अविनाश मिश्र जीवन की
यातना के कवि हैं, कभी कामू ने कहा था कि आधुनिक मनुष्य
सीसिफ़स की तरह शापग्रस्त है. रूटीन की यातना का उम्र क़ैद मुज़रिम. इसकी सज़ा
निरर्थक जीवन जीते हुए आप पूरी करते रहते हैं.
ये कविताएं समकालीन भारतीय
जीवन का एक ऐसा पाठ हैं जिसमें आप राजनीतिक प्रतिबद्धता की ऐयारी, साहित्यिक बाज़ीगरी,
और दैनिक बेबसी के बीच फिर से किसी उम्मीद का पीछा करते हैं. एक सुंदर कविता
धूल पर है जो आपको धूल मे मिलाकर आप को बचा लेती है.
यह सब कहते हुए अविनाश
शिल्प को उसके उरुज पर ले जाते हैं.
अविनाश मिश्र की कुछ नई कविताएँ
पाठक
वे आज जान पाते हैं
कल किए जा चुके की निरर्थकता
वैसे ही जैसे जानेंगे कल
आज की निरर्थकता.
जीवन सतत निरर्थकताओं को जानने का पर्याय है.
वे हमेशा चिंतापथ पर चलते हैं
उन्हें लगता है कि उनकी अनुपस्थिति में
घर की स्त्रियाँ अवैध संबंध बनाती हैं!
घर में न हों स्त्रियाँ
तब वे चोरी की चिंता में घुलते हैं
उनकी नींद में लीक होती रहती है गैस
और सपनों में छूटती हैं ट्रेनें
जिन्हें अगर पकड़ भी लिया गया
तब भी उतरना ही है उन्हें पटरी से.
जब आपकी राय पूछी जाए
जब आपकी राय पूछी जाए
तब आप एक अमूर्तन से काम लें
इस अमूर्तन में आपकी बेरंग प्रतिबद्धता
और अंधी युयुत्सा नज़र आए
जब आपकी राय पूछी जाए
जहाँ तक मुमकिन हो ढुलमुल उद्धरण याद कर लें
संस्मरणों में घालमेल से काम लें
आपका अनुभव ख़ुद को अकेला पाए
जब आपकी राय पूछी जाए
कुछ ऐसा करें कि आप पैदाइशी कमीने न लगे
यों लगे कि आप समकालीन प्रशिक्षण की उपज हैं
बार-बार आपकी ज़रूरत पड़ती जाए
जब आपकी राय पूछी जाए
वक़्त लें ताकि शब्दों में सफ़ाई रहे, वाक्यों में ठहराव
आवेश अगर कहीं हो तो उसे नियंत्रित रखें
आपके चेहरे पर आपका डर न नज़र आए
जब आपकी राय पूछी जाए.
स्खलन
मैं कब लिख सकूँगा
‘स्त्री’ शीर्षक से एक कविता.
‘ईश्वर’ और ‘प्रार्थना’ शीर्षक से
कब पुकारेगी कविता मुझे.
‘प्रेम’ और ‘दुःख’ और ‘भूख’ और ‘क्रांति’ को
कब बनाऊँगा शीर्षक.
कब लिख सकूँगा
कार्ल मार्क्स को ख़ुश करती हुई एक कविता.
मैं कब लिख सकूँगा
कविता!
आस्था,
तुम मुझे बर्बाद करती हो.
धूल
जब कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा,
धूल आ रही है
धूल ही चीज़ों की मदद कर रही है कि वे सामान्य हो सकें
वह मृत्यु के बाद श्रद्धांजलियों, संस्मरणों, शोक-सभाओं और अंतिम संस्कार सरीखी है.
जीवन सब तरफ़ खुदा पड़ा है—
किसी भारी पत्थर से हरेपन को कुचलता हुआ
सब तरफ़ इतना काम हो रहा है,
सब तरफ़ इतनी चुनौतियाँ हैं कि
जीवन किसी भी गली में मुड़े
धूल सब तरफ़ से घेरती हुई दिखती है
हाथ उसे हटाने के चिंतातुर मंसूबों में घायल हुए जाते हैं.
कोई अगर कहे कि जीवन धूल पर एक निबंध है
तब वह ग़लत नहीं होगा,
बशर्ते वह इस निबंध को पूरा माने!
अंततः सब कुछ ठीक हो जाने के दिन
सुबह उठो तो दुनिया कितनी निराशा से भरी हुई मिलती है
लेकिन धीमे-धीमे सब ठीक होने लगता है
और खोई हुई मामूली चीज़ों का मिल जाना भी आश्चर्य से भर देता
है
लोग उतने बुरे नहीं लगते जितने बुरे वे हैं
राजनेताओं और चापलूसों तक के चेहरे अच्छे लगने लगते हैं
एक ख़त्म नहीं होती असुरक्षा में न्यूनतम अच्छाई की तलाश महत्त्वपूर्ण
लगने लगती है
समूह में विवेक जागता हुआ नज़र आता है
और सब जगह सब कुछ के लिए थोड़ी-थोड़ी जगह बनने लगती है
साँस में साँस आने लगती है
और रंग में और बहुत सारे रंग
सुर में और सुर
सब तरफ़ हर्ष और उल्लास से भरा कोरस गूँजने लगता है
इस तरह अंततः सब कुछ ठीक होता है और तकिये पर पड़ा हुआ
मस्तिष्क शिथिल.
अविनाश बेहद प्रतिभाशाली कवि हैं।
जवाब देंहटाएंअविनाश भाषा और शिल्प की ताजगी के कवि हैं - अच्छी बात यह कि बिना दुरूह हुए वे जीवन की दुरूहताओं को व्यक्त करने में सक्षम हैं। उन्हें बधाई।
जवाब देंहटाएंअविनाश की कविताई,कविता की मुनादी पर खरी उतरती हुई कविताएं हैं।बहुत प्यारी कविताएं पढवाने के लिए समालोचन का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबेहद संयमित भाषा में विस्तार विषय कहती कवितायें ..बधाई
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएँ। अविनाश अपनी ख़ास तरह की शार्पनेस के साथ हमारे समय के बहुत से छद्मों को उजागर करते हैं। व्यापक लस्टम पस्टम के बीच वाक्य संरचना को लेकर उनकी सजगता सुखद है। उनकी और कविताएँ होनी चाहिए थीं।
जवाब देंहटाएंअविनाश की कविताएँ अच्छी हैं खासकर 'पाठक' और 'धूल'। अब्यक्त होकर भीतर ही रह जाने वाली आम मनुष्य की भावनाओं को सहजता से जिस तरह भाषिक उड़ान इन दोनों ही कविताओं ने दी है वह उल्लेखनीय है ।
जवाब देंहटाएंये कविताएँ मनुष्य के स्वभाव की परतदार पॉलिटिकल वृत्तियों और भंगिमाओं से पर्दा उठाती हैं, जिसे छुपाने के लिए एक धुँधला सामाजिक व्यवहार किया जाता है। अविनाश प्रवृत्तियों को रेखांकित करने में माहिर है। वह लाउड हुए बिना बहुत आराम से अपनी कविता में ऐसा संभव कर पाता है। यह उसकी लिखाई का बल है।
जवाब देंहटाएंपाखंड को चीरती, आत्मालोचन करती, मनुष्यों के डर को उजागर करती कविताएँ । अविनाश मिश्र हिन्दी के उन नये कवियों में हैं, जिन पर सतत निगाह रखने की ज़रूरत है । इधर अविनाश अधिक संयत, अधिक निर्मम और अधिक बेधक हुये हैं । इन कविताओं में जीवन की धूल उड़ती दिखाई दे रही है । समालोचन का शुक्रिया अविनाश मिश्र की नयी कविताएँ पढ़वाने के लिये ।
जवाब देंहटाएंमुझे ये कविताएँ बेहद अच्छी लगीं। रोशनी की शुआ या अंधेरे की शुआ ने बींध रखा है इन्हें। ज़ायका और अंदाज़े बयान कुछ और ही है!
जवाब देंहटाएंमुझे तो समालोचन द्वारा अविनाश की निर्मित चित्र कृति भी अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंअविनाश की कविताएं , यह विश्वास दिलाती है कि अभी अच्छी कविताएं बची हुई है ।
जवाब देंहटाएंनिश्चय ही अविनाश भाई की कविताएं हर बार नए कथ्य शिल्प और अलहदा अंदाज के साथ आती हैं।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन। जरूरी कविताएं। कुछ और कविताएं शामिल होतीं तो अविनाश जी को हम और अधिक कविता में खोजते और मुझे विश्वास है वे इसी तरह जीवन की तरफदारी में गहरे जुड़े मिलते
जवाब देंहटाएंयह कवि अपनी उपेक्षाओं के बावजूद दिनों दिन निखर रहा है। अशांत समय और क्षतिग्रस्त चित्तवृत्तियों को उकेरने वाला कवि।
जवाब देंहटाएंArun Dev, your comments put these poems into a meaningful context. Serious poems indeed! Avinash has continued to write well.
जवाब देंहटाएंअविनाश भयानक औसतपन की मारी अपनी पीढ़ी के उन कुछ प्रखर कवियों में एक हैं जिनको पढ़ना हमेशा एक अनुभव दे जाता है।
जवाब देंहटाएं'अंततः सब कुछ ठीक हो जाने के दिन' ग़ज़ब की राजनीतिक कविता है. जिसे कहने में विश्लेषकों को शब्दों का लालकिला खड़ा करना पड़ता है, उसे अविनाश ने किस किफ़ायत के साथ कह दिया है!
जवाब देंहटाएंअविनाश मिश्र की यहाँ प्रकाशित सभी कवितायें पढ़ गया। अच्छी हैं और नया काव्य -मन बनाती हैं। उन्हें बधाई और प्रकशित करने के लिए आपका आभार।
जवाब देंहटाएंवास्तव में Avinash की कवितायें जीवन की यातना की कवितायें हैं जिस जीवन और यातनाओं को भोगना हमारी जरूरत है...इन अच्छी कविताओं के लिये अविनाश को बधाई और पढ़ने का मौका देने के लिये आपको साधुवाद
जवाब देंहटाएंपरिपक्व कविताएँ हैं। "धूल" ख़ास तौर पर अच्छी कविता है।
जवाब देंहटाएंये कविताएँ यथार्थ की परख तो करती ही हैं, समय से जूझते इंसान के भीतर आते विचलन की ओर भी इशारा करती हैं।
जवाब देंहटाएंपरिपक्व कवि
जवाब देंहटाएंअविनाश जी की कविताओं में एक प्रवाह है जो कई बार सार्थक संवाद की तरह लगती है। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत मैच्योर कविताएं। पाठक और धूल बहुत सुंदर कविता हैं/ अपनी चुप्पी में शांत नीरव बहती हुई। अविनाश को बधाई।
जवाब देंहटाएंपहली कविता के शीर्षक 'पाठक' का क्या व्यंग्य हो सकता है कल्पित जी और आशुतोष जी? Krishna Kalpit
जवाब देंहटाएंAshutosh M M
2. सभी कविताएँ नवीन उद्भाभावनाओं से युक्त और पठनीय हैं । परंतु सुबह की किरनें मुझे नहीं दिखीं। अँधेरे की किरनें कैसी होती हैं पता नहीं ।
मुझे लग रहा है कि जनप्रिय होने लायक होकर भी अच्छी स्तरीय कविताएं हैं ।
Tewari Shiv Kishor जी व्यंग नहीं विडम्बना अधिक जान पड़ती है । हर हमेश आशंकाओं में अजान चिंता में डूबा एक साधारण भारतीय मनुष्य का मन । डरा हुआ । जबकि तुलसी कहते हैं अनहोनी होनी नहीं होनी हो सो होय । यह चार्वाकों का मत है जिसका अनुवाद तुलसी ने किया । आधुनिक भारतीय मनुष्य परम्परा और आधुनिकता दोनों से कटा हुआ आशंकित मनुष्य है । कविता का शीर्षक पाठक क्यों है यह पहेली है । कोई कोण हो सकता है ।
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं👌
जवाब देंहटाएंकविता हमें भीतर ले जाती है .. परिचित - से लगने वाले शब्द नये मुहावरों में परतों को खोलते हैं तो हम एक नये आलोक में चीजों को देखते हैं .. कविता का यह काम मुझे हमेशा अवाक कर देता है. अविनाश मिश्र और समालोचन - दोनों का आभार
जवाब देंहटाएंअविनाश जी की कविताएं भीतर की ओर द्वार खोलती हैं। इन सुंदर रचनाओं के लिए उन्हें बधाई...
जवाब देंहटाएंYou are really doing a commendable job by introducing us to the wonderful writers... Very nice poems..
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