खंजना शर्मा की कविताएँ (असमिया) : अनुवाद रुस्तम सिंह













खंजना शर्मा (जन्म 1978) असम के पाठसाला में रहती हैं. 2019 में उनकी कविताओं का पहला संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक हैपानीर दुआरयानिपानी द्वार. इसके अलावा उनकी कविताएँ असम की कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.
मूल असमिया से इन कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद ख़ुद कवयित्री ने किया है जिनका अनुवाद रुस्तम सिंह ने कवयित्री के सहयोग हिंदी में  किया है. 


असमिया
खंजना शर्मा की कविताएँ                                        
अनुवाद रुस्तम सिंह




1. 
उस खास जगह की राह 
कोई नहीं जानता. 
यहाँ, वहाँ भटकते हैं हम. 
भिन्न-भिन्न सड़कें ले आती हैं हमें 
वापिस उसी राह पर. 
जहाँ ख़त्म होती है राह 
वहीं शुरू होती है हमारी यात्रा. 
इसलिए 
हमें नहीं पता 
किस राह से हम लौटेंगे.

2. 
खिड़की केवल 
रोशनी के लिए है. 
डूब जाती है वह 
प्राचीन पोखर में 
अपने ही अँधेरे को भगाने के लिए. 
बन्द हवा का दुःख 
खुली खिड़की में से 
तलाश रहा है अपनी राह. 
रोशनी की छाया में 
खिड़की गाती है 
आत्मा का गीत.

3. 
हमारे कदम पानी जैसे हैं. 
पिछले साल की 
आधी-भीगी चप्पलें 
अब मिल नहीं रहीं. 
रात की आँख 
अँधेरे से चमकती है. 
एक काला साँप 
मेरी ओर रेंगता है. 
छतों में से 
आग गिरती है 
और भेजों को जला देती है. 
और सब-के-सब पानी पर चलते हैं.

4. 
विदा के समय 
फूलों में से आँसू झरते हैं. 
घास का नन्हा सूखा तिनका 
चिड़िया की चोंच में से 
छूट जाता है. 
एक अनजाना पक्षी 
हमारे हृदय में पंख फड़फड़ाता है. 
एक छाया फैल गयी है. 
वह ज़मीन को हड़पना चाहती है
पानी को हड़पना चाहती है. 
धूप और बारिश को
रोशनी और अँधेरे को
हवा और साँस को. 
ओह चमेली ! 
तुम्हारी कलियाँ कल खिलने वाली हैं.

5. 
एक मछली-काँटा 
खींच लिया गया है 
पानी के भीतर. 
वह डूबने ही वाला है. 
जब पानी सूख जायेगा 
नाव चिपट जायेगी भूमि से.

6. 
सदियों बाद 
मैं लौटी हूँ 
इस जगह को. 
मेरे घर को जाने वाली 
पुरानी संकरी सड़क 
अब निर्जन पड़ी है. 
पता नहीं पेड़ 
कब से मौन खड़े हैं. 
उनका सन्नाटा 
सुदृढ़ करता है 
हवा की उदासी को
अँधेरे की ठण्डक को. 
मुझे कुछ भी याद नहीं
न कोई शब्द
न कोई आवाज़. 
मैं बस वापिस चाहती हूँ 
अपनी भूमि की सुगन्ध
जो पीछे छूट गयी थी. 
पर कुछ भी नहीं होता. 

मैं अपने घर के सामने 
निस्तब्ध खड़ी हूँ. 
हज़ारों घोंघे 
मेरी देह पर रेंग रहे हैं 
और मैं 
एक मूर्ति में बदल गयी हूँ.

7. 
तब भी
पानी गा रहा है 
मछली की 
जमी हुई आँखों में. 
संगीत 
जितना घूमते हुए 
ऊपर उठ रहा है
उतनी ही गहरी है 
न होने की आवाज़. 
रेत 
फिसलती जा रही है 
उँगलियों के बीच में से
यहाँ तक कि रेतघड़ी भी ख़ाली है. 
डूबता सूर्य 
आग फैला रहा है पानी में. 
जाड़े का अन्तिम पत्ता 
गिर गया है कहीं. 
और शंखों की गहराई में से 
उठ रही है 
ठण्डी क़ब्र की ख़ामोशी.

8.
हवा में गूँज रही हैं 
मौन प्रार्थनाएँ. 
झिलमिलाती बत्तियों की 
ख़ुशबू 
निष्ठा को बढ़ा रही है. 
रोशनी रोशनी को राह दिखा रही है. 
पृथ्वी पर 
जला हुआ दीया 
अपने हाथ 
चाँद की ओर फैला रहा है. 
सब लोग 
एक ही प्रार्थना को गा रहे हैं. 
तुलसी के नीचे 
नमी गर्म होने लगी है. 
ओ कि तुम्हारा दीया 
मेरी रोशनी के किनारे पर 
जलने लगे !

9. 
देहरी पर 
एक हरा पत्ता. 
कुचला हुआ. 
जब शब्द कम हों तो 
अभाव महसूस होता है. 
और जो क्षणभंगुर है 
वह स्थायित्व लाता है. 
जो हवा में उड़ता है 
वह ठहर जाता है.

10. 
अपने आँगन में 
वीपिंग विलो मत लगाओ --- 
हम एक-दूसरे को सलाह देते हैं 
जब हम मिलते हैं और विदा लेते हैं. 
हम घर लौटते हैं और 
देखते हैं कि हमारे अपने ही 
पानी जैसे हृदय में 
चुपचाप एक विलो उग रहा है. 
कभी वह झुकता है और नाचने लगता है. 
कभी वह तेजी से इधर-उधर झूलता है
तूफ़ान में भी बचा रहता है. 
अपने ठण्डे आँसुओं से 
वह हमें क़ब्र की राह दिखाता है.

11.
लकड़ी की 
दो पुरानी कुर्सियों के पास 
बैठा है मौन. 
यहाँ एक ठण्डी नदी बह रही है. 
उसमें साँसों की दो निस्तब्ध लहरें हैं. 
पतझड़ के शुष्क पत्ते गीला कर रहे हैं 
मौन की पलकों को. 
उनका घर पेड़ की पत्तियों में है. 
अन्तिम बारिश की 
दो बूँदों की तरह वे बिखर रहे हैं. 

नयी पत्तियाँ आने वाली हैं.
______________________


rustamsingh1@gmail.com

12/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16.01.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3582 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की गरिमा बढ़ाएगी ।

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

    जवाब देंहटाएं
  2. नमस्ते,

    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 16 जनवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. तेजी ग्रोवर16 जन॰ 2020, 8:46:00 am

    सुबह का बेशक़ीमती नज़राना जो कई दिन तक महकेगा। और खंजना की कविताओं के लिए प्यास और से और भड़केगी। मैंने जानबूझकर रुस्तम से न इस कवि का नाम पूछा था न पहले से कविताएँ देखी थीं। इसलिए आज यह फूल इतना सुंदर खिला हुआ जान पड़ता है। वाह, क्या अनुभूति है इन कविताओं में। पानी, खिड़की , वीपिंग विलो सबमें प्राण की अद्भुत धड़क है। और कविताएँ पानी पर चल पाने का एहसास करवाने लगती हैं, अगर आप चलने को एक क्षण आमादा हो जाएं तो। लेकिन ऐसा कर पाने के लिए जिस रूहानियत की दरकार होती है उसी से तो मुख़ातिब है खंजना का रचा हुआ यह पानी-छाया संसार!

    जवाब देंहटाएं
  4. आत्म मुगध करती छोटे में गहरे अर्थ समेटे अभिनव सृजन कवियत्री और अनुवादक दोनों को बधाई ,आम पाठकों तक कविता अनुवाद से ही पहुंच सकती है।
    सुंदर!

    जवाब देंहटाएं
  5. राजलक्ष्मी शर्मा16 जन॰ 2020, 3:05:00 pm

    अद्भुत कविताये हैं खंजना जी की आपके अनुवाद ने न्याय किया है हिंदी की पाठिका होने के नाते मैं समृद्ध हुई । कवियत्री का प्रकृति प्रेम मुझे रोमांटिसिजम के शेली , बायरन और वर्ड्सवर्थ की याद दिला गया । धन्यवाद इस साझा के लिए��

    जवाब देंहटाएं
  6. कृष्ण मोहन झा16 जन॰ 2020, 3:51:00 pm

    अहा!बहुत सुंदर! कितनी पारदर्शी हैं ये कविताएँ! इनमें असम के पानी और घास की बहुत नाज़ुक उपस्थिति है। खंजना जी को बधाई और समालोचन को धन्यवाद! और हाँ, रुस्तम जी को सुंदर अनुवाद करने के लिए ख़ास बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  7. Rustam सर की भाषा को पहचानने के लिए शब्दों की इकॉनमी को समझना पड़ता है. उनके कामों में सब कम ख़र्च होता है बचा बचा कर - उनके लिए शिल्प कम को सजाने जैसा है - कविता में अगर मिनमलिइस्म कुछ होगा अगर तो वह. उनके अनुवादों में भी यह खुले खुले प्रस्तुत है.

    ख़ंजना को पहले नहीं पढ़ा था. असमिया की यह कविताएँ हिंदी में अंग्रेज़ी से होती हुई आयी हैं, सो कुछ संगीत कहीं अगर गया भी होगा तो अनुवादक का अपना संगीत उनको बेसुरा होने से बचाता है. और उनके यहाँ प्रकृति है- जहाँ भी दृश्य भरा गया है, सिर्फ़ प्रकृति से भरा गया है, जहाँ भाव भरे गए हैं, सिर्फ़ प्रकृति है.

    आख़िरी कविता उम्मीद की है -

    लकड़ी की
    दो पुरानी कुर्सियों के पास
    बैठा है मौन.

    यहाँ एक ठण्डी नदी बह रही है.
    उसमें साँसों की दो निस्तब्ध लहरें हैं.
    पतझड़ के शुष्क पत्ते गीला कर रहे हैं
    मौन की पलकों को.

    उनका घर पेड़ की पत्तियों में है.

    अन्तिम बारिश की
    दो बूँदों की तरह वे बिखर रहे हैं.

    नयी पत्तियाँ आने वाली हैं.

    जवाब देंहटाएं
  8. अनिरुद्ध उमट17 जन॰ 2020, 8:17:00 am

    Rustam Singhjiअनुवाद और मूल से परे आप का यह मोहक श्रम कविता मात्र के पास ले जा हमे अकेला छोड़ देता है, जितनी अकेली खुद ये कविताएँ है। ये वे कविताएँ हैं जिन्हें हम नितान्त सन्नाटे के घातक एकान्त में पढ़ना चाहते हैं। यह कवि और अनुवादक की नैसर्गिक जुगलबन्दी का सहज प्रकटन है। कई ऋण ऐसे होते हैं जिनसे हम परिचित होते हैं किंतु कई से हमारा कोई परिचय नहीं होता, वे आत्मीय विकलता के ऋण होते हैं, आप ने ये कविताएँ पढ़ा कर उस ऋण से खुद को मुक्त कर लिया है। Arun Dev Ji, ye samaalochn ki utkrisht prastuti hai. Shukriya

    जवाब देंहटाएं
  9. एक से बढ़कर एक उत्तम रचनाएँ। ज्ञानवर्धक और काव्यात्मकता से परिपूर्ण पंक्तियों को पढ़ाकर पढ़कर अतीव प्रसन्नता हुई। सादर नमन।

    जवाब देंहटाएं
  10. इतनी सी कविताएं खंजना की पूरी किताब पढ़ने को उत्कंठित करती हैं - कि हम असम की माटी की गंध और वहां के लोगों के मन को और खूबसूरती से जान - समझ सकें ..

    जवाब देंहटाएं
  11. https://kanchanpriya.blogspot.com/2019/06/blog-post_21.html?showComment=1580895324520#c1021680739474717487

    जवाब देंहटाएं
  12. Nice post! Your content is very valuable to me and just make it as my reference.Keep blogging with new post!Unique and useful to follower..
    satta result
    satta king
    satta
    satta matka
    gali satta
    disawar result
    satta chart

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.