
हिंदी
के प्रसिद्ध आलोचक प्रो. नंदकिशोर नवल (२ सितंबर,१९३७ - १२ मई,२०२०) संपादक भी थे उन्होंने
‘धरातल,’ ‘उत्तरशती,’ ‘आलोचना’
और ‘कसौटी’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया. अकादमिक महत्व के कार्यों के अलावा उनके व्यक्तित्व
के आकर्षण ने भी नई पुरानी पीढ़ी को प्रभावित किया था. निराला ग्रंथावली का संपादन और
कविता की पाठ केंद्रित आलोचना के लिए वे लंबे समय तक जाने जाते रहेंगे.
कवि
विमल कुमार का यह स्मृति आलेख नंदकिशोर नवल के व्यक्तित्व को आत्मीयता से प्रत्यक्ष
करता है.
प्रस्तुत
है
श्रद्धा-सुमन
नंदकिशोर नवल : आलोचक
का दायित्व-बोध
विमल कुमार
नंद जी खड़ाऊँ पहनते थे. मुझे आज भी उनके खड़ाऊँ की आवाज़ कानों में साफ सुनाई पड़ती रहती है. वे अपने ऊपर के कमरे से सीढ़ियों से उतरते थे. आंगन के सामने एक छोटे से कमरे में मैं बैठा उनका इंतज़ार करता था. वे अक्सर सफेद कुर्ता पाजामा या धोती या लुंगी पहने आते थे. कई बार तो सफेद बनियान और लुंगी में भी.
वे
हिंदी के आलोचक थे, वे शिक्षक भी थे. वे समकालीन कविता के गहरे प्रेमी थे. तब
पटना विश्वविद्यालय में कोई उनके जैसा समकालीन कविता का प्रेमी नहीं था. जब मैं
मिला और बताया कि कविताएँ लिखता हूँ तब उन्होंने मुझसे पूछा था- क्या आपने उदय प्रकाश की कविता पढ़ी है,
स्वप्निल श्रीवास्तव की पढ़ी है? वे तब वेणु
गोपाल की चर्चा करते थे. ये तीनों नाम मैंने पहली बार उनके मुख से ही सुना था.
महेंद्रू के रानी घाट का वह मकान मुझे आज भी याद है. आंगन के ऊपर बैठकी में एक बार
श्याम कश्यप को पहली बार उनसे बातचीत करते देखा था. तब मैंने इंटर पास किया था और
शहर में किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो मेरा मार्गदर्शन कविता में करें. मुझे
आज यह याद नहीं कि किसने मुझे उनसे मिलने की सलाह दी थी या मैं बिना किसी रेफरेंस से मिला था. पटना में एक तरफ मधुकर गंगाधर थे जो रेणुजी के सहयोगी थे दूसरी
तरफ शंकर दयाल सिंह का पारिजात केंद्र था पर एक तीसरा केंद्र नवल जी थे.
वे
जे. पी. आंदोलन के दिन थे. जे. पी. को भाकपा फासिस्ट बता रही थी. पटना के बेली रोड
पर एंटी फासिस्ट सम्मेलन हुआ था जहां आज
चिड़िया खाना है. नंदकिशोर नवल जी भी जे. पी. को लेकर आलोचनात्मक थे. उसका कारण यह था
कि वे बिहार प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे और तब पार्टी की ऑफिसियल लाइन इंदिरा
जी के साथ थी लेकिन नवल जी इंदिरा जी के उस तरह समर्थक नहीं थे क्योंकि वह एक लेखक
भी थे पर जी. पी. आंदोलन को लेकर वह संशय
में भी थे. बाद में मुझे उसके कारण समझ में आये पर पटना में यह बात साहित्यिक हलको
में प्रसिद्ध थी कि नवल जी गंभीर व्यक्ति है और समकालीन कविता में गहरी रुचि रखते
है.
आज मुझे याद नहीं आ रहा कि मैं उनसे पहली बार कैसे मिला था. लेकिन यह मुझे अच्छी तरह याद है कि उनको मैंने अपनी कविताओं की एक छोटी सी कॉपी दिखाई थी जो तब वैशाली-कॉपी में लिखी गयी थी.
उन्होंने तब मुझे कुछ कवियों को पढ़ने की सलाह दी थी. मैं तब साहित्य में नव सिखुआ था. केवल मधुकर गंगाधर और शंकरदयाल सिंह से मिला था पर समकालीन साहित्य विशेषकर कविता में उन लोगों की कोई गति नहीं थी. अरुण कमल का नाम भी पहली बार उनके मुंह से सुना था और एक दिन अरुण कमल उनसे मिलने आये थे लेकिन मैं उनसे मिला नहीं. उस छोटे से कमरे में बैठा नवल जी का इस बात के लिए इंतज़ार करता रहा कि वे कब सीढ़ियों से उतरकर आएंगे.
मैं हिंदी का छात्र नहीं था इसलिए तब हिंदी आलोचना के बारे में बिलकुल नहीं जानता था. केवल शुक्ल जी, रामविलास जी और नामवर जी का नाम सुना भर था. नवल जी तब आलोचना के क्षेत्र में स्थापित हो रहे थे और उनकी कीर्ति फैलने लगी थी. युवा लेखकों में वे लोकप्रिय हो रहे थे. बिहार में नलिन विलोचन शर्मा, डॉ. नागेश्वर लाल, सुरेंद्र चौधरी और चंद्रभूषण तिवारी ये चार नाम ही तब आलोचक के रूप में जाने जाते थे. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नवल जी अधिक जाने गए और सबसे अधिक किताबें उन्होंने ही लिखीं. आखिर क्या कारण है कि नवल जी को आज अधिक याद किया जा रहा है. हिंदी आलोचना में आखिर उनका क्या अवदान था ?
पटना
के साहित्यिक जगत में तब यह बात प्रचलित थी कि नामवर जी से नवल जी के मधुर संबंध हैं और वे उनको बहुत मानते हैं. वैसे तब खगेन्द्र जी और नवल जी की जोड़ी भी चर्चित थी लेकिन ख्याति अधिक नवल जी की ही थी. बाद
में मैं बी. ए. इतिहास में आनर्स करने रांची चला गया और 82
में दिल्ली आ गया पढ़ने, तब नवल जी के सम्पर्क
में नहीं रहा पर कुछ पत्राचार चलता रहा. उनके पोस्टकार्ड मुझे आज भी याद हैं. किसी बड़े
लेखक से यह मेरा पहला पत्राचार था. तब वह ‘आलोचना’ पत्रिका में हिंदी आलोचना का
विकास नामक एक श्रृंखला लिख रहे थे. उनके लेखों को पढ़कर एक पत्र लिखा जिसका
जवाब उन्होंने दिया था. मेरी जानकारी में आजादी के बाद हिंदी आलोचना के विकास पर
वह पहला विस्तृत लेख था जो बाद में उनकी किताब के रूप में छपा. आज वह किताब हिंदी
आलोचना के विकास पर महत्वपूर्ण मानी जाती
और छात्रोपयोगी भी. वह एक शिक्षक थे इस नाते वह ऐसी आलोचना के पक्षधर थे जो
छात्रों के भी काम आए. दिल्ली आकर मैं अपनी पढ़ाई और नौकरी के संघर्ष में फंस गया
जिससे उनके सम्पर्क में नहीं रह पाया, लेकिन पटना जब तब गया तो कभी-कभी उनसे
मिलने भी गया. विवाह के बाद पत्नी के साथ भी.
मैं उनकी
कृतियों से परिचित था, जब भी उनकी किताब आई उसे उलटा पलट जरूर. 80
के बाद उनकी कई किताबें आईं और वे एक महत्वपूर्ण आलोचक के रूप में
उभरे. वे एक लिक्खाड़ के रूप में भी चर्चित थे. दरअसल वह एक पेशेवर आलोचक थे. जीवन में
कुछ करना चाहते थे. एक शिक्षक के रूप में भी उनकी बहुत ख्याति थी. पर उन्हें लिखने
में आनंद आता था. वे अपने निंदकों और आलोचकों की परवाह नहीं करते थे. वे अपने
विचारों में दृढ़ थे. लेखकों के बारे उनकी अपनी स्वतंत्र राय थी. वे कहते थे कि युवा
लोगों को मध्यकाल के कवियों को पढ़ना चाहिए. एक बार उन्होंने मुझसे अपूर्वानंद के
बारे में कहा कि वे अज्ञेय आदि में दिलचस्पी लेते हैं लेकिन भक्तिकाल के कवियों में नही. तब अपूर्वानंद से मेरा परिचय नहीं
हुआ था पर 'उत्तरशती' में उनकी एक कविता पढ़ी थी और नवल जी को एक कार्ड भी भेजा था.
नवल जी की ख्याति 'निराला रचनावली' के सम्पादन से मिली. मुक्तिबोध रचनावली की तरह वह एक व्यवस्थित रचनावली थी. बाद में तो कई खराब रचनावलियाँ आईं. वे शुद्ध हिंदी पर बल देते थे और प्रूफ की गलतियों को बर्दाश्त नहीं करते थे. इस प्रसंग में वे शिवपूजन सहाय की चर्चा करते थे. उन्होंने शिवपूजन जी के गद्य पर एक लेख लिखा था जो इस तरह का पहला लेख था. मुझे याद है कि पूर्वग्रह में नवल जी का एक पत्र छपा तथा जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘मेरे जीवन का यह पहला लेख है जो किसी पत्रिका में शुद्ध छपा है.’
नवल जी की ख्याति 'निराला रचनावली' के सम्पादन से मिली. मुक्तिबोध रचनावली की तरह वह एक व्यवस्थित रचनावली थी. बाद में तो कई खराब रचनावलियाँ आईं. वे शुद्ध हिंदी पर बल देते थे और प्रूफ की गलतियों को बर्दाश्त नहीं करते थे. इस प्रसंग में वे शिवपूजन सहाय की चर्चा करते थे. उन्होंने शिवपूजन जी के गद्य पर एक लेख लिखा था जो इस तरह का पहला लेख था. मुझे याद है कि पूर्वग्रह में नवल जी का एक पत्र छपा तथा जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘मेरे जीवन का यह पहला लेख है जो किसी पत्रिका में शुद्ध छपा है.’
निराला को वे बीसवीं सदी का सबसे बड़े कवि मानते थे. एक बार इलाहाबाद में हिंदी साहित्य सम्मेलन के निराला पर कार्यक्रम में वे आये थे और उनकी ही अध्यक्षता में गोष्ठी थी. मैंने पहली बार कोई लेख मंच से पढ़ा. पर्चा खत्म होने पर उन्होंने मेरी तारीफ की जबकि उन्होंने कभी मेरी तारीफ नहीं की थी. मुझे आश्चर्य भी हुआ और उनके इस उत्साह से बल भी मिला. शायद वह निराला के प्रति मेरे अगाध प्रेम को भांप गए थे.
उस कार्यक्रम में सत्यप्रकाश मिश्र और नीलाभ भी थे. नवल जी में
एक खासियत थी कि उन्होंने केवल निराला पर ही नहीं बल्कि राष्ट्रवादी कवियों मैथिलीशरण गुप्त और दिनकर पर भी लिखा. हमारे वामपंथी आलोचकों ने इन दोनों का मूल्यांकन नहीं
किया बल्कि उपेक्षा तक की और उन्हें दक्षिणपंथी खेमे का नायक बना दिया.
आज के कई समकालीन कवि इन दोनों का नाम सुनकर नाक भौंह सिकोड़ते हैं लेकिन नवल जी ने बिना किसी पूर्वग्रह के इनका मूल्यांकन किया, विश्लेषण किया. ‘दिनकर’ पर जब भाजपा ने दिल्ली के विज्ञान भवन में समारोह किया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संस्कृति के चार अध्याय पर बोला तो उसे कवर करने मैं गया हुआ था. वह इतना नकली और राजनीतिक कार्यक्रम था कि मुझे इस बात से चिढ़ हुई कि दिनकर का इस्तेमाल किया जा रहा है, तब रात मैंने नवल जी को फोन कर उनकी राय दिनकर के बारे में पूछी और बताया कि मोदी ने दिनकर के बारे में क्या-क्या बोला तो नवल जी ने छूटते ही कहा –
"दिनकर दक्षिणपंथी नही थे. भाजपा उनको भुना रही है और उनकी गलत छवि बना रही है."
मैंने अगले दिन दिनकर विवाद पर एक खबर भी चलाई थी. नवल जी टेक्स्ट आधारित आलोचना करते थे हालांकि लेखकों का एक वर्ग उनकी आलोचना पद्धति से खुश नहीं था. दिनमान में एक युवा लेखक ने नवल जी की आलोचना की थी पर धीरे-धीरे नवल जी की धाक अपने कार्यों से बनने लगी. रामविलास जी की तरह वे अपने काम में लगे रहे और समारोहों में जाना कम कर दिया. वे उत्तर-छायावाद को भी केंद्र में ले आये. हिंदी आलोचना में उत्तर-छायावाद पर ध्यान नहीं दिया गया था. नवल जी के ससुर रुद्र जी उत्तर-छायावाद के कवि थे. उन्होंने उनकी भी रचनावली सम्पादित की. एक बार जब मैं और रामकृष्ण पाण्डेय उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा कि
"लेखक का काम केवल लिखना नहीं बल्कि उसे छपवाना भी है और पाठकों तक पहुंचाना भी.”
असल में नवल जी एक पेशेवर लेखक थे जिन्होंने अपने जीवन का सार्थक इस्तेमाल किया और तुलसीदास से लेकर युवा कवि राकेश रंजन तक को पसंद किया. वे वामपंथी थे पर केवल वामपंथी नहीं थे. अपने ७५ वें जन्मदिन पर उन्होंने कहा था कि वह वामपंथी थे. इस ‘थे’ का अर्थ बहुत सारगर्भित है. असल में नवल जी पर यह आरोप लगते रहे थे कि वे अपनी आलोचना में "रूढ़" होते जा रहे हैं. शायद इसलिए उन्होंने अपना रास्ता बदला और साहित्य को केवल विचारधारा की कसौटियों पर नहीं कसा बल्कि टेक्स्ट की व्याख्या पर भी जोर देना शुरू किया. यही कारण है कि वह अज्ञेय को भी पसंद करने लगे थे.

नंद जी अपनी आलोचना को अत्यधिक उदार बनाना चाहते थे. उन्होंने साहित्य में वैचारिक संकीर्णता का हश्र देख लिया था. पटना के साहित्य जगत में उनको लेकर बहुत तरह की बातें कही जाती थीं पर नवल जी ने अपना रास्ता बनाया. उन्होंने सोचा होगा कि मुझे भी रामविलास जी की तरह काम करना है, श्रम करना है और साहित्य समाज को कुछ देकर जाना है चाहे वह अच्छा हो या बुरा. वह नकारवादी वामपंथी नहीं बने रहना चाहते थे. उनके इस ‘थे’ का शायद यही अर्थ था.
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vimalchorpuran@gmail.com
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सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंनम नयनों से विनम्र नमन!
जवाब देंहटाएंविमल कुमार जी ने बड़ी आत्मीयता से नवल की को याद किया है।जाहिर है यह उनके कृतित्व के मूल्यांकन का उचित समय नहीं है।
जवाब देंहटाएंमुजफ्फरपुर में छात्र जीवन में गुरुवर आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के मुख से नवल जी का नाम पहली बार सुना था।
श्री कर्पूरी ठाकुर जी जब मुख्यमंत्री बने थे तो शास्त्री जी को पटना विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर नियुक्त किया गया था।
नवल जी संभवत उन दिनों 'निराला रचनावली' संपादित कर रहे थे और शास्त्री जी से लगातार संवादरत थे।
लगभग बीस वर्ष पूर्व उनसे पहली मुलाकात अपने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में हुई। वे हिंदी कथा साहित्य पर केंद्रित एक संगोष्ठी में सपत्नीक पधारे थे।
आम तौर पर कविता के मर्मज्ञ विद्वान आलोचक के रूप में विख्यात नवल जी का हिंदी के कुछ उपन्यासों पर केंद्रित व्याख्यान अद्भुत था।
उनके व्याख्यान से प्रभावित एक शोधार्थी ने 'मुक्तिबोध:ज्ञान और संवेदना' पुस्तक को केंद्र में रखकर नवल जी की आलोचना दृष्टि पर एम.फिल. का लघु-शोध प्रबंध लिखना तय किया और करीब एक साल बाद उसे उपाधि भी मिली।
इसके बाद संभवत सन 2004 में कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़ में आयोजित हिंदी साहित्य परिषद के अधिवेशन में हमलोग दो तीन दिनों तक साथ थे।उनके कमरे में नए- पुराने अध्यापकों की भीड़ लगी रहती थी,पर बातचीत का विषय प्रायः साहित्य होता था।
इसके बाद अपने तीन वर्षीय बीजिंग प्रवास से लौटने के बाद संभवत 2011 में बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित किसी समिति की बैठक में भाग लेने के बाद वहां के एक अध्यापक डॉ.शेखर की सहायता से नवल जी से उनके आवास पर मिलना हुआ था।तब वे लगभग स्वस्थ थे और संस्मरणों वाली अपनी किताब 'मूरतें माटी और सोने की' लिख रहे थे।
2015 में वारसा के लिए निकलते समय मैंने जब उन्हें फोन किया तो उन्होंने डायरी लिखने का सुझाव दिया जो अभी प्रकाशनाधीन है।
अफसोस है कि उनके सुझाव पर अमल करने का सबूत लेकर उनसे मिलना नहीं हो पाया।
नवल जी का पूरा जीवन साहित्य सृजन के लिए समर्पित था।हिंदी के एक विद्वान अध्यापक होने के साथ ही जीवन पर्यंत उनमें कविता का मर्म चीन्हने की चाह बनी रही।हिंदी कविता और आलोचना के अनेकानेक पक्षों पर वे आजीवन लगातार लिखते रहे और साहित्य को समाजविज्ञान का उपनिवेश बनाने के विरुद्ध खड्गहस्त रहे।
हिंदी के अध्यापक को कितना परिश्रमी,विद्वान और शालीन होना चाहिए ,नवल जी का व्यक्तित्व इसका उदाहरण है।
वे हम सबके प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।
श्रद्धांजलि।
विमल कुमार को इस आत्मीय संस्मरण के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंनवल जी की स्मृति को नमन।
जवाब देंहटाएंइतने समय से एक दिन बाद ही नवलजी पर आलेख आ जाना सराहनीय है। समालोचन व विमलजी को बधाई...
जवाब देंहटाएंसीधा-सादा स्नेह व आत्मीयता से लिखा लेख समुचित रूप से प्रस्तुत कर देने में समर्थ...पुनः साधुवाद...
जब कोई अपना जाता है तो सारे शब्द गूंगे पड़ जाते हैं। नवल चाचा का जाना वैसा ही है। वे हिन्दी के बड़े आलोचक थे। साहित्य में जो रचा उन्होंने उसे दुनिया जानती है। दुनिया उनके कलम की मुरीद रही है। उनकी कल्पनाशीलता,अदम्य जिजीविषा ही थी कि वे लगातार लिख रहे थे। पिछले २ सालों से वे थम गए थे। जैसे स्याही सूख गई हो। मेरे लिए पिता की तरह थे। जब हम सब बड़े हो रहे थे,दुनिया को जान रहे थे ,समझ रहे थे तो इनलोगों ने हम सभी युवा साथियों को गढ़ा। जिन्दगी के सुख, दुख के हिस्सेदार रहे। खूबसूरत और ज़हीन आदमी थे। पटना कालेज में जब हमलोग पढ़ते थे तो उनका छाता और नाक पर रुमाल की खूब चर्चा होती। उन्हें अपने युवा दिनों से देखती रहीं हूं। पहले कभी भी बच्चों के प्रति अपने प्यार को खुलकर ज़ाहिर नहीं करते थे। पिछले कुछ सालों से उनके भीतर प्यार का जो दरिया था वो उनके बांधे नहीं रुकता। पूर्वा और चिंतन के बारे में खूब बातें करते। हम सब की सुध लेते। मैं उनकी मुलामियत और मुहब्बत में भीगती रहती। पिछली बार उनकी शादी की सालगिरह में हम सब दोस्त इकठ्ठे हुए थे। मैंने चाची को इतना खुश बहुत दिनों बाद देखा था। उनकी हंसी को कैमरे में कैद कर लिया। जब जाने लगी तो चाचा ने मुझे गले से लगाया और मेरी पेशानी चूम ली। मेरे लिए उनका ये सबसे बड़ा उपहार था। क्या मालूम था जिन्दगी इस तरह विदा लेगी। जब हम मिले थे मार्क्सवाद में उनकी गहरी आस्था थी। लंबे समय तक कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े रहे। बाद में उनकी दूरी बढ़ती गई। उन्होंने कम्युनिस्ट आंदोलन के अंतर्विरोध और विडंबनाओं को झेला था। फिर भी मन के कोने में कम्युनिस्टों के लिए हमेशा मुहब्बत बनी रही। वे अपने लेखन में निर्मम आंकलन और आलोचना के लिए मशहूर थे। मनुष्य की गरिमा, न्याय और सच के लिए हमेशा उन्हें लड़ते भिड़ते देखा। दुनिया की नजर में वे बड़े आलोचक नंद किशोर नवल हैं। मेरे लिए मेरे प्रिए चाचा जो हमसे सीधे और सच्चाई से बात करते । जिनके विचार, बिंब और भाव में कोई फांक नहीं था। जो गर्माहट से मिलते और मिलते हुए कहते पता है शकील मुझे मौत के मुंह से बाहर ले आए मुझे जिन्दगी दी। हम हंसते कहते डाक्टर का काम ही यही है। इसके लिए क्या शुक्रिया। इस बार उन्होंने मौका नहीं दिया। हम सब उन्हें रोक नहीं पाए। वे निकल गए बिना कुछ कहे। चाचा आप तो हम सब के भीतर बसे हैं। हमारी धड़कनों में।
जवाब देंहटाएंनवल जी ने 'सिर्फ' पत्रिका भी निकाली थी। 70 के दशक में जिन पत्रिकाओं ने साहित्य में विशिष्ट काम किया, उनमें 'सिर्फ' भी शामिल थी। 70 या उन दिनों पटना में जो बृहद लेखक सम्मेलन हुआ था, संभवत या जहां तक मुझे याद आता है उसके आयोजनकर्ता में 'सिर्फ' और नवल जी शामिल थे। बिहार के वामपंथी और जनवादी आलोचकों की कड़ी नवल जी थे। अब गुंजन जी ही उस परंपरा के आखिरी आलोचक हमारे बीच हैं। डॉ सुरेंद्र चौधरी, खगेंद्र ठाकुर, चंद्रभूषण तिवारी, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं। नवल जी के जाने से जो सूनापन पैदा हुआ उसे भरा जाना आसान नहीं होगा। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंअच्छी एवं प्रभावपूर्ण श्रद्धांजलि दी आपने विमल जी !
जवाब देंहटाएंनवल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विमल जी ने आत्मीय रोशनी डाली(एकेडमिक नहीं),समालोचन व विमल।जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंनवल जी को विनम्र श्रद्धांजलि!!
विमल ने बहुत आत्मीयता के साथ याद किया है । अच्छे लोगो को इसी तरह याद किया जाता है ।
जवाब देंहटाएंनवल जी अपनी सोच में नही पहनावे में आधुनिक थे ।वे कवि -आलोचक थे । इस तरह वह आलोचकों के खूसट और परम्परागत छबि को तोड़ते थे ।
एक बेहद सूचनापूर्ण और आत्मीय संस्मरण के लिए विमल जी को बधाई । साहित्यालोचन को मिशन की तरह लेकर चलने वाले नवल जी अपनी पुस्तकों के साथ हमेशा जीवंत रहेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि
जवाब देंहटाएंएक बहुआयामी और जटिल व्यक्तित्व का स्नेह और समझ के साथ स्मरण। आभार, विमल कुमार जी।
जवाब देंहटाएंएक आत्मीय संस्मरण।
जवाब देंहटाएंविशिष्ट और जानकारी भरा आत्मीय संस्मरण!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा
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