‘बातन के ठाठ’ के लेखक ‘ज्ञान चंद बागड़ी’ राजस्थान
के एक समुदाय की कथा बुनते है, ज़ाहिर तौर पर न यहाँ अस्मिता विमर्श है न
स्त्री-वाद. लेकिन कहानी अंततः उस समुदाय
की गरिमा और उसके अंतर्गत स्त्रियों के संघर्ष की गाथा बन जाती है. परम्परा में
ऐसे सूत्र और उदाहरण मौज़ूद हैं जो लाउड हुए
बिना यह कार्य करते रहें हैं. इस कहानी पर एक टिप्पणी कवि कृष्ण कल्पित की दी जा
रही है.
कहानी आपको विस्मित करेगी. राजस्थानी स्त्री-भाटों
के विषय में मुमकिन है आपने इससे पहले कुछ न पढ़ा हो.
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‘कथाकार
ज्ञानचंद बागड़ी की कहानी 'बातन के ठाठ' एक पिछड़े समाज में स्त्री की नियति और संघर्ष की अद्भुत दास्तान है.
राजस्थान के एक पिछड़े समुदाय में किस तरह एक अनपढ़ स्त्री अपने पति की मृत्यु के
बाद सामाजिक विरोध के बावज़ूद वंशावली पढ़ने का कार्य करती है और अपने लिए एक
मुश्किल राह हमवार करती है यह इस कहानी में दर्शाया गया है. यह कहानी भारतीय समाज
के इस मिथक को भी तोड़ती है कि भारतीय समाज में स्त्री हमेशा पुरुष शासित समाज में
शोषण और यातना का शिकार रहती हैं. शहरों और मध्यमवर्गीय समाज के बरक्स हमारे
गाँवों में ऐसी खुदमुख्तार स्त्रियाँ दिखाई पड़ती हैं जो अपने श्रम और साहस से अपनी
नियति खुद लिखती और बनाती हैं. दुर्भाग्यवश हिन्दी कहानी में ऐसी साहसी स्त्रियों
का अंकन नहीं के बराबर हुआ है. कृष्णा सोबती की 'मित्रो
मरजानी' और रांगेय राघव की 'गदल'
ही ध्यान आ रही है. मित्रो एक दबंग पंजाबी औरत है जो अपनी कामनाओं
को खुल कर व्यक्त करती है और एक खिलंदड़ी भाषा में अपनी स्त्री अस्मिता को उजागर
करती है जबकि 'गदल' धौलपुर इलाके की एक
जबर गुर्जर स्त्री है जो न केवल अपनी शर्तों पर जीती है बल्कि अपने पति का बदला भी
लेती है. ये दोनों स्त्री पात्र हिंदी कथा साहित्य के अमर स्त्री चरित्र हैं.
ज्ञानचंद बागड़ी की कहानी की लक्ष्मी भी इसी तरह की स्त्री है जो अपने
पति की मृत्यु के बाद, भले ही पति की
प्रेरणा से अपने पति का वंशावली गाने का पेशा अख़्तियार करती है. एक पिछड़े समाज में
यह करना किसी क्रांति से कम नहीं कहा जा सकता. वह ऊँट पर बैठकर अपने जजमानों के
यहाँ जाती है और अपने जीवन और परिवार की लगाम अपने मज़बूत हाथों से थामती है. ख़ुद
ही नहीं बल्कि अपनी बेटी को भी वह इतना ही मज़बूत बनाती है जिसे वह अपने अंतिम
संस्कार के लिए भी नियुक्त करती है.
कथाकार बागड़ी ने अपनी मुहावरेदार भाषा में लक्ष्मी जैसा यादगार चरित्र
गढ़ा है. कहानी की भाषा में आँचलिक गन्ध है जो कथानक की रोचकता को सम्भाले रखती है.
ज्ञानचंद बागड़ी का पिछले बरस वाणी प्रकाशन से एक आँचलिक उपन्यास 'आख़िरी गाँव' प्रकाशित हुआ है
जिसे पाठकों द्वारा दिलचस्पी से पढ़ा जा रहा है.
'बातन
के ठाठ' ज्ञानचंद बागड़ी को शिवमूर्ति और चरणसिंह पथिक की
परम्परा का कथाकार ठहराती है. शहरों कस्बों के कथानक हिंदी कथा साहित्य में
बहुतायत से दिखाई पड़ते हैं लेकिन बदलते हुए गांवों के चित्र कम दिखाई पड़ते हैं.
ज्ञानचंद बागड़ी के प्रथम उपन्यास और इस कहानी ने उम्मीद जगाई है कि गांवों का
बदलता हुआ यथार्थ हिंदी कथा साहित्य में अपनी पूरी विश्वसनीयता के साथ उजागर होगा.
ज्ञानचंद बागड़ी का हिंदी कथा साहित्य की दुनिया में स्वागत है.’
कृष्ण कल्पित
बातन के ठाठ
ज्ञान
चंद बागड़ी
पृथ्वी
और स्त्री दोनों ही इस दुनिया का भार उठाने में सक्षम हैं. सृष्टि ने स्त्री को
बहुत विशेष बनाया है. पुरुष को उसने स्त्री से कमतर बनाया है. स्त्री की भूमिकाओं
की कोई निश्चित संख्या नहीं हो सकती. जब भी आवश्यकता होगी,
वह अपनी भूमिका बदल कर परिवार, समाज और
राष्ट्र को पार लगा देगी. अब अपनी लक्ष्मी राय जी को ही देख लो-
रामचंद्र राय जी के साथ लक्ष्मी राय जी जबसे ब्याहकर घर में आई हैं, खुशियों ने इस घर में चारों कोनों से दस्तक दी हैं. लक्ष्मी को मोहल्ले में सभी अपने पति की परछाई कहते हैं. वह सुख-दुख में पूरी तरह से अपने पति के कंधे से कंधा मिलाती हैं.
रामचंद्र राय जी की भी बिरादरी में समझ और मर्यादा की मिसाल दी जाती है. रामचंद्र जी के पिता खटीक जाति के प्रतिष्ठित भाट थे. पश्चिम राजस्थान में चारण जाति राज दरबार और सामंतों की ही वंशावली तैयार करती है, लेकिन पूर्वी राजस्थान में सभी जातियों के अपने भाट या जागा होते हैं, जो किसी भी परिस्थिति में किसी दूसरी जाति से कोई भेंट स्वीकार नहीं करते. इनका मुख्य धंधा भी अपने यजमानों की वंशावली तैयार करना तथा उसे यजमानों को पढ़कर सुनाना है. यह काम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है. भाटों की बहियाँ इतिहास के महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं. लक्ष्मी ने मोहल्ले के बुजुर्गों से सुना है कि केवल बारह वर्ष की आयु में रामचंद्र जी के माता-पिता, उनके एक छोटे भाई और बहन का हाथ उनके हाथ में सौंपकर इस दुनिया से चले गए थे. उसके बाद रामचंद्र ने अपनी प्रतिभा से न केवल अपने पिता की प्रतिष्ठा को प्राप्त किया, बल्कि अपनी छोटी बहन और भाई का भी अच्छे घरों में इज्जत से विवाह करवाया. आज नारनौल जैसे शहर में यह तीन चौक की उनकी हवेली है, यह पुश्तेनी नहीं है. इसे रामचंद्र जी ने अपनी मेहनत से खड़ा किया है. नारनौल जैसे ऐतिहासिक शहर के बीचों- बीच इतनी बड़ी हवेली अलग से ही दिखती है. जाति के हिसाब से भी यह शहर खटीकों की बहुत बड़ी बस्ती है और खटीकों के अपने ही बस्ती में चार चौक हैं. राय जी की हवेली शहर की तरह ही इन चारों चौकों के भी बीच में ही है.
महँगे लकड़ी के दरवाजे, अच्छे पत्थर का प्रयोग और बेहतर रख-रखाव के कारण यह हवेली बस्ती की शान है. हवेली में पुरानी तरह के बड़े दरवाजों में प्रवेश करते ही दाएँ और बायें दो बैठक हैं, जिनमें दो-दो लकड़ी के तख्त पड़े हैं. यजमानों के बैठने के लिए चार-चार मूढ़े और दोनों बैठकों में हमेशा फरसी हुक्के और तंबाकू उपलब्ध रहती है.
बैठक
पार करते ही बड़ा-सा चौक छोड़ा हुआ है और उसके पृष्ठ भाग में चौबारों सहित तीन
कमरे और रसोई बनी है. इसी तरह का निर्माण तीनों चौकों के साथ किया गया है.
अपनी
छह फुट लंबाई और गोरे रंग पर जब जैपुरी साफा, फैन
धोती, साफ कमीज और कुरम की जूती पहनकर रामचंद्र राय अपनी
कटार जैसी मूंछों को ताव देकर अपनी घोड़ी पर बैठकर अपने यजमानों के यहां जाते थे,
तो किसी राजा-महाराजा से कम नहीं लगते थे. एक नहीं, यात्रा में उनके साथ उनकी दो घोडिय़ाँ साथ चलती थीं. एक घोड़ी के ऊपर वे
सवार होते थे, जबकि दूसरी घोड़ी पर उनकी एक-एक मण की दो
बहियाँ उनके साथ लादकर चलती थीं. बिना बही के तो भाट का क्या मोल.
लक्ष्मी
इस बात का विशेष ध्यान रखती कि यात्रा का सामान उनके थैले में ध्यान से रख दे.
सामान में कपड़ों के अतिरिक्त एक लौटा और रस्सी तथा कुछ आवश्यक बर्तन जरूरी होते
थे. भाट अपने यजमानों के अलावा किसी अन्य जाति का पानी भी नहीं पीते. अत: उन्हें
जहां भी प्यास लगती, वे लौटे-रस्सी से कुएं
से पानी निकालकर अपनी प्यास बुझा लेते हैं.
लौटा
जंगल-पाणी के भी काम आता था. भाट अपना खाना स्वयं बनाते हैं और एक अलग स्थान पर
रुकते हैं, तो उन्हें अपने बर्तनों की
जरूरत भी पड़ती है.
राय
जी की बहन विवाह के पश्चात अपने घर-बार की हो गई और छोटे भाई पर उन्होंने अभी काम
का बोझ नहीं डाला है. छोटे भाई की पत्नी जड़ाव जरूर घर के कामों में अपनी जेठानी
की मदद करती है.
रामचंद्र
राय जी जब किसी भी गाँव में अपने यजमानों के यहाँ विवाह या जन्म का बधावा लेने या
किसी मृत्युभोज के अवसर पर जाते हैं, तो सारे
गाँव में शोर हो जाता कि राय जी आ गए, भाट जी आ गए. जाते ही
राय जी अपने यजमानों का बखाण या स्तुतिगान प्रारंभ कर देते. उन्हें किसी उचित जगह
बिठाकर गाँव की यजमान जाति का प्रमुख व्यक्ति साफा पहनाकर और तलवार भेंट कर उनका
सम्मान करता.
अपने
यजमानों से जब भेंट और सम्मान लेकर राय जी अपने घर जाते तो लक्ष्मी गौरवान्वित
महसूस करती.
भाटों
की बिरादरी में बहुत इज्जत होती है तथा इनके रहन-सहन,
खान-पान और विदाई के समय इनकी मर्यादा के अनुकूल ही व्यवस्थाएं करनी
पड़ती हैं. एक बार रामचंद्र राय जी अलवर के पास गंडूड़ा गाँव चले गए जहाँ उनकी
बहुत खातिर की गई तथा विदाई में इनाम भी बहुत अच्छा दिया गया. वापसी के लिए भाट के
लिए सवारी ढूंढी गई, लेकिन कुछ इंतजाम नहीं होने पर गधे पर
बिठाकर विदा कर दिया गया. भाट तो फिर भाट होते हैं उन्होंने तुरंत पढ़ दिया -
गंडूडे
गांडू बसैं,
सब बातन का ठाठ.
देन-लेन
में कमी नहीं,
पर गधे चढ़ायो भाट..
भाटों
के कहे गए शब्दों का बहुत महत्व होता है और उसके शगुन-अपशगुन के अर्थ निकाले जाते
हैं. इसी प्रकार ही अपनी एक यात्रा में रामचंद्र राय जी अलवर जिले के मुंडावर
कस्बे में गए हुए थे. संध्या के समय वह दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होने के लिए
अपना लोटा लेकर जंगल की तरफ गए हुए थे. वापसी में जब वह आ रहे थे तो दो युवतियाँ
(ननद -भोजाई) मिट्टी की खदान से मिट्टी की परातें भर कर बैठी थीं. राय जी ने सोचा
कि यह किसी परात उठाने वाले का इंतजार कर रही हैं. रायजी ने हाथ धोकर उनकी मदद
करने के उद्देश्य से उनकी तरफ अपने कदम बढ़ाए तो युवतियों ने शोर मचा दिया.
युवतियों ने बस्ती में आकर भाट की शिकायत कर दी कि राय जी ने हमें छेडऩे का प्रयास
किया. इस बात को लेकर बहुत बड़ी पंचायत जुटी, जिसमें
भाट को दंडित किया गया. भाट ने हाथ जोड़कर कहा कि यजमानों आपने मुझ निर्दोष को
दंडित किया है, इसलिए मेरी यह बद्दुआ है कि यह बस्ती उजड़
जाएगी. मुंडावर में खटीक जाति की तीन सौ साठ देहली अर्थात हजार से ऊपर घर थे.
देखते ही देखते वहाँ के सभी खटीकों को पलायन करना पड़ा और उस कस्बे में एक भी खटीक
जाति का घर नहीं बचा.
मुंडावर
की घटना के पश्चात रामचंद्र राय जी ने अपने कस्बे नारनौल पहुँचते ही खटिया पकड़ ली.
इस घटना से उन्हें इतना सदमा लगा कि वे दिन-प्रतिदिन कमजोर होते ही चले गए. उनकी
पत्नी लक्ष्मी ने उन्हें बहुत समझाया कि इसमें आपका कोई दोष नहीं है,
आपका न्याय प्रभू करेंगे, लेकिन राय जी की
हालत में कोई सुधार नहीं हुआ.
राय
जी के परिवार पर दु:खों का पहाड़ टूटना
अभी भी बाकी था. जैसे सुख जब आता है, तो चारों
कोनों से आता है, इसी प्रकार दु:ख भी एक साथ ही आते हैं.
रामचंद्र राय का छोटा भाई हरिचंद भी कई दिनों से बीमार चल रहा था. चिकित्सक उसकी
बीमारी को पकड़ नहीं सके और अचानक क्षय रोग से उसकी मृत्यु हो गई.
रामचंद्र
राय पहले ही बिस्तर पर पड़े हुए थे, अब अपनी
आँखों के सामने अपने छोटे भाई की जवान पत्नी को विधवा के रूप में देखकर उनकी तबीयत
तेजी से बिगडने लगी. घर में चारों तरफ मुर्दनी छा गई. हँसता- खेलता घर दुःख के
सागर में डूब गया.
एक
दिन रामचंद्र राय ने अपनी पत्नी लक्ष्मी से कहा- शांति की माँ ( शांति उनकी इकलौती
पुत्री का नाम था) मेरे पास बैठो. मुझे नहीं लगता कि मैं अब बहुत दिन जीवित रहूँगा.
-ऐसा
क्यूँ कहते हो राय जी. हिम्मत राखो, मैं आपकी
सेवा करूँगी.
-मेरी
बात ध्यान से सुन. मैं तुझे यजमानों के विषय में और वंशावली लिखना सिखाऊंगा. आगे
से तू ही मेरे यजमानों की भाट होगी.
-क्या
कहते हो राय जी, कभी कोई स्त्री भी राय जी
हो सकती है क्या?
-क्यूँ
नहीं. मेरे सभी यजमान तेरे ही तो हैं. सभी तरह से यह तेरा हक़ है.
मैं तुझे सब कुछ सिखाऊंगा और तू यह जड़ाव को सिखाना. मैं तुम दोनों में कोई विवाद नहीं चाहता, इसलिए जीते जी तुम दोनों बहनों का बंटवारा कर देता हूं. दिल्ली, राठ और हरियाणा भौगोलिक क्षेत्र के यजमान तेरे होंगे. मेवात, बीघोता और बत्तीसी (बत्तीस गाँव) जड़ाव के होंगे. अपनी बही उठाकर मेरी खाट पर रख. आज से मैं तुझे बही लिखना और पढना सिखाता हूँ. बही हम क्षेत्र और गाँव के हिसाब से लिखते हैं, जिसमें यजमानों की बहुत लंबी वंशावली दर्ज है. बही लिखने की अपनी विशेष लिपि होती है, जिसमें मात्राओं का प्रयोग कम-से-कम होता है, बल्कि यों कहना चाहिए कि हम बिना मात्रा के अक्षरों की विशेष बनावट को काम में लेते हैं. अपनी लिपि को केवल हम ही लिख-पढ़ सकते हैं.
लक्ष्मी
ने कभी यह नहीं सोचा था कि जीवन में उसे कभी ऐसे दिनों का सामना भी करना पड़ेगा.
रायजी उसको बहुत धैर्य से सिखाते, लेकिन
उसके कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता. रायजी ने लक्ष्मी का हाथ पकड़कर कर एक-एक अक्षर
तीन-तीन बार लिखवाया, लेकिन जब भी लक्ष्मी खुद से लिखती तो
गलत ही लिखती. रायजी ने एक बार फिर से हिम्मत करके उसे नये सिरे से सिखाने का
प्रयास किया तो उसने फिर से गलत ही लिखा. लक्ष्मी का धैर्य जवाब दे गया और उसने
कलम फेंक दी. वह रोने लगी और कहने लगी- रायजी मुझसे यह नहीं होगा.
रायजी सिखाने के नये-नये प्रयोग करते, लेकिन लक्ष्मी सीख ही नहीं पा रही थी. एक दिन रामचंद्र जी की हिम्मत भी जबाब दे गई और वह फूट-फूट कर रोने लगे. जिंदगी मेरा कैसा इम्तिहान ले रही है.
स्त्री सब कुछ बर्दाश्त कर सकती है, लेकिन अपने पति और बच्चों की आँखों में आंसू नहीं देख सकती. अपने पति को रोता देख लक्ष्मी उसके पैरों में गिर गई और कहने लगी- रायजी आप रोवो मत, मैं सब कुछ सीखूँगी.
उसके बाद तो जैसे कोई जादू ही हो गया. रायजी जो भी सिखाते लक्ष्मी उसी तरह सीख लेती. लिखना-पढना सिखाकर रायजी ने अपनी पत्नी को समझाया कि यजमानों की वंशावली का बखान कैसे करना है और यह भी बखान करना है कि किसने क्या किया, क्या भोजन बना, भाट को दान में क्या दिया. दान में हाथी, घोड़े और मोहर दिये जाते हैं, जिसमें हाथी का मोल तीस रुपए, घोड़े का पंद्रह और मोहर का पाँच रुपए है.
नारनौल बड़ी बस्ती थी और राय जी की बीमारी का यह वक्त वहाँ के यजमानों के भेंट -पुरस्कार के सहारे कट रहा था.
राय जी की हालत बिगड़ती ही चली गई और डेढ़ वर्ष चारपाई पर काटने के बाद उन्होंने चोला छोड़ दिया. अब घर में केवल दोनों विधवा देवरानी-जेठानी और एक छोटी-सी बच्ची थी.
दु:ख के साथ भी व्यक्ति कितने दिन रह सकता है? अब लक्ष्मी ने अपने पति के काम को संभाल लिया.
लक्ष्मी जब भी अपने यजमानों के यहाँ जाती, तो जरूरत के समय लोग कहते कि रायजी आई हुई हैं, उन्हें भी खाना-पूर्ति के लिए बुला लो. किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि वह अपने पति की तरह बखान कर पायेगी. लक्ष्मी की अपने पति के विपरीत लम्बाई बहुत कम थी और रूप-रंग भी साँवला ही था. बुलावा मिलते ही लक्ष्मी ने अपना हौसला बढ़ाने के लिए सर पर अपने पति का जैपुरी फैंटा रख लिया. भय और साहस की मिली-जुली मनोदशा के साथ उसने गाँव में घुसते ही अपना बखान शुरू कर दिया. जग्गा-जावता.
किशना
राम जी ने अपने पिताजी मंगल राम का काज किया और उसमें देसी घी का हलवा बिरादरी को
छाक में जिमाया और भाट को पाँच मोहर दी. उनके पुत्र जीवण राम ने अपने पिता का काज
किया और देसी घी और चावल की छाक दी. भाट को दो घोड़े और पाँच मोहर दी. बक्शी राम
ने अपने पिताजी का खोये का काज किया और भाट को एक हाथी,
पाँच घोड़े और दस मोहर दान में दी.
जितने
भी लोग वहाँ बैठे थे, सभी ने अपने दाँतों
तले उँगली दबा ली. लक्ष्मी जब अपने यजमानों का स्तुति गान कर रही थी, तो ऐसा लग रहा था की साक्षात माँ शारदे उसकी वाणी पर आकर बैठ गई हैं. उसकी
स्मृति इतनी तेज है कि मजाल कोई तथ्य उससे छूट जाए या गलत पढ़ा जाए. ऊपर से उसकी
मधुर वाणी और उसका स्मृति गान चार चाँद लगा रहा था. लक्ष्मी उच्च चरित्र की एक
साधारण महिला थी. इस चमत्कार को देख सभी हैरान हुए. पहले तो पुरुषों ने उसकी
प्रशंसा के पुल बांधे उसके पश्चात महिलाओं
ने उसे अपने समूह में ले लिया और उसे जी भरके बधाइयाँ दीं. उसके बाद तो वह स्तुति
की शुरुआत यजमानों के दादा-परदादा के द्वारा किए हुए महान कार्यों से करती तथा
बताती थी कि किस अवसर पर उस समय यजमान ने भाट को कितना इनाम दिया.
थोड़े
से समय में ही यजमानों को अपने भाट की कमी खलनी बंद हो गई.
घोडियों के पालने का खर्च अधिक था, तो उन्हें तो राय जी के समय ही बेच दिया गया था. अब लक्ष्मी राय जी जब भी कहीं जाती, तो अपने साथ मोटी-मोटी बहियों को ऊँट पर लादकर लाती है. विवाद या किसी तथ्य विशेष की पुष्टि के लिए मोटी बहियों को खोलकर घूँघट में ही वह पढ़ती और तथ्यों का समाधान निकाल देती. लक्ष्मी राय जी को बही पढ़ते हुए या बखान करते हुए हमेशा ही घूँघट में देखा गया. लोग इन बहियों को देखकर आश्चर्य करते कि उन बहियों में उनकी कितनी ही पीढिय़ों का वर्णन लिखा हुआ है. लक्ष्मी राय जी खानपान में बहुत ही संयमित महिला हैं तथा इनाम को लेकर भी उनमें कभी विशेष लालच नहीं देखा गया.
खटीकों
के लगभग सभी गोत्र राजपूतों से मिलते हैं . जैसे- चौहान,
तँवर, पँवार, सांखला
खींची, बडगूजर इत्यादि. यह तो पता नहीं कि इस जाति का
राजपूतों से क्या संबंध है, लेकिन एक बार लक्ष्मी राय जी
सीकर जिले के पाटन में अपने यजमानों का स्तुतिगान कर रही थीं, तो वहाँ के स्थानीय राजा ने उनको ध्यान से सुना तो उसने पाया की एक पीढ़ी
विशेष के बाद वह बखान उनकी अपनी वंशावली से मिलने लगा. राजा भाट के स्तुति गान से
बहुत प्रसन्न हुआ और इनाम में अस्सी बीघा भूमि उसे दान में देने का प्रस्ताव किया.
भाट ने इनाम लेने से इंकार करते हुए राजा से विनती की कि राजा साहब मेरे केवल दो
ही हाथ है जिसमें बाएँ हाथ से मैं अपने दैनिक कार्यों से निवृत्त होती हूं और दाएं
हाथ से मेरे खटीक यजमानों से इनाम लेती हूं. इसके अलावा मैं किसी से किसी भी
परिस्थिति में इनाम नहीं ले सकती. राजा ने कहा कि मेरी तरफ से तो यह भूमि दान कर
दी गई है. भाट ने राजा की बात भी रख ली और अपनी मर्यादा भी और उसने वह भूमि एक
ब्राह्मण परिवार को दान कर दी. वह भूमि आज भी लक्ष्मी भाट के इनाम के नाम से जानी
जाती है.
जिंदगी
एक बार फिर से पटरी पर आ रही थी. सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा. लक्ष्मी ने अपनी देवरानी
को सब कुछ सिखा दिया था. बहुत कुछ वह अपनी जेठानी के साथ रहकर भी सीख गई थी और
अपने यजमानों से दान-दक्षिणा से खुश थी. एक दिन अचानक लक्ष्मी जी की हवेली पर किसी
अपरिचित व्यक्ति ने दस्तक दी. उसने अपना नाम पूरण नाई और गाँव का नाम रिवाड़ी के
पास बलवाड़ी बताया. उसने लक्ष्मी जी की बेटी से कहा कि वह लक्ष्मी रायजी से मिलने
आया है. बच्ची ने उन्हें बैठक में बिठाया और अपनी माँ को उसके आगमन की सूचना दी.
रामा-श्यामा की औपचारिकता के पश्चात लक्ष्मी ने अपनी देवरानी को जलपान की व्यवस्था
करने को कहा और आगंतुक से आगमन का कारण पूछा.
पूरण
ने अपना जवाब कुछ इस तरह से दिया- राय जी रिवाड़ी के शिव मंदिर में बलवाड़ी गाँव
के शिवचरण पहाड़वाल ने आपके खिलाफ छह देश की पंचायत बुलाई है. यह पंचायत अगले
महीने की एक तारीख को सुबह दस बजे शुरू होगी. पंचों ने मुझे आपको यह संदेश देने के
लिए भेजा है.
-मेरे खिलाफ पंचायत?
-जी
रायजी आपके खिलाफ ही है. इसका पूरा मसौदा तो आप इस पत्र को पढ़कर ही जान पाएंगे.
लक्ष्मी
ने जब पत्र पढ़ा तो उसे विदित हुआ कि शिव चरण पहाड़वाल ने उसके खिलाफ पंचायत इसलिए
जोड़ी है कि रायजी उन्हें बिरादरी में होते हुए भी अपना यजमान क्यों नहीं मानती.
ना ही उनसे कभी कोई दान दक्षिणा मांगती हैं. राय जी ने पूरण को जलपान करवाकर,
किराए-भाड़े के पैसे दिए और इनाम देकर अपने पंचायत में समय से
पहुंचने की सहमति देकर विदा किया.
नाई
के जाते ही लक्ष्मी राय सोच में पड़ गई, क्योंकि
यह कोई सामान्य पंचायत नहीं होने जा रही थी.
इसमें बहुत से गड़े हुए मुर्दे उखड़ने की संभावना थी. उसके मस्तिष्क में विचारों का
झंझावत उमड़ रहा था. यही सब सोचते हुए वह अपने आप को मानसिक रूप से उस पंचायत के
लिए तैयार करने लगी. जड़ाव से उसने कहा कि रिवाड़ी के लिए तो नारनौल से बहुत से
साधन है, इसलिए ऊँट नहीं इस बार जीप की सवारी करनी पड़ेगी,
क्योंकि साथ में पाँच बड़ी-बड़ी बहियाँ भी ले जानी पड़ेगी. पता नहीं
पंचों के कितने सवाल होंगे. बिना बहियों के तो उनका निस्तारण हो नहीं सकता.
इस
प्रकार अपनी सभी तैयारियों के साथ लक्ष्मी राय रिवाड़ी के शिव मंदिर पहुँच गई,
जहाँ छह देश की पंचायत जुटी थी. शिवचरण ने लोहे के व्यापार से बहुत
धन कमाया कमाया है और उसके रसूख के कारण मंदिर पंचायत के लिए लोगों से खचाखच भरा
था. लक्ष्मी ने घूंघट से लोगों पर दृष्टि डाली तो देखा कि सभी छह देशों दिल्ली,
हरियाणा, मेवात, बीघोता,
राठ और बतीसी के पंच मौजूद है. जिधर देखा उधर लोगों के सर ही सर.
चारों तरफ आवाजें और शोर. महिलाओं के नाम पर पंचायत में केवल दो भाट महिलाएं थी
बाकी सभी पुरुष. उनमें भी जड़ाव तो घूँघट निकाल कर एक कोने में बैठ गई, क्योंकि पंचों के सवालों का जवाब तो लक्ष्मी रायजी को ही देना था. पंचों
ने पंचायत की कार्यवाही प्रारंभ करने को कहा. हमेशा की तरह दिल्ली के चौधरी को ही
पंचायत की अध्यक्षता करनी थी. दिल्ली के चौधरी कल्लूराम असवाल ने सीधे लक्ष्मी राय
जी से मुखातिब होकर कहा कि रायजी, शिवचरण जी ने आप पर आरोप
लगाए हैं कि आप उन्हें अपना यजमान नहीं मानते और इनके यहां कभी भी दान-दक्षिणा के
लिए भी नहीं जाती.
-क्या
यह बात सही है?
इस
सवाल का जवाब देने से पहले राय जी ने बिरादरी माता का यशगान किया उसके पश्चात सभी
पंचों और चौधरी साहब से अपना पक्ष रखने की इजाजत मांगी. सभी ने कहा रायजी आप अपनी
बात रखो.
-चौधरी
साहब और समस्त बिरादरी माता, मेरी
शिवचरण जी से कोई व्यक्तिगत शत्रुता या नाराजगी नहीं है. भाट का धर्म है कि वह
अपनी जाति के अतिरिक्त किसी से भी दान-मान नहीं ले सकता. यह सभी बहियाँ बिरादरी के
सामने रखी हैं. इनमें से किसी में भी पहाड़वाल गोत्र का उल्लेख नहीं है. पंचायत और
बिरादरी मुझे बताएं कि किस आधार पर मैं इन्हें अपना यजमान स्वीकार करूं और दान के
लिए हाथ फैलाऊँ?
राय
जी की बात सुनते ही पूरी पंचायत में सन्नाटा छा गया. उनके अनुसार तो शिवचरण और
उनके गोत्र वाले बिरादरी में ही शामिल नहीं है. पंचायत में खुसर-फुसर होने लगी.
पंचों ने कहा कि रायजी शिवचरण जी के बिरादरी में ही रिश्ते हो रहे हैं. आप से कोई
भूल हुई है, आप इस बात की ठीक से तस्दीक
करें.
पंचों इस छह देश के सभी गाँव और गोत्रों से मेरा परिचय है. सारी बहियों को मैं पंचायत के सामने पढ़ती हूं. बिरादरी के एक-एक गोत्र की वंशावली पढूंगी. रायजी ने पंचायत के सामने छह देश के सभी गोत्रों की वंशावली पढ़ी. पढ़ते-पढ़ते सायं के सात बज गए तो पंचों ने पंचायत अगले दिन के लिए मुतलवी कर दी.
अगले
दिन पंचायत में राय जी अपनी बात पर डटी हुई थी. उन्होंने पंचायत से आग्रह किया की
पंचायत और बिरादरी मुझे आदेश दे तो मैं अभी शिवचरण जी और उनके समस्त गोत्र को अपना
यजमान स्वीकार करती हूं. पंचों के सामने धर्मसंकट खड़ा हो गया. दूसरा दिन भी बिना
किसी फैसले के बीत रहा था. पंचों के पास कोई आधार नहीं था कि वह राय जी को अपना
कोई फैसला दे. पंचों ने मंत्रणा के लिए पंचायत से समय मांगा और पंचायत को तीसरे
दिन भी बुलाने का फैसला सुना दिया. पेंच पूरी तरह से फंस गया था. सभी अधीर थे कि
पंच अपना कोई फैसला सुनाए.
पंचायत
के चौधरी ने कहा कि रायजी पंचों ने बहुत गहन मंत्रणा की है,
लेकिन हम किसी निर्णय पर पहुंचने में असमर्थ हैं. पंचों की राय जी
से विनती है कि आप ही इस समस्या का कोई समाधान सुझाएं.
-समाधान तो पंच और बिरादरी ही सुझायेगी, लेकिन मैं एक सामाजिक भूल से पंचायत को जरूर अवगत करवा सकती हूं. पंचायत मुझे अभय दान की जिम्मेदारी ले .
-रायजी
आप बिना किसी भय या खौफ के अपनी बात कहें.
-जैसी पंचों की आज्ञा... पंचो, मेरे दादा ससुर और ससुर से होते हुए यह बात हम तक पहुंची है कि बसंतपुर गाँव की बारात कोटपूतली के पास किराड़ी गाँव गई थी. बिचोला कोई अनाड़ी था और उसने रिश्ता करने के समय दोनों पक्षों के गोत्रों का ठीक से मिलान नहीं किया था . लड़के और लड़की के फेरे हो गए. अगले दिन विदाई के समय जब लड़के वालों के रिश्तेदार विदाई का मान ले रहे थे तो किसी ने लड़की वालों का गोत्र पूछ लिया ताकि गलती से किसी सगोत्र वाले से मान के पैसे ना ले ले. लड़की वालों ने अपना गोत्र पहाड़ीवाल बताया, तो वह सज्जन चौंके, क्योंकि लड़के वालों को गोत्र भी पहाड़ीवाल था. अब क्या हो सकता था. दोनों बच्चों के फेरे तो हो चुके थे. उसी वक्त वहाँ पंचों और कुछ समझदार लोगों ने निर्णय लिया कि गलती तो हो चुकी है, अब ऐसा करो कि आज से लड़के वाले पहाड़ीवाल ना होकर पहाड़वाल कहलाएंगे. तो पंचो, उस विवाह के पश्चात पहाड़वाल गोत्र पैदा हुआ.
राय जी की बात सुनकर पंचायत में फिर से खामोशी छा गई. बड़ी जद्दोजहद के बाद पंचों ने फैसला दिया कि वह एक बहुत बड़ी सामाजिक भूल थी . ऐसी भूल जो कई पीढ़ियों पहले हुई थी. अब चूंकि शिवचरण और उनके गोत्र के भाई सभी सामाजिक मर्यादाओं का ठीक से पालन कर रहे हैं. वैसे भी किसी भी व्यक्ति को समाज से दूर नहीं रखा जा सकता. पंचायत राय जी से प्रार्थना करती है कि रायजी पहाड़वाल गोत्र को समाज की मुख्य शाखा में सम्मिलित कर लें. शिवचरण जी को पंचायत का यह आदेश है कि वे राय जी को उचित दान-दक्षिणा देकर विदा करें. दक्षिणा प्राप्त कर राय जी ने यशगान किया कि बिरादरी माता शिवचरण पहाड़वाल ने भाट को पाँच हाथी, दस घोड़े और बीस मोहर का दान दिया है. साथ में भाट को पांच प्रकार की मिठाइयों की भेंट भी दी गई है. इस प्रकार तीसरे दिन यह पंचायत संपन्न हुई.
यह
कोई पैंतीस वर्ष पुरानी बात है. समाज और राय जी के गोत्र और कुनबे के लोगों ने
लक्ष्मी और जड़ाव दोनों देवरानी-जेठानी को मशवरा दिया कि अपनी बढ़ती उम्र को देखते
हुए उन्हें कोई बच्चा गोद ले लेना चाहिए. इससे दोनों राय जी के पतियों का नाम भी
जीवित रहेगा, खानदानी परंपरा भी बची
रहेगी और अंतिम समय में उन्हें कोई मुखाग्नि देने वाला भी होगा.
लगातार
इसी प्रकार की सलाहों का दोनों पर असर हुआ और दोनों ने अपने कुनबे के दो बच्चों को
गोद लेने का फैसला कर लिया. गोद की रस्म के लिए बड़ा सामाजिक आयोजन हुआ,
जिसमें समाज की बड़ी पंचायत बुलाई गई, क्योंकि
यह गोद की कोई सामान्य रस्म नहीं थी, बल्कि यहाँ बिरादरी का
भावी भाट भी चुना जाना था. लक्ष्मी ने एक बच्चे को गोद लेने की हाँ तो कर दी थी,
लेकिन उसका मन इस फैसले से संतुष्ट नही था. उसके भीतर कुछ चल रहा था,
जो उसे परेशान कर रहा था. आखिर पंचायत में अचानक लक्ष्मी राय जी ने
फैसला सुनाया कि वह किसी बच्चे को गोद नहीं लेगी, बल्कि अपनी
बेटी शांति को ही अपना पारंपरिक कार्य सिखाकर उसकी तरह बिरादरी का भाट बनायेगी.
पंचायत में बहुत से सुझाव आये कि राय जी परिवार में कोई तो होना चाहिए, जो रामचंद्र जी के नाम को आगे बढ़ाने वाले हो, आपके
अंतिम दिन मुखाग्नि देने वाला हो!!
लोगों
ने बहुत समझाया, लेकिन लक्ष्मी जी अपने
फैसले पर अड़ी रही. उन्होंने कठोरता से फैसला सुनाया- बिरादरी माता मेरे पति के
पश्चात मेरी बेटी ही मेरे पति की जगह लेगी. रही बात मुझे मुखाग्नि देने की तो वह
अधिकार भी आज इस पंचायत के सामने मैं अपनी पुत्री शांति को ही देती हूँ.
लेकिन
पंचायत को लक्ष्मी राय जी का फैसला मंजूर नहीं हुआ, हालांकि
पंचायत लक्ष्मी राय जी को कोई बच्चा जबरन गोद भी तो नहीं दे सकती थी!! ऐसे में पंचायत बेनतीजा ही रही. ऐसा कहा जाता
है कि उन्होंने अपनी बेटी को चुपचाप परंपरागत ज्ञान दे दिया था. जब लक्ष्मी राय जी
का अंतिम वक्त करीब आया तो उन्होंने बेटी से कहा-
हर औरत को अपने हक की लड़ाई खुद लडनी पड़ती है, मैंने लड़ी, तुमको भी मेरे जाने के बाद अपना संघर्ष खुद करना होगा. मैं विरासत में तुम्हें अपने संघर्ष सौंपकर जा रही हूं.
अगर पूर्वी राजस्थान में आपको कोई स्त्री अपने यजमानों की वंशावली गाती हुई सुनाई दे, तो समझिएगा कि लक्ष्मी राय जी की बेटी ने अपने हिस्से की लड़ाई जीत ली है.
___________
ज्ञान
चंद बागड़ी
उपन्यास , कहानी, यात्रा वृतांत और कथेतर लेखन के साथ-साथ
पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन, मासिक पत्रिका
"जनतेवर" मे स्थाई स्तंभ "समय-सारांश" वाणी प्रकाशन, दिल्ली से "आखिरी गाँव" उपन्यास प्रकाशित. एक यात्रा वृतांत और
दूसरा उपन्यास , अंग्रेजी- हिन्दी में छपने हेतु प्रकाशनाधीन.
सम्पर्क :
१७२ , स्टेट बैंक नगर, मीरा बाग, पश्चिम
विहार, नई दिल्ली - ११००६३
gcbagri@gmail.com/मोबाइल :
९३५११५९५४०
'बातन के ठाठ' अपनी सहज बतकही और विषय-वस्तु की दृष्टि से एक बेजोड़ कहानी है । वंशावली वाचन के पुरुष केन्द्रित पेशे में एक विधवा भाट स्त्री का साहस और उसका अपराजेय संघर्ष ... इस सबका बहुत दमदार और सहज चित्रण इस कहानी में हुआ है। सबसे बड़ी बात है कथा के केन्द्रीय स्त्री पात्र का विश्वसनीय और स्वाभाविक होना , अन्यथा बहुत सी ऐसी कहानियों में स्त्री का जवारा , उसका संघर्ष और साहसिक आचरण बहुत सी कृत्रिम घटनाओं के माध्यम से सामने आता है। वे महज स्त्री विमर्शकारों के पसंदीदा चरित्र होते हैं , आम पाठक उन्हें गले नहीं उतार पाता। यहां लक्ष्मी भाट जितनी अपने यजमानों के बीच ग्राह्य है , पाठक भी उसे उतना ही स्वाभाविक और सहज विश्वसनीय पाता है। ज्ञानचंद जी की आंचलिक भाषा मेरे लिए एक प्रत्यावर्तन जैसा है -- कई दशक पहले का वह रचा-बसा राठ! फैन धोती , कुरम की जूती , देह यानी चोला ! ज्ञानचंद बागड़ी को इस दमदार आगाज़ के लिए शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंकहानी पढ़कर अभिभूत हूं. परिवेश का सजीव और अत्यंत प्रामाणिक अंकन, तदनुरूप भाषा और कथा का स्वाभाविक किंतु सुविचारित विकास इसे एक मुकम्मल कहानी बनाते हैं. बहुत बहुत बधाई प्रिय बागड़ी जी.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया, बल्कि अद्भुत कहानी। काफ़ी समय बाद हिन्दी में इतनी उत्तम कहानी पढ़ी है। कहानी मुझे आत्मीय, अपने क़रीब लगी इसके पीछे शायद यह भी कारण रहा हो कि मेरे पुरखे अजमेर जिले से थे। वे चौहान थे, इसलिए मुझे भी चौहान जाति मिली। हमारी पीढ़ी तक हमारी भी वंशावली लिखी गयी, जो यह बताती है कि मैं पृथ्वी राज चौहान का सीधा वंशज (direct descendent) हूँ। क्योंकि मेरी कोई संतान नहीं है, इसलिए मेरे बाद मेरे हिस्से की वंशावली यहीं रुक जायेगी। लेकिन क्योंकि मेरे बड़े भाई साहेब की सन्तान है, इसलिए उनकी तरफ़ वंशावली जारी रहेगी। यह एक विश्वस्तरीय कहानी है। इसे लिखने की शैली सीधी, सपाट और अद्भुत है। श्री ज्ञान चंद बागड़ी बधाई के पात्र हैं और अरुण देव व "समालोचन" भी।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी बात लिखी है ज्ञान जी ने,स्त्री अस्मिता के पक्ष में यह बहुत महत्त्वपूर्ण अध्ययन है |कल्पित ने ज्ञान जी का और सम्बन्धित विषय का अच्छा परिचय दिया है |समालोचना को साधुवाद |
जवाब देंहटाएं'बातन के ठाठ' पढ़कर लगा कि बागड़ी जी एक सशक्त किस्सागो हैं। बिना लाग - लपेट और बनावट के किस्सा कहना उन्हें बखूबी आता है। इस किस्से की सबसे बड़ी ताकत इसका कन्टेंट है। इसलिए वे बिना लफ्फाजी और जुगाली के एक सार्थक बात कह सके हैं जो स्त्री-विमर्श पर ठहरती है।
जवाब देंहटाएंबातन के ठाठ कहानी अद्भुत, बहुत ही अच्छी लिखी हैं। मुझे अभी तक वंशावली के बारे में ही पता था पर आपकी कहानी को पढ़ने के बाद मुझे थोड़ा भाटो के बारे में जानकारी मिली हैं। जिस तरह से आपने कहानी में केंद्र मे एक स्त्री को रखा हैं जो बहुत सी कहानियों में देखने को नहीं मिलता हैं। विधवा स्त्री के बारे में बताया हैं कि पति के मृत्यु के पश्चात कैसे वह सभी जिम्मेदारियां बखूबी निभाती हैं और अपना एक मुकाम बनाती हैं और साथ ही अपनी देवरानी और बेटी को भी वही सब कुछ सिखाती हैं वो भी उस जमाने में जब स्त्रियों को केवल घर के कार्यो के लिये ही जाना जाता था। किस प्रकार लक्ष्मी ने मुखाग्नि की परम्परा को तोड़ और वंश केवल पुत्रों से नहीं पुत्री से भी चलता है दर्शाया हैं वह लाजवाब हैं। कहानी की भाषा आंचलिक हैं जिसकी वजह से मैं उस समय से जुड़ पायी हूँ।
जवाब देंहटाएंकहानी बहुत ही अच्छी हैं। मुझे अभी तक वंशावली के बारे में ही पता था पर आपकी कहानी को पढ़ने के बाद मुझे थोड़ा भाटो के बारे में जानकारी मिली हैं। जिस तरह से आपने कहानी में केंद्र मे एक स्त्री को रखा हैं जो बहुत सी कहानियों में देखने को नहीं मिलता हैं। विधवा स्त्री के बारे में बताया हैं कि पति के मृत्यु के पश्चात कैसे वह सभी जिम्मेदारियां बखूबी निभाती हैं और अपना एक मुकाम बनाती हैं और साथ ही अपनी देवरानी और बेटी को भी वही सब कुछ सिखाती हैं वो भी उस जमाने में जब स्त्रियों को केवल घर के कार्यो के लिये ही जाना जाता था। किस प्रकार लक्ष्मी ने मुखाग्नि की परम्परा को तोड़ और वंश केवल पुत्रों से नहीं पुत्री से भी चलता है दर्शाया हैं वह लाजवाब हैं। कहानी की भाषा आंचलिक हैं जिसकी वजह से मैं उस समय से जुड़ पायी हूँ।अद्भुत कहानी।
जवाब देंहटाएंअत्यंत प्रभावी कहानी है. बागड़ी जी का अंदाज़-ए-बयाँ भी कमाल का है! पहले वाक्य से ही कहानी बांधती है ! बहुत बधाई! आगे भी उनसे बहुत सी कहानियों की उम्मीद है. वे बिज्जी के समर्थ उत्तराधिकारी हैं!
जवाब देंहटाएंबरसों पहले राजस्थान के एक इलाके में परंपरागत समाज मे। एक स्त्री की यह लड़ाई इतनी आसान नहीं रही होगी, जितनी आज हम समझ पाते हैं।यह एक बड़ी लड़ाई रही होगी। बहुत अच्छे ढंग से कही गई कहानी बढ़िया है।
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो आदरणीय ज्ञान जी को बहुत-बहुत आभार ।उनकी लेखनी का बारंबार अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंसमकालीन साहित्य और नारी विमर्श का जीवंत आकलन है यह कहानी। कहानी की सबसे बड़ी खूबसूरती इस रूप में रेखांकित की जा सकती है कि बहुत ही सहज और बिना लाग लपेट के कहानी का कथ्य पाठक को निरंतर बांधे रखता है। पाठक का मन न केवल कथानक से जुड़ता है अपितु सहृदय भावनाएं निरंतर लक्ष्मी राय जी के साथ भी जुड़ी रहती है
डॉ राकेश रायपुरिया
हटाएंजनसंचार विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय
ऐसा लगता है सांझ ढले गांव में पीपल के गट्टे पर बैठ कर किसी बुज़ुर्ग से कहानी सुन रहे होंं..
जवाब देंहटाएंलोक की प्रवाहमान भाषा...और कथ्य ऐसा जो आख़िर तक बांधे रखता है..
मज़ा आ गया पढ कर..
बहुत शुक्रिया बागड़ी जी..ये कहानी पढवाने के लिये.🌺🌺
कमाल की कहानी ,बेहद आभार बागड़ी जी एवं समालोचना का ।
जवाब देंहटाएंलक्ष्मी राय की तरह ही इस कहानी की भाषा और शिल्प एकदम लक्ष्य केन्द्रित और सरल है - कहीं कोई वक्रता और आलं कारिकता का कौशल नहीं। एक बेहद अल्प ज्ञात परिपाटी और हुनर को राजस्थान के पुरुष प्रधान समाज में एक स्त्री न सिर्फ़ संभालती है बल्कि उसे दक्षता के साथ साधती भी है...गज़ब की कहानी।बहुत दिनों बाद इतनी सशक्त और पारदर्शी कहानी।पढ़ी है।बागड़ी जी की अन्य कहानियां ढूंढ़ ढूंढ़।कर पढूंगा,उन्हें बधाई।समालोचन ऐसा दुर्लभ हीरा खोज लाया हमारे लिए,उसका आभार।
जवाब देंहटाएंबागड़ी जी आपको अनेक बधाई।
जवाब देंहटाएंबातन के ठाठ में स्त्री ने अपनी ठाठ को विमर्श के पोली जमीन से उठाकर जिस सहजता और साहसपूर्ण तरीक़े से पुंसवादी सत्ता के समक्ष प्रस्तुत किया है वह सही अर्थों में अपनी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई है जिसे जाते जाते वह अपनी अगली पीढ़ी को थमा जाती है।विमर्श के धरातल पर एक सार्थक रचना के लिए आपको पुनः बधाई और शुभेच्छा।
यह कहानी पाठक को बिल्कुल लोक के करीब ले जाती है कि न केवल विषय को लेकर बल्कि लेखक ने कहानी का शिल्प और भाषा को परिवेश के अनुसार बुनते है। कहानी में स्त्री संघर्ष जो आधुनिक विमर्श से दूर है। सालो- साल से चलता संघर्ष आया है।
जवाब देंहटाएंकहानी के अंत मे राय जी कहती है---
हर औरत को अपने हक की लड़ाई खुद लडनी पड़ती है, मैंने लड़ी, तुमको भी मेरे जाने के बाद अपना संघर्ष खुद करना होगा. मैं विरासत में तुम्हें अपने संघर्ष सौंपकर जा रही हूं.
जब हिंदी में नगरीय परिवेश की कहानियों की बाढ़ आई है. ऐसे समय में बागड़ी जी ने ये सशक्त कहानी दी है.... हाँ, कहानी पढ़ने के बाद लगा कि कहानी शीर्षक कुछ और हो सकता था। बागड़ी जी को बहुत- बहुत बधाई
"बातन के ठाठ" कहानी लोक-संस्कृति की ऐतिहासक गाथा ही नहीं एक स्त्री के आत्म-संघर्ष की गाथा है, जो पुरुष वर्चस्ववादी समय-समाज में स्त्री की गरिमामय अस्मिता को रेखांकित करती है। यह केवल भाटों की विशिष्ट-कथा नहीं है बल्कि हर उस स्त्री की कथा है, जो विकल्पहीन परिस्थितियों में अपने को आत्मायोजित कर के एक नई असंभव परम्परा को संभव कर मिसाल पैदा करती है। लक्ष्मी राय जी ने विषम परिस्थितियों में राय जी की मृत्यु के बाद अपनी क्षमता, व्यावहारिक सूझ-बूझ और बुद्धिमत्ता का परिचय दिया,वह अद्वितीय है। लेकिन कहानी का निचोड लक्ष्मी राय जी के उस वक्तव्य में है, जो उत्तराधिकारी चुनने के बाद शांति से कहती हैं। राजस्थान के स्त्री भाटों की परम्परा पर बगरी जी की यह कहनी अविस्मरणीय है, जो कथा साहित्य के इतिहास में अपूर्व नायिका को जगह दिलाती है। स्त्री-विमर्श में जिस अधिकार और अस्मिता की चर्चा होती है, उसका गरिमामय रूप यहाँ उपस्थित होता है। कथाकार को बधाई! लक्ष्मी राय जी के सकरात्म चरित्र की उत्प्रेणा से जिस ऊर्जा का संचार होता है, उससे एक अद्भुत मिथ का निर्माण होता है पाठक के अन्दर। कहन की की सहज शैली की दृष्टि से भी कहानी बाँधती है
जवाब देंहटाएंअच्छा वृतान्त है। मुझे व्यक्तिगत रुप से ऐसे परिवेश के बारे में पहली बार पढ़ने को मिला। लेखक को बधाई । सरल एवं सशक्त लेखन
जवाब देंहटाएंप्राचीन समय मे एक औरत क़े संघर्ष की गाथा इतने सुन्दर सटीक शब्दों मे पढ़कर आनंदित महसूस कर रहा हूँ. शब्दों का चयन और बयां करने का अंदाज़ बेजोड़ और पाठक को अंत तक ऐसे बाँध कर रखती है जैसे कोई स्वादिष्ट व्यंजन का लुत्फ़ उठा रहा होता है. कहानी ज्ञानवर्धक तथा खटीक जाति क़े ऐतिहासिक महत्व व शान शौकत का वर्णन करती है.... दिल की गहराइयों से बधाई मामाजी...... अगली पेशकश क़े इंतज़ार मे.... अनिल खंन्ना (खींची )
जवाब देंहटाएं'बातन के ठाठ' बागड़ी जी की लाजवाब कहानी है। परम्परागत समाज में स्त्री के द्वारा पुरुषों के किए जाने वाले व्यवसाय को दक्षता से, दृढ़तापूर्वक सम्हालना। इसके साथ ही निर्भिक और पारदर्शी रहना किसी स्त्री के लिए बड़ी चुनौती तो रही ही होगी। मगर लक्ष्मी राय जैसे चरित्र के जरिये जिस विश्वसनीयता से बागड़ी जी ने कथा को रखा है, वह बहुत प्रभावी और सशक्त है। कहानी की आंचलिक भाषा और परिवेश इसे पाठक के दिल मे उतार देते हैं। बागड़ी जी को बधाइयां और अरुण देव जी का आभार।
जवाब देंहटाएंअपनी तरह की ऊष्मा से निर्मित बिल्कुल अलग कहानी। बागड़ी जी को बहुत बहुत बधाई।
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