उर्दू से :
रिज़वानुल हक़ : १५ जुलाई १९७१,महमूदाबाद
अन्धेरे का रिपोर्टर
रिज़वानुल हक़ : १५ जुलाई १९७१,महमूदाबाद
उर्दू अदब और सिनेमा पर JNU से M.phil.,Ph.D.
युवा कथाकार. भारत और पाकिस्तान के सभी अदबी रिसालों में कहानियाँ प्रकाशित
अपनी कहानी ‘ज़वाल –ए-जिस्म से पहले’ का नाट्य रूपांतरण और निर्देशन.
डाक्यूमेंट्री फिल्मों और फीचर फिल्मों में बतौर स्क्रिप्ट लेखक और सहनिर्देशक.
कथा सम्मान. CSDS से फेलोशिप
NCERT में सहायक प्रोफेसर
ई पता: rizvanul@yahoo.com
उर्दू में लिखी इस कहानी का लेखक द्वरा हिंदी में रूपांतरण और समालोचन पर ही प्रकाशित.
रिज़वानुल हक़ का अदबी संसार हमारी जिंदगी के उस हौलनाक खला को नुमायाँ करता है जहां अपने साए से डरने का सानिहा रोज़-ब-रोज़ है.बड़े इख़्तियार के साथ कहानीकार ने इस स्याह अस्तित्व को बुना है. एक ऐसा पसमंजर जो किसी अज्ञात भय से भीगा है.टूट कर अपने आप में ही गिरते आदमियत का बेदर्द इज़हार.
अन्धेरे का रिपोर्टर
१.
नुक्कड़ पर पहूँच कर तालिब कुछ लम्हों के लिए ठिठक गया, वहां से कई गलियां जाती थीं इसलिए वह सोच में पड़ गया कि अब किधर जाऊं? उसने सारी गलियों की तरफ़ मुड़ मुड़ के देखा लेकिन कुछ समझ में न आया कि किधर जाना चाहिए, सारी गलियां अन्धेरी थीं, थोड़ी देर सोच विचार कर उसने पश्चिम की तरफ़ जाने वाली गली को चुना और और उसी तरफ़ आगे बढ़ने लगा, रात अन्धेरी और गली सुनसान थी, बिजली शाम से ही रोज़ की तरह नहीं आ रही थी. गर्मी और उमस अपनी इन्तेहा पर थी, एक रोज़ पहले बारिश हुई थी इसलिए जहां तहां टूटी सड़क पर पानी भरा हुआ था. बिजली न होने की वजह से कीचड़ से बच पाना मुश्किल था. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर एक घर की रोशनी छन-छन खिड़की से बाहर निकल रही थी. वहां पहूँच कर तालिब ने घड़ी देखी दस बच चुके थे. उसने गले में पड़े कैमरे को दुरुस्त किया और चलने की रफ़्तार तेज़ कर दी.
तालिब यह सोच कर परेशान हो गया कि मुशाइरा दस बचे शुरू होना था और उससे पहले एक प्रेस कान्फ्रेन्स भी होनी थी, मैं अभी तक यहीं हूँ, नए चेयरमैन साहब ने साढ़े आठ बजे तक घर पहूँचने को कहा था. उन्होंने यह भी बताया था कि शाइरों, बाहर से आए वक्ताओं और शहर के ‘इज़्ज़तदार’ लोगों के खाने और ‘पीने’ का इन्तेज़ाम घर में ही किया गया है, इसलिए तुम भी घर ही आ जाना, वहीं सबसे तआरुफ़ भी हो जाएगा और खाना पीना भी. फिर सब लोग साथ में मुशाइरे में चलेंगे. तालिब ने यह सोचकर कि कहीं सब कुछ सही वक़्त ही से न शुरू हो गया हो, अपनी रफ़्तार बढ़ा दी लेकिन चन्द लम्हों बाद ही उसने ये सोचकर अपने आप को तसल्ली दे ली कि मुशाइरा चेयरमैन साहब करा रहे हैं और उनका कोई भी प्रोग्राम सही वक़्त पर कभी नहीं शुरू होता है, इसलिए यह प्रोग्राम भी वक़्त पर नहीं शुरू होना चाहिए और अगर थोड़ी देर भी हो गई तो क्या फ़र्क पड़ता है? आज तो जश्न का दिन है.
तालिब के भूख काफ़ी तेज़ लग चुकी थी इसलिए उसने सोचा प्रोग्राम जब भी शुरू हो जितनी जल्दी हो सके वहाँ पहुंच कर खाना खा लेना चाहिए, खाने के वक़्त ही सबसे मुलाक़ातें हो पाती हैं. जलसों और मुशाइरों में तो सारा ध्यान रिपोर्ट में लगा रहता है, उस वक़्त तो सलाम दुआ के अलावा किसी से कोई ख़ास बात नहीं हो पाती है. इसलिए जितनी जल्दी हो सके मुझे वहां पहुंच कर खाना खा लेना चाहिए. फिर अगर शाइरों और वक्ताओं से इस जलसे और मुशाइरे के बारे में बातचीत हो गई तो रिपोर्ट और भी जानदार हो जाएगी. यह सोचकर उसने अपनी रफ़्तार बढ़ा दी, अभी वह यही सब सोच ही रहा था कि उसे अचानक महसूस हुआ कि कोई उसका पीछा कर रहा है. जब वह चलता है तो पीछा करने वाला भी साथ साथ चलने लगता है. और जब मैं रुकता हूँ तो पीछा करने वाला छिप जाता है. उसने पीछे मुड़ कर देखा तो अन्धेरे में कोई नज़र नहीं आया. बस कहीं कहीं अन्धेरा कुछ ज़्यादा गहरा लग रहा था लेकिन फिर भी यह कहना मुश्किल था कि वहां वाक़ई कोई था या किसी के होने का बस आभास था. लेकिन पीछे मुड़ कर देखते ही उसका पैर कीचड़ में पड़ गया और उसके पैर बुरी तरह से कीचड़ में सन गए.
अब सवाल यह था कि पैर कैसे साफ़ किए जाएं? उसने अपने चारों तरफ़ देखा, हर तरफ़ अन्धेरा ही अन्धेरा था, अगर कोई ऐसी चीज़ वहां रही भी होगी कि जिससे पैर साफ़ किए जा सकें तो उस अन्धेरे में नज़र न आई. उसने अन्धेरे ही में टटोलना शुरु किया लेकिन हर बार पालिथिन ही उसके हाथ लगी, जिनमें कोई न कोई गन्दगी ज़रुर लगी मिलती, बार बार पालिथिन हाथ लगने से वह झुंझला गया. ‘‘उफ़ ये पालिथिन न जाने कहां से आ गई हैं. जिधर देखो उधर बस पालिथिन ही पालिथिन हैं.’’
उसने उन दिनों को याद किया जब कहीं भी पालिथिन का नाम ओ निशान न रहता था, ये कितनी तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं. उसे टी वी का वह इश्तेहार याद आ गया जिसमें कहा गया था कि अगर इसी रफ़्तार से पालिथिन का इस्तेमाल होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पूरी दुनिया पालिथिन से ढक जाएगी. क्योंकि उनके सड़ने गलने में लाखों बरस लगते हैं, तब तक न जाने कितनी पालिथिनइस्तेमाल हो चुकी होंगी. और विज्ञापन में पूरी पृथ्वी पालिथिन से ढकी नज़र आती.
तालिब पालीथिनों को छोड़कर आगे चल दिया थोड़ी दूरी पर एक घर की खिड़की से रोशनी बाहर निकल रही थी. रोशनी को देख कर वह यह सोचकर आगे बढ़ा कि वहाँ रोशनी में कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर मिल जाएगा जिससे मैं अपने पैर और चप्पल साफ़ कर लूंगा. इस बार उसकी रफ़्तार बहुत ही धीमी थी कि कहीं पैरों का कीचड़ कपड़ों में भी उछल कर न लग जाए. ख़ास तौर से दायां पैर जिसमें कीचड़ लगा हुआ था वह बहुत ही आहिस्ता से उठा रहा था. अगर कोई दूर से देखता तो यही समझता कि उसके पैर में लंगड़ापन है.
कुछ देर में वह रोशनी के क़रीब पहुंच गया. वहां खड़े होकर इधर उधर देखा, जब इत्मिनान हो गया कि कोई उसे देख नहीं रहा है तो उसकी नज़रें पैर और चप्पल साफ़ करने के लिए इधर उधर कुछ तलाश करने लगीं. थोड़ी दूरी पर कूड़े का एक छोटा सा ढेर नज़र आया, वहां दो कुत्ते कुछ खाने के लिए आपस में लड़ रहे थे, कूड़े के ढेर पर पालीथिन के अलावा काग़ज़ और कपड़े के कुछ टुकड़े भी नज़र आ रहे थे. उन्हें देख कर वह कूड़े के ढेर के पास पहूँच गया और धत्त कह कर सबसे पहले कुत्तों को भगाया और झुक कर दाहिने हाथ से कपड़े का एक टुकड़ा उठा कर मुट्ठी में दबा लिया और उसे मोड़ कर पैर के पास ले जाने लगा कि इसी दौरान उसे पीठ और गरदन में खुजली महसूस हुई तो उसने कपड़ा बाएं हाथ में पकड़ा और और चप्पल साफ़ करने से पहले पीठ और गरदन खुजलाने लगा. वहाँ काफ़ी पसीना आया हुआ था और अन्धौरियां भी थीं एक अजीब सी लज़्ज़त का एहसास हुआ, थोड़ी देर खुजलाने के बाद एक गन्ध सी महसूस हुई उसने इधर उधर मुड़ कर देखा क्या कोई औरत आस पास है? लेकिन कोई औरत नज़र न आई, फिर बाएं हाथ में पकड़े हुए कपड़े की तरफ़ ध्यान गया तो एहसास हुआ कि शायद बदबू वहीं से आ रही है. अब जो ध्यान दिया तो हाथों में अजीब सी चिपचिपाहट भी महसूस हुई उसे तजस्सुस हुआ कि देखूं क्या है? जब वह उस कपड़े को आंखों के क़रीब ले गया तो ख़ून और मवाद से मिला जुला सा कुछ नज़र आया और बदबू का एक तेज़ भबका उसकी नाक में घुसा, उसने जल्दी से कपड़े को फेंक दिया. ‘‘उफ यह तो महवारी का कपड़ा ’’
कपड़ा फेंकने के बाद वह कुछ और तलाश करने लगा, इस बार उसने अख़बार का एक टुकड़ा उठाया और उसे उलट पलट कर और सूंघ कर देखा. उसमें कोई वैसी बात नज़र न आई तो उसे फाड़ फाड़ कर पैर और चप्पल पोंछने लगा. कुछ देर में पैर और चप्पल दोनों का कीचड़ लगभग साफ़ हो गया, कुछ कीचड़ सूख चुका था उसके दाग़ पडे़ रह गए. इसके बाद उसने कपड़ों की तरफ़ ध्यान दिया खद्दर के सफ़ेद कुर्ता पायजामे पर भी कुछ छीटें पड़ी हुई थीं, उसने उन्हें भी साफ़ किया लेकिन कुछ दाग़ वहाँ भी पडे़ रह गए. सोचा चलो बाद में आगे कहीं पानी का नल मिल गया तो वहाँ अच्छे से साफ़ कर लूंगा. अभी तो जितनी जल्दी हो सके मुझे चेयरमैन साहब के यहाँ पहुँचना चाहिए. उसने सोचा कपड़े तो ख़ैर बाद में साफ़ हो जाएंगे लेकिन हाथ धुल जाते सुकून मिल जाता. आस पास देखने पर कहीं हाथ से चलने वाला नल नज़र न आया. टंकी वाले नल में उस वक़्त पानी आने की कोई उम्मीद न थी उसमें नौ बजे के बाद तो आज तक कभी भी पानी न आया था. जब कहीं पानी मिलने की उम्मीद नज़र न आई तो वह ये सोच कर आगे चल दिया कि चेयरमैन साहब के घर में साबुन से हाथ धुल लूंगा.
गर्मी से पहले ही उसकी तबीयत घबरा रही थी लेकिन कुछ देर पैदल चलने से उसकी पीठ पूरी तरह पसीने से भीग गई. उसकी पीठ और गरदन में बहुत सारी अन्धौरियां निकली हुई थीं, अब जो पसीना निकला तो उन अन्धौरियों में खुजली और जलन पैदा हो गई और वह एक जगह खड़े होकर खुजलाने लगा, खुजलाते खुजलाते उसके जिस्म में एक अजीब सी सनसनी पैदा हो गई जिससे एक क़िस्म की लज़्ज़त का भी एहसास हुआ. उसने सोचा खुजलाने से पूरी पीठ और गरदन लाल हो गई होगी लेकिन खुजलाए बग़ैर उससे रहा भी नहीं जा रहा था, खुजलाने का दायरा भी बढ़ता गया, गरदन और पीठ के अलावा जिस्म के दूसरे अंगों तक उसका हाथ खुजलाते खुजलात रेंगने लगा. फिर पीठ और गरदन में खुजली के साथ साथ हल्का सा दर्द भी होने लगा, खाल छिल गई थी और लहू खाल की सतह तक रिस कर आ गया था, कि तभी अचानक उसे महवारी वाला कपड़ा याद आ गया और उसके हाथ रुक गए. उसने सोचा औरतों की गन्ध भी क्या चीज़ है उसके आगे सारी संवेदनाएं तुच्छ हो जाती हैं, पता नहीं किसने फेंका होगा वह कपड़ा और आजकल वह न जाने किन हालात से गुज़र रही होगी. उसने अपनी उंगलियों को आपस में छुआ तो उंगलियों में अभी भी चिपचिपाहट महसूस हुई. फिर उसे ध्यान आया कि मैंने तो अभी इसी हाथ से पूरे जिस्म को खुजलाया है इसलिए यह तो सब जगह लग गया होगा, इतना याद आते ही उसका जी मालिश करने लगा और उल्टी सी होने लगी. ओ - ओ करके वह उसी जगह बैठ गया. थोड़ी देर तक उल्टी जैसी हालत बनी रही लेकिन उल्टी न हो सकी.
यह सब सोचकर उसका जी और घबराने लगा, एक बार तो उसने यहाँ तक सोच लिया कि वापस घर चला जाऊँ और नहा धोकर फिर से वापस आ जाऊँग, लेकिन वह जानता था कि तब तक बहुत देर हो चुकी होगी, जलसे में बहुत दूर दूर से आए हुए शाइर, प्रशासक, वक्ता, व्यापारी और राजनीतिज्ञ मौजूद होंगे. कुछ बहुत अहम लोगों की तक़रीरें होंगी चेयरमैन साहब की आज की तक़रीर तारीख़ी होगी. मुशाइरे में सीनियर और बाहर से आए हुए सारे शाइर अपनी अपनी तरह से लोगों को लुभावित करने की कोशिश करेंगे. उन सबकी रिपोर्ट तैयार करना बेहद ज़रूरी है. चेयरमैन साहब शहर में हाल ही में हुई कुछ घटनाओं पर अपना रद्दे-अमल भी ज़ाहिर करेंगे और मुस्तक़बिल में किए जाने वाले तमाम कामों की योजनाओं का भी ऐलान करेंगे. उस ऐलान नामे की रिपोर्ट बेहद ज़रूरी है, इस शहर में ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं.
मुशाइरे के अलावा दूर दूर से आए हुए वक्ताओं के साथ एक प्रेस कान्फ्ऱरेन्स भी शायद होगी जिसमें दिन में हुई संगोष्ठी की भी रिपोर्ट पेश की जाएगी, फिर उन लोगों की तक़रीरों का ज़िक्र आना बहुत ज़रूरी है जो इश्तेहार देते हैं या जिनके दम से शहर में चार लोग मेरी इज़्ज़त करते हैं. उनसे आए दिन मुलाक़ात होती रहती हैं और वह अख़बार में अपना नाम न देखकर महीनों शिकायत करते रहेंगे.
उसने सोचा अगर मुशाएरे में जाऊँ ही न और बीमार होने का बहाना बना कर चुपचाप घर जाकर नहा धो कर सो जाऊँ तो कौन पूछने आएगा, लेकिन जब उसका ध्यान नगर पालिका और कुछ दूसरी जगहों से मिलने वाले इश्तेहारों की तरफ़ गया तो उसने सोचा नहीं वहाँ जाना बहुत ज़रूरी है. नहीं तो कल रिपोर्ट क्या भेजूंगा? इस छोटे से शहर में कभी-कभी ही तो ऐसे मौक़े आते हैं, अगर ऐसे मौक़े पर भी मेरी रिपोर्ट नहीं छपी तो हो चुकी पत्रकारिता, फिर स्थानीय शायरों ने जिनमें से अक्सर मेरे दोस्त हैं उनको क्या जवाब दूंगा, उन लोगों ने ज़ाती तौर पर भी मुझसे कहा था कि रिपोर्ट में उनका ज़िक्र उनके षेर के साथ किया जाए. अख़बार से संपादक ने भी हुक्म दिया था कि कान्फ्रेन्स और मुशाएरे की अलग-अलग और विस्तार के साथ रिपोर्ट भेजी जाए. बहुत सारे इश्तेहार मिले हैं. एक पूरा पेज जो इश्तेहारो और रिपोर्टो पर आधारित होगा इस पूरे प्रोग्राम के लिए सुरक्षित किया गया है. चेयनमैन उसकी कई हज़ार कापियां ख़रीदकर बटवाएंगे. उसके बाद उनसे बराबर इश्तेहार मिलते रहेंगे. इसलिए तालिब ने फै़सला किया कि इस बदबू के साथ ही जाकर रिपोर्टिग करनी होगी. अभी तालिब यही सब सोच रहा था कि उसे एक जानी पहचानी सी आवाज़ सुनाई पड़ी.
‘‘क्या इसीलिए इस पेशे में आए थे?’’
आवाज़ इतनी हल्की थी कि यह समझ पाना मुश्किल था कि वह आवाज़ वाक़ई थी या उसे बस महसूस हुआ कि किसी ने ऐसा कहा है. उसे फ़ौरन, थोड़ी देर पहले का वाक़्या याद आया जब उसे महसूस हुआ था कि कोई पीछा कर रहा है. उसने ऐसा सवाल किया था कि तालिब ने उसे नज़र अन्दाज़ करने में ही भलाई समझी. तालिब सोच में पड़ गया अब अगर घर वापस भी चला जाऊं तो खाना क्या खाऊंगा? ऐसी दावत जो कभी कभी ही नसीब होती है उसे छोड़ कर जाऊंगा तो घर में ख़ुद से पका कर खाना पडे़गा, टिफ़िन वाले से भी मना कर दिया था कि आज खाना मत लाना मेरी दावत है. भूख अभी से बहुत तेज़ लग चुकी है. अगर आज अच्छी सी रिपोर्ट न छपी तो चेयरमैन साहब भी नाराज़ हो जाएंगे, फिर तो नगर पालिका से इश्तहार मिलने में बहुत दिक़्क़त होगी. इसलिए हर हाल में जाना पड़ेगा. यह फै़सला लेते ही उसे एक बार फिर किसी की आहट सुनाई पड़ी, उसने पीछे मुड़ कर देखा लेकिन कोई नज़र न आया, वह अभी हैरान खड़ा था कि अचानक बहुत आहिस्ता से वह आवाज़ फिर सुनाई दी.
‘‘क्यों जा रहे हो वहां? ऐसी हालत में तुम्हें वहां नहीं जाना चाहिए, मतली हो रही है, उल्टी हो सकती है, तुम बीमार भी पड़ सकते हो, मत जाओ, तुम वहां किसी भलाई के काम मे तो जा नहीं रहे हो? ऐसे लोग अगर नाराज़ भी हो जाएं तो तुम्हें उनकी परवाह नहीं करनी चाहिए.’’
इस बार आवाज़ ज़्यादा स्पष्ट थी, यह आवाज़ उसे जानी पहचानी सी लगी जैसे बहुत पहले से वह उस आवाज़ को जानता हो लेकिन बहुत दिन से सम्पर्क में न हो, इतना सुनने के बाद उसने ध्यान से इधर उधर देखा लेकिन वह कुछ न समझ सका कि इस आवाज़ का राज़ क्या है? आखि़रकार वह उस आवाज़ को नज़र अन्दाज़ करके एक बार फिर अपनी मंज़िल की तरफ़ चल पड़ा.
तालिब ने सोचा हाथों की चिपचिपाहट और गरदन व पीठ के पसीने में समाई इस गन्ध और खुजली के साथ भी जाना ही पड़ेगा. हाथ की कोई समस्या नहीं है चेयरमैन के यहां खाने से पहले साबुन से साफ़ कर लूंगा. गरदन और पीठ का जहां तक सवाल है वह किसी को कुछ दिखता थोड़े ही है बस मैं जानता हूं, मसअला सिर्फ़ बदबू का है तो किसी तरह बरदाश्त कर लूंगा. अभी थोड़ी देर में खाने पीने और रिपोर्टिग में लग जाऊंगा तो सब भूल जाऊंगा. यही सब सोचते सोचते वह चलता रहा और वाक़ई उस कपड़े को वह थोड़ी देर के लिए भूल भी गया. लेकिन अब पसीना और भी ज़्यादा आ गया, अन्धौरियां बुरी तरह से काट रही थीं और बार बार खुजली हो रही थी. थोड़ा और चलने के बाद वह एक चैराहे पर पहुँचा जहां बहुत तेज़ रोशनियां जल रही थीं. इस चैराहे से चेयरमैन के घर तक जाने वाले रास्ते पर बेशुमार रोशनियां जगमगा रही थीं, बाक़ी रास्ते अन्धेरे में गुम थे, चेयरमैन के घर के रास्ते में ही शहर के सब बड़े लोगों की कोठियां थीं. तालिब उस उजली सड़क पर आसानी से तेज़ तेज़ क़दमों से चल कर चेयरमैन के घर पहुँच गया. घर को सुनसान देख कर उसका दिल तेज़ी से धड़का. ये क्या? यहां तो कोई नज़र ही नहीं आ रहा है. घड़ी देखी तो ग्यारह बज चुके थे, घर की घण्टी बजाने पर तेरह चैदह साल का एक लड़का बाहर निकला उसने कहा, ‘‘पापा ने जाते वक़्त कहा था अब अगर कोई मेहमान आए तो उसे मुशाइरागाह पहँचा जाना, चलिए मैं आपको वहां भेज आता हूं.’’
‘‘मुशाइरागाह मुझे मालूम है, मैं चला जाऊंगा, लेकिन खाना ’’
खाना कहते कहते वह रुक गया, इस बच्चे से खाने के बारे में पूछना ठीक नहीं लगता और शराब के बारे में तो हरगिज़ नहीं. फिर मैं तो लोकल पत्रकार हूं बाहर से आया हुआ शाइर या वक्ता होता तो खाने के बारे में पूछ भी सकता था. फिर उसने हाथ धोने के लिए पानी मंगवाने के बारे में सोचा तभी वह बच्चा बोल पड़ा.
‘‘चलिए मैं आप को मुशाइरागाह पहुंचा देता हूं वहां पापा से भी मिलवा दूंगा.’’
‘‘नहीं बेटा तुम घर जाओ, मैं चला जाऊंगा, मैं बाहर से नहीं आया हूं, मैं तो इसी शहर का हूं.’’
यह कह कर तालिब मुशायरे के लिए चल पड़ा, और हाथ धोना भूल गया. पूरा रास्ता रोशनिओं से जगमगा रहा था. थोड़ी देर चलने के बाद उसे एक बार फिर वही सब याद आने लगा, पसीना आता रहा, अन्धौरियों में खुजली होती रही, महवारी में बसे बदन से बदबू आती रही और उसने तेज़ रोषनी में सफ़र जारी रखा. रास्ते में लोगों ने जगह जगह मुबारकबाद के पोस्टर और बैनर लगा रखे थे. कुछ नामों को पढ़ कर उसे हैरत हो रही थी, उनका चेयरमैन साहब से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा था और कुछ नाम ऐसे भी थे जिन्हें चेयरमैन के विरोधियों में नाम आता था. चेयरमैन के घर से मुशाइरागाह तक की सड़क नई नई बनाई गई थी इसलिए वह बहुत साफ़ सुथरी और ख़ूबसूरत नज़र आ रही थी, आम तौर पर लोग अच्छे कपड़े पहने हुए थे और अच्छी ज़ुबान में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे, लेकिन कुछ ग़रीब लोगों को ख़ास तौर से बुलाया गया था, जो हैरानी से चारों तरफ़ देख रहे थे, यह सब देख कर तालिब का दिल बैठा जा रहा था बार बार उसे वहां जाने से कोई रोक रहा था और उसके क़दम भारी होते जा रहे थे.
‘‘तुम इस हालत में उस चमक दमक भरी महफ़िल में कैसे जा सकते हो?’’
तालिब झुंझला गया, ‘‘देखो तुम जानते हो मेरी मजबूरी है, मैं आज के मुशायरे और जलसे को किसी हालत में नज़र अन्दाज़ नहीं कर सकता, मैं ने वहाँ जाने का आखि़री फै़सला कर लिया है अब मैं इस सम्बन्ध में तुम्हारी कोई बात नहीं सुनना चाहता.’’
यह कह कर वह अपनी तमाम दयनीयता के साथ एक बार फिर चलने लगा और चलते चलते थोड़ी देर में मुशाइरागाह तक पहुँच गया. वहाँ बहुत सारी रौशनियां और तरह तरह के बल्ब जगमगा रहे थे, मेले जैसा माहौल था, ख़ास आज के दिन के लिए चाय की दुकानें लगी हुई थीं. भूख से तालिब का पेट कुलबुला रहा था. उसने सोचा पता नहीं अब चेयरमैन साहब कुछ खाने पीने का इन्तज़ाम करेंगे या नहीं, ग़लती मेरी ही है, मैं ही देर से पहुँचा था. ऐसे में अगर एक दो अण्डे खाकर चाय पी ली जाए तो कम से कम कुछ देर के लिए तो पेट की आग ठण्डी हो जाएगी. यह सोच कर उसने चाय की दुकान वाले से दो उबले हुए अण्डे और चाय के लिए कहा. दुकान के पास ही एक लाउडस्पीकर लगा हुआ था, कोई औरत तक़रीर कर रही थी, लोग उसे सुन कर वाह-वाह कर रहे थे. थोड़ी ही देर में दुकानदार ने चाय और अण्डे दिए. जिन्हें खा पीकर तालिब मुशाइरागाह के सदर दरवाजे़ की तरफ़ चल पड़ा. वहां बेशुमार लोग जमा थे, अभी वह मुशाइरा स्थल के गेट पर खड़ा हुआ सोच ही रहा था कि कहाँ जाऊं? बैठना तो दूर, यहाँ तो सही से खड़े होने की भी जगह नहीं है. अगर बैठने की जगह न मिली तो रिपोर्ट बनाने में बड़ी दिक़्क़त होगी, तालिब यही सोच रहा था कि मुशायरे का इन्तज़ाम देखने वाले एक शख़्स ने उसे पहचान लिया और उसके क़रीब आकर बोला.
‘‘साहब आप प्रेस के लिए सुरक्षित जगह में चलिए.’’
यह कह कर वह रास्ता बनाते हुए आगे आगे चलने लगा और तालिब पीछे पीछे. वहाँ पहुँच कर उसने देखा कि एक तख़्ती लगा कर प्रेस के लिए कुछ सीटें रिज़र्व की गई थीं. उसके पड़ोस में वी.वी. आई.पी.की तख़्ती लगी हुई थी जहां बाहर से आए हुए बहुत से मशहूर लोग मौजूद थे, जिनमें राजनीतिज्ञ, बडे़ अधिकारी, व्यापारी, जन प्रतिनिधि, बुद्धिजीवी और शाइर सभी शामिल थे. वी.वी.आई.पी.में से कुछ लोग मंच पर जा रहे थे और चेयरमैन की तारीफ़ और चापलूसी कर रहे थे, वह सभी चेयरमैन को अपने गिरोह या पार्टी का नेता बता रहे थे कि तभी मुशाइइरा के नाज़िम ने ऐलान किया.
‘‘मुअजि़्ज़ ख़्वातीन (ये लफ़्ज़ सुनकर तालिब को माहवारी का कपड़ा एक बार फिर याद आ गया, उसने औरतों के लिए सुरक्षित सीटों की तरफ़ देखा, उसे अपनी कौमुक ख़्वाहिशो से महरूम होने का एहसास हुआ और छात्र जीवन की एक महबूबा याद आई जो एक अमीर आदमी से शादी करके दो बच्चों की माँ बन चुकी थी.) ओ हज़रात आप लोग तशरीफ़ रखें मुशाइरा से पहले चन्द बातें ज़रूरी थीं जो अब ख़त्म होने को हैं. जैसा कि आपके इल्म में है आज दिन में अहदे-हाज़िर के हालात पर चेयरमैन साहब की कोशिशो. से यहां एक बैन-उल-अक़वामी कान्फ़्रेन्स का इनक़ाद अमल में आया और कान्फ़्रेन्स की इख़्ततामिया तक़रीब के तौर पर ही इस मुशायरे का इनक़ाद किया गया है. अब मैं इस तक़रीब के आखि़री मुक़र्रिर और इस मुशायरे के रूहे रवां नव मुन्तख़ब चेयरमैन साहब से दरख़्वास्त करता हूँ कि वह डाइस पर तशरीफ़ लाएं और सामईन से खि़ताब फ़रमाएं, इसके बाद मुशायरे का बाक़ायदा आग़ाज़ होगा.’’
‘‘ख़्वातीन ओ हज़रात आज एक तारीख़ी दिन है ..... ’’
तालिब ने चेयरमैन की तसवीर खींचनी शुरू कर दीं. चेयरमैन ने भी तस्वीर खिंचवाने के लिए अपनी हुलिया दुरुस्त किया और तक़रीर जारी रखी.
‘‘.... जैसा कि आप जानते हैं, यह सारे प्रोग्राम .... यह मुशाइरा, यह कान्फ्रेन्स सब बज़ाहिर हाल ही में मेरी जीत के सिलसिले में मनाए जा रहे हैं. लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नहीं है, मैं ने चुनाव से पहले भी ऐलान किया था, मैं हारूँ या जीतूं लेकिन मेरी जिद्दो-जहद जारी रहेगी, कुछ अरसा पहले हमारे शहर पर एक तारीख़ी हमला हुआ था. .... मैं दुश्मनों से कहना चाहूँगा कि हम जम्हूरियत में यक़ीन रखते हैं और जम्हूरियत की हिफ़ाज़त के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं, यह हमला हमारी चन्द इमारतों या एक शहर पर नहीं बल्कि हमारी जम्हूरियत पर हुआ है .... हमलावरों को हम सबक़ सिखा कर रहेंगे.’’
पीछे बैठे कुछ ग़रीब लोगों ने, जो पैसे देकर ताली बजाने के लिए लाए गए थे, बहुत ज़ोर दार तालियाँ बजाईं, चेयरमैन ने अपनी तक़रीर जारी रखी.
‘‘मैं आप सबसे ख़ास तौर से बाहर से आए हुए मेहमानों से कहना चाहूँगा कि ऐसे मुश्किल वक़्त में जबकि जंग का ऐलान हो चुका है, ख़ामोशी का कोई मतलब नहीं होता है. तुम्हें चुनना होगा कि तुम किसके साथ हो? जो हमारे साथ नहीं है .... हमारा दुश्मन है. इन्सानियत अपने विकास के कई दौर से गुज़र चुका है और आज वैश्वीकरण के दौर में दाखि़ल हो चुका है. ज़िन्दगी बहर हाल आगे ही बढ़ती है, अब इस सच्चाई से कोई इन्कार नहीं कर सकता, इसलिए वैश्वीकरण के इस दौर को कोई रोकने की कोशिश न करे, प्राकृतिस संसाधन किसी की जागीर नहीं होते हैं. इन पर जितना आप का हक़ है उतना ही मेरा भी, मुझे उनके इस्तेमाल से रोकने का हक़ किसी को नहीं है. .... आप सब समझदार लोग हैं, समझदार के लिए इशारा काफ़ी होता है.’’
‘‘सब बकवास है.’’
तालिब को एक बार फिर वही जानी पहचानी आवाज़ सुनाई पड़ी. तालिब ने इस बार उस आवाज़ पर ध्यान नहीं दिया. उसे मालूम था ये किसकी आवाज़ है.
तालिब को अण्डा और चाए से उसे थोड़ी देर के लिए आराम तो मिल गया था लेकिन पेट अभी भी ख़ाली ही था इसलिए उसका दिल तक़रीरों में नहीं लग रहा था और बार बार उसका ध्यान इधर उधर भटक रहा था. जिससे रास्ते की फिर वह सारी बातें याद आने लगीं. उसने अंगूठे और कलमे की उंगली को एक बार फिर छूकर देखा चिपचिपाहट अभी भी मौजूद थी. अचानक उसे ख़्याल आया कि अभी मैंने इसी हाथ से अण्डा खाया है. इतना याद आते ही एक बार फिर उसे मतली सी होने लगी ऐसा लगा जैसे अभी उल्टी हो जाएगी इसलिए उसे वहां एक पल भी ठहरना मुश्किल हो गया. वह जल्दी से वहां से उठ कर चल दिया, अभी वह मुशाइरे के शामियाने में थोड़ी ही दूर गया था कि चेयनमैन साहब का एक ख़ास आदमी मिला, उसने तालिब से पूछा.
‘‘साहब कहाँ थे अभी तक मैं आपको तलाश कर रहा था, चेयरमैन साहब ने प्रेस वालों की देखभाल की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी थी.’’
‘‘क्या मियाँ! मैं तो यहीं था लेकिन कोई पूछने वाला ही नहीं था.’’
‘‘साहब आप को तो मालूम ही था कि यहाँ तो सिर्फ़ मुशाइरा होगा कुछ तक़रीरें भी, बाक़ी सारा इन्तेज़ाम तो घर में ही था और आप घर में आए ही नहीं.’’
‘‘अच्छा ख़ैर जो हो गया सो गया, अब यह बताओ अभी कुछ हो सकता है या नहीं? बड़ी तेज़ तलब लगी है.’’
तालिब ने सोचा एक बार नषा चढ़ गया तो सब भूल जाउँगा.
‘‘अभी चलिए साहब.’’
तलिब उसके साथ चल दिया वह उसे एक कमरे में ले गया, वहाँ पहुँच कर उस लड़के ने तालिब से कहा.
‘‘चेयरमैन साहब ने अपने घर में हर चीज़ का इन्तज़ाम किया था. लेकिन आप आए ही नहीं, वह आप को पूछ भी रहे थे, मुशायरे में देर हो रही थी इसलिए वह सबको लेकर आ गए, वैसे कुछ लोगों के पीने का इन्तेज़ाम यहाँ भी किया गया था. चेयरमैन साहब ने कहा था कि कोई वीआईपी आ गया तो उसका इन्तेज़ाम यहाँ भी रहना चाहिए. लेकिन कोई वी आई पी. बाद में आया ही नहीं इसलिए बची हुई है, यह कह कर उसने कुछ चिप्स और मूँगफली के दाने प्लेट में निकाल कर दिएं. फिर व्हिस्की की एक बोतल निकाल कर, पैमाने में डाली और पानी व बर्फ़ मिला कर तालिब को पेश किया, तालिब ने हाथ में गिलास थामते हुए पूछा.
‘‘तुम्हारा पैग कहाँ है?’’
‘‘मैं नहीं पीता.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘बस साहब नहीं पीता, ऐसे ही, कभी आदत नहीं रही.’’
‘‘चलो कोई बात नहीं, अगर नहीं पीते हो तो मैं ज़ोर नहीं दूंगा, नाम क्या है तुम्हारा?’’
‘‘हामिद.’’
तालिब को भूख लगी हुई थी, उसके जी में आया कि उससे पूँछूं कि हामिद मियाँ! अब मेरे खाने का क्या इन्तेज़ाम है? लेकिन तकल्लुफ में वह पूछ न सका. थोड़ी देर बाद जब आधा गिलास ख़ाली हो गया तो उसने हामिद से कहा.
‘‘हामिद मियां मेरा एक काम करोगे?’’
‘‘जी फ़रमाइए.’’
‘‘बाहर जो चाए की दुकान लगी हुई हैं वहाँ से दो उबले हुए अण्डे ले आओ.’’
यह कह कर तालिब कुर्ते की जेब से पैसे निकालने लगा, लेकिन हामिद ने कहा.
‘‘साहब पैसों की कोई ज़रूरत नहीं, चेयरमैन साहब के हिसाब में आ जाएंगे.’’
‘‘नहीं हामिद मियाँ बात तो सुनों, तुम पैसे लिए जाओ.’’
‘‘नहीं चेयरमैन साहब ने मना किया था कि कोई भी मेहमान अगर कुछ मंगवाए तो उससे पैसे मत लेना, मेरे हिसाब में ले आना.’’
यह कह कर हामिद बहुत तेज़ी बाहर निकल गया, तालिब पुकारता रहा
‘‘हामिद मियां, अरे सुनो तो, मैं कोई शाइर या मेहमान नहीं हूं. ...... ’’
लेकिन तब तक हामिद काफ़ी दूर जा चुका था. उसके जाने के बाद तालिब ने एक पैग और बनाया और पीने लगा. जब थोड़ा सुरूर आया तो वह रिपोर्ट के बारे में सोचने लगा कि कई तरह के प्रोग्राम हैं, बहुत सारी तक़रीरें सुन भी नहीं सका हूँ, उनका ब्योरा कैसे मालूम किया जाए? कहीं किसी ने कोई विवादित बात न कह दी हो, जो बाक़ी अख़बारों में तो छप जाए और मेरे अख़बार में छपने से रह जाए, थोड़ी देर में हामिद अण्डे ले कर आ गया. तालिब ने अण्डे की एक फांक अपने मुंह में रखते हुए दूसरी फांक हामिद की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा.
‘‘लो हामिद मियां किसी चीज़ में तो मेरा साथ दो शराब नहीं पीते तो न सही, अण्डे तो खाते ही होगे.’’
‘‘नहीं मुझ से अभी कुछ न खाया पिया जाएगा मेरा पेट बिलकुल भरा हुआ है.’’
‘‘हामिद मियां जैसी मर्जी आपकी लेकिन मैं तो खाऊंगा भी और पिउंगा भी.’’
यह कह कर उसने शराब का एक और घूंट गले में उतारा और अण्डे की एक फांक उठा कर मुंह में रख ली. इस पर हामिद ने कहा.
‘‘जी बिलकुल, मेरे लाएक़ अगर कोई और खि़दमत हो तो हुक्म फ़रमाइए.’’
‘‘नहीं नहीं हामिद मियां, आपने मेरे लिए बहुत परेषानी उठाई, मेरी वजह से आप मुशाइरा भी नहीं सुन पा रहे हैं, हामिद मियां अब आप मुशाइरा सुनिए जाके, यहां से फ़ारिग़ होकर अभी मैं भी वहीं पहुँच रहा हूं.’’
‘‘जैसा आपका हुक्म.’’
‘‘अच्छा ख़ुदा हाफ़िज़.’’
‘‘ख़ुदा हाफ़िज़.’’
हामिद के जाने के बाद तालिब ने एक पैग और बनाया और आहिस्ता आहिस्ता फिर से पीने लगा, शाइरों का कलाम लाउडस्पीकर के ज़रिए उस तक पहुँच रहा था, एक औरत की मुतरन्नुम आवाज़ सुन सुन कर लोग पागल हो रहे थे, दाद की आवाज़ों से फ़िज़ा गूंज रही थी, तालिब ने उबले हुए अण्डे की आखि़री फांक मुंह में रखते हुए कहा.
‘‘वाह ... वाह, क्या बात है, बहुत ख़ूब.’’
इसके बाद उसने जाम को हाथ में उठाया और कमरे में इधर उधर घूम घूम कर पीने लगा और बग़ैर कुछ सुने ‘‘वाह वाह! क्या बात है, बहुत ख़ूब’’ को तेज़ आवाज़ में कहने लगा. यह सिलसिला काफ़ी देर तक जारी रहा.
कुछ देर में उसे पेशाब लगी तो पेशाब घर की तरफ़ चल पड़ा, यह पेशाब घर वक़्ती तौर पर बनाया गया था और यहां सफ़ाई का भी उचित इन्तेज़ाम न था. फिर भी पेशाब करने वालों की काफ़ी लम्बी लाइन लगी हुई थी. लोग अपने नम्बर के इन्तज़ार में थे, इसलिए उसने सोचा रात का वक़्त है चलो कहीं अन्धेरे में खुले मैदान में करके वापस आता हूं, उसके बाद बस रिपोर्टिंग करूंगा. यह सोचकर तालिब बाहर निकल गया, मुशाइरागाह के चारों तरफ़ रौशनियां जगमगा रही थीं. एक शाइर चेयरमैन की शान में क़सीदा पढ़े जा रहे थे, लोग वाह वाह और चेयरमैन ज़िन्दाबाद के नारे लगा रहे थे. स्टेज के सामने से गुज़रते वक़्त वह एक लम्हे के लिए रुका, सोचा थोड़ी देर सुन लूं. मुशाइरा जैसा भी हो रिपोर्ट तो तैयार ही करनी होगी. स्टेज के सामने देखा जहाँ वी वी आई पी की तख़्ती लगी हुई थी, वहाँ शहर के सारे छदम सम्मानीय लो, राजनीतिज्ञ, उच्च अधिकारी और व्यापारी सब बैठे हुए थे. वह सब मुशाइरा सुनने से ज़्यादा अपनी अकड़, झूठी शान और पहुँच का दिखावा कर रहे थे. ये पूरा माहौल उसे बेहद असंवेदनशील, नक़ली और हिंसक लगा उसे वहशत सी होने लगी, इसी दौरान पेशाब ने एक बार फिर ज़ोर मारा और वह पेशाब करने अन्धेरे की तरफ़ चल दिया.
२.
काफ़ी दूर तक रोशनी तालिब के साथ साथ चलती रही, उसकी परछाई बार बार पैंतरा बदल रही थी, कभी आगे निकल जाती थी तो कभी पीछे रह जाती थी. कभी छोटी रह जाती और कभी उससे भी बड़ी, कभी गहरी हो जाती और कभी हल्की. कभी एक रह जाती और कभी कई हो जातीं. रोशनी और परछाई का यह खेल उसे बड़ा ख़तरनाक लगा और परछाइयों से उसे वहशत सी होने लगी, पीछे से आ रही वाह वाह की आवाज़ें उसे और भी भयानक बना रही थीं. जब यह सब बर्दाश्त से बाहर होने लगा तो तालिब रोशनी और साए दोनों से दूर निकल जाने के लिए बेताब हो गया और दौड़ने लगा. दौड़ते दौड़ते वह शहर से बाहर खेतों तक पहुँच गया, जब वह इन सब वहशत नाकियों से निकल आया तो उसने दौड़ना बन्द किया और मुनासिब जगह देखकर पेशाब करने लगा. उससे निपटने के बाद उसने शहर की तरफ़ देखा, बाक़ी शहर अन्धेरे में डूबा हुआ था सिर्फ़ मुशाइरागाह और उसके इर्द गिर्द का कुछ हिस्सा रौशन था, हवा की लहरो के साथ मुशायरे की कुछ मद्धम सी आवाज़ें अभी भी आ रही थीं उनको नज़र अन्दाज़ करके कुछ देर तक वह ख़ामोशी से वहीं बैठा रहा.
थोड़ी देर गुज़र जाने के बाद उसने सोचा अपनी ज़िम्मेदारियों से बहुत भाग चुके, अब हमें चलकर संजीदगी से रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए, अब नुमाइन्दा शाइर ही बचे होंगे अगर अब भी नहीं गए फिर तो मुशायरे की रिपोर्ट तैयार हो चुकी. यह सोच कर वह मुशाइरा स्थल की तरफ़ चल पड़ा लेकिन भूख और सुरूर की वजह से उससे चला नहीं जा रहा था. थोड़ी दूर चलने के बाद उसने सोचा थोड़ा आराम कर लूं, इस दौरान दिमाग में रिपोर्ट का एक प्रारूप भी तैयार कर लूंगा, यह सोच कर उसने बैठने की मुनासिब जगह की तलाश में अपने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, अब तक थोड़ी थोड़ी चाँदनी निकल चुकी थी. पास में ही एक तालाब नज़र आया तो वह उसी तरफ़ चल पड़ा. तालाब के किनारे एक पेड़ कटा हुआ पड़ा था वह उसी पर जाकर बैठ गया. वहां बैठकर उसे काफ़ी सुकून मिला. उसने एक नज़र तालाब पर डाली, बचपन में वह अक्सर इस तालाब पर आता रहता था लेकिन आज बरसों बाद वह इस जगह पर आया था. उसने एक बार फिर चारों तरफ़ नज़रें दौड़ाईं, ऐसा लगा जैसे कोई गुमशुदा ज़िन्दगी वापस मिल गई हो. लेकिन यह मन्ज़र बिलकुल बचपन जैसा भी नहीं था. बहुत से दरख़्त ग़ायब थे, हलकी सी चाँदनी की वजह से यह मन्ज़र बहुत रहस्यमय लग रहा था. सबसे बड़ी तबदीली यह थी कि तालाब पहले से छोटा महसूस हो रहा था जबकि उसकी सीमाओं में कोई तबदीली नहीं हुई थी.
अचानक कोई परिन्दा उसके सर के ऊपर से तेज़ आवाज़ के साथ चीख़ता हुआ उड़ा, तालिब ने सर उठाकर ऊपर देखा तो परिन्दा तो नज़र नहीं आया लेकिन एक टूटा हुआ तारा चमक कर ग़ायब हो गया. रात में तारे कुछ यूं आहिस्ता आहिस्ता दमक रहे थे जैसे आँख मिचैली खेल रहे हों. तालिब ने सोचा ये सितारे कहाँ छुप जाते हैं? आसमान में तो तारों के छुपने की कोई जगह है नहीं. फिर ये मेरी नज़रों से ओझल कैसे हो जाते हैं? ..... तो सारा खेल एकाग्रता का है. नज़र ज़रा हटी कि तारों के झुरमुट में उस बारीक वस्तु को तलाश करने में समय लगता है और जब हम उसे तलाश कर लेते हैं तो दूसरे तारों से एकाग्रता ख़त्म हो जाती है, इस तरह यह आँख मिचैली चलती रहती है. लेकिन यह कितनी अजीब बात है कि इतने गर्म और बड़े तारे एक मामूली ठण्डक पहुँचाने वाले जुगनू की तरह टिमटिमा रहे हैं. अगर कोई उन सितारों पर जाकर मुझे देखे तो मेरी क्या हैसियत होगी? मैं तो कहीं नज़र ही नहीं आऊंगा, ख़ैर मेरी क्या हैसियत है, क़ुदरत में तमाम इन्सानों की कोई हैसियत नहीं है, ख़ुद यह सौर्य गृह किसी नज़दीकी सितारे से चाहे एक टिमटिमाते हुए तारे सा नज़र भी आ जाए लेकिन किसी दूर के तारे से ख़ुद ये सूरज भी नज़र न आएगा.
‘‘दूर से? ’’ तो क्या दूर और नज़दीक की कोई परिकल्पना ब्रम्हाण्ड के पास है? यह परिकल्पना तो महज़ इसलिए है कि हमने अपने आप को केन्द्र में मान लिया है लेकिन क्या वाक़ई हम केन्द्र में हैं? यह तो बस हमारा अहम् है. तो साबित यह हुआ कि इस ब्रम्हाण्ड में इन्सान की कोई हैसियत ही नहीं है इन्सान बस वही हैं जो किसी दूसरे सितारे से देखने पर नज़र आएंगे यानी कुछ भी नहीं, एक बिन्दु भी नहीं. बिलकुल उसी तरह जैसे दूसरे सितारों के इन्सान (अगर हैं) हमारे लिए कोई अस्तित्व नहीं रखते. रही ये बात कि हम जो कुछ भी हैं इस सौर मंडल में ही है और इसमें भी बस कुछ हिस्से में रोषनी है बाक़ी तो अन्धेरा ही अन्धेरा है. हम अभी सौर मंडल के गृहों तक का तो सही हिसाब लगा नहीं सके हैै. अगर हम खुले दिल से देखें तो यह पृथ्वी इस सौर मंडल का बहुत मामूली कण है, अब मेरी जो भी कहानी है इस मामूली कण के अन्दर की कहानी है और हम ऐसे ऐंडते फिरते हैं जैसे ब्रम्हाण्ड में हम ही हम हैं. कण की बात पर तालिब को याद आया भौतिक दुनिया में हम षून्य सही लेकिन अन्र्तमन में ज्ञान, कला, दर्षन, संवेदना और भावुकता की भी तो एक दुनिया बसी हुई है जो इस ठोस भौतिक दुनिया से कम बड़ी नहीं है, भौतिक दुनिया में हम षून्य सही लेकिन अन्र्तमन में हम सौर मंडल ही क्या पूरे ब्रम्हाण्ड से भी ज़्यादा बड़े हैं. दर अस्ल इस भौतिक दुनिया को भी हम इसी अन्र्तमन की दुनिया से पहचानने में कामयाब हुए हैं, नहीं तो हम इस पृथ्वी से बाहर ही कब निकले हैं? चाँद और अन्तरिक्ष का सफ़र तो बस पृथ्वी से एक उछल कूद है, उछल कूद करने के बाद हम वापस फिर पृथ्वी पर ही आकर गिरते हैं.
अभी वह यह सब सोच ही रहा था कि अचानक बाईं तरफ़ से हवा के एक तेज़ झोंके की आवाज़ सुनाई पड़ी, तालिब ने बाईं तरफ़ मुड़ कर देखा, हलकी चाँदनी में कुछ ख़ास नज़र न आया तो उसका दिमाग़ अन्र्तमन में चला गया और वहाँ आबाद ज़िन्दगी की कुछ परछाइयाँ उभरने लगीं.
बचपन से अब तक की ज़िन्दगी का सफ़र याद आने लगा, वह दिन याद आए, जब उसमें अपने मुल्क, समाज और सबसे बढ़कर अपने विचारों के लिए ज़िन्दगी में कुछ गुज़रने के जज़्बात पैदा हुए थे. उस वक़्त एक तरह का आदर्षवाद था, विद्यार्थी जीवन की बहुत सी बातें याद आने लगीं, कितने आदर्ष और यक़ीन के साथ वह पत्रकारिता के पेषे में आया था. लेकिन आहिस्ता आहिस्ता वह सारा आदर्षवाद ग़ायब होता चला गया था, अब उन सब बातों के लिए उसके पास कोई वक़्त न था, लेकिन अभी भी कुछ था, जो कभी कभी उससे सवाल करता था, वह सवाल इतने प्रभावी तो न थे कि सामने आकर उसका रास्ता रोक लेते और अब तो उसने उन सवालों को नज़र अन्दाज़ करके भी जीना सीख लिया था. तनहा होकर कभी अपनी और कभी समाजी ज़िन्दगी के सवालो के बारे में सोचना उसने एक ज़माने से छोड़ रखा था लेकिन आज जब शहर से दूर देर रात में एक तालाब के किनारे बैठा तो न जाने कितने भूले बिसरे सवाल सामने आ कर खड़े हो गए.
इतने में मुशाइरागाह की तरफ़ से हवा का एक तेज़ झोंका आया जिसके साथ ही मुशायरे की हल्की हल्की आवाजे़ भी सुनाई पड़ीं तो उसे ख़्याल आया कि मुझे अब हर हाल में चलना चाहिए और कल की ख़बर के लिए रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए, जो शाइर पढ़ चुके होंगे उनके अशआर को किसी से लेकर रिपोर्ट में षामिल करना होगा. यह सोचकर तालिब मुषाइरा स्थल की तरफ़ चल पड़ा. तभी उसे एक जानी पहचानी आवाज़ सुनाई दी.
‘‘क्या ज़रूरी है कि उस तमाशे की रिपोर्टिंग की जाए?’’
‘‘फिर? ... और किसकी रिपोर्टिंग करूँ.’’
‘‘क्या अन्धेरों की रिपोर्टिंग नही की जा सकती?’’
‘‘अन्धेरे की रिपोर्टिग? वहाँ ऐसा क्या है? जिस की रिपोर्टिंग की जाए? और अगर कुछ हो भी तो अन्धेरे में नज़र क्या आएगा.’’
‘‘अन्धेरे में जाकर देखो, यहाँ जिन मसाइल पर इतना ध्यान दिया जा रहा है, यह सब कृतिम हैं, यह सारा मसला असलहों की फ़रोख़्त का है. उधर जाओ देखो रोज़ कितने लोग खाना, इलाज और तालीम न होने की वजह से क्या क्या परेषानियां झेल रहे हैं, कीड़े मकोड़ो की ज़िन्दगी जीने और मरने पर मजबूर हैं.’’
तालिब को पत्रकारिता के विद्यार्थी जीवन की याद आ गई उसने सोचा वाक़ई उधर की परिस्थितियां बहुत ख़राब हैं किसी दिन वहाँ की भी रिपोटिंग करूँगा. यह सोच कर वह एक बार फिर मुशाइरागाह की तरफ़ चल पड़ा. कुछ देर तक तालिब के दिमाग़ में अन्धेरे शहर के मन्ज़र उभरते रहे. लेकिन जैसे जैसे वह मुशाइरागाह की तरफ़ बढ़ता गया मुशायरे की आवाज़ें तेज़तर होती गईं और उसके दिमाग़ में एक बार फिर में एक बार फिर मुशायरे के बहुत से चेहरे उभरने लगे. शहर के सारे रईसों को चेयरमैन ने बुला रखा था. बाहर के सारे शाइर, सियासी रहनुमा और बुद्धिजीवी भी इस ‘महान’ मुशाइरा और कान्फे्रन्स मे बुलाने के लिए झुक झुक कर शुक्रिया अदा कर रहे थे. वहाँ रिपोर्टिंग के लिए बहुत कुछ था. एक एक शख़्स पर कई कई रिपोर्टें छापी जा सकती हैं, एक पेज में तो सिर्फ़ तस्वीरें छापी जा सकती थीं. कहने को तो उसे ‘पेज-तीन’ कहते हैं लेकिन वह कई पेजों पर फैला हुआ है. पिछले कई बरसों में सबसे ज्यादा प्रचार प्रसार उसी पेज का हुआ है. यह सब सोचकर उसके होंठों पर एक रहस्यमय मुस्कराहट खिल उठी. कुछ देर पैदल चलने से एक बार फिर उसका जिस्म पसीने से भीगने लगा, गरदन और पीठ में ख़ास तौर से फिर खुजली भी होने लगी. उसने खुजलाना शुरू तो अन्जाने में किया लेकिन अन्धौरियों में खुजलाने से खुजली और बढ़ती गई फिर वह खड़ा होकर पूरे होश हवास में खुजलाने लगा खुजली बढ़ती ही गई.
उसे एक बार फिर उस कपड़े की याद आ गई, उसने एक बार फिर उंगलियों को आपस में छुआ अब चिपचिपाहट तो महसूस नहीं हुई लेकिन फिर भी उसे महसूस हुआ कि पूरे जिस्म पर जैसे महवारी की मालिश की गई है. उसे उल्टी होने लगी. ऐसा महसूस हुआ जैसे पूरे जिस्म की खाल ‘वह’ कपड़ा बन गई हो जिसे जितनी जल्दी हो सके उतार फेंकना चाहिए. अब तो नहाने से भी काई फ़ायदा न होगा. अब क्या करूँ? जब कुछ समझ में न आया तो तालिब वहीं ज़मीन पर उकड़ू बैठ गया, मां के गर्भ की तरह. उसे शाम से पेश आई तमाम घटनाएं एक एक करके याद आने लगीं, उन्हें याद करके उसका जी चाहा कि ख़ूब रोऊँ, कुछ देर तक बैठे रहने के बाद वह सचमुच रोने लगा. रात के अन्धेरे में एक सुनसान सड़क पर उकड़ू बैठा रोता हुआ इन्सान वह नवजात शिशु की तरह मासूम बन गया.
अचानक उसे किसी के पैरों की की चाप सुनाई पड़ी, उसने पीछे मुड़ कर देखा, कोई नज़र न आया लेकिन महसूस हुआ कि जैसे सड़क के किनारे की झाड़ियों में कोई छिप गया हो. तालिब उसको नज़र अन्दाज़ करके काफ़ी देर तक बिलकुल गुमसुम और उदास बैठा रहा. इस तरह उसका कथार्सिस हो गया उसमें पत्रकार होने की जो अकड़ थी जाती रही और उसकी जगह नेकी ने ले ली.
जलसे में जमा कुलीन वर्ग से मिलने और उनके बारे में लिखने का ख़्याल उसके दिल से जाता रहा और वह वापस घर की तरफ़ चल पड़ा. चलते चलते वह एक ऐसे दोराहे पर पहुँच गया जहाँ से एक रास्ता रोशनी से जगमगाते शहर की तरफ़ जाता था और दूसरा अन्धेरों की तरफ़. उसने रोशनी वाले रास्ते पर एक नज़र डाली, वह रोशनी बड़ी हिंसक महसूस हुई तो उसने दूसरी तरफ़ देखा, उधर भी एक ख़ौफ़नाक अन्धेरा छाया हुआ था. यह अन्धेरा सिर्फ़ रात के समय का न था बल्कि राजनैतिक और समारिक समय का भी था, प्रकृति ने एक मोहल्ले को इतना रौशन और बाक़ी शहर को इतना अन्धेरा नहीं बनाया था.
कुछ देर सोचने के बाद उसके पैर अन्धेरों की तरफ़ चल पड़े. वहाँ बिजली अभी तक नहीं आई थी लेकिन वह बिना किसी ख़ौफ़ के अन्धेरों की तरफ़ बढ़ता चला गया. जिस गली में वह दाखि़ल हुआ सरकारी काग़ज़ात के मुताबिक वह एक ‘गै़र क़ानूनी’ बस्ती थी. कुछ घरों में एक आध कमरे बने हुए थे लेकिन ज़्यादातर झुग्गियाँ थीं. कुछ लोग छतों पर लेटे हुए थे, कुछ आँगन में और कुछ गली में सो रहे थे, या गर्मी और मच्छरों से लड़ने की कोशिश में हाथ का पंखा झल रहे थे.
तालिब पर अचानक एक आदमी ने हमला कर दिया और उसका कैमरा छीन कर भागने की कोशिश की, लेकिन कैमरा उसके गले में पड़ा हुआ था इसलिए वह कैमरा न निकाल सका, हमलावर कैमरा छीनने की नाकाम कोशिश के बाद बेतहाशा भागा लेकिन वह अभी थोड़ी ही दूर भागा था कि उसका पैर एक पत्थर से टकराया और वह वहीं पर ढेर हो गया. उसके मुँह से दिल को चीर देने वाली एक चीख़ निकली, तालिब दौड़ कर हमलावर के क़रीब पहुँचा, तालिब के क़रीब आते ही हमलावर ने रगड़ रगड़ कर भागने की कोशिश की लेकिन इस तरह वह कितनी दूर भाग सकता था आख़िरकार तालिब ने उसे पकड़ लिया. उसे एक पैर में काफ़ी चोट लगी थी, अंगूठे से काफ़ी ख़ून निकल रहा था, तालिब ने पहले तो उसे तसल्ली दी कि घबराए न और फिर जेब से रुमाल निकाल कर बांधने लगा ताकि ख़ून बहना रुक जाए. फिर उसका हाथ अपने कन्धे पर रखकर उसे सहारा देकर खड़ा करते हुए बड़े प्यार से उसकी ख़ैरियत पूछी. काफ़ी देर तक तो हमलावर कुछ मामला ही न समझ सका, वह चोट से ज़्यादा पकड़े जाने से घबरा रहा था, लेकिन घबराहट से ज़्यादा हैरानी थी. पकड़े जाने पर वह क्या उम्मीद कर रहा था और यहाँ क्या सुलूक किया जा रहा था, तालिब ने बड़े नर्म लहजे में पूछा.
‘‘ज़्यादा चोट तो नहीं आई? अस्पताल ले चलूँ?’’
‘‘ना साब, मैं ठीक हूँ, बड़ी गलती हो गई साब अब ऐसा कब्हू न करब, माफ कर दो साब.’’
यह कह कर वह तालिब के पैर पकड़ने लगा. तालिब ने एक बार फिर उसी तरह सहारा देकर खड़ा किया और कहा. ‘‘कोई बात नहीं, तुम्हारा घर किधर है? तुम अभी अकेले नहीं चल पाओगे, चलो मैं तुम्हें तुम्हारे घर भेज आता हूँ.’’
हमलावर पहले तो नहीं नहीं करता रहा वह अभी भी डरा हुआ था लेकिन जब बगै़र सहारे के न चल सका तो तालिब के कन्धे का सहारा लेकर चलने लगा, उसने हाथ से झुग्गियों की तरफ़ इशारा करके बताया कि उसका घर उधर है. इस तरह अन्धेरी रात में झुग्गियों में रहने वाला एक लुटेरा और एक बड़े समाचार पत्र का पत्रकार हाथ में हाथ डाले यूँ चलने लगे जैसे बहुत गहरे दोस्त हों. वह एक कच्चे रास्ते से गुज़र रहे थे, जिसके दोनों तरफ़ झुग्गियाँ बनी हुई थीं. जो छप्पर, खपरैल, टीन या बरसाती की बनी हुई थीं, एक आध पक्के कमरे भी थे. कुछ लोगों ने रास्ते में चारपाई डाल रखी थीं और कुछ बगै़र चारपाई के ही रास्ते में कथरी बिछा कर सो रहे थे, वह दोनों उसी तरफ़ साथ साथ चलने लगे, तालिब ने बात षुरू करते हुए पूछा.
‘‘तुम कैमरा लेकर क्यों भागना चाहते थे.’’
‘‘साब मैं अपने मुहल्ले के चायख़ाने पर रोज़ डेली अख़बार में देखता हूँ लोगों की बिना किसी बात के रंगीन फोटुवें छपती हैं, उनमें खबर जैसा कुछ भी नहीं होता, तो साब मैंने सोचा अगर मेरे पास कैमरा हो जाए तो हमारे मोहल्ले में रोज डेली कुछ न कुछ होता रहता है, तो अखबार वालों को छापने के लिए उसकी फोटुवें भेज दिया करूँगा, उनको भी खबर वाली अच्छी फोटुवें मिल जाया करेंगी और उन्हें बगैर खबर वाली फोटुवें नहीं छापनी पडे़गी और हमका भी चार पैसे मिल जाया करेंगे. साब मैं पाँचवी पास हूँ खबर तो नहीं लिख सकता फोटू खींच सकता हूँ.’’
तालिब हमलावर की मासूमियत पर दिल ही दिल में मुस्कराया फिर पूछा.
‘‘अच्छा तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि मैं अभी यहाँ से गुज़रुंगा?’’
‘‘साब मैं बहुत देर से जलसे वाले मैदान के इर्द गिर्द ताक लगाए घूम रहा था, आपको कैमरा ले जाते देखा तो लगा शिकार मिल गया और मैं आपके पीछे हो लिया, लेकिन साब जब आपको सड़क पर उकड़ू बैठ के रोते देखा तब तो मैं सकपका गया यू का होय गवा, सच्ची बताऊँ साब एक बार तो मोरा भी जी चाहा कि मैं भी आपके पास बैठ के रोने लगूं, लेकिन दिल में चोर था तो आपके पास आवे की हिम्मत न जुटाय पाएन, और एैसेय खड़े रहेन फिर जब आपका दुबारा चलत देखेन तब जान में जान आई, और लगा कोई पागल होई, पागल से कैमरा छीनना और आसान होई, लेकिन वह सीन मन में ऐसा बइठा कि बार बार याद आवा किया तो कैमरा छीनय का पूरा काम इसी दुविधा में किया इसीलिए चूक होय गई, नई तो ये काम तो बाएं हाथ का था. इसी दुविधा की वजह से चूक होय गई.’’
यह कह कर हमलावर एक बार फिर तालिब के पैर पकड़कर माफ़ी माँगने लगा.
‘‘साब माफ कर दो .... गलती होय गई, आप तो बहुत भले आदमी मालूम होत हव ..’’
तालिब ने उसे सहारा देकर उठाया, उसका हाथ अपने कन्धे पर रख लिया फिर बड़ी अपनाइयत के साथ उससे कहा.
‘‘मैं ने कहा ना कोई बात नहीं, मैं ने तुम्हें माफ़ कर दिया. लेकिन तुम यह बताओ तुम्हारे मोहल्ले में रोज़ रोज़ ऐसा क्या होता रहता है जिसकी फोटो खींचकर तुम अख़बार में छपवाना चाहते हो, मुझे बताओगे? मैं सब छपवा दूँगा, तुम फोटो खींचना और मैं रिपोर्ट लिखूंगा.’’
‘‘हाँ साब बताउंगा, सब बताउंगा जैसे सामने वाला घर यह जग्गू का है ऊकी बेटी बड़ी खबसूरत थी जग्गू की जोरू एक घर में काम करय जात रहय, एक दिन जोरू बीमार पड़ी तो बिटिया का काम पर भेज दिया, इससे पहले भी कभी कभी जब काम ज़्यादा होत रहय वह ऊके साथ जात रहय, तो उस दिन वह अकेली चली गई. जब वह वापस आई तो लहू लुहान थी, साब वह लोग बहुत बड़े आदमी हैं बहुत पहुँच है उनकी, न पुलिस ने रपट लिखी, न अख़बारों में ख़बर छपी, अब वह पेट से है. हर बखत घूमती रहती है और रटती रहती है, मेरा बच्चा स्कूल जाएगा. मेरा बच्चा स्कूल जाएगा .... बड़ा आदमी बनेगा, वा पगलाय गई है साब.’’
कहानी ख़त्म होने पर दोनों ख़ामोश और उदास हो गए. तालिब की समझ में न आया कि वह कैसे तसल्ली दे? और किसको दे? वह हमलावर को सहारा देकर रात के अन्धेरे में बढ़ता रहा, अचानक एक बार फिर उसे महवारी का कपड़ा याद आ गया उसने अपने आप को सूंघ कर यह जानने की कोशिश की कि क्या अभी तक बू आ रही है? लेकिन अब तो उसकी नाक ही नहीं दिमाग़ में भी वह बू बस चुकी थी इसलिए उसे ये जान पाना बहुत मुश्किल हो गया कि वह बू अभी आ रही है या नहीं. वह यह सोच कर कशमकश में पड़ गया कि इस हालत में हमलावर से इस तरह लिपट कर चलना क्या नैतिक है? लेकिन अगर इसे छोड़ दूँ तो ये कैसे जाएगा? थोड़ी देर इसी कशमकश में चलने के बाद तालिब ने पूछा.
‘‘तुम्हे कोई बदबू तो नहीं आ रही है?
‘‘कैसी बदबू?’’
‘‘कोई भी जैसे किसी औरत की या ’’
औरत सुनकर वह हँसने लगा, ‘‘साहब आप भी यहाँ औरत कहाँ रखी जो उसकी बास आएगी.’’
यह सुनने के बाद तालिब को कुछ तसल्ली हुई, वैसे भी अगर महवारी का द्रव्य अगर इसके लगना था तो अब तक लग ही चुका होगा, इसलिए अब जैसे चल रहे हैं, चलते रहना ही ठीक होगा, फिर अचानक उसके मुँह से निकल गया.
‘‘तुम नहाते कब कब हो? ऐ मेरा मतलब है पिछली बार तुम कब नहाए थे?’’
‘‘साहब क्या मेरे बदन से बदबू आ रही है? साहब मैं तो रोज़ डेली नहाता हूँ, जिस दिन पानी नहीं आता उस दिन तो मजबूरी है.’’
‘‘नहीं नहीं मेरा मतलब वह नहीं था, मैं कह रहा था थोड़ी देर में सुबह होने वाली है, रात भर जागते रहे हो, चोट भी लग गई है तुम्हें, कल काम पर तो जा नहीं पाओगे. इसलिए सुबह सोने से पहले नहा लेना इससे नींद अच्छी आएगी.’’
‘‘जी साब.’’
हमलावर के यह कहने के बाद दोनों चुप हो गए और ख़ामोषी से चलने लगे. थोड़ी देर में हमलावर ने हाथ से एक तरफ़ इशारा करते हुए कहा.
‘‘साब ये जो बुढ़िया रास्ते में पड़ी है पता नहीं सो रही है या जाग रही है. एक साल पहले पुलिस इसके इकलौते लड़के को उठा ले गई थी, बोली आतंकवादी है, साब पुलिस जिस दिन का केस बता कर ले गई उस दिन हम कई लोग एक ही मकान मां काम करित रहय, उका लड़का भी हमरे साथ रहय, जब लड़का तीन महीना का रहय तभय ऊका बाप मर गवा रहय, तब से माँ ने कैसी कैसी मुसीबतें झेलीं, जब लड़िका पाल पोस के जवान कर दिया तो पुलिस उठा ले गई. एक दफा हम लोग थाने गए थे तो पुलिस बोली अगर ज्यादा चूं चड़ाक की तो तड़ी पार कर दूँगा. नहीं तो लड़िका मिल जई. लेकिन साब एक साल हो गया, माँ जब भी जाती है पुलिस एक ही जवाब देती है मिल जाएगा लड़का, मुला आज तक ऊका पता न चला. तब से रोज डेली लोगन से मांग मूंग के खाना पकावत है कि आज मोरा बचुआ आई, मुला वू कभू नई आवत है.’’
यह कह कर हमलावर एक आह भर के बैठ गया और तालिब से बोला.
‘‘साहब आप भी सहताए लेव, थक गए होइहव.’’
तालिब भी बैठ गया, बुढ़िया को ग़ौर से देखा, अचानक उसे ख़्याल आया इस बुढ़िया की फोटो खींच ली जाए रिपोर्ट के साथ छप जाएगी, अगर बहुत अच्छी आ गई तो कहीं फोटो कम्पटीशन में भी भेज दूँगा. उसने कैमरे का कवर खोला और उसकी फोटो खींच ली, स्क्रीन पर देखा तो कुछ नज़र न आया तो उसने एक बार और फोटो खींची. लेकिन इस बार भी कुछ नज़र न आया तो वह झुँझला गया, झुँझलाहट में कुछ समझ में न आया तो वह हमलावर की तरफ़ देखने लगा. वह एक घर की तरफ़़ बड़ी हसरत से देख रहा था, कुछ देर तक देखता रहा फिर अचानक सिसकी भर के रोने लगा. तालिब ने बेचैन होकर पूछा.
‘‘क्या हुआ? क्या दर्द बहुत ज़्यादा हो रहा है.’’
‘‘नई साब या बात नइ है, हम आपका सबकी बिपदा सुनाएन लेकिन अपनी मां की नइ सुनाएन, साब हमरी मां बड़े मुसीबत में हमका पालिस और जब हम थोड़ा काम करय लागेन तो शराब की लत ऐसी पड़ी कि जो कुछ काम करेन सब शराब कबाब में उड़ाय देहन, ऊपर से मां का भी जो कुछ बचा खुचा था सब छीन के शराब गांजा में उड़ा दिया. मां ने गम से दाना पानी छोड़ दिया, अगर कोई पड़ोसी खाना देता तो कहती. ‘‘जब अपना जना और पाला पोसा बेटा खाने को न पूछे तो किसी और से लेकर खाने से तो अच्छा है मर जाए,’’ और कुछ दिन में वह मर’’
यह कह कर हमला वर तेज़ तेज़ रोने लगा. तालिब उसे इस तरह तसल्ली देने लगा जैसे परदेस में रहने वाले किसी दोस्त की मां के मरने की ख़बर आई हो, उसने कुछ तसल्ली दी लेकिन रोने से रोकने की ज़्यादा कोशिश भी नहीं की, वह जानता था अगर थोड़ी देर तक यह रो लेगा तो जल्दी सुकून मिल जाएगा. नहीं तो दुख की यह लहर और ज़्यादा लम्बी होती जाएगी. और यही हुआ .... कुछ देर रो लेने के बाद वह बहुत पुर सुकून हो गया और उठ कर खड़ा हो गया.
‘‘माफ़ करो साब अब चलते हैं.’’
एक बार फिर दोनों उसी तरह चलने लगे, थोड़ी दूर आगे बढ़े तो देखा कि एक चारपाई के गिर्द कुछ लोग जमा हैं, पास में मिट्टी के तेल की एक डिबिया जल रही थी. क़रीब पहुँचे तो देखा कि एक आदमी बीमार पड़ा है, तालिब ने उन लोगों से पूछा.
‘‘क्या हुआ इन्हें?’’
‘‘एक थोड़े पढ़े लिखे से नवजवान ने जवाब दिया.
‘‘कुछ रोज़ पहले ये एक मकान में मज़दूरी कर रहे थे कि अचानक बिजली का करेण्ट लगने से दूसरी मंज़िल से नीचे गिर गए.’’
यह सुन कर तालिब ने पूछा.
‘‘इसे अस्पताल में क्यों नहीं भरती कराया?’’
‘‘सरकारी अस्पताल में भर्ती कराने ले गए तो उन्होंने पहले थाने में रपट लिखाने को कहा, बोले रपट के बगै़र अस्पताल में भर्ती नहीं हो सकती. थाने में ठेकेदार ने पैसे दे दिए थे इसलिए रपट नहीं लिखी गई. ठेकेदार से जब इलाज कराने को कहा गया, तो वह साफ़ मुकर गया वह तो यही मानने को तैयार नहीं है कि दुर्घटना उसके मकान में काम करते वक़्त हुई, इसलिए इलाज का पैसा देने का कोई सवाल ही नहीं, हम लोगों से जो कुछ हो सकता था कर रहे हैं.’’
मरीज़ की आखि़री सांसें चल रही थीं उसे इस हालत में देखकर तालिब वहीं रुक गया. उसके घर वालों और हमलावर से बात करने के बाद तालिब ने कहा.
‘‘सरकारी अस्पताल के सुपरीटेन्डेण्ट डाक्टर से मेरी जान पहचान है. इसे अभी अस्पताल ले चलो मैं इसकी भर्ती करा दूंगा और थाने मे रिपोर्ट लिखवाने की भी मैं ज़िम्मेदारी लेता हूँ, थाने में मुझे सब जानते हैं, जल्दी करो मैं तुम लोगों के साथ चलता हूँ.’’
वह लोग जल्दी जल्दी चलने की तैयारी करने लगे. तालिब ने सोचा इसकी तस्वीर खींच लेता हूँ रिपोर्ट के साथ तस्वीर भी छप जाएगी तो ज़्यादा अच्छा रहेगा. यह सोच कर तालिब कैमरा निकाल कर फोटो खींचने लगा, लेकिन अन्धेरे में एक तस्वीर भी न खिंच सकी वह झुंझला कर बोला.
‘‘उफ़ यह तस्वीरें तो आ ही नहीं रही हैं. बस अन्धेरा ही अन्धेरी नज़र आ रहा है, जैसे इनकी ज़िन्दगियों में बस अन्धेरा ही अन्धेरा है. लगता है कैमरा भी उन्हीं लोगों का एजेन्ट है सिर्फ़ रोशनिओं की तस्वीरे खींचता है. अन्धेरों की फोटो ही नहीं खींचता.’’
फिर मन ही मन में वह बुदबुदाया
‘‘टेक्नालोजी का जब तक डी क्लास होता है तब तक वह आउटडेटेड हो जाती है, टेक्नालोजी पूँजीवादियों का हथियार है.’’
यह कह कर उसने कैमरे को ज़मीन पर पटक दिया.
तालिब ने मरीज़ को अब जो ग़ौर से देखा तो उसका दम निकल चुका था, कुछ दूसरे लोगो ने भी उसकी मौत की तसदीक़ की. सब रोने धोने लगे, तालिब ने कुछ लोगों से उसके परिवार के बारे में मालूमात हासिल की और मज़दूर की बीवी को तसल्ली देने की कोशिश करने लगा. लेकिन वह अपने आपे में न थी. उसने तालिब की तरफ़ कोई ध्यान न दिया. पूरी घटना और उसके परिवार की जानकारी हासिल करके तालिब वहाँ से चला आया.
जब वह घर पहुँचा तो सुबह के चार बज चुके थे, वह चुपचाप लेट गया. उसके जे़हन में बार बार मरने वाले और उसके ख़ानदान की तस्वीरें उभर रही थीं, हमलावर ने जो कहानियाँ सुनाई थीं वह भी एक एक करके उसके दिमाग़ में गूँज रही थीं, देर तक नींद न आ सकी लेकिन जब सोता तो अजीब अजीब से ख़्वाब आते रहते और बार बार नींद खुल जाती लेकिन जल्दी ही फिर सो जाता जब पूरी तरह से आँख खुली तो दिन के ग्यारह बज चुके थे. सुबह की ज़रूरतों से निपटने के बाद वह जलसे की रिपोर्ट तैयार करने बैठा तब उसे एहसास हुआ कि कल मैंने बहुत लापरवाही की है. रिपोर्ट के लिए ज़रूरी मालूमात तो मेरे पास है ही नहीं, उसे ये सोचकर तसल्ली हुई कि मैंने दिन की संगोष्ठी की रिपोर्ट कल शाम को ही तैयार करके भेज दी थी. फिर उसने अपने अनुभव और कुछ अन्दाज़े से रिपोर्ट तैयार करनी शुरू की, रिपोर्ट तैयार करते वक़्त उसके जे़हन में बार बार अन्धेरों की तस्वीरें उभरने लगतीं. तो उसने सोचा अन्धेरों की भी एक रिपोर्ट तैयार करनी है इसलिए उससे सम्बन्धित जो भी दिमाग़ में आए, उनको अलग काग़ज़ पर नोट करता जाऊँ जब अन्धेरों की रिपोर्ट लिखूंगा तो ये नोट काम आएंगे. इसी तरह करते करते उसका ध्यान न जाने कब मुशायरे की रिपोर्ट से हट कर अँधेरों की तरफ़ चला गया और उसने अन्धेरों की मुकम्मल रिपोर्ट तैयार कर ली जबकि मुशायरे की रिपोर्ट रह ही गई. उसने सोचा चलो अन्धेरों की रिपोर्ट अभी फै़क्स कर देता हूँ मुशायरे की रिपोर्ट के लिए चेयरमैन साहब से कुछ और मालूमात हासिल करके शाम तक भेज दूंगा. पूरा पेज जब इसी प्रोग्राम के लिए आरक्षित है तो रिपोर्ट देर से पहुँचने पर भी जगह की कोई दिक़्क़त नहीं होगी.
लेकिन मुशायरे की रिपोर्ट शाम तक न तैयार हो सकी, अगले रोज़ उसने अख़बार देखा तो ‘‘अन्धेरों की रिपोर्ट’’ नहीं छपी थी जबकि एक पूरा पेज जलसे की रिपोर्ट, तस्वीरें और चेयरमैन के निर्वाचन की मुबारकबाद के विज्ञापनों पर आधारित था. रिपोर्ट एक मशहूर समाचार एजेन्सी से ली गई थी. तालिब ने अख़बार के संपादक को फ़ोन किया तो इससे पहले कि तालिब यह पूछता कि अन्धेरों वाली रिपोर्ट क्यों नहीं छपी? संपादक ने उल्टे उसे डांटना शुरू कर दिया.
‘‘तुम्हें पहले से निर्देष दे दिए गए थे कि मुशाइरा समेत पूरे प्रोग्राम की अच्छी सी रिपोर्ट तैयार करनी है, इसके बावजूद तुम उस प्रोग्राम को छोड़कर न जाने कहां कहां अन्धेरों में भटकते रहे, मैं अन्धेरों की रिपोर्ट का मुख़ालिफ़ नहीं हूँ लेकिन हर चीज़ का एक वक़्त होता है, देखो तुमने इतनी बड़ी गलती की है अब मैं तुम्हारे सहारे नहीं रह सकता इसलिए मैं ने तुम्हारे शहर का रिपोर्टर किसी और को बना दिया है. वैसे तुम कभी कभी कोई आर्टिकल लिख कर भेज सकते हो छपने की गुँजाइश होगी तो उसका चेक तुम्हें मिल जाया करेगा और तुम्हारे उस अन्धेरों वाले मज़मून को किसी दिन जब विज्ञापन कम होंगे लगा दूँगा लेकिन तुम अब रिपोर्टिंग के लाएक़ नहीं रहे हो.’’
यह कह कर संपादक ने फोन रख दिया.
तालिब ने भी फ़ाने रख दिया उसने संपादक से अपने किए की माफ़ी नहीं मांगी, लेकिन संपादक की बातें सुनकर उसके दिल में बेचैनी की लहरें उठ रही थीं. और वह बेमतलब इधर उधर घूमने लगा. उसे लग रहा था जैसे वह भरे बाज़ार में नंगा कर दिया गया हो. इसलिए वह लोगों से नज़रें चुराने लगा. अगर कोई जान पहचान वाला दिखता तो नज़रें फेर लेता और अगर किसी से नज़रें मिल भी जातीं तो उससे अन्जान बन जाता, थोड़ी देर तक यूँ ही बेमतलब घूमने के बाद वह घर वापस आ गया. वहाँ उसने संपादक, चेयरमैन और बुर्ज़ुवा समाज को ख़ूब गालियां दीं और उसके बाद चादर तान लेट गया. नींद तो ख़ैर क्या आती लेकिन थोड़ी देर लेटा रहा उसे अपने घर के सारे लोग याद आने लगे, सबसे ज़्यादा मां की याद आई, बिछड़ी महबूबा की भी याद आई लेकिन आज जब महबूबा की याद आई तो उसे महसूस हुआ कि उससे बिछड़ने की असली वजह मैं ही था, मैं ने ही अपने पैरों पर खड़े होने में इतनी देर कर दी थी. जब मैं ख़ुद बेसहारा था तो कोई मेरे सहारे अपने घर वालों से बग़ावत कैसे कर सकता है. यह सब सोचते सोचते वह रोने लगा. कुछ देर तक रोता रहा फिर जो ख़ामोश हुआ तो थोड़ी देर में नींद आ गई.
सोकर उठा तो मग़रिब की अज़ान हो रही थी, उसे बेचैनी महसूस हुई अब क्या करूँ? कुछ समझ में न आ रहा था आखि़रकार वह अन्धेरी बस्ती की उसी गली में चला गया और हमलावर को तलाश करने लगा, बहुत देर तक वह उसे तलाश करता रहा लेकिन वह न मिल सका. तालिब ने भी हिम्मत नहीं हारी सारी रात उसी गली के इर्द गिर्द चक्कर काटता रहा. हमलावर के बयान की हुई घटनाओं को सोचता रहा और अपने तौर पर उनकी तहक़ीक करता रहा. जब सुबह की झलक महसूस हुई तो वह घर वापस आकर सो गया. जब आँख खुली तो तेज़ भूख लगी हुई थी. उसने मोहल्ले के होटल में जाकर खाना लगाने को कहा, कुछ लोग जान पहचान के नज़र आए, तालिब ने उन से नज़रें न मिलाईं. वह सब किसी बात पर तेज़ तेज़ हँस रहे थे, तालिब को महसूस हुआ कि वह सब उसका मज़ाक उड़ा रहे हैं, उसने जल्दी जल्दी खाना खाया और घर वापस आ गया. फिर पिछली रात की सारी घटनाओं को अपनी डाइरी पर लिखने लगा. उन सब घटनाओं को लिखने के बाद उसे दिली सुकून महसूस हुआ. उसे लगा अख़बार में उसकी रिपोर्ट न छपे कोई बात नहीं लेकिन डाइरी में लिखने से तो मुझे कोई नहीं रोक सकता, अब मैं ज़्यादा गहराई के साथ और बेलाग होकर लिख सकता हूँ. अब मेरी क़लम पर किसी संपादक का कोई ज़ोर नही है. अब मेरी क़लम आज़ाद है. यह क्या कम है कि अब मैं अपने अहद के अंधेरों को अपनी तरह से लिखने में कामयाब हूँ. और इस तरह तालिब ने अन्धेरों की रिपोर्टिंग का यह नया तरीक़ा निकाल लिया.
उसके बाद तालिब ने अपना यही तरीका बना लिया. वह रोज़ रात को उस गली में निकल जाता रात भर पागलों की तरह घूमता रहता और वहाँ की ख़बरें जमा करता रहता और सुबह होने से पहले घर वापस आ जाता. दूसरे दिन हमलावर से भी मुलाक़ात हो गई, वह भी उसकी मदद करने लगा, उसने तालिब का कैमरा भी वापस कर दिया, उस रात जब तालिब ने गुस्से में कैमरा फेंक दिया था तो उसने उठा कर रख लिया था. तालिब कुछ देर तक कैमरा देखता रहा फिर उसमें कुछ घुमाया उसके बाद हमलावर की फ़ोटो खींची तो फोटो साफ़ आ गई. अब सब कुछ ठीक हो गया था बस एक दिक़्क़त थी जब कोई पुराना जान पहचान वाला मिल जाता तो उससे नज़रें चुरानी पड़ जातीं. कभी कभी वह लोग उसे घेर कर तरह तरह के सवाल पूछने लगते. तालिब ने उन सवालों से तंग आकर अपना घर बेच दिया और हमलावर के साथ रहने लगा. वह अपनी पुरानी दुनिया से बिलकुल अलग हो गया. इस तरह उसे उन सवाल करने वालों से भी निजात मिल गई और सबसे बड़ी बात यह हुई कि उसके अपने सवाल जो अक्सर उसका पीछा करते रहते थे और कभी कभी उसे घेरने की भी कोशिश करते थे, उन सवालों से भी निजात मिल गई. इस तरह वह अब अपनी ज़िन्दगी से बहुत ख़ुश है.
बहुत अच्छी कहानी है. रिजवान भाई को बधाई.
जवाब देंहटाएंतालिब की कहानी ने बहुत से उस फिकसन से वाकिफ कराया जो वास्तविक है .आज मल्टीमीडिया जो कर रहा है उससे शयद सभी को खुजली और उल्टियाँ होती हैं .शुक्रिया ब्लॉग से परिचय कराने के लिए
जवाब देंहटाएंachchi kahani, bus lmbi jrur hai.
जवाब देंहटाएंtaalib ka dwandv bahut prakharta se nikal ke saamne aaya hai. kahaani padhte samay laga ke kahani ke ant me taalib ghutne tek dega. lekin ant sukhad laga. taalib jeet gaya. kahani bahut achhi hai. badhai. leena malhotra
जवाब देंहटाएंएक अच्छी कहानी ... रिजवान जी को बधाई और अरुण आपका आभार !
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.