बटरोही : हम तीन थोकदार (पांच)


वरिष्ठ कथाकार बटरोही इधर ‘हम तीन थोकदार’ शीर्षक से अपने समय और इसमें शामिल उस भूत को लिख रहें हैं जिसके बिना किसी का कोई वर्तमान नहीं होता. यह कथा है, आख्यान, इतिहास, पुरातत्व और मिथक भी है. यह अस्मिता की तलाश है. बेहद पठनीय और दिलचस्प. इसमें लोक-कथाओं की सहजता और रस है.  इसके हर हिस्से अलग-अलग भी पूर्ण हैं और एक दूसरे से जुड़े हुए भी हैं.

इसकी पांचवीं क़िस्त प्रस्तुत है. 


हम तीन थोकदार (पांच)
मिथक नहीं, राजनय है अन्धविश्वास          
बटरोही 



लॉक-अनलॉक फंडा: नैनीताल में जून, 2020 का अवसादग्रस्त महीना

महीने की डायरी:  
१जून को तालाबंदी ख़त्म कर दी गई थी, इसलिए मैं सरकारी तालों की लुकाछिपी से उदासीन तीन थोकदारों की कहानी को आगे बढ़ाने में लग गया. विगत 75 वर्षों में निर्मित और संजोई गई मिथक-कथा का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए देवीधुरा की रणशिला, काली-कुमाऊँ के भैंस-पालक पैकों के द्वारा अपने ग्रीष्म एवं वर्षाकालीन चरागाहों के बीच निर्मित दैवी मिथकों; पश्चिमी रामगंगा और गगास नदी की घाटियों में खुदाई से प्राप्त शवागारों, उड़ीसा के पैका विद्रोहियों की गुरिल्ला-कथाओं, असम के कामरूप कामाक्षा मंदिर और श्रीलंका केंडी में फैली हुई विशाल ग्रेनाईट शिलाओं की अद्भुत दुनिया में भटकता रहा.

बार-बार खुद से सवाल करता रहा कि जिन्दगी के बूमरैंग का मतलब क्या है? एक बार प्राप्त की जा चुकी वस्तुओं को दुबारा प्राप्त करना? मगर वो तो अतीत बन चुके हैं और नया अस्तित्व धारण कर चुके हैं.  उनकी ओर दुबारा ताकना और उनके साथ बात करने की कोशिश करना पलायन या नए प्रकार की शव-साधना तो नहीं है? क्या मेरे अन्दर कोई तांत्रिक-कॉम्लेक्स जन्म ले रहा है? इस साधना के प्रति मेरी रुचि क्यों पैदा हो रही है? वास्तविकता तो यह है कि उसी का अतिक्रमण करके मैं आज की स्थिति में पहुंचा हूँ. वह मेरा प्राप्य होता तो मैंने उन्हीं दिनों समझौता कर लिया होता! अगर मैंने ऐसा कर लिया होता तो मेरी हालत अपने ही अस्तित्व के गंधाते हुए शव को खुद के कन्धों पर ढोते हुए आदमी की यात्रा की तरह नहीं होता?... नहीं, वह मेरा प्राप्य नहीं था, मैंने पूरे होशो-हवास में उसका अतिक्रमण किया था; जो कुछ मैं आज हूँ, वह एक ताज़ा-तरीन शरीर है जो मेरी अपनी रचना है...

इस बीच परेशान करने वाले प्रसंगों की झड़ी लग गयी. एक युवा होनहार अभिनेता ने अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या कर ली; हर आदमी बाज़ार और सड़क में मुंह पर मास्क धारण किये एक-दूसरे से कटा हुआ सिर्फ अपनी नाक की सीध में यात्रा कर रहा है. वह खुद नहीं जानता कि कहाँ जाना है, उसे किसकी तलाश है? क्या वह सुशांत राजपूत की तरह खुद को तलाश करने की यात्रा कर रहा है या मेरी तरह स्मृतियों की दुनिया में खो चुके अपने अस्तित्व के उन दबावों को तलाश रहा है जिन्हें हासिल करने के लिए मुझे ७५ साल पहले पृथ्वी के इस खास कोने में किसी ने भेजा था. ये कोई गहरे, दार्शनिक सवाल नहीं हैं, रोजमर्रा दिमाग में टकराने वाले सवाल हैं, दुर्भाग्य से जिन्हें मैं कभी किसी के साथ साझा नहीं कर पाया. क्या मैं उनके उत्तर चाहता हूँ? मैं क्यों उन सवालों के उत्तर चाहता हूँ?

इसी बीच मेरे कथा-क्षेत्र में एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी. मामला अंतर्राष्ट्रीय राजनय से जुड़ा हुआ था, इसलिए इस घटना ने हमारे देश में ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को लेकर भी विवाद खड़ा कर दिया. मेरे लिए इस विवाद में रुचि लेना इसलिए जरूरी हो गया क्योंकि मामला भारत-नेपाल की उस अंतर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़ा हुआ था, जिसे मैंने ‘खस देश’ कहा है और जिस पर मैंने इस कथा-आख्यान की ईमारत खड़ी की है; और जिसने हजारों सालों के विन्यास के बाद एक साझा संस्कृति को जन्म दिया है.

२४ मई, २०२० को नेपाली संसद ने बहुमत से यह प्रस्ताव पारित किया कि भारत के लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा क्षेत्र नेपाल की सीमा के अंतर्गत आते हैं जिन्हें भारत के नक़्शे में गलत चढ़ाया गया है. भारतीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने पिथौरागढ़ जिले की वयांस घाटी में स्थित इस ८० किलोमीटर सड़क मार्ग का उदघाटन किया. यह सड़क लिपुलेख दर्रे से चार किलोमीटर पहले तक ही जाती है. धारचूला से लिपुलेख दर्रे तक के मार्ग को कैलाश-मार्ग भी कहा जाता है और इसे भारत से नेपाल, तिब्बत और चीन की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को छूते हुए कैलाश मानसरोवर को जाने के लिए पौराणिक एवं धार्मिक मार्ग माना जाता है. इस सड़क के निर्माण के बाद दिल्ली से लिपुलेख दर्रे तक दो दिन में पहुंचा जा सकता है.

कुछ स्थानीय इतिहासकारों और अख़बारों ने इस विवाद को लेकर लेख/टिप्पणियाँ और समाचार प्रकाशित किये मगर उनसे कोई साफ तस्वीर नहीं उभर पाई. इसी बीच ‘समयांतर’ के जून अंक में इस मुद्दे पर वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार प्रेम पुनेठा का लेख प्रकाशित हुआ, ‘कालापानी: विवाद के निहितार्थ’, जिसमें उन्होंने इतिहासकार अजय रावत की किताब ‘पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ उत्तराखंड फ्रॉम स्टोन एज टु १९४९’ का हवाला देते हुए इसे ‘उत्तराखंड ग्रेट गेम’ का हिस्सा बताया. कुल मिलाकर जो बात उभरकर सामने आई, पुनेठा के अनुसार, ‘काली नदी का उद्गम किसे माना जाए यही कालापानी के विवाद के मूल में है. नेपाल का दावा है कि १८६० से पहले के नक्शों में कालापानी का उद्गम स्थान लिम्पियाधुरा दिखाया गया है इसलिए लिम्पियाधुरा ही काली नदी का उद्गम है. यहाँ से निकलने वाली जलधारा को नेपाल काली नदी कहता है और इसे भारत में कुटी यांगटी कहा जाता है. 
(काली नदी)

इसलिए लिपुलेख-लिम्पियाधुरा-गुंजी 385 वर्ग किमी का एक त्रिकोण बनता है जिस पर नेपाल अपना दावा करता है. नेपाली दावे के विपरीत भारत का दावा है कि काली नदी का उद्गम कालापानी है और ब्रिटिश नक्शों में भी इसे दर्शाया गया है. लिम्पियाधुरा से निकलने वाली धारा कुटी यांगटी है इसलिए कालापानी और लिपुलेख काली नदी के पश्चिम में होने के कारण स्वाभाविक तौर पर भारतीय ही माने जायेंगे.’



(ब्रेक के बाद)

इन दिनों सोते-जागते हर वक़्त मानो मुझे कोई धिक्कारता है: (सन्दर्भ- गलवां  में भारतीय-चीनी सैनिकों की हाथापाई)

‘बटरोही थोकदारज्यू, आजकल आप ये लिख क्या रहे हैं?... डोनाल्ड ट्रम्प, किम जोंग उन और शी जिनपिंग के ज़माने में आप अपने थोकदारों का युद्ध-कौशल, पैकों का मल्ल युद्ध प्रमोट कर रहे हैं! कैसे-कैसे नए आणविक और वायरल हथियारों का अविष्कार हो चुका है और आप हैं कि अपने सैनिकों को पैकों की कुश्ती सिखा रहे हैं. वह भी लद्दाख की बर्फ भरी पथरीली चट्टानों पर. इसीलिए तो अब पिद्दी-भर के देश भी आपको आँखें दिखाने लगे हैं!... 

देखते जाइये, पैक योद्धाओं का यह संक्रामक युद्ध गलवां  घाटी होते हुए धारचूला की चीन-नेपाल से जुड़ी धरती पर पहुँच चुका है... इस ग़लतफ़हमी में मत रहिएगा कि आपका बिरादर देश के सबसे बड़े सूबे का सीएम बन गया है तो आपको सब माफ़ है. आप क्या समझते हैं, वो आपको पहचान जायेगा और आपकी बेवकूफियां नज़रअंदाज़ करके आपको गले लगा लेगा. जिसने धेला-भर रखने तक के लिए अपने कपड़ों में कोई जेब भी न सिलवाई हो, वो किसी को कहाँ से, क्या मदद देगा?... 

शायद आप भूल गए हैं लेखक महोदय, जब ट्रम्प ने हाथ जोड़कर आपके बिरादर से ‘नमस्ते’ कहा था तो आपके इस वॉलेट-विहीन कुरता-धारी फ़क़ीर ने गदगद भाव से जवाब दिया था, ‘वेलकम टु इंडिया.’

गदगद भाव से ही तो हमारे प्रदेश के राष्ट्रीय स्तर के एक युवा मंत्री ने एक दिन गरजते हुए कहा था, 


‘वह दिन दूर नहीं, जब हम पुष्पक विमान की तकनीक को संसार के सामने पेश करके विश्व भर के युवा अभियंताओं को हैरत में डाल देंगे, हिमालय के दूनागिरी पर्वत से संजीवनी बूटी के पौधे उखाड़कर अपने सारे सीढ़ीदार खेतों में उनकी रोपाई करके पूरे पहाड़ को ‘संजीवनी हब’ बना चुके होंगे और लाखामंडल के लाक्षागृह को महाभारत-मॉडल का जीता-जागता संग्रहालय बनाकर विश्व-पर्यटन-धरोहर का एक अभूतपूर्व मानक प्रस्तुत कर चुके होंगे.’...  

यह है हमारे राष्ट्रवाद का नया तेवर, संसार को दिया जाने वाला भारतीयों का अभूतपूर्व उपहार... इसीलिए गलवां युद्ध के दो दिन बाद १७ जून, २०२० को हमारे देश के प्रधान मंत्री ने शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देते हुए कहा, ‘देश को इस बात का गर्व होगा कि हमारे जवान मारते-मारते मरे हैं. भारत माता के वीर सपूतों ने गलवां घाटी में मातृभूमि की रक्षा करते हुए सर्वोच्च बलिदान दिया. मैं देश की सेवा में उनके इस महान बलिदान के लिए उन्हें नमन करता हूँ.’  

ये कैसा राष्ट्रवाद है जो आदिकाल से मानव-प्रयत्नों और सद्भाव से निर्मित संबंधों को अपने स्थानीय स्वार्थों के लिए एक झटके में तोड़ देता है; न केवल तोड़ता, एक-दूसरे को दुश्मन भी समझने लगता है. पल में दोस्ती, दूसरे पल दुश्मनी!... वर्चस्व की लड़ाईयां मनुष्य ने इस धरती पर जन्म लेने के बाद से ही लड़ी हैं, मगर सभ्यता के इस सोपान में पहुँचने के बाद, जब लोग एक-दूसरे के पूरक बनते चले गए हैं, युद्ध का रूप भी उसी प्रकार का आदिम होगा, समझ में आने वाली बात नहीं है. मगर दुर्भाग्य से आदमी के दिमाग की यह सिकुड़न लगातार बढ़ती चली गई है... विश्वभाव से राष्ट्रभाव की ओर, देश की सीमाओं से प्रान्तों की और वहां से मंडलों-जनपदों, परिवारों के संकुचित दायरों से होकर अंततः उन रास्तों की ओर पलायन, जो आदमी के अकेलेपन के घरोंदों तक पहुँचकर ऐसे अवसाद के रूप में सिमट जाते हैं जहाँ सिर्फ बंद गली का आख़िरी कोना बचा हुआ है और दूर-दूर तक उम्मीद की कोई किरण नहीं दिखाई देती!

इसके बावजूद, रास्ते की उम्मीद में से ही तो जन्म लेता है नए सिरे से इतिहास लेखन और मिथकों की पुनर्व्याख्या का सिलसिला... एक इतिहास वह था जो राजा-महाराजाओं ने अपने लिए लिखवाया था, फिर दूसरा इतिहास उनके द्वारा लिखा जाने लगा जो औपनिवेशिक कृपा-दृष्टि के रूप में हमारे कथित ‘असभ्य समाज’ को ‘सभ्य’ बनाने के लिए अपनी भाषा और संस्कृति के साथ सुदूर सात समंदर पार से आए; और अब नया इतिहास है जो सोये हुए प्रतीकों को दुबारा जगा कर उन्हें बिछौने की तरह इस्तेमाल करते हुए चैन की नींद सोना चाहता है... इन सभी के लिए यह देश आदिवासियों, जोगियों, सपेरों, शूद्रों और असभ्यों का देश था जिसका शुद्धीकरण किया जाना जरूरी था. 

वह देश, जो कभी (?) समृद्ध और सभ्य था लेकिन समय की आंधी में सब कुछ तहस-नहस कर डाला गया था और दुनिया की नई चाल का फायदा न उठा पाने के संस्कारों के साथ ठीक से न जुड़ पाने के कारण पिछड़ा ही रह गया... उसकी सारी ज़िन्दगी कबीर की तरह भजन गाते हुए कटी... भ्रम की टांटी सबै उड़ाणी, माया रहै न बांधी... आंधी पीछे जो जल बूठा, प्रेम हरीजन भीनां... कहै कबीर भांन के प्रगटे, उदित भया तम खीनां...संतो, आई ज्ञान की आंधी रे... मजेदार बात यह है कि यही भजन-कीर्तन उसे सदियों तक जैसे-तैसे जिन्दा भी रखे हुए है और हर दौर में उसकी बेचैनी का कारण भी रहा है...



इस बीच मुझे उन मिथकीय पात्रों की भी खूब याद आई, जिनका सम्बन्ध मेरे परिवेश का साथ है. उन कथाओं की भी, जो मेरे ही क्षेत्र के रचनाकारों ने रचीं, वो भी जिन्हें बाहर के लोगों ने यहाँ आकर रचा. मसलन, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कालिदास कहाँ के रहने वाले थे; वह अलकापुरी, उज्जैन, देवगिरि, पाटलिपुत्र, ब्रह्मपुर या शिमला-श्रीनगर, नैनीताल के होते तो भी उस तरह की रचना लिख ही सकते थे. प्रवासियों ने भी भरपूर अनुभूति-प्रधान रचनाएँ लिखी हैं. मगर रचना में मिट्टी की गंध तभी संभव है जब उसने उस धरती का पहला स्पर्श किया हो. क्या यह संभव है कि कैलास पर्वत के निकट अलकापुरी में रहने वाली यक्ष-कन्या बिना कोई वस्त्र पहने, कमर में सिर्फ सोने या चांदी की एक पट्टी बांधे जीवित रह सकती है? 

यह भी ठीक है कि मिथक और यथार्थ चरित्र को देखने का नज़रिया एक नहीं हो सकता, मगर अस्तित्व की शर्तों के साथ तो कोई समझौता नहीं किया जा सकता. राम या कृष्ण का चरित्र तो नंगे वदन रह सकता है, रहता ही होगा, मगर बर्फीले गाँव या शहर में रहने वाला व्यक्ति बिना गर्म कपड़ों के कैसे जीवित रह सकता है? कैलाश पर्वत पर बैठे शिव को तक बाघम्बर ओढ़े बैठाया जाता है, जब कि हमारे कला-संसार में सारी अप्सराएँ और युवतियाँ नग्न अथवा सिर्फ एक कंचुकी पहने आराम से घूमती-फिरती, काम-काज नजर आती हैं. माना कि ये मिथक हैं, मगर ये हाड़-मांस के पुतले भी तो हैं... शकुंतला, चित्रलेखा, रम्भा,मेनका, वसंतसेना, वासवदत्ता जैसी असंख्य नायिकाएं, जो मैदानों-पहाड़ों दोनों जगहों की हैं, जो हमारी कलाकृतियों में शून्य डिग्री से नीचे भी उसी ताज़गी में रह लेती हैं जैसे चालीस-पचास डिग्री की गर्मी में... इन नायिकाओं का सारा फोकस सिर्फ उनकी देह पर ही क्यों  होता है!


उज्जयिनी की वसंतसेना और चारुदत्त का गुमदेश के मधिया पैक को निमंत्रण

माफ़ कीजिये, भारतीय समाज, संस्कृति और राजनीति में बार-बार शूद्र का जिक्र आने पर मुझे इन दिनों राजा शूद्रक खूब याद आ रहे हैं. हाँ, वही, ‘मृच्छकटिक’ का लेखक शूद्रक, जिसने संस्कृत साहित्य में व्याप्त कुलीनों के वर्चस्व को तोड़कर पहली बार आम लोगों की बात की; पहली ऐसी रचना लिखी, जिसने राजा-महाराजाओं को अपनी रचनाओं का नायक बनाने पर सवाल उठाया और अपनी कृतियों में संस्कृत के वर्चस्व को तोड़कर जन-भाषाओं - प्राकृतों और अपभ्रंशों को मान्यता दी. ‘‘मृच्छकटिक’ में प्राकृत के विविध रूपों – प्राच्या, मागधी और शौरसेनी के अतिरिक्त, सर्वोत्तम प्राकृत महाराष्ट्री और आवंती के दर्शन होते हैं...’ 

एक अंग्रेज अफसर-रिसर्चर ने दो सदी पहले कहा था... इस नाटक का एक क्रांतिकारी अवदान यह भी है कि गणिका (वैश्या) वसंतसेना एक प्रतिष्ठित परिवार में गृहस्थी और प्रेम की अधिकारिणी बनती है. वधू बनती है और लेखक उसे समाज के सम्मानित व्यवसायी चारुदत्त की ब्याहता बनाता है. ब्याह कराता है, रखैल नहीं बनाता. स्त्री-विद्रोह के प्रति लेखक की सहानुभूति है. पाँचवे अंक में ही चारुदत्त और वसंतसेना मिल जाते हैं, लेकिन लेखक का उद्देश्य पूरा नहीं होता. वह दसवे अंक तक कथा बढ़ाकर राजा की सम्मति दिलवाकर उसे सिर्फ प्रेमपात्र नहीं बनाता, उसका विवाह कराता है!...

इस नाटक में जनता के असंतोष को पहली बार मुखर ढंग से जन-विद्रोह की मान्यता दी गई है. नाटक का नायक राजा नहीं, व्यापारी है जो नए व्यापारी वर्ग के उत्थान का प्रतीक है. संस्कृत नाटकों की परंपरा में ऐसा पहली बार हुआ है जब एक गोप-पुत्र (ग्वाले,चरवाहे) आर्यक को राजा बनाया गया है... 

इतना ही नहीं, चार वर्णों वाली हिन्दू कर्मकांडी व्यवस्था में पहली बार शेष तीन वर्णों के द्वारा क्षत्रिय राजा के विरुद्ध मोर्चा खोला गया है... इसी नाटक का नायक है ब्राह्मण-श्रेष्ठ दरिद्र चारुदत्त, जो अपनी दानशीलता और परोपकार के कारण अपनी सारी संपत्ति खो बैठता है. ऐसी हालत हो गयी है कि उसके पास अपने बच्चों की इच्छा-पूर्ति के लिए कुछ भी नहीं बचता. इस नाटक की नायिका है उज्जयिनी की सबसे धनवान गणिका वसंतसेना, जो चारुदत्त के इन्हीं गुणों की वजह से उससे प्रेम करती है और जब प्रेमी के पुत्र रोहसेन को मिट्टी की गाड़ी के बदले सोने की गाड़ी के लिए ज़िद करती देखती है, अपने सारे ज़ेवर बेचकर प्रेमी-पुत्र को ‘स्वर्ण शकटिका’ भेंट कर उसकी इच्छा पूरी करती है.


संस्कृत के प्राध्यापक मेरे जातिभाई का सपने में प्रवेश

अब समय आ गया है, जब मैं आपको वह सूचना दे  दूँ, जिसकी वजह से मुझे इस आख्यान की पांचवी किश्त लिखने के लिए मजबूर होना पड़ा.

कुछ वर्ष पूर्व मेरे एक सजातीय संस्कृत के प्राध्यापक ने, जो दो दशक पहले सेवा-मुक्त हो चुके हैं, बेहद गोपनीय तरीके से एक दिन रहस्योदघाटन किया कि उनके पैक-पूर्वजों में से एक खस-सम्राट का उज्जयिनी के राजा शूद्रक के साथ उठना-बैठना था.

‘जिन्दगी भर संस्कृत के श्लोक रटते-रटते आपका दिमाग फिर गया है भाई साहब!’ मैंने सपने में ही उनसे कहा, ‘कलको आप कहेंगे, अलकापुरी से देवगिरी आश्रम पर पहुंचा शापग्रस्त यक्ष आपके नाना की 1008वीं पीढ़ी का मामा था... ये देवभाषा है भाई साहब, इसे समझने और इसके भीतर घुसने के लिए अनवरत साधना और भाषा का अनुशासित संस्कार चाहिए, जो थोकदारों के खून में नहीं है. अब आप रिटायर हो चुके हैं, बेहतर है कि आप खुद को उस दुनिया से काट लें और अपना समय भजन-कीर्तन और नाती-पोतों की सेवा में लगाएँ.’

मेरी बात सुनकर वह जरा भी विचलित नहीं हुए. 


‘मैंने कालिदास के सारे नाटक बड़े ध्यान से पढ़े हैं भाई. पूर्व-मेघ में वर्णित सभी रास्तों का एक-एक विवरण मैं तुमको बता सकता हूँ. मुझे तो यह भी मालूम है कि उस रास्ते की किन-किन खास जगहों के बारे में कालिदास बताना भूल गए थे. उनको अपनी प्रेयसी के पास पहुँचने की इतनी जल्दबाजी थी कि बात-बात में वह शॉर्टकट ले लेते दिखाई देते हैं...’ 

एक लाचार नज़र से वह मुझे घूरने लगे, मानो कह रहे हों, जातभाई होते हुए भी मैं उनकी बात पर विश्वास नहीं कर रहा हूँ.

हाशिये में चली गयी बातचीत को सीधे रास्ते पर लाकर वो बोले, ‘ये वो ज़माना था भाई साहब, जब हमारे खस-पूर्वज भारत में नए-नए आए थे, यानी ईसा की पहली सहस्राब्दी के शुरू में. जाने कब से हमारे परिवारों में किम्वदंती चली आ रही है कि हमारे वह पुरखे, जिनका मैंने उल्लेख किया, उज्जैन-प्रवास के दिनों में वसंतसेना की दासी मदनिका के प्रेमी शार्विलक के कमरे में कई दिनों तक रहे थे. शार्विलक ने ही उन्हें महाकाल की नगरी उज्जैन का विस्तार से भ्रमण कराया था और वो धन्य हुए थे.’ जितने उत्साह और धन्यता के साथ प्राध्यापक मित्र बता रहे थे, उसे देखते हुए उनकी बात पर अविश्वास करने का मेरे पास कोई कारण नहीं था; वो मेरे सजातीय हैं;  सोचा, उनका मन रखने के लिए ही सही, मुझे उनकी बात मान लेनी चाहिए; भले ही एक कौतूहलवर्धक समाचार के रूप में ही सही.

शायद यही कारण है कि आज भी जब वह मिलते हैं, हमेशा की तरह गदगद भाव से इस बात का जिक्र करना नहीं भूलते.



कुछ समय पहले प्राध्यापक मित्र ने मुझे एक और सनसनीखेज खबर सुनाई, ‘भाई साहब, आपको मालूम है, राजा शूद्रक सचमुच के शूद्र थे.’ मेरे कान के पास अपनी फुसफुसाहट को पूरी ताकत से फुंफकारते हुए उन्होंने अपनी बात को विस्तार दिया, 


‘जैसे संस्कृत के पंडितों के बीच यह विवादास्पद है कि राजा शूद्रक क्षत्रिय था या शूद्र, ठीक उसी तरह हम लोगों के बीच भी तो यह विवाद आज तक बना हुआ है कि थोकदार लोग ठाकुर होते हैं या खसिये! और पहाड़ के पंडितों-ठाकुरों में तो यह बात हमेशा चर्चा का विषय रही है कि ये खसिये सवर्ण तो बिलकुल नहीं होते, भले ही आप उन्हें शूद्र न मानें! ये लोग आज के ओबीसी टाइप कुछ होते हैं...’

थोड़े विश्राम के बाद उन्होंने फिर मुझे झटका दिया, ‘असल में खस लोग ठाकुर तो बिलकुल नहीं होते, चाहे वो कुमाऊँ-गढ़वाल के हों या नेपाल-हिमांचल के...’ कुछ पल के लिए उन्होंने अपनी ज़ुकाम भरी नाक मेरे कान से हटाई, पुराने रहस्य को स्थायी-भाव के रूप में सुरक्षित रखते हुए बोले, ‘नेपाल में तो आज भी मानते हैं कि कुलीन ब्राह्मणों  और ठाकुरों की शूद्र औरत से जो संतान पैदा होती है, उसे खासिया कहते हैं... लेकिन आप परेशान न हों, ये हम लोगों पर लागू नहीं होता. ये लीजिए, विकिपीडिया की इन पोस्टों को ध्यान से पढ़ लीजिए’, उन्होंने मेरी आँखों के सामने अपनी कंप्यूटर की स्क्रीन बिछा दी:

“शूद्रक नामक राजा का संस्कृत साहित्य में बहुत उल्लेख है. ‘मृच्छकटिकम’ इनकी ही रचना है. जिस प्रकार विक्रमादित्य के बारे में अनेक दंतकथाएं प्रचलित हैं, वैसे ही शूद्रक के विषय में भी अनेक दंतकथाएं हैं. ‘कादंबरी’ में, ‘विदिशा’ में, ‘कथा सरित्सागर’ में ‘शोभावती’ तथा ‘वेतालपंचविंशति’ में वर्धन नामक नगर में शूद्रक के राजा होने का उल्लेख है. विद्वानों में इस विषय को लेकर मतभेद है कि राजा शूद्रक किस वर्ण के थे, लेकिन ‘मृच्छकटिकम’ के कई उल्लेखों से ज्ञात होता है कि शूद्रक दक्षिण भारतीय थे तथा उन्हें प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था. वे वर्ण-व्यवस्था में विश्वास रखते थे और गायों तथा ब्राह्मणों का विशेष आदर करते थे. शूद्रक का समय छठी शताब्दी था.”

इसके फ़ौरन बाद उन्होंने एक अन्य पोस्ट दिखाई, 

“कुछ लोग कहते हैं, शूद्रक कोई था ही नहीं, एक कल्पित पात्र है. परन्तु पुराने समय में शूद्रक कोई राजा था इसका उल्लेख ‘स्कन्दपुराण’ में मिलता है. बाण ने अपनी ‘कादंबरी’ में राजा शूद्रक को अपना पात्र बनाया है पर यह नहीं कहा कि वह कवि भी था. महाकवि भास ने एक नाटक लिखा है जिसका नाम ‘दरिद्र चारुदत्त’ है. ‘दरिद्र चारुदत्त’ भाषा और कला की दृष्टि से ‘मृच्छकटिकम’ से पुराना नाटक है. ऐसा लगता है कि शूद्रक कोई कवि था, जो राजा भी था. वह बहुत पुराना था परन्तु कालिदास के समय तक उसे प्रधानता नहीं दी गई थी; या कहें कि जिस कालिदास ने सौमिल्ल, भास और कविपुत्र का नाम अपने से पहले बड़े लेखकों में गिनाया है, उस सूची में इसका नाम नहीं दिया है. शूद्रक का बनाया नाटक पुराना था, जो निरंतर सम्पादित होता रहा और बाद में प्रसिद्ध हो गया. हो सकता है, वह भास के बाद हुआ हो. भास का समय ईसा की पहली या दूसरी शती माना जाता है.”

मेरी आँखों पर वह लगातार अपनी पैनी नज़र रक्खे हुए थे. ज्यों ही मेरी आँखों ने वह पोस्ट ख़त्म की, फ़ौरन एक और पोस्ट आँखों के सामने पेश कर दी, “‘मृच्छकटिकम’ महाराज शूद्रक की कृति मानी जाती है जो भास और कालिदास की भांति राज कवि हुए हैं. ‘मृच्छकटिकम’ ईसवी प्रथम शती के लगभग की रचना कही जा सकती है. कहा जाता है, भास प्रणीत ‘चारुदत्त’ नामक चतुरंगी रूपक की कथावस्तु को परिवर्धित कर किसी परवर्ती शूद्र कवि के द्वारा ‘मृच्छकटिक’ की रचना हुई है. वस्तुतः इसकी कथावस्तु का आधार ‘बृहत्कथा’ और ‘कथासरित्सागर’ में वर्णित कथाओं में मिलता है.” इतना कहकर उन्होंने मेरी आँखों को विराम दे दिया.

चलिए, इतनी सारी जद्दोजहद के बाद यह प्रमाण तो मिल ही गया कि इतिहास में एक शूद्र राजा हुआ था जो कवि भी था. हालाँकि प्रथम से छठी शताब्दी तक मुख्यधारा के कवियों ने उसे ‘कवि’ मानने से इनकार कर दिया था. आखिर, एक शूद्र कवि को मुख्यधारा का कवि घोषित होने में पांच-छह शताब्दियाँ तो लगनी ही थीं!... दूसरी ओर इक्कीसवीं सदी के प्रथमांश में हिंदी की मुख्यधारा के कवियों को दर्जनों कहानियां लिखने के बावजूद एक थोकदार लेखक को आरक्षण के दायरे में रखने की हिम्मत तो नहीं ही हो सकती थी, अलबत्ता वाम-दक्षिण, पूरब-पश्चिम सभी विचारधाराओं के वाहक बुद्धिजीवियों ने बिना एक पल बर्बाद किये, गनीमत है, कि उसे फ़ौरन अपनी बिरादरी से शूद्र घोषित कर दिया. खैर, इस विषय पर विमर्श कभी बाद में मौका मिलने पर.



मेरे सजातीय प्राध्यापक मित्र की बातों का आधार जो भी रहा हो, उनकी बातों ने मुझे दो हजार साल पुराने पहाड़ी लोगों के बारे में एकदम नयी जानकारियां दीं. झूठ नहीं बोलूँगा, मैं भी दूसरे लोगों की तरह यह समझे बैठा था कि जिन दिनों उज्जयिनी, पाटलिपुत्र और नालंदा जैसे संपन्न नगरों का पूरी दुनिया में डंका बजता था, हमारा थोकदारी समाज आज की ही तरह मैदानी लोगों को देखते ही भागकर घने जंगलों की गुफाओं में छिप जाता रहा होगा. पढ़ा-लिखा होना तो दूर, अक्षर-ज्ञान तक उनके लिए दूर की कौड़ी रही होगी. बाज़ार-हाट और वैश्यालय तो होते नहीं थे, ऐसे में मेकअप और बॉडी-कट-आउट की उन्हें कैसे जानकारी हो सकती थी. हालाँकि यह बात हमें बचपन से ही हैरत में डालती रही थी कि जिन यक्षिणियों को भारत की सबसे सुगठित-पुष्ट देह वाली पहाड़ी सुंदरियों के रूप में हजारों वर्षों से याद किया जाता रहा है, और जो पूरे शरीर के सिर्फ कमर पर एक बंध धारण करती हों, वो कैसे सभ्य और समाज के लिए अनुकरणीय हो सकती हैं.

मगर दूसरी ओर यह बात भी तो विचार योग्य है कि जहां के स्त्री-पुरुष मिलकर लकड़ी, ऊन, चमड़े वगैरह की बारीक़ कारीगरी के लिए आज तक जाने जाते रहे हों, जो सैकड़ों की संख्या में अपने भैंसों, याकों, पहाड़ी कुत्तों और भेड़ों के झुण्ड के साथ विराट चरागाहों में निर्भीक घूमने वाले चरवाहे रहे हों, वो किसी बाहरी आदमी को देखकर डर के मारे भाग जाते होंगे, समझ में आने वाली बात तो नहीं लगती... न उन्हें अपढ़ कहा जा सकता है! उन्हें कम-से-कम पोशाक के मामले में तो ज़ारबा, गोंड और भील महिलाओं के साथ और दिमाग के मामले में इस आख्यान के लेखक ‘लक्ष्मण सिंह बिष्ट’ उर्फ़ ‘ट्यूब लाइट’ की तरह खड़ा तो किसी हालत में नहीं किया जाना चाहिए.

अपने प्राध्यापक मित्र की इस बात ने भी मुझे सोच में डाल दिया था कि जब उस ज़माने में गणिकाएँ और संभ्रांत स्त्रियाँ तो छोड़िए, उनसे भी पहले की सीता-द्रौपदी आदि राज रानियाँ एक-से-एक बढ़िया सिल्क और शिफोन की साड़ियाँ और लकदक गहने पहनती हों, पहाड़ों में रहने वाली औरतें नंगे बदन कैसे रहती होंगी, जब कि यहाँ उन दिनों भी मध्य और दक्षिण भारत की अपेक्षा कहीं अधिक ठण्ड तो पड़ती ही थी, बर्फ तो गिरती ही रही होगी. प्राध्यापक मित्र की बातें सुनकर मुझे खुद के द्वारा वर्षों तक संचित इस अज्ञान पर दया आई कि इतनी छोटी-सी बात मेरे दिमाग में पहले क्यों नहीं घुसी होगी. मुझे उन चित्रकारों और कला-प्रेमियों के बारे में सोचकर भी हैरानी हुई जिन्होंने पहाड़ी युवतियों की ज्यादातर तस्वीरें छाती उघड़ी बनायीं थीं. खास बात यह थी कि हमारे ही क्षेत्र के कला-प्रेमियों ने ऐसे चित्रों की प्रशंसा की थी. प्राध्यापक मित्र के अनुसार जब उनकी ओर से ऐसी आशंकाएं व्यक्त की जाती हैं तो मेरी ही तरह उनसे भी कहा जाता है, ये कला की बारीक बातें हैं जो थोकदारों के दिमाग में आसानी से नहीं घुसेंगी.

प्राध्यापक मित्र ने एक दिन मुझसे यह भी कहा कि क्या ये बात आपको हैरान नहीं करती कि सभी इतिहासकार इस बात की गवाही देते हैं कि पहाड़ों में सारी सवर्ण जातियां मैदानी क्षेत्रों से यहाँ आई हैं और वही अपने साथ सारा ज्ञान-विज्ञान यहाँ लाए थे. मानो यहाँ सिर्फ शूद्र रहते हों जिनका अपना कोई समाज नहीं था, जो हमेशा एक-दूसरे से झगड़ते रहने वाले कबीलों के अराजक समूह थे. यह बात भी कही जाती है कि जब यहाँ नगर और विश्वविद्यालय ही नहीं थे तो आप यह दावा कैसे कर सकते कि आप सभ्य थे. क्या आपको नहीं लगता कि पहाड़ी आदमी, खासकर थोकदार, एक अविश्वसनीय फैंटेसी के बीच जीते हुए अपनी सारी जिन्दगी चैन से गुजार देने वाली संसार की एक दुर्लभ प्रजाति है.

बहुत सारी बातों के बाद प्राध्यापक मित्र ने निष्कर्ष-रूप में कहा, ‘मुझे मालूम है, जिन दिनों उज्जैन में वसंतसेना को सुन्दरता का प्रतिमान समझा जाता था, पहाड़ों में हिडिम्बा को; और जिन दिनों मुग़ल दरबार में मुमताज महल सौन्दर्य की प्रतिमान थी, उन दिनों हमारे यहाँ चंद राजाओं के शासन काल में उनके सामंत मधिया सौन की प्रेमिका कमला बामणी पैकों के सौन्दर्य का सर्वश्रेष्ठ मानक थी.’



ठीक इसी बिंदु पर मेरे प्राध्यापक भाई साहब मात खा गए. हालाँकि बाद में उन्होंने मेरी जिज्ञासा का ऐतिहासिक तर्कों के साथ समाधान किया, तो भी यह सवाल किसी भी पाठक के दिमाग में कभी भी उठ सकता है कि चाहे मुग़ल काल ही क्यों न हो, एक ब्राह्मणी कैसे पैक-कन्या हो सकती है. यानी संस्कृत ‘यक्षिणी’, पालि ‘जक्खिनी’ और देशज ‘जाख वाली’. हैरत में डालने वाली बात यह है कि लोक में ‘यक्ष’ का पालि अपभ्रंश ‘जक्ख’ और उसका देशज रूप ‘जाख’ हजारों साल बाद आज भी हमारे गाँवों में उसी रूप में जीवित है, जिन गाँवों में हमारे-आपके जैसे सामान्य थोकदार आज भी रहते हैं, एक जैसी बोली का इस्तेमाल करते हैं, मगर इन हजारों सालों के बीच हमारे नागरिक समाज ने इस यक्षी और जाख वाली को राक्षसी और पिशाचिनी के सेक्स सिम्बल से नीचे नहीं उतारा.

एक बात और मेरे थोकदारी दिमाग में अनुत्तरित रह गयी. उस ज़माने में मधिया पैक का पुरखा खस-राजा काली कुमाऊँ से इतनी दूर उज्जैन तक गया कैसे होगा? जाहिर है कि वह कालिदास के यक्ष की तरह मेघ मार्ग से तो नहीं ही गया होगा, बावजूद इसके कि हमारे राष्ट्रीय मंत्रिमंडल के युवा सदस्य भविष्य में देश के खगोलविदों की मदद से यह न सिद्ध कर दें कि उस ज़माने में हमारे वैज्ञानिकों को बादल-वायुयान नामक तकनीक की जानकारी थी. मगर यह तो भविष्य की बात होगी, आज की तारीख में तो देवीधुरा से उज्जैन तक का करीब एक हजार किलोमीटर का रास्ता (अगर वायु मार्ग यानी हवाई जहाज से जाते, तो भी करीब आठ सौ किमी. होता, जो उन दिनों उपलब्ध नहीं था) पार करने में हमारे खस-सम्राट को कितना वक़्त लगा होता! ध्यान देने की बात है कि उन दिनों बस, टैक्सी, उबर या रिक्शा-साइकिल-बाइकजैसी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं. बैल गाड़ी हो सकती थी, मगर पहाड़ों में तो वह भी नहीं थी.

मैं, जैसा कि आप अपने मन में सोच रहे हैं, कोई गप्प नहीं हांक रहा हूँ. मधिया पैक (जिसे इतिहासकार मैद सौन या मैद पैक भी कहते हैं) और कमला बामणी की लोक कथा आधी सहस्राब्दी से पहाड़ों के लोक जीवन में लगातार सुनी-सुनाई जाती रही है. जाहिर है, लोक कथाओं के पीछे कोई-न-कोई आधार तो होता ही है. मुझे यह कहने में भी कोई गुरेज़ नहीं है कि हमारा हिंदी समाज आज भी हिंदी की साहित्यिक कहानियों की अपेक्षा अपनी लोक-कथाओं पर अधिक भरोसा करता आया है और उनको पढ़ने-सुनने में ज्यादा रुचि लेता है.




पहले इतिहास की बानगी. सोलहवीं सदी में कुमाऊँ क्षेत्र में राज करने वाले चंद राजा लक्ष्मी चंद (१५९७-१६२१) के समय में उसका वीर सामंत था यह मैद सौन उर्फ़ मधिया पैक. इतिहासकार स्वीकार करते हैं कि इसी राजा लक्ष्मी चंद के छोटे बेटे रुद्रचंद ने रुद्रपुर गाँव (वर्तमान उधमसिंह नगर) बसाया था जो हाल के कुछ सालों में सियासी कारणों से ऐसा पनपा कि जिसने इस इलाके को पहले देखा था, आज उसे पहचान नहीं सकता. आज यह उत्तराखंड का सबसे आधुनिक और समृद्ध शहर है. लेकिन हमें फ़िलहाल इस शहर के मधिया पैक कनेक्शन के बारे में बताना है.

मधिया पैक और उसकी सर्वगुण संपन्न प्रेमिका कमला बामणी की मार्मिक, दर्दनाक लोक कथा मुझे समय-समय पर मेरे मित्रों- प्रोफ़ेसर शेर सिंह बिष्ट, इतिहासकार डॉ. राम सिंह और तराई के एक प्रगतिशील कृषक प्रताप सिंह धानक ने सुनाई थी. मेरा निवेदन है कि इस कथा के चरित्रों और स्थानों को इतिहास के साथ न जोड़ें, यह लोक में चला आ रहा किस्सा है जिसे सिर्फ मनोरंजन भरी किस्सागोई के रूप में सुनने-सुनाने की जरूरत है.
लोक-कथा पेश है.


कुमाऊँ की लोककथा: मधिया पैक और कमला बामणी


सैकड़ों साल पहले तल्ला सालम की रंगोड़ पट्टी में पनार नदी किनारे बसे सौन-डूंगरा गाँव में खस जाति का एक पैक रहता था माधो सिंह सौन, जिसे लोग मधिया पैक या मैद सौन के नाम से जानते थे. मधिया रंगोड़ पट्टी का मशहूर पैक था जिसने छोटी उम्र में ही सालम, चालसी और काली कुमूँ के पैकों के सामने अपने कौशल का प्रदर्शन कर पूरे इलाके में नाम कमा लिया था. जब आस-पास के सारे पैकों को उसने पछाड़ दिया तो इसकी खबर राजा तक पहुंची. राजा ने उसे अपने दरबार में बुलाया. उस ज़माने में कुमाऊँ में चन्दों का राज था और राजा लखमीचंद एक प्रतापी राजा माने जाते थे. राजा ने ऐलान किया कि वो मधिया की कुश्ती खस देश की राजधानी गढ़ी चम्पावत के चारों आलों (घरानों) – बोरा, कार्की, तड़ागी और चौधरी - के पैकों के साथ देखेगा; कोई और पैक भी उसे ललकारने के लिए आज़ाद होगा और मधिया को बिना किसी ना-नकुर के उसके साथ लड़ना होगा. अगर उसने शुरू के तीन दाँवों में से एक में भी पैक को पटक दिया तो राजा उसे मल्ला और तल्ला सालम का सामंत नियुक्त कर लेगा. राजा के इस प्रस्ताव पर मधिया राजी हो गया.

खबर चारों ओर आग की तरह फैली. चम्पावत गढ़ी के पैकों के दाँव दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे. राजधानी के आयोजन की वजह से सभी की रुचि इस प्रतियोगिता में हो गई. किसी ज़माने में दानव वंश के राजा की राजधानी थी चम्पावत गढ़ी. ऐसा माना जाता था कि देवताओं ने इस गढ़ी को कुम्भकर्ण की खोपड़ी पर बसाया था. जब पांडवों के भाई भीम लंका गए तो उन्होंने अपनी पत्नी हिडिम्बा को, जो चम्पावत की ही थी, अपने पराक्रम का परिचय देने या अपने जीवित होने के साक्ष्य के रूप में कुम्भकर्ण की खोपड़ी को यहाँ फैंक दिया था. कुछ समय तक उसमें पानी भरा रहा, लेकिन जब उसका पानी गिड्या नदी के प्रवाह के रूप में बह गया तो उसके ढालों पर लोग बसते चले गए. उस पानी से एक कुंड बना जिसे आज भी घटकू (घटोत्कच) देवता के मंदिर के रूप में लोग पूजते हैं 
(इस इलाके में मौजूद ‘दुनऊ को बिरखम’ - दानवों का वीरखम्बा - जो आज भी वहां मौजूद है उसमें निर्माण तिथि १३५० ईस्वी अंकित है - लेखक).

राजा ने राजपुरोहित को बुलाकर मल्ल-युद्ध के तिथि-बार की घोषणा की और सभी संभ्रांत जनों को इस अवसर पर आमंत्रित किया. तय तिथि को देश भर के मल्ल चम्पावत गढ़ी में एकत्र हो गए. एक-से-बढ़कर एक चौड़े कन्धों, गठीली भुजाओं, ऊंची उठी हुई धनुषाकार भौहों और काली नदी के भारी-भरकम गड़लोड़ों के सामान मजबूत गोल सिरों वाले पैक. लोहाघाट के जंगल से मंगाकर देवदार की महकती लकड़ी के खूबसूरत आसन तैयार किये गए, सालम से पनार तट की गुलाबी बासमती, रंगोड़ पट्टी के भैसों का गाज्यो-खिलाया घी और देवीधुरा के मालपुए मंगाए गए. आमंत्रित अतिथियों को भेंट करने के लिए दारमा-जोहार देश से रंग-बिरंगे ऊनी अंगवस्त्र और सम्मान-पट्टियाँ मंगाई गयीं.

कई दिन पहले से ही अखाड़े की खुदाई, मिट्टी की छनाई, चौहद्दी के लिए शीशम के तराशे गए खंभे, मजबूती से गुंथे हुए भेकुवे-बाबिले के रेशे से बंटे मोटे-मोटे रस्से तैयार किये जाने लगे. चारों कोनों पर राजा की कीर्ति-पताकाएं और उनके बीच राज्य-प्रतीकों की कढ़ाई किये गए रेशमी झालर सजाये गए. चारों ओर वीरता और समृद्धि का वातावरण छा गया. अखाड़ा और मंच जब तैयार हो गए, अतिथियों के लिए उनके पद और विशिष्टता के हिसाब से स्थान निर्धारित किये गए. राज्य के अलग-अलग स्थानों से मंगाए गए ढोल-नगाड़ों और तुरहियों को अखाड़ा मंच में पूरे सम्मान के साथ सजा दिया गया.

सबसे आगे ऊंचे आसन पर राज-परिवार, फिर पुरोहित-परिवार, सपरिवार मंत्रीगण और सेनानायक अपनी वरिष्ठता के अनुसार बैठ गए. अपनी परम्परागत पोशाकों में राज-कन्यायें तो मौजूद थी हीं, स्त्रियों के लिए निर्धारित स्थान में मल्ल-युद्ध में रुचि रखने वाली अन्य लोगों की स्त्रियाँ और कन्याएँ भी बड़ी मात्रा में उपस्थित थीं.

इस सारे औपचारिक परिदृश्य के बीच सबका ध्यान सहज ही आकर्षित कर रही थी, राज-परिवार और पुरुषों के बीच बैठी राज पुरोहित की सुन्दर विदुषी कन्या कमला पंत्याण. कमला अन्य युवतियों के साथ न बैठकर अपने राज पुरोहित पिता पंडित केवलानंद पन्त के बगल में राजसी आसन पर बैठी थी. लोगों को आश्चर्य हो रहा था, मगर सभी लोग जानते थे कि कमला राज पुरोहित की मुँहलगी बेटी है. वरिष्ठता क्रम में राज पुरोहित का स्थान भले राजा के बाद आता हो, प्रत्येक मामले में राज-पुरोहित का ही निर्णय अंतिम होता था. राजा उनका सबसे अधिक आदर करते थे, ऐसे में जनता क्यों न करती! उसे कोई चुनौती देने का साहस नहीं कर सकता था. यही कारण था कि प्रतिद्वंद्वी आयोजनों में अनेक बार कमला अपने निर्णय को सभासदों पर आरोपित करने की ज़िद करने लगती और ज्यादातर अपनी बात मनवा भी लेती.

आयोजन में मधिया सौन के अलावा पांच बलिष्ठ पैक विशेष रूप से बुलाये गए थे. इनमें पहला था गुमदेश के खुरसिंग गाँव का नेधा धौनी का वंशज भदुरिया, जिसके पुरखे ने औरतों की बेइज्जती करने वाले अपने ही बिरादर की, लाख समझाने के बावजूद न मानने पर, दोनों टाँगें काट डाली थीं. दूसरा पैक रौ-चौभैसी पट्टी के चौखुटिया आगर गाँव का मोतिया सौन था. मोतिया सौन का जागर आज भी उसके इलाके में गया जाता है जिसमें कहा गया है कि मोतिया सौन बारह बीसी (240) वर्ष और उसकी पत्नी गांगां सौन्यानि नौ बीसी (180) सालों तक जब निःसंतान रहे तो उन्होंने अपने कुल देवता झांकर सैम से प्रार्थना की कि उनके पास अपने जमाली बासमती के खेतों,चौखंडे मकान, गाड़ (नदी), घट(पनचक्की), लेख (बांज के जंगल) में चरने वाली भैंसों को पालने के लिए कोई औलाद नहीं है; ऐसे में वो कैसे चैन से मर सकते हैं; इस पर द्रवित होकर झांकर सैम ने उन्हें वीर पैक-पुत्र का वरदान दिया और कहा कि तुम्हारी हर पीढ़ी में एक वीर पैक जरूर पैदा होगा.

तीसरा पैक चार-आल पट्टी का ही भारी-भरकम फुंगर का बोरा था, जिसे देखते ही लोग डर से कांपने लगते थे. लोग कहते कि फुंगर का बोरा बाहर से जितना गुस्सैल दिखाई देता था, अन्दर से उतना ही सरल था और उसके सामने किसी बेकसूर को हाथ लगाने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी. उसका गुस्सा उसकी भौंहों में चमकता था. इस वक्त बोरा अपने आसन पर महात्मा की तरह बैठा हुआ था.

चौथा पैक आज के टनकपुर-पिथौरागढ़ मार्ग पर बसे कर्क्यूड़ा गाँव का खर्क कार्की था. खर्क कार्की बाद में डोटी इलाके में मिथक बन चुके संग्राम सिंह का पुरखा था. एक वीर गाथा में उसे समुद्र सिंह का पुत्र, रूप सिंह का पोता और राजा तिरमोली (त्रिमल) चंद का बांका या वीर कहा गया है. खर्क कार्की अपनी पैनी आँखों और बांकी चितवन से मुस्कराते हुए पूरे अखाड़े को तौल रहा था, चुपचाप.

पांचवां पैक भी चम्पावत गढ़ी का ही बिज्जी तड़ागी था और कई मल्ल युद्धों में लोग उसके मल्ल कौशल से अच्छी तरह परिचित थे. बिज्जी जब साँस लेता था, आस-पास के पेड़-पौंधे तक कांपने लगते थे, आकाश में पखेरू उड़ने लगते थे. उसका ऊपर-नीचे उठता सीना दर्शकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ था.

और सबसे खास तो माधो सिंह सौन था ही, जिसे लोग मधिया पैक या मैद सौन के नाम से पुकारते थे, जो आज का नायक था.


राजा के ताली बजाते ही नियत समय पर मल्ल युद्ध शुरू हुआ. लोगों की साँस शरीर के जिस हिस्से में थी, वहीं पर अटकी रह गयी. पहली बाजी भदुरिया धौनी के साथ थी. अपने पुरखों की अतिशयोक्तिपूर्ण चर्चा की वजह से भदुरिया अहंकारी और आलसी हो गया था, इसलिए मधिया के पहले ही दाँव में वह उखड़ गया. राजा ने गुस्से से चारों ओर देखा और भदुरिया को अखाड़े के रिंग से बाहर निकलने का इशारा किया, जिसे देखते ही वह मानो दम दबाकर भगा. फ़ौरन रौ-चौभैसी पट्टी के चौखुटिया आगर गाँव का मोतिया सौन अखाड़े में आ धमका, मानो कोई धमाका हुआ हो, आंधी आई हो. पड़ौसी गाँव का होने के कारण मैद सौन मोतिया के दाँवों से परिचित था इसलिए उसने पहले से ही उसकी काट सोच रखी थी. राजा को बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि मोतिया इतनी जल्दी उखड़ जायेगा, गुस्से से वह चीख उठा और मोतिया को अपने सिंहासन से ही गरियाने लगा. राजा के गुस्से को देखकर मोतिया की सारी ताकत गुब्बारे की तरह फुस्स हो गई और वह जिस गति से आया था, उसी गति से चीखते हुए अखाड़े से बाहर कूद गया.

इस सारे आयोजन में सबसे अधिक मुखर थी कमला पंत्याण. रह-रह कर वह चिल्लाती हुई अखाड़े की चौहद्दी के पास जाने की ज़िद करती मगर उसका राज-पुरोहित पिता उसे किसी तरह रोके हुए था. बार-बार वह मधिया पैक को उत्साहित करती और यह अहसास दिलाती कि इन कीड़े-मकौड़ों को अखाड़े के भीतर वह कैसे सहन कर रहा है! कमला की इस अतिरंजित वाह-वाही से राजा, राज पुरोहित और दूसरे सामंतों को खीझ हो रही थी, लेकिन राजा के बगल में बैठी होने के कारण कोई कुछ कह नहीं सकता था. बाकी पैकों पर उसका जो भी प्रभाव पड़ा हो, मधिया पैक के अन्दर की सारी ऊर्जा और उसके द्वारा संजोये गए गोपनीय दाँव इस प्रशंसा से बाहर छलक आए और वह, हालाँकि नियमों के अन्दर रहकर ही, अधिक आक्रामक हो गया. बीच-बीच में मधिया रूपसी कमला की ओर देखता और आँखों-ही-आँखों में हैरानी व्यक्त करता कि कुश्ती की इतनी बारीक़ जानकारी उसे कैसे हासिल हुई. कमला उसी तेजी से उसे अपना मूक प्यार लौटाती और दुगुने उत्साह से बाकी सारे पैकों को कीड़े-मकौड़े सिद्ध करती. यही कारण रहा कि इलाके के एक-से-एक वीर पैक मधिया के सामने ढेर होते चले गए. राजा ने उसे गले लगाया और विजय का प्रतीक दारमा से मंगाया गया ड्रैगन की कढ़ाई वाला ऊनी अंग-वस्त्र पहनाया. माधो सिंह सौन चम्पावत गढ़ी का सम्मानित सामंत नियुक्त हो गया.

समय बीतने के साथ कमला और मधिया बड़े हुए. दोनों का गाँव आसपास ही था, इसलिए मिलना-जुलना होता रहा. मधिया का गाँव सौन डूंगरा था, जब कि कमला का भनोली, जो तल्ला सालम के आर्थिक-सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित हो रहा था. धीरे-धीरे मधिया पैक ने अपने पुरखों की तरह अपना कारोबार बढ़ाना शुरू कर दिया और उसकी प्रसिद्धि खस देश के विशिष्ट सामंत के रूप में स्थापित हो गई. 



 
मधिया की दो शादियाँ हुईं. पहली पत्नी से कसिया सौन और दूसरी से जुड़वां बेटे हुए. दूसरी पत्नी के प्रति अधिक आसक्त होने के कारण उसे ‘लाड़िलि’ और पहली पत्नी को तिरस्कृत होने के कारण ‘छडैलि’ के नाम से पुकारा जाता था. इस प्रकार सौन परिवार पनार नदी के तटवर्ती मैदान बिनसर में अपनी दो-तीन सौ गर्भिणी और दुधारू भैंसों के साथ रहने लगा. उस ज़माने में पैक लोग अपनी भैंसों के झुण्ड के साथ ही रहते थे और नर भैंसों को अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ युद्ध करने के लिए भी तैयार करते थे. मैद सौन की भैंसों में ‘चनुवा’ नमक भैंसा बेहद ताकतवर, गुस्सैल और गजब का फुर्तीला था. बचपन से ही उसने चनुवा को नदी की विपरीत धारा में तैरने, कई मन की विशाल शिलाओं को उठाकर इधर से उधर ले जाने और दूसरे भैंसों के साथ लड़ाते हुए अपनी तरह अजेय बना लिया था. ये भैंसे युद्ध के समय राजा की सेना के साथ भी युद्ध-क्षेत्र में जाते थे.

इतने सुखमय जीवन के बावजूद मधिया के जीवन में एक टीस धरी रह गयी. बचपन से कमला के साथ प्रेमी के रूप में जुड़ा मधिया जातिगत बंधनों के कारण विवाह तो नहीं कर सकता था, मगर वे दोनों हमेशा एक-दूसरे की यादों में खोये रहते. कमला ने अपने माता-पिता से मधिया के साथ विवाह करने की बात कही, लेकिन यह किसी भी रूप में संभव नहीं था. माँ का रुख इस मामले में कुछ हद तक लचीला था, मगर सभी जानते थे कि यह इच्छा आकाश-कुसुम तोड़ने जैसी थी. जब इन दोनों के प्रेम-सम्बन्ध सार्वजनिक हो गए, कमला ने आजीवन अविवाहित रहने का फैसला कर लिया. हालाँकि ये दोनों एक-दूसरे पर जान न्योछावर करते थे, लेकिन राज परिवार और मधिया सौन की पत्नियाँ इस सम्बन्ध को लेकर खुश नहीं थे. सभी कोई-न-कोई परेशानी पैदा करने की फ़िराक में रहते थे. लेकिन मुख्य सामंत होने के कारण किसी की हिम्मत नहीं होती थी.

राजा के आदेशानुसार उस ज़माने में योद्धाओं के सारे मंत्रपूजित अस्त्र-शस्त्र कुल-पुरोहित के घर में ही रहते थे जिनमें, किम्वदंती के अनुसार, कुछ अजेय ब्रह्मास्त्र भी शामिल होते थे. ये अस्त्र अनाज से भरे हुए बाईस मन के विशालकाय भकारों (टोकरों) के नीचे दबे रहते थे जिन्हें केवल पैक ही उठा सकते थे.

अपनी आखिरी लड़ाई में राजा के आमंत्रण पर मधिया सौन को डोटीगढ़ के राजा से युद्ध लड़ने के लिए जाना पड़ा. यात्रा की पहली रात को मधिया की पत्नी लाड़िली को सपना हुआ कि उसका पति भनोली के रास्ते जाएगा तो घर वापस लौटकर नहीं आ पायेगा. (भनोली में मधिया सौन की प्रेमिका कमला पंथ्याण रहती थी.) सुबह लाड़िली ने अपने पति को भनोली के रास्ते जाने से मना किया तो प्रेमिका की आसक्ति और मर्दानगी के अहंकार में अंधे हो चुके मधिया ने उसकी एक नहीं सुनी और वह भनोली के रास्ते ही राजधानी चम्पावत की ओर चल  पड़ा. उस रात वह अपनी प्रेमिका कमला पंथ्याण के घर पर ही ठहरा. पुरोहित-पुत्री कमला ने उसके स्वागत में अनेक व्यंजन तैयार किये. कमला ने जब मधिया से लाड़िली के सपने के बारे में सुना तो उसके मन में भी अपने प्रेमी को लेकर अनेक शंकाएं उठने लगीं. कमला ने मधिया सौन को एकांत में बुलाकर कहा कि वह खाना खाने से पहले उसकी माँ से यह वचन ले ले कि वह खाना तभी खायेगा जब वह उसे भकार के नीचे रखे मंत्र-पूजित खड्ग को उसे देगी. राज-पुरोहित घर में नहीं थे, लेकिन पुरोहित-पत्नी जानती थी कि खड्ग को हर कोई विशाल टोकरों के नीचे से नहीं निकाल सकता है, मधिया सौन अगर सच्चा पैक होगा, तभी वह खड्ग निकल पायेगा; उसने इजाजत दे दी. मधिया सौन ने एक ही झटके में अनाज से भरा बाईस मन का टोकरा उठाया और उसे किनारे रख दिया. लेकिन वह नीचे रखा अजेय ब्रह्मास्त्र लेना भूल गया.

भोजन परोसा गया. दिन भर का भूखा मधिया खाने पर लपका. ज्यों ही उसने थाली से पहला कौर उठाया, कमला ने उसे सचेत करने के अंदाज़ में बिल्ली को भगाने का बहाना बनाते हुए आवाज दी, ‘शिरू-शिरू. बाग ल्ही जाल त्वीकें, खाण बखत आँख बुज ल्हीं छै.’ (भाग जा बिल्ली, तुझे बाघ खायेगा, खाते बख्त आँखें बंद कर लेती है.) मधिया सौन कमला का आशय तुरंत समझ गया और उसने पुरोहित-पत्नी की अनुमति से खड्ग लेकर अपनी बगल में रख लिया.

कुछ दिनों के बाद मधिया सौन युद्ध में शत्रु को पराजित करने के बाद अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए इतना उतावला था कि ब्रह्मास्त्र को युद्ध भूमि में ही भूल आया. एक दिन पहले ही मधिया पैक दो दिन की यात्रा के बाद अपने घर घुघती कोट से दसौला, काकड़ीघाट, रामेश्वर, खुटीगाड़ होते हुए ऐंचोलीखान पहुंचा था, जहाँ उसने थोड़ी देर ठहरकर पानी पिया; उसके बाद सोर होते हुए काली नदी पार करके बाली चौम्बुड़ पहुंचा था. इसी मैदान में मधिया सौन और उदिया झाकुरी की सेना के बीच मल्ल-युद्ध हुआ जिसमें मधिया ने दोपहर ढलने तक उदिया की सेना को परास्त कर दिया. विजय के उल्लास में वह इतना डूबा था कि बिना वक़्त गंवाए उसी रास्ते भनोली की ओर लौट पड़ा.

रास्ते में सिमलखेत और बडियाड़ के गाँवों को पार करने के बाद मधिया सौन ने ढेकुली के जंगल को पार किया ही था कि गौजी के जंगल में लकड़ी काट रहा गजुवा लाटा उसे देखकर घबरा गया. उसने सोचा, मधिया पैक उसे मारने के लिए आया है, डर के मारे वह पेड़ पर चढ़ गया. ज्यों ही मधिया सौन उसके पास से गुजरा, गजुवा ने अपने कुल्हाड़े से उस पर वार किया जिससे उसका सिर बीच से फट गया. लेकिन मधिया सौन इतनी आसानी से हर मानने वाला नहीं था. उसने फ़ौरन अपनी कमर में बंधे फैंटे को खोला और फटे हुए सिर को जोड़कर फैंटे से कस कर बांध लिया. 

उसके बाद वह गजुवा लाटे को उसी के कुल्हाड़े से मारकर भनोली अपनी प्रेमिका कमला पंथ्याण के घर पहुंचा. भनोली पहुँचकर ही उसने कमला की गोद में आखिरी साँस ली. किम्वदंती है कि मधिया सौन की चिता पर उसकी दोनों पत्नियों – छडैलि और लाड़िलि के साथ प्रेमिका कमला पंथ्याण – सभी एक साथ सती हो गयीं.
(क्रमशः)
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जन्म : 25  अप्रैल, 1946  अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव
पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास 'गर्भगृह में नैनीताल' का प्रकाशनअब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित.
इन दिनों नैनीताल में रहना.
मोबाइल : 9412084322/batrohi@gmail.com  
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  1. हरि मृदुल27 जून 2020, 10:37:00 am

    बहुत गजब हैं ये संस्मरण।

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  2. बहुत ही सुन्दर।बटरोही जी की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम ही कम है। हार्दिक बधाई।

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  3. इस आख्यान को पहली क़िस्त से ही पढ़ रहा हूं। हर क़िस्त के बाद आख्यान के रचनाकार से विस्तृत चर्चा भी करता रहा हूं। चार क़िस्तों तक शब्दों की ईंटों से रखी गई नींव और हर क़िस्त के साथ ऊपर उठती निर्माणाधीन इमारत की दीवारों को भी ग़ौर से देखता, बताता आ रहा हूं। लेकिन, आज पांचवीं क़िस्त पढ़ कर वास्तु शिल्पी के डिजायन का स्वरूप स्पष्ट होने लगा है। दूसरे शब्दों में कहूं तो जैसे अब तक साजों की डोरियां और तार कसे जा रहे थे, आज आख्यान में उनकी लय और ताल सुनाई दी। लोककथाओं की लय और इतिहास की ताल। इस क़िस्त ने पठनीयता को भी बढ़ाया है हालांकि कहा यह भी जाता है कि साहित्यिक रचना या कृति में पठनीयता भी हो, यह ज़रूरी नहीं है।
    जिस कालखंड और भोगौलिक क्षेत्र में आख्यान पाठकों को पात्रों और घटनाओं से रू-ब-रू करा रहा है, वे उस कथा भूमि को आत्मसात कर रहे हैं। लेकिन, यह संशय और जिज्ञासा बनी हुई है कि देखें, वह तीसरा थोकदार वर्तमान में अपनी खुद की एकदम पृथक पृष्ठभूमि के साथ कैसे इस कथाभूमि में प्रवेश करता है।

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  4. समय का सच. अलग अलग कालखंडों के बिखराव में उपज रहे द्वन्द बहुत ही प्रमाणिकता के साथ अनुभवसिद्ध अवलोकन पर खरे उतार दिये गए हैं. इस विमर्श के जो तनाव दबाव कसाव हैं वह स्वतः ही सामयिक हो उठे हैं. कई बार पढ़ना पड़ा तब जा कर वो रेशे थोड़े थोड़े समझ में आ रहे जो आज अपनी जड़ें फैला रहे पर उनका खाद पानी उनकी क्या गत बनाएगा यह बहुत बड़ा प्रश्न है जिसे साफ साफ सामने रख दिया गया है.
    बहुत साल पहले महर ठाकुरों का गाँव का नाट्य रूपांतरण किया था बहुत समय लगा था बहुत छटपटाहट भी हुई थी आजफिर वैसा ही अनुभव हो रहा. कथ्य ही ऐसा है !

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  5. हम जिस संस्कृति में जन्म लेते हैं वो हमारी अस्मिता का निर्धारण करने में अहम भूमिका निभाती है. लेकिन एक सचेत व्यक्ति के पास हमेशा दी गई अस्मिता से बाहर निकलने और उसे पुनर्परिभाषित करने की क्षमता होती है. बटरोही जी की मुख्य थीम यही अस्मिता है लेकिन वे इससे कैसे डील करेंगे और एक सजातीय हिंदू कट्टरपंथी पात्र को वे कैसे पेश करेंगे ये आगे के हिस्सों में ही स्पष्ट हो पाएगा. पाठक ये ज़रूर जानना चाहेंगे कि जातिवाद का शिकार नैरेटर क्या जाति का नाश करना चाहेगा या जातीय अस्मिता में ही फंसकर रह जाएगा. कुमाऊं की किंबदंतियों और इतिहास के सहारे कहानी बुनना दिखाता है कि लेखक की क्षेत्रीय संस्कृति की समझ गहरी हैं.

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    1. Laxman Singh Bisht Batrohi इसके लिए अगली किश्तों का इंतज़ार करना ही पड़ेगा. अभी से कुछ भी अनुमान या संकेत देना भी लेखकीय स्वायत्तता को शंका की नज़र से देखना होगा. वैसे भूपेन की बात विचारणीय तो है. मेरा यह चरित्र नायक है या खलनायक, यह तो उसका चरित्र गठन ही तय करेगा. मैं अपने नायक को अभी से कैसे खलनायक कह दूँ? कुछ भी कहना उसकी भ्रूण हत्या नहीं होगी? सच तो यह है कि इतना अधैर्य क्यों? अगली किश्त की प्रतीक्षा करें. जो भी होगा, अच्छा होगा; निश्चय ही रचनात्मक स्तर पर. मैं तो इस चरित्र को रू-ब-रू जानता भी नहीं, न जानना चाहता. मेरा चरित्र वह बच्चा है जिसने मेरी तरह की विषम परिस्थितियों के बीच अपने लिए जगह बनाई और निश्चय ही आज वह उस प्रक्रिया में शिखर पर है. उसके वर्तमान रूप की मुझे न जानकारी है, न मुझे उससे लेना-देना. उस परिवार की भी मुझे जानकारी नहीं है. (मैंने एक क़िस्त में जो फोटो दिए थे, वे भी कहीं से उठाकर.) उस विचारधारा का मैं विरोधी रहा हूँ, शुरू से ही. मगर इसका मतलब यह कैसे हो गया कि मैं उस गठन-प्रक्रिया का भी विरोध करने लगूं जो एक अबोध बच्चे ने अपनी जिन्दगी के उठान के दिनों में अपनाई. हम सब अपनी अस्मिता बनाते हैं, और हम सबके अपने रास्ते और सामाजिक-सांस्कृतिक दबाव होते हैं. मुझे उन तहों की जड़ तक जाने दीजिये. उसके मूल्यांकन की बात तब आएगी जब चरित्र खड़ा हो जायेगा. वैसे मेरी बात भूपेन के साथ विस्तार से पहले ही हो गयी थी, मुझे लगता है, वो आश्वस्त नहीं हुए. अब तो उन्हें हर हाल में प्रतीक्षा करनी ही है. हाँ, एक बात पर मुझे सख्त ऐतराज है जब भूपेन मेरे लिए 'जातिवाद का शिकार' पद का प्रयोग करते हैं. में जाति से न प्रताड़ित हूँ, न उसका शिकार. मैंने अपनी जाति खुद नहीं बनायीं. अपनी विन्यास प्रक्रिया में उसका जिक्र करना जातिवाद कैसे हो गया? बात-बहस ही नहीं होगी तो उसके अंतर्विरोध कैसे उभरेंगे? ये कैसी विडंबना है कि किसी हिन्दू के सामने जाति का जिक्र करो तो उसका पहला वाक्य होता है. 'भाई, मैं जातिवाद पर विश्वास नहीं करता.' क्या भारत में जाति और जातिवाद एक ही चीज हैं? भूपेन तो सामाजिक विषयों के अध्येता हैं, कम-से-कम उन्हें ऐसे नहीं रियेक्ट नहीं करना चाहिए.

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    2. लगता है मैं अपनी बात को सही तरह से व्यक्त नहीं कर पाया या बटरोही जी ने उसे ग़लत समझ लिया. “जातिवाद का शिकार नैरेटर” से मेरा मतलब था कि नैरेटर ने समाज में व्याप्त जातिवाद को महसूस किया है. ना कि नैरेटर जातिवादी ग्रंथि से पीड़ित है! ये बात अब तक आयी पांचों किश्तों में किसी न किसी रूप में आती है कि कुमाऊंनी समाज में थोकदार समुदाय “भेद-भाव” का शिकार रहा है. मसलन मटियानी के प्रेम वाले किस्से में इसकी एक झलक देखी जा सकती है. या समाज शास्त्रीय नज़रिये से देखें तो इस समुदाय को अपनी जनसंख्या के अनुपात में समाज में स्थान नहीं मिल पाया है. सामाजिक पदानुक्रम में आज भी ये पिछड़ा हुआ है. ये एक अंतरर्विरोध ही है कि एक तरह से ये समाज ब्राह्मणवाद का शिकार रहा है और ख़ुद भी ब्राह्मणवाद को प्रैक्टिस करता रहा है. ब्राह्मणवाद का सीधा सा मतलब यहां पर सामाजिक ऊंच-नीच में भरोसा रखने और उसे प्रैक्टिस करने वालों से है. वैसे बटरोही जी के लेखन से ही ये बात भी उभर रही है कि थोकदार समुदाय कुमाऊं में “दबंग” प्रवृत्तियों के साथ मौज़ूद रहा है. इसलिए इसे दलित समुदाय की तरह उत्पीड़ित तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता है!
      “जातिवाद का शिकार नैरेटर” का ज़िक्र करते हुए मेरी फ़िक्र ये थी कि कहीं उत्पीड़न की पहचान करने के बाद भी नैरेटर जातीय विमर्श में उस तरह से तो नहीं फंस जाएगा जैसा समकालीन दलित विमर्श नज़र आता है. मैं अक्सर सोचता हूं कि क्या जाति को क्लेम कर जातिवाद का नाश किया जा सकता है? या जातिविहीन समाज बनाने के लिए हर तरह की जाति का नाश ज़रूरी है?
      उम्मीद है कि मेरे स्पष्टीकरण से बटरोही जी की शिकायत दूर हो जाएगी. आगे की किश्तों का इंतज़ार है.

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  6. लगता है किसी विशाल ग्रंथालय के तहखाने में घूम रहे हैं, जहां पुस्तकों के भीतर सोई हुई इतिहास और मिथक लोक की कथाएं उठ-उठ कर सामने आती हैं और कभी संक्षिप्त तो कभी विस्तृत अपनी झलक दिखाती हुई तहखाने के किसी कोने में छिप जाती हैं। उनके अदृष्य होते ही लेखक कुछ हड़बड़ाहट - सी में दाएं-बाएं से ढूंढ कर वर्तमान की डोर पकड़ लेता है।

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