देस – वीराना में कथाकार, कवयित्री और चित्रकार
प्रत्यक्षा की यादों का कोलाज. राँची के सिमदेगा चाईबासा का परिदृश्य किसी
स्लोमोशन चित्र श्रृंखला की तरह प्रत्यक्ष होता है. घर, परिवार, मुहल्ले, गलियाँ,
परिवेश और उनसे जुड़ा बालमन. यह किताबों, बहसों और सपनों का शहर है, यह तपती दोपहरी
में घर से धीरे से खिसक कर बैरोमीटर, टूटे थर्मामीटर के पारे, और ग्लोब से खेलने का समय
होता था, जो शायद अब हर
जगह हमेशा के लिए बदल गया है.
आत्मीय और संवेदनशील अंकन. पेंटिग भी प्रत्यक्षा
के ही हैं.
____________________________
::
____________________________
राँची-सिमदेगा चाईबासा
प्रत्यक्षा
जब तक उस शहर रही जैसे एक सपने में रही
मेरे
भीतर अब भी एक दुनिया बसती है जिसे समय ने कब छुआ है? लौट सकती हूँ बारबार जबकि भोला मन जानता है अब कहीं नहीं बची वो दुनिया.
शायद उसका फिजिकली न बचना और सिर्फ मेटाफिजिकली बचना ही उसको इतना प्व्यागनैंट
बनाता है.
लौटती
हूँ, रज़ाई की गर्माहट वाली खोह के भीतर से, जैसे एक सुरंग बनती है जो मुझे छुपा कर ले जाती है इस समय से उस समय में,
इस जगह से उस जगह में .. लाल मिट्टी का एक कतरा मेरे नाखून के भीतर
दबा, मेरी आत्मा के कोर में दबा जाने तब से अटका पड़ा है,
गीली मिट्टी में हरियाली फसल का बीज.
सपने
देखना मैंने उसी शहर देखना शुरु किया. शहर की बात करना अपनी बात करना है, अपने अंतरतम की बात करना है. मैं और शहर इस तरह एक दूसरे में गुँथे हुये
हैं, उनके रेशे इतने लिपटे हुये हैं कि एक की बात करना दूसरे
की बात करना ही है, अपना अंतर थोड़ा थोड़ा खोल खोल देना भी और
थोड़ा उन्हें धूप रौशनी भी दिखाना. थोड़ा अपने भीतर झाँक लेना भी. इतने लम्बे अंतराल
के बाद लौटना शायद एक बार फिर से जी लेना भी.
तब दिन
कठिन रहे थे. बड़े चाचा की मृत्यु और उनके परिवार का बाबा और बड़े भाई के साथ पटना
रहना, पिता का डालटनगंज से चाईबासा फिर सिमदेगा तबादला और हमारा राँची रहना, चाचा के साथ, पढ़ाई के मद्देनज़र. परिवार जैसे बिखर
गया था. मैं पिता से बेहद बेहद करीब थी और उनके बगैर रहना मेरे लिये मर्मांतक पीड़ा
का सबब था. पूरा बचपन मैंने छुट्टियों के अलावा पिता के बगैर बिताया. ये मेरे लिये
बेहद तकलीफदेह परिस्थिति थी. राँची लौटना मेरे लिये बिना पिता के रहने वाली स्थिति
होती जिसे मेरा मन सिरे से खारिज करता. बस अड्डों से और रेलवे प्लैटफार्मों से
लौटते, बसों और जीप और रेल की कितनी यात्रायें कैसे विषाद
में मैंने की हैं. और हमेशा राँची से वहाँ जाना जहाँ पिता होते खुशी का क्षण होता,
लौटना हमेशा दुख और रुलाई से भरा. फिर राँची की लाल मोर्रम मिट्टी
मेरे तलुये पर क्यों छपी है? कोई आदिवासी चेहरा नितांत अपना
क्यों है? कारे छौउआ मन कहता कोई आवाज़ कैसी हूक उठाता क्यों
है ?
::
मुझे
बहुत चीज़ें याद नहीं, याद नहीं कि किसी दोस्त को,
तीस साल पहले, स्कूल में, मैंने रूसी किताबें दी थी पढ़ने को और याद नहीं कि बचपन में मुझे साग खाना
अच्छा नहीं लगता था, याद नहीं कि पहली दफा मैंने कब साइकिल
चलाई थी, पहला कदम कैसे रखा था, माँ का
हँसता चेहरे कैसे देखा था, याद नहीं, याद
नहीं कि मेरे दाँतों में ब्रेसेस लगे थे तो कैसा लगा था, पहली
दफा किसी किताब का जादू सर चढ़ा था, किसी से पहली बार मोहब्बत
हुई थी, पहली बार जब माँ की साड़ी निकाल कर चुपके से पहन कर
आईने में देखा था, खेत में बम्बे की मोटी धार के नीचे खड़े
नहाया था, लीची के पेड़ पर चढ़कर लीची खाई थी, किसी गाने को सुनकर रोई थी, बहन से पहली बार झगड़ा
किया था, पिता की गोद में बैठ फोटो खिंचवाई थी (वो तस्वीर
नहीं होती तो याद के बहाने तक न होते)
याद नहीं
कि पहली बार दुख जैसी बात महज शब्द नहीं, छाती में गहरे कोई कूँआ
खुन जाये जैसा दुख समझा था, पहली बार खुद को किसी और की
नज़रों से देखा था, याद नहीं कि कमला दास की माई
स्टोरी तेरह साल की उम्र में पढ़ते उनकी तेरह साल की उम्र से खुद को जोड़ते कैसे
देखा था, याद नहीं कि अपने से दस साल बड़े भाई से किस गँभीरता
से डी एच लॉरेंस और टॉमस हार्डी पर बचपन में जिरह किया था,
याद नहीं
याद नहीं
कि कितने बरस, कितने दिन, कितने पल बिताये थे, चादर से मुँह ढाँपे, भरी दोपहरी में, सोचते कि होते किसी और संसार में,
कोई नाव धीमे बहती किसी नदी में, लिये जाती
अकेली मुझे, तारों भरी रात में या फिर कोई बियाबान सुनसान
सड़क पर नितांत अकेले, जानते दुनिया को, खुद को, समय को ...याद नहीं
याद नहीं
कि बच्चे थे तो क्या थे और अब बड़े हैं तो क्या हैं, याद
नहीं कि किशोरावस्था में हारमोंस के खेल कितने भयावह होते हैं और याद नहीं बचपन
में बड़ों की नाईंसाफियाँ, याद नहीं कि तब कैसा मधुर भोला
खुशगवार समय था, याद नहीं कि बिना चिंता के दिन बिताना कैसा
दिन बिताना होता था, याद नहीं जब शरीर इतना चुस्त था,
इतना फुर्तीला कि मीलों धूप में चल लेने की कूवत थी, कि बसों से लटक कर लम्बी दूरी तय कर सकते थे, बिना
ऐयर कंडिशन के दिक्कत नहीं थी, जब सिर्फ दो अच्छे कपड़े होते,
बाहर के और एक जोड़ी जूते, जब सही और गलत इतने
साफ थे जैसे सफेद और स्याह, जब झूठ झूठ होता था किसी को खुश
करने के लिये कहे गये प्लैटीट्यूड्स नहीं ,
::
राँची एच.
ई. सी. , सेक्टर टू साईट फोर .. हमारा
क्वार्टर लगभग अल्ल छोर पर था. लगभग एक छोटी सड़क और और उसके बाद बियाबान उजाड़. एक
चट्टानी पहाड़ी बरसाती नदी और काफी दूर पर कुछ गाँव घर. टाउन शिप का मज़ा जहाँ सब एक
दूसरे से हिले मिले. याद आते हैं मैगलोर के पाई चाचा चाची जिनके घर से आना जाना हर
सप्ताह होता. पाई चाची मेरे चाचा को राखी बाँधती. पाई चाची को हिन्दी नहीं आती थी
शुरु मे पर हर बात पर खूब हँसती. खूब बढिया मैंगलोरियन खाना खिलातीं और पूछने पर
कि किस चीज़ से बनाया हँसते हँसते किचन से डब्बा उठा कर दिखातीं. बाद में खुद से
सीख सीख कर इतनी हिन्दी जान गईं थीं कि
गुलशन नन्दा और रानू के उपन्यास पूरी पूरी दोपहरी पढ़तीं. एक बार मुझे उनके घर एक
हफ्ते रहना पड़ा था और उन्होंने कमर कस लिया था कि मैं बहुत दुबली हूँ और मुझे खिला
खिला कर मेरा वज़न बढ़वा देना है.
बाद के
वर्षों में उन्होंने अपना एक जवान पुत्र खोया. उसका चेहरा अब भी आँखों के आगे
तैरता है . अब बैगलोर में रहती हैं. अब भी हम सम्पर्क में हैं.
इसी तरह
माधवन चाची थीं. इनके घर रोज़ का आना था. दक्षिण भारतीय भोजन की लत इन्ही की बदौलत
लगी थी. रविवार के दिन हमारे घर कैरम की बाजी लगती और जो टीम हारती वो झोपड़ी
मारकेट से लाये समोसे की पार्टी करवाती. झोपड़ी मारकेट झोपड़ी मारकेट नहीं था. ये
नाम हमारा दिया था. एक पतली गली के दोनो ओर टाट वाली दुकानें जिसमें हलवाई , साइकिल रिपेयर, गल्ला , पान,
खिलैना, सिगरेट, कपड़े ..
जो कहो सब मिलता .
माधवन
चची मूढी भी बड़ा अच्छा बनातीं. मूढी में हरी मिर्च, प्याज़,
अचार का मसाला और सरसों तेल की बजाय नारियल तेल. उनके घर से नारियल
तेल की खुशबू आती और उनके घर में घुसते ही मुझे लगता केरल के नारियल पेड़ के हवा
में झूमते समन्दर के किनारे वाली दुनिया में पहुँच गईं हूँ. उनकी बॉलकनी से दूर
दूर तक हरियाली नज़र आती. उसके बाद कोई दूसरी बिल्डिंग नहीं थी. रात को शायद मीना
वासु और मनिकंठन को डर लगता हो जब वो अकेले होते हों. दिन में जो सुंदर हो वो रात को डरावना भी हो सकता
है. मैं उन दिनों ड्रकुला और फ्रैंकेंस्टाईन पढ़ रही होती .
राँची की
मिट्टी लाल मोर्र्म की मिट्टी होती है. बरसात मे पानी टिकता नहीं, बह जाता है. चट्टानी पत्थर और पुटुस के झाड़. हम चूक़ि एच. ही. सी. मे रहते,
हमारी दुनिया उतने में ही सिमटी थी. कभी कभार हम शहर जाते. सिनेमा
देखने. टाउंन शिप पार करते डोरंडा होते फिरायालाल चौक तक. फिरायालाल तब आज
के मॉल का पूर्वज था. एक ही छत के नीचे सब चीजें मिल जातीं. और वहाँ की सॉफ्टी तो
गज़ब. शहर जाने को हम राँची जाना कहते. कहते कि हम राँची जाते हैं, सिनेमा देखना है और सॉफ्टी खाना है. जैसे हम राँची नहीं रहते थे हम एच. ई.
सी. रहते थे और हुल्हुन्डू जाते थे. हुलहुंडू में हमारा स्कूल सेकरेड हार्ट था.
लेकिन हम कभी सेकरेड हार्ट या स्कूल नहीं जाते थे. हम हमेशा हुलहुंडू जाते थे .
::
घर के
पिछवाड़े खाली ज़मीन थी जिसे घेरा नहीं गया था. आसपास के सब बच्चे वहीं आ कर खेलते.
पिटो, चोर सिपाही, इखट दुखट. पपली सुपली बूनी और कुमकुम. प्रभा और मनी
भैया. और लगातार रोने वाला अनिल. एक कोने
पर पपीते का पेड़ था और उससे लगा मनी भैया का हाता. मनी भैया घरौंदा बनाने में मदद
कर देते. और सूर्यावती भी तो थी जिसकी
शादी हो गई थी. उसके पति जब आते तब बॉलकनी
से लालची निगाहों से हमें खेलते देखती. और उसका भाई बिनोद जो स को फ बोलता था.
घर से
रास्ता अगर याद करूँ तो अब भी साफ साफ याद है. कितनी दूर सीधे, कितना दायें कब बायें,
किस घर के बाद मुड़ना है, किस गुमटी के बाद बस
आयेगी, फिर लम्बी सीधी सड़क के बाद मेन रोड से सेकटर तीन होते
हुये फैक्टरी एरिया से निकलते हुये निफ्ट होते हुये हुलहुनडू में स्कूल जाना,
हर रोज़ दस साल. सिस्टर रोज़लिन, सिस्टर टेस्सी,
सिस्टर सुशीला सिस्टर साईमन, मिसेस ठाकुर,
मिसेस अनीला, मिसेस जगोटा, मिसेस शर्मा, दीदी गोदलीपा दीदी उर्सुला .. सबका
चेहरा एक बार आँखों के सामने आता है, मदर हिल्डरगार्द का भी,
प्ले एरिया से बिना डाँटे ट्रैश उठाते रहने का, जिसके फलस्वरूप आज भी मैं कहीं भी कूड़ा नहीं फेंक पाती, ड्स्तबिन की तलाश में कई बार कूड़ा सँभाले घर तक आई हूँ उनको याद करते.
स्कूल में मॉरल साईंस की क्लास भी इस मायने में बहुत सही थी कि कुछ संस्कार और
एथिक्स खून में धँस गये.
शहर से
एक बात और ध्यान आती है. दशहरा में खूब धूम होती थी. हमारे घर से कुछ दूर पर एक
जगह थी, जिसका नाम जाने क्यों दिल्ली
कैंटीन पड़ा था. दिल्ली कैंटीन एक खुला इलाका था जहाँ दशहरे के दिनों मे रामलीला
खेली जाती. पूरा एच.ई. सी. सपरिवार इकट्ठा होता. जितनी रामलीला देखी जाती उतना ही
समोसे चाट का सेवन किया जाता. बड़ों के मिलने जुलने की जगह भी थी. तो मंच पर
रामलीला खेला जा रहा है और पीछे लोग अपने में मशगूल हैं. अंतिम दिन आतिशबाजी होती.
और उसके पहले जगन्नाथपुरी के पहाड़ी पर रावण का पुतला जलता. हम बच्चों की मौज होती.
::
इन सब
मौज के बीच हम कहीं खोये रहते. हमारा होना दो होने के बीच झूलता रहता. स्कूल और घर
के बीच दो दुनियाओं का संसार था था. घर में पिता नहीं थे. और हम लगातार उनके
इंतज़ार में होते. माँ भी.
हमारे घर
एक बैरोमीटर, एक लक्टोमीटर और एक ग्लोब था. एक
थर्मामीटर भी था जो टूट गया था और जिसका पारा हमने एक छोटे पारदर्शी डब्बे में
इकट्ठा कर रखा था. लैक्टोमीटर से हम दूध की शुद्धता नापते थे. उन दिनों हमारे घर
में फ्रिज़ नहीं था और माँ दिन में चार बार दूध गरम करती थीं कि खराब न हो. हम
स्टील के कटोरे में दूध डालकर जाँचते थे. उसमें पानी डाल-डाल कर देखते कि
लैक्टोमीटर सही बता रहा है कि नहीं. हर बार सही माप हमें भौंचक करता और हम एक
दूसरे को देख विजयी भाव से हँसते थे जैसे कि ये कोई जादू का खेल हो जिसे हमने ही अंजाम दिया था.
गर्मी की
चट दोपहरियों में माँ साड़ी का आँचल एक तरफ फेंक कर पँखे के नीचे फर्श पर चित्त सो
जाया करती थी तब हम चुपके दबे पाँव बैरोमीटर लेकर बाहर निकल जाया करते. पुटुस की
झाड़ियों की ठंडी छाँह में भुरभुरी मिट्टी में तलवे धँसाये बैरोमीटर पढ़ते. उसका माप
हमारे समझ के बाहर था. फिर भी उसको हाथ में थाम कर उसके बढ़ते घटते रीडिंग को देखना
हमें अन्वेषणकर्ता बना देता था. ग्लोब पढ़ना अलबत्ता अकेले का खेल था. ग्लोब नीले
रंग का था और उस पर दर्शाये ज़मीन के टुकड़े भूरे हरे रंग के. उसका ऐक्सिस हल्के
पीले रंग का था. धीमे धीमे उसे हम घुमाते और आँख बन्द कर कहीं उँगली रख देते. कुछ
पल में ही एशिया से योरोप या दक्षिण अमरीका पहुँच जाते. हम जगह, जगहों तक पहुंचना सीख रहे थे.. लीमा, पेरु, इस्तामबुल से बढ़ते हुये हम बुरकिना फास्सो, उलन बटूर, ऊरुग्वे, समोआ,
तिमोर, इस्तोनिया, किरीबाटी,
सान मरीनो तक पहुँच जाते. फिर हमने ऐटलस
पढ़ना शुरु किया. ज़मीन पर ऐटलस फैलाये हम मूड़ी जोड़े महीन अक्षरों को उँगलियों से
पढ़ते. फिर हमने पुरानी दराज़ों को खँगालते हुये मैग्नीफाईंग ग्लास का अन्वेषण किया
था. उससे न सिर्फ़ अक्षर बड़े हो जाते थे बल्कि हथेलियों की रेखायें और उँगलियों के
पोरों के महीन घुमाव से लेकर त्वचा के रोमछिद्र तक विशाल दिखाई देते. पकड़ी हुई
मक्खी का शरीर और चम्मच पर रखे शक्कर का दाना भी. और सबसे मज़े की चीज़ कि सूरज की
किरण को फोकस कर नीचे रखे अखबार का एक कोना भी जलाया जा सकता था.
पर ये सब
दूसरे दर्जे के खेल थे. असली मज़ा ऐटलस और ग्लोब पढ़ने का ही था. टुंड्रा और सवाना
और पम्पास समझने का. पहाड़ों पर उगते मॉस लिचेंस और रोडोडेंड्रॉन जानने का था. ऐटलस
को छाती से सटाये चित्त लेटकर छत देखने का था. छत देखते उन दूरदराज जगहों की
गलियों में भटकने का था. मोरोक्कन जेल्लाबा, अरब हिज़ाब, काहिरा की गलियाँ, स्पैनिश
क्रूसेड्स बोलने का था. दिन में सपने देखने का.
जबकि स्कूल में भूगोल मेरा प्रिय विषय नहीं था. इसमें गलती सरासर सिस्टर रोज़लिन की
थी. सिस्टर रोज़लिन हमें भूगोल पढ़ाती थीं. उनके टखने नाज़ुक थे और पाँव सुडौल. वो
पतले काले फीते वाले सैंडल पहनती थीं और उनके सफेद हैबिट के नीचे उनके टखने और
पाँव नाज़ुक सुडौल दिखते. जब वो टेम्परेट और मेडिटेरानियन क्लाईमेट पढ़ातीं थीं, मैं उनके पाँव और पतली कलाई और लम्बी उँगलियाँ देखती.
माँ सुबह
रोटियाँ बेलते वक्त गाने गातीं थीं. बँगला गीत, चाँदेर
हाशी या फिर भोजपुरी लोकगीत, कुसुम रंग चुनरी या फिर फिल्मी
गाने, ‘रहते थे कभी जिनके दिल में’.
माँ काम करते वक्त गाने गाती थीं. चूँकि दिनभर काम करती थीं, हम दिन भर मां के गाने सुनते थे. उनकी आवाज़ में एक खनक थी. उनकी आवाज़
तहदार थी और पाटदार. मुझे लगता था उनकी आवाज़ पतली क्यों नहीं. मैं कई बार रात को
प्रार्थना करती, सुबह उठूँ तो उनकी आवाज़ पतली हो जाये या फिर
मैं अपने कश्मीरी दोस्त की तरह गोरी हो जाऊँ. बहुत बरस बीतने पर ये मेरी समझ में
आना था कि माँ की आवाज़ बेहद खूबसूरत थी, उसका एक अपना
कैरेक्टर था, अपना
वज़न और जो कहीं भी अपनी अलग पहचान करवा सकता था. उस आवाज़ में एक खराश भरी लय थी,
लोच था जो लम्बी तान में चक्करघिन्नियाँ खा सकता था, बिना टूटे, बिना बिखरे, जो
कहीं दूर वादियों से उदास झुटपुटे की महक ला सकता था, जिसमें
दिल मरोड़ देने वाली चाहत की प्रतिध्वनि थी. मेरे पिता माँ की उस आवाज़ पर कैसे फिदा
हुये होंगे ये समझना बेहद आसान था. पर ये सब भविष्य की बातें थीं.
माँ दिन
में एक घँटा सोतीं थीं. तब हम दूसरे कमरे में होते जहाँ किताबें ही किताबें थीं.
चौकोर भूरे दस लकड़ी के बक्से जिनको हम कभी पिरामिड की तरह सजाते, कभी एक के ऊपर एक रखते. चार नीचे फिर उनके ऊपर तीन फिर उनके ऊपर दो और
सबसे ऊपर एक. सबमें किताबें सजी होतीं . बालज़ाक, प्रूस्त,
ज़ोला, फ्लॉबेयर, इलिया कज़ान,
लौरेंस. इनके साथ साथ महादेवी, रेणु, निराला, प्रेमचंद. बरसात के दिनों में गीले कपड़ों की
महक इन किताबों में बस जाती. आज भी बरसात की महक से उन किताबों की महक आती है. पेट
के बल लेट कर किताब पढ़ते थक कर सो जाते फिर माँ के गाने की आवाज़ से नींद खुलती.
माँ शाम के खाने की तैयारी में लगीं होतीं. बाहर धुआं होता या फिर शायद रात घिरने
को आती. लैम्पपोस्टस पर बल्ब के चारों ओर लहराते फतिंगो का गोला होता और झिंगुरों
की हम हम होती. हमारे सब साथी छुट्टियों में गाँव गये होते और अचानक शाम घिरते हम
मायूस उदासी में डूब जाते. बैरोमीटर, टूटे
थर्मामीटर का पारा, ग्लोब, सब
आलमारी पर असहाय अकेले रखे होते. बिना संगी के, सिर्फ़ एक
दूसरे के साथ से हम अचानक ऊब से भर उठते. माँ के गाने में भयानक उदासी होती. हम
चुप खिड़की के शीशे से नाक सटाये अँधेरे में आँख फाड़े देखते, शायद
पिता, आज आ जायें.
आज ही आ जायें.
माँ दूध
में रोटी डालकर पका देतीं. दूध ज़रा सा किनारों पर जल जाता और रोटी भीगकर मुलायम हो
जाती. घर में सोंधी खुशबू फैल जाती. खिड़की के बाहर अमरूद के पेड़ की डाली शीशे से
टकराती. माँ कहतीं जल्दी खाना खा लो फिर हम बाहर बैठेंगे. रात की हवा गर्मी भगा
देती और हम खटिया पर लेटे चित्त तारों को देखते. माँ धीमे धीमे गुनगुनातीं. फिर
कहतीं बस अब बीस दिन और. फिर कहतीं गर्मी अब कम है. हम दोनों माँ को देखते फिर
चुपके से हँसते. पिता ने वादा किया था कि इस बार बड़ा ग्लोब लायेंगे, जिसमें छोटे शहर और नदियाँ और पहाड़ भी दिखेंगे. हम चाँद को देखते और हमारी
आँखों में नींद भर जाती. रात किसी वक्त, जब शीत गिरती और हम
ठंड से सिकुड़ जाते, हमारे पैर हमारी छाती से जुड़ जाते,
माँ हमारे शरीर पर चादर डाल देतीं और दुलार से हमारे बाल सहला देतीं.
हम नींद में मुस्कुराते और अस्फुट बुदबुदाते, शायद समोआ और
तिमोर और लीमा .
::
बिरसा
मुंडा चौक से गुज़रते हम काले पत्थर से बनी मूर्ति देखते और बोलते अब घर पास आया.
इतिहास पढ़ते बहुत बाद में बिरसा मुंडा
का महत्त्व पता चला. इतिहास में रुचि वैसे
मिसेस ठाकुर ने स्कूल में जगा दी थी पर बाद में सुमित सरकार की सबाअल्टर्न
हिस्टरी पढ़ते समझ आया कि बिरसा मुंडा ने कितनी महत्त्वपूर्ण भागीदारी की थी स्वाधीनतासंग्राम
में. फिर वर्षों बाद ब्रूस चैटविन की सॉंगलाईंस पढने के बाद याद आया
राँची और सिमडेगा में बिताये दिन , वहाँ के आदिवासियों के
साथ का सान्निध्य. उनका आदिम गीत .
इन्द का
जादू और बालू का रात में बाँसुरी बजाना. जैसे रात को कोई तार से खींच लिये जाता हो.
आँगन ,में लेटे पुआल की खुशबू भरे चाँद
को देखते हम एक अजीब दुर्निर्वार उदासी से भर उठते. बालू आँगन के पार बाँसुरी बजाता, चाँद अपने उदास पीलेपन में ज़रा और झुक जाता. बाबा अपने कमरे से खाँस लेते
और पानी माँग लेते. हमारी छुट्टियाँ तब सिमडेगा में बीतती थीं. रात अपने साथ
युक्लिपटस की खुशबू लाती और नींद भरी रात का जादू हमारी धमनियों के भीतर
फफुसफुसाता. बालू भैया लकड़ी के चूलहे पर रोटी पकाता और अपने गाँव की कहानी सुनाता.
उसकी सखी झुमरी कभी कभी शाम को उसके लिये कुछ पका कर लाती. बालू जब उसके लिये
बाँसुरी बजाता उसमें अजीब तड़प भरी मिठास रहती जिसे हम न समझते हुये भी समझते. माँ
मना करती झुमरी को आने से से लेकिन शायद
उन्होंने भी कॉलेज में समाज शास्त्र पढ़ाते
आदिवासियों के समाज को इतना जानना हुआ था कि इसमें कुछ गलत नहीं है का भान
उन्हे भी था.
यूक्लिप्टस
महुआ और किताबें, लगातार दोपहरी में और सिनेमा
देखना. तब वो दौर था जब छोटी जगहों में हफ्तें में फिल्म बदलती. रिक्शे पर
लाउड्स्पीकर से अनाउंसमेंट होता. रिक्शे पर दोनो ओर पोस्टर्स .. सत्तर अस्सी के
दशक की फिल्में, नई फिल्में, पुरानी
फिल्मे राजा जानी, शीशी भरी गुलाब की पत्थर पे तोड़ दूँ,
कितना मज़ा आ रहा है, जीवन और प्राण, धर्मेन्द्र और राजेश खन्ना, अमिताभ और विनोद खन्ना,
शराफत और दीवार, आप यहाँ आये किसलिये .. टाईप
गाने और किरदार और चूँकि छुट्टियाँ तो सब फिल्में देखी जा रही हैं,
और याद
आता है छोटे भाई के साथ रेलवे लाईन
के किनारे जाकर रेल देखना, कोयले वाली ट्रेन, जाने कहाँ जाती हुई. वर्षों बाद
कभी भाई ने पूछा था.
तुम्हें
वो कोयले वाली ट्रेन याद है ? उसकी आवाज़ ने बरसों
पुरानी यात्रा कर डाली थी. मैं देख रही थी जंग खाई रेल लाईन सरसों के खेत के बीच
लहराती एक भूरी चमकीली रेखा, एक धूँआ उड़ाती रेल. ये स्मृति
कितनी मनमोहक थी. हरी ढलवाँ नर्म घास पर सुनहरे धूप में बैठना और जाती हुई ट्रेन
देखना. ये स्मृति बचपन की स्मृति थी. कभी कभी जब ट्रेन धीमी रफ्तार होती हम एक झलक
इंजन ड्राईवर को देखते, कालिख सने हाथों से भट्ठी में कोयला
झोंकते.ये पलक झपकते बिला जाने वाला दृश्य
होता और उसके बाद रेल के बोगी और खिड़कियों और दरवाज़ों से झाँकते लटकते लोग,
हवा में उड़ते उनके बाल, उनकी कोयले के कणों के
खिलाफ मिचमिचाती आँखों का कौंधता दृश्य हमारी ईर्ष्या जगाता और अंत में हरी झंडी
हिलाता गार्ड
रात को
भट्टी की लाल तपिश और रेल की सुकूनदेह
सफेद धूँये के बीच हम उँघते नींद में पड़ते और तब हमारे लिये दुनिया का
अस्तित्व खत्म हो जाता और तब वो वक्त होता जब सपने की दुनिया की हुकूमत शुरू होती.
सपने में बच्चा खिड़की की ढंडी सलाखों से चेहरा सटाये, तेज़ बर्छी हवा से आँखों से आँसू धारधार बहता, बाहर
देखता , खेत खलिहान, अकेला विराना घर,
बिजली के अकेले खड़े खंभे, पेड़, सब भागते तेज़ी से. बच्चा देखता एक लड़का अपनी छोटी बहन के साथ ढलवाँ घास पर
बैठा ट्रेन देखता, कैसी तीखी चाहना और लालसा से कि उसका दिल भर आता किसी नामालूम बेनाम भावना
से.
::
फिर वापस
लौटना, और लौटना एक रुटीन में, उस होने में जिसमें एक सपनीला होना था जो न होने सा होना था, जो इंतज़ार था फिर एक लौटने का.
मेरे
वज़ूद के रेशों के गुँफन का बहुत सा होना इस दोहरावन की वजह का होना था जहाँ मेरा
होना दो धरातल पर था. एक शहर जहाँ मैं थी लेकिन जो मुझमें नहीं था. ये बहुत बाद
में होना था कि उस शहर का मेरे भीतर एकदम
इतना सुरक्षित महफूज़ होना था, इतनी मोहब्बत में होना था
कि उसे मेरा और कहीं भी होना छू तक नहीं जाता. एक तरीके से वही एक शहर था जहाँ कि
मैं कायदे से हुई, पूरे मूचे तरीके से हुई, उसके बाद तो यायावर ही हूँ, हमेशा उसी शहर को खोजती
तलाशती, उसी की याद
में भटकती लेकिन त्रासदी तो ये रही कि जबतक उस शहर रही जैसे एक सपने में रही. जैसे
जीवन हमेशा कहीं और रहा. लाईफ वाज़ ऑलवेज़ एल्सव्हेयर (कुंदेरा की किताब की तरह?). और शहर ? वो जो है अब भी, जैसे था तब भी.
_____________________________________
2008 में भारतीय
ज्ञानपीठ से कहानी संग्रह जंगल का जादू तिल तिल प्रकशित.
पहर दोपहर, ठुमरी (कहानी
संग्रह) २०११ में हार्पर इण्डिया से
कहानियों का भारतीय
भाषाओ के अलावा इंग्लिश में अनुवाद
पावरग्रिड कॉर्पोरेशन
ऑफ इंडिया लिमिटेड में मुख्य प्रबंधक वित्त, गुड़गाँव
ई-पता :
pratyaksha@gmail.com
जीवन के प्रति अनन्य अनुराग से भरा यह संस्मरण एक अनुगूँज की तरह है। बधाई लेखिका को।
जवाब देंहटाएंबैरोमीटर थर्मामीटर प्रसंग प्रत्यक्षा से ही चंडीगढ़ लिटरेचर फेस्टिवल में सुना था...तब भी बहुत अच्छा लगा था...शायद हम सभी इतने उत्सुक होते हैं कि तमाम यंत्रों से कुछ अबूझ समझ लेना चाहते हैं...
जवाब देंहटाएंआपका यह स्तंभ बहुत अच्छा है अरुण जी
प्रत्यक्षा के पास वाकई संजोकर रखी स्मृतियों का खजाना है, वे बेशक कहती हो कि उन्हें याद नहीं, लेकिन बचपन की उन स्पंदित कर देने वाली जगहों, प्रसंगों, रिश्तों और उनसे उपजने वाली परिकल्पनाओं को वे जिस खूबसूरती से बयान करती हैं, उसमें वाकई उनके संवेदनशील कथाकार का कौशल झलकता है, कहीं अपना महिमा-मंडन नहीं, कहीं बेमतलब के ब्यौरे नहीं, जो वाकई याद रखने लायक है और आज तक उनकी स्मृति-परतों में अंकित है, उसी को सहेज-फूंककर फिर से सजा दिया है। बहुत आत्मीय गद्य लिखती हैं वे। उन्हें पढ़ना सुखद अहसास देता है। बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंउन्हें पढना देर रात समंदर किनारे बैठकर दूर रोशनियों को तकने जैसा है ,लफ्जों देर तक तैरते रहते है ...देर तक
जवाब देंहटाएंजीवन के रेशे-रेशे के प्रति यह आत्मीयता ही स्मृति को जीवंत रख सकती है .....बहुत सुन्दर संस्मरण !प्रत्यक्षा जी ओ बधाई !
जवाब देंहटाएंदेस-वीराना का दरवाज़ा खुलता है तो यहाँ अतीत के गाँव-शहर -घर ,पौध,पेड़,आकाश ,खेत , बारिश ,मौसम सांझ-रात-सुबह सब एक साथ दीखने लगते हैं। मनीषा हाथ पकडे चित्तौड़ ले उडी थी और यहाँ प्रत्यक्षा के साथ मेटाफिजिकल से नोस्टेल्जिया का सफ़र पोइगनेंसी का क्लाइमेक्स है .प्रत्यक्षा रांची की लाल मोर्रम मिट्टी आपके तलवों से होते हुए उँगलियों तक आती है और एक कैनवास पर आप क्या नहीं खींच दे रही हैं ..पाठक को पूरा चईबासा सौंप देती हैं .आपके कहन की मुरीद
जवाब देंहटाएंबधाई और शुभकामनाएँ ..पेंटिंग्स क्या प्रत्यक्षा की ही हैं ...वाटरकलर में आसमानी अतीत के लिए और आतुरता पैदा कर रहा है ..
उत्कृष्ट पोस्ट !!
जवाब देंहटाएंप्रत्यक्षा ने इस 'साहित्यिक' पीस को बहुत रोचक रखा है .. वे लिख रहीं हैं तो मन की बाहरी-भीतरी दोनों दुनिया लिख रहीं हैं .. जो छवि बनी मेरे सामने कि एक मोटा गत्ता ले आयीं वे स्लेटी रंग की .. फिर टुकड़े टुकड़े लाल नीला बैंगनी [ स्याह ..काले ..साँवले भी ] तमाम स्मृति टुकड़ों को जेहन से खंगाल बाहर किया .. फिर उसे इस स्लेटी गत्ते पर लगाना शुरू किया .. और फिर एक आकृति बनाने लगीं .. जहाँ कुछ छुटा कि तुरंत उसे फिर तरतीब से लगा दिया .. और एक कोलाज़ सामने है जो हमें हमारे समय के स्मृति कोलाज़ का अंश भी देता है और दंश भी ..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रत्यक्षा .. शुक्रिया समालोचन
यादों के ये टुकड़े दिलचस्प, जिंदादिल और मस्त-मगन किस्म के हैं. इन्हें पढ़कर प्रत्यक्षा के पिता के साथ की यादों को पढ़ने की इच्छा जाग उठी है. साथ ही प्रत्यक्षा के इस गद्य को उन्हीं के जलरंगों के साथ देखने से यह अनुभव मनमोहक हो जा रहा है. चित्र पानी से धुले जैसे हैं जिससे उनमें पारदर्शिता, भारहीनता, कोमलता और मासूमियत आ गई है. ये बचपन के स्मृति चित्रों के साथ गझिन जुगलबंदी करते प्रतीत होते हैं. दोनों (चित्र और गद्य) स्वायत्त भी हैं, परस्पर भाव-विस्तारक भी.
जवाब देंहटाएंयादों के इन टुकड़ों में अपनी यादों के बिखरे हुए टुकड़े दिखते हैं। कमाल है कि अलग-अलग होते हुए भी हमारा जिया हुआ कैसे एक ही कोलाज के माफ़िक लगता है! शहर जहां हम होते हैं, लेकिन जो हममें नहीं होता... आपने आज कहां-कहां किस-किस याद को कुरेद दिया! कमाल!
जवाब देंहटाएंकुछ भी याद नहीं तब यादों को कितनी महीनता और ख़ूबसूरती से बुन दिया .... अरसे बाद प्रत्यक्षा को पढ़ा और उसकी स्म्रतियों का खजाना उसके शब्दों की प्यास को और बढ़ा गया ....
जवाब देंहटाएंसमालोचन का धन्यवाद और प्रत्यक्षा को बधाई ....
आपकी बचपन की यादों को पढ कर मैं अपनें बचपन के दिनों में चला गया
जवाब देंहटाएंवें बडे मुल्यवान होते थे उसमें सपनों का एक संसार बसता है
अपने परेसान दिनों में उन्हें याद करना बहुत अच्छा लगता है
जैसे हम कोई बाईस्कोप देख रहे हो हम कितने भी अमीर हो
जाय उन लमहों को वापस नही पा सकते
स्वप्निल श्रीवास्तव
प्रत्यक्षा जी की लेखनी के हम भी कायल हैं, प्रत्यक्षा जी आरंभिक हिन्दी ब्लॉगरों में प्रमुख हैं.
जवाब देंहटाएंबचपन की यादों का एक खूबसूरत कोलाज़ ...........बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमन से लिखा गया बेहद आत्मीय वर्णन.बचपन में जिस घर और शहर में हम रह चुके होते हैं और जहाँ बड़े हुए, वह हमारे वजूद का इतना अभिन्न हिस्सा होता है. हम ताउम्र उसे सपनों में दोहराते रहते हैं. यथार्थ और कल्पना के अद्भुत मेल से काव्यात्मक चित्रण भावविभोर कर देता है.
जवाब देंहटाएंकितनी आत्मीयता से लिखा गया है… इसे पढ़कर शहर के मुख पर भी स्नेहपूर्ण स्मित मुस्कान उभर आई होगी!
जवाब देंहटाएंसुंदर संस्मरण
जवाब देंहटाएंपता नहीं कितनी यादें ताज़ा हो गईं इसे पढ़कर, बेहद खूबसूरत उदासी से भरी यादें.
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.