कथा - गाथा : अथ श्री संकल्प कथा : विमलेश त्रिपाठी











विमलेश त्रिपाठी :
७ अप्रैल १९७७, बक्सर, (बिहार)
प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता से स्नातकोत्तर, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत

देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख  और अनुवाद आदि  
हम बचे रहेंगे कविता संग्रह नयी किताब, दिल्ली से  
कहानी संग्रह अधूरे अंत की शुरूआत  पर युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार
सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से काव्य लेखन के लिए युवा शिखर सम्मान
कविता के लिए सूत्र सम्मान, 2011
कविता कहानी का भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में अनुवाद

परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत


साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
ई पता : bimleshm2001@yahoo.com


विमलेश त्रिपाठी युवा कवि, कहानीकार हैं. इस लम्बी कहानी में सृजनात्मकता के समझ उपस्थित संकट और खुद सृजनात्मकता के अपने खतरे का आख्यान है. यथार्थ और स्वप्न के बीच लगातार आवाजाही से कथ्य और उसका पर्यावरण सघन हुआ है जिससे  प्रभाव देर तक टिका रहता है. एक उदास और आकुल कर देने वाला जीवनानुभव आप यहाँ पाएंगे. विमलेश ने इसे धैर्य और दक्षता से रचा है.

रघु राय 






















लम्बी कहानी 

   अथ श्री संकल्प कथा    
विमलेश त्रिपाठी


नोटः यहां आए सारे पात्र काल्पनिक हैं और इनका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है. अगर इनका संबंध किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से जुड़ता है तो इसे महज़ एक संयोग ही कहा जा सकता है.

पूर्व कथन:  
प्रिय पाठक यह कोई कहानी नहीं है. सच कहूं तो यह एक नीम बेहोश और नाचीज हिन्दुस्तानी लेखक की कोई एक बात या कई एक बात है जिसे वह पता नहीं कितने समय से आपसे साझा करना चाहता था और एक जमाने बाद आज वह आपसे मुखातिब है. इन बेतरतीब बातों में अगर आपको कुछ भी पसंद न आए, और जाहिर है कि ऐसा हो सकने की ढेर सारी संभावनाएं हैं, तो आप उसे सजा सुना सकने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र हैं. आखिर आप एक ऐसे देश के नागरिक हैं जिसे पता नहीं कितने दशकों से लोकतंत्र (?) होने का गौरव हासिल है.
                           
* * *

दुख कई-कई शक्लों में आता 
सुख की सिर्फ एक ही शक्ल होती
वह शक्ल तुम्हारी शक्ल से
बहुत मिलती-जुलती होती
कहते हैं उन दिनों
मैं शब्दों से बेहद प्यार करता था...



( बात - एक )

कोई खास वजह नहीं होती थी. चलती ट्रेन में जब चुपचाप बैठे वे सोचते तो उन्हें कहीं से भी अपनी गलती नहीं दिखती थी. अगर वे मान ही लें तो उनकी गलती यह थी वे दुबारा कविताओं की ओर चले गये थे वे पत्नी से प्यार तो करते थे लेकिन किताबों से और कविता से प्यार को छोड़ नहीं सकते थे. वे सोच ही नहीं पाते थे कि कविता लिखने या किताबें पढ़ने की वजह से वह उनसे बात करना छोड़ देगी. वे यूं ही शुरू दिनों में काम निपटाकर जब बिस्तर पर जाते तो वह सो चुकी होती थी. वे अपना चेहरा उसके गालों के नजदीक ले जाते. वह सोती हुई हमेशा ही उन्हें एक मासूम शिशु की तरह लगती. उस समय उनके अंदर प्यार और दुलार की एक बाढ़ सी आ जाती. वे पूरी तन्मयता से अपना होंठ उसके होंठो पर रख देते. तभी वह जोर से दुत्कार देती. उन्हें बहुत गहरा धक्का लगता. इतना सारा प्यार एक ही झटके में किसी कड़वी चीज में बदल जाता. शुरू दिनों में वे हतप्रभ हो जाते थे. क्योंकि वह हर बार उससे कहकर ही काम करने बैठते, और उन्हें यह आशा होती कि वह भी समझेगी कि वे एक ऐसा काम कर रहे हैं जो वे सचमुच करना चाहते हैं.

लेकिन बाद के दिनों में जब कविता उनके उपर सवार हो गई थी मतलब कि उनकी हरक्कतें अजीब-अजीब सी होने लगी थीं, तो उनका वह काम उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं रह गया था.

वह कई बार उनको कोसने के साथ उनकी किताबों को भी कोसती. एक बार तो उसने उनकी सारी किताबें एक ऐसी जगह छुपा दिया था कि वे सचमुच परेशान हो गए थे.
ऐसे में उनका मासूम मन बहुत सोचने के बाद यह सोच पाता कि संबंध एक जगह पर आकर सिर्फ शिकायत की शक्ल में ढल जाते हैं. जिनसे आप प्यार करते हैं, वही सबसे अधिक तकलीफ देते हैं. बिना प्यार किए, किसी को बिना समर्पित हुए साथ रहना और एक पूरी उम्र जी लेना सचमुच में एक बहुत बड़ी कला है. यह कला उन्हें न आती थी. शुरू दिनों में जब वे निरपेक्ष थे, तो दुख उन्हें शक्ति देता था. बाद में जब उन्होंने उसे महत्व दिया और प्यार जैसा कुछ करने लगे, तो धीरे-धीरे कहीं अंदर से टूटने लगे.
उनकी यह सोच कविता और प्रेम दोनों पर लागू होती थी.

वे एक सरकारी दफ्तर में अनुवादक थे. और जानने वाले जानते हैं कि किसी भी सरकारी दफ्तर में एक अनुवादक की हैसियत क्या होती है. शुरू-शुरू में अनुवादक होना उनने इसलिए स्वीकार कर लिया था कि वे एक स्थायी जगह पा रहे थे. घर में पैसे की कमी थी. उनका पूरा बचपन एक तरह के निम्न मध्यवर्गीय अभाव में कटा था. कॉलेज में जब सारे लड़के नई-नई पोशाक खरीदते, लड़कियों के साथ फिल्म देखने जाते, वे पुस्तकालय में बैठे अरूण कमल की कविताएं और उदय प्रकाश की कहानियां पढ़ा करते. उन्होंने संकल्प किया था कि कॉलेज की लायब्रेरी की सारी किताबें सत्र की समाप्ति के पहले तक पढ़ लेंगे.
वे अपने संकल्प पर अडिग थे.

इस तरह हिन्दी की सारी किताबें जब पढ़कर समाप्त कर ली गई थीं.  तब उन्होंने बांग्ला और अन्य भारतीय भाषाओं के अनुवाद पढ़ने शुरू किए. अंग्रेजी की किताबें वे पढ़ते तो थे लेकिन उन्हें कुछ खास समझ में नहीं आता था. उनकी अंग्रेजी शुरू से ही कमजोर थी. गणित और अंग्रजी ऐसे विषय से जिससे सदा ही उनकी रूह कांपती थी. लेकिन किसी तरह अंग्रेजी की भी कुछ किताबें उन्होंने पढ़ी. हां यह जरूर था कि जितना समझ में आता था वे उतना ही पढ़ते थे.

कई पत्रिकाएं फूटपाथ पर पढ़ने को मिल जातीं. वे खड़े-खड़े कितनी ही पत्रिकाएं और किताबे पढ़ चुके थे. उनके इस तरह पढ़ने की आदत को कॉलेज स्ट्रीट के सारे फुटपाथी दुकानदार समझ गए थे लेकिन वे इतने शान्त-सीधे और अपनी बेतरतीबी में इतने मासूम लगते कि एक दो बार टोकने के बाद वे उन्हें कुछ नहीं बोलते थे, हलांकि तब भी उनके चेहरे पर एक झेंप सी रहती और उन दुकानदारों के प्रति एक अजीब-सा कृतज्ञता का भाव भी. इस पढ़ने की आदत के कारण धीरे-धीरे वे कविताओं की दुनिया में पूरी तरह समा-से गये. अनगिनत कविताएं उन्हें याद हो गई थीं और राह चलते-चलते वे उन्हें मन ही मन दुहराते-बुदबुदाते रहते.
अगर रास्ते में वे अकेले पैदल चल रहे होते, तो उनकी बुदबुदाहट को देखकर कोई भी उन्हें सनकी समझने की भूल कर सकता था.
लेकिन वे इन सब बातों से एकदम बेखबर थे.

धीरे-धीरे उनमें बदलाव आता जा रहा था. मसलन जब वे देर रात तक लायब्रेरी से लाई गई कोई किताब पढ़ते हुए सो जाते तो सपने में किताब के सारे किरदार उनके आस-पास आते- जाते और उनसे बोलते-बतियाते. यह बात वे हालांकि किसी से कह नहीं पाते थे.

लेकिन बाद के दिनों में उन्होंने एक बार रचना ताल्लुकदार से सहमी हुई आवाज में कहा था कि जानती हो कल रात मेरे सपने में हिटलर आया था... मैंने राजेश जोशी की वह कविता पढ़ी थी जिसमें हिटलर के किसी पेंटिंग का जिक्र है जिसे उसने एक पोस्टकार्ड पर बनाई थी. उस कविता को पढ़ते-पढ़ते मुझे कब नींद आ गई मुझे पता ही नहीं चला. और वह नींद के बीच से मेरे सपने में चला आया. उन्हें एकदम याद है रचना ताल्लुकदार उनकी इस बात को सुनकर जोर-जोर से हंसने लगी थी

वे झेंपसे गये थे मैं सच कह रहा हूं.
और हैरानी से रचना के चमकते हुए दांत और भंवर पड़े हुए गालों को बहुत देर तक देखते रहे थे.

अच्छा तो क्या कह रहा था हिटलर तुमसे सपने में - वह फिर पूछती. ऐसे, जैसे कि उनसे मजाक कर रही हो.

वे कहना चाहते कि सपने में आया हिटलर कह रहा था कि बचपन में वह एक सीधा-सादा और डरपोक बच्चा हुआ करता था और कभी नहीं चाहता था कि वह वैसा बने जैसा कि वह बाद के दिनों में बन गया था.

उसने सफेद धोती पहन रक्खी थी और माथे पर चंदन का टिका लगा रख्खा था. वह किसी प्रचीन ऋषि की तरह दिख रहा था जिसकी आंखें आंसुओं से डबडबाई हुई थीं. कि उसने कहा था कि आने वाले समय में कविता और कला की सबसे अधिक जरूरत होगी. जिस तरह यकीन को जिंदा रखना जरूरी है, उसी तरह कविता को जिंदा रखना भी जरूरी होगा. और कि वह मेरी पीठ पर हाथ फेर कर कह रहा था कि तुम बहुत अच्छा कार्य कर रहे हो. लेकिन सिर्फ कविताएं लिखनी नहीं होती हैं वत्स !! जीनी भी पड़ती हैं, इत्यादि इत्यादि.

लेकिन वह कुछ कह नहीं पाया था. कि कह नहीं पाता था.

तब तो गांधी और मार्क्स भी आते होंगे तुम्हारे सपने में ? – रचना ताल्लुकदार की मुस्कुराहट ज्यों की त्यों रहती.
वह हां कहना चाहता. लेकिन उस लड़की की हंसी में पता नहीं क्या होता कि वह आगे कुछ कह न पाता.
चुप आंखों से कभी वह अपनी कविता की डायरी और कभी रचना ताल्लुकदार के हंसते हुए चेहरे और उसके चमकते गालों पर पड़े भंवर को देखता रहा था.

अपने अभाव और गरीबी के कारण उन्होंने यह नियुक्ति स्वीकार कर ली थी. एक निम्नमध्यवर्गीय किल्लत में पूरा बचपन काट देने वाले के लिए मिली नौकरी को अस्वीकार कर देना उन्हें उस समय कोई बुद्धिमानी का काम नहीं लगा था. अनुवादक के रूप में नियुक्त होने के बाद एक दिन वे संस्थान की पुस्तकालय देखने गये. यहां हिन्दी की किताबें एक कोने में सिमटी हुई थीं. यह एक वैज्ञानिक संस्थान था जो विज्ञान की पुस्तकों से अंटा पड़ा था. उसने कई वैज्ञानिक पत्रिकाएं उलट-पुलट कर देखीं लेकिन उनका मन उधर नहीं जमा.  वे उस दिन बेहद निराश हुए. एक बार उन्होंने सोचा कि कुछ नहीं तो विज्ञान की किताबें और पत्रिकाएं ही पढ़ी जाएं लेकिन उनके साहस ने जवाब दे दिया. एक आम निम्न मध्यवर्गीय की तरह वे विज्ञान और अंग्रेजी के एक कमजोर विद्यार्थी थे. उन्हें उस दिन थोड़ी निराशा जरूर हुई. लेकिन हिन्दी पुस्तकों के रैक में उन्हें एक किताब दिख गई. पुस्तक की हालत बहुत नाजुक-सी थी. बहुत ध्यान से पढ़ने पर ही पढ़ा जा सकता था कि उसपर चांद का मुंह टेढ़ा है लिखा था और लेखक के नाम की जगह मुक्तिबोध लिखा था. वे थोड़े खुश हो गए. यह किताब पता नहीं कितने दिनों से वे ढूंढ़ रहे थे लेकिन कहीं मिलती न थी. जब पुस्तक मेला कोलकाता के मैदान में लगता था तब वहां वे एक बार उस पुस्तक को देखकर आए थे, लेकिन उस समय उनके पास उतने पैसे भी नहीं थे कि वे उसे झट-से खरीद लें. वह किताब यहां देखकर उन्हें सचमुच खुशी हुई थी.


बहरहाल दफ्तर में उन्हें एक कम्प्युटर दे दिया गया था, जिसे वे शुरू-शुरू में एकदम ही चला नहीं पाते थे.

बचपन से ही उसे लगता था कि कम्प्युटर एक ऐसी चीज है जिसे दिमागी लोग ही चला सकते हैं. दिमागी लोग का मतलब यह कि उसे चलाने के लिए गणित और अंग्रेजी में पारंगत होना होता है. उनके पिता ने यह जुमला कहीं से सुन रक्खा था और एक यही बात वे उनके सामने होश सम्हालने से अनुवादक बनने के कुछ दिन पहले तक दुहराते रहे थे. उन दिनों उससे अधिक की जानकारी शायद उनके पास नहीं थी.  और यह बात बचपन से ही उनके जेहन में घर किए बैठी थी. खैर तो कुछ दिन गुजरते न गुजरते वे इस भयानक यंत्र के साथ आत्मीय-से हो गये था. उनकी इस अत्मियता का प्रमाण यह भी था कि धीरे-धीरे कुछ रूपए इकट्ठा कर घर के लिए भी वे एक कम्प्युटर खरीद कर ले आये थे. और कुछ-कुछ चीजें लिखने भी लगे थे. वे पढ़ने की दुनिया से निकल कर अब लिखने की दुनिया की ओर चले आने लगे थे.

बाद के दिनों में वे इंटरनेट की दुनिया से भी जुड़े. जैसे कि याहू मैसेंजर और फेस बुक, ट्वीटर इत्यादि. और लोगों के साथ उनका कोई उतना मतलब तो था नहीं. वे फेसबुक, कविताएं और किताबों इत्यादि को अपनी दुनिया मान चुके थे. वे इन तमाम चीजों में इस तरह घुलते गये थे कि दफ्तर के कई काम उन्हे याद नहीं रहते. इस तरह कई काम लंबित होते जाते.

कहने का अर्थ यह कि यह होते-होते एक दिन रजिस्ट्रार ने उन्हें तलब किया.

सुनते हैं कि आप दिन भर फेसबुक और मैसेंजर पर चैटिंग करते रहते हैं. यह तो ठीक बात नहीं है. आप दफ्तर में काम करने आते हैं, या फेसबुक करने? – सामने रजिस्ट्रार बैठा था संकल्प प्रसाद उसके सामने हाथ बांधे खड़े थे.

सर, मेरा काम तो आप जानते हैं कि ठीक है. हां इधर के दिनों में मैं थोड़ा कुछ परेशान हूं.
ये फेस बुक आपकी परेशानी हल नहीं करेगा. आप जानते नहीं यह आभासी दुनिया है. यू नो, इट्स ऑल वरचुअल वर्ल्ड.

सर मैं तो कविताएं..

आप क्या समझते हैं, आप कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर रहे. यह कविता और कहानी तो और भी खतरनाक चीजें हैं. ये तो आभासी दुनिया की बाप हैं. आप बाहर निकलिए उस दुनिया से और अपना काम कीजिए.
सर कविता उतनी खतरनाक चीज नहीं है...आप देखिए...कि.. मैं....

यह विभाग का पत्र पढ़िए. तीन त्रैमासिक रिपोर्ट पेंडिंग हैं. आपको यहां काम करने के लिए रखा गया है, फेसबुक और ट्वीट करने के लिए नहीं.
जी..
तो आप अपने काम में मन लगाइए. कविता-कहानी की दुनिया से बाहर निकलिए. यह कविता लिखने का समय नहीं है. आप मेरे छोटे भाई की तरह हैं, आशा है फिर ऐसी कोई शिकायत मुझे नहीं मिलेगी.
जी..

संकल्प प्रसाद रजिस्ट्रार के कमरे से बाहर निकल गए.

यह प्रेम के टूट जाने और शादी के कुछ दिन बाद उस समय की बात है जब संकल्प प्रसाद अपनी पत्नी की ओर मद्धिम ही सही पर आकर्षित हो चुके थे. और इस आकर्षण के बीच से एक शिशु का जन्म हुआ था, वे परिवार वाले हो गए थे. और वह लड़की जो कभी उनकी प्रेमिका के जैसी कुछ थी जिसका नाम रजना ताल्लुकदार था जिसे संकल्प प्रसाद रचना ताल्लुकदार कहते और जो उनके सपने में आकर परेशान करती थी, उसका आना कम हो गया था.




( बात - दो )

दफ्तर में ढेर सारे ऐसे काम उन्हें करने होते जो उन्हें अंदर तक ऊबा जाते थे. हालांकि कई बार उन्होंने कोशिश की कि दफ्तर के कामों की ओर मन ले जाया जाए. लेकिन वे ऐसा कर पाने में कामयाब होते नहीं दिख रहे थे. काम करते-करते उनके जेहन में कोई कविता गूंजनी शुरू हो जाती थी या किसी कहानी का प्लॉट उन्हें परेशान करना शुरू करता था. तब वे सबकुछ छोड़कर उसमें रम जाते.

इस तरह कुछ दिन और गुजरे.

रजिस्ट्रार ने दूसरी बार वार्निंग दिया. उन्हें यह सब सुनना अच्छा नहीं लगता था. उन्हें हर बार लगता था कि वे गलत जगह पर आ गये हैं.

फाइलों के अंबार के बीच बैठे वे खुद को एक कैदी समझते. उन्हें बड़ा आश्चर्य होता जब उनके पास की टेबल पर बैठकर काम करने वाले जगत बाबू अपने काम में लगे रहते और हमेशा खुश दिखते. उनके लिए दफ्तर पहुंचना और देर शाम तक काम करना एक तरह का सकून देने वाली बात थी. पूरे दफ्तर में लगभग कोई भी ऐसा नहीं था जो उनकी तरह से सोचता हो, कम से कम उनकी नजर में तो कोई नहीं था.

शुरू-शुरू में जब उन्होंने रजिस्ट्रार को बताया था कि उनकी पढ़ने लिखने में रूचि है तो वह खुश हुआ था गुड-गुड, सो यू आर अ पोएट, शायरी-वायरी क्या...
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इसके बाद उसने बड़े उत्साह और आत्मियता से बताया कि उसके गांव में एक कवि थे जिनका नाम मंगलम कुट्टी था और वे जीवन भर कविताएं लिखते रहे थे. लेकिन किसी का ध्यान उनकी ओर नहीं गया. बाद के दिनों में लोग उन्हे पागल और सनकी समझने लगे थे. और यह कहते हुए उसका चेहरा बहुत भारी हो गया कि उन्होंने एक दिन गांव के पास की नदी में छलांग लगा लिया था. पता नहीं क्यों उसने अत्महत्या शब्द का इस्तेमाल नही किया.

उसकी बातों से उन्हें उस समय लगा था कि यह दक्षिण भारतीय रजिस्ट्रार भला आदमी है, इसके अंदर संवेदना है और यह कुछ कविता-वविता की भाषा जरूर समझता है.

खैर तो उस दफ्तर में काम से फुरसत मिलते ही लोग अपने घर की बातें करते. जमीन जायदाद खरीदने-बेचने की बात करते. कहीं घूम आने या किसी अच्छी जगह घूमने जाने की योजना बनाते. जब इस तरह की बातों से जी ऊब जाता तो किसी खास व्यक्ति की शिकायत में रम जाते. इन तमाम बातों के अंदर ही उनका एक संसार था. एक ऐसा संसार जिसमें सुख-दुख, हंसी-ठहाके के घालमेल के साथ वे लगभग खुश थे.

लेकिन उनका मन इन तरह की तमाम बातों से दूर भागता. उन्हें लगता कि वे इस तरह की बातों में समय नष्ट करने के लिए इस धरती पर नहीं आये हैं. वे एक सर्जक हैं, एक कलाकार और इसलिए वे विशिष्ट हैं.

लेकिन वे इस बात को भी अच्छी तरह से जानते थे कि उन्हें घर चलाने के लिए यह नौकरी करनी ही पड़ेगी. उनकी नौकरी छूट जाने से पूरे परिवार के सड़क पर आ जाने की संभावना बन जाती थी. लेकिन बाद के दिनों में वे ऊबकर कई-कई बार इस्तीफा लिखते थे और उसे रजिस्ट्रार के सामने खड़े हो जाते थे हर बार एक ही संवाद उसके सामने दुहराते थे सर, अब नहीं होगा. मैं यह सब नहीं कर सकता. इसी एक जन्म में सब कुछ करना है. समय बहुत कम है. अगर मैं इन दफ्तर की फाइलों में उलझा रहा तो मैं ज्यादा दिन तक जिंदा नहीं रह पाऊंगा. मैं जिंदा रहना चाहता हूं. फिलवक्त भी और मर जाने के बाद भी. इसलिए मेरा यह इस्तीफा स्वीकार कर लिजिए.

यह सारी बातें एक आवेग में कही जाती थीं चेहरे पर बेचैनी के पसीने और आंख में दुख और विरक्ति के गीलेपन के साथ पूरी शिद्दत और सच्चाई से. रजिस्ट्रार भला आदमी था. वह अजीब-सी फक्क नजरों से उन्हें देखता रहता कूल डाउन मिस्टर प्रसाद. आपकी प्राब्लम को मैं समझ सकता हूं, लेकिन इस तरह इस्तफा देकर आप खुद पर ही जुल्म करेंगे. आपकी पत्नी है, बच्चा है, माता पिता हैं. आपने ही बताया कि आपका एक बेरोजगार भाई है. सब आपके उपर आश्रित हैं. इस तरह नौकरी छोड़ने से तो नहीं होगा. आप शांत हो जाइए. प्लीज बैठिए.  रजिस्ट्रार महादेव को बुलाता था.

साहब को कॉफी पिलाओ. और ग्लास में पानी रख जाओ.

महादेव एक अजीब घूरती निगाह से संकल्प प्रसाद को देखता था और बाहर निकल जाता था. जैसे कह रहा हो कि इस हफ्ते फिर से प्रसाद जी को दौरा पड़ा है.

हर बार एक ही तरह का दृश्य बनता था और हर बार के दृश्य में एक निरीह आदमी अपने संकल्प और दुख के साथ खड़ा दिखता था जिसका नाम संकल्प प्रसाद था और जो इस दफ्तर में एक अनुवादक के पद पर कार्य करता था, जिसका एक घर था, घर में बीबी-बच्चे थे, बूढ़े माता-पिता थे, बेरोजगार भाई था और इस इंसान के सामने एक भला आदमी खड़ा समझा-बुझा रहा होता था, और तभी महादेव की इंट्री होती थी और उसकी आंखों में - क्या नाटक चलता है यार, हर बार एक ही तरह -  का-सा भाव बनता था.

इस दृश्य की समाप्ति संकल्प प्रसाद के इस संकल्प के साथ होती थी कि नौकरी नहीं छोड़नी है और सर्जक-कलाकार भी बने रहना है. लेकिन यह संकल्प सकून देने की बजाय नए सिरे से उन्हें परेशान भी करता था.

और यह दृश्य सचमुच में बनता भी था या नहीं इसके बारे में निश्चित होकर कुछ कहना संभव नहीं है क्योंकि कई बार तो संकल्प प्रसाद अपनी कुर्सी के सामने ही चुप-चाप खड़े दिखते.  उस समय भी उनके चेहरे का भाव कुछ उसी तरह का होता था, जिस तरह रजिस्ट्रार के सामने खड़े होकर इस्तीफा मंजूर करने का अनुरोध करते समय, जिसका उपर उल्लेख किया जा चुका है.

बहरहाल इस तरह के दृश्य शुरू दिनों में नहीं बनते थे. शुरू-शुरू में प्रसाद जी का अपना परिवार भी नहीं बना था, मतलब आज की भाषा में जिसे परिवार कहा जाता है, जिसे कुछ लोग बड़े आराम से फेमिली कहते हैं, उस तरह का. वे अकेले थे और उनका किसी एक लड़की से प्रेम चलता था. यह प्रेम कैसे हुआ था इसके विवरण में जाना इस समय जरूरी नहीं है.  हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि यह प्रेम भी उसी तरह हुआ होगा जैसे एक लड़की और एक लड़के के बीच होता है. देश-काल और परिस्थितियां घुमा-फिराकर एक तरह की ही रही होंगी. अस्तु.

तो सुबह दस से सात बजे तक दफ्तर में काम करने के बाद वे किसी पार्क में होते जहां एक सजी-संवरी लड़की उनका इंतजार कर रही होती. उस समय उनके पास ढेर सारी लिखी और अलिखी प्रेम कविताएं होती थीं, और लड़की को वे सारी प्रेम कविताएं पार्क की धुंधलायी रोशनी में पढ़कर सुनाना चाहते. उनके हाथ हर बार उनके थैले की ओर जाते-आते जब वे पार्क की नीम रोशनी में अपनी प्रेमिका के बिल्कुल करीब बैठे रहते. प्रेमिका का कोई नाम था जिस नाम से वे उसे पुकराना नहीं चाहते थे, उसके लिए उन्होंने एक अलग नाम चुन रक्खा था रचना. इसलिए रचना कि वह उनकी रचना की प्रेरणा थी उन दिनों. हर कविता के उपर यह जरूर लिखा रहता रचना के लिए.

लड़की बंगाली थी और उसके नाम के बाद ताल्लुकदार टाइटल लगता था. वह उनकी कविताओं की मार्फत हिन्दी सिखने की कोशिश करती. कई चीजें तो उसे समझ में भी नहीं आती, तब भी वह प्रसंशा भारी नजरों से उनकी ओर देखतीं. कविताओं की भीड़ से इतर वह उनको बहुत सारी बताना चाहतीं, मसलन किस बाजार का कौन-सा दुकानदार आधुनिक डिजाईन के सारे कपड़े रखता है, और सस्ते दामों में बेचता है, कि लिपस्टिक, आई लाइनर इत्यादि...
लेकिन संकल्प प्रसाद थे कि एक के बाद एक कविता पेलते रहते.



( बात - तीन )

रचना खुद में रचना चाहती. संकल्प रचना के लिए रचना करते. वह कई बार कहती कि किताब और कविता की दुनिया से बाहर की भी बातें कर लें हम कुछ. और संकल्प उसकी बातें सुनते-सुनते फिर से कविता की ओर चले जाते. वह लड़की उनके और करीब आना चाहती, और संकल्प उसे अपनी बातों से कई मिल दूर फेंक देते. कभी-कभी पार्क के नीम अंधेरे में लड़की के होंठ कई आकार में ढलते शुरू होते. उसकी आंखों में कई बार एक भूख दिखती, जिसे संकल्प देख कर भी समझ नहीं पाते.

हम शांतिनिकेतन चलते हैं लड़की कहती.

हां, टैगोर से मिलना है मुझे, जरूर चलेंगे संकल्प को रविन्द्र की कविताएं याद आ जातीं.

ठहरेंगे कहां, वहां के बारे में तुम्हे पता है कुछ लड़की की आंखें एक बिल्ली की आंख में बदल जाती और चेहरे की लाली कुछ और तेज चमकने लगती.

तुम अपने नानी के घर चले जाना, मैं एक मित्र के यहां ठहरूंगा. - लड़की का ननिहाल शांतिनिकेतन के पास ही था, वह अक्सर उसका जिक्र करती थी.

हम वहां नहीं ठहर सकते, जहां सिर्फ हम और तुम हों ? लड़की आखिरी कोशिश करती.

यह ठीक नहीं होगा संकल्प प्रसाद इसके बाद कई एक बातें सुनाते जिसका आशय आप समझ  सकते हैं... कि प्रेम क्या है और कि शरीर और  मन और कि दुनिया भर के फलसफे इत्यादि और वहां भी अंततः किसी कवि की कविता की कोई या कई पंक्तियां दुहरा देते ... इत्यादि..इत्यादि....

इस बार लड़की की आंख में एक निराश किस्म की उदासी झलकती. वह संकल्प प्रसाद की सरलता के आकर्षण में बंधी चली आई थी. वह एक ऐसी सुंदर लड़की थी जिसे हर ओर चुभती हुई भूखी आंखें दिखती थी. वह लड़की जब संकल्प प्रसाद के सामने जाती तो उनकी आंखों के निर्मल झरने में उसे सुकून मिलता. इस तरह दुनिया की चुभती आंखों से दूर वह हर बार इस निर्मल झरने की शरण में चली आती. और उसका इस तरह बार-बार आना इन दो लोगों को बेहद करीब ले आया था.

संकल्प कुमार को भी कुछ समय बाद उसका आना अच्छा लगने लगा था. और इस तरह एक दिन रचना के लिए शीर्षक से उन्होने एक कविता लिखी जिसका आशय यह था कि धरती प्यासी होती है तो बरसात को ढूंढ़ती है, नदी समुद्र की ओर अनायास बहे आती है.. फूल से भ्रमर का मिलना और हृदय की पीड़ा और एक तरह की पवित्रता की परिकल्पना इत्यादि का मतलब प्रेम नाम की एक पवित्र वस्तु होती है, जिसे अज्ञेय ने यज्ञ की ज्वाला कहा है या प्रसाद ने जिसे सबकुछ दे देने की प्रेरणा दी है,  एक्सेक्टरा एक्सेक्टरा .



( बात - चार )

लेकिन लड़की को कुछ समय बाद लगने लगा था कि संकल्प प्रसाद के लिए कविताओं से अधिक महत्व और किसी चीज का नहीं है कि जिस तरह प्रेम करने की परिकल्पना उसके जेहन में बचपन से घर जमाए हुई थी या जिस तरह की बातें फिल्मों ने सिखाया था, वह यहां फलीभूत होती नहीं दिख रही थी. साथ के कुछ वक्त गंवाने के बाद ही वह सोचने लगी थी कि जब तक संबंध चल रहा है चलने देते हैं, इस आदमी के साथ पूरी जिंदगी तो काटनी है नहीं.

एकदम स्ट्रेट कट बात यही थी.

और भी संक्षेप में कहें तो एक दिन लड़की ने संकल्प प्रसाद को अपने घर पर आने का न्योता दिया. वे जब उसके घर पहुंचे तो लड़की घर में अकेली थी, जबकि लड़की के कथनानुसार कम से कम उसकी मां को वहां जरूर होना चाहिए था.

तिसपर लड़की घर में एक ऐसे पोशाक में थी कि उसे देखकर किसी भी लड़के की नसों में हरक्कत होने लगे. लेकिन संकल्प प्रसाद हमेशा की तरह निरपेक्ष थे. वे उस लड़की से कहना चाहते थे कि ठीक उसके एक दिन पहले उनके सपने में एक पिचके गालों वाला अधेड़ आया था जिसकी शक्ल हू-ब-हू मुक्तिबोध जैसी लगती थी और जिनसे वे देर तक ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान पर बात करते रहे थे. हां, यह भी कि उस अधेड़ ने उन्हे बीड़ी  ऑफर किया था जिसे कुछ संकोच के बाद उन्होंने स्वीकार कर लिया था.

लेकिन वे लड़की से कुछ न कह सके. उन्हें उसकी वह हंसी याद आ गई थी जब उन्होंने हिटलर के सपने में आने की बात कही थी तब उस लड़की के चेहरे पर स्थायी भाव की तरह चिपक गई थी.

तो लड़की के घर में सबसे पहले उन्होंने दीवार पर लगी तस्वीरें देखीं. किसकी तस्वीरें हैं, यह मुआयना किया. दिवार पर एक जगह गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की तस्वीर थी जिसके बगल में विवेकानंद योगमुद्रा में बैठे हुए दिख रहे थे. उन्होने तस्वीर को मन ही मन प्रणाम किया और फिर किताबों की रेक की ओर चले गए और किताबों की भीड़ में खो गए. समरेश बसु की एक किताब कोथाय पाबो तारे उनके हाथ में थी.
वे उस किताब के पन्ने पलटने लगे.

लड़की चुपचाप उनकी यह सारी हरक्कतें देख रही थीं. लड़की को सामने देखते ही उन्होने ऐसे कहा जैसे अगर वे अभी इस बात को नहीं कहेंगे तो उनका दम कहीं अटक जाएगा- अरे यह किताब मैं पता नहीं कितने दिन से ढूंढ रहा था, इसे तुमने रखा है, मुझे बताया नहीं? और आवेश में किताब पकड़े हुए वह लड़की के पास चले गये. लड़की कुछ और ही सोच में थी. उसने संकल्प प्रसाद की गर्दन पर हथेलिया ले जाकर उनके चेहरे को झुका दिया और उनके होंठ संकल्प की होठों से खेलने लगे.

पहले तो संकल्प प्रसाद ने छूटने की कोशिश की लेकिन कुछ ही क्षण बाद उनके हाथ से किताब छूटकर जमीन पर गिर गई और पूरे घर में अंधेरा फैल गया. फिल्मों की भाषा का इस्तेमाल करें तो एक फूल पर एक भ्रमर बैठा फूल के रस चूसने लगा कि दूध से भरा एक कांच का गिलास टेबल से छलककर फर्श पर आ गिरा और दूध की धार पूरे कमरे की फर्श पर फैल कर बह गई.

रघु राय 


( बात - पांच )

दृश्य बदलने के बाद संकल्प प्रसाद को ग्लानि का बोध हुआ होगा. लड़की चुप-चाप च्विंगम चबाए जा रही होगी. संकल्प के ग्लानि से भरे लिजलिजे चेहरे को देखकर लड़की ने दार्शनिक अंदाज में उनके पुराने खयालात के होने की धज्जियां उड़ाई होंगी और इस घटना को बड़े शहर में होनेवाली छोटी घटना कहकर हल्के-से मुस्करा दिया होगा.

हो सकता है उसने यह भी कहा हो कि मैं तुमसे ज्यादा प्यार करती हूं क्योंकि मैंने तुम्हे अपना सबकुछ बिना किसी संकोच दे दिया है. तन और मन दोनों जब मिलते हैं तो प्यार पूर्ण होता है. मैंने अपना कर्तव्य निभाया है, प्रेम का कर्तव्य, जो मैं जानती हूं. मैं चाहूंगी कि हमारा प्यार बना रहे, अगर तुम चाहो तो हम कांटिन्यु कर सकते हैं और अगर न चाहो तो.....

बाकी की बातें शब्दों की जगह उसने आंखों से कही होगी, या अपने हाव-भाव या हरकतों से. उसके बाद उन्हें प्रेम से विरक्ति-सा कुछ हुआ होगा. वे उसके तत्काल बाद गुरूदेव और स्वामीजी की तस्वीर के समाने खड़े न रह सके होंगे. और उस दिन जैसे वहां से वे पराजय, घृणा, अपराध और ग्लानि का बोध लेकर लौटे होंगे.

जाहिर है कि बहुत दिनों तक कविता से वे दूर रहने के बाद रिश्तों की कड़वाहट की कविताएं लिखने लगे होंगे. फिर उनके जेहन में यह बात जरूर उठी होगी कि अब बहुत हो चुकी कविताएं, और बहुत समय तक वे विरक्त भाव से इधर-उधर घूमते भटकते रहे होंगे. दफ्तर के काम में भी उनका मन लगना कम हुआ होगा और यही वह समय रहा होगा जब वे याहू मैसेंजर और फेसबुक की आभासी दुनिया में चले गए होंगे. इन्हीं कुछ समयों के दौरान उन्हें रजिस्ट्रार की वार्निंग भी मिली होगी.

लेकिन शादी के बाद जब वे अपनी पत्नी के करीब आना शुरू हुए होंगे तो कविता से भी उनकी करीबी बढ़ती गई होगी, लेकिन दफ्तर का काम सुचारू न हो सका होगा. लेकिन जब पत्नी ने कविताओं के प्रति उनके प्रेम को झगड़ा और कलह का मुद्दा बनाया होगा, तब फिर से उनके सपने में रवि ठाकुर और लालन फकीर आना शुरू हुए होंगे. जब घर और दफ्तर दोनों ही जगहों पर कविता के लिए कोई अवकाश न रह गया होगा तभी दफ्तर की फाइलें उन्हें तरह-तरह की शक्लों में ढलती दिखने लगी होंगी और रजिस्ट्रार से बार-बार इस्तीफे की मांग लेकर उसके सामने वे नीरिह से खड़े दिखने लगे होंगे.

और यह कुछ-कुछ वही समय रहा होगा जब उस लड़की के अलावा और लोगों के उनके सपने में आने की बारंबारता बढ़ गई होगी. और वे कविता या किताबों से होते हुए एक दूसरी ही दुनिया में चले गए होंगे.



( बात - छः )

जो भी हो तो इस प्रेम कथा को ऐसे ही खत्म होना था. सिर्फ खत्म ही नहीं होना था इसे संकल्प प्रसाद के मन में प्रेम के प्रति एक तरह की वितृष्णा का भाव भी भरना था.  जैसा कि कहा गया है कि उसके बाद बहुत दिनों तक संकल्प प्रसाद ने कोई कविता नहीं लिखी. या लिखी भी होगी तो उसमें प्रेम के प्रति एक विरक्ति का भाव जरूर रहा होगा.  

पिता परेशान थे रिश्तेदारों को जवाब देते-देते. लड़का सरकारी नौकरी कर रहा है, शादी क्यों नहीं करते. पिता को एक अच्छी-और पढ़ी लिखी लड़की की तलाश थी. लेकिन संकल्प प्रसाद को कोई मतलब नहीं था पिता के इन बातों से. उन्हें जो प्रेम जैसा कुछ हुआ था वह सबकुछ नष्ट जैसा कर के चला गया था.

उन्हें रात में उस लड़की के सपने आते थे जिसका नाम रचना ताल्लुकदार था. यह अजीब ही था कि वह लड़की उनके सपने में जब भी आती, उसके शरीर पर वस्त्र नहीं होते थे. संकल्प प्रसाद उससे बहुत कुछ कहना चाहते लेकिन उसके करीब नहीं जा पाते थे, उन्हें लगता था कि उस लड़की के शरीर से आग की असंख्य ज्वालाएं निकल रही हैं. एक तो लड़की वस्त्रहीन होती. और कामुक अंदाज में उन्हें आमंत्रण देती. वह एक पेड़ के नीचे खड़ी होती और पेड़ से पत्तियों की जगह कागज की चिन्दियां झरतीं, और जिन चिंदियों पर संकल्प प्रसाद की लिखी कविताओं के अधूरे शब्द-वाक्य और बिम्ब होते. वह भय और चीख के साथ भागना शुरू करते थे और किसी विशाल पेड़ की डाल से टकरा जाते. ऐसे में एक दूबला-पतला पिचके गालों वाला आदमी उन्हें सहारे के लिए वहां खड़ा मिलता. उनकी हांफती हुई देह के संयत होने तक वह उनका इंतजार करता और एक बीड़ी उनके सामने कर देता. वे बदहवासी से लौटने के लिए बीड़ी के सूट्टे मारना शुरू कर देते. वह आदमी अंधेरे में कविता के नायक की तरह लगता और उसकी शक्ल कुछ-कुछ मुक्तिबोध से मिलती-जुलती होती. वह आदमी भयंकर तनाव में दिखता और उसके ललाट की नशें नीली शक्ल में बाहर की ओर उभरी हुई होतीं.

बीड़ी खत्म होने के पहले ही वह बहुत गंभीर आवाज में कहना शुरू करता भूल जाओ यह प्रेम. कविता को भी भूल जाओ. देखो मैंने इतने समय तक कविताएं लिखीं. कविताओं को अपनी छाती पर लिए घूमता रहा. मैंने कविता लिखी ही नहीं, बल्कि उसे जीने की कोशिश करता रहा. लेकिन जानते हो मेरे पास अब भी पराजय की एक पीड़ा है. आज मैं सोचता हूं कि मैंने कविताएं न लिखी होतीं. आत्महत्या कर रहे किसानों के पास अन्न पहुंचा पाता. कर्ज माफ करने और अपनी जमीन बचाने के उनके आंदोलन में सबसे आगे खड़ा हो पाता. काश की मेरी मौत किसी टॉयलेट में न हुई होती, मैं इस अभागे देश की बेहतरी के लिए आंदोलन की सूली पर चढ़ गया होता, तो शायद मैं तुम्हारे सपने में नहीं आता. अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया.. हे मेरे संकल्प. तुम मेरे वही संकल्प हो जो पूरा न हो सका. क्या तुम...लड़ रहे हो उसी के लिए..कि लड़ोगे... .

धीरे-धीरे उस बूढ़े की आवाज तेज होती जाती, अंधेरा और अधिक गहरा होता जाता. उस गहन अंधेरे में बीड़ी के धुएं के बीच उस अधेड़ की छवि धूमिल होती जा रही होती. वे उसे पकड़ कर रोना चाहते, लेकिन छवि कि धीरे-धीरे धुंआ होती चली जाती. वे बेतहासा उस छवि को ओर दौड़ते पर उनकी नींद खुल जाती और उनका शरीर पसीने से भीगा होता. शुरू दिनों में वे समझ नहीं पाते कि पिचके गालों वाला वह आदमी बार-बार उनके पास क्यों आता है और उन्हें कविता और प्रेम से दूर कहीं और क्यों ले जाना चाहता है. उनके सपने में हलांकि और कई लोग आते थे, लेकिन उसके आने की आवृति कुछ समय से बढ़ती जा रही थी. लेकिन उसका आना उन्हें अच्छा लगता था.

और सपने और यथार्थ की पीड़ा के बीच इस तरह उनकी एक दिन शादी हो गई थी, और कुछ समय गुजरने के बाद एक दिन उन्हे वह औरत जो उनकी पत्नी थी, अच्छी लगने लगी थी और कि एक दिन बच्चा भी हो गया था. और संकल्प प्रसाद एक परिवार वाले हो गए थे. पत्नी के आने के बाद उस लड़की की, जिसका नाम उनके लिए रचना हुआ करता था,  स्मृतियां धुंधली हो गई थीं. या कम्प्युटर की भाषा में रिसायकिलबिन में कहीं चली गई थीं. लेकिन जब कभी पत्नी से उनका झगड़ा होता, वह लड़की सपने में आकर उन्हें परेशान करने लगतीं. जब वह चली जाती तो वह अधेड़ आदमी आता, और उन्हें बीड़ी पिलाकार और कोई दार्शनिक बात कहकर गायब हो जाता.



( बात - सात )

शुरू दिनों में पत्नी से उनकी कोई बात नहीं होती. अक्सर देर रात तक जब संकल्प प्रसाद उससे कहते कि अब मैं फिर से अपनी रचनात्मकता की ओर अग्रसर होना चाहता हूं तो वह उन्हें आलू और प्याज की मंहगाई की बात समझाने लगती. कई-कई रातों के बाद जब एक रात संकल्प को अपनी पत्नी बहुत सुंदर लगी तो उसी रात मोबाईल की टार्च की रोशनी में उन्होने एक कविता लिखी. वह कविता भी एक प्रेम कविता थी और जाहिरा तौर पर उसमें तुम कितनी सुंदर हो, और तुम एक नदी हो और मैं एक समुद्र हूं जैसी कोई बात थी जिसका सीधा-सीधा मतलब यह निकलता था कि उनकी कभी सुंदर न लगने वाली पत्नी उन्हें अच्छी लगने लगी थी. कि वे अब उसे छूना चाहते थे. कविता पूरी होने के बाद संकल्प प्रसाद देर तक कुछ सोचते हुए से कमरे में टहलते रहे. बालकॉनी में जाकर सूनी सड़क का मुयायना कर आए. सड़क पर उन्हें एक कुत्ता सोया हुआ दिखा, लैंप पोस्ट के नीचे वह भिखारी भी, जिसे घर से निकलते समय वे रोज ही एक अठन्नी दे दिया करते थे.

बहुत देर के जगरम के बाद वे पत्नी के तकिए पास आए. एक बार मुयायना किया कि वह सो रही है कि जाग रही है. कई-कई बार वे तकिए के पास गए और हाथ की लिखी कविता को हाथ में लिए ही वापस लौट गए. कई बार सोचने के बाद भी वे उस कविता को तकिए के नीचे नहीं रख पाए.

उस रात वे ठीक से सो नहीं पाए. जब कभी उनकी आंख लगती वह अधेड़ आदमी कभी तो कलाकार की व्यक्तिगत इमानदारी के बारे में भाषण देता हुआ दिखता और कभी कोई ऐसी कविता सुनाने लगता जिसमें वह खुद आंदोलनों में शामिल होना चाहता लेकिन हो न पाने की पीड़ा में छटपटाता. कुछ लोग उसे पकड़कर किसी अस्पलाल में ले जाते और उसके दिमाग को खोलकर देखना चाहते कि आखिर वह कौन सी दिमागी तंतु है, जहां कविता पैदा होती है. कविता में कभी वह रोड पर बेतहासा भागता दिखता और कुछ दबंग किस्म के लोग उसका पीछा करते हुए दिखते. कई बार उन्हें ऐसा भी लगता कि यह सारी चीजें उस अधेड़ आदमी के साथ नहीं बल्कि उन्हीं के साथ घटित हो रही हैं, वे विस्तर पर सोए हुए छटपटाने लगते या कभी कोई कविता मंत्र की तरह बुदबुदाने लगते. पत्नी यह सब देखकर हैरान होती रहती. उसे हमेशा ही लगता कि जरूर इनके साथ कुछ हो रहा है, लेकिन क्या वह ठीक तरह से समझ नहीं पाती.

सुबह उठकर ठीक समय से सारे काम निपटाकर वे दफ्तर की ओर गए.

दफ्तर जाने के लिए ट्रेन पकड़नी होती.

ट्रेन अगर लेट होती तो उसका इंतजार करना पड़ता. उस दिन भी ट्रेन थोड़ी लेट थी. प्लेटफॉर्म पर एक मदारी बंदर का नाच दिखा रहा था. डमरू की आवाज, बांसुरी की सनसनाहट के बीच बंदर की लयबद्ध चाल देखकर वे मोहित हो गए. बंदरिया रूठी बैठी थी और बंदर तरह-तरह के मुंह बनाकर उसे मना रहा था. जब कई उपाय करने के बाद भी वह नहीं मानी तो मदारी ने एक विरह का गीत गाना शुरू किया और बंदर उस गीत पर ऐसे अभिनय करने लगा जैसे किसी फिल्म का हीरो करता है. बंदरिया इस बार पिघल गई और बंदर के पास आकर वह भी नाचने लगी. संकल्प प्रसाद एकटक यब सब देखे जा रहे थे. उन्हें लगा कि यह तो साक्षात कविता है.  

ट्रेन आकर चली गई. वे प्लेटफार्म पर ही खड़े रहे. मदारी नाच दिखाकर जा चुका था. लेकिन नाच या कि कविता उनके दिमाग में ठहर गई थी. वे पता नहीं कितने समय से कविता लिखते आ रहे थे, लेकिन ऐसी कविता उन्होंने पहले कभी नहीं लिखी थी, जिसे वे अपने दिमाग पर महसूस कर रहे थे. प्लेटफार्म खाली था. आचानक उन्हें लगा कि उनकी पत्नी अनुपमा उनके सामने खड़ी है, और वह सचमुच बहुत सुंदर दिख रही है. वे उस बंदर की तरह नाचने की कोशिश करने लगे, लेकिन बात बन नहीं रही थी. एक बार फिर उन्होंने कोशिश की, पैरों को समेटा लेकिन नृत्य की मुद्रा में आने के पहले ही जमीन पर आ गिरे. उनके पैर में मोच आ गई. यह सब देखकर पत्नी ने जोर का एक ठहाका लगाया और हवा में अदृश्य हो गई.

और बहुत देर बाद उस दिन वे लंगड़ाते हुए दफ्तर नहीं, घर पहुंचे.

आज इतनी जल्दी कैसे आ गए पत्नी ने पूछा.
एक कविता लिखने की कोशिश कर रहा था, तो पैरों में मोच आ गई. - वे लंगड़ाते हुए गुसलखाने की ओर चले गए.

पत्नी पूछना चाहती कि कविता हाथ से लिख रहे थे तो पैर में कैसे मोच आ गई और वे कहना चाहते कि दरअसल वह जो कविता लिखना चाह रहे थे उसमें हाथ के साथ पैर की भी जरूरत पड़ती है.

लेकिन पत्नी कुछ नहीं कहती. बस देखती और सोचती रहती. उसे लगता कि अधिक किताबें पढ़ने के कारण संकल्प प्रसाद का दिमाग सनकता जा रहा है. वह मन ही मन किसी उपाय के बारे में सोचने लगती.

 उसी रात उन्होंने अपनी पत्नी से एक बात कही

सुनो तुम्हारा नाम कविता है.
नहीं मेरा नाम कविता नहीं अनुपमा है.
नहीं, मेरा कहने का मतलब यह कि आज से तुम्हारा नाम कविता है.
क्या अनुपमा नाम अच्छा नहीं है?
अच्छा क्यों नहीं है, लेकिन कविता ज्यादा अच्छा है.
क्यों अच्छा है
अच्छा है बस.अच्छा होने का कोई तर्क नहीं होता.
तुम कविता हो. मैं कविता लिखता हूं. मुझे कविता से प्यार है.
कविता से प्यार है, मुझसे नहीं ?
तुमसे है, तुम्हारा नाम कविता है.
अच्छा...
मैं कविताएं लिखता हूं. तुम्हारे लिए भी लिखूंगा.

पत्नी मान गई. संकल्प प्रसाद ने वह कविता जो उसके लिए लिखी थी उसके हाथों पर ऱख दिया. पत्नी को कविता की उतनी समझ नहीं थी लेकिन वह संकल्प प्रसाद की भावनाओं को कुछ-कुछ समझ रही थी.

लेकिन बाद के दिनों में उसे लगने लगा कि संकल्प प्रसाद घर की बातों से ज्यादा कविता की बात करते.किसी किताब के बारे में उसे पता नहीं क्या-क्या समझाते रहते. वह कहना चाहती कि पड़ोस की मिसेज भट्टाचार्या का घर बिल्कुल टी.वी. में दिखने वाले घरों की तरह सजा हुआ है. वह चाहती कि संकल्प प्रसाद उसे किसी शोपिंग मॉल में लेकर जाएं. और चिमनी (एक रेस्टुरेंट का नाम) में बैठकर वे दोनों एक ही एग-रोल को बारी-बारी से खाएं और देर रात तक सड़क के किनारे पैदल चलते रहें. और उनके बीच कभी न खत्म होने वाली बात हो जिसका हर सिरा प्यार से शुरू होकर प्यार पर ही खत्म हो.  हाल ही में घर से थोड़ी दूरी पर ही बिग बाजार खुला था. आस-पास के सारे लोग वहां घूम-फिर आते थे और बीच-बीच में दौरा कर आया करते थे लेकिन पत्नी या जिसे संकल्प प्रसाद कविता कहते, वह घर में बैठी रहती. कभी पिता को चाय की जरूरत होती तो दे देती. बच्चे की पॉटी और घर भर के सारे चिकट साफ करती. मां को दवाइयां खिला देती. और संकल्प प्रसाद के घर आने का इंतजार करती. यह तब की बात है जब संकल्प प्रसाद और अनुपमा यानि कविता के बीच प्रेम जैसा कुछ हो चुका था और वे परिवार वाले भी बन गए थे. और फिर से कविताएं लिखने लगे थे, फिर से किताबों की दुनिया में उनकी आवा-जाही बढ़ गई थी. इस प्रेम ने उन्हें और जोर-शोर से कविता की दुनिया में पहुंचा दिया था.

एक रात पत्नी की जब नींद खुली तो उसने देखा कि संकल्प प्रसाद बिस्तर पर नहीं है. कम्प्युटर रूम में होंगे, यह सोचकर वह वहां गई. वे वहां भी नहीं थे. सारा घर खोज लेने के बाद उसने यूं ही नीचे की ओर देखा. वह देखकर हैरान रह गई. संकल्प प्रसाद नीचे थे. भिखारी चुपचाप सो रहा था और संकल्प प्रसाद उसके सिरहाने बैठे उसका माथा सहला रहे थे. साथ में वे कुछ बोल भी रहे थे लेकिन उनकी आवाज साफ-साफ सुनाई नहीं पड़ रही थी. पत्नी बूरी तरह से डर गई. वह तुरंत भगती हुई नीचे गई. वे उसके आने से निरपेक्ष उस भिखारी का सिर दबाते रहे.

पागल हो गए हो क्या? इतनी रात को यह क्या कर रहे हो. -  पत्नी ने दबी हुई सी आवाज में उन्हें डांटते हुए कहा.
उन्होंने एक बार पत्नी की ओर देखा और अपने काम में रम गए.
पत्नी से सहन नहीं हुआ तो एक दो बार की आवाज के बाद वह उन्हें झंझो़ड़ने लगी. लेकिन संकल्प प्रसाद जैसे गहरी नींद में थे.
उस रात वह किसी तरह उन्हें उपर तक ले आयी. संकल्प प्रसाद जैसे गहरी नींद में याकि बेहोशी में थे. पत्नी उसके बाद रात-भर जागती रही. संकल्प प्रसाद पता नहीं क्या-क्या बड़बड़ाते रहे, शायद सोते हुए कि शायद जागते हुए.


सुबह पत्नी ने पूछा कल रात तुम नीचे क्यों चले गए थे?
संकल्प प्रसाद को सांप सुंघ गया मैं तो रात भर यहीं सो रहा था. मैं नीचे तो नहीं गया था.
दरअसल उन्हे पता था कि सपने में उस अधेड़ आदमी ने जिसकी शक्ल मुक्तिबोध के अंधेरे मे के नायक से मिलती जुलती थी, आकर यह बताया था कि तुम कविताएं लिख रहे हो और तुम्हारे घर के पास में पड़ा एक भिखारी बुखार से तप रहा है. तुम कवि हो कि क्या हो? कविता लिखने से कुछ नहीं होगा पाटनर !! सड़क पर उतरो . और वह अचानक जोर-जोर से दुहराने लगा अब अभिव्यक्ति के खतरे......

सुबह तो वह ठीक था. मुझे याद है रोज की तरह जब मैंने उसे एक अठन्नी दिए थे तो वह मुस्कुराया था, हां यह जरूर है कि आज की उसकी मुस्कुराहट में एक गहरी पीड़ा थी.
तुम चलो मेरे साथ.
कहां संकल्प प्रसाद को कुछ समझ में नहीं आया.
कम ऑन पाटनर फालो मी उस अधेड़ ने गंभीर आवाज में कहा था और कुछ ही देर बाद संकल्प प्रसाद उस बूढ़े के साथ नीचे स्ट्रीट में थे.

इसके सिर में बहुत दर्द है. देखो इसे तेज बुखार है. - पिचके गालों वाला अधेड़ बहुत परेशान था.
संकल्प प्रसाद ने उस भिखारी का सिर छूकर देखा. उसे सचमुच बुखार था. उसके सिर के नीचे एक पोटली थी जिसपर सिर लगाए वह सो रहा था. पिचके गालों वाले अधेड़ ने बीड़ी निकाल ली और सड़ासड़ सूट्टे मारने लगा. संकल्प प्रसाद भिखारी का सिर सहलाने लगे.
कविता लिखने से ज्यादा जरूरी काम है यह पार्टनर. पिचके गालों वाला अधेड़ बीड़ी पिए जा रहा था.
इसका शरीर कांप रहा है. इसके सिर के नीचे यह क्या है. यह इतनी बड़ी पोटली अपने सिर के नीचे क्यों रखे हुए है. - संकल्प प्रसाद बीड़ी पीते हुए हैरान-परेशान पिचके गालों वाले उस अधेड़ को देख रहे थे.

वह भी पता चल जाएगा, यह इसी देश का एक नागरिक है. इसकी गठरी के नीचे इसका दुख है पाटनर. तुम्हें एक दिन एक जगह ले चलूंगा पाटनर. तुम बड़े मासूम हो इसलिए तुम्हारे पास आना मुझे अच्छा लगता है. - संकल्प प्रसाद भिखारी का सिर सहलाते रहे.

हो सकता है इसी बीच उनकी पत्नी आई हो. पत्नी को देखकर पिचके गालों वाला अधेड़ कहीं गायब हो गया था.

वह सबकुछ जान तो नहीं गई- यह सोचकर वे डर गए. उनके सपने में इस तरह होता है की बात सिर्फ रजिस्ट्रार जानता था. लेकिन पत्नी जान जाएगी तो हो सकता है वह भूत-प्रेत का चक्कर समझ कर किसी तांत्रिक के पास चली जाए. फिर एक नए उलझन में संकल्प प्रसाद नहीं पड़ना चाहते थे.
किसलिए गए थे नीचे पत्नी ने इस बार लगभग चीखते हुए कहा था.
संकल्प प्रसाद बिना कुछ बोले कमरे से बाहर आ गए. उसके बाद पत्नी ने पता नहीं क्या-क्या कहना शुरू किया था. पता नहीं कितने जोर-जोर से चिल्ला रही थी और अंत में जोर-जोर से रोने भी लगी थी. संकल्प उसे चुप कराना चाहते थे लेकिन उन्होने वैसा नहीं किया. वे लागातार उस बूढ़े की बीमारी और पिचके गालों वाले अधेड़ की बातों के बारे में सोचते रहे. उन्हें लगा कि वे कहां किन लोगों के बीच फंसे हुए हैं. उन्हें लग रहा था वे जहां हैं वहां उन्हें सचमुच नहीं होना चाहिए था. वे उस समय वास्तव में खुद को डिप्रेस्ड अनुभव कर रहे थे.
वे कई बार उसके सवालों के सामने ऐसे ही चुप रहते.
उनकी चुप्पी के बरक्श वह कई बार इसी तरह चिखती. रोती.  



( बात - आठ )

सर, अब सहन नहीं होता. इस बार मुझे मत रोकिए. अब तो मेरे सपने में टैगोर की छाया आने लगी है. वह बहुत दुखी हैं और मुझे अपने पास बुला रहे हैं. - संकल्प प्रसाद फिर से रजिस्ट्रार के सामने खड़े थे.
क्या हो गया है, आपको?  आप किसी अच्छे फिजिशियन से सलाह लिजिए. ऐसे कब तक चलेगा. - रजिस्ट्रार सोच में पड़ गया.
संकल्प प्रसाद चुपचाप खड़े थे निरीह-से, जैसे कोई छोटा बच्चा होता है. महादेव कॉफी और पानी का ग्लास रखकर चला गया था.

नहीं सर, मैं जानता हूं मैं एकदम नॉर्मल हूं. दफ्तर की फाइलों के बीच जब मैं बैठा रहता हूं तो फाइलें चहल कदमी करने लगती हैं. एक फाईल लालन फकीर की शक्ल में बदल जाती है और गाना शुरू करती है, जलेर उपर पानी ना पानी उपर जल..बोल खुदा..बोल खुदा... गाते-गाते लालन फकीर की शक्लवाली फाईल एक ऐसे आदमी की शक्ल में बदल जाती है जिसका चेहरा विकृत है और उसका पूरा शरीर खून से लथपथ. उसके हाथ में एक मशीन गन है, जो वह मेरी ओर ताने खड़ा है. मैं सच कह रहा हूं सर आप यकीन कीजिए.  और जानते हैं सर एक दिन तो हद ही हो गई. एक दिन एक फाईल एक चिरकूट बूढ़े की शक्ल में ढल गई, और मुझसे पानी मांगने लगी. मैं अपने गिलास से उसको पानी देने के लिए उठा. मुझे लगा कि मैं उस बूढ़े को पहचानता हूं. हां, मैं उस बूढ़े को पहचानता हूं वह मेरे बिल्डिंग के नीचे रहता है. उसे रोज मैं एक अठन्नी देकर आता हूं. आप जानते हैं कि वह अपने तकिए पास अपना दुख लेकर सोता है, यह बात मुझे.. नहीं रहने दिजिए.

संकल्प प्रसाद एक ही सांस में बेतरह बोलते जा रहे थे. वे अपनी बात को शिद्दत से सच साबित करना चाहते थे.

तो सर मैंने उस बूढ़े को पानी दिया भी. लेकिन गिलास अचानक फर्श पर आ गिरा और मैं अबाक देखता रहा. सारा पानी टेबल की फाइलों को भिगा चुका था, और जगत बाबू मेरे पास खड़े कुछ कह रहे थे. महादेव ने कहा कि आपकी तबियत ठीक नहीं आप आज घर चले जाइए और आराम कीजिए... लेकिन आप जानते हैं कि मेरी तबियत खराब नहीं है. मैं बिल्कुल ठीक हूं. मैं समझ गया हूं कि यह दुनिया मेरे लिए नहीं है. मैं कहीं और जाना चाहता हूं. वे वहीं ले जाने के लिए मेरे पास आते हैं. वह पिचके गालों वाला अधेड़ कल मेरे सपने में आया था, और मुझे कहीं ले जाने को कह रहा था.

रजिस्ट्रार को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. वह कई जगहों पर काम कर चुका था लेकिन ऐसे किसी आदमी से उसकी मुलाकात नहीं हुई थी. वह एक आम इंसान था, जिसके लिए नौकरी घर-परिवार और हर माह मिलने वाला वेतन बहुत महत्वपूर्ण था. उसे लगा कि संकल्प प्रसाद पागल हो चुके हैं. उनका दिमाग खराब होता जा रहा है और अब उन्हें किसी मनोचिकित्सक से इलाज की जरूरत है. ठीक है आपकी बात मैं समझ रहा हूं. आप घर जाइए और आराम कीजिए. मैं कुछ करता हूं. - रजिस्ट्रार के पास फिलवक्त कहने के लिए और कुछ नहीं था.


संकल्प प्रसाद दफ्तर से बाहर चले आए. वे जानते थे कि पत्नी से कहने का कोई मतलब नहीं है. वह सुनते ही किसी ओझा या तांत्रिक के पास ले जाएगी. तांत्रिक जरूर किसी न किसी भूत-प्रेत का चक्कर निकाल लेगा. याकि थोड़ी देर के लिए वह डर जाएगी और भगवान के सामने अपने नसीब का रोना रोएगी कि हाय यह क्या हो गया. संकल्प प्रसाद के इस अवस्था में चले जाने से उसका भविष्य असुरक्षित दिखने लगेगा. या हमेशा की तरह चिखने की हद तक चिखेगी या देर तक अपने नसीब या संकल्प प्रसाद की कविताओं किताबों को कोसती-रोती रहेगी.

सबसे भयानक तो यह होगा कि फिर से वह उनकी किताबें और अधिक सुरक्षित जगहों पर रख देने की असफल कोशिश करेगी. किताब के पन्ने तक को सात दरवाजे के भीतर बंद कर देना चाहेगी. जहां वे पहुंच न पाएं. वह यकीन कर लेगी कि यह सब किताबों के कारण ही हो रहा है. नहीं किताबों के कारण नहीं, कविता लिखने के कारण भी नहीं. संकल्प प्रसाद के सनकी व्यवहार के कारण. वह मेरे सपनों की बात कुछ-कुछ समझने लगी है उन्होंने सोचा.
(पाठक नोट करें कि वह यह कोशिश पहले भी कर चुकी थी.)

रघु राय 


बात नौ )

यह लगभग आखिरी बात ही है. दफ्तर में जिस दिन संकल्प प्रसाद रजिस्ट्रार से अपना इस्तीफा मंजूर कर लेने की बात कह रहे थे. उसके दूसरे दिन सुबह का एक वाकया है.

संकल्प प्रसाद दफ्तर की ओर जा रहे थे. कहा गया है कि वे दफ्तर ट्रेन से जाते. ट्रेन में एक स्टेशन दक्षिणेश्वर पड़ता था. आप जानते हैं कि दक्षिणेश्वर में मां काली का एक मंदिर है. और विश्वास करने वाले विश्वास करते हैं कि यहीं रामकृष्ण परमहंस तपस्या किया करते थे. इसी मंदिर में एक दिन रामकृष्ण परमहंस से मिलने एक नास्तिक लड़का आया था जिसका नाम नरेन्द्र था. यह वही नरेन्द्र था जिसकी जिद पर परहमहंस ने उसे मां काली के दर्शन कराए थे. ऐसा विश्वास है कि परमहंस ने नरेन्द्र के माथे पर अपने पैर का अंगूठा रख दिया था और नरेन्द्र एक अजीब दुनिया में चले गए थे. अब उस समय उन्हें मां काली के दर्शन हुए थे या नहीं इस बारे में निश्चित होकर कुछ भी कहना बहुत कठिन है. बाद में चलकर वही नरेन्द्र स्वामी विवेकानंद के रूप में प्रसिद्ध हुआ था. यह एक ऐसी बात है जिसे लगभग सब लोग जानते हैं, कम से कम बंगभूमि में तो निश्चय ही और यह बताने की बात नहीं. दफ्तर जाते समय लगभग रोज ही वे उस स्टेशन से गुजरते. ट्रेन नदी पर बने एक पुल से गुजरती. पुल से सटे घाट पर ही काली मंदिर का कंगूरा दिखता.
  
लेकिन संकल्प प्रसाद कभी उस मंदिर तक नहीं गए थे.

उस दिन दफ्तर जाते समय दक्षिणेश्वर स्टेशन पर ट्रेन कुछ अधिक देर तक रूकी हुई थी, ठसाठस लोगों से भरी हुई. एक दूसरे से गुथ्मगुथ्था लोग पता नहीं किन खत्म न होने वाली बातों में मशगूल थे. कुछ लोग ताश खेल रहे थे. कोई एक चिल्ला-चिल्लाकर बांग्ला में एक गीत गा रहा था, शायद सतिनाथ मुखोपाध्याय का कोई एक गीत जे दिन रबो ना आमि आसिबो ना कौनो छले (जिस दिन मैं रहूंगा नहीं और किसी भी तरह से लौट नहीं पाऊंगा तो तुम मेरी शून्य समाधि को फूलों के दल से ढक देना). अचानक संकल्प प्रसाद ने देखा कि सामने खड़ा वही पिचके गालों वाला अधेड़ मुस्करा रहा है, जिसकी शक्ल मुक्तिबोध से मिलती थी. उन्होने कभी उसको मुस्कुराते हुए नहीं देखा था. उसकी मुस्कुराहट में भी एक गहन तनाव था. वह संकल्प प्रसाद को जैसे अपनी तनाव भरी हंसी की मार्फत बुला रहा था.

संकल्प प्रसाद दक्षिणेश्वर स्टेशन पर उतर गए.

पिचके गालों वाला अधेड़ बीड़ी पी रहा था. उसने धोती पहन रखी थी और एक कुरते के उपर खादी का एक पुराना जैकेट था. जैकेट में जगह-जगह छेद हो गया था. उसके कदमों में एक रफ्तार थी.
जरा तेज चलो पाटनर – उसने एक बार पीछे मुड़कर कहा भी. संकल्प प्रसाद कुछ और तेज चलने लगे.

ट्रेन चल चुकी थी. और अपनी रफ्तार में बजती हुई संकल्प प्रसाद के कानों तक पहुंच रही थी. वह एक बार उस अधेड़ से पूछना चाहते थे कि आप मुझे कहां ले जा रहे हैं??
लेकिन वह तेज रफ्तार से आगे बढ़ता जा रहा था.

सामने एक विशाल बरगद का पेड़ था. उसके बाद ही नदी का घाट फैला हुआ था और उसके पार जल का मटमैला विस्तार. वह रूक गया. उसकी बीड़ी खत्म हो चुकी थी. उसने एक बीड़ी निकाल कर संकल्प प्रसाद को दिया और दूसरी खुद जलाकर पीने लगा. वह लगातार किसी सोच में था. जैसे कोई उसके पीछे आ रहा हो, जैसे कुछ लोग उसके पीछे पड़े हों और वह उनकी नजरों से बचता-बचाता फिर रहा हो.

तुम बैठो – बूढ़े ने पास के एक पत्थर की ओर इशारा किया.
संकल्प प्रसाद बैठ गए.
अपनी आंखें बंद करो – पिचके गालों वाले अधेड़ के भाल की नीली नशें और अधिक अभर आई थी.
संकल्प प्रसाद ने अपनी दोनों आंखें बंद कर लीं.
इस बार पिचके गालों वाले अधेड़ ने अपना दायां पैर उपर उठाया और संकल्प प्रसाद के माथे पर अपने पैर का अंगूठा रख दिया. संकल्प प्रसाद की देह में जैसे बिजली का एक झटका लगा था और वे अचेत हो गए.

संकल्प प्रसाद की चेतना जब लौटी तो उन्होने देखा कि आगे-आगे धोती पहने तेज कदमों के साथ वह पिचके गालों वाला बूढ़ा चल रहा था. वह धीमे-धीमें मंत्र की तरह एक कविता बुदबुदा रहा था और रह-रह कर बीड़ी के लंबे सूट्टे मारता था. वे दोनों किसी गांव की पगडंडी पर चल रहे थे. दूर-दूर तक परती और सन्नाटे की मुर्दगी शान्ति छायी हुई थी.
आओ पाटनर. - बूढ़े ने कविता बुदबुदाना रोककर संकल्प प्रसाद की ओर देखा. वे विश्मय से उसके पिचके गालों पर तैरते तनाव को देखते रहे. उसकी आंखे उस समय उन्हें एक गहरी खाई की तरह लगी.
जल्दी चलो – बूढ़े ने आवाज लगाई.

संकल्प प्रसाद को कुछ समझ नहीं आ रहा था. वे जितना समझ पाए वह कि वे किसी गांव की पगडंडी पर चल रहे थे. उस समय बहुत बचपन के उनके अपने गांव की पगडंडी याद आ रही थी. उन्हें याद आया कि उनके बाबा ने पिता से कहा था कि इसे यहां एस गांव में मत रक्खो. यहां यह बुरी संगत में पड़कर बिगड़ रहा है, खेती-बारी कर के गुजारा तो होने से रहा. तुम्हारे साथ रहेगा तो पढ़-लिख लेगा. कहीं एक नौकरी हो जाएगी. गांव में अब क्या रह गया है. पिता कर्ज के बोझ से उबकर बंगाल आ गए थे. यहां मजदूरी करने. और साथ में संकल्प प्रसाद. फिर एक दिन बाबा की मौत हो गई थी. वह मौत थी या आत्महत्या इसके बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं हो सका था. जब तक संकल्प प्रसाद और पिता गांव पहुंचे तब तक बाबा की लाश फूंक दी गई थी. किसी तरह क्रिया कर्म किया गया. खेत अपने न रहे. गांव के मिट्टी का घर अपना न रहा. आखिरी बार पिता माता और छोटे भाई के साथ गांव छोड़ते हुए जो दृश्य बना था, वह अचानक पता नहीं कहां से आज उनके जेहन में गूंजने लगा था.

वे पगडंडी से एक कच्ची सड़क पर आ गए थे. सड़क पर कुछ देर चलने के बाद फिर एक पतली पगडंडी पर वे दोनों उतर गए. सामने एक गांव जैसा कुछ दिख रहा था.

हम कहां जा रहे हैं बाबा? – पहली बार संकल्प प्रसाद ने पिचके गालों वाले अधेड़ से पूछा.
आओ पाटनर - अधेड़ ने बीड़ी का एक लंबा सूट्टा मारा.

कुछ ही देर में गांव उनके बिल्कुल नजदीक था. वे गांव में प्रवेश कर रहे थे. गांव के लगभग सारे घर मिट्टी के बने हुए थे जिनपर फूस के छप्पर बंधे थे. गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था. आदमी तो दूर किसी चिरई-चुरूंग तक की हरक्कत नहीं हो रही थी. वह गांव संकल्प प्रसाद को एक ऐसे गांव की तरह लगा जिसे किसी बहुत बड़े पेंटर की चित्र प्रदर्शनी के एक चित्र में देखा था. वह चित्र उस समय बिल्कुल जर्जर और पुराना हो गया था. कहते हैं कि उस पेंटर को उस चित्र से बहुत प्यार था और चाहे उसकी कोई भी प्रदर्शनी हो, वह चित्र जरूर प्रदर्शित होता था. उस समय उस पेंटर का नाम उन्हें याद नहीं आया लेकिन देखी हुई तस्वीर उनके जेहन में एक बार कौंध गयी.

ये आप मुझे कहां लेकर आए. क्या इस गांव में कोई नहीं रहता. - संकल्प प्रसाद की आंखों में प्रश्नों की एक श्रृंखला-सी उभर आयी थी.
इस बार अधेड़ ने उनकी आंखों में धंसकर देखा और बिना कुछ उत्तर दिए ही आगे की ओर बढ़ गया.

सामने मैदान की तरह खाली जगह थी. वे अब गांव के ठीक बीचोबीच खड़े थे. वहां चारों ओर लोगों की एक भीड़ जमी थी. लोग एक गोलाई में खड़े थे. बूढ़ा तेज कदमों से भीड़ को चीरते हुए बीच में पहुंच गया. संकल्प प्रसाद पीछे थे. भीड़ में हरक्कत हुई. लोग आपस में कुछ खुसर-फुसर करने लगे.

भीड़ के ऐन बीच में एक बूढ़ा सोया हुआ था. सोया हुआ था कि मर गया था. उसकी देह में कोई हरकत नहीं थी. संकल्प प्रसाद को लगा कि इस बूढ़े को वे जानते हैं, उससे कई-कई बार वे मिल चुके हैं. उस बूढ़े के सिर के नीचे बिल्कुल उसी तरह की पोटली थी, जो उस भिखारी के सिर के नीचे हमेशा रहती थी, जिसे दफ्तर जाते समय संकल्प प्रसाद एक आध रूपए दे दिया करते थे. कि जिस बूढ़े को एक दिन बुखार था और एक रात जब उनकी पत्नी और बच्चा घर में बेसुध सोए हुए थे, वे नीचे उतर गए थे और उसका सिर सहलाने लगे थे. हां, यह वही बूढ़ा है जिसके बारे में पिचके गालों वाले अधेड़ ने कहा था – इसकी पोटली के नीचे इसका दुख है.

भीड़ में अधेड़ औरतें थी. बच्चे थे. बूढ़े थे. कोई जवान नहीं था. सबकी आंखों में पराजय और निराशा के गहरे धुएं की परत थी.
पाटनर, आंखें खोलो. मैं इसे साथ लेकर आया हूं. - पिचके गालों वाला अधेड़ हरकतहीन लाश की ओर मुखातिब था. लाश में कुछ हरक्कत हुई. उसकी किंचड़ से सनी आंखे धीरे-धीरे खुल गईं.

भीड़ में खुसफुसाहट की ध्वनि तेज हो गई. कुछ औरतों की सिसकियां साफ सुनी जा सकती थीं. बच्चे बच्चों की तरह नहीं लग रहे थे. वे ऐसे चुप थे कि अचानक वे बड़े और समझदार हो गए थे.
एक बार संकल्प प्रसाद को लगा कि उस भीड़ में उनके माता-पिता भी कहीं खड़े हैं. उनकी पत्नी के जैसी भी कोई औरत दिखी थी, उनके बच्चे की तरह का एक बच्चा भी दिखा था.
फिर वे सब कहीं गुम गए थे.

तुम आ गए. अब मैं सकून से मर सकूंगा. - बूढ़े का गला भर्राया हुआ था. उसकी छाती में जमा वलगम उसकी आवाज को और गंभीर और विकृत किए दे रहा था.

यह गांव नहीं यह तुम्हारा देश है मेरे बेटे.
यह इस देश की जनता है जिसे तुम्हारी जरूरत है.
मैं जीवन भर इनके लिए लिखता रहा. लिखता रहा और अपने लिखे को जीता रहा कि यह देश एक देश की तरह बन जाए.
लेकिन सत्ता की नीतियों ने हर बार मेरे लेखन को पराजित किया.
किसान कर्ज में डूबते गए.
उनकी जमीनों पर सुविधाभोगियों ने कब्जा कर लिया.
मेरे बेटे को पुलिस पकड़ कर ले गई. और एक दिन उसकी लाश मेरे घर आई.
बेटी एक रात घर से लापता हो गई, जो अबतक नहीं लौटी.
इस गांव के सारे बेटों की हत्या कर दी गई.
इस गांव की सारी बेटियां अचानक रात के अंधेरे में कही गायब हो गईं.

संकल्प प्रसाद को समझ में नहीं आ रहा था कि यह बूढ़ा यह सब उन्हें क्यों बता रहा था. उन्होंने गौर किया कि बीड़ी पीते रहने वाला अधेड़ कहीं नहीं दिख रहा था.हमें बचाओ. - एक औरत सिसक रही थी.

अंकल हमें बचाओ. मेरे पापा को पुलिस पकड़ कर ले गई. मेरी मां एक दिन गले में फंदा लगाकर झूल गई. अब मैं कहां जाऊंगा. - एक बच्चा संकल्प प्रसाद के सामने आकर खड़ा हो गया. उस बच्चे की शक्ल उनके अपने बच्चे से हू-ब-हू मिल रही थी.
वे अजीब पेशोपश में थे.
वे जमीन पर लाश की तरह पड़े मरणासन्न बूढ़े के करीब गए.
उसकी शक्ल बिल्कुल लालन फकीर की तरह होती जा रही थी.
उन्होने गौर से देखा तो उन्हें लगा कि नहीं यह तो रवि ठाकुर हैं.

प्रेमचंद, निराला, अवतार सिंह पाश सबके चेहरे एक-एक कर उस बूढ़े की शक्ल पर चिपकते जा रहे थे.  संकल्प प्रसाद निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि आखिर वह बूढ़ा है कौन ?

पार्टनर, क्या सोच रहे हो? – पिचके गालों वाला अधेड़ अचानक कहीं से प्रकट हो गया था.

अचानक बूढ़ा जोर-जोर से रोने लगा. रोता हुआ बूढ़ा बिल्कुल मोहन दास करमचंद गांधी की तरह लग रहा था. और उसके सिर पर एक देश का नक्शा बना हुआ था, जिसके बीच में एक औरत मुकुट पहने तीन रंगो का एक ध्वज लेकर खड़ी थी.

संकल्प प्रसाद स्तब्ध यह सब देख रहे थे. उन्हें लगा कि इतनी पीड़ा से दूर वे आज तक कहां थे. उन्हें खुशी और ग्लानि का बोध एक साथ हो रहा था.

अचानक चारों ओर से रोआरोंहट की आवाज गूंजनी शुरू हो गई.
बूढ़े की सांस थम गई थी.
पार्टनर, क्या सोच रहे हो? – पिचके गालों वाला अधेड़ अचानक कहीं से प्रकट हो गया था.

मैं क्या करूं कि मुझे क्या करना है का भाव लिए वे लागातार उसकी ओर देख रहे थे.

यह तुम्हारा ही गांव है पाटनर.
यह तुम्हारा अपना ही देश है.

यह बूढ़ा कोई और नहीं, यह तुम ही हो. यह मैं ही हूं. यह औरते हैं जिनकी आंख में आंसू के झरने हैं, ये बच्चे हैं जो एक-एक कर थैलेसेमिया की चपेट में आते जा रहे हैं.

इसके सिर के नीचे जो पोटली है, इसमें हमारी तुम्हारी हम सबकी कविताएं और दर्शन हैं, हमारा आज तक का इतिहास और संघर्ष है पाटनर.

उठो, इसकी लाश में शामिल हो जाओ. अपनी सांस इस बूढ़े की देह को अर्पित करो कवि!!

संकल्प प्रसाद पोटली के एक-एक दस्तावेज को निकाल कर देख रहे थे. उसमें तमाम चिट्ठियां और अर्जियां थीं. जो इस देश के लोगों ने इस देश के सत्ताधारियों को लिखे थे. लोकतंत्र की पुरोधाओं के ढेर सारे बयान थे. इतना कुछ एक साथ...

संकल्प प्रसाद ने जो इस्तिफा लिखा था, और जिसे लेकर वे लगभग रोज ही रजिस्ट्रार के कमरे में पहुंच जाया करते थे. वह इस्तिफा भी उस पोटली में उन्हें दिखा था.
किसानों की आत्महत्याओं पर रिपोर्टें थीं. औरतों की सिसकी और मासूम बच्चों की भूख के चित्र थे.
कई कार्टून चित्र थे.

एक चित्र में किसी देश का एक प्रधानमंत्री था, उसके गले में एक पट्टा था और पट्टे की रस्सी को किसी महिला ने पकड़ रखा था.संकल्प प्रसाद हैरान थे. उनकी पूरी देह हवा में बदलती जा रही थी. अचानक उन्हें लगा कि वे शून्य में तब्दील हो चुके हैं और वह शून्य जमीन पर पड़े बूढ़े की लाश में समाहित होती जा रही है.

अचानक जैसे समय बहुत तेजी से भागना शुरू कर देता है. उनके सामने अब तक की सारी किताबें एक-एक कर य़ुवाओं में तब्दील होती जा रही हैं. कविता और वे मिलकर एक हो गए हैं. सबकुछ इतना गझ्झिन कि फर्क करना एकदम असंभव.


( आखिरी बात बिल्कुल साफ..)

उन्हें लगा कि वे एक ऐसे रास्ते पर जा रहे हैं जिसपर आग के लाल-लाल अंगारे बिछे हुए हैं. वे सबसे आगे हैं और उनके पीछे एक हुजूम है जो लागातार शोर-और चीख के बीच कोई नारा लगा रहा है....

सामने लाल कीला दिखाई पड़ता है. भीड़ आगे बढ़ती आ रही है और वे सबसे आगे तेज-तेज कदमों से बढ़ रहे हैं.

उनके एक हाथ में संविधान और दूसरे हाथ में तिरंगा है. भीड़ के हाथ में मशाल है- इतने लोग हैं कि जैसे समंदर का पानी होता है.

शोर और नारों और आगे बढ़ते उस हुजूम के बीच अचानक एक विस्फोट होता है और भीड़ तीतर वितर होने लगती है. मशीन गन की धांय-धांय शुरू होती है, टैंक दौड़ने शुरू हो जाते हैं.

पकड़ो, इस आदमी को पकड़ो – एक लंबी मूछों वाला अफसर चिल्लाता है.

संकल्प प्रसाद आगे बढ़ते हैं. उनके पांवो के नीचे लाश ही लाश विछी है. लाशों के बीच लालन फकीर, रवि ठाकुर, प्रेमचंद और पता नहीं कितने लोग हैं....जिन्हें संकल्प प्रसाद किताबों में पढ़ चुके हैं या जिनमें से कई से लगातार संवाद कर चुके हैं.

वे बदहवास दौड़ना शुरू करते हैं. कि अचानक एक आदमी से टकरा जाते हैं. अस आदमी के शरीर में कई गोलियां लगी हैं, सिर से खून बह रहा है...उन्हें याद आता है कि अरे यह तो पिचके गालों वाला अधेड़ है...जिसकी शक्ल मुक्तिबोध से मिलती है.... वे उसे अपने दोनों हाथों से पकड़ने की कोशिश करते हैं – वह कुछ बोलना चाहता है..

पाटनर, मर गया देश..अरे जीवित....

अधेड़ जमीन पर लोट जाता है. संकल्प प्रसाद किंकर्तव्यमिमूढ़ से खड़े हैं कि सांय-सांय करती अचानक एक बुलेट उनकी खोपड़ी में आकर लगती है और सबकुछ धुंआ-घुआं सा....

रक्तिम अंधेरा...


उत्तर कथन :

इसके बाद क्या हुआ यह इस नाचीज लेखक को भी नहीं पता है. दरअसल इस उत्तर कथन की उस तरह से जरूरत तो नहीं थी लेकिन जैसा कि पूर्व कथन में कहा गया है कि यह कोई कहानी नहीं है. कई एक बातें हैं जो यह नाचीज लेखक (?) आपसे साझा करना चाहता था. तो उसे पता है कि आप उसकी किसी भी बात का यकीन नहीं करेंगे लेकिन इस देश में किसान आत्महत्या करते रहेंगे, संसद भवन में ढेर सारे ऐसे लोग पहुंचते रहेंगे, जिन्हें कायदे से कहीं भी पहुंचना नहीं चाहिए. स्त्रियां सिसकती रहेंगी, बच्चे अपनी पिताओं की खोज में बिलबिलाते रहेंगे.

कोई एक लड़की अन्याय के खिलाफ वर्षों से अन्न-जल त्यागकर अपना विरोध जता रही होगी, और इस देश की सत्ता कान में तेल डाले आराम की नींद ले रही होगी. शब्दों में सच और सिर्फ सच कहने और लिखने वाले लोगों पर सबसे अधिक नजरें रक्खी जाएंगी और वे रहस्यमय तरीके से गायब होते रहेंगे. और इसके बरक्श ढेर सारी कविताएं, लेख, कहानी रिपोर्ट लिखी जाती रहेंगी और हर साल लाखों रूपए के पुरस्कार घोषित होते रहेंगे.
संकल्प प्रसाद भी लेकिन होंगे. जिन्होंने अपनी गरीबी छुपाने के लिए अपनी जवानी की एक लंबी उम्र किसी लायब्रेरी में बिता दी होंगी.

आप ध्यान दीजिए तो कोई एक ऐसा शख्श आपके मुहल्ले में भी हो सकता है जिसकी पत्नी उसकी हरक्कतों से बाज आकर तांत्रिक-ओझाओं का चक्कर काटती हुई दिखेगी. उसने कुछ अधिक किताबें पढ़ ली होंगी और किताब में लिखी गई बात और वास्तविक दुनिया के बीच तालमेल नहीं बैठा पाने के कारण वह एक ऐसी दुनिया में चला गया होगा, जहां से वापिस आना एक तरह से असंभव-सा हो गया होगा. वह रात में बिस्तर पर किसी जानवर की तरह तड़पता होगा. वह हर हफ्ते किसी गांव या किसी कस्बे या किसी शहर के किसी कारखाने या किसी बस्ती में पहुंच जाता होगा, वहां इस गरीब और अभागे देश के सभी लेखक- कलाकार, दार्शनिक एक साथ करोड़ों लोगों के आगे चलना शुरू कर देते होंगे.

वह इस देश को किसी मुकम्मल कविता की तरह सुंदर देखने के लिए एक साथ आगे बढ़ते होंगे, सत्ता के खिलाफ समय के सबसे अत्याचारी लोगों के खिलाफ और करोड़ों लोगों के समर्थन में और बेरहमी से उनका कत्ल कर दिया जाता होगा. उसी तरह जिस तरह की आप देख चुके हैं. वे हर बार घर से निकलते होंगे और हर बार किसी रहस्मय परिस्थिति में उनकी मौत (कत्ल) हो जाती होगी.

इन तमाम स्वप्न और यथार्थ से अलग दुनिया बहुत तेजी के साथ भागती रही होगी. लोगों के हाथों में तरह-तरह के मोबाइल और लैपी बढ़ते जा रहे होंगे. सड़क पर चमचमाती कारों की भीड़ बढ़ती जा रही होंगी. लड़कियां और ज्यादा खूबसूरत दिखने लगी होंगी और हमारे घर और अधिक पुराने. इंटरनेट पर लोगों की चैटिंग करने की रफ्तार और  डेटिंग का चलन बढ़ता गया होगा, कंडोम खरीदने में लोगों का संकोच खत्म होता गया होगा, हत्या और बलात्कार की खबरों से अखबार भरते गए होंगे. घोटालों की राशियां हजार और लाख की सीमा को पार कर हजार करोड़ तक पहुंच गई होंगी. लेकिन हर साल लाल कीले पर जब झंडा फहराया जाता होगा तो ऐसा लगता होगा कि इस देश में सबकुछ अच्छा है और जो अच्छा नहीं है, उसे चुटकी बजाकर अच्छा कर लिया जाएगा.

देश के जिंदा होने के तमाम सुबुतों और घोषणाओं के बीच संकल्प प्रसाद को एक दिन लगा होगा कि यह देश मर गया है. वे एक रात घर से निकले होंगे और फिर कभी वापस लौट कर नहीं आए होंगे. लगातार कई-कई हत्याओं के बाद वे एक दिन विस्मृति और निर्वासन में चले गए होंगे.

वहां पिचके गालों वाला वही अधेड़ उन्हें मिला होगा. उसके चेहरे पर तनाव की वैसी ही एक परत जमी होगी और बीड़ी के सुट्टे मारते हुए उसने कहा होगा आओ पाटनर...

और दोनों गले मिलकर खूब हंसें होगें और खूब रोए होंगे...




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  1. सुशीला पुरी27 जन॰ 2012, 2:53:00 pm

    ओह...! कितनी त्रासद कथा !!!!!!!किस्सागोई की सुन्दर परम्परा का निर्वाह करते हुए विमलेश जी ने जिस तरह सामिजिक यथार्थ की विभीषिका कों प्रतीकों के जरिये रचा है.. वो पीड़ा के गहरे भंवर में लेकर चला गया मुझे ... मेरी हार्दिक बधाई कहानीकार कों... और अरुण जी आपको भी !

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  2. कहानी पर बाद में...पढ़ लेने के बाद...फिलहाल विमलेश और अरुण देव जी को बहुत बहुत बधाई!

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  3. सबसे पहले विमलेश को इस कहानी के लिए बधाई. कहानी में उनकी मुखरता, उनकी चिंताएँ बखूबी उभर कर आई हैं. हालाँकि इस कोशिश में कसावट कई जगह कमज़ोर पड़ी है, तनाव जब अपने चरम पर जाता है तो किस्सागोई कई जगह ढीली पड़ जाती है. मुझे ऐसा लगता है कि यह कहानी एक और बार कठोर संपादन की मांग करती है. तब शायद यह और ताक़तवर, और मारक और प्रभावशाली बन कर सामने आये.

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  4. यथार्थ और विडम्बनाओं की मार्मिक कथा :: बधाई विमलेश

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  5. कहानी स्वप्न और यथार्थ को जोड़ने का प्रयास करती है |सपने, जाहिर तौर पर बेहतर जीवन और समाज के हैं, जबकि यथार्थ बद से बदतर | संकल्प प्रसाद जैसा सोचने समझने वाला कोई भी आदमी हमारे समय में इसी तरह विक्षिप्त हो जाने के लिए अभिशप्त है| इस कहानी को पढते हुए उदय प्रकाश की दो कहानिया -पाल गोमरा का स्कूटर और मोहन दास - याद हो आती है |पाल गोमरा भी अंततः उसी विक्षिप्तता के शिकार होते है , जैसे संकल्प प्रसाद और मोहन दास की मदद उसी तरह मुक्तिबोध करते नजर आते हैं , जैसे संकल्प प्रसाद की..|कहानी न सिर्फ हमारे समय की नब्ज को प्रामाणिकता के साथ पकडती है वरन अपना पक्ष भी स्पष्ट करती है ..| मैं भाई अशोक की इस बात से सहमति व्यक्त करता हूँ कि अपनी पक्षधरता को और मारक बनाने के लिए इसे थोडा और सम्पादित होना चाहिए था....एक सार्थक कहानी के लिए मित्र विमलेश को बधाई

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  6. बिमलेश की यह लंबी कहानी "अथ श्री संकल्‍प-कथा" पढकर हैरान हूं कि इतना फैलाकर कहने के बावजूद इस बिखरे हुए एकालाप को वे किसी मुकम्‍मल कहानी का आकार नहीं दे पाए हैं, एक जमाने में ऐसे प्रयोग उदयप्रकाश ने अपनी कई कहानियों में किये थे, लेकिन वे उनकी असफल कहानियां ही मानी जाती हैं। मुझे बिमलेश से ऐसी कहानी की अपेक्षा नहीं थी।

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  7. बहुत अच्छे विमलेश भाई ......................त्रासद और कचोटती हुई रचना

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  8. सामाजिक विडंबना की यथार्थ कथा, बेहद मार्मिक, पता नहीं क्यों विमलेश भाई की कहानी पढते हुए मुक्तिबोध जी की याद आ गई। भाई दिल से बधाई।

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  9. कहानी पढ़कर मैं सोच में पड़ गया। इस कहानी ने मुझे अंदर तक झिझोड़कर रख दिया। पता नहीं क्यों आदरणीय नंद जी को यह कहानी अच्छी नहीं लगी। असल में बात यह जरूर हो सकती है कि नंद जी जैसी कहानियां लिखने या पढ़ने के आदी हैं उस तरह की कहानियों से यह कहानी अलग है। कहानी में स्वप्न और यथार्थ के बीच जो आवा-जाही है, वह समय के तनाव को व्यक्त करने में सक्षम है। और आज की कहानियों में प्रेमचंद वाली शिल्प को तलाशना नंद जी की ज्यादती ही है। दूसरी बात कि उदय प्रकाश ने कहानी में प्रयोग किए तो क्या और किसी कथाकार को कहानी में प्रयोग करने का अधिकार समाप्त हो जाता है। नंद जी तो उदय प्रकाश की कहानियों को भी असफल घोषित किये देने पर उतारू हैं, जबकि उनकी प्रयोगशील कहानियां ही उनके पाठकों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुईं।
    रामजी तिवारी की टिप्पणी गौर करने लायक है। हां, अशोक भाई इस कहानी को संपादित करने को कह रहे हैं। दिक्कत यह है कि हम कहानी को कहानी की तरह न पढ़कर एक क्रिटिकल निगाह से पढ़ने के आदी हो गए हैं। मुझे लगता है कि संपादन की जो जरूरत अशोक जी महसूस कर रहे हैं, वह अंतरजाल की अपनी सीमाओं के कारण है। जब यह कहानी किसी पत्रिका में छपकर आएगी, तो शायद अशोक जी को यह कहने की जरूरत नहीं होगी।
    तीसरे हर कथाकार की अपनी शैली होती है और विषय की ट्रीट करने का अपना नजरिया। मुझे लगता है कि इस कहानी को किसी संकुचित मानसिकता से भर कर नहीं देखा जाना चाहिए। मैं अगर व्यक्तिगत रूप से कहूं तो यह कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी। और उपर की टिप्पणियां पढ़कर मुझे दुःख दुआ। अरूण दा और बड़े भाई विमलेश जी को बहुत-बहुत बधाई....

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  10. समय की नब्ज को टटोलती एक मार्मिक कहानी। कहानी की प्रयोगशीलता आकर्षित करती है। विमलेश ने अपने कथा में कई तरह के प्रयोग किए हैं। यह कहानी उनके लेखन को एक और विस्तार और ऊंचाई दे रही है... विमलेश ने संकल्प प्रसाद के माध्यम से एक अद्भुद और अद्वितीय पात्र रचा है। यह पात्र उन लोगों की याद दिलाता है जिनके लिए कविता(कला) महज अखाड़ा नहीं, वरन् इस दुनिया को सुंदर बनाने का साधन है और जो आज के समय में अपनी कला के कारण ही बिडंबनाओं के शिकार हैं। अद्भुद-अदभुद बधाई.....

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  11. प्रिय भाई बेनामी जी

    नाम होता तो संवाद में और मज़ा आता. आपको मेरे कहे पर आपत्ति है. आपत्ति सिर-माथे पर. लेकिन जो कारण आपने बताया है उस पर इतना ही कि अगर आपको लगता है कि हमारा पढ़ना-लिखना अंतरजाल पर ही सीमित है तो इस पर क्या कहा जाय? कहानी को कहानी की तरह पढ़ने के लिए एक क्रिटिकल नज़रिया ज़रूरी होता है, बिना क्रिटिकल हुए निर्द्वन्द्व तरीके से एक ऎसी कहानी का पाठ जिसमें मुक्तिबोध एक पात्र के रूप में उपस्थित हैं, संभव है क्या? पत्रिकाओं में हम सब छापते हैं, वह कोई ऎसी महान वज़ह नहीं है जिसके चलते किसी रचना पर बात ही न हो. पत्रिकाओं में छपने के बाद भी रचना अच्छी/बुरी होती है, पहले भी. हर कथाकार की अपनी शैली होती है, होनी भी चाहिए...पर उसकी पहली शर्त यह कि उस शैली में कही जा रही बात अपनी पूरी ताक़त के साथ पाठक तक पहुंचे. मैं अब भी मुतमइन हूँ कि विमलेश अगर इस कहानी पर थोड़ा काम कर पायें तो यह उस तनाव को मेंटेन करने में सफल होगी जिसकी झलक कहानी में कहीं-कहीं दिखाई देती है. विमलेश अपने हैं, उनमें संभावना दिखाई देती है इसलिए इतनी बातें हैं, वरना हम भी काहें फटे में टांग अडाते?

    रहा सवाल पहले की टिप्पणियों पर दुखी होने का, तो भाई अगर आपकी राय से असहमति आपके दुःख का सबब बनती है तो आपको सदैव सुखी रखने की कसम खाना मुश्किल है. हम यहाँ अपनी और दूसरों की रचनाओं पर खुल के बात करने आते हैं, सुखी-दुखी करने नहीं. जैसे आपकी यह अनाम टीप मुझे कतई दुखी नहीं करती.

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  12. आदरणीय अशोक जी,
    आप हर चीज को इस तरह नाकारात्मक निगाह से क्यों देखते हैं, आपकी क्रटिकल निगाह नाकारात्मक क्यों हो जाती है। ठीक है मान लिया कि आपने जो कहा वो सही है,जब आप कहते हैं कि कहानी में विमलेस की चिंताएं और मुखरता बखुबी उभर कर आई हैं। जब चिंताएं और मुखरता बखूबी उभर कर आई हैं तो आप दूसरे ही वाक्य में अपनी ही बात को काट क्यों रहे हैं। या तो कहिए कि बखूबी उभर कर आई हैं चिंताएं, या कहिए कि कहानी झोल है। दोनों गीत तो आप ही गा रहे हैं। रही बात दुखी होने की तो दुख इसी द्वैत गीत के कारण हुआ। दूसरी बात कि मैंने यह नहीं कहा कि आप पत्रिकाओं में छपते नहीं या पढ़ते नहीं। आपने यह बात खुद ही समझ ली। इसका क्या करूं मैं? आप एक महत्वपूर्ण रचनाकार हैं, यह आप खुद भी मानते हैं। बच्चे की जान लेंगे क्या। बहस करना अच्छी बात है लेकिन आप हर जगह नाकारात्मक बहस में उलझ जाते हैं। खैर, मैं और कुछ नहीं कहूंगा। कहानी के उपर जो संपादक की टिप्पणी लगी है उसे ही कोट कर रहा हूं।

    ‘विमलेश त्रिपाठी युवा कवि –कहानीकार हैं. इस लंबी कहानी में सृजनात्मकता के समक्ष उपस्थित संकट और खुद सृजनात्मकता के अपने खतरे का आख्यान है. यथार्थ और स्वप्न के बीच लागातार आवाजाही से कथ्य और उसका पर्यावरण सघन हुआ है जिससे प्रभाव देर तक टिका रहता है. एक उदास और आकुल कर देने वाला जीवनानुभव आप यहां पाएंगे। विमलेश ने इसे धैर्य और दक्षता से रचा है।” – अरूण देव

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  13. सुशीला पुरी28 जन॰ 2012, 4:21:00 pm

    आदरणीय नंद जी उदय प्रकाश जी की कौन सी कहानी को असफल बता रहे हैं..यदि इसे भी लिखते तो ठीक होता, ....कहानी में प्रयोग हर रचनाकार करता है और जाहिर है वह अपने ढंग से ही करता है..शिल्प में प्रयोग करने के साथ यदि उसमें अपने वक्त का क्रिटिक नहीं होता तो वो कहानी चर्चित हो ही नहीं सकती. अपने समय की विडंबनाओं कों,यथार्थ कों, हर रचनाकार रचने की कोशिश करता है..और वह कहानी कितनी पठनीय है, और अपने समय-समाज कों कितनी संवेदनशीलता से दर्शा पाती है..ये तो कहानी लिखे जाने और पढ़े जाने के बाद ही पता चलता..हाँ कहानी कों समग्रता में पाठकों ने कितना सराहा और पसंद किया इसे भी ध्यान में रखना चाहिए ! .............................................................................. राम जी तिवारी जी की बातों से कहीं न कहीं मै भी इत्तेफाक रखती हूँ कि - इस कहानी कों पढकर मुझे भी उन कहानियाँ की याद आईं. और परम आदरणीय 'बेनामी' जी से अनुरोध करती हूँ कि उन्हें अपनी बात अपने नाम के साथ रखनी चाहिए थी !

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  14. आदरणीय नन्द जी की इस बात से मेरी भी असहमति है कि उदय प्रकाश के प्रयोग ने उनकी उन कहानियो को असफल बना दिया ...बल्कि मुझे तो लगता है कि उन्ही कहानियो ने उन्हें पाठकों के मध्य विधिवत स्थापित किया...वारेन हेस्टिंग्स का सांड, पाल गोमारा का स्कूटर ,दिल्ली की दीवार , पीली छतरी वाली लड़की , मोहन दास जैसी प्रायोगिक कहानिया आज भी स्मृतियों में अंकित हैं ...उन्हें असफल कैसे कहा जा सकता है ...?हा ..बेनामी जी को सामने आना चाहिए , यह मैं भी मानता हूँ...लिखा हुआ शब्द सबका होता है ...एक पाठक के तौर पर हमें अपनी प्रतिक्रिया देने का हक भी होना चाहिए ...इसमें बेनामी जी को असंगत क्या लगता है...आपको पूरी कहानी पसंद आई,अच्छी बात है , किसी अन्य को कुछ अखरी, उसका भी आदर करें..|.किसी के मन में दुर्भावना क्यों होगी...?..हम सब एक ही नाव के सहयात्री हैं ,साथ मिलकर उसे खेयेंगे, तभी कहीं पहुचेंगे...|रही भाई अशोक के नकारात्मक सोचने वाली बात की , तो इसे मैं नहीं मानता हूँ...फेसबुक पर पिछले एक साल से उनके साथ बहसों में उलझने के अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूँ , उनसे आप असहमत हो सकते हैं , लेकिन उन्हें नकारात्मक सोच वाला नहीं कह सकते....|

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  15. "अथ श्री संकल्प प्रसाद" संश्लिष्ट यथार्थबोध की कहानी है जिसे पढते हुए "एक था राजा.." या "बहुत दिनों पहले की बात है.." शैली की कहानियों के अभ्यस्त पाठक कठिनाई महसूस कर सकते हैं । फ़न्तासी में बुनी इस कहानी की विशेषता ..कि यह एक कवि की भाषा में सम्भव हो पाई । विमलेश त्रिपाठी की कथा यात्रा को उनकी पहली ही कहानी "अधूरे अन्त की शुरुआत" से देख रहा हूँ । शिल्प में रद्दोबदल करती हुई कहानियाँ इधर लगभग हर नए कथाकार के यहाँ देखी जा सकती हैं जिसके सूत्र चर्चित कवि-कथाकार उदय प्रकाश तक और उससे भी पीछे अंग्रेजी कथाकार चार्ल्स डिकेन्स तक जाते हैं । संकल्प प्रसाद की कथा कठिन जीवन संघर्षों का साइकोलॉजिकल बाइप्रोडक्ट है । इसे इसी शैली और शिल्प में साधा जा सकता था । बधाई

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  16. बेनामी जी

    जब आपने अपना नाम छुपा कर गीत गाने की सोच ही ली है तो आपसे क्या बहस की जाए? अगर पहला कमेन्ट ध्यान से पढ़ लेते तो यह द्वैत आपके दिमाग में आता ही नहीं. चिंताएँ उभर कर आई हैं और कसावट कमजोर पड़ी है, में कोई अंतर्विरोध नहीं है. एक खराब कविता/कहानी में भी कवि/कहानीकार की चिंताएँ खूब उभर कर आ सकती हैं. देखिये न मुझे तो द्वैत कहीं और दिख रहा है. कहानी में चिंताओं के बखूबी उभरने के ज़िक्र के तुरत बाद उसकी कसावट को लेकर मेरी चिंता आपको 'नकारात्मक' लग रही है! सकारात्मक होना क्या केवल आह-वाह करना होता है? आपको मेरी कही यह एक बात 'हर जगह' लगी! खैर, जहाँ भी जिससे भी उलझता हूँ अपने नाम से और अपने दम से उलझता हूँ. मुँह छिपा कर ताली बजाने और गाली गाने वालों में से मैं नहीं.

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  17. कहानीकार विमलेश जी,
    धन्यवाद ,आपकी कहानी के साथ -साथ पाठको की प्रतिक्रियाये भी मैने देखी ।आपकी कहानी "अथ.......संकल्प कथा " कहानी एक अलग नई बुनावट मे कसी हुई है,। इसमे पात्र संवाद, कसाव, समय सीमाबद्धता और तिकक्षण्ता को पुराने चर्चित कथाकर प्रेमचन्द या, यशपाल की शैली मे नही बांधा गया है ...,।यह सच है,।
    परन्तु ,यह कोइ जरूरी नही है कि इस बदलते युग मे हम पुरानी लीक पर एक नकलची कि तरह ही चलले रहे ।कहानी मे ,हमारा सबसे प्रधान लक्ष्य , जनता (पाठक) ,को देश की सामाजिक ,सांस्कॄतिक परिस्थितियो को आंककर कथ्य को रोचक शैली के रूप से अवगत कराना ही होना चहिये ।जिसमे आप सफ़ल है ।
    नये प्रयोग ,मे भी यह कहानी अपने लक्ष्य से भटकती नही है,यह सच है ।,जब भी कुछ नयापन आता है उसे स्वीकारने मे हमे उदारवादी रुख अपनाना
    चहिये,। आरोप ,प्रत्यारोपो से बचकर नई चीज का स्वागत कोइ गलत नही है ।,अकड से अच्छी चीजे, टूटती है,लचिलेपन से ही नये रास्ते खुलेंगे ।

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  18. इतनी संबी कहानी को आप सबने पढ़ा और इतनी अच्छी टिप्पणियां लिखीं। मैं अभिभूत हूं। सहमतियां-असहमतियां तो होती रहती हैं। भाई अरूण देव समेत आप सबका आभार....बेनामी जी नाम के साथ आते तो ज्यादा अच्छा लगता। खैर...शुक्रिया-आभार....

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  19. अशोक भाई, राम जी भाई, कहानी को एक बार फिर से देखूंगा....आभार...

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