अमेरिकी कवि टोनी हॉगलैंड अब नहीं हैं. ६४ वर्ष की अवस्था में २०१८ में उनका निधन हो गया. २००३ में प्रकाशित कविता संग्रह ‘What Narcissism Means to Me’ में शामिल ‘The Change’ नाम की कविता के कारण वे विवादास्पद रहे. उन्हें नस्लवादी रुझान का कवि कहा गया. अमेरिका में नस्लवादी हिंसा के खिलाफ़ जो जन आन्दोलन उफान पर आया है उससे यह कविता और उसपर तबके विवाद की प्रासंगिकता बढ़ गयी है. इस कविता का हिंदी अनुवाद और उस वाद-विवाद को प्रस्तुत कर रहें हैं यादवेन्द्र.
टोनी
हॉगलैंड
मौसम बदलता है
जैसे
रंगीन चिकने पन्नों वाली फैशन मैगजीन के पलटते हैं पन्ने
पार्क
में डैफोडिल्स खिल गए हैं
और
पार्किंग में परेड हो रही है
कार
के नए नए मॉडल की
कभी-कभी
मैं सोचता हूँ
कि
बदलता नहीं कुछ भी
सच
में देखें तो
कमसिन
लड़कियाँ अपने पेट उघाड़े हुए घूम रही हैं
और
नया-नया चुना गया राष्ट्रपति
साबित
करता है कि वह तो
दिखावे
वाला महज़ एक मोहरा है
पर
आपको याद है उस साल
जो
टेनिस मैच हमने देखा था?
क्या
हुआ था
हमारी
आँखों के सामने सामने?
वह
वह दृढ़ निश्चयी छोटी सी
कमनीय
गोरी
यूरोपीय लड़की
मुकाबला
कर रही थी
अलाबामा
की भारी भरकम
और
दैत्याकार काली लड़की से
मक्के
के दानों जैसी धारीदार लटें बनाए
और
कलाई में जुलू कंगन डाले
और
बड़ा भड़काऊ सा नाम भी था उसका-
वोंडेला
एफ्रोडाइटी
हम
लाउंज पार कर रहे थे
कि
अचानक बार में ऊपर लगी स्क्रीन पर
निगाह
ठहर गई
सताने
लगी यह चिंता
देखते
हैं जीतता कौन है?
लगा
हम ही पिट पिट कर आवेश में
गेंद
से भागे फिर रहे हैं इधर उधर
खिलाड़ियों
के रोष की आंधी में
जैसे
तगड़ा मुकाबला चल रहा हो
पुरानी
दुनिया और
नई
दुनिया के बीच
तुम्हें
पसंद आए उसके रूखे उलझे हुए केश
और
भाड़ में जाओ वाली ऐंठ भरी नजरें
और
मैं रोक नहीं पाया खुद को
कि
दुआ करूँ
गोरी
लड़की जीते
और
दुनिया पर राज करे
वजह
यह कि वह
मेरी
तरह की,
मेरी प्रजाति की
पनियाली
आँखों और
कोमल
पतले होठों वाली
लड़की
थी.
और
वह काली लड़की इतनी विशालकाय थी
और
इतनी काली भी
धौंस
से परे,
दुर्दमनीय
वह
गेंद को ऐसे मारती
जैसे
ठूँस रही हो
दासता
मुक्ति का घोषणा पत्र
अब्राहम
लिंकन के गले के अंदर
उसे
भला क्या दरकार
किसी
से कोई इजाजत लेने की
कई
बार ऐसे मौके आते हैं
कि
इतिहास इतने बगल से गुजर जाता है
साफ-साफ
सुनाई पड़ती है
उसकी
एक-एक साँस
आप
जरा सा हाथ उठाएँ
तो
छू जाएगा
वह
उसके पहलू से
मुझे
नहीं लगता कि
उस
मास्टरपीस थिएटर को
पूरा
देखना लाजिमी था
पर
भरपूर आहटें सुनाई दे रही थीं
वहाँ
एक युग के अवसान की.
अपने
इतवार के टेनिस मैच देखने वाले कपड़ों में सज कर बैठे
घबराहट
में रंग उड़े विवर्ण चेहरे लिए लोगों के बिल्कुल सामने
उस
काली लड़की ने अपने विरोधी को
चारों
खाने चित्त कर दिया देखते देखते
उसके
चूतड़ों की खूब कुटाई की
फिर
एकबार उठा कर पटक दिया
कसके
सबके सामने
लाल
मिट्टी के मैदान के बीचो बीच
तन
कर खड़ी हो गई वह
अपना
रैकेट सिर के ऊपर
पकड़कर
इस तरह
जैसे
थामे हो कोई गिटार
और
वह ठिगना सा
गुलाबी
चेहरे वाला जज
बक्से
पर चढ़ा तब पहुँचा
उसके
गले तक रिबन डालने को
कैमरे
के फ्लैश में वह मुस्कान ओढ़े
जैसे
तैसे खड़ी रही
हालाँकि
मुस्काने लायक था नहीं कुछ
एकदम
से बदल रहा था सब कुछ
दरअसल
बदल रहा नहीं
तब
तक बदल चुका था सब कुछ
सर्वनाश,
भूलना नहीं
बीसवीं
सदी लगभग निबट चुकी है
हम
अभी तो वहीं थे
और
जब लौटे कि सहेज संभाल लें बिखरते को
हमारे
हाथ से निकल गया सब
वैसा
नहीं है अब कुछ
बदल
चुके हैं हम
________________________
इस
कविता को लेकर अमेरिका के बौद्धिक जगत में तीखी प्रतिक्रिया हुई और अनेक
विमर्शकारों ने इस कविता को खुले तौर पर नस्लवादी (रेसिस्ट) घृणा का दस्तावेज़
माना. पर कवि टोनी हॉगलैंड इसे नस्लवादी कविता नहीं मानते. इसके बारे में उनके एक
इंटरव्यू के कुछ उद्धरण:
"यह कविता वीनस और सेरेना विलियम्स के टेनिस जगत में प्रादुर्भाव का नैरेटिव प्रस्तुत करती है. उनके आने से अमेरिकी संस्कृति में नई तरह के हिलकोरे उठने लगे. नस्ल (रेस) को लेकर हमारे मन में बहुत असहजता, शर्मिंदगी, सहापराध (कंप्लिसिटी) और उत्सुकता बसी हुई है यही कारण है कि खेल से जुड़े हुए लोग इस आमूलचूल परिवर्तन को आसानी से न तो समझ पा रहे हैं न उसका मुकाबला कर पा रहे हैं. इन्हीं कारणों ने मुझे यह कविता लिखने के लिए प्रेरित किया- यह कविता एक गोरे अमेरिकी का पक्ष सामने रखती है. यह 'दूसरे' के बारे में, कालेपन और गोरेपन के बारे में हमारी चिंताओं और उद्विग्नता को प्रतिबिंबित करती है, गोरे अमेरिका को अंदर से खंगालने की कोशिश करती है.’
"मुझे लगता है कि नस्लों के बारे में गोरे अमेरिकी की उद्विग्नता को कभी खास तवज्जोह नहीं दी गई और न ही उसे खुल कर अभिव्यक्त होने का अवसर मिला. इसके बारे में यह विचार बनता गया कि नस्ली विभाजन बेहतरी के लिए है और इसे बने रहना चाहिए, हमें इस तरह के विभाजन पर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए .... इनके प्रति कलरब्लाइंड हो जाना चाहिए और अमेरिकी संस्कृति में जो गैर बराबरी है उसके प्रति अपराध बोध का भाव मन में रखना चाहिए. मुझे इस बात का भय है, मुझसे गलती हो गई और इस गलती के लिए मुझे अपने किए पर शर्मिंदगी है, और शर्मिंदगी के कारण जो कुछ भी सामने हो रहा है उसके बारे में मैं कुछ बोलता नहीं जैसी बातें हमारे व्यवहार में धीरे धीरे जड़ जमाती चली जाती हैं. और सब कुछ देखते हुए यदि मैं चुप्पी साधे रहता हूँ तो फिर कुछ बदलेगा कैसे - बदलाव का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता."
(skagitriverpoetry.org
में एम एल लाइक के साथ बातचीत का एक हिस्सा / 16 मार्च 2012)
युनिवर्सिटी
में कवि टोनी हॉगलैंड की कलीग रही अफ्रीकी अमेरिकी मूल की प्रखर कवि और एक्टिविस्ट
क्लॉडिया रैंकिन ने इस कविता पर एक वैचारिक स्टैंड लिया और अनेक प्लेटफार्म पर
टोनी हॉगलैंड की इस कविता की न सिर्फ़ आलोचना की बल्कि इसके आधार पर कालों की
अस्मिता और गरिमा का एक वैचारिक नैरेटिव तैयार किया.
"सेरेना विलियम्स पर मैं लंबे समय से गौर करती रही हूँ. जो उन्हें जिस समय उचित लगा वैसा उन्होंने बेलाग लपेट के कह दिया, यह उनकी खासियत है और सार्वजनिक जीवन में ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है. उन पर बार बार आक्रमण किए जाते हैं, मैं उन आक्रमणों और उन पर दी गए उनकी प्रतिक्रियाओं को लंबे समय से देखती आ रही हूँ- और यह भी देखा है कि कैसे कॉमेंटेटर उनपर उठाये गए सवालों और सेरेना के जवाबों को किनारे लगाते रहे हैं जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो. इसीलिए मुझे टेनिस की दुनिया के इस तरह के उतार चढ़ाव को देखना अमेरिकी समाज में व्यापक रूप से व्याप्त नस्ली बर्ताव का बड़ा उपयुक्त रूपक लगता है. ऐसा नहीं कि यह सारी बातें केवल खेल के मैदान पर हो रही थीं बल्कि वह हमारे विमर्श का हिस्सा भी बन रही थीं, उनका दस्तावेजीकरण भी हो रहा था. सूक्ष्म आक्रमण (माइक्रो एग्रेशन) कभी भी आंखों के सामने खुलकर अपना खेल नहीं खेलता बल्कि पर्दे के पीछे अदृश्य होकर इसका सारा व्यापार चलता है इसीलिए मैं कोई ऐसा विषय चुनना चाहती थी जिसके प्रमाण सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हों और उनके आधार पर अध्ययन कर निष्कर्ष निकाले जा सकें. आप यूट्यूब पर चले जाएँ तो आपको तमाम ऐसे संदर्भ मिल जाएंगे जिससे एक नतीजे पर पहुँचना बहुत आसान हो जाएगा- आपको मालूम हो जाएगा कि दरअसल टेनिस की दुनिया में सेरेना के साथ क्या सुलूक किया जा रहा था."
(www.triquarterly.org
से साभार)
एकेडमी
ऑफ अमेरिकन पोएट्स ने अपने एक कॉन्फ्रेंस में इस कविता पर विस्तृत विचार प्रस्तुत
करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया. यहाँ उन के विमर्श का सार प्रस्तुत है:
"मैं
इस कविता के संदर्भ में रेसिस्ट विशेषण का प्रयोग नहीं करुँगी क्योंकि इसका प्रयोग
करते ही आपको एक क्रोधांध काला इंसान मान लिया जाता है. पुरानी पीढ़ी के काले लोग
ऐसे होते थे और हर कोई यह जानता है कि उनका ऐसा बर्ताव एक तर्कहीन मनोरोग था. नई
पीढ़ी के काले तमीज़दार, समावेशी और
सबके साथ घुलमिल कर रहने वाले होते हैं. यह गलियारों से निकल कर चुनौती लेने वाली
पीढ़ी है. पुरानी पीढ़ी जो देखती, महसूस करती, सोचती और नतीजे निकालती थी उसे अभिव्यक्त करते ही निशाने पर आ जाती थी
जिसका अंजाम हमेशा पराजय ही होता था- गोरों को उसे कालों का उन्मादी पागलपन कहने
में पल भर भी नहीं लगता. मेरे पुराने कलीग ने एक कविता लिखी जिसको मेरे कई मित्र रेसिस्ट मानते थे. मैंने जब इसे पहली बार पढ़ा
तो मेरे मन में सवाल उठे: क्या? मैं एकदम से सदमे में आ गई,
उसका कारण मुझे नहीं मालूम लेकिन कई बार भावों का निर्विकार खाँटीपन
विचारों के साथ उलझ जाता है.यह कविता दरअसल हमारे समाज में व्याप्त आत्मरति
(नार्सिसिज़्म) की परतें उधेड़ती है...उसकी पैरोडी बनाती है शायद. इस कविता में
प्रयुक्त अनेक मुहावरे मेरी गल थैली में अटक कर रह गए -इस कविता में
'मैं
रोक नहीं पाया खुद को
कि
दुआ करूँ
गोरी
लड़की जीते',
'वह
दृढ़ निश्चयी छोटी सी
कमनीय
गोरी
यूरोपीय लड़की',
'दुनिया
पर राज करे',
'वह मेरी तरह की
मेरी
प्रजाति की'
सरीखे जुमलों को
'इतनी
विशालकाय थी
और
इतनी काली भी ',
'अलाबामा
की भारी भरकम और दैत्याकार काली लड़की',
'मक्के
के दानों जैसी धारीदार लटें बनाए
और
कलाई में जूलू कंगन डाले ',
'बड़ा
भड़काऊ सा नाम भी था उसका- वोंडेला एफ्रोडाइटी'
जैसे
जुमलों के खिलाफ़ खड़ा किया गया है.
क्या ये जुमले कविता में सहज ही आ गए या इन्हें एन- रोड (यहाँ एन निग्गर के लिए प्रयुक्त हुआ है) के सफ़र को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से कहा गया है?
मैंने
किताब को बंद करके डेस्क पर रख दिया और खिड़की से बाहर देखने लगी- वहाँ दूर-दूर तक
पेड़ों के नामोनिशान नहीं थे, हाँ पार्किंग की जगह जरूर है. हाँ, कभी-कभी मेरी
भावनाएँ रास्ते से भटक कर दूसरी दिशा में भी जा सकती हैं- वैसे हालत में आप मुझे
रोक सकते हैं. मुझे कुछ मिनट लगे, मैं अपनी स्मृतियों को
महीनों पीछे ले गई जिससे कविता में प्रयुक्त हुए शब्दों के वास्तविक अर्थों का
अभिप्राय समझ सकूँ.
जब
मैंने किताब दोबारा उठाकर कविता को फिर से पढ़ा तो मेरे सामने यह बिल्कुल स्पष्ट
हो गया कि कवि ने गोरे अमेरिकियों की एक खास तरह की सोच को सोच समझ कर शब्दों में
पिरोया है. मेरे मन में फौरन एक गोरी औरत और उसके पति का मेरे लिए प्रेम पूर्वक
दरवाजा खोल कर (मैं उनका शुक्रिया अदा करती हूँ) खड़े हो जाना आया- लगा वे मुझे
देखकर भी "इतनी विशालकाय और इतनी काली, अलाबामा की भारी भरकम और
दैत्याकार काली लड़की" जैसे जुमले सोचते होंगे. मुझे यह सोचना बिल्कुल अच्छा
नहीं लगा.
पर
मेरे कलीग (टोनी) के ऐसा करने के पीछे संभवतः गोरी सोच रही हो, हालाँकि संपूर्णता
में गोरेपन को इस उदाहरण के सहारे परिभाषित नहीं किया जा सकता. उस काली लड़की का 'धौंस से परे, दुर्दमनीय' होना
बीसवीं सदी के अवसान की ओर इंगित करता है. और इनकी तरह के गोरेपन का ब्रैंड अब पिट
पिट कर बेकार हो गया है, उसका कोई मतलब नहीं रहा है.
जब मैंने कवि से पूछा कि इस कविता को लिखते समय उनके मन में क्या विचार थे तो उन्होंने कहा कि यह कविता गोरे लोगों के लिए है. क्या ऐसा कहते हुए यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि इस कविता के आईने में गोरे अमेरिकी अपने आप को और अपने किए को देखेंगे? हालाँकि उन्होंने ऐसा कहा नहीं... उन्होंने बस इतना कहा कि यह कविता गोरे अमेरिकियों के लिए है.. इसके जवाब में मैंने सुना कि मुझे सब कुछ तुम्हें समझाने की जरूरत नहीं है, काली लड़की....
यहाँ अमेरिका में मैंने देखा कि हर कोई इस बात का
अभ्यस्त है कि हर अमेरिकी दूसरे अमेरिकी को बार-बार यह भरोसा दिलाता है कि कोई
यहाँ गैर नहीं है,
हम सभी एक दूसरे को अपना मानते हैं स्वीकार करते हैं और इस समाज में
रेस जैसी कोई भावना मायने नहीं रखती है बल्कि अमेरिका में सब बराबर है... पर देखते-देखते
अचानक ऐसा क्या हुआ कि सब कुछ हाथ से बाहर निकल गया?...
यह कविता खासतौर पर सोच समझ कर लिखी गई है, बहुत हिसाब किताब लगाकर जिससे काली आबादी को असहज उत्तेजित किया जा सके. यह महज संयोग नहीं कि कविता लिंचिंग करने के बारे में एक शब्द भी नहीं कहती- हम सब इतने तो समझदार हैं कि जानते हैं ऐसा करना एक आपराधिक और नस्ली बर्ताव है. पर साफ़ तौर पर उस अमेरिकी टेनिस खिलाड़ी के लिए अ-समर्थन जरूर है कवि जिसकी काली चमड़ी को पाठक की आँखों में ऊँगली डाल कर दिखला रहा है : देखो, इतनी भयंकर काली लड़की तुम्हारे देश में रहते हुए तुम्हारे बराबर अधिकार माँग रही है- यह हद दर्जे का नस्लवाद नहीं तो और क्या है?
मुझे
लगता है कि उनके पास इस बारे में ऐसे अनगिनत सवाल हैं कि मुझ जैसी काली ने यह किताब बुक स्टोर से उठा लेने की जुर्रत भला
कैसे कर ली और अब उसमें छपी कविता पर ऐसे असहज सवाल खड़े कर रही है- मेरा सीधा सा तर्क है,
तो फिर किताब के साथ आपने 'सिर्फ़ गोरे पाठकों
के लिए' का स्टिकर क्यों नहीं चिपका कर रखा?
कवि
ने मेरी बातों के जो जवाब दिए वे युद्ध छेड़ने वाले आक्रमणकारी शब्द थे. मुझे लगता
है कि कवि 'सिर्फ गोरों के
लिए' जैसा टैग लगाकर बात को आसानी से भाषा की ओर मोड़ देना
चाहता है...और यह कहता है कि उस कविता को विचार नहीं सिर्फ एक भाषायी उत्पाद के
रूप में देखा जाए.
दार्शनिक
जूडिथ बटलर चोट पहुँचाने वाली मारक भाषा की बात करते हुए हमारे दृष्टिगोचर होने को
जिम्मेदार ठहराती हैं- हम दिखते हैं इसलिए तीर का निशाना बनते हैं... और इन तीरों
व पत्थरों के अंदर शब्द भरे होते हैं. मैं पहले सोचती थी कि नस्ली भाषा का काम
मुझे नीचा दिखाना और यहाँ तक कि मुझे एक
व्यक्ति के रूप में दुनिया के नक्शे से मिटा देना
है पर जूडिथ बटलर को सुनने के बाद मुझे लगने लगा है कि भाषा के इस
ताबड़तोड़ आक्रमण के बीच मैं अतिशय दृष्टिगोचर (हाइपर विजिबल) हो गई हूँ. मारक
भाषा को निशाना साधने में हमारी इस ठोस उपस्थिति और मुद्रा का सबसे ज्यादा लाभ
मिलता है.
बाकी
सारी बातें अपनी जगह लेकिन मुझे लगता है कि मेरा सजग होना,
मेरा खुलापन, अपने कलीग की कविता पर बेबाक ढंग
से राय जाहिर करने की इच्छा के लिए यह जरूरी है कि मैं घटना स्थल पर उपस्थित
रहूँ और उनकी आँख में आँख
मिलाकर बेबाक होकर अपनी बात कहूँ
."
एकेडमी
ऑफ अमेरिकन पोएट्स के मंच से ही कवि टोनी हॉगलैंड ने क्लॉडिया रैंकिन की बातों का
लिखित (उपस्थित नहीं हुए) जवाब दिया- उसके मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं:
"यह बात तब और भ्रामक हो जाती है जब समकालीन कविता के संदर्भ में यह मान लिया जाता है कि कोई कविता उसके कवि के विचारों का आईना है. मैं घुमा फिरा कर मुद्दे से हट बिल्कुल नहीं रहा हूँ- यह बिल्कुल सत्य है कि मैं एक नस्लवादी हूँ, लैंगिक असमानता में विश्वास करता हूँ, (एक रौ में इसके साथ उन्होंने अपनी अनेक विशेषताएँ और भी गिना दीं). शुद्धता या पवित्रता का मेरा कोई दावा नहीं है, वह मेरा खेल नहीं है और न ही इनका पालन करना मेरे वश में है. मैं एक अमेरिकी हूँ और एक अमेरिकी की भावनात्मक बनावट में जो दोष और विकार हैं वह सिर्फ़ सदिच्छाओं से या अच्छे बर्ताव से दूर नहीं किए जा सकते."
कवि का काम शैतान (डेविल) के साथ जूझना है और उसे दमित ऊर्जाओं के बीच से रास्ता निकालना पड़ता है. उसे लचीला, गतिशील परिप्रेक्ष्य, विवाद, मसखरी और सच के पक्ष में खड़े होना होता है. राजनैतिक औचित्य का आरोपण करते ही हास परिहास का लचीलापन और जीवन दायी भाव एकदम से तिरोहित हो जाता है.
जिस तरह आप बड़ी आसानी से हर जगह 'क्रुद्ध' काला इंसान देख लेती हो उस तरह मुझे हर उदार गोरे इंसान की 'माफ़ी मांगती हुई मुद्रा' देख कर न सिर्फ बहुत बोरियत होती है बल्कि वह हद दर्जे का निकम्मा भी लगता है.
दूसरे कवियों को अपनी कविता समझाना मुझे कभी समझ नहीं आया, वे तो मेरी प्रजाति के लोग हैं सो मुझे लगता है कि वे खुले मन वाले ग्राह्य पाठक भी होंगे. मैं जानबूझकर ऐसी कोशिश करता हूँ कि मेरी कुछ कविताएँ अपने उत्तेजक विषय और प्रवृत्ति से लोगों को आगाह करें. दरअसल कविताओं को इतना संभल संभल कर नहीं चलना चाहिए, वह कोई टेडी बीयर नहीं है.
अमेरिका में जब भी नस्लों की बात आती है तो हम सब एक ही कटघरे में खड़े होते हैं - या तो हम उसको देख कर भी अनदेखा करते हैं, या फिर उस से मुकाबला करने लगते हैं. इससे मुक्त होने में हमें पचास या सौ साल और लगेंगे. जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं इस बीमारी को खोद कर धरती से बाहर निकालते हुए कीचड़ में लिथड़ जाना पसंद करूँगा, बनिस्बत इसके कि नेक और सुंदर इंसान दिखता रहूँ.
अंत में मुझे यह कहने दें कि मेरी कविता "बदलाव" नस्ल वादी विचारों की कविता नहीं है बल्कि अमेरिका की नस्लीय जटिलता को व्यक्त करने वाली कविता है."
"मुझे लगता है कि क्लॉडिया रैंकिन जहाँ तक अमेरिकी नस्लवाद का सवाल है, पहले भी इसकी गैर जानकार थीं और अब भी बिल्कुल अबोध हैं, और यह नहीं जानती कि अधिकांश अमेरिकियों की चेतना में सजग रूप से या अवचेतन में नस्लवाद की भावना और विचार जिस कदर जड़ जमा कर बैठा हुआ है वह बहुत कुरूप है. हम सभी जानते हैं कि इसकी मुख्य वजहें हैं अपराध बोध, भय, आक्रोश और चौकन्नापन .... और इसकी जड़ें ऐतिहासिक, आर्थिक और संस्थागत हैं. दरअसल हम अमेरिकी अपनी माँ के दूध के साथ नस्लवाद को पीकर बड़े होते हैं और चारों ओर व्याप्त असीमित गैर बराबरी की पृष्ठभूमि में जीवन में हर रोज नए नए ढंग से इसका पुनर्पाठ करते हैं. इसीलिए यह सोचना कि नस्ल का मामला केवल भूरी त्वचा के अमेरिकियों या काले अमेरिकियों के साथ जुड़ा हुआ है, यह निहायत मूर्खता पूर्ण और गलत फैसलों तक ले जाने वाली धारणा है. दुर्भाग्य से बहुत सारे ऐसे कवि और पाठक हैं जो सोचते वैसा ही हैं."
"यह बात तब और भ्रामक हो जाती है जब समकालीन कविता के संदर्भ में यह मान लिया जाता है कि कोई कविता उसके कवि के विचारों का आईना है. मैं घुमा फिरा कर मुद्दे से हट बिल्कुल नहीं रहा हूँ- यह बिल्कुल सत्य है कि मैं एक नस्लवादी हूँ, लैंगिक असमानता में विश्वास करता हूँ, (एक रौ में इसके साथ उन्होंने अपनी अनेक विशेषताएँ और भी गिना दीं). शुद्धता या पवित्रता का मेरा कोई दावा नहीं है, वह मेरा खेल नहीं है और न ही इनका पालन करना मेरे वश में है. मैं एक अमेरिकी हूँ और एक अमेरिकी की भावनात्मक बनावट में जो दोष और विकार हैं वह सिर्फ़ सदिच्छाओं से या अच्छे बर्ताव से दूर नहीं किए जा सकते."
कवि का काम शैतान (डेविल) के साथ जूझना है और उसे दमित ऊर्जाओं के बीच से रास्ता निकालना पड़ता है. उसे लचीला, गतिशील परिप्रेक्ष्य, विवाद, मसखरी और सच के पक्ष में खड़े होना होता है. राजनैतिक औचित्य का आरोपण करते ही हास परिहास का लचीलापन और जीवन दायी भाव एकदम से तिरोहित हो जाता है.
जिस तरह आप बड़ी आसानी से हर जगह 'क्रुद्ध' काला इंसान देख लेती हो उस तरह मुझे हर उदार गोरे इंसान की 'माफ़ी मांगती हुई मुद्रा' देख कर न सिर्फ बहुत बोरियत होती है बल्कि वह हद दर्जे का निकम्मा भी लगता है.
दूसरे कवियों को अपनी कविता समझाना मुझे कभी समझ नहीं आया, वे तो मेरी प्रजाति के लोग हैं सो मुझे लगता है कि वे खुले मन वाले ग्राह्य पाठक भी होंगे. मैं जानबूझकर ऐसी कोशिश करता हूँ कि मेरी कुछ कविताएँ अपने उत्तेजक विषय और प्रवृत्ति से लोगों को आगाह करें. दरअसल कविताओं को इतना संभल संभल कर नहीं चलना चाहिए, वह कोई टेडी बीयर नहीं है.
अमेरिका में जब भी नस्लों की बात आती है तो हम सब एक ही कटघरे में खड़े होते हैं - या तो हम उसको देख कर भी अनदेखा करते हैं, या फिर उस से मुकाबला करने लगते हैं. इससे मुक्त होने में हमें पचास या सौ साल और लगेंगे. जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं इस बीमारी को खोद कर धरती से बाहर निकालते हुए कीचड़ में लिथड़ जाना पसंद करूँगा, बनिस्बत इसके कि नेक और सुंदर इंसान दिखता रहूँ.
अंत में मुझे यह कहने दें कि मेरी कविता "बदलाव" नस्ल वादी विचारों की कविता नहीं है बल्कि अमेरिका की नस्लीय जटिलता को व्यक्त करने वाली कविता है."
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यादवेन्द्र
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की
पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड, पटना - 800014
मोबाइल - +91 9411100294
द चेंज के व्याज से नस्लवाद और नस्लवाद के विरोध का विमर्श प्रस्तुत करने के लिए समालोचन और यादवेंद्र जी को बधाई।ये मुद्दा जितना अमेरिका का है उतना ही एशिया का भी।लेकिन हम अपने बारे में नहीं जानते कि हमारे भीतर नस्लवाद कितनी गहरी जड़ें जमाये पैठा है।कविता और कविता पर विमर्श की शैली अनूठी है जिसे यहां पोस्ट किया गया है।पढ़ने और गुनने के लिए प्रेरित करती पोस्ट।साधुवाद।
जवाब देंहटाएंएक आवश्यक बहस की प्रस्तुति करने वाले लेखक बधाई के पात्र हैं..
जवाब देंहटाएंयह तो स्वीकार करना ही होगा की मानव समाज में जाति भी है और नस्ल भी लेकिन साथ ही यह भी कि जाति या नस्ल आपकी उपलब्धि नहीं है सुंदर आलेख के लिए यादवेन्द्र जी को आभार
जवाब देंहटाएंनस्लीय जटिलताओं के मनोभावों को व्यक्त करने के नाम पर कवि बेशक नस्लवादी ही दिखाई दिया। यदि रचनाकार भी अपने नस्ल-धर्म-लिंग-संस्कृति आदि को लाँघकर सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों को न दर्ज कर पाए और उल्टे अपनी संकीर्णता को यह कहकर दर्ज करे कि यह उसके अपने समूह की सच्चाई है, वास्तविक मनोभाव हैं तो उसकी समझ का हल्कापन है। यह हल्कापन ही उसके अपने समुदाय में भी व्यापक रूप से व्याप्त है जिसे वह सच मानकर चल रहा है। भारतीय संदर्भ में मुझे कहते हुए गर्व हो रहा है कि भले ही पूर्ण या वास्तविक बदलाव अभी न आ पाया हो पर एक सवर्ण कवि दलितों के लिए सार्वजनिक रूप से ऐसी भाषा नही बोल सकता। यह हमारे लोकतंत्र की एक बेहतरीन उपलब्धि तो है ही।
जवाब देंहटाएंकिसी भी मुद्दे पर उस पक्ष का दृष्टिकोण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है जो समाज के लिए अन्यथा तिरस्कार योग्य है। साहित्य में निंदनीय पक्ष की बात लिखना सदा से रोचक रहा है। जैसे प्रेम त्रिकोण में दूसरे आदमी या औरत की बात, जैसे नस्लभेद को घृणित मानते समय में गोरों के पक्ष में लिखी गयी यह कविता, जैसे एक बेईमान ज्यूरी सदस्य की मानवतापूर्ण दलील। यह सब जानना, लिखना , पढ़ना सब रोचक है। संभवतः यादवेंद्र सर की सेरेना पर आनेवाली किताब का अंश है यह कविता, किताब निश्चित तौर पर पठनीय होगी।
जवाब देंहटाएंइस कविता को और उस पर हुई चर्चा को पढ़ गया । यह एक मनोरोगी का आत्म कथन है । वह आपको चुनौती दे रहा है, चिढ़ा रहा है । कविता को जानना चाहते हो तो इसे जानो ! जानबूझकर अपना एक अलग सच बना रहा है । अपना झूठ गढ़ रहा है । मज़े की बात यह है कि वह अपने इस झूठ पर ही पक्का यक़ीन भी करने लगता है । उसकी बातें यही बताती है । पहचान के सारे विषय ऐसे ही भ्रमों पर टिके होते हैं जिनके लिये ख़ुदगर्ज़ आदमी दुनिया का हवाला दिया करता है । मनुष्य के ख़याल से दूर होने के कारण ही वह सत्य को दुत्कारता है और गलाजतों को गले लगाता है । यह सचमुच एक बीमार बयान है ।
जवाब देंहटाएंअच्छा अनुवाद है। और अच्छा हो सकता था। कविता के बारे में मेरा मत है कि वह नस्लवाद के बारे में ही है पर नस्लवादी कतई नहीं है। कविता का गोरा आदमी सच का सामना करता है। उदाहरण के लिए भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैचों की सफलता का आधार हिन्दू-मुसलमान की पारस्परिक घृणा है। इसका कोई सामना नहीं करना चाहता और पारम्परिक प्रतिद्वंद्वी देशों का नैरेटिव बनाया गया है। मेरे जैसा पढ़ा-लिखा उदार अयोधक भी एक बार जानना चाहता है कि दंगे में कितने हिन्दू मरे और कितने मुसलमान । कविता इस सत्य पर 'फुल फेस' नजर डालती है।
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि इस कविता में एक खिझाऊ कृपालु-भाव है जो उसे श्रेष्ठ कविता बनने से रोकता है। परंतु इस बिन्दु पर कोई चर्चा नजर में नहीं आई।
यह एक ईमानदार अभिव्यक्ति है। कवि के कंफेशंस हैं। काश! इस तरह के कंफेशंस उन द्विज कवियों की तरफ से भी आ पाते जिनके मन में अद्विजों के प्रति न जाने कितनी घृणा और नफरत के अफीम सागर लहराते रहते हैं। टोनी हौग्लैण्ड नस्लवादी हों या नहीं हो इससे कोई मतलब नहीं है। मतलब है कि अधिकांश गोरे अभी भी किस हद तक नस्लवादी हैं उसका परिचय देती है यह कविता। अभी अमेरिका में पिछले दिनों फ्लॉयड के साथ जो कुछ भी हुआ है उसमें इस नस्लवादी घृणा का ही सबसे बड़ा हाथ है। द्विज घृणा और नफरत तो नस्लवाद से भी घातक है। बहरहाल, यादवेंद्र जी का शुक्रिया कि उन्होंने एक माकूल रचना को खोजकर हमलोगों तक पहुंचाया। अरुण देव भाई साहेब का भी शुक्रिया कि कविता के साथ-साथ कवि के विचारों को भी उन्होंने प्रस्तुत किया।
जवाब देंहटाएंप्रखर लेख
जवाब देंहटाएंमुझे कविता की टोन में स्वीकारोक्ति या कंफेशन नहीं महसूस हुआ। एक तरह के जस्टिफिकेशन की टोन है। यह अनुवाद की लिमिटेशन हो सकती है या मेरे पाठ की।
जवाब देंहटाएंएक महत्वपूर्ण कविता से रूबरू करवाने के लिए शुक्रिया समालोचन।
बेहद अच्छी कविता है। आज के गोरे अमेरिकियों की मानसिकता को पूरी तरह से खोलकर पेश करती है। यह कविता काले अमेरिकियों के समर्थन में और गोरे अमेरिकियों के ख़िलाफ़ है। कवि टोनी हॉगलैंड ने क्लॉडिया रैंकिन की बातों के जो लिखित जवाब दिए हैं, उनमें उन्होंने अपनी बात साफ़-साफ़ कह दी है। भारत के सन्दर्भ में इस कविता को देखा जाए तो गोरे अमेरिकी उच्च जातियों के लोग हैं और काले अमेरिकी नीची जातियों के दलित और आदिवासी। दोनों देशों में गोरों या उच्च जातियों का रवैया एक सा है। हमें भी अपने माँ के दूध से ही यह जातिवाद (या नस्लवाद) मिल जाता है। हम कितना भी दलितों, आदिवासियों और निम्न जातियों का समर्थन क्यों न करें, लेकिन मन के भीतर अवचेतन में ’असीमित ग़ैर-बराबरी का एक विकार या एक दोष’ बना ही रहता है ’और इसकी जड़ें ऐतिहासिक, आर्थिक और संस्थागत हैं’। कवि टोनी हॉगलैंड ने अपनी कविता में अमेरिकी कुरूपता को बहुत खुलकर व्यक्त कर दिया है।
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