राजीव कुमार की कविताएँ

Mohamed Ahmed Ibrahim, Sitting Man)



‘कुछ वैसी कविताएं पढूं
जिसे लोक का तराशा हुआ कवि
अपनी किस्सागोई के
विघटन काल में लिखता है.’

राजीव कुमार का यह काव्य-अंश उनकी मनोभूमि को स्पष्ट कर देता है.  उनकी कविताएँ विघटन से पैदा होती हैं और उनमें  कथात्मक त्रासदी छुपी रहती है.  उनकी कविताओं को पढ़ना समकालीन काव्य-रंगत से अलग ही रंग देखना है. इन्हें पढ़ते हुए लगता है कि आपने जिंदगी को छू लिया है चाहे वह जैसा भी हो, कुछ कुछ टूटा, विस्मृत, पराजित, आहत, फिर भी धडकता हुआ.


 उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं.




राजीव कुमार की कविताएँ                     




सन्दर्भ

क्षितिज के ऊपर कई भ्रम
कई अनुत्तरित प्रश्न
कई काल-निरपेक्ष विश्लेषण बुरे काल-खण्डों का
सहानुभूति से निरापद
परन्तु अस्मिता से जुड़े.

कुछ सुझाव दिये जाते हैं
अपने समय से बाहर निकल जाने का
हर युग ने तैयार किये हैं उपाय
अबूझ परिस्थितियों के
धैर्य को बेवजह कारगर हथियार बताया गया
ये सुझाव मेरे लिए कभी समाधान नहीं थे.

मेरे प्रश्न मेरे साथ ही
परस्पर विरोधी शिखरों की यात्रा करते हुए
न जाने कब मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा हो गए
कब मैंने मान लिया मेरे लिये जीवन यही है
एक अंधेरे के खत्म होने से पहले
शुरू हो जाएगा दूसरा भयावह अंधेरा
पता ही नहीं चला कब मैं
एकदम से टूट कर अलग हुआ अपने सन्दर्भों से.

(Avishek Sen, As if they knew where paradise is )



रांची बहुत बदला है

रांची बहुत बदला है अपर्णा
2011 में तुम्हारी मृत्यु के बाद तो और भी
बड़ी दुकानों और चमकती कारों ने
फिजां ही बदल दी है शहर की
हालांकि तुम तो और पहले छोड़ चुके थे
इस शहर को
बदल जाने की आहट शायद सुन ली थी तुमने
जबकि तुमने काम के सिलसिले में मुंबई को चुना था.

मुझे खोजने की ज़िद थी
कोई जगह छूटी हुई
एक डोर बुरी तरह उलझी हुई
दूर पतंग की उर्ध्वाधर दिशा
लहराकर फिर स्थिर हुई हो जैसे
वीराने से तुमने इस बार भी आवाज़ दी हो जैसे
कॉफी शॉप पर मिलेंगे
उस बार भी सरकारी यात्रा पर ही था मैं.

अंड्रिउज बहुत भव्य था राजकुमारों जैसा
तुम खुद ही कहती थी अपने को
काली के नज़दीक वाली सांवली
मेरा अंतर्मन इस शादी के विरोध में रहा
पर तुमने कर ली थी शादी
यह कहते हुए
'
पहली शादी सबकी बेमेल होती है'
दूसरी में देखेंगे
पहली शादी के बारे में यह मेरा तजुर्बा था
और तुमने इस जुमले को
गुस्से में मेरी तरफ ही लौटा दिया
आंड्रिउज अमेरिकन फेलोशिप से लौटा नहीं
उसने एक और शादी कर ली
तुमने कहा वह डिजर्व करते हैं एक फिरंगण.

मैं आज भी पढ़ लेता हूं
नई पुस्तकें मेरे साथ हमेशा होती हैं
पर स्मृतियों का जजीरा हावी था
दश्त,शहर और आवारगी का उसूल भी निभाना था
खोज लिया मैंने तुम्हारा वह स्कूल
जहां कमाल की अंग्रेज़ी सीखी थी तुमने.

घर बिक गया, या बदल गया
मैं प्रयास करके भी पहुंच नहीं सका
पुराने साहित्य में अक्सर घर खोजता हुआ
किरदार पहुंच जाता था
अपनी दोस्त के घर
तुम्हारा घर हालांकि
हमारी दोस्ती में एक यूटोपिया ही रहा
यदा कदा तुम लाफिंग मैटेरियल ही निकालते रहे
घर के जिक्र से.

तुम सिगरेट के बिना नहीं रहती थी
खाने के बिना रहते कई बार देखा
तुम कहा करती थी
आदतें मजबूत बनाती हैं
पैशन ज़िंदा रखता है
पंगे लो और टकराओ सिचुएशन से
पर इस जिजीविषा को कैसे डंसता है काल
मेरी बेटी और तुम एक साथ
कैंसर की दुनिया में प्रवेश कर गए
मैं बेटी का मुंबई में इलाज कराते तुमसे दूर हो गया.

ज़िन्दगी दूर करना शुरू करे
तो फिर कर देती है
झपट्टा मारने का हुनर
और समय थामने की ज़िद होनी चाहिए
हम कभी समझ नहीं पाते.

जगजीत सिंह तुम्हें बेहद पसंद थे
तुमने उन्हें फॉलो किया


चिट्ठी ना कोई संदेश, ना जाने कौन सा देश
मैं तुम्हारे शहर से कल लौट जाऊंगा
मेरे हाथ से फिसलना चाहती है रेत
सदमा तो है मुझे भी, तुझसे जुदा हूं मैं

अब अर्थ बता सकता हूं इसका.



प्रेम और सियासत

मन है कि तुम्हारे घर के छज्जे पर बैठकर
कुछ वैसी कविताएं पढूं
जिसे लोक का तराशा हुआ कवि
अपनी किस्सागोई के
विघटन काल में लिखता है.

ऊपर छत पर जाते हुए याद आए मुझे
स्टालिन का सीढ़ियों
पर चढ़कर क्रेमलिन के
ठोस नींव की बात करना

याद करूं रास्पुटिन को
प्रेम और सियासत के अधूरेपन को
और ऊपर मुंडेर से नीचे
तुम्हारे शहर का अंधेरा देखूं.

तुम जब थोड़ा पीकर ठहरो
खींच कर मुझे, जोर देकर कुछ कहो
अपने विषाद की व्याख्या करते हुए
तो मैं बताऊं कि तुम अकेली नहीं
अकेलापन सालता है जिसे,
मेरे जैसे कई लोग हैं जो ठहरना चाहते तो हैं
परन्तु, खुद के मशहूर होते जाने की प्यास
किसी कुएं पर उन्हें ठहरने नहीं देती.

अंधेरा बढ़ जाएगा एक दिन.

(Rajan Krishnan : Plant from the Grove by the River 1)



हम पेंटर नहीं हैं

हमें रंगों के संयोजन का ज्ञान नहीं
हम प्रकाश और छाया का उचित प्रबंधन नहीं जानते
जो अंधेरे में डूब रहा है
उसके पोर्ट्रेट में रंग नहीं भरे जा सकते
उसके प्रति हमदर्दी चित्र कला की चुनौती भी है
हमारी याददाश्त तस्वीर परक नहीं
घनघोर तम में हम उत्कृष्ट नहीं रच पाते.

पर हम अपने दिन गढ़ते हैं
सुनियोजित करते हैं अपनी यात्राएं
हमारी उपासनाएं रंग भरती हैं
हम प्यार करते हैं उदास आदमी को,
जो हमें छोड़कर बहुत आगे निकल जाते हैं
उन्हें भी हम शिद्दत से याद करते हैं
हम निजता का समादर करते हैं
हम कई बार हारकर भी आत्म हत्या नहीं करते.



नदी के पास

उनसे कहो नदी के थोड़ा पास जाएं कभी
सूखते हुए कछारों का सौंदर्य देखें
शांत कमजोर पड़ती नदी की आवाज़ सुनें
नदी तो तभी सूखने लगी थी
जब मुसाफिर प्यास लेकर कहीं और जाने लगे.

कश्तियाँ लेकर जो पार हुए
उन्होंने नदी का जीवन नहीं जिया
पुलों से गुजरकर महज रास्ते तय किये जाते हैं
नदी पार नहीं की जाती.

जो इसका संगीत सुनते हुए जीवित रहे
नदी के ही आसपास
जिन्होंने उसकी गोद से रेत निकाली
जो कंकड़ चुनकर किनारों को मजबूत कर सके
नदी को वे ही जी सके.



प्रतीक्षा

एक ज़िद ही है कि
यादों से फेर लेती है अपना मुंह
अब तक नहीं कहा किसी से
कि हमेशा दर्द रहने लगा है उसे
बच्चे के स्कूल जाते ही उदास हो जाता है उसका कोना
सफर में अब नहीं होता हूं मैं, मेरी बातें
रेल निर्जन से गुजर रही हो तब भी
उसने किसी से नहीं कहा कि
अच्छा नहीं था मेरा इस तरह जाना उसकी ज़िंदगी से.

मेरे लौटने की प्रतीक्षा नहीं है उसे
शाम ढले वक़्त को गुजरते देखती है
वक़्त मुंडेर पर देर तक ठहरता है
कभी कुछ जो पढ़ लेती है
उसमें हमारी ही कोई दास्तां है आज भी
वह मंदिर के घंटे की ध्वनि से थोड़ा डरती है
रात के फिर से आ जाने की सूचना
उसका मन थोड़ा डरता है इन दिनों.

मैं अकेला अब दूर एक दूसरे शहर में
हर गुजरे की व्याख्या समेटे
हर मोड़ पर आहत
उसके गुजरते ऐसे ही दिनों को देखता रहता हूं.



गाँव

अब जब लौटता हूँ घर
बचपन का गाँव मिलता नहीं
मिलते हैं ठहरे हुए बरगद
जनार्दन बाबू का खँडहर
जहां पहले था मंदिर और सामने खुला खेत
ठीक वहीं पर उग आया है एक छोटा क़स्बा
मोबाइल टावर पर खड़े कई रिपीटर
कुछ पक्के मकानों के पास, अजीब धुंआ, पेड़ों की हरी धुन्ध
कोलाहल, खेलते बच्चे
भागता जा रहा रामदरश, पीछे-पीछे हम
धुंध में खो गए धीरे-धीरे कई दोस्त बचपन के.

कहते हैं सभी कमाने निकले थे
कुछ सालों के अंतर पर
दीवाली और छठ पर भी नहीं लौटते अब;


कहते ये भी हैं
जो लौटता नहीं
देवता-पितरों से मुक्त हो जाता है
घर की दीवारें छोड़ देती हैं आस
खलिहान में अन्नप्रास नहीं रखा जाता उनके लिए;


कुछ ने कहा था कमाई अब अच्छी होने लगी है
कुछ चुप रहते थे जीवन कैसा है के जवाब में;


सांझ ढलने लगती
प्रश्न निरुपाय, निरुत्तर परिवेश.

पूरी पीढ़ी ऊपर की गायब है आँगन से
दादा नहीं अब, ना उनके सूत्र वाक्यों का छोर
चाची लड़ती रही आखिर तक
कहते हैं शायद कैंसर था
दादी के अनुशासन की रास थामे रही थीं चाची
नयी पीढ़ी मुझे पहचानने का उपक्रम करती है
कोई ठीक हिस्सा नहीं दीखता मेरे चेहरे पर आत्मीयता का,
मैं खेत से लौट रहा हूँ, अपरिचित सी हैं सारी मेड़ें
बटाई का हिस्सा कई साल से नहीं मिला.

इसी गाँव में मिल जाते थे सारे जवाब
मैं प्रश्न बना घूमता रहा कई दिनों
टोला, सीमान छाना कोई जवाब नहीं
बच्चे दिल्ली में खोज रहे हैं मुझे
प्रश्न, स्मृतियाँ, अवसाद
खाली हाथ, पूरा का पूरा रीता हुआ
बरौनी जंक्शन छोड़ चुकी है गाड़ी
अब लौट रहा हूँ मैं.
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राजीव कुमार 
(३० जनवरी, १९६७ बेगूसराय)
कविताएँ और लेख यत्र -तत्र प्रकाशित. नालंदा की पृष्ठभूमि पर उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य.
दिल्ली में रहते हैं.
rajeevccabihar@gmail.com

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  1. राजीव जी की कविताओं की मुझे समालोचन पर लंबे समय से प्रतीक्षा थी। समालोचन पर उनकी कविताएं पढ़ना सुखद है।

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  2. राहुल द्विवेदी11 जुल॰ 2020, 10:29:00 am

    "नदी तो तभी सूखने लगी
    जब मुसाफिर अपना प्यास ले कहीं और जाने लगे•••।"
    राजीव जी को बहुत बहुत बधाई, इस तरह के बिम्ब को रचने के लिये ।

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  3. राजीव कुमार ने उत्कृष्ट कविताएं लिखी हैं। ऐसी ही होती हैं यथार्थवादी कविताएं-घनघोर तम में उत्कृष्ट नहीं रचा जाता। रांची बहुत बदला है, प्रेम और सियासत भी जीवनानुभों की कविताएं हैं।

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  4. डॉ. सुमीता11 जुल॰ 2020, 4:15:00 pm

    विविध मनोभावों की सुन्दर कविताएँ। Rajeev Kumar जी को बधाई। 'समालोचन' को धन्यवाद।

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  5. पुल पर से केवल रास्ते पार किए जाते हैं-
    बहुत निजि भावपरक कविताएं जो पाठक को अपने निजि समानांतर अनुभव विश्व में ले जाती हैं।

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  6. राजीव कुमार की इतनी कविताएँ एक साथ अरसे बाद पढ़ीं। खुशी है। इनमें विकसित होना दिखता है। निजी अनुभवों के बयान में जीवन की व्यापकता, वैभव और तकलीफ़ का स्पर्श किया जा सकता है।

    सभी कविताओं में संवेदनशील ध्वनियाँ हैं। नदी संबंधी कविता में नरेश सक्सेना की दो पंक्तियों की छाया है लेकिन इन पंक्तियों के बिना भी, बाकी कविता अपने आपमें बेहतर है।
    बधाई। आगे उत्सुकता रहेगी।

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