वायु की सुई : अम्बर पाण्डेय




अम्बर पाण्डेय की यह तीसरी कहानी है, इसका कथ्य और शिल्प दोनों पिछली कहानियों से अलग है. लम्बे और जटिल वाक्यों का प्रयोग किया गया है. अवास्तविक लगता घटनाक्रम आज के ‘उत्तर-सत्य’ के यथार्थ का ही एक आयाम है. अपराध-पाप, पिता-पुत्र आदि द्वैत में यह कहानी विचलित भी करती है. यह हिंदी कहानी का एक अलग बनता हुआ दीखता रूप है. ख़ास आपके लिए.




वायु की सुई                                                                      
अम्बर पाण्डेय



"The tortured person never ceases to be amazed that all those things one may, according to inclination, call his soul, or his mind, or his consciousness, or his identity, are destroyed when there is that crackling in the shoulder joints."

Jean Améry



प इतने निर्बल हो चुके है कि अब आपके मरने की प्रार्थना करना व्यर्थ है और यह देखकर कि संसार की सभी वस्तुओं से आपकी पकड़ छूटती जा रही है आप पर अब क्रोध नहीं आता न आपको दया का पात्र बना हुआ देखकर मुझे कोई सुख मिलता है जबकि एक समय था जब मैं इतना क्रूर था कि मुझे लगता था आपको दया का पात्र बने हुए देखकर मुझे सन्तोष होगा परन्तु असमय बुढ़ापा आ जाने के कारण अचानक आपको यों निर्बल देखकर मैं खेद से भर जाता हूँ कि यदि मैं यही चाहता था तो कितना मूर्ख था क्योंकि जिसने आपको बहुत मारा-पीटा हो, आपको सम्पूर्णत: नष्ट करने का प्रयास किया हो उससे आप उसके निर्बल होने पर बदला नहीं ले सकते चाहे आपको कितने ही अवसर क्यों न मिल जाएं और यही एक पिता होने का लाभ है। 


क्या हिंसा रक्त के समान पिता से सन्तान में और फिर सन्तान से उसकी सन्तान और इस प्रकार अनन्तकाल तक यात्रा करती है? पिताजी आपका मुझपर बात बेबात हाथ उठाना घर में इतनी साधारण बात थी कि इतने दिनों बाद अब भी मुझे ठीक ठीक नहीं पता कि कौन सी बात आपको इतना क्रोध से भर देती थी और यदि अब भी आपको उतना ही क्रोध आता तो शायद मैं इसे आपका स्वभाव मानकर स्वयं को सांत्वना दे लेता किन्तु अब आप शान्त बैठे रहते है क्योंकि आप जानते है कि आपमें अब वह शारीरिक बल नहीं रहा और आप जानते है कि आपके मारने पर पलटकर आपको मारना तो अकारण ही होगा केवल आपका हाथ ही यदि पकड़ लूँ तो आपकी कलाई की हड्डी टूट सकती है; यही बात मुझे एक कील सी भीतर ही भीतर चुभती है कि उस समय भी आप अपने क्रोध पर नियंत्रण रख सकते थे और आपने नहीं रखा क्योंकि हम अपने जीवन के लिए आपपर निर्भर थे। 


बच्चों को पीटना उन दिनों आम बात थी ऐसा आप बाद के दिनों में अक्सर कहते रहे है जबकि मैं आज भी इसे लेकर इतनी ग्लानि से भरा हुआ हूँ कि मैंने कभी इस विषय पर आपसे या किसी और से बात ही नहीं की किन्तु जैसे किसी अत:प्रज्ञा के कारण आपने इसे जान लिया हो और सोचिए आपकी यह अत:प्रज्ञा आपकी उन दिनों की असंवेदनशीलता से कितनी विपरीत कितनी आकस्मिक है जो बीते हुए दिनों पर और अधिक गहरी और अधिक गाढ़ी छाया डाल देती है जैसे शव के ऊपर कम्बल जिसकी शव को अब कोई आवश्यकता नहीं है।


पशु और स्त्री अधिकारों पर उस समय शासन और हमारे न्यायालयों का इतना अधिक ध्यान था कि वर्षों से चली आ रही समाज की कार्यशैली ही ध्वस्त नहीं हो गई थी बल्कि हमारा जीवन भी दुसाध्य हो गया था किन्तु आपने कभी अपनी जीवनशैली बदलना स्वीकार नहीं किया और पशुवाहनोपयोग पर पाबन्दी लगानेवाले क़ानून के आने के बाद भी घोड़े पर हमारे कारख़ाने जाते रहे; आप जानते ही है इसके कितने दुष्परिणाम हुए फिर घोड़ों की ज़ीन, रक़ाब, लगाम और कजावे बनाने का हम लोगों का व्यापार तो नष्ट होना ही था क्योंकि घुड़दौड़ पर पाबन्दी हो चुकी थी, ताँगे चलाना और घुड़सवारी करना अपराध घोषित किया जा चुका था तथा घोड़ों को पालने पर चार से छह वर्षों के सश्रम कारावास का प्रावधान था किन्तु आपने अपने हठ में हानि सहकर भी कारख़ाना बंद न करने का निश्चय किया और मुझे और माँ को कहते रहे कि सजावटी वस्तुओं के रूप में कारख़ाने में बननेवाली वस्तुएँ और अधिक बिक रही है क्योंकि वे ग्राहकों को उस समय का स्मरण करवाती है जब पर्यावरण अच्छा था और मनुष्य प्रकृति के निकट था फिर जैसा कि अवश्यंभावी था आप एक दिन यातायात निरीक्षक द्वारा पकड़ लिए गए जब आप दधीचि (हमारे घोड़े का नाम) पर सवार लगभग चालीस मील प्रति घंटे की गति से कारख़ाने से लौट रहे थे। 


आपके घर दूरभाष करने पर कि हम खाने पर आपकी प्रतीक्षा न करे माँ ने मुझसे तुरन्त उसी स्थान पर चलने को कहा जहाँ आप यातायात निरीक्षक के साथ खड़े थे और दोनों बहनों को घर में ताले लगाकर माँ और मैं बाहर निकले चूँकि आप मोटरवाहन के धुएँ से घृणा करते थे हमारे पास साइकिल आप तक पहुँचने का सबसे तेज साधन था जिसे माँ को पीछे बैठाकर मैं अपनी पूरी शक्ति से खींच रहा था किन्तु हमें देखकर आप उस महिला यातायात निरीक्षक पर और अधिक झुँझलाने लगे, आपके अनुसार वह दधीचि को किसी भी स्थिति में ज़ब्त नहीं कर सकती थी क्योंकि नया क़ानून उसे एक क़ानूनी व्यक्ति की उपाधि देता था और उससे पूछना आवश्यक था कि वह कहाँ रहना चाहता है जबकि महिला यातायात निरीक्षक का यह मानना था कि घोड़े की इच्छा जानने का अधिकार केवल न्यायाधीश को है और वह घोड़े को अतिशीघ्र न्यायालय में प्रस्तुत करेगी जिसपर मुझे आपकी आपत्ति उचित ही लगी कि महिला यातायात निरीक्षक की बात यदि मान ली जाए तो घोड़े को निरपराध ही जेल जाना पड़ेगा क्योंकि शासन द्वारा प्रदत्त समस्त सुखसुविधाओं में भी वह अपने स्वामी के बिना व्यग्रता अनुभव करेगा इसपर महिला यातायात निरीक्षक आपपर बिगड़ पड़ी कि अब तक पशुओं को लेकर आप स्वामी और दास जैसे शब्दावली का उपयोग करते है जो कि बहुत गम्भीर अपराध है किन्तु उसने कहा कि वह उसे आपके विरुद्ध प्रकरण बनाने में दर्ज नहीं करेगी क्योंकि हो सकता है यह आपकी असंवेदनशीलता न होकर खीजकर कहे गए वाक्य हो।


एक नास्तिक अन्ततः अपने पिता में ईश्वर खोज लेता है और फिर जीवनभर उस ईश्वर के साथ रहने का प्रयास करता रहता है आप जानते है यह निरर्थक है और यह असफलता उसे शासकीय अफ़सरों में ईश्वर खोजने तक ले जाती है ऐसा दार्शनिक बहुत वर्षों से कहते रहे है और इसका साक्षी मैं उस दिन हमारे शहर की एक भीड़भरी सड़क पर बना जब मेरे लिए ईश्वर का स्थान उस अदृश्य न्यायाधीश ने ले लिया जो न केवल मेरे पिता के जीवन के विषय में निर्णय लेनेवाला था यहाँ तक कि हमारे घोड़े के बारे में भी निर्णय लेने का अधिकार उसे था और यह अधिकार जिस पुस्तक ने उसे दिया था उसे न मैंने पढ़ा था न मेरे मातापिता ने जबकि विगत कुछ दिनों से संविधान हमारे देश में इतना महत्त्वपूर्ण हो गया था कि उसे पढ़े बिना हम मेट्रिक तक नहीं कर सकते थे किन्तु हम संविधान का मोटा पोथा पढ़ने के बजाय डॉक्टर ह.ह. हेडगेवार की पतली कुंजियाँ पढ़कर पास हो गए थे और इसका दुष्परिणाम हमें उस दिन स्पष्टत: भुगतना पड़ता यदि पिताजी आपके मित्र बैरिस्टर नारायण आचार्य अपनी मोटरकार हमें वहाँ खड़ा देखकर न रोकते और काले कोट और श्वेत बुशर्ट में अपना मेदस्वी शरीर उठाए महिला यातायात निरीक्षक को अश्व अभिरक्षा दायित्व क़ानून से अवगत न कराते जिसे बताते हुए उनकी आवाज़ भारी हो गई थी और उसमें एक ऐसा कम्पन उत्पन्न हो गया जो केवल वकीलों की आवाज़ में सुदीर्घ वकालत के बाद उत्पन्न होता है, “मैं बैरिस्टर नारायण आचार्य आपको बताता हूँ कि”; ऐसा कहकर उन्होंने महिला निरीक्षक अधिकारी को अश्व अभिरक्षा दायित्व क़ानून सम्बंधी एक लम्बी, जटिल नियमावली सुनाई और हम दधीचि को लेकर घर आ गए, यहाँ तक कि उसकी ज़ीन, लगाम और रक़ाब तक महिला यातायात निरीक्षक ज़ब्त न कर सकी।


अन्ततः मुझे न्यायाधीश के दर्शन हुए जब वे एक साधारण सी लकड़ी की कुर्सी पर तकिया लगाकर बैठे हुए थे और उनके दायीं तरफ एक टेबुलफ़ेन चल रहा था जिसमें उनके काले लबादे का कॉलर उड़ उड़कर उनके गाल पर थप्पड़ सा मार रहा था जिसे वह मौन गरिमा से सह रहे थे जैसे अपने छोटेमोटे पापों के लिए वह स्वयं को दंड दे रहे हो और निरंतर अपना शुद्धिकरण कर रहे हो, उनकी बायीं ओर कनिष्ठ लिपिक बैठी हुई टाइपराइटर पर कुछ लिख रही थी और बीच बीच में वह मुँह उठाकर पिता पर एक दयादृष्टि डाल देती थी कि उन्हें एक भाषाविहीन जीव को अपना दास बनाकर रखने का पाप करने की क्या आवश्यकता थी किन्तु पिताजी न्यायालय में कनिष्ठ लिपिक की दृष्टि की उपेक्षा करते हुए यों खड़े थे जैसे उन्हें अपने पाप पर कोई पश्चात्ताप न हो और यदि अवसर मिले तो वे पुनः वही करेंगे जो उन्होंने अब तक किया था और यह भी कि संसद द्वारा प्रतिदिन बनाए जानेवाले अंतहीन, विचित्र और कठोर नियमों के प्रति उनके मन में इतना सा भी सम्मान नहीं है और पिताजी की इस भावना को न्यायाधीश भी जान चुके थे जो कि मैंने न्यायाधीश के पिता को देखने के ढंग से जाना था जो किसी वैज्ञानिक के अपने प्रयोग के असफल होने पर परखनली को हाथ के मोज़े पहनकर आँखों के ऊपर ले जाकर देखने के ढंग जैसा था।


कार्रवाई आरम्भ होने पर न्यायाधीश ने बताया कि कैसे राष्ट्र की महिमामयी संसद ने जनता के हित में अपराध की धारणा समाप्त कर दी है और अब कोई भी व्यक्ति अपराधी घोषित नहीं किया जा सकता, इसपर मैंने उसी प्रकार की शान्ति का अनुभव किया जो मैं ईश्वर के साक्षात्कार के समय करता (अन्ततः न्यायाधीश ही हमारे ईश्वरविहीन संसार में ईश्वर थे) क्योंकि केवल ईश्वर ही मनुष्य को उसके अपराधों को परे रखकर देख सकता था और आजतक मेरी यह धारणा रही थी कि हमारा शासन, न्यायालय और संसद क्रूर है किन्तु उस दिन मैंने प्रथम बार ईश्वरीय करुणा का अनुभव किया था तब न्यायाधीश ने आगे कहा कि संसद के नए क़ानून के पश्चात् अब हमारी न्यायव्यवस्था में केवल पाप की धारणा शेष है और आज हम सब इस न्यायमंदिर में इसलिए इकट्ठा हुए है कि इस बात का निर्णय कर सके कि श्रीमान अपूर्वचन्द्र शर्मा ने घोड़े पर अपने स्वामित्व की स्थापना का पाप किया है कि नहीं और यदि किया है तो इसके प्रायश्चित्त के लिए हमारी न्यायस्मृति में क्या प्रावधान है केवल इतना कहकर वे उठ खड़े हुए और सभा विसर्जित हुई।


उसके बाद प्रति सप्ताह पिताजी के संग न्यायालय जाना मेरा कार्य हो गया और मैं अपने इस कर्तव्य को पूर्ण निष्ठा से निभाने को लेकर इतना सतर्क हो गया कि न्यायालय की तारीख़वाले दिन मैं ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर लेता, इस्त्री की हुई श्वेत बुशर्ट और नीली पतलून पहनता तथा घण्टेभर तक अपने जूते चमकाता रहता इस आशा में कि न्यायाधीश निश्चय ही मेरे स्वच्छ, इस्त्री किए हुए कपड़े और चमकते हुए जूते देखकर पिताजी को दोषमुक्त कर देंगे किन्तु पिताजी मुझसे भी अधिक इस बात का ध्यान रखते कि न्यायाधीश में समक्ष उनका प्रभाव एक मध्यमवर्गीय सुशिक्षित व्यक्ति का पड़े इसलिए एक दिन पूर्व नाई की दुकान पर वे हजामत बनवाते और बाल कटवाते थे यहाँ तक कि देर तक हमारी साइकिल वह धोते रहते और उसपर मोम से बनी कोई विदेशी पॉलिश करते रहते किन्तु यह सब माँ को बिलकुल भी उचित नहीं लगता था माँ का मानना ठीक ही था कि प्रति सप्ताह इस प्रकरण के कारण दो दिन की हानि हो रही थी पहला दिन न्यायालय जाने की तैयारी में जाता था और दूसरा दिन न्यायालय में जिसके कारण मेरी पढ़ाई का भी बहुत हर्जा हो रहा था क्योंकि मैंने पिताजी के न्यायालय में आरम्भ हुए प्रकरण के तीन महीने बाद रसायन यांत्रिकी में प्रवेश लिया था और पिछले एक वर्ष से मैं न्यायालय के कारण प्रतिसप्ताह दो छुट्टियाँ ले रहा था किन्तु अब तक न्यायाधीश अनिर्णय की ही स्थिति में थे।


उस रविवार को हमें न्यायालय जाना था इसलिए पिताजी तैयार होकर दधीचि को न्यायालय ले जाने के लिए नहला रहे थे क्योंकि उस दिन न्यायालय में उसे हमारे साथ रहने या शासकीय अश्वशाला में रहने के सम्बन्ध में सहमति देनी थी जिसके कारण पिताजी कल रात से ही बहुत व्यग्र हो रहे थे क्योंकि किसी को यह पता नहीं था कि दधीचि अपनी सहमति कैसे प्रकट करेगा और उसे न्यायाधीश समझेंगे कैसे; पिताजी ने अपने बहुत से मित्रों को दूरभाष करके इस सम्बंध में जानकारी लेना चाही किन्तु किसी भी व्यक्ति को ऐसे किसी प्रकरण की जानकारी नहीं थी और तब भी इस विचित्र प्रकरण के विषय में समाचारपत्रों में उस रविवार के अंक में समाचार छापना आवश्यक नहीं समझा जो कि मेरे लिए पत्रकारों की क्रूरता का ही द्योतक था क्योंकि राष्ट्राध्यक्ष की प्रत्येक बात पर वे लोग लम्बे लेख प्रकाशित करते थे यहाँ तक कि राष्ट्राध्यक्ष को किसी अज्ञात फलियों से बना सूप बहुत प्रिय है इसकी विधि तक उन्होंने अपने समाचारपत्र में मुख्यता से प्रकाशित की थी यह बताते हुए कि इन अज्ञात फलियों का सूप किस प्रकार बुद्धि और स्मृति को वृद्ध नहीं होने देता बल्कि इससे मस्तिष्क की वय युवतर होती जाती है किन्तु आज न्यायालय में जो विचित्र स्थिति उत्पन्न होनेवाली थी और उससे एक पूरे परिवार और घोड़े का जीवन सदा के लिए प्रभावित हो जानेवाला था उसके बारे में उन्होंने एक शब्द तक लिखना उचित नहीं समझा था, यही बात जब मैंने पिताजी को कही तो वह मुझे समझाने लगे कि समाचारपत्रों ने यह समाचार प्रकाशित न करके उनपर उपकार ही किया है क्योंकि समाचार पढ़कर न्यायाधीश के प्रभावित होकर निर्णय करने की उन्हें आशंका थी और वे जानते है कि समाचारपत्र सदैव शासन के पक्ष में ही लिखना सही समझते है और समाचारपत्रों को भी मेरी भाँति शासन में ईश्वरीय तत्त्व के दर्शन होते है तो कुलमिलाकर उस दिन पिताजी मुझसे भी चिढ़े हुए थे जो मैं और माँ समझ गए थे कि आज वह किसी न किसी बात पर मुझपर हाथ उठाएँगे।


न्यायालय की उस दिन की कार्रवाई मेरी समझ के बिलकुल परे थी इसलिए कि दधीचि को न्यायालय में लाया गया किन्तु उससे न कुछ पूछा गया न उससे कुछ कहा गया बल्कि देर तक उसे न्यायालय में इस प्रकार खड़ा होना पड़ा जैसे पिताजी पापी न होकर दधीचि पापी हो हालाँकि घोड़े पूरा जीवन खड़े होकर बिताते हैं और भूमि पर गिरते वे केवल मरने के लिए है किन्तु आप जानते ही होंगे कि संसार में कहीं भी खड़े होने और न्यायालय में किसी भी रूप में खड़े होने में कितना अंतर है फिर दधीचि जैसा संवेदनशील घोड़ा तो तुरन्त समझ गया कि यहाँ उसका जीवन पूर्णरूपेण परिवर्तित हो सकता है इसलिए वह मुँह झुकाए खड़ा रहा और घास के लम्बे टुकड़े को चूइंगगम की भाँति चबाता रहा, उसकी आँखों में देर तक नहलाए और उसे तैयार करने के बाद भी पिताजी ने श्वेत, चिकटा पदार्थ और आँसू निकलते देखे जिसे न्यायाधीश ने भी देखा और फिर उन्होंने कहा कि घोड़े की श्रीमान अपूर्वचन्द्र शर्मा के साथ रहने की सहमति से उनका पाप कम नहीं हो जाता किन्तु उन्हें प्रसन्नता है कि घोड़े ने स्पष्टतया उनके साथ रहने की सहमति दी है और न्यायाधीश ने आगे कहा यह जानते हुए भी कि श्रीमान अपूर्वचन्द्र शर्मा ने उनके प्रति घोड़े के प्रेम का लाभ उठाते हुए न केवल स्वयं को उसका स्वामी घोषित किया जो कि घोड़े के साथ विश्वासघात है बल्कि महिला यातायात निरीक्षक के अनुसार उसकी सवारी भी की जो कि राष्ट्रीय दण्डसंहिता में पाप है और जिसे जानने के लिए न्यायालय को और भी समय चाहिए तब तक घोड़े की अभिरक्षा का भार श्रीमान अपूर्वचन्द्र शर्मा को दिया जाता है और उनसे आशा कि वह घोड़े के सभी अधिकारों की रक्षा करेंगे; इस सम्बंध में आदेश की प्रति विभिन्न पक्ष कनिष्ठ लिपिक से ले सकते है और अगली सुनवाई दिनांक १५ सितम्बर को प्रातः साढ़े छह बजे निर्धारित की जाती है।


पिताजी आदेश लेने के लिए कनिष्ठ लिपिक की मेज़ के सामने खड़े हो गए किन्तु मैं अभी तक यह नहीं समझ पाया था कि न्यायाधीश ने दधीचि की इच्छा किस प्रकार समझी थी और आदेश दिया था  कि वह हमारे साथ ही रहेगा इसलिए मैं अपने आसपास ऐसे किसी व्यक्ति को ढूँढने लगा जो मुझे इस सम्बंध में जानकारी देता और तभी मुझे वरिष्ठ लिपिक दिखाई दी जो एक विशाल मेज़ पर फ़ाइलों से बनी दीवारों से घिरी ख़ाली बैठी हुई थी जहाँ से उनके किसी महँगे केशकर्तनालय में कटे हुए केश की कनपटी पर मुड़ती एक भूरी लट दिखाई दे रही थी जिसे देखकर मुझे आभास हुआ कि वह अवश्य ही कोई सुन्दर महिला है और मैं उनके सामने जाकर मौन खड़ा हो गया क्योंकि मेरा अनुमान था कि वरिष्ठ लिपिक होने के नाते वह न केवल व्यस्त होंगी बल्कि वय में भी अधिक होंगी किन्तु वह तो बीस बाईस वर्षीय सुन्दर लड़की थी जिसके गालों की त्वचा टमाटर की त्वचा की भाँति कोमल और पतली थी जो उनके गले तक जाते जाते और पतली और जहाँ से स्तन आकर लेना आरम्भ ही रहे थे वहाँ तो बिलकुल पारदर्शी हो गई थी, वह मुझे देखकर मुस्कुराई और उन्होंने कहा कि वह जानती है मैं उनके पास क्यों आया हूँ और मेरा यह भ्रम कि वरिष्ठ लिपिक होने के नाते वह सेवानिवृत्त होने को कोई बूढ़ी महिला होंगी तो आधारहीन निकला ही है साथ ही यह कि वरिष्ठ लिपिक होने के नाते वह बहुत व्यस्त होंगी वह भी नितान्त ग़लत है क्योंकि वरिष्ठ लिपिक का मूल कार्य कनिष्ठ लिपिकों के कामकाज का केवल निरीक्षण करना है इसलिए वह दिनभर ख़ाली रहती है इसपर मैंने तुरंत उनसे न्यायाधीश द्वारा घोड़े की इच्छा जानने की प्रक्रिया के विषय में पूछ लिया और उनकी मेज़ के सामने रखी कुर्सी पर बैठने जा ही रहा था कि पीछे से किसी ने मेरा कन्धा पकड़कर मुझे वहाँ से खींचना चाहा जब मैंने पीछे मुड़कर देखा तो पिताजी थे जो काग़ज़ों का एक मोटा सा गठ्ठर उठाए हुए थे और मुझे खींचते हुए कह रहे थे कि चूँकि आदेश मिल चुका है अब हमें घर लौटना चाहिये और इससे पूर्व कि वरिष्ठ लिपिक मेरे प्रश्न का उत्तर देती साइकिल पर हम घर लौट आए हमारे आगे आगे दधीचि दौड़ता हुआ जा रहा था जैसे हमें रास्ता दिखा रहा हो और बीच बीच में वह हमें पीछे मुड़कर देख लेता था क्योंकि पिताजी को आदेश के उस मोटे से गठ्ठर के साथ बैठाकर साइकिल चलाना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था और मैं बहुत धीरे धीरे उस पहाड़ पर बनी सड़क पर साइकिल चढ़ा पा रहा था।


देर तक पिताजी सैकड़ों पृष्ठ लम्बा आदेश पढ़ते रहे और भोजन टालते रहे जबकि उन्हें पता था कि न्यायालय जाने के कारण मैं पूरे दिन से भूखा था और माँ भी उनके न्यायालय जानेवाले दिन भोजन नहीं करती थी साथ ही दोनों बहनें भी पढ़ते पढ़ते भूखी ही सो गई थी किंतु पिताजी आदेश यों पढ़ रहे थे जैसे कोई जासूसी उपन्यास हो और बार बार बुलाने पर ही भोजन की मेज पर नहीं आ रहे थे तब माँ उन्हें पुनः बुलाने के लिए उठी; मैं बहुत अधिक भूखा था और पिताजी के साथ रात का भोजन करना यह हमारे घर का नियम था इसलिए मैं भी माँ के पीछे पीछे पिताजी के कमरे में जा पहुँचा जहाँ वह आदेश की प्रति पढ़ रहे थे और उन्होंने माँ से कहा कि हम लोग खाना खा ले वे केवल दूध पिएँगे, हिप्पो हमारा ग्रेट डेन प्रजाति का कुत्ता उनके पैरों में बैठा हुआ था जो दूध शब्द सुनकर धीरे धीरे पूँछ हिलाने लगा और मुझे याद आया कि सम्भवतया न्यायाधीश ने दधीचि के पूँछ हिलाने से उसकी इच्छा के बारे में जाना हो फिर यह विचार मैंने तुरंत स्थगित कर दिया क्योंकि पिताजी दधीचि की पूँछ को लाल ऊन से बाँधकर ले गए थे इसपर मैंने पिताजी से पूछा कि क्या इस आदेश में न्यायाधीश के दधीचि की इच्छा जानने की प्रक्रिया के बारे में कुछ लिखा है क्योंकि वह अब तक मेरे लिए रहस्य बना हुआ है तब पिताजी अपने हाथ से आदेश के काग़ज़ों के गठ्ठर का एक हिस्सा फेंककर उछले, खड़े हुए और चिल्लाए

साला, सुबह से बस यही पूछे जा रहा है, हराम के पिल्ले तू उस सीनियर क्लर्क के पास गया क्यों था पूछने कि जज ने दधीचि की इच्छा कैसे जानी जब हमारे ही पक्ष में फ़ैसला आया है तो तुझे किस बात की खुजली है” 

यों कहकर पहले उन्होंने मेरी दोनों आँखों के बीच एक घूँसा मारा और नाक से रक्त निकलते देखकर नाक पर घूँसे पर घूँसे मारने लगे किन्तु पाँचवें घूँसा पड़ते ही मैं भूमि पर लोटने गया और बचने के लिए उनकी पढ़ाई की मेज़ के नीचे घिसट घिसटकर जाने लगा अब पिताजी मुझे अपनी दायीं लात से मार रहे थे क्योंकि माँ ने उनका बायाँ पाँव पकड़ लिया था और पिताजी कह रहे थे

सुबह से गधे की एक ही रट बस एक ही रट, हरामी कॉलेज जाने लगा पर है इतना गधा कि कोर्ट में भी सब से पूछता रहा कि कैसे जाना जज ने घोड़े का मन” 

इतना कहते कहते वह हाँफने लगे और माँ मुझे दूसरे कमरे में ले गई और मेरी नाक अलग अलग जगह से दबाकर रुका हुआ रक्त निकालने लगी जिसके कारण मुझे अचानक नींद आ गई फिर मुझे पता था कि पिताजी कभी माँ को या मेरी बहनों को नहीं मारते थे जो मेरे लिए बहुत सन्तोषप्रद था।


रात डेढ़ या पौने दो बजे मेरी नींद अचानक से उठी तीखी शिरोपीड़ा के कारण खुल गई और अब मुझे लगता है कि सम्भवतया उसी रात से मुझे विक्षिप्त करने की सीमा तक होनेवाली शिरोपीड़ा आरम्भ हुई थी जो एक स्थान पर स्थिर रहने से और बढ़ती थी और मैं निरंतर एक कमरे से दूसरे में दौड़ लगाता रहता था क्योंकि ऐसा लगता था कि माथे पर काँक्रीट का एक बृहद टुकड़ा गिरनेवाला हो जिससे कारण मैं अपनी दोनों आँखें बंद कर लेता और फ़र्निचर से टकराता हुआ काँक्रीट के टुकड़े से बचने के लिए भागने लगता जैसे मैं उस रात्रि भी भाग रहा था जब माँ रोते रोते बहनों के साथ सो गई थी और पिता पढ़ते पढ़ते सो गए थे साथ में उनके पैर पर सोया हिप्पो मुझे देखकर जाग गया और मेरे पीछे पीछे वह भी घूमने लगा, हिप्पो बहुत कम भूँकता था; मुझे न्यायालय में ही शिरोपीड़ा के एक अर्धविक्षिप्त रोगी, जो न्यायालय में किसी वरिष्ठ अधिवक्ता का सहायक था, ने एक बार बताया था कि मुँह में तालु तक बर्फ़ भरकर सोने से तीव्र से तीव्र शिरोपीड़ा में भी नींद आ जाती है इसलिए मैं बर्फ़ लेने के लिए रसोई की ओर दौड़ा जहाँ श्वेत आलोक के एक वर्तुल के मध्य एक कृष्ण छाया डोल रही थी जो एक नारंगी धारियोंवाली बिल्ली की थी और वह फ्रिज खोलकर बर्तन से दूध पी रही थी; मुझे लगा कि वह मुझे देखकर भाग जाएगी किन्तु वह निर्लज्ज मुझे कोई रात्रिकालीन जीव समझकर उपेक्षित करके दूध पीती रही जब तक कि पास में पड़े माँ के चटनी पीसने के पत्थर से मैंने उसका सिर नहीं फोड़ दिया तब वह चीत्कार सी करती हुई उछली और उसके मस्तक से फूटता हुआ रक्त का सुंदर फ़व्वारा फ्रिज के श्वेत आलोक में गुलाबी या लगभग पारदर्शी हो गया जैसे अफ़ीम के फूलों से किसी ने चंद्रमा को अर्घ्य दिया हो किन्तु तब भी बिल्ली मरना तो दूर मूर्च्छित तक नहीं हुई जबकि उसका मुख और मस्तिष्क पूरी तरह कुचला जा चुका था और आँखें भी फूट चुकी थी और वह पलटी और पुनः दूध पीने लगी। 

वह बहुत भूखी थी इसलिए मैंने उसे दूध पीने दिया जिसमें उसका स्वयं का रक्त मिल चुका था।


हिप्पो ने दूध पीना छोड़ दिया और सोना भी और पिछले तीन दिनों में उसने मेरी एक बहन को और पिताजी को काट लिया और जब माँ उसे रोटी देने गई तो रोटी खाई नहीं बल्कि रोटी के ऊपर इतना रोया कि रोटी गीली और खारी हो गई, पता नहीं उसे क्या हो गया है कि उसकी शान्ति नष्ट हो गई यहाँ तक कि कल प्रातः पाँच बजे के आसपास उसने दधीचि का पिछला बायाँ पैर पकड़ लिया और पिताजी अपनी पूरी शक्ति लगाकर खींचने पर भी वह दधीचि का पैर हिप्पो के जबड़े से छुड़ा नहीं सके और जब हिप्पो ने उसे छोड़ा तो खुर को पिंडली से जोड़नेवाली मांसपेशी वह चबा चुका था और धीमे धीमे दधीचि के बहते हुए रक्त को चाट रहा था तब मुझे लगा दधीचि उसे दुलत्ती देगा और सम्भवतया मार डाले किन्तु दधीचि उनींदा सा खड़ा रहा बस अपना भार दूसरे पैरों पर स्थानांतरित करता रहा; उसके पश्चात से ही माँ ने यह रट लगा ली कि वायु की सुई लगाकर हिप्पो को पिताजी दयामृत्यु दे दें, आपको जानने की उत्सुकता होगी कि यह वायु की सुई है क्या तो यह मात्र रिक्त इंजेक्शन है जिसमें हवा होती है और जिसके लगाते ही हृदयगति रुक जाने के कारण जीव मर जाता है किन्तु पिताजी ने ऐसा करने से स्पष्टत: मना कर दिया और हिप्पो को लोहे की मोटी ज़ंजीर में बाँधकर वह इतनी लम्बी सैर को जाने लगे कि दोपहर से निकलते और लगभग रात्रि साढ़े बारह तक लौटते यहाँ तक कि उन्होंने कारखाना जाना भी छोड़ दिया और कारख़ाने की मशीनें बेच बेचकर हमारा घर चलने लगा जो कि बहुत अनिश्चय की स्थिति थी क्योंकि किसी भी दिन कारख़ाने की सारी मशीनें बिक जानेवाली थी और हमें खाने के लाले पड़नेवाले थे किन्तु माँ भी पिताजी को कुछ नहीं कहती थी और मेरे कहने का इसलिए प्रश्न नहीं उठता था कि मेरे कुछ भी कहने पर पिताजी मुझे मारने दौड़ते थे; यह सब देखते हुए माँ कद्दू, लौकी की लताएँ उगाती रहती और उनके फल ही नहीं पत्तों, फूलों की भी सब्ज़ी बनाती ऐसे मैंने जीवन में मितव्ययिता का महत्त्व समझा।


अपनी और अपनी बहन की पुरानी पुस्तकें मैंने बेचने का निश्चय कर लिया और जैनेंद्र नाम के मेरे यांत्रिकी महाविद्यालय के एक मित्र ने उन किताबों को ख़रीदने की इच्छा मुझसे जताई और मैंने उसे उसी संध्या घर आने का निमंत्रण दे डाला जबकि मैं जानता था कि उसे इन पुस्तकों की किंचित भी आवश्यकता नहीं है और वह केवल दयावश ऐसा कर रहा है तब भी सूर्यास्त होते कि उसके आने की प्रतीक्षा में मैं विकल होने लगा क्योंकि दया एक अस्थिर भावना है और कोई छोटी सी घटना जैसे आते समय किसी युवा वेश्या का दिख जाना या मलाई से भरी चाय का धुँधुआता कुल्हड़ मिलने से दया वाष्पीकृत हो सकती है तो जब तक वह आया नहीं तब तक मैं किवाड़ पर खड़ा उसकी बाट जोहता रहा, अस्ताचलगामी सूर्य के कारण अरुण होते आकाश में विलीन होते पथ पर मेरी ओर आता जैनेंद्र मुझे दिखाई दिया और जैसे ही वह दिखाई दिया मैं तुरंत अंदर गया और पुस्तकें ले आया, मैं उसे द्वार से ही विदा कर देना चाहता था क्योंकि अंदर आने पर मुझे उसे चाय पिलाना पड़ती जो अब हमारे घर पर केवल एक बार प्रातःकाल बनती थी किन्तु जैनेंद्र अपने संग दूध की चार थैलियाँ भी लाया था जिसे देखकर घर में सब आश्चर्य से भर गए और मैं लज्जा से कि क्या जैनेंद्र हमें इतना निर्धन समझता है कि वह अपने साथ स्वयं की चाय के लिए दूध भी लाया है और हम उतने निर्धन थे भी किन्तु निर्धन होने में और संसार को आपके निर्धन होने का पता होने में उतना ही अंतर है जितना निर्धन होने और धनी होने में।


जैनेंद्र ने दूध की थैली मुझे देते हुए कहा कि वह यह दूध उस नष्ट मुख और मस्तकवाली बिल्ली के लिए लाया है जिसकी मेरे द्वारा उसे सुनाई गई जिजीविषा की कथाएँ उसे सतत प्रेरणा देती है और माँ ने दूध की थैलियाँ जैनेंद्र के हाथों से जैसे झपट ली और अंदर चली गई जबकि उन्हें पता था कि उनका यह व्यवहार मुझे किंचित भी अच्छा नहीं लगा है तब तो और जब जैनेंद्र के लिए पानी लेने रसोई में जाने पर मैंने देखा कि कैसे वह दूध को जल्दी जल्दी गरम कर उससे शीघ्रातिशीघ्र मलाई निकाल लेना चाहती है और जब मैंने जैनेंद्र को पानी का गिलास दिया तब उसने उत्साहवश मुझसे कहा कि एक कटोरे में दूध भरकर मैं जल्दी ही यहाँ ले आऊँ ताकि बिल्ली दूध की सुगंध से मोहित होकर यहाँ आ जाए और वह उस अद्भुत बिल्ली को देख सके जिसे सुनकर माँ ने अंदर से चिल्लाकर कहा कि बिल्ली की अवस्था देखते हुए उन्होंने दूध उबाल दिया है और ठंडा होते ही वह उसे ले आएँगी तब जैनेंद्र ने कहा कि दूध अभी ले आए क्योंकि बिल्ली उबलता दूध पीने में प्रवीण होती है और माँ गरम पानी में दूध की कुछ बूँदें मिलाकर वहाँ एक कटोरे में रख गई और हम बिल्ली की प्रतीक्षा करने लगे तब भी रात के आठ बजने तक बिल्ली नहीं आई; इस बीच जैनेंद्र मुझे बताता रहा कि वह तेरापन्थी जैन समाज से है और अहिंसा का पालन वह किसी अतिवादी हिंसक व्यक्ति की तीव्रता से करता है और इसलिए उसे हिंसा की शिकार किन्तु अब तक जीवित इस बिल्ली से इतना आकर्षण हुआ और वह आचार्य तुलसी (१९१४-१९९६) एवं मुनिश्री नागराज की पुस्तकों के विषय में बताता रहा और यह भी कि कैसे प्लेग के चूहों को विष देने के पश्चात् महात्मा गांधी ने प्रायश्चित किया था क्योंकि प्लेग के चूहों की मृत्यु आवश्यक तो थी किन्तु अहिंसा के परम उद्देश्य का किसी भी प्रकार से वह अतिक्रमण नहीं कर सकती, आदर्श और उद्देश्य से मनुष्य च्युत हो सकता है किन्तु किसी भी अवस्था में वह उस च्युतावस्था को आदर्श नहीं बता सकता और मेरे यह कहने पर कि पशु और निचले दर्जे के जीवों में न स्मृति रहती है न मृत्युबोध इसलिए क्या उनपर की गई हिंसा स्मृति और मृत्युबोध से पीड़ित मनुष्य पर की गई हिंसा से अधिक निर्दोष नहीं है जैनेंद्र बहुत उत्तेजित हो गया और अचानक ही उसकी भौहों से पसीना टपकने लगा जो ऐसा लगता था जैसे आँसू गिरते हो और मैं भयभीत हो गया कि सम्भवतया मैंने उसे कुपित कर दिया है और वह पुस्तकें ख़रीदे बिना लौट जाए और दूध भी लौटाने को कहने लगे इसलिए मैंने बात तुरंत सम्भाली और उसे कहा कि उसका यह कहना कि जीवन जीने के लिए की गई आवश्यक हिंसा निश्चय ही पाप की श्रेणी में आती है यह पूर्णतः सत्य है क्योंकि जन्म लेना ही पाप है, जन्म लेकर जीवित रहना उस पाप को निरन्तर करते रहना है जिसे अंग्रेज़ी क़ानून में कंटिन्यूइंग ऑफ़ेंसया निरन्तर किया जानेवाला अपराध कहते है फिर मुझे याद आया कि अपराध की धारणा अब हमारे राष्ट्र से समाप्त हो गई है और न्यायाधीश महोदय के अनुसार हमारी राष्ट्रीय न्यायप्रणाली केवल पाप को मान्यता देती है मैं मौन हो गया, इतना सब कहने पर भी जैनेंद्र मौन रहा और मेरी रूलाई छूटने जैसी अवस्था हो गई तब मैंने उससे अंतिम बात कही कि केथोलिक धार्मिक मान्यता के अनुसार जन्म लेते ही मर जानेवाले शिशु अनन्तकाल तक अपने सम्बंध में लिए जानेवाले निर्णय की प्रतीक्षा करते है क्योंकि बपतिस्मा न होने के कारण वह स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकते और पाप न करने के कारण नरक नहीं जा सकते इसपर जैनेंद्र ने मुझे विचित्र दृष्टि से देखा जैसे कह रहा हो कि यदि कोई है जो सबसे अधिक हिंसक है तो वह ईश्वर है फिर उसके ओंठ फड़कने लगे और आँखों की कोर पर एक बिन्दु प्रकट होने लगी तब मेरी छोटी बहन अपनी वनस्पतिशास्त्र की पुरानी पुस्तकें ले आई जिन्हें पढ़कर हमने सबसे पहले जाना था कि वृक्ष, छोटे छोटे पौधों यहाँ तक कि घास के तिनके में भी प्राण होते है।
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  1. अमिताभ चौधरी12 अक्तू॰ 2019, 4:25:00 pm

    अंबर पांडेय की यह दूसरी कहानी पढ़ी है। इनपर मैं कोई स्पष्ट अभिमत देने में असमर्थ हूं। बहरहाल, इतना कहूंगा, अंबर पांडेय की कहानियां पाठक को उसकी जगह से हटा देती हैं। (या कहें कि हिला देती हैं।) वे ऊष्ण संवेदना के कथाकार हैं। यद्यपि, यह कथन वायवी हैं, पर अभी बस यही।..
    मुझे विश्वास है कि शिल्प की ओर कथाकार पुनः अपनी कहानी के पृष्ठ पलटकर देखेगा। बात एक पैरे में विराम चिह्नों के प्रयोग नहीं करने की या संवाद वाक्यों के लंबे होने की नहीं है।

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  2. कहानी अच्छी लगी। जिन बातों को काफ्का अपनी किताब 'पिता को पत्र' अभिधा में रखा है उन्ही बातों को रूपक में ढलते देखना और उस पर कहानी का तुमार बांधना। बहुत अच्छा लगा।

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  3. कहानी बहुत अच्छी है। भाषा को व्याकरण से आज़ाद करने का एक अनूठा प्रयोग है। लंबे वाक्यों में और व्याकरण की अभद्रता में इतना तो ज़रूर है कि कथ्य देर तक दिमाग में घुमड़ता रहता है - वनवासी की तरह।

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  4. कहानी का शीर्षक और शुरुआत ही बेहद रोचक है। पढ़ना पड़ेगा। अच्छी कहानियां कम ही आँखों से गुजरती हैं।
    कथ्य अच्छा है। कहानी की बुनावट थोड़ी ढीली हो गई, कह सकते हैं कहानी में कहानीपन थोड़ा डगमगा गया। सिर्फ़ विषय पर बात करें तो ये उम्दा है।

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  5. अम्बर पाण्डेय की एक और अच्छी कहानी पढी।
    इस कथाकार की कहानी पढने और कहानी की आत्मा तक पहुंचने के लिए पाठक को धैर्य और एकाग्रताचित्तता रखने की अत्यंत आवश्यकता है।
    बहुत बहुत बधाई अम्बर। अगली कथा-गाथा का इंतज़ार रहेगा।

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  6. बहुत रोचक और मानीख़ेज, कलात्मक अद्भुत संकेतों वाली कहानी। अंबर गज़ब लेखनी। हर दृश्य ऐसा अनूठा और चित्रात्मक।

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  7. अम्बर की कहानियाँ अपने आपको पूरा पढ़ा कर ही मानती हैं। जो इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है। अब तक उनकी दो कहानियाँ पढ़ी हैं और दोनों ही कथ्य,शिल्प और शैली में भी एक दूसरे से बिल्कुल जुदा हैं। यह कथाकार की सुचिंतित युक्ति है और भविष्य के लिए एक बड़ी आशा।

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