार ने कोई कपड़ा नहीं
पहनाया है. ‘पुतले के चेहरे पर, मम्मी की मद्द के बिना ख़ुद नहाने का
आत्मगौरव, नहाने से आ रहा ताजापन, सहज भोलापन तो साफ पढ़ा ही जा सकता था; लेकिन कहीं वह शरारत भी थी उसके चेहरे
में, खड़े होने के अंदाज में, जो अपनी शारीरिक उम्र से कुछ ज्यादा
मानसिक उम्र से सम्पन्न बच्चों में आ जाती है.’ चूंकि
यह पुतला चैराहे पर खड़ा है. इसलिए आते-जाते लोगों की नजरें पुतले के सिर से होते
हुए कमर के निचले हिस्से तक पहुंच जाती हैं. चिंता की बात तो यह है कि इसी हिस्से
पर आकर निगाहें ठहर जाती हैं. चैराहे पर पहुंचते ही स्कूल जाने वाली लड़कियों की
साइकिल की रफ्तार अपने-आप ही कम हो जाती है. लड़कियों की खनखनाती हुई हंसी बड़ी देर
तक चैराहे पर बनी रहती है. शहर के बाकी लोग भी कुछ ऐसी ही बीमारी से पीड़ित हैं. जब
से यह पुतला लगा है आस-पास की दुकानों पर खरीदारों की संख्या बढ़ गई है. यहां तक कि
शहर में बहुत प्रगतिशील माने जाने वाले प्रोफेसर रवि सक्सेना की पत्नी में भी
अभूतपूर्व बदलाव हुए हैं. पुतला शहर के लोगों को अलग-अलग तरह से
प्रभावित-दुष्प्रभावित कर रहा है.
‘पुतला...पुतला...काश कोई इस हरामज़ादे पुतले को बम से ही उड़ा देता, कलात्मकता के नाम पर पतनशील सामंती
संस्कृति को चैराहे पर परोसता, बेहूदा लुगाई-लुभावन कमीना पुतला...मैं कब तक झेलता ऐन निजी पलों में
होने वाला यह अनाचार...प्रगतिशील हूं, वामपंथी हूं, नामर्द
तो नहीं....’ वहीं गंगाधर जी और उनकी पार्टी के लिए
यह पुतला भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का पर्याय है. इसलिए संस्कृति रक्षा के नाम
पर उनकी पार्टी पुतले को हटाने के लिए कटिबद्ध है. पुतला लोगों को चुनौती देता हुआ
शहर के सीने पर खड़ा है. जब शहर के कुछ लोगों ने पंडित गंगाधर जी के नेतृत्व में
पुतले पर अश्लीलता का आरोप लगाया था तो प्रोफेसर रवि इसके खिलाफ खड़े हो गये थे.
उनका मानना था कि यह कला का अपमान है. कला की स्वायत्तता, निजता आदि की रक्षा के लिए लंबे-लंबे
लेख लिखे थे और सभा-संगोष्ठियों के माध्यम से अपनी बात को धार दी थी. पुतला
देखते-ही-देखते प्रदेश से लेकर पूरे देश के लोगों की चिंता का केन्द्र बन गया.
चैनलों के रिपोर्टर अपनी महती जिम्मेदारी निभाते हुए तक अलग-अलग कोणों से पुतले के
स्टील और लाइव दोनों तरह के फुटेज ले रहे थे. इस बात का खासा ध्यान रखा जा रहा था
कि कैमरे के हर एंगिल में पुतले को लेकर जो असली समस्या है वह जरूर दिख जाये. सो
कैमरे का सारा ध्यान पुतले के कमर के निचले वाले हिस्से पर ही आकर केन्द्रित हो
जाता था.
पुतले की सनसनाहट को यह रिपोर्टर भी अपनी खबरों के माध्यम से बढ़ा रहे
थे. चूंकि मामला सीधे-सीधे प्रधानमंत्री से जुड़ा था. सो पता नहीं कब घटना देश की
सीमाओं को पार कर आगे बढ़ जाए. सो खबरों में इस बात का विशेष ध्यान रखा जा रहा था.
शहर के बाकी लोगों से कुछ अलग तरह से प्रोफेसर की पत्नी जया पुतले के प्रति कुछ
ज्यादा ही खिंची हुई थीं. एक दिन चैराहे से गुजरते हुए यह शक प्रमाणित भी हो गया.
वह सोचने लगे-‘शाम को पुतले पर पड़ी नजर उचटती नजर थी
या कसकती? उचटकर वह नजर पुतले के चेहरे तक ही रुक
गई थी या सरक कर कमर के नीचे तक भी गई थी? और
क्या फिर वहां से चुप-सी चतुराई के साथ फिसलती हुई मेरी कमर के नीचे तक नहीं आ आई
थी? पुतले की कमर पर जो नजर उमंग के साथ
घूम रही थी, वह मेरी कमर के नीचे तक आते-आते क्या
उदासी को छिपाती सी नहीं लग रही थी?....’ पत्नी के व्यवहार में जो बदलाव है उसकी
जड़ में यह पुतला है. लिहाजा उन्हें भी गंगाधर जी की बात (यह पुतला समाज में
अश्लीलता फैला रहा है) सही लगने लगी.
समूचा देश पुतले का सन्ताप झेल रहा था. मामला निपटारे के लिए लेबयान
आयोग जांच कर रहा था और निपटारे तक पुतले को ईंटों के ताबूत में निर्वासित कर दिया
गया. इन बीसेक सालों में गंगाधर जी लोकल से नेशनल नेता बन गए थे. लेकिन पुतला
चैराहे पर लोगों के बीच खड़ा होने के बावजूद भी निर्वासित था. ‘...पुतले का निर्वासन काला पानी भेज दिये
गये मनुष्य का निर्वासन था. उसका अकेलापन दीवार में ज़िन्दा चुनवा दिए गए इंसान का
अकेलापन था. वह इस अकेलेपन को झेलते-झेलते थक चुका था, कभी-कभी तो वह स्वयं ही टूट जाना चाहता
था लेकिन विवाद का एक पक्ष कहता था, हम
तुझे मरने नहीं देंगे; और दूसरा ताल ठोंकता था कि हम तुझे
जीने नहीं देंगे.’ लेकिन मामला चूँकि भारतीय संस्कृति को
लेकर था सो बहुत सोच-समझकर ही निर्णय करने की जरूरत थी. पुतला वैसे तो चंदोवे में
कैद था लेकिन उसकी उपस्थिति लोगों के बीच बनी हुई थी.
प्रोफेसर रवि सक्सेना की जिंदगी के हर कोने में पुतला घुस गया था. ‘क्लास, स्टाफ़-रूम, बाज़ार, सभा-सेमिनार...यहां तक कि रवि और जया
के ऐन अपने पलों में भी कमीना बीच में आ घुसता. स्ट्रांगर, लांगर, थिकर की भवितव्यता के आतंक में रवि और
सिकुड़ जाते, जया और मुरझा जाती.’ सवाल यहां यह उठता है कि कैसे जीवन के
कठिन सवाल इस पुतले में रिड्यूस हो गये, कहानी
इसकी बखूबी तस्वीर प्रस्तुत करती है. रवि तो अपने को मौके-बेमौके ही सही कहते तो
खुद को कम्यूनिस्ट है, लेकिन यहां वह भी इसी सवाल में फंसे
दिखाई पड़ते हैं. पुतला उनकी स्मृति में बसा हुआ है कि उनके अपने और जया के बीच के
सम्बन्धों में भी पुतला ही दिखाई पड़ता है. रवि के माध्यम से आज के पूरे इस वर्ग की
विडंबना को समझा जा सकता है जो आज आम-जन की वास्तविक समस्याओं से दूर इनके माध्यम
से अपने हित पूरे करने की कोशिश में लगे हुए हैं. वहीं आज के राजनेता इन सब
मुद्दों के माध्यम से अपने वोट-बैंक की राजनीति खेल रहे हैं. इसीलिए दोनों दो
विरोधी दलों की राजनीति करने के बावजूद एक साथ इस पुतले की अश्लीलता को ढ़कने आए
हैं. कला की स्वायत्ता और अश्लीलता दोनों बच जाएं इसलिए पुतले को कलात्मक ढंग से
चड्ढी पहनाने का निर्णय लेबयान दिया है. जिसका तुरंत अमल किया जा रहा है. हर एक
दिन की एक अलग कलात्मक चड्ढी. यानी महीने के तीस दिन और तीस कलात्मक चड्ढी. सवाल
यहां पुतले को चड्ढ़ी पहनाने को नहीं है. सवाल है आज की राजनीति को समझने का कि वह
किस दिशा में जा रही है. आज दोनों ही नेताओं की चिंता में पुतले की अश्लीलता ही
सबसे बड़ी समस्या है.
लेकिन समस्या तब खड़ी हो गई जब पुतले को ईंटों के ताबूत से बाहर लाया
गया. पुतला अब सजीला जवान हो गया था. जबकि चड्ढी पांच साल के बच्चे के हिसाब से थी.
पुतला पूरे आत्मविश्वास के साथ नहा रहा था. प्रोफेसर रवि ने मन ही मन कहा-‘मैं तो पहले से ही जानता था कि हरामी
कुछ अनहोनी करेगा ही करेगा, जिस दिन साले ने मुझे सताया था, बरसों से चल आ रहे, अच्छे-खासे दाम्पत्य जीवन के बावजूद इंचीटेप हाथ में उठवाया था, मैं तो उसी दिन भांप गया था इस कमीने
का हरामीपन...यार लोग तो मुझे ही पागल समझने लगे थे, परम-प्रिया जी तो चोरी-छुपे
सायकाट्रिस्ट से कंसल्ट भी कर आई थीं. साली गन्दी-गन्दी फैंटेसी ख़ुद पालती थी, सायकिक केस मुझे बताती थी....’
कहानीकार पुतले के माध्यम से पूरे समाज की मनोदशा को दिखा रहा है.
जिसमें प्रगतिशील और सांप्रदायिक दोनो एक ही छोर में खड़े दिखाई देते हैं. आज
गंगाधर जी, मुख्यमंत्री साहब और रवि एक-साथ चल रहे
हैं. तीनों के अपने-अपने स्वार्थ हैं. रवि तो आज अपनी पूरी जिंदगी की गल्तियों को
सुधार लेना चाहते हैं. वह भी अरुण की तरह ही इस सत्ता के सारे सुख लेना चाहते हैं.
आखिर क्या मिला उन्हें पूरी जिंदगी विचारों का भार ढ़ोते हुए? आज जब आदमी अपने स्वार्थों के कारण
बौने होते जा रहे हैं तब पुतला बड़ा होता जा रहा है. वह चाहे प्रोफेसर रवि ही क्यों
न हों? रवि का जिक्र करना इसलिए जरूरी लगता है
क्योंकि यदि यह बौद्धिक तबका भी ईमानदारी से अपने विचारों के हिसाब से जीवन नहीं
जियेगा, जब यह उम्मीद किससे की जायेगी? आज जब राजनीति से लेकर हर जगह पतन
दिखाई पड़ रहा है तब इस वर्ग की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. लेकिन आज यह वर्ग भी इसी
में हिस्सेदारी करता हुआ दिखाई पड़ रहा है. पुतला तो एक प्रतीक मात्र है. कहानीकार
इस प्रतीक के माध्यम से ही समाज की मनोदशा को उद्घाटित करने की कोशिश करता है.
पुतला कब कला से फ्रेम से निकलकर अश्लीलता के फ्रेम में कैद हो जाता है, इसको रवि के संवादों के माध्यम से समझा
जा सकता है. जब कोई समाज और उसको संचालित करने वाली राजनीति इस तरह के प्रश्नों
में आकर फंस जाती है तो उस समाज की दिशा भविष्य में कैसी होगी इसकी सहज कल्पना की
जा सकती है.
इस कहानी के माध्यम से आज के समाज, राजनीति आदि को बखूबी समझा जा सकता है. यह ठीक वैसा ही मुद्दा है
जैसे अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का मसला. आज तक कितनी ही पार्टियों की
सरकारें आईं-गईं...लेकिन मुद्दा जस का तस बना हुआ है. इन मसलों से आखिर आम आदमी को
क्या मिला? लेकिन आज समाज के जरूरी सवाल मुद्दों
की फेहरिस्त से बाहर हैं. यह है आज के राजनीति की सच्चाई. आखिर पुतले की नग्नता ढ़क
जाने से या मंदिर-मस्जिद बन जाने से लोगों के जीवन में कौन सा बुनियादी अंतर आ
जायेगा? आखिर कब तक इन बनावटी सवालों के सहारे
राजनीति की जाती रहेगी? कहानी इस पूरी राजनीतिक संस्कृति पर व्यंग्य
करती है. आज भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं, बच्चे
कुपोषण का शिकार होकर मर रहे हैं और गरीबी बेतहाशा बढ़ती जा रही है. तब ऐसे सवाल
गंदी राजनीतिक संस्कृति की कलई खोलते हैं. जिसमें सब एक ही कतार में खड़े दिखाई
पड़ते हैं. तब इस कहानी का पाठ करना और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है.
इन दोनों कहानियों में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने आज की चलताऊ थीम से अलग
हटकर कहानी का ताना-बाना बुना है. दोनों कहानियों में समाज की उस सच्चाई पर तीखा
व्यंग्य किया है, जो आज के समाज की विडंबना है. चेंग-चुई
के प्रवीण के भीतर के सवाल और सागरकन्या की विज्ञापन शैली आज की पूरी भूमंडलीय
संस्कृति को दिखाती हैं. कैसे पूरा का पूरा समाज आज मानसिक गुलामी की अवस्था में
जा रहा है, कहानी इसका बखूबी वर्णन करती हैं. वहीं
‘चैराहे पर पुतला’ कहानी आज की जनता से कटी राजनीति की
सच्चाई बयान करती है. कैसे एक सांप्रदायिक पार्टी और धर्मनिरपेक्ष पार्टी एक ही
कतार में खड़ी हो जाती है और इन दोनों के बीच तालमेल बिठाते हुए प्रगतिशील प्रोफेसर
रवि सक्सेना हैं. जो उन दोनों ही पार्टियों से फायदे लेने की फिराक में गुंताड़े
भिड़ा रहे हैं. यह है आज की राजनीति और समाज के प्रगतिशील तबके की सच्चाई. जो
प्रगतिशीलता को एक औजार के रूप में इस्तेमाल करता है. बस ध्यान यह रखना है कि कैसे
और कब इसका उपयोग करना है. इसीलिए मुक्तिबोध की कविता की यह पंक्तियां आज के
बौद्धिक वर्ग पर एकदम फिट बैठती हैं ‘बौद्धिक
वर्ग है क्रीतदास, किराये के विचारों का उद्भास.’ यह हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है.
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बिपिन तिवारी
शोध छात्र हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
मो.-09990653770
bipintiwari85@gmail.com
सर की दोनों कहानियां पढ़ीं ..विडंबनाओं,विरोधाभासों की रंगभूमि की कहानियां हैं ये -भाषा सघनतर और पैनी है ..
जवाब देंहटाएंपूर्वरंग में अश्वत्थामा का आ जाना कहानी को खोलता है ..चौराहे पर पुतला एक वैचारिक कथा है -व्यंग्योक्ति जिसका सघन स्वर है . बिपिन तिवारी ने दोनों कहानियों पर अच्छा लिखा है . बधाई .
बढिया रहा
जवाब देंहटाएंपुरुषोत्तम सर की कहानी चौराहे पर पुतला मैं प्रिंट में पढ़ चुकी हूँ फरवरी मे ही...हालांकि कुछ लंबी थी पर एक ही सिटिंग में पढ़ गयी मैं...कुछ इस तरह बांधे रखा था कहानी ने...अलग सी कहानी...
जवाब देंहटाएंपुरुषोत्तम जी की 'चौराहे पर पुतला ' कहानी सईद अयूब के दिए लिंक पर जा कर पढी ! यह कहानी सामजिक,सांस्कृतिक, और राजनैतिक असमंजस्य को रेखांकित करती है और संक्रमण काल में हर जगह व्याप्त होती अराजकता को बड़े कारगर तरीके से चित्रित करती है ! वास्तव में एक अच्छी कहानी !
जवाब देंहटाएंसंयोग से मैंने इन दोनों कहानियों को पढ़ा है । दोनों ही बढ़िया हैं
जवाब देंहटाएंहां ..इधर मैं उनका यात्रा - संस्मरण पढ़ रहा हूँ । अद्भुत है वह ।
उम्मीद करता हूँ , कि कथा क्षेत्र में उनका यह प्रवेश आलोचना विधा की ही तरह महत्वपूर्ण होगा ।
'चेंग चुई' तो बहुत पहले पढ़ ली थी. 'चौराहे पर पुतला' कल खतम किया. पूरी कहानी एक बैठक में नहीं पढ़ पाया. एक बैठक में पढ़ने लायक है भी नहीं. रोचक इतनी है कि एक ही बैठक में खतम करवा ले. पर क़दम-क़दम पर जो व्यंग्य है और उसके माध्यम से समाज के लगभग हर क्षेत्र की जो विद्रूपता है, उसको उघाड़ने का जो प्रयास है वह सोचने के लिए पाठक को ठिठकाता है और मैं समझता हूँ कि यह इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता है. 4 मार्च की रात को आधी कहानी पढ़ ली थी, कल इसको खत्म किया.
जवाब देंहटाएंपुरुषोत्तम सर को कहानी के क्षेत्र में गंभीरतापूर्वक आना चाहिए क्योंकि इन दोनों कहानियों से पता चलता है कि उनके अंदर कितना समर्थ कथाकार बैठा हुआ है. आशा है जल्द ही कुछ और कहानियाँ पढ़ने को मिलेंगी.
विपिन ने दोनों कहानियों पर सच में बहुत लगन से लिखा है. उनको बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ!
umdaa kahaani ke liye sadhuwad , badhai
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