पाब्लो नेरूदा की सात कविताएँ : अनुवाद मंगलेश डबराल



दुनिया में जिन कवियों को विश्व-कवि और महाकवि का दर्ज़ा मिला है, उनकी अग्रणी पंक्ति में पाब्लो नेरूदा शुमार किए जाते हैं. उनका जन्म (वास्तविक नाम: रिकार्दो एलिसेर नेफ्ताली रेयेस नासोआल्तो) 12 जुलाई 1904 को लातिन अमेरिका के दक्षिणी छोर के देश चीले में हुआ. तेरह वर्ष की उम्र से कविता की शुरुआत करने वाले नेरूदा को आरंभिक शोहरत बीस प्रेम कवितायें और निराशा का एक गीत से मिली जिसे लातिन अमेरिका के ज्यादातर स्पानीभाषी देशों में अब भी पढ़ा और याद किया जाता है. शुरुआत में उनकी कविता अति-यथार्थवाद से प्रभावित रही, जो बाद में साधारण जन और उनके इतिहास और संघर्ष से गहरे जुड़ी. नेरूदा को बीसवीं सदी में प्रेम और जनसंघर्ष का सबसे प्रमुख कवि माना जाता है.

नेरूदा के नाम कई रिकॉर्ड दर्ज हैं: 
1. वे दुनिया के पहले कवि हैं जिन्होंने पेरू में माच्चू पिच्चू के प्राचीन खंडहरों की लम्बी और कठिन यात्रा की. इस यात्रा पर उनकी लम्बी कविता माच्चू पिच्चू के शिखरपूरी लातिन अमेरिकी सभ्यता और गरिमा का दस्तावेज़ मानी जाती है. 
2. वे जीवन भर चीले की कम्युनिस्ट पार्टी के सदय रहे. 
3. उन्होंने अपने मित्र और समाजवादी नेता साल्वादोर आयेंदे के समर्थन में  चीले के राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ना छोड़ा. 
4. वे पहले ऐसे कवि हैं जिन्होंने 70 हज़ार श्रोताओं के सामने कविता पाठ किया. 
5. नेरूदा की कविता दस हज़ार पृष्ठों में फैली हुई है.

धरती पर घरनेरूदा का पहला परिपक्व संग्रह है. उसके बाद उनके पचासों संग्रह आए और 23 सितंबर, 1973 में उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी बहुत सी कविताएं मिलीं. 1971 में उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ. चीले में जब तानाशाह पिनोचेत की सरकार आई तो नेरूदा को अपने घर में नज़रबंद कर दिया गया जहां उनकी मृत्यु हुई. लेकिन इस बात के ठोस संकेत हैं कि फ़ौजी हुकूमत ने उनकी हत्या की थी.
मंगलेश डबराल





अनुवाद
पाब्लो नेरूदा की सात कविताएँ                    
मंगलेश डबराल



एक बच्चे की ओर से अपने पैर के लिए  

बच्चे का पैर नहीं जानता कि वह अभी एक पैर है
वह एक तितली या एक सेब बनना चाहता है
लेकिन फिर चट्टानें, और कांच के टुकड़े,
सड़कें, सीढियां 
और इस धरती के ऊबड़-खाबड़ रास्ते 
पैर को सिखाते चलते हैं कि वह उड़ नहीं सकता,
और न डाल पर लगा हुआ गोल फल बन सकता है.
तब बच्चे का पैर
हार गयायुद्ध में 
गिर पड़ा
क़ैद हो गया 
जूते में जीने के लिए अभिशप्त.

धीरे-धीरे रोशनी के बगैर 
एक ख़ास ढंग से वह दुनिया से परिचित हुआ
क़ैद में पड़े दूसरे पैर को जाने बगैर 
एक अंधे आदमी की तरह जीवन को खोजता हुआ.
अंगूठे के वे नाखून,
एक जगह इकट्ठा बिल्लौर 
सख्त हो गए, बदल गये  
एक अपारदर्शी पदार्थ में, एक सख्त सींग में
और बच्चे की वे नन्ही पंखुड़ियाँ 
कुचल गयीं, अपना संतुलन खो बैठीं,
बिना आँखों वाले सरीसृप की शक्ल में ढल गयीं,
एक कीड़े जैसे तिकोने सिर के साथ.
और उनमें घट्टे पड़ गए,
वे ढँक गए
मौत के लावे के छोटे-छोटे चकत्तों से,
एक अनचाही हुई कठोरता से.
लेकिन वह अंधी चीज चलती ही रही
बिना झुके हुए, बिना रुके हुए,
घंटे दर घंटे. 
एक के बाद एक पैर,
अभी एक आदमी के रूप में,
अभी एक औरत के रूप में,
ऊपर,
नीचे,
खेतों, खदानों,
दूकानों, सरकारी दफ्तरों से होता हुआ,
पीछे की तरफ,
बाहर, अंदर,
आगे की तरफ,
यह पैर अपने जूते के साथ काम करता रहा,
उसके पास समय ही नहीं था
कि प्यार करते या सोते समय निर्वस्त्र हो सके.
एक पैर चलादो पैर चले,
जब तक समूचा आदमी ही रुक नहीं गया.

और फिर वह अंदर चला गया
पृथ्वी के भीतर, और उसे कुछ पता नहीं चला  
क्योंकि वहां पूरी तरह अंधेरा था,
उसे पता नहीं चला कि अब वह पैर नहीं है 
या अगर वे उसे दफनायेंगे तो वह उड़ सकेगा 
या एक सेब 
बन सकेगा.



चाँद का बेटा 

यहाँ हर चीज़ जीवित है 
कुछ न कुछ करती हुई 
अपने को परिपूर्ण बनाती हुई 
मेरा कोई भी ख़याल किये बगैर.
लेकिन सौ बरस पहले जब पटरियां बिछाई गयीं
मैंने सर्दी के मारे कभी अपने दांत नहीं किटकिटाये 
कॉतिन* के आसमान के नीचे 
बारिश में भीगते मेरे हृदय ने ज़रा भी साहस नहीं किया 
जो कुछ भी अपने को अस्तित्व में लाने के लिए 
जोर लगा रहा था 
उसकी राह खोलने में मदद करने का.
मैंने एक उंगली भी नहीं हिलायी 
ब्रह्माण्ड तक फैले हुए जन-जीवन के विस्तार में 
जिसे मेरे दोस्त खींच कर ले गए थे 
शानदार अलदबरान** की ओर.

स्वार्थी जीवधारियों के बीच 
जो सिर्फ लालच से देखते और छिप कर सुनते 
और फालतू घूमते हैं 
मैं इतनी तरह के अपमान सहता रहा जिनकी 
गिनती करना कठिन है 
सिर्फ इसलिए कि मेरी कविता सस्ती होकर 
एक रिरियाहट बनने से बची रहे.

अब मैं सीख गया हूँ दुःख को ऊर्जा में बदलना 
अपनी शक्ति को खर्च करना कागज़ पर 
धूल पर, सड़क के पत्थर पर.
इतने समय तक
किसी चट्टान को तोड़े या किसी तख्ते को चीरे बगैर 
मैंने निभा लिया,
और अब लगता है यह दुनिया बिलकुल भी मेरी नहीं थी: 
यह संगतराशों और बढइयों की है 
जिन्होंने छतों की शहतीरें उठाईं: और अगर वह गारा 
जिसने ढांचों को उठाया और टिकाये रखा 
मेरी बजाय किन्हीं और हाथों ने डाला था 
तो मुझे इसका अधिकार नहीं 
कि अपने अस्तित्व की घोषणा करूँ:मैं चाँद का बेटा था!
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•   कॉतिन: नेरूदा के वतन चीले के दक्षिणी भाग का एक अंचल.
**अलदबरान: लाल रंग का एक तारा, जो वृषभ की आँख बनाता है.




  

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एक हाथ ने एक संख्या बनायी,
एक छोटे पत्थर को जोड़ा 
दूसरे से, बिजली की एक कड़क को 
दूसरी से
एक गिरी हुई चील को दूसरी चील से,
तीर की एक नोक को 
दूसरी नोक से,
आर फिर ग्रेनाइट सरीखे धैर्य के साथ  
एक हाथ ने दो चीरे लगाए
दो घाव और दो खांचे: एक संख्या ने जन्म लिया. 

फिर आयी संख्या दो 
और फिर चार
एक हाथ 
उन सबको बनाता गया--
पांच, छह, सात,
आठ, नौ, लगातार,
पक्षी के अण्डों जैसे शून्य.
पत्थर की तरह 
अटूट, ठोस
हाथ संख्याएं दर्ज करता रहा
अनथक, और एक संख्या के भीतर 
दूसरी संख्या
दूसरी के भीतर तीसरी,
भरपूर, विद्वेषपूर्ण,
उर्वर, कडवी
द्विगुणित होती, उठती 
पहाड़ों में, आँतों में,
बागीचों में, तहखानों में
किताबों से गिरती हुईं 
कंसास, मोरेलिया* पर उड़तीं 
हमें अंधा बनाती मारती हुईं सब कुछ ढांपती हुईं 
थैलों से, मेजों से गिरती हुईं 
संख्याएं, संख्याएं,
संख्याएं.

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*कंसास और मोरेलिया:  क्रमशः अमेरिकी शहर और मेक्सिको का एक पुराना शहर, यूनेस्को धरोहर है. 


सीधी सी बात

शक्ति होती है मौन (पेड़ कहते हैं मुझसे)
और गहराई भी (कहती हैं जड़ें)
और पवित्रता भी (कहता है अन्न)

पेड़ ने कभी नहीं कहा:
'मैं सबसे ऊंचा हूँ!'

जड़ ने कभी नहीं कहा:
'मैं बेहद गहराई से आयी हूँ!'

और रोटी कभी नहीं बोली:
दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा'



टूटी हुई यह घंटी

टूटी हुई यह घंटी 
गाना चाहती है निर्बाध:
इसकी धातु अब हरी हो चली: 
इसका रंग जंगल का 
जंगल के पोखरों के पानी का 
पत्तों पर गिरते दिन का

पीतल के हरे रंग का एक खंडहर 
घंटी लुढ़कती हुई
और सोयी हुई 
लता-गुल्मों के जाल में 
पीतल का पक्का सुनहरा रंग 
मेढक के रंग में बदलता हुआ 
पानी और तट की नमी के हाथ
बनाते हैं पीतल को हरा 
और घंटी को मुलायम

टूटी हुई यह घंटी 
उजाड़ हो चुके बागीचे में 
घने झाड-झंकाड के बीच फेंकी हुई.
हरी घंटी, घायल 
अपने निशान घास को सौंपती है
किसी को बुलाती नहीं,कोई नहीं आता 
उसके हरे प्याले के आसपास,
सिर्फ एक तितली 
ढहे हुए पीतल पर बैठी हुई
उडती है, फडफडाती है 
अपने पीले पंख.




ज़रा रुको

दूसरे दिन जो अभी आये नहीं हैं 
रोटियों की तरह बन रहे हैं 
या प्रतीक्षा करती कुर्सियों 
या औषधियों या विक्रय -वस्तुओं की तरह:
निर्माणाधीन दिनों का एक कारखाना:
आत्मा के कारीगर 
उठा रहे हैं और तौल रहे हैं और बना रहे हैं 
कडवे या कीमती दिनों को 
जो समय पर तुम्हारे दरवाज़े पर आयेंगे 
तुम्हें भेंट में एक नारगी देने 
या बेरहमी से तुम्हें तत्काल मार देने के लिए.


भौतिकी

प्रेम वनस्पति-रस की तरह 
हमारे रक्त के पेड़ को सराबोर कर देता है 
और हमारे चरम भौतिक आनंद के बीज से 
अर्क की तरह खींचता है अपनी विलक्षण गंध
हमारे भीतर चला आता है पूरा समुद्र 
और भूख से व्याकुल रात 
आत्मा अपनी लीक से बाहर जाती हुई, और 
दो घंटियाँ तुम्हारे भीतर हड्डियों में बजती हुईं 
तुम्हारी देह का भार, रिक्त होता हुआ दूसरा समय.
___________________

मंगलेश डबराल
16 मई, 1948. काफलपानी (टिहरी, उत्तराखंड)

पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है और नये युग में शत्रु आदि संग्रह प्रकाशित.

भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, फ्रांसीसी, स्पानी, इतालवी, पुर्तगाली, बल्गारी, पोल्स्की आदि विदेशी भाषाओं के कई संकलनों और पत्र-पत्रिकाओं में मंगलेश डबराल की कविताओं के अनुवाद, मरिओला ओफ्रे़दी द्वारा उनके कविता-संग्रह आवाज़ भी एक जगह हैका इतालवी अनुवाद अंके ला वोचे ऐ उन लुओगो नाम से तथा अंग्रेज़ी अनुवादों का एक चयन दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्ट  प्रकाशित.

मंगलेश डबराल द्वारा बेर्टोल्ट ब्रेश्ट, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, यानिस रित्सोस, जि़्बग्नीयेव हेर्बेत, तादेऊष रूज़ेविच, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि की कविताओं का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद भी प्रकाशित.

ई 204 जनसत्ता अपार्टमेंट्स, सेक्टर 9
वसुंधरा, ग़ाज़ियाबाद-201012
ई-मेल: mangalesh.dabral@gmail.com

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  1. बहुत बढ़िया कविताएँ और अनुवाद

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  2. मंगलेश जी बेहतरीन अनुवादक हैं, इन कविताओं के अनुवादों ने फिए एक बार इस बात को साबित किया है। लाल सलाम ! मंगलेश जी !

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  3. पाब्लो नेरुदा का चौथे नम्बर का रिकॉर्ड हिन्दुस्तान में हर रोज़ टूटता है जहाँ मुशायरों और कविसम्मेलनों में कवि लाखों लोगों के सामने कवितापाठ करते हैं । मंगलेशजी के अनुवाद अच्छे हैं ।

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  4. गार्गी मिश्रा22 अक्टू॰ 2019, 10:47:00 am

    अच्छे अनुवाद हैं। नेरुदा की कविताओं के अनुवाद इतने हुए हैं कि वे कभी कभी मर्जिनलाइज़्ड से हो जाते हैं। फिर भी एक बेहतर अनुवाद पढ़ने की इच्छा फिर पैदा करता है। शुभकामनाएं मंगलेश जी को।

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  5. राजकमल नायक22 अक्टू॰ 2019, 1:49:00 pm

    मेरे पसंदीदा कवि जिनकी अनेक कविताओं को मैंने समय-समय पर मंचित किया है,अभी 3 माह पूर्व भी।

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  6. बहूत ही आनन्दायक कविताए और अनुवाद

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  7. श्रेष्ठ कविताओं के शानदार अनुवाद मंगलेश जी ने किए हैं - बधाई।

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  8. जितनी यादगार कविताएं, उतने ही सुंदर अनुवाद! शुभकामनाएं.

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  9. You, apple
    are the object of my praise.
    I want to fill
    my mouth
    with your name.
    I want to eat you whole. ....
    Ever since Jimenez dismissed him as a great small poet, Neruda's poetry and reputation only grew...forever new, forever relevant...any translation of his work is welcome, perhaps being never above question...the popular Bengali translations were often drab...these are supposed to be better....we hope so... Arun Dev ji, kudos to you and the translator.

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  10. ये कविताएँ और अनुवाद बार बार पढ़ने जैसी हैं। मंगलेश जी के अनुवाद बेहतर होते हैं। समालोचन और मंगलेश जी को बहुत बधाई।

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