बटरोही : हम तीन थोकदार













हिंदी के वरिष्ठ कथाकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट 'बटरोही' ने इसी २५ अप्रैल को अपना ७५ वां जन्म दिन मनाया है, उन्हें अब यह लगने लगा है कि जिस कहानी को अब तक वे लिखने से टालते रहें हैं उसे लिख ही देना चाहिए. इसमें कितनी कथा है, कितना यथार्थ, इसमें वृतांत है तो वह आईना भी है जिसमें हम अपनी ख़ुद की शक्ल देखना चाहते हैं. सामुदायिक इति को कथा के तत्व के साथ बुनने में बटरोही को महारथ हासिल है. इधर उनके प्रकाशित उपन्यास इसी शैली के हैं.


प्रस्तुत है तीन थोकदारों का वृतांत जिसमें एक तो वह खुद ही हैं. शेष दो कौन हैं ?   



हम तीन थोकदार             
बटरोही                                              




ह कहानी बहुत पुराने ज़माने की है, हालाँकि इसका सम्बन्ध आज के हिंदुस्तान का साथ है. आज के ज़माने में थोकदार तो होते नहीं, इसलिए नयी पीढ़ी की समझ में यह कहानी आसानी से नहीं आएगी. वक़्त के साथ शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं, कभी-कभी इतने कि अर्थ का अनर्थ तक हो जाता है. पचहत्तर साल पहले जब मैं इस दुनिया में आया था, तब भी हमारे बुजुर्गों को थोकदार कहा जाता था, हालाँकि मानो दिखावे के लिए; मगर अतीत में सचमुच के थोकदार होते थे, इस कारण इस शब्द का हमारी जातीय स्मृति के साथ अन्तरंग सम्बन्ध है.

पहाड़ों में जमीन की जोत का स्वरूप मैदानों की तरह का तो होता नहीं, सीढ़ीदार खेतों के बीच हरेक के पास छिटके हुए जमीन के टुकड़े होते हैं, जिनमें इतनी पैदावार नहीं होती कि वो मैदानों के जमींदारों की तरह शान से जिंदगी बसर कर सकें. पुराने ज़माने से खेतिहर किसानों के बीच से ही किसी सयाने भू-स्वामी को राजा के द्वारा लगान इकठ्ठा करने का अधिकार दिया जाता था जो थोकदार कहलाते थे. यही थोकदार राजनीतिक-आर्थिक मामलों में राजा का सलाहकार भी होता था. बाद में जनसंख्या विस्तार के साथ गाँवों की संख्या बढ़ी और उसी अनुपात में थोकदारों की भी. राजा के द्वारा तय किये गए नियमों के अधीन होते हुए भी थोकदार के पास शक्ति और अधिकारों की कुछ हद तक स्वायत्तता हुआ करती थी. अपने गाँव-इलाके में वह हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के वरिष्ठता क्रम के अनुसार अपने गाँवों का सामाजिक ढाँचा निर्मित करता था.

थोकदार खेतिहर राजपूत होता था, जो अपने समाज के धार्मिक ताने-बाने और कर्मकांडों की पूर्ति के लिए एक ब्राह्मण परिवार को गाँव में बसा लेता था और खेती-बाड़ी तथा दूसरे जीवन-यापन सम्बन्धी कामों का लिए शिल्पकारों को. ये शिल्पकार ही एक तरह से सामाजिक अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ होते थे; जो अपनी मेहनत से थोकदार के निर्देशों पर पूरे समाज को गतिशील रखते थे.
इस कहानी के नायक ऐसे ही तीन थोकदार हैं जो न सिर्फ तीन अलग-अलग यथार्थों और काल-खण्डों के हैं, इस कहानी के लेखक के अनुभव जगत में से अंकुरित तीन अलग-अलग स्थितियां हैं. आप चाहें तो इन्हें यथार्थ संसार में पैदा हुए एक पहाड़ी लेखक की कल्पना में से रूपाकार ग्रहण किये हुए तीन आभासी चेहरे मान सकते हैं ; या विस्तार में फैली हमारी पृथ्वी के मध्य-हिमालय क्षेत्र के रंगमंच में जन्म लेने के बाद एक अभिनेता के चेहरे के तीन आयाम मान लें; या प्रकृति निर्मित आभासी दुनिया में से जन्म लेने वाले यथार्थ और फिर उस यथार्थ में से मनुष्य निर्मित आभासी चेहरे के तीन आयाम भी मान सकते हैं.

⇚ हानी का पहला थोकदार मैं खुद हूँ– भारत के उत्तराखंड प्रान्त के अल्मोड़ा जिले की सालम पट्टी के बेहद पिछड़े छानागाँव में पैदा हुआ लक्ष्मण सिंह बिष्ट, जिसे दस साल की उम्र में गाँव से शहर जाने के बाद कहानीकार बनने का शौक चर्राया, इसलिए खुद ही उसने अपना नया नाम रख लिया ‘बटरोही’.

दूसरा थोकदार इस कहानीकार के द्वारा 1988 में लिखे गए उपन्यास ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ का नायक है थोकदार कल्याण सिंह बिष्ट, जो भारत की आजादी से पहले अल्मोड़ा-चमोली जिलों के सीमान्त पर बसे एक काल्पनिक गाँव ‘तलचट्टी’ का रहने वाला है. गाँव से जब वह पहली बार शहर गया तो उसने जिद ठान ली कि वह अपने गाँव को शहर जैसा ही बनाएगा. उसका देश भारत आजाद हो चुका था और उसने सुना कि नए भारत में शहर नामक ऐसी जगहें जन्म ले रही हैं, जो उसकी थोकदारी व्यवस्था को ख़त्म करके नए खुशहाल समाज का ढाँचा तैयार करने में लगे हैं. इस बदले हुए भारत को देखने के लिए वह शहरों की ओर चल पड़ा.

शहर पहुँचने के बाद उसे जो नया पहाड़ी समाज मिला वह गाँव के सामुदायिक ताने-बानों को झटके से तार-तार कर चुका स्वार्थी समाज था. उसने देखा, लोगों के आपसी विश्वास और सद्भाव से गुंथे उसके तरल समाज से एकदम उलट नए सरोकारों और आदमी की निजी चिंताओं वाला अपने में ही सिमटा एक क्रूर समाज उसके सामने था. उसके अन्दर घुसने के बाद उसे लगा कि उसका गाँव तो शहर नहीं बन सकता था, अलबत्ता खुद के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उसके थोकदारी समाज को ही शहर बनना पड़ेगा. दोनों में से किसी एक को चुनना होगा. उसने शहर और गाँव के बीच पुल बनाने की भरसक कोशिश की, मगर उसके गाँव लौटने तक उसका गाँव  खुद ही लपक कर शहर के आगोश में आ चुका था. उसके पास अब कोई रास्ता नहीं था. धीरे-धीरे उसका कायांतरण भी शहर के रूप में होने लगा.

अपने-आपको और अपने गाँव को अनेक तकलीफ भरी कोशिशों के बाद बदलने के बाद एक दिन जब वह शहर बन चुके अपने गाँव पहुँचा तो उसके गाँव में एक युवा प्रशासनिक अधिकारी आया था जिसने उसके गाँव को उसी सदाशयता में बुनने की कोशिश की जो कभी थोकदार कल्याण सिंह बिष्ट का सपना था. मगर अब न वह खुद बदल सकता था और न उसका गाँव. उसकी समझ में नहीं आया कि इस नए गाँव को स्वीकार करे या अस्वीकार! तो भी, जिंदगी भर की खुशियों से भरा थोकदार उस अधिकारी को आगोश में लेकर झूम उठा. थोकदार ने उसके सामने सवालों की झड़ी लगा दी कि इतने दिन तक वो कहाँ था!  ख़ुशी से वह इतना बावला हो गया कि उसे पता तक नहीं चला, तलचट्टी का वह प्रशासनिक अधिकारी कब उसकी गोद में दम तोड़ चुका था.

तीसरा थोकदार न तो यथार्थ चरित्र है, न आभासी. निश्चय ही वह सदाशयी थोकदार परम्परा का हिस्सा है, मगर उसका जीवन उसी तरह के संयोगों से निर्मित है जिनसे हमारे दोनों पूर्व थोकदारों का बना है. पौड़ी गढ़वाल की यमकेश्वर तहसील के पंचुर गाँव में आज से अड़तालिस साल पहले 5 जून, 1972 को जन्मे इस असाधारण प्रतिभाशाली बच्चे अजय सिंह बिष्ट ने बिना किसी तरह के बड़बोले दावों के ही अपने अड़ियल ‘थोकदारी’ तौर-तरीकों से हमारे भारत देश की सांस्कृतिक शक्ल ही बदल डाली. ठेठ पहाड़ी शक्ल-सूरत वाले, सीधे-सादे इस लड़के के मन में, जब वह हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से बी. एस-सी. कर रहा था, सिद्धार्थ की तरह विराग पैदा हुआ और वह पढ़ाई-लिखाई छोड़कर गोरखपुर के एक योगी की शरण में चला गया जिसने उसका उपनाम रख डाला ‘आदित्यनाथ’. एक ईमानदार फारेस्ट रेंजर पिता से सादगी के संस्कार प्राप्त यह होनहार थोकदार-पुत्र आज हमारे देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुखिया है. लॉक डाउन के दिनों के इस आभासी और यथार्थ के मिलेजुले अभिनेता को भारतीय रंगमंच में परदे के पीछे आसानी से पहचाना जा सकता है.

वर्तमान भारतीय रंगमंच के ये तीनों अभिनेता आजकल भले ही अपने नाम के साथ ‘थोकदार’ उपाधि न लगाते हों, तीनों ही अपनी कार्य-प्रणाली से पक्के थोकदार हैं. अपने अक्खड़पन, किसी हाल में समझौता न करने और पुराने ज़माने के योगियों की तरह जिंदगी का लुत्फ़ उठाने की जिद से भरे हुए.     

⇚ तीन थोकदारों की इस कहानी को मैं हर हाल में दुनिया छोड़ने से पहले लिख डालना चाहता हूँ. आज साल 2020 के अप्रैल की 18 तारीख है और एक सप्ताह के बाद 25 अप्रैल, 2020 को मेरे परिवार के लोग मेरा 75वा जन्मदिन मनाने जा रहे हैं इसलिए यह कहानी मैं अपने पचहत्तरवे साल में अवश्य लिख डालना चाहता हूँ. अन्धविश्वासी मैं कभी नहीं रहा, फिर भी जाने क्यों मेरे कानों में लम्बे समय से रह-रह कर पैंसठ साल पहले एक झोलाछाप ज्योतिषी की यह आवाज गूँज रही है कि भगवान ने मेरी उम्र सिर्फ पचहत्तर साल तय की है, इस कारण यह मेरी जिंदगी का आखिरी साल है.

उस वक़्त मेरी उम्र दस-बारह साल की थी और मैं अपने ममकोट (ननिहाल) पट्टी लखनपुर के गाँव पनुवानौला गया हुआ था. अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग पर बसे इस छोटे-से गाँव में सड़क के किनारे पच्चीसेक साल का मामूली शक्ल-सूरत वाला एक गँवई लड़का लोगों का हाथ देखकर उनका भविष्य बाँच रहा था. कौतूहलवश मैंने भी उसकी ओर अपना हाथ बढ़ा दिया. उसने पहले मुझे अपनी हथेली में पाँच आने रखने को कहा और बताया कि अगर उसकी भविष्यवाणी गलत साबित हुई तो वह मेरे पैसे वापस कर देगा. उसका दावा था कि वह आज से लेकर मेरी मृत्यु तक की सारी महत्वपूर्ण घटनाओं का सच्चा चिट्ठा सामने रख देगा. मैंने उसकी चालाकी भांपते हुए आशंका व्यक्त की कि इस बात का क्या भरोसा कि वह मेरे पैसे ऐंठकर भाग नहीं जायेगा; उसने कहा, वह सारी बातें लिखकर मुझे देगा, और कोई भी बात गलत होने पर वह मुझे मेरे घर के पते पर आकर पकड़ सकता है. इस शर्त पर मैं राजी हो गया और मैंने उसे पांच आने दे दिए. उसने मेरे भविष्य के बारे में जो भी बातें बताईं उन्हें अपने पता लिखे एक कागज पर लिखकर मुझे दे दिया.

पैसठ साल तक पहाड़ी गाँव की एक मरियल दुकान से ख़रीदे गए कागज के एक पन्ने को सुरक्षित रखने की बात की सच्चाई पर विश्वास करना नींद में देखे गए सपने को सच सिद्ध करने की जिद से कम नहीं है; अलबत्ता बचपन की उस उम्र में इस तरह की बातों में सभी लोग भरोसा कर लिया करते ही हैं, मैंने भी कर लिया. अगले दसेक सालों तक वह पर्चा मेरे पास सुरक्षित रहा, इसका कारण यह था कि उस दौरान की सभी बातें सच निकली. नास्तिक होते हुए भी मैं उस ज्योतिषी के प्रति आस्थावान हो गया और मेरी आस्था संयोगों में बढती चली गई. उसने इस बीच मेरे घर में या परीक्षा में आने वाले संकट या उपलब्धियों को लेकर जो भविष्यवाणी की थी, एकदम सच निकली थी. 

मैंने उसके दिए पते पर उसे खोजने की कोशिश की, मगर उस पते पर उस नाम का कोई ज्योतिषी नहीं रहता था. मजेदार बात यह हुई कि करीब पचास-साठ सालों तक उसकी ज्यादातर बातें सही साबित हुईं. हो सकता है कि कई बातें गलत भी सिद्ध हुई हों, मगर उनकी ओर मेरा ध्यान नहीं गया, अलबत्ता उसकी इस बात पर मुझे भरोसा पैदा होता चला गया कि एक सफल और उपलब्धिपूर्ण जिंदगी जीने के बाद पचहत्तर की उम्र पार करते ही मेरी मृत्यु हो जाएगी.
   

⇚ पिछले कुछ महीनों से मुझे विचित्र किस्म के सपने आ रहे हैं, खासकर 22 नवम्बर से पूरे देश में फैली कोरोना महामारी के कारण लागू लॉक डाउन के बाद से. पूरा देश अपने घरों के अन्दर कैद है; बाहर एकदम सन्नाटा है. घरों के अन्दर कैद लोग भी इतनी धीमी आवाज में बातें करते हैं कि उस आवाज को दूसरे कमरे में बैठे सदस्य को भी सुनने में कठिनाई होती है. 

हो सकता है कि कल रात देखे गए सपने का सम्बन्ध हंगरी के भारतीय राज-दूतावास से आई उस मेल के साथ हो जिसमें अमृता शेरगिल कल्चरल सेंटर, बुदापैश्त की निदेशक तनुजा शंकर ने दुनिया भर में फैले कोरोना संकट के दौरान हिंदी लेखकों और हंगरी में हिंदी पढ़ रहे विद्यार्थियों के द्वारा आयोजित होने वाले इंडो-हंगेरियन साहित्य से जुड़े ऑन-लाइन ‘वेबनार’ में भाग लेने के लिए मुझे भेजे गए निमंत्रण के साथ हो. वह मेल 17 अप्रैल, 2020 की थी जिसमें उन्होंने बुदापैश्त विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की अध्यक्ष डॉ. मारिया नेज्येशी का हवाला देकर मुझसे वेबनार में भाग लेने का विशेष आग्रह किया था. बता दूं, तेईस साल पहले 1997 से 2000 तक मैंने भारतीय विदेश मंत्रालय की सांस्कृतिक आदान-प्रदान योजना के अंतर्गत हंगरी की राजधानी बुदापैश्त के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में वहां के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाई थी.

मगर इस कहानी का सम्बन्ध उस सपने के साथ नहीं है; न मारिया के साथ और न तनुजा शंकर के भेजे मेल से, अलबत्ता मेरे गाँव फतेहपुर के इस फार्म हाउस के साथ जरूर है जहाँ मैं पिछले पांच महीनों से रह रहा हूँ.

आजकल दिखाई दे रहे अजीबोगरीब सपनों का सम्बन्ध अवश्य ही फतेहपुर और बुदापैश्त की एक-जैसी भौगोलिक स्थिति के साथ हो सकता है. यह तुलना पाठकों को बेवकूफ़ी लगेगी, खासकर इसलिए कि कहाँ यूरोप की सबसे बड़ी नदी डेन्युब के किनारे बसा हुआ दुनिया का सबसे खूबसूरत सपनीला शहर बुदापैश्त और कहाँ नैनीताल जिले के भाबर में बसा फटीचर गाँव फतेहपुर. मगर हंगरी से लौटने के बाद मुझे इन दोनों जगहों में गजब की समानता महसूस होती रही है, खासकर, प्रवास के दिनों में मुझे शरण देने वाले शहर के ‘बुदापैश्त’ नामकरण की वजह से.
हंगेरियन में ‘बुदा’ शब्द का अर्थ है ‘पहाड़’ और ‘पैश्त’ का अर्थ ‘मैदान’. प्राचीन रोमन साम्राज्य में गर्म पानी के स्रोतों और विशालकाय एम्फीथियेटरों वाले इस खूबसूरत शहर को यूरोप की सबसे बड़ी नदी दुना (डेन्युब) के दोनों किनारों पर इस तरह बसाया गया है कि इसका आधा हिस्सा पहाड़ी है और आधा मैदानी. पहाड़ी और मैदानी भाग को डेन्युब नदी के नौ विशाल खूबसूरत पुलों के जरिये जोड़ा गया है. ये पुल अपने शिल्प और सौन्दर्य में पूरी दुनिया में अनूठे हैं.

हमारा फतेहपुर गाँव भी ‘बुदापैश्त’ जैसा ही है. उत्तर की ओर गाँव के सिरहाने की तरह बिछी 
नैनीताल की पहाड़ियां और दक्षिण की ओर विस्तार में फैला मैदानी शिवालिक अंचल. हो सकता है, इसी कारण मुझे लॉक डाउन के दिनों में फतेहपुर में देखे हुए सपने की पृष्ठभूमि में बुदापैश्त शहर के कोलोश्तोर उत्सा मोहल्ले का वह घर दिखाई दिया हो जहाँ मैंने जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन गुजारे.

दरअसल, 17 अप्रैल की रात को फतेहपुर के घर में मुझे जो सपना दिखाई दिया था, उसमें मेरा बिस्तर बुदापैश्त के कोलोश्तोर उत्सा के इसी घर में लगा था. वहीं पर आधी रात को नैनीताल के मेरे इतिहासकार-साहित्यकार दोस्त ‘पद्मश्री’ शेखर पाठक का फोन आया था और हमेशा की तरह उसने सबसे पहले ‘थोकदारज्यू पैलाग’ कहकर मेरा अभिवादन किया था. सपने में था, इसलिए मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया कि जिन दिनों मैं बुदापैश्त में था, शेखर मुझे ‘थोकदारज्यू’ संबोधन से नहीं पुकारता था. अपने इस नए संबोधन को 17 अप्रैल की रात को सुनकर मुझे इसलिए ताज्जुब नहीं हुआ था, क्योंकि शेखर मुझे हाल के दो-तीन सालों से इसी नाम से पुकारता रहा है; मुझे सपना इसलिए भी यथार्थ लगा क्योंकि लॉक डाउन के दिनों में बतियाने के लिए मैं हर वक़्त किसी अन्तरंग दोस्त की तलाश में रहता था. भले ही यह बातचीत आभासी होती थी, फिर भी मुझे उस दौरान बेहद सुकून मिला था.

सपने में मैंने शेखर के साथ कोरोना वाइरस को लेकर घंटों बातें कीं और यह विश्वास व्यक्त किया कि संकट का यह दौर एक दिन हमारा पिंड जरूर छोड़ देगा... उसके बाद हम लोग अपने ही घर में कैद अपने प्यारे देश भारत और लॉक डाउन को लेकर बातें करते रहे. हमने क्या-क्या बातें की, इसके डिटेल मुझे याद नहीं हैं, मगर मेरे लिए उसके द्वारा बार-बार किये जाने वाले संबोधन ‘थोकदारज्यू’ की गूँज 18 अप्रैल, 2020 को पूरे दिन तक अपने दिमाग में महसूस होती रही थी.


⇚ वास्तविकता यह है कि थोकदारों को मैंने भी नहीं देखा है. हमारे परिवारों में कहा जाता था कि थोकदार बड़े गुस्सेबाज और अकड़ वाले होते हैं, वो किसी की नहीं सुनते, सिर्फ अपने मन की करते हैं. मेरी दादी, जिसे मैंने देखा नहीं था, उनकी यह बात कि ‘थोकदार का दिमाग उसके घुटने में होता’ है, हमारे संयुक्त परिवार में एक किम्वदंती की तरह प्रचलित थी. औरतें पुरुषों की बातें आतंक की तरह एक-दूसरे को सुनाती थीं. औरतें कभी पुरुषों की आँखों की ओर देखकर नहीं, उनके पांवों की ओर देखकर बातें करती थीं और पुरुष अपनी पत्नियों की ओर नहीं, अपने दायें या बाएँ कंधे की ओर देखकर बातें करते थे. वो धरती को माँ मानते थे और अपने जीवन में सिर्फ तीन लोगों का सम्मान करते थे– माँ, मातृभूमि और अपने देवता का. इन तीनों को याद करते ही उनकी आँखें कृतज्ञता से छलक उठती थीं और मांशपेशियाँ फड़कने लगती थीं. उनका कहना था कि उनकी रक्षा के लिए ही वे इस संसार में आए हैं और उनके लिए वह किसी भी वक़्त ख़ुशी से अपने प्राणों की आहुति दे सकते थे, धधकती ज्वाला में कूद कर उनके प्राण बचा सकते हैं.

छुटपन में हमारा ज्यादातर वक़्त इस पहेली को सुलझाने में बीतता था कि किसी का दिमाग उसके घुटने में कैसे हो सकता है! यह जानते हुए कि दिमाग घुटने के नहीं, सिर के अन्दर होता है, दादी की बात को हम झुठला भी नहीं सकते थे. दादी ही हमारे लिए ज्ञान का सबसे मूल्यवान खजाना थी. उनकी बातों को लेकर सवाल उठाने की बात तो हम सोच ही नहीं सकते थे. एक दिन जब मैंने यही बात अपनी माँ और पुरोहित जी की आपसी बातचीत के बीच सुनी तो पता चला कि इसे थोकदारों की प्रशंसा में कहा गया था. माँ हर बात की पुष्टि के लिए पुरोहित जी के पास जाती थी और वह माँ को कोई भी बात इस तरह समझाते थे, मानो संस्कृत के किसी जटिल श्लोक का विश्लेषण कर रहे हों. उनके अनुसार वह संसार की सबसे कठिन देव- भाषा की सरल पहाड़ी भाषा में व्याख्या करते थे. थोकदारों के बारे में दादी के द्वारा कहे गए सूत्र वाक्य की व्याख्या भी वह इस तरह करते थे कि जिस प्रकार घुटना शरीर का सबसे सख्त हिस्सा होता है, कठिन-से-कठिन चोट का भी उस पर असर नहीं पड़ता, ऐसे ही थोकदार के मुंह से एक बार निकली बात को कोई बदल नहीं सकता. पुरोहितजी कहते, माँ और मातृभूमि की रक्षा उसका वीर पुत्र नहीं करेगा तो कौन करेगा!

इसीलिए पुरोहित जी की व्याख्याएँ हमारे परिवारों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक कभी ख़त्म न होने वाली परंपरा की तरह अपनाई जाती थीं, उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता था. पुरोहित जी धर्म के प्रतिनिधि थे इसलिए धर्म की रक्षा का अर्थ पुरोहित जी की रक्षा समझा जाता था. शायद इसीलिए, माँ की तरह हमें पुरोहितजी के चेहरे में भगवान की आभा के दर्शन होते थे. शायद इसीलिए धर्म, ईश्वर, पुरोहित, धरती माता और मातृभूमि के प्रति विश्वास को हम सब लोग तर्कातीत मानते थे. तर्क की उपस्थिति का अर्थ ही इन सारी शक्तियों के अस्तित्व का नकार था, जिसमें थोकदार भी शामिल था. हमें सिखाया गया था कि जिंदगी को सार्थक बनाने के लिए तर्क की नहीं, आस्था की जरूरत होती है, इसलिए सवालों को हमारे दिमागों से निकाल दिया गया था. यह बात हमारी समझ में कभी नहीं आई कि दिमाग का वास्तविक रहवास सिर है, घुटना नहीं.
(क्रमश:)
_____ 
जन्म : 25  अप्रैल, 1946  अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव
पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास 'गर्भगृह में नैनीताल' का प्रकाशनअब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित.
इन दिनों नैनीताल में रहना. 
मोबाइल : 9412084322/batrohi@gmail.com                                           

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  1. मनोज सहाय5 मई 2020, 9:18:00 am

    इस संस्मरण नुमा कहानी ने उत्सुकता पैदा कर दी है. यह हिस्सा बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है. पहाड़ के लोगों का इतिहास जानने के लिए मिल रहा है. ये पात्र किस तरह विकसित होते हैं यह देखना है. बटरोही जी को बधाई वे इसी तरह लिखते रहें.

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  2. स्वप्निल श्रीवास्तव5 मई 2020, 10:09:00 am

    मुझे पहाड़ पर रहनेवाले लोगो से रश्क़ होता है । बटरोही जी पहाड़ पर रहते है । अद्भुत संस्मरण लिखा है उन्होंने ।

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  3. आदरणीय बटरोही जी को मेरा सादर अभिवादन पहुंचे। बेहद रोचक और मन को बाँध लेने वाला वृतांत। आगे के अंशों को पढ़ने की उत्सुकता बनी रहेगी।

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  4. प्रणाम स्वीकार करें ।बटरोही जी आपने बिल्कुल सही व्याख्या की है हमारे मामा हमारे दादा सब यही कहते हैं कि हम थोकदार हैं। और उनकी नाक कभी नीचे नहीं हो सकती आज के समय में भी वह वंश देखते ही हैं।

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  5. दिवा भट्ट5 मई 2020, 3:11:00 pm

    बटरोही जी की कहानी : 'हम तीन थोकदार '. गर्भगृह में नैनीताल की तरह जादुई यथार्थ बुनते हुए अपनी तथा अपने इर्द-गिर्द की कहानी सुनाने की कोशिश दिखाई दे रही है. रोचक होगा. अगले अंश प्रतीक्षित हैं. - दिवा भट्ट, अल्मोड़ा

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  6. बटरोही जी, की बात ही कुछ और है। वह अनन्य गद्य सृजक हैं

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  7. wah-dilchasp-agli kadi ka intzar he

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  8. वाह! ऊंचे जलप्रपात से निकली ध्वनियों को एकाग्रता से सुनने जैसा मंत्रमुग्ध।

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  9. अरे ! तन्मयता से पढ़े जाने वाले कथानक में क्रमश: बहुत बड़े और आकस्मिक अवरोध की तरह आया !
    अब अगले भाग का इंतजार है ��

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  10. रवि रंजन5 मई 2020, 8:01:00 pm

    पाठक को बैठे बिठाए पहाड़ की सैर कराते हुए वहां के कटु यथार्थ से परिचित कराने में समर्थ इस बेहद रोचक और पठनीय रचना के लिए बटरोही जी को साधुवाद।

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  11. आज दूसरी बार पढ़ा,बहुत जकड़ कर रखने वाला है ब टरोही जी का यह आख्यान।कितना व्यापक फलक है।अगली कड़ी की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा हूं।
    - यादवेन्द्र

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