परिप्रेक्ष्य : चित्त जेथा भयशून्य



विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना चित्त जेथा भयशून्य का प्रकाशन जून-जुलाई १९०१ के आस-पास माना जाता है. यह बांगला में प्रकाशित गीतांजलि में शामिल है पर अंग्रेजी के उस गीतांजलि में नहीं शामिल है जिसे 1913 के  साहित्य के  नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और जिसकी भूमिका डब्ल्यू. बी. यीट्स (W. B. Yeats) ने लिखी थी.

115 साल पूर्व  लिखी इस कविता का अर्थ अभी भी शेष है. हिंदी में इसके दो अनुवाद मुझे देखने को मिले. एक शिवमंगल सिंह सुमन का बताया जाता है दूसरा अनुवाद भवानी प्रसाद मिश्र का है  जो साहित्य अकादेमी से १९६७ में प्रकाशित रविन्द्रनाथ की कविताएँ में शामिल है जिसकी भूमिका हुमायूँ कबीर ने लिखी है. इस संकलन में टैगोर की कुछ कविताओं के अनुवाद हजारीप्रसाद द्विवेदी और रामधारी सिंह दिनकर ने भी किये हैं.  रवीन्द्रनाथ टैगोर के १५० वीं जयंती पर मशहूर शिक्षाविद् और वक्ता स्टीवन रूडोल्फ ने  Where The Mind Is Without Fear की एक संगीतसंरचना प्रस्तुत की थी.

आजादी के ७ वें दशक में इस कविता को पढ़ते हुए उन मूल्यों के प्रति सम्मान पैदा होता है जो भारत की आज़ादी की निर्मिति में शामिल थें. इन मूल्यों को समझना और सहेजना सच्ची देशभक्ति होगी. हिंदी में अभी भी इस कविता के बेहतर अनुवाद की आवश्यकता बनी हुई है. 

स्वाधीनता दिवस की समालोचन की यह बधाई स्वीकार करें.
__

पुनश्च :  लेखक मंगलमूर्ति जी ने  इस कविता  का बहुत पहले अनुवाद  किया था. वह  अनुवाद भी दिया जा रहा है. साथ ही उनके सौजन्य से इस कविता की चित्र-कृति भी जो खुद रवीन्द्र द्वारा रेखांकित है. बांगला से इस कविता का अंग्रेजी में अनुवाद स्वंय रवीन्द्रनाथ  टैगोर ने किया था.


चित्त जेथा भयशून्य                                   


চিত্ত যেথা ভয়শূন্য উচ্চ যেথা শির,
জ্ঞান যেথা মুক্ত, যেথা গৃহের প্রাচীর
আপন প্রাংগণতলে দিবস-শর্বরী
বসুধারে রাখে নাই খণড ক্ষুদ্র করি,

যেথা বাক্য হৃদযের উতসমুখ হতে
উচ্ছসিয়যা উঠে, যেথা নির্বারিত স্রোতে,
দেশে দেশে দিশে দিশে কর্মধারা ধায়
অজস্র সহস্রবিধ চরিতার্থতায়,

যেথা তুচ্ছ আচারের মরু-বালু-রাশি
বিচারের স্রোতঃপথ ফেলে নাই গ্রাসি -
পৌরুষেরে করেনি শতধা, নিত্য যেথা
তুমি সর্ব কর্ম-চিংতা-আনংদের নেতা,

নিজ হস্তে নির্দয় আঘাত করি পিতঃ,

ভারতেরে সেই স্বর্গে করো জাগরিত ||





चित्त जेथा भयशून्य

चित्त जेथा भयशून्य उच्च जेथा शिर, ज्ञान जेथा मुक्त, जेथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगणतले दिवस-शर्वरी वसुधारे राखे नाइ थण्ड क्षूद्र करि।

जेथा वाक्य हृदयेर उतसमूख हते उच्छसिया उठे जेथा निर्वारित स्रोते,
देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय अजस्र सहस्रविध चरितार्थाय।

जेथा तूच्छ आचारेर मरू-वालू-राशि विचारेर स्रोतपथ फेले नाइ ग्रासि-
पौरूषेरे करेनि शतधा नित्य जेथा तूमि सर्व कर्म चिंता-आनंदेर नेता।

निज हस्ते निर्दय आघात करि पितः, भारतेरे सेइ स्वर्गे करो जागृत॥
_______




Where The Mind Is Without Fear


Where the mind is without fear and the head is held high

Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls

Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection

Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit

Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.















जहां चित्‍त भय से शून्‍य हो 
जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें
जहां ज्ञान मुक्‍त हो 
जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर 
छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों 

जहां हर वाक्‍य ह्रदय की गहराई से निकलता हो
जहां हर दिशा में कर्म के अजस्‍त्र नदी के स्रोत फूटते हों
और निरंतर अबाधित बहते हों 
जहां विचारों की सरिता 
तुच्‍छ आचारों की मरू भूमि में न खोती हो
जहां पुरूषार्थ सौ सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो 
जहां पर सभी कर्म, भावनाएं, आनंदानुभुतियाँ तुम्‍हारे अनुगत हों
हे पिता, अपने हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहार कर
उसी स्‍वातंत्र्य स्‍वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ.

(शिवमंगल सिंह "सुमन")
______________________




ll प्रार्थना ll 
_____________


चित्त जहाँ शून्य, शीश जहाँ उच्च है
ज्ञान जहाँ मुक्त है, जहाँ गृह –प्राचीरों ने
वसुधा को आठों पहर अपने आँगन में
छोटे-छोटे टुकडें बनाकर बंदी नहीं किया है

जहाँ वाक्य उच्छ्वसित होकर हृदय के झरने से फूटता
जहाँ अबाध स्रोत अजस्र सहस्र विधि चरितार्थता में
देश-देश और दिशा दिशा में प्रवाहित होता है

जहाँ तुच्छ आचार का फैला हुआ मरुस्थल
विचार के स्रोत पथ को सोखकर
पौरुष को विकर्ण नहीं करता
सर्व कर्म चिंता और आनन्दों के नेता
जहाँ तुम विराज रहे हो

हे पिता, अपने हाथ से निर्दय आघात करके
भारत को उसी स्वर्ग में जागृत करो
(भवानी प्रसाद मिश्र)
_______________________________














ओ मेरे पिता !
भयहीन मन हो जहाँ,
ओर जहाँ सर ऊंचा रहे सदा;

ज्ञान हो मुक्त जहाँ;
ओर संकीर्ण अपनी-अपनी दीवारों से
टुकड़ों में बंटी नहीं हो दुनिया जहाँ;

जहाँ शब्द आते हों सत्य के अंतस्तल से;
अश्रांत आकांक्षा जहाँ बाहें फैलाती हैं पूर्णता की ओर;

जहाँ मरे-मिटे रिवाजों के अंतहीन मरुस्थल में
सूख न चुकी हो मनीषा की निर्मल धारा;

जहाँ ले चलते तुम मन को
निरंतर-विस्तारित कर्म ओर विचारों की ओर;
स्वाधीनता के उसी स्वर्ग में
ओ मेरे पिता
जागरित हो मेरा भारत देश !
_________
मंगलमूर्ति
 


रहमान  के  साथ 

8/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. समालोचन को स्वतंत्रता दिवस पर हमें यह अपूर्व उपहार देने के लिये आभार । यह उस स्वतंत्रता की परम चेतना का गान है जिसके बारे में हेगेल ने कहा था कि मानव सभ्यता के इतिहास के सभी चरणों को इसी की अभिव्यक्ति समझना चाहिए ।

    जवाब देंहटाएं
  2. यह अनमोल उपहार है मनुष्य जाति को। यह स्वतंत्रता की परम भावना है। मन-वाणी-कर्म में इसका समावेश हो, मनुष्य मुक्ति की दिशा में सतत अग्रसर हो। बहुत-बहुत आभार सर इस प्रस्तुति के लिएष

    जवाब देंहटाएं
  3. इस प्रस्तुति के लिए समालोचन का आभार। समालोचन को शुभकामनाएं और बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. आज के दिन इससे अच्छी प्रस्तुति और नहीं हो सकती... यह आज भी उतना ही सच के साथ खड़ा है... आभार!

    जवाब देंहटाएं
  5. मंगलमूर्ति16 अग॰ 2016, 2:18:00 pm

    मैंने कोक स्टूडियो पर रहमान का 'चित्तो जेथा...' गीत सुना| इस अमर कविता की संभावनाएं अनंत हैं| Arun Devji आपने बहुत बड़ा काम किया इस अमर रचना को इस पावन अवसर पर इस तरह उजागर किया|बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  6. वास्तव में बेमिसाल और अनुकरणीय है देव साहब।

    जवाब देंहटाएं
  7. निर्भय मन, माथा ऊँचा हो,
    बन्धनमुक्त ज्ञान हो।
    निजः परो की क्षुद्र भित्ति से
    खण्ड-खण्ड संसार न हो।
    सच के अन्तस्तल से उठकर
    शब्द-शब्द शाश्वत ही हों।
    अथक चेष्टा बाहँ पसारे,
    आगे बढ़े पूर्ण की ओर।
    सजग बुद्धि निर्मल प्रवाह
    पथभ्रष्ट न हो यह धारा-
    और रूढ़ियों के दुःख-मरु की
    रेत मे जाकर लुप्त न हो।
    सर्वसमावेशी चिन्तन
    कर्मठता हेतु मेरा मन
    प्रेरित कर दो।
    हे परमपिता !
    यह सब होता हो
    जिस जग में,
    उस स्वतन्त्रता के
    दिव्य लोक में
    आह! स्वदेश को,
    जागृत कर दो।

    (अनुवाद-सत्येंद्र कुमार दुबे)

    जवाब देंहटाएं
  8. निर्भय मन, माथा ऊँचा हो,
    बन्धनमुक्त ज्ञान हो।
    निजः परो की क्षुद्र भित्ति से
    खण्ड-खण्ड संसार न हो।
    सच के अन्तस्तल से उठकर
    शब्द-शब्द शाश्वत ही हों।
    अथक चेष्टा बाहँ पसारे,
    आगे बढ़े पूर्ण की ओर।
    सजग बुद्धि निर्मल प्रवाह
    पथभ्रष्ट न हो यह धारा-
    और रूढ़ियों के दुःख-मरु की
    रेत मे जाकर लुप्त न हो।
    सर्वसमावेशी चिन्तन
    कर्मठता हेतु मेरा मन
    प्रेरित कर दो।
    हे परमपिता !
    यह सब होता हो
    जिस जग में,
    उस स्वतन्त्रता के
    दिव्य लोक में
    आह! स्वदेश को,
    जागृत कर दो।

    (अनुवाद-सत्येंद्र कुमार दुबे)

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.