‘तब वे वही चुटकुले सुना रहे थे जिन्हें वे आंसुओं की जगह इस्तेमाल करते आये थे.’ : आशुतोष भारद्वाज

(Artwork of Johnson Tsang)


संपादक प्रथम पाठक है, कई बार रचनाएँ उसे उसी तरह ही सुख देती हैं तब वह आनायास ही पाठक की तरह चाहता है कि जो आनंद उसे मिला है उसे वह साझा करे. आशुतोष भारद्वाज इसी तरह का वैभव प्रदान करते हैं. आलेख हो संवाद हो या संस्मरण आशुतोष प्रशांत, गहरी बौद्धिक जिज्ञासा और शाब्दिक सौन्दर्य के साथ हर बार सामने आते हैं.

उपन्यास के भारत की स्त्री’ विषय पर लिखे उनके लेख जो समालोचन पर क्रम से प्रकाशित हुये थे, जल्दी ही ‘राजकमल प्रकाशन’ से पुस्तकाकार प्रकाशित हो रहें हैं. उन्हें इसके लिए अग्रिम बधाई.

प्रस्तुत गद्य-खंड डायरी नुमा है और इसमें किताबें, किरदार और खुद कलमकार असरदार ढंग से अपने को प्रत्यक्ष कर रहें हैं. गद्य का भी अपना काव्यत्व होता है जो यहाँ है.  




‘तब वे वही चुटकुले सुना रहे थे जिन्हें वे आंसुओं की जगह इस्तेमाल करते आये थे.’              
आशुतोष भारद्वाज





एक)
कोई लेखक अपनी प्रेरणा लगभग असंभव सी दिखती चीजों से हासिल कर लेता है. बेनेडिक्ट एंडरसन अपनी क्लासिक किताब इमेजिंड कम्युनिटीज पर जिन चिंतकों का प्रभाव बताते हैं उनमें से किसी ने भी राष्ट्र और राष्ट्रीयता पर कुछ खास नहीं लिखा था. कार्ल मार्क्स, तीन फ्रेंच इतिहासकार, एक अंग्रेज नृतत्वशास्त्री, अमरीकी उपन्यासकार एच बी स्टोव. लेकिन इन सभी में एंडरसन को अपने जटिल काम की चाभी मिल गयी.




अमरीका के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढ़ा कर रिटायर होने के बाद एंडरसन उपन्यास और सिनेमा में अपना घर तलाशने लगे, खासतौर से अपीचातपोंग वीरासेथाकुल की फ़िल्में और एका कुर्निवान के उपन्यास. मैन टाइगर की उन्होंने भूमिका भी लिखी. अपनी आत्मकथा अ लाइफ विदआउट बाउंड्रीज में वे लिखते हैं:

तब मुझे लगा कि शोध सामग्री को लिखने का सबसे अच्छा तरीका है कि उन्नीसवीं सदी के उपन्यासकारों की अगर योग्यता नहीं तो तकनीक को इस्तेमाल किया जाये: जल्दी से बदलते दृश्य, षड्यंत्र, संयोग, चिट्ठियां और भाषा का विविध स्वरुप में प्रयोग.

वे यह भी लिखते हैं कि अकादमिक संस्थान विद्यार्थी और युवा अध्येता की रचनात्मकता और गद्य को नष्ट कर देते हैं क्योंकि जिस

भाषा शैली को उन्हें प्रयोग करने के लिए कहा जाता है वह अक्सर उस भाषा से कहीं कमतर होती है जिसे वे हाई स्कूल और अंडरग्रेजुएट स्तर पर प्रयोग करते आए थे.”

(बेनेडिक्ट एंडरसन)
अध्येताओं के ज़ेहन में भर दिया जाता है कि उन्हें एक बहुत ही सीमित क्लब के लिए लिखना है, जिसके सदस्य उनके अध्यापक, यूनिवर्सिटी की पत्रिकाओं के संपादक और अंततः खुद उनके विद्यार्थी होते हैं. पिछले शोध-कर्मों के बेहिसाब और बेमतलब उद्धरणों से भरीं उनकी किताबें इसी क्लब द्वारा रिव्यू होतीं हैं, छपती जाती हैं. उनका लेखन कहीं वृहद् बुद्धिजीवी और पाठक समाज द्वारा कभी नहीं परखा जाता. एकदूसरे के लिए लिखते चलते यह अध्यापक आखिर में रिटायर हो जाते हैं. 

इस अध्याय के अंत में अपने एक मित्र को उद्धृत करते हुए एंडरसन लिखते हैं कि उपन्यासकार पर विचार और भाषा की मौलिकता का दवाब बना रहता है, स्कॉलर अक्सर अपनी तकनीकी शब्दावली के कैदी हो जाते हैं.

यानि समस्या सिर्फ भारतीय विश्वविद्यालयों में ही नहीं है.

जिन दो युवा कलाकारों को वे पसंद करते हैं, उनका काम यानि कुर्निवान का गल्प और वीरासेथाकुल का सिनेमा आख्यान के लगभग विपरीत ध्रुव पर ठहरे हैं. कुर्निवान की भागती दौड़ती कथाएँ मार्केज़ सरीखी, वीरासेथाकुल की बेइंतहा उनीदीं भटकन. मसलन सिनड्रोम्स एंड अ सेंचुरी. इसके चमकीले फ़्रेम, प्रांजल किरदार, उजली रोशनी में धुली हुई चीज़ें दृश्य को सपने जैसी तरलता देती हैं. इस फ़िल्म में कथा और घटनाओं को खोजना, उन्हें किसी सूत्र में बाँधने में कोशिश करना एकदम ग़ैर-ज़रूरी है. यह आलाप में आहिस्ते से थिरकती है, चलती जाती है. किरदारों से दूरी पर ठहरा निस्संग कैमरा उन फ़िल्मों से कहीं अधिक आकांक्षा जगाता है जो क्लोज़ अप को ही एकमात्र ज़रिया मानती है संवेदना उकेरने का. बारीक, लेकिन उँगलियों पर उतरती आकांक्षा.

एक नृतत्वशास्त्री इतनी विविध अनुभूतियों से अपने शोध की प्रेरणा हासिल कर लेता है, लेकिन उसके काम में इनके चिन्ह किस तरह दर्ज हुए होंगे? क्या एंडरसन के लिखे को कोई छूकर कह सकता है- यह रही कुर्निवान की उन्मादी हंसी, यह वाल्टर बेंजामिन के शब्दों की चमक, यह वीरासेथाकुल का संकोच.




दो)

हेमिंग्वे ने आग्नेस वू कुरोव्स्की के साथ अपने प्रेम की कथा कहता उपन्यास फ़ेयरवेल टू आर्म्ज़ अपनी पत्नी पाओलीन के घर में लिखा था जब वे उनकी संतान को जन्म देने वाली थीं. उपन्यास की नायिका कैथरीन बार्कले का किरदार आग्नेस पर आधारित था.  आग्नेस इटली के एक अस्पताल में नर्स हुआ करतीं थीं जब हेमिंग्वे पहले विश्व युद्ध के दौरान वहाँ भर्ती थे.
(हेमिंग्वे)

उपन्यास में बार्कले की संतान का जन्म पाओलीन के सिजेरियन ऑपरेशन के साथ घटित हो रहा था. क्या मनोस्थिति रही होगी हेमिंग्वे की जब वे दो माँ बनने वाली स्त्रियों के संग एक साथ जी रहे थे—- दोनों स्त्रियाँ उनकी अपनी थीं. एक उनके सामने बिस्तर पर लेटी हुई थी, दूसरी पन्नों पर उतर रही थी. दोनों को नहीं मालूम था हेमिंग्वे उनके साथ संवाद कर रहे थे, उपन्यासकार के भीतर दोनों एक दूसरे को रोशन कर रहीं थीं. एक का अक्स दूसरी में समा रहा था.

हेमिंग्वे की स्मृति में लेकिन एक तीसरी स्त्री भी थी- आग्नेस, जो जा चुकी थी लेकिन बाकी दोनों की कथा को रच रही थी. 




तीन)
गाँधी ने अपने जीवन की दो सबसे बड़ी मृत्यु से साक्षात अंग्रेज हिरासत में किया था. गाँधी, उनके शिष्य महादेव देसाई और अनेक कांग्रेसी नेता पुणे के आगा खां पैलेस में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बंद थे. आन्दोलन की शुरुआत के ठीक एक हफ्ते बाद पंद्रह अगस्त १९४२ को देसाई की मृत्यु हो गयी, स्वतंत्रता मिलने से ठीक पांच साल पहले. महादेव का अंतिम संस्कार महल के अन्दर ही हुआ. गाँधी रोज सुबह उस स्थल पर जाते, उस राख को संबोधित कर गीता का पाठ करते. एक तिहत्तर साल का इन्सान राख के ढेर को गीता पढ़ कर सुनाता है, चुटकी भर ले अपने माथे से लगाता है, एक ऐसे समय जब वह जेल में है. यह उस वृद्ध के बारे में क्या बतलाता है?

(महात्मा गांधी)
भारतीय सभ्यता में किसी अभिवावक से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी संवेदना छुपा कर रखेगा. महादेव की मृत्यु के डेढ़ साल के भीतर कस्तूरबा भी उसी जेल में चली गयीं. बहुत कम समय में गांधी ने उन दो इंसानों को खो दिया था जिन्होंने उन्हें दशकों से संभाले-साधे रखा था, पोषित किया किया. एक बुजुर्ग जो अभी भी जेल में है इस अघात पर क्या प्रतिक्रिया देगा?

वह जीवन में आये इस त्रासद अभाव का शोक मनाते हैं, क्योंकि वह आज जो भी हैं इसमें उनकी (कस्तूरबा) बहुत बड़ी भूमिका रही है. लेकिन वह एक दार्शनिक संयम ओढ़े रहते हैं...जब मैं और मेरे भाई शुक्रवार को उनसे विदा ले रहे थे तब वे वही चुटकुले सुना रहे थे जिन्हें वे आंसुओं की जगह इस्तेमाल करते आये थे.

यह देवदास गाँधी ने लिखा था जब वे अपनी माँ की अस्थियों के साथ पिता से विदा ले रहे थे.



चार)

दो हजार ग्यारह
दिल्ली बीस फ़रवरी. 


‘जीवन की एक विकट त्रासदी जब हम अपने जीवन को कला के आइने से देखने लगते हैं, जीवन को किसी उपन्यास सा बना लेना चाहते हैं, उस उपन्यास के किरदार बन जाना चाहते हैं. मुझे एक कहानी उन लोगों पर लिखनी चाहिए जो ख़ुद को किसी प्रिय उपन्यास के किरदार में ढालना चाहते हैं, इस प्रक्रिया में अपने से दूर होते जाते हैं.

चेखव को रूस का मोस्ट इलूसिव लिटरेरी बेचलरकहा जाता था, उन्होंने शादी मृत्यु के तीन बरस पहले की. मैं तीन शर्तों पर शादी करूँगा —-

वह मास्को में रहे, जबकि मैं गाँव में रहूँ, और मैं उससे मिलने जाता रहूँ. मुझे ऐसी पत्नी चाहिए जो चंद्रमा की तरह मेरे आकाश में रोज़ न दिखलाई दे.


तेईस जुलाई.

कितने विपन्न होते हैं वे शहर जिनके पास एक यात्री को देने के लिए कुछ नहीं बचता, जो ख़ाली हो चुके होते हैं. नहींकितना विपन्न होता है वह यात्री जो शहर से कुछ भी हासिल कर पाने में ख़ुद को नाकाबिल पता है.  मुझे शहर और यात्री के सम्बंध को किसी कहानी में तलाशना चाहिए. एक यात्री जिसका शहर खो गया है, वह अपना शहर खोज रहा है. उसके पास चाभी तो है शहर की, लेकिन ताला गुम गया है. लोग अक्सर ताली रख कर भूल जाते हैं या गुमा देते हैं —- लेकिन अगर चाभी हमारे पास रही आए, ताला ही खो जाये तो.

ग्यारह अगस्त. यह शहर छोड़ने में सिर्फ़ तीन दिन बचे हैं. बौखलाया-बौराया सा दिन भर औंधा पड़ा रहता हूँ. किसी क़ब्र का पत्थर बीच से फट कर खुल जाए- मुर्दा अचकचा कर चेहरा बाहर निकाल कर देखने लगे. मेरी रूह के ऊपर ठहरा देह का कवच किसी ने भेद दिया है, कातर मेरी रूह इस संसार में ख़ुद को कुम्हलाते हुए देख रही है.

शायद हरेक मनुष्य एक क़ब्र होता है. उसकी देह रूह के मुर्दे को सम्भाले रहती है.

जन्म लेने के बाद माँ के गर्भ की कोई स्मृति शेष नहीं रहती. उसी तरह मैं इस शहर से मुक्ति चाहता हूँ कि अगर वापस लौटूँ भी तो बजाय कसक के महज़ कौतूहल हो —- ये सड़कें थीं जिन पर मैं कभी चला करता था. इन हवाओं ने कभी थाम रखा था कभी.





रायपुर.
उन्नीस अगस्त.


यहाँ धूप सख़्त लेकिन बरसात बहुत मस्त. कल मुझे लगा कि मेरी अब तक की कहानियाँ उन अवैध सम्बन्ध या अनचाही संतानों की तरह हैं जिन्हें हम एक उम्र के बाद ख़ारिज कर देते हैं, जिन्हें अपना कहने में एक गुनाहग्रस्त ग्लानि महसूस करते हैं, जिनसे गुज़र चीरता हुआ अफ़सोस होता है कि आख़िर क्यों लिखा उन्हें.

दो रात पहले बालाघाट में किसी नदी में आकाश का विलक्षण प्रतिबिम्ब. समझ नहीं आता था नदी में आकाश की तस्वीर खिंच आयी है या आकाश नदी का चित्र थामे सोया है. 

छब्बीस अगस्त. परसों भीषण नक्सल हमले की रिपोर्टिंग के बाद बीजापुर से लौटते में कार में द मैज़िक फ्लूट देखी. मंच पर करीब दस मिनट तक मोज़ार्ट का ओपेरा चल रहा है, स्क्रीन पर सिर्फ श्रोताओं के चेहरे और उनके बदलते भाव. असाध्य वीणा याद आई --- सब एक साथ डूबे, अलग अलग पार हुए.

इस राज्य में पहला हफ्ता. पहली जंगल यात्रा और ताजे लहू का साक्षात्कार.




पाँच)
(बोर्हेस)



बोर्हेस अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं कि हरेक देश अपनी एक प्रिय किताब चुनता है, उसे अपना प्रतिनिधि बनाता है जबकि वह किताब उस देश के स्वभाव के अक्सर विपरीत होती है. मसलन शेक्सपियर को एक निपट अंग्रेजी लेखक माना जाता है, लेकिन अंग्रेजों का कोई भी गुण शेक्सपियर में नहीं दिखता. अंग्रेज कम बोलने वाले, रिजर्व्ड लोग हैं जबकि शेक्सपियर एक उफनती नदी की तरह बहते हैं, उनके यहाँ रूपक और अतिशयोक्तियाँ भरी पड़ी हैं- वह अंग्रेजियत का धुर विलोम हैं. गेटे के साथ भी यही है. जर्मन बड़ी आसानी से उन्मादे हो जाते हैं, लेकिन गेटे और उनका लेखन एकदम विपरीत हैं. गेटे बहुत सहिष्णु हैं जो जर्मनी पर हमला करते नेपोलियन का स्वागत करते हैं.




यह प्रवृत्ति क्लासिक कृतियों और उनके लेखकों में अक्सर दिखती है. सर्वान्तिस का स्पेन धर्मान्धता का स्पेन है, लेकिन उनका लेखन ज़िंदादिली और मस्ती का रूपक है.

शायद हरेक देश अपने प्रिय लेखक में उस औषधि को खोजता है जो उसके समाज का जहर उतारती है.
इन मानदंडों पर भारत की प्रिय किताब कौन सी होगी? और लेखक?

भारत की कोई एक किताब या लेखक नहीं है. अनेक भाषाओं के लेखकों ने इस सभ्यता को सींचा है. लेकिन फिर भी कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शनों में अद्वैत का बड़ा ऊंचा स्थान है. यह विचार कि तात्कालिक स्तर पर दिखाई देती भिन्नताएँ अनंत के साक्षात्कार के बाद मिट जाती हैं अनेक ग्रन्थों और विचार पद्धतियों में बसा हुआ है. तमाम वर्णों, जातियों, श्रेणियों, भाषाओं में बंटा हुआ राष्ट्र अद्वैत यानि तत् त्वम असि को महत्व देता है. अगर बोर्हेस की प्रस्तावना को मानें तो यह कहना सही होगा कि अंतर्विरोधों और मतभेदों के बीच का तनाव शायद अद्वैत के महासागर में ही घुल सकता था.



छह)

फरवरी नौ,
दो हजार सोलह. सुबह पौने छह.


मैं न लिख पाने के भय में डूबा रहना चाहता हूँ. घनघोर विफलता का भय. नहीं चाहता कि कोई भी ताकत मुझे मेरे इस खौफ से जुदा करे. मैं पूरे संसार को छोड़ सिर्फ इस डर को जीना चाहता हूँ.



सात)
गेटे कहते थे कि फ्रेंच कवियों की बहुत तारीफ नहीं करनी चाहिए क्योंकि भाषा उनके लिए कविता लिखती है. फ़्रेंच भाषा में कुछ ऐसा नैसर्गिक है कि कविता ख़ुद ही हो जाती है.

गेटे जो खुद महाकवि कहलाते थे एक और दिलचस्प बात कहते थे: गद्य लिखते वक्त आपके पास कहने के लिए कुछ होना चाहिए; लेकिन जिसके पास कहने को कुछ भी नहीं है वह भी कविता और तुकबन्दियाँ लिख सकता है जहाँ एक शब्द दूसरे का संकेत देता है, और कुछ न कुछ आखिर में निकल ही आता है जो दरअसल है तो कुछ भी नहीं लेकिन लगता है कि बहुत कुछ है.

मुक्तिबोध की भी पंक्तियाँ हैं ---

समझ में न आ सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो.



आठ)



बीस अक्तूबर दो हजार चौदह.
भोपाल. 



कल शाम रमेशचन्द्र शाह साहब के घर गया था. उन्होंने दरवाजा खोला, बड़े कमजोर, वृद्ध लगे. उनकी आवाज में लड़खड़ाहट और छाले साफ दिखते थे. जबसे मेरी पत्नी गयी है मेरी स्मृति मुझे अक्सर छोड़ जाती है,” यह शुरूआती वाक्य था जो उन्होने मुझे घर के अन्दर बुलाते हुए कहा.
ज्योत्सना जी का निधन मई में हुआ था.

(रमेश चंद्र शाह)
उन्होंने बैंगनी कुरतापजामा पहना हुआ था. हाल में रखी टीवी कैबिनेट पर सेंटीमीटर जितनी धूल की परत बिछी थी. उन्होंने जिन का गिलास बना लिया. कुछ देर बाद रमेश दवे आये, शाह साहब उन्हें मुझसे मिलवाते वक्त मेरा नाम भूल गए. यह वही है जो मैं थोड़ी देर पहले कह रहा था,” वे बोले.

जब वे बोलते थे तो उनका बांया कन्धा एक तरफ झुक जाता था, उनकी देह पृथ्वी के साथ करीब पैंसठ डिग्री का कोण बना लेती थी. वे कभी बेहतरीन हॉकी खिलाड़ी थे. एक बार मेजर ध्यानचंद रानीखेत खेलने आये थे, वह उनका मैच देखने गए थे. पन्द्रह-सोलह की उम्र में उनके टखने में फ्रैक्चर हो गया, उसके बाद हॉकी छूट गयी.

फिर वे बोले कि १९६०-६१ में गुंडप्पा विश्वनाथ ने कानपुर में गजब का टेस्ट शतक लगाया था. मैंने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की कि १९६१ में विश्वनाथ टेस्ट क्रिकेट खेल ही नहीं सकते थे, वे अभी उससे कई साल दूर थे. लेकिन वे नहीं माने, जोर देते रहे कि अभी शतक लगाया था.

मुझे द बुक ऑफ़ लाफ्टर एंड फॉरगेटिंग की माँ याद आई जो अपनी स्कूल की प्रार्थना का वर्ष भूल जाती है. एक वृद्ध स्त्री के बिखरते जाते काल बोध का विलक्षण चित्र.

लौट कर मैंने पुराने पन्ने पलटेविश्वनाथ ने अपना पहला मैच कानपुर में खेला था, शतक लगाया था. लेकिन वह १९६९ का साल था.
________________________

abharwdaj@gmail

9/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. रमाशंकर मिश्रा11 सित॰ 2019, 7:36:00 am

    आशुतोष ने भरी पूरी खुराक दी है और समालोचन क्या शानदार है. लगता है कोई कलाकृति देख रहें हों. बहुत बहुत बधाई. यह आज की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका है इसमें कोई शक नहीं.

    जवाब देंहटाएं
  2. इतना रुचिकर गद्य कोई क्यों नहीं पढ़ेगा। पुस्तक के आने का सुन कर तो मन नाच उठा है।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ख़ूब। आशुतोष के लेखन की ख़ास बात प्रांजलता है।

    जवाब देंहटाएं
  4. विनय कुमार11 सित॰ 2019, 9:06:00 am

    वाह, आशुतोष जी, कई मुल्कों, कई संस्कृतियों के बहिरंतर की सैर करा दी और आपकी भाषा इतनी शाइस्तगी से बतियाती है कि ��

    जवाब देंहटाएं
  5. प्रांजल सिंह11 सित॰ 2019, 4:43:00 pm

    बहुत बेहतरीन विश्लेषण है , थोड़ा बहुत कसर तो हर लेख में रह जाती है एक पाठक के तौर पर मैं bhakhtin को मैं मासूस कर रहा हु, जिसे शायद शामिल किया जा सकता था,

    जवाब देंहटाएं
  6. एकांत में लिखी निजी प्रतिक्रियाओं जैसी अनुभूतियों से गुजरना

    जवाब देंहटाएं
  7. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (12-09-2019) को      "शतदल-सा संसार सलोना"   (चर्चा अंक- 3456)     पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  8. आज पूरे दिन के समालोचनीय रोमांच के बाद अब ठीक से आशुतोष का जादुई गद्य। बेशकीमती अन्तर्दृष्टि से सराबोर गद्य। बीच बीच में गहन आत्मकथात्मक लेखकीय अवसाद की, प्रेम का ज़िक्र किये बिना प्रेम के अवसाद की झलक। दो किताबें याद आईं। एक है ROLAND BARTHES की LOVER'S DISCOURSE, और दूसरी JULIAN BARNES की FLAUBERT'S PARROT. जो विधात्मक सीमाओं को लांघती हुईं अपनी झिलमिलाहट से पाठक को अपने भीतर से गुज़र जाने देती हैं। उद्धरण ऐसे बुने गए हैं, जैसे कहते हैं कि बया अपने घोंसले में जुगनुओं को बुन लेता है, ताकि भीतर प्रकाश रहे। फिर भी कहना होगा कि अभी कुछ कसर बाक़ी है। अभी कुछ ऐसा है जिससे कोई एक अंश पूरे text के दूसरे अंशों को पूर्णतया आलोकित नहीं कर पा रहा। आशुतोष का लेखक हमेशा से आत्म संशय में रहने का आदी है। कहीं कहीं तो यह संशय अतिरंजित रूप में पाठक के समक्ष खुल जाता है। इसी संशय का सहारा लेते हुए आशुतोष काफ़ी बार अपने को पुनर्लेखन की गहन कंदराओं में बंद भी कर लेते हैं, जिससे उनके लेखन में एक विचित्र कौंध पैदा होती है। शायद अभी इस पाठ की लौ और भी भभक रही है कहीं लेखक की मेज़ के ईर्दगिर्द। Ashutosh Bhardwaj

    जवाब देंहटाएं
  9. आशुतोष से ईर्ष्या होती है. उनका लिखा असहमत होने की गुजांइश तो छोड़ता है पर अपनी मौलिकता, मूल प्रश्नों पर आग्रह और विचरण.. में आकर्षित करता है बहुत. ख़ास कर मुझ जैसे अपढ़ आस्वादक को. ज़ाती सवाल पूछने की इच्छा होती है, कैसे पढ़ा इतना, कैसे लिख लेते हैं ऐसा.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.