कला कृति : Rana Begum
महेश वर्मा की कविताएँ
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याद दिलाना
मुझे कब बोलना है
मुझसे अधिक तुम
याद रखना
अंतरालों को याद
रखना
कहाँ मेरी चुप है
कहाँ धीमी पड़
जायेगी आवाज़
कहाँ रुदन के लिए
जगह छोड़नी है,
कहाँ हंसी के लिए,
साज़ के लिए
कब आवाज़ साथ छोड़
देगी
कब रूह, कब साथ
छोड़ देगा सहगान
कब विफल ही जायेगा
रंगमंच
कब आकाश के उस ओर
चली जायेगी तान
कभी भूल जाऊँ बीच
में
तो मुझे याद
दिलाना.
25 दिसंबर
बच्चियों के गले
से निकली भाप
और प्रार्थनाओं से
गर्म
चर्च के ह्रदय में
गूंजती है
पल्लीपुरोहित की
अटपटी भाषा
फिर प्रार्थनाओं
में टुकड़ा-टुकड़ा ऊपर उठता है आकाश
ढेर सारे पखेरू
उड़ते हैं सहगान में
वाद्यवृन्द बजाता
है साल भर के शोक
गुलाबी रिबन,
गुलाबी लिपस्टिक, गुलाबी स्कार्फ
गुलाबी मुस्कान,
गुलाबी फ्रॉक में
चक्करदार घूमती है रात
गुलाबी इस रात का
रंग है इस साल
पिछले साल गुलाबी
इस रात का रंग था
उसके पिछले साल इस
रात का रंग था गुलाबी
अब चारों ओर दौड़
रही हैं बच्चियां
आस्था की तितलियाँ
उड़ती हैं
पन्नियों से सजे
छोटे से आकाश में
पियक्कड़ों का
देवता
अपने दांत चमकाता
घूमता है
स्वर्ग में.
31 दिसंबर
अंतिम दिन मृतकों
के नाम होना चाहिये
पूरे बरस के लिये
एक लम्बी श्रद्धांजलि
उनकी आत्माओं को
शांती मिले : आमीन
शांती मिले उनकी
आत्माओं को : आमीन
आत्माओं को शांती
मिले उनकी : आमीन
एक साँप केंचुल
छोड़ रहा है
ठंडी झाड़ियों में,
एक साल केंचुल छोड़ रहा है,
बारहसिंगा रोता है
ठंडी झाड़ियों में
हाथी कभी रास्ता
नहीं भूलते : ठंडी रात में
उसी आदिकालीन
रास्ते पर
वे लुढ़काते चले
जायेंगे हमारी धरती
पृथ्वी के पैरों
में सांकल डालकर
उसे अपने अक्ष पर
घुमाते नए देवता
अपने जाम उठाते
हैं शांती और समृद्धि के नाम.
चुपचाप सिसकते हैं
वृक्ष
ओस में अपने आंसू
मिला देती है हरियाली
सीटी की तेज़ आवाज़
से पहले
बुझ चुका है उत्सव
का संगीत
वमन,
नींद
और जले हुये
बारूद की गंध में
बावड़ी की सीढियाँ
उतरते
अँधेरे जल में उतर
जायेगा साल.
शाम
शाम ही से शुरू
होती हैं चीज़ें
कुछ रंग शाम ही के
पास हैं
पक्षी स्वर
चक्करदार घूमते हैं-
आकाश में, कुछ
सितारे आते हैं
घूमते वृक्ष
निर्लिप्त खड़े हो जाते हैं
और चुप्पी अपनी
लकीरें खींचती है
झींगुरों के सहगान
पर
बूढा डॉक्टर पीता
है अपने संदेह
और बीवी की
ख़ूबसूरती का जाम
अपनी बन्दूक पर
उसका अब भी वही विश्वास है
प्रार्थना घर की
घंटियाँ सुनकर
विश्वास की दिशा
में सर झुकाने वाली
अंतिम बुढ़िया
मोतियाबिन्द की
हरी आँखटोपी
लगने के बाद से
भूलने लगी है
देवताओं के नाम
बादल उठते हैं शाम
के भीतर से
कुछ टूटने की आवाज़
आती है.
गया साल
पहले पूर्वजों का
लोप हुआ
फिर पीठ फेरते ही
कथाओं में बदलने लगे लोग
इस बीच इतनी मौतें
हो चुकीं
इतने बुरे दिन
इतनी उदास रातें
कि बहुत धीमे
गुजरा साल
एक जख्म सूखने का
महीना
तीन महीने आंसू
सूखने के
दो आत्महत्याओं के
महीने
डेढ़ महीना गुमशुदा
का पोस्टर चिपकाते
चिपक गया स्टेशन
की दीवार पर
क्या कहा जाए बाकी
बचे दिनों के बारे में
कोई मिलता तो उसका
एक अफ़साना ज़रूर होता
फिर उसके जाने में
उसकी पीठ पर पढ़
लेते इतिहास.
गल्प में झरने के वापस लौटने का दृश्य
मैंने लौटते देखा
झरने को
उसके उद्गम रंध्रों
में,
कल्पना को वापस
पत्थर में लौटते
देखा,
विस्मय को पथरीले
यथार्थ में.
संशय को और गहरे
संशय में
देखा डूबते
इसी तरह एक-साथ
अचानक
उनका लौटना देखा
धूल में
जल में और
पुरातन अन्धकार
में.
पीछे की ओर घूम
पड़े पृथिवी,
धुरी पर या सूर्य
के विस्मय के अक्ष पर-तो पीछे,
किस पीछे की जगह
पर
थोड़ी और देर तक
रुकना चाहेंगे आप?
और किस पीछे के
समय को पोंछकर मिटा देना?
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महेश वर्मा : maheshverma1@gmail.com
वर्तमान समय में बेहद प्रासंगिक और यदि कवि के मंतव्यों को छोड़ दें तो अनेक पाठकों के लिए अनेक अर्थ से परिपूर्ण .........
जवाब देंहटाएंकहाँ रुदन के लिए जगह छोड़नी है,
कहाँ हंसी के लिए, साज़ के लिए
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (09-03-2016) को "आठ मार्च-महिला दिवस" (चर्चा अंक-2276) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
गंभीर स्वर। महेश जी को पढ़ना सुखद है।
जवाब देंहटाएंमैंने लौटते देखा झरने को
जवाब देंहटाएंउसके उद्गम रंध्रों में,
कल्पना को वापस
पत्थर में लौटते देखा,
विस्मय को पथरीले यथार्थ में.
मोहक और अप्रत्याशित अंदाजेबयां के साथ महेश वर्मा इंद्रियों को अतींद्रिय सुख देते हैं अपनी कविताओं में। अमूर्तन को विचारों की ढलान पर उतारते हुए वे तनिक भी विचलित नही होते। साधुवाद कवि को। प्रसारक को।
पूरा का पूरा चित्रकार अपनी कलम से शब्दों को रंग रहा है। चित्र के लहज़े में : कसा हुआ संयोजन, कॉम्प्लीमेंटरी टोन्स का सुन्दर प्रयोग और एक सहज मानव की आह और अहा के बीच की यात्रा में जीवन को निरखता हुआ कला कर्म !
जवाब देंहटाएंमैं ओम निश्चल जी की टिप्पणी से सहमत हूँ। महीन आडम्बरहीन सहज सरल भाषा में भौतिक और पार-भौतिक अनुभूतियों के बीच मानवीय प्रेक्षाओं को बहुत खूबसूरओके लिये महेश वर्मा जी को प्रणाम्।
*** मानवीय प्रेक्षाओं को बहुत खूबसूरती से निरखती इन कविताओं के लिये....
जवाब देंहटाएं(पिछली टिप्टापणी में टाइपिंग की त्रुटि के लिये शर्मिन्दा हूँ)
फिर से त्रुटि हुई 'टिप्पणी' में !!
जवाब देंहटाएंमहेश वर्मा उन प्रतिभावान युवा कवि-कवयित्रियों में से हैं जिनकी रचनाओं का मैं स्वयं को बहुत उम्मीद,उत्सुकता और उत्तेजना से इंतज़ार करने पर विवश पाता हूँ.लेकिन फिर ''मैंने लौटते देखा झरने को / उसके उद्गम रंध्रों में / कल्पना को वापस / पत्थरों में लौटते देखा / विस्मय को पथरीले यथार्थ में'' लिखते वक़्त शमशेर ( ''लौट आ ओ धार'' ) , ज्बिग्नियेव हेर्बेर्त ( सिनेमाई रील की रिवाइन्डिंग वाली भयावह कविता ) तथा विश्वावा शीम्बोर्स्का ( नाट्यांत पर सारे जीवित-मृत पात्रों का पूर्ववत हो जाने वाली दुर्दांत कविता ) को इस तरह दुर्भाग्यपूर्ण,ग़ैर-जिम्मेदाराना असावधानी से भुला देने का मतलब ?
जवाब देंहटाएंयह बात सचमुच मेरे लिए महत्वपूर्ण है कि आप मेरी कविताओं पर ध्यान देते हैं।शमशेर और शीम्बोर्स्का की उपरोक्त कवितायें मैंने पढ़ी हैं,हेर्बेर्त वाली नहीं पढ़ पाया हूँ। अपनी कविता से इन महान कविताओं का सम्बन्ध नहीं जोड़ पा रहा हूँ। इसे लिखते समय बस खुल जा सिमसिम नुमा किसी दृश्य का संकेत मेरे पास था जहाँ झरना ऊपर को चला जाता है। विश्वास कीजिये कि अगर मैंने सचेतन ढंग से इन कविताओं से कुछ लिया होता तो कृतज्ञता प्रदर्शित करने में संकोच न करता और विनम्रता से कहना चाहूँगा कि मैंने ऐसा किया भी है।
हटाएंआपने इन्हें पढ़ा और टिप्पणी के लायक समझा आपका ह्रदय से आभार।
अच्छी कविताएँ । बधाई । महेश को हमारी तरफ से ढेरो बधाई. . . .
जवाब देंहटाएंबहुत पनीले में कोई एक इतना अज़ीज़ सपनीला.
जवाब देंहटाएंआपकी यह कविता मूल,स्रोत या उद्गम की ओर लौटने की बात करती है.शमशेर,हेर्बेर्त और शीम्बोर्स्का की इन प्रसिद्ध कविताओं में भी केन्द्रीय बिम्ब,अभिलाषा या हसरत यही है.मुझे यही खटक हुई.मेरा ऐसा विचार है कि एक अच्छा कवि बहुत जागरूक भी होता है या उसे वैसा होना चाहिए,जिस तरह शेर-चीतों आदि का बाक़ी झुण्ड रात को सोने से पहले अपने में से एक को प्रहरी बनाकर एक ऊँची चट्टान पर बैठाल देता है,कुछ उस तर्ज़ पर.जहाँ तक ''सचेतन ढंग से...कुछ लिया होता'' का सवाल है तो स्वयं मैं T S Eliot के 'Bad poets borrow,good poets steal' का शैदा हूँ.शातिर चोर तो आँखों से काजल पार कर दिया करते हैं और नैनोंवाली तक को अहसास नहीं होता.
जवाब देंहटाएंकविताएँ तो आप उम्दा लिख ही रहे हैं.
बहुत सुंदर कविताएं
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कतिवाएँ
जवाब देंहटाएंप्रमोद
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