विशेष आयोजन: कला के व्योम में शब्द और रंग



पेंटिंग देखकर कवियों ने कविताएँ लिखीं हैं, कविताएँ पढ़कर भी चित्र बनाये जाते हैं. कभी-कभी दोनों साथ-साथ भी रहते हैं.

पतंगे वैसे तो उड़ती रहती हैं पर मकर संक्रांति के दिन वे ख़ास तौर से उड़ती है. इस बार कवियों और चित्रकारों ने आपके लिए इन्हें उड़ाया है.

राकेश श्रीमाल की कविताएँ पढ़कर देश के मशहूर चित्रकारों ने ये आठ बहुमूल्य चित्र बनायें हैं. जो समालोचन के लिए भी दुर्लभ अनुभव है, ये पतंगें अपने आप में भी स्वतंत्र हैं. कला के व्योम में उड़ती हुईं.

एक तरह से यह प्रदर्शनी ही है. आठ चित्रों, कविताओं और उनपर दो समुचित टिप्पणियों के साथ.

आपका स्वागत है. पढ़े ही नहीं देखें भी. और इन चित्रों पर भी लिखें.

यह दिन शुभ हो.




विशेष प्रस्तुति
कला के व्योम में शब्द और रंग                                                     




कला के आकाश में पतंग
प्रयाग शुक्‍ल

भारतीय आकाश में पतंग एक उत्सवी और समारोही भाव से उड़ायी  जाती रही है. और आज के दिन तो पतंग की डोर को वे भी छू देना चाहते हैं, जो पतंग कभी विधिवत उड़ाते  नहीं रहे हैं.  हमारे जयपुर, अहमदाबाद आदि तो ऐसे शहर हैं जो प्रायः पतंगों से भरे रहते हैं. मकर संक्रांति में इन शहरों का आकाश देखने वाला होता है. समकालीन कलाकारों और कवियों ने भी समय-समय पर पतंग को अपनी रचना का विषय बनाया है. एक पतंग इंटेंट.  उससे पैदा होने वाला उडान-बोधउनके मन में सहज ही अपनी जगह बना लेता है.  अशोक वाजपेयी के एक संग्रह का नाम ही है, ‘एक पतंग अनंत में.

समालोचन का यह पतंग आयोजननिश्चय ही सुखद है. इन कठिन दिनों में एक हर्ष और उल्लास भरने वाला भी. पतंग तो यों भी रंगों से जुड़ी हुई है, और कलाकारों के हाथ मेंया से’, पतंग-रचना को देखना तो स्वयं पतंग उड़ा लेने से कम नहीं है. इस पतंग आयोजनने मुझे कलकत्‍ता (अब कोलकाता) के किशोर दिनों की जो स्मृति जगा दी है- उसके लिए तो मैं इन सभी कलाकारों और समालोचन का विशेष रूप से आभारी हूँ. ये सभी कलाकार, मेरे प्रियजन भी हैं, सबसे व्यक्तिगत रूप से जुड़ा रहा हूँ- जुड़ा हुआ हूँ आज भी. और इनकी यह पतंग प्रदर्शनी जो एक ऑनलाइन प्रदर्शनी से कम नहीं हैं- इसलिए भी प्रफुल्लित करने वाली है कि इसमें रेखा और रंग दोनों हैं. पतंग की डोर से सीधी या लहरिया गति की जो रेखाएँ बनती हैं, उन्हें यहाँ, कुछ कलाकारों के काम में एक नयी तरह से देखा जा सकता है.

किसी देखे-जाने हुए विषय को, कलाकारों की नजर से देखे जाने का बड़ा लाभ तो यही है कि स्वयं वह विषय कुछ नयाहो उठता है. जाहिर है कि कलाकारों ने ये काम अपनी-अपनी तरह से, अलग-अलग जगहों में, बैठकर किये हैं. पतंग को अलग-अलग तरह से देखा-सोचा है- अपने-अपने स्‍तर पर- अपने बोध, अपनी स्मृतियों, और अपनी कल्पनाओं, को संजोया है. और अब उनका संयोजन एक समूह में मानों और खिल उठा है.

इस अवसर पर उन हुनरमंद हाथों की, उन पतंगियों की, उन बेजोड क्राफ्ट्समेन की याद भी हो आनी स्वाभाविक है, जो न जाने कितने शहरों-कस्‍बों में, सचमुच की पतंगें बनाते रहे हैं. और जिन्होंने पतंग को कई रूप-आकार दिये हैं. यहाँ प्रस्तुत कलाकारों के साथ, उनकी याद इसलिए भी आयी कि दोनों को साथ रखकर या मिलाकर देखने की जरूरत भले न हो- और ये दोनों दुनियाएँ अलग हों, और दोनों ही महत्वपूर्ण हो, पर कहना यही है कि यहाँ प्रस्तुत कलाकारों को उनके हुनर और उनकी कला दोनों के साथ देखिये तो आनंद दुगुना हो जाएगा.

और अंत में: कुंवर नारायण की कविता आधे मिनट का एक सपनाकी ये पंक्तियाँ भी देखिये जो कवि को एक बुरा सपनादेखने के बाद सूझती हैं:

अरगनी पर सूखते कपडे हवा में

सफेद झंडों की तरह लहरा रहे थे

पत्नी खाने पर बुला रही थी.

बाहर किसी गली में

शोर करते बच्‍चे

पतंग उड़ा रहे थे...’’ 

हाँ, पतंग प्रसंग कैसा भी हो, वह आनंददायक होता है.बुरे सपनेतक से मुक्ति देने वाला. सो, इन सभी कलाकारों को बधाई और शुभकामनाएँ, आज के दिन, जिन्होंने यह पतंग-प्रसंग हम सब के कला आस्वादमें कुछ जोड़ने के लिए रचा है. जुटाया है. 

__

(प्रयाग शुक्ल : कवि, कथाकार,कला-समीक्षक,अनुवादक और संपादक हैं. 
ललित कला अकादमी की पत्रिका 'समकालीन कला' के अतिथि संपादक, 
एनएसडी की पत्रिका 'रंग प्रसंग' तथा संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका 'संगना' के संपादक रह चुके हैं. 
५० पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं. दिल्ली में रहते हैं.)


१.




अखिलेश: देश के वरिष्ठ चित्रकारों में से एक. अमूर्त चित्र बनाते हैं और हर नए शो में विस्मित करते हैं. विश्व स्तर पर कई बड़ी प्रदर्शनियां. लिखने-पढ़ने वाले चुनिंदा कलाकारों में हैं. भोपाल में रहते हैं. 



राकेश श्रीमाल की कविता

ऐसे ही उड़ती है

खुले आकाश में

 

उसे पता ही नहीं

कौन लड़ा रहा है उसे

अपने मांझे में

कांच का कितना चूरन लगाये

 

किसने

कितनी बार

किया है अभ्यास

दूसरे की पतंग को काटने का

 

कोई नहीं सोचता यह

दूसरी पतंग को काटकर

जीत सकती है कैसे भला

उसकी अपनी पतंग.

 

 

२.






चरन शर्मा: अपनी तरह के विरले चित्रकार. देश विदेश में कई महत्वपूर्ण गैलरियों में नुमाइश. लंबे अरसे तक सूजा के मित्र रहे. फिलहाल मुंबई में रहते हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

पतंग तो पतंग है

बिना यह जाने

कौन बना रहा है उसे

उड़ा कौन रहा है

 

कितने चक्कर में

कैसे फंसती है दूसरी पतंग

यह जानती ही नहीं

पहली पतंग

 

किसने किसे गिराया

किसने किसे लूटा

कौन लोग हैं

जो यह सब देखकर ही खुश हैं

 

पतंग तो पतंग है

पतले कागज़ से बनी

किसी कविता की तरह उड़ती

उड़ाने वालों के

अपरिचित व्योम में.

 

 

३.






सीरज सक्सेना: चित्र और मिट्टी के जितने भी माध्यम हो सकते हैं, सभी में काम करते हैं. लकड़ी, कपड़ा, लोहा, पत्थर इत्यादि. विदेशों में कई कार्यशालाओं में जाते रहे हैं. साइकिल चलाने और कविताएं लिखने में रुचि रखते हैं. दिल्ली में रहते हैं. 



राकेश श्रीमाल की कविता

पतंग के रूप में उड़ते हैं

गुलाबी, हरे, पीले, सफ़ेद और जामुनी रंग

 

जैसे पृथ्वी ने

थोड़ी देर के लिए

छोड़ दिए हैं अपने ही अंश

 

हरे को कतई नहीं पता

कि उसे उड़कर

मारकाट करना है पीले से

 

गुलाबी यह जानता ही नहीं

कि वह उड़ते और काटते हुए

किन हाथों की असल डोर बन गया है

 

सब कुछ तय होता है

आकाश में भी

इसी पृथ्वी से.

 

 

४.




देवीलाल पाटीदार: मूलतः सिरेमिक में काम करते हैं, लेकिन चित्र बनाने से कोई परहेज नहीं. उनके काम में देह-सौंदर्य अद्भुत होता है. इरोटिक में शिल्प बनाने वाले विश्व के कुछ कलाकारों में शामिल हैं. भोपाल में रहते हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

मंजा डोर और हुचका

बनाते हैं अलग-अलग लोग

केवल पतंग के लिए

 

बेचते हैं फिर

अपनी ही शर्तों पर

कौन कितना काट सकता है

उड़ती हुई पतंगों को

विपरीत दिशा में जारी

हवा में भी

 

पता नहीं होता

पतंग को भी

किसके हाथ लगती है वह

काटने के बाद फिर से

थोड़ी देर

उड़ने का रियाज़ करने के लिए.

 

 

५.






कुसुमलता शर्मा: ग्वालियर आर्ट्स कॉलेज से आती हैं. वे अपने चित्रों में रंग और रेखाओं का अनोखा और सुखद सामंजस्य रचती हैं. भोपाल में रहती हैं. 



राकेश श्रीमाल की कविता

पतंग कभी नहीं कटती

उसकी डोर कट जाती है

 

कटने के बाद

थोड़ी देर हवा में बेतरतीब गिरते हुए

किसी पेड़ की डालियों

किसी घर की छत या मुंडेर पर

जमीन पर

या लोगों के हाथों में लूटकर पकड़ ली जाती हैं

 

यह पतंग ही है

जो उड़ते हुए भी अच्छी लगती है

कटकर गिरते हुए भी भोली

 

एक पतंग हमेशा रहती है

सबकी आँखों में

उड़ते या कटते हुए

जो प्रायः पतंग की तरह देखी नहीं जाती

 

 

 ६.





वांछा दीक्षित: लखनऊ आर्ट्स कॉलेज से तालीम के बाद लगातार चित्र बनाने में सक्रिय हैं. उनके चित्रों की वक्राकार रेखाएं विशिष्ट सौंदर्य दृष्टि रखती हैं. फिलहाल होशंगाबाद में रहते हुए कला-अध्यापन करती हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

जमीन पर यथार्थ में बनी पतंग

कल्पना बन जाती है

आकाश में उड़ते हुए

 

वह कटकर यथार्थ में ही गिरती है

लूट ली जाती है

वह अपना असल जीवन

उड़ते हुए ही बिताती है

 

ऐसी अनगिनत पतंगे होती हैं

जो कभी उड़ नहीं पाती

उड़ना पतंग का एकमात्र सपना है

 

पतंग उड़ते हुए दूसरी पतंग होती है

नहीं उड़ते हुए निरर्थक

 

 

 ७.






अवधेश वाजपेयी: शांति निकेतन से प्रशिक्षण पाया है. वे भिन्न शैलियों में हाथ आजमाते रहे हैं. खास बात यह कि प्रतिदिन कम से कम दो चित्र जरूर बनाते हैं. जबलपुर में रहते हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

कोई नहीं जानता

कि उड़ते हुए

कितनी पतंगे आकाश में प्रेम करने लगती होंगी

 

कितनी-कितनी पतंगे

कटते या काटते हुए के बाद

कैसे रखती होंगी स्मृति अपने प्रेम की

 

यह आकाश का प्रेम है

आकाश में ही खत्म हो जाने के लिए

 

यह वहीं जन्मता है

अपनी पूरी देह में निर्वसन प्रेम लिए

वहीं विदा भी ले लेता है

 

कौन है जो लिखेगा उन पर कहानियाँ

उनके प्रेम की कविताएं

या थोड़े से वैसे ही कुछ शब्द

जो यहाँ लिखे जा रहे हैं.

 

8.





भारती दीक्षित: माटी और धागे में खूबसूरत काम करने के लिए पहचानी जाती हैं. देश-विदेश में कई शो हुए हैं. किस्सागोई का अपना यू-ट्यूब चैनल भी चलाती हैं. इंदौर में रहती हैं.

 



राकेश श्रीमाल की कविता

इसी ज़मीन पर

बनती हैं पतंगें

इसी ज़मीन से

उड़ जाने के लिए


_____________




राकेश श्रीमाल: कवि, कथाकार, कला समीक्षक. 

दो कविता संग्रह - 'अन्य' और ' कोई आया है शायद' प्रकाशित.  कलावार्ता, पुस्तक वार्ता, और ताना-बाना जैसी पत्रिकाओं का संपादन. इधर कला के विभिन्न पक्षों पर नियमित लेखन. कोलकाता में रहते हैं.





सब कुछ तय होता है आकाश में भी इसी पृथ्वी से
पंकज पराशर


भी गद्य तो कभी किसी विधा विशेष को समकालीन हिंदी साहित्य के केंद्र या परिधि में होने को घोषित/तय करने वाले साहित्य के शास्ता साहित्यिक राजनीति के हर काम को आसां तो कर लेते हैं, बारहा इस बात से बेख़बर कि आदमी को ही मयस्सर नहीं इंसां होना. सच्ची और अच्छी कविता को लक्षित करने के लिए जैसी आँख चाहिए, भाषा की जैसी समझ और धैर्य चाहिए, उसके अभाव में प्रायः अच्छे कवि अलक्षित रहते आए हैं. हिंदी कविता के इतिहास में ऐसा अनेक कवियों के साथ हुआ है, जिनकी फाइल प्रायः मौत के बाद ही खुली है-वह चाहे नज़ीर अकबराबादी हों या मुक्तिबोध. इसके उलट परिदृश्य के तमाम योग-क्षेम, नाम और नामा पर उन कवियों का आधिपत्य रहा है, जो घोर आत्महीन, भाषाहीन और रीढ़विहीन रहे! दिलचस्प यह कि अक्सर लोकप्रियता और कविप्रियता के मारे आलोचकों को ऐसे ही कवि अच्छे और रुचिकर लगते हैं, जिनकी कविता उनकी सीमित आलोचकीय शब्दावली और समझ के दायरे में आराम से आ जाती हैं.


राकेश श्रीमाल हिंदी के उन अल्प चर्चित कवियों में हैं, जिनकी बेहद सघन और सांद्र काव्य-भाषा उन काव्य-प्रतिमानों से बाहर रह जाने को बज़िद नज़र आती हैं, जिन कथित प्रतिमानों पर कविप्रियता के मारे आलोचक प्रायः हर कवि की कविता को आलोचते हैं! अपने समय के जीवन की लहरों को देखने-गुनने का राकेश का तरीक़ा चूकि समकालीन काव्य-मुहावरों से सर्वथा अलग है, इसलिए यह अकारण नहीं कि उनका महत्वपूर्ण काव्य-संग्रह अन्य बाकी संग्रहों की चर्चा के शोर में अलक्षित रह गया.


राकेश अपनी कविता के लिए उन्हीं शाश्वत विषयों को चुनते हैं, जिन पर पहले भी अनेक लोगों ने अनेक तरह से लिखा है. बावज़ूद इसके राकेश उन्हीं विषयों पर जिस शैली और जिस दृष्टिकोण से कविता संभव करते हैं, उसकी मिसाल देख लें,


हरे को कतई नहीं पता

कि उसे उड़कर

मारकाट करना है पीले से

गुलाबी यह जानता ही नहीं

कि वह उड़ते और काटते हुए

किन हाथों की असल डोर बन गया है

सब कुछ तय होता है

आकाश में भी

इसी पृथ्वी से.


पतंग के रूप में जो अलग-अलग रंग आकाश में उड़ते हैं, उसे देखकर कवि को लगता है-जैसे पृथ्वी ने थोड़ी देर के लिए छोड़ दिये हैं अपने ही अंश. अपने ही रंग, जिनकी राजनीति करने वाले रँगरेज़ों की पर्दादारियों को बहुत शाइस्तगी से हटाते हुए राकेश लक्षित करते हैं कि आसमान में उड़ रहे इन रंगों को पृथ्वी पर रहने वाले हाथ किस कदर नियंत्रित करते हैं! पतंगें जो खुले आकाश में ऐसे ही उड़ती हैं, बकौल कवि उसे नहीं मालूम कि कौन है जो उसे लड़ा रहा है! पहले जो पतंगें परंपरा को अग्रसारित करने और आनंद को प्रसारित करने के लिए मकर संक्रातियों में उड़ाए जाते थे, अब राजनीतिक विचारों, बोटबटोरू विज्ञापनों और बाज़ारू उत्पादों के प्रसारों का माध्यम भी बन रही हैं. पर निश्छल, निस्संग पतंग है कि जो बिना यह जाने कि कौन उसे बना रहा है, कौन उड़ा रहा है, कौन उसे गिरा रहा है और कौन लूट रहा है, वह वह कविता की तरह उड़ती रहती हैं उड़ाने वालों के अपरिचित व्योम में.    


राकेश श्रीमाल की कविताओं में भाषिक मितव्ययिता इतनी होती है कि एक अतिरिक्त विराम चिह्न तक नहीं होता! प्रचलित काव्य-मुहावरों और घिस चुके शब्दावलियों में अपनी संवेदना को प्रकट करने से वे बारहा बचते हुए दिखाई देते हैं. उसके स्थान पर वे कई बार चित्र-भाषा, रंग-भाषा और ध्वनि-सौंदर्य से काम लेने का प्रयास करते हैं.


प्रेम में वैसे भी शब्दों की बहुत अधिक आवश्यकता नहीं होती, जिसकी नैसर्गिक अभिव्यक्ति के लिए कई दफ़ा राकेश वाचिक की जगह भाषा की कायिक चेष्टाओं को बरतने की कोशिशों में मुब्तिला दिखाई देते हैं. उन्होंने एकांत और प्रेम को लेकर कुछ अनूठी कविताएँ संभव की है, जिनमें एकांत की विभिन्न दिशाओं से आती रोशनियों से बनी कई परछाइयाँ अपने सघनतम रूपों में अभिव्यक्त हुई हैं.


इसी विषय को लेकर आलोकधन्वा ने भी पतंग शीर्षक से एक कविता लिखी है, जिसमें बच्चों की कोमलता को स्पर्श करने के लिए पृथ्वी भी लालायित दिखाई गई है. बच्चे जब छतों को अपने कोमल पावों से कोमल बनाते हुए बेसुध होकर दौड़ते हैं, तो पृथ्वी भी उनके बेचैन पांव के पास उनका स्पर्श करने हेतु घूमती हुई आती है और बच्चे अपनी किलकारियों के द्वारा सभी दिशाओं को नगाड़ों की तरह बजाते प्रतीत होते हैं. जबकि इसके बरक्स राकेश श्रीमाल बिल्कुल अलहदा तरीके से आठ छोटे-छोटे खंडों में पतंग के चिर-परिचित बिंब को और सघन और सांद्र रूप में चित्रांकित करते हैं.


इस विषय पर राकेश से पहले  पतंग को लेकर आलोकधन्वा, मनोज श्रीवास्तव और ममता पंडित की कविताएँ मुझे याद आईं और याद आए उर्दू के शायर ज़फ़र इक़बाल और ग़ुलाम मुसहफ़ी हमदानी के चंद अशआर, लेकिन इन तमाम रचनाओं के बीच जब आप राकेश की कविताओं को पढ़ते हैं, तो पाते हैं कि जो बातें, जो चीज़ें हमेशा हमारे आसपास मौज़ूद होती हैं, उनके बारे में कोई कवि किस तरह और किन चीज़ों के साथ जोड़कर अपनी बातें कह सकता है! राकेश श्रीमाल की पतंग सीरीज की कविताएँ इसकी किस कदर ताईद करती हुई-सी संभव हुई हैं, इसे कोई आलोचक शायद तसल्लीबख़्श ढंग से नहीं समझा सकता. तो साहिबो, इसे पढ़कर-गुनकर ही समझा सकता है.  
__

(पंकज पराशर: हिंदी के साथ मैथिली में भी लिखते हैं. कविता, आलोचना और अनुवाद के क्षेत्र में 25 वर्षों से सक्रिय हैं. इधर संगीत और नृत्य आदि विषयों पर उनके शोधाधारित लेखों ने ध्यान खींचा है. अलीगढ़ में रहते हैं.)


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  1. रेखा सिन्हा14 जन॰ 2021, 8:03:00 am

    अकल्पनीय. अद्भुत और ऐतहासिक. समालोचन का होना किसी भी भाषा के लिए गर्व का विषय है. आपको समय याद रखेगा.

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  2. कविता और कला : नया प्रयोग। राकेश श्रीमाल जी के साथ समस्त कलाकारों को बहुत बधाई।

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  3. कलाओं का यह समवेत दृष्टव्य है।
    पठनीय भी।

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  4. सदाशिव श्रोत्रिय की ओर से इस अभूतपूर्व आयोजन के लिए अरुण देव जी को बधाई और साधुवाद !

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  5. मोहन सिंह रावत14 जन॰ 2021, 9:34:00 am

    प्रयाग शुक्ल और पंकज पाराशर के बेहतरीन आलेख। राकेश श्रीमाल की मर्मस्पर्शी कविताएँ और सुन्दर चित्रांकन। ऐसा लग रहा है जैसे कोई कविता पोस्टर प्रदर्शनी देख रहे हों।��

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  6. प्रभावी और महत्त्वपूर्ण ...

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  7. अरुण कमल14 जन॰ 2021, 12:05:00 pm

    राकेश श्रीमाल की कविताओं का ऐन्द्रिक ऐश्वर्य सहज ही उन्हें चित्रवान बना देता है और चित्रकारों के लिए प्रेरणास्रोत।

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  8. ज्योतिष जोशी14 जन॰ 2021, 12:08:00 pm

    बहुत सुंदर आयोजन। राकेश श्रीमाल की कविताओं पर बनाए वरिष्ठ और युवा कलाकारों के चित्र जितने सुंदर हैं उतने ही प्रयाग शुक्ल और तदन्तर पंकज पाराशर की टिप्पणियां अर्थवान हैं। बधाई।

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  9. उमाकांत गुंदेचा14 जन॰ 2021, 1:15:00 pm

    नया विचार । नयी कवितायें ।
    नया कलेवर । नया है तेवर ।
    वाह ।
    पतंग उड़ती है,
    कविताओं में , चित्रों में ,
    उड़ते हैं रंग साथ साथ
    वाह ।
    रंग बँधे हैं डोर से
    कभी नीचे , कभी उपर
    गोते खाते रंग
    एक दुसरे को चकमा दे रहे
    वाह

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  10. दया शंकर शरण14 जन॰ 2021, 4:19:00 pm

    मकर संक्रान्ति पर समालोचन का यह विशेष आयोजन मन में एक नयी उमंग भरने की तरह रहा। आसमान की अनंतता में रंग-विरंगी पतंगों को एकटक देखना अपने हीं सपनों की एक उड़ान-सा है। राकेश श्रीमाल जी की कविताएँ इन पतंगों के आरोह-अवरोह में जीवन के कई बनते-बिगड़ते रूप-रंगों को यथार्थ के साथ-साथ कहीं-कहीं दार्शनिक अंदाज में एक मसाइल की तरह भी देखती हैं। हमारे उत्सवधर्मा समाज की खूबी भी यही है कि हम अपनी होली-दिवाली और ईद को भी जीवन के दर्शन से जोड़ देते हैं। लेकिन इन कविताओं में यथार्थ और दर्शन में कहीं असंगति नहीं ,बल्कि एक संतुलत-सा है। कलम,कूंची और रंगों के इस मिलेजुले उपक्रम ने एक अलग-सा समां बांध दिया है।आप सभी को मकर-संक्रांति की बधाई !

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  11. आदरणीय प्रयाग शुक्ल की लेखनी इस साहित्यिक पहल को महत्वपूर्ण बनाती है । कविताओं के साथ सुंदर पेंटिंग या पेंटिंग के साथ प्रभावी कविताओं का आना अद्भुत वातावरण का निर्माण करती है । समालोचन का यह प्रयास मकर संक्रांति के दिन अवश्य ही प्रशंसनीय है । कविवर् प्रयाग शुक्ल जी की पेंटिंग से गुज़रते हुए मैंने भी कुछ कविताएँ लिखी हैं । मेरे साथ जादू जैसा कुछ घटित हुआ ।
    राकेश श्रीमाल जी की कविताएँ मन को बाँध लेती हैं ।उन्हें बहुत बधाई और शुभकामनाएं ।

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  12. हरि मृदुल15 जन॰ 2021, 6:38:00 am

    समालोचन का यह अपूर्व आयोजन है। एक से बढ़कर एक ऐंद्रिक कविताएं और उतनी ही विशिष्ट चित्रों की प्रस्तुतियां। कविताओं से चित्र खुल रहे हैं और चित्रों से कविताएं। अखिलेश, चरन शर्मा, सीरज सक्सेना, देवीलाल पाटीदार, भारती दीक्षित, अवधेश वाजपेयी, वांछा दीक्षित और कुसुम लता जैसे कलाकारों के चित्रों ने कविता के आकाश को जैसे रंग दिया। प्रयाग जी की टीप अनूठी है। पंकज पराशर का आलेख विशिष्ट है। बहुत बधाई राकेश श्रीमाल और अरुण देव। ऐसे अभिनव आयोजन होते रहें।

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  13. वाजदा खान15 जन॰ 2021, 6:46:00 am

    एक मौलिक और अनूठा प्रयास l रंग संवेदना और उडान की भाव अभिव्यक्ति से भरी इन कविताओं पर हर कलाकार का अपने अनूठे मौलिक ढंग से चित्र रचना वास्तव में अनोखा है l राकेश श्रीमाल को जब से जाना है मैंने पाया उनके रचनात्मक कर्म में निरंतर एक प्रयोग शीलता दिखाई पड़ती है l आज भी हमेशा की तरह सादगी और सूफियाना अंदाज़ में रची इन कविताओं में जो महीन से महीनतर भाव छुपे हुए हैं उनके साथ चित्रकारों की गहन संवेदनात्मक अनुभूतियों के सममिलन से चित्रों में अनोखी सौंदर्य आभा रचित हो रही है सभी को बधाई l अरुणदेव जी भी बधाई के पात्र हैं जो सृजनात्मकता के विविध रंगतो और शेडस को एक साथ पेश करने में यकीन रखते हैं l प्रयाग शुक्ल जी और पंकज पाराशर जी का लेख बेहतरीन है l खूबसूरत आयोजन सभी को शुभकामनाएं llll

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  14. राहुल द्विवेदी15 जन॰ 2021, 7:53:00 am

    अभिनव प्रयोग ....। इस तरह के प्रयोगों के लिये समालोचन याद रखा जाएगा.....

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  15. Akhil Esh
    बहुत बहुत बधाइयाँ राकेश और अरुण जी को। यह एक दुष्कर कार्य था कि कविताओं पर चित्र और रेखांकन का साथ हो। यह कल्पना भी और समालोचन का यह प्रयास भी। राकेश हमारे समय के संकोची और संवेदना से भरे कवि हैं। उनकी कविताओं पर रेखांकन करना मेरे लिए दुष्कर किन्तु प्रिय क़र्म है। ( क में नुक़्ता क्यों आ गया ? ) राकेश की शालीन अभिव्यक्ति को शायद ही कभी मैं उस आसानी से व्यक्त कर सकूँ जो सिर्फ़ उसकी प्रतिभा है। इन दिनों जिस तरह राकेश व्यस्त है अनेक कार्यों में उनके बीच यह समय निकलना कि कुछ चित्रकार उसकी कविता के नज़दीक आ सके यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। मैंने कोशिश की है कि ‘पतंग’ शब्द पर न व्यक्त करूँ बल्कि राकेश की कविता और उसकी अनुभूति को एक प्रतिशत भी छू सकूँ तो मेरा प्रयास सफल होगा। राकेश अपनी प्रतिभा से ऊपर जाकर इस तरह के प्रयास उन दिनों से कर रहा है जब वह कॉलेज में पढ़ता था। यह एक दुर्लभ संयोग है कि वह अन्य कलाओं के प्रति शुरू से रुचि रखता रहा है। यह मैंने बहुत ही कम लेखक, कवि में देखा। यहाँ मैं अरुण जी को भी बधाई देना चाहूँगा कि समालोचन का यह समकालीन बहुवचनात्मक स्वरूप बनाने में उनका परिश्रम इस देश की परम्परा है जिसका निर्वाह वे निसंकोच कर रहे हैं। यह न सिर्फ़ विशाल दृष्टि बोध का ध्योतक ( सही तरीक़े से नहीं आ रहा) है
    राकेश और अरुण जी को इस अद्वितीय प्रयत्न के लिए बधाई।

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