प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ के बाद अब
गाय गाय न रहीं बैल तो जैसे अदृश्य ही हो गये. गाय के साथ जितनी मासूमियत जुडी हुई
थी आज उतनी ही उसके आस-पास हिंसा पसरी हुई
है.
लुप्त होती जाती प्रजातियों को संरक्षित करने का
एक कार्य साहित्य भी करता है. बैल का लुप्त हो जाना सिर्फ एक शब्द का लुप्त हो
जाना नहीं है, एक पूरी चर्या जो उसके आस-पास विकसित हुई थी गायब हो गयी है. एक तरह
से पशु केन्द्रित ग्रामीण संस्कृति का लुप्त हो जाना है.
सत्यदेव त्रिपाठी रंगमंच के अध्येता हैं. रंग से
जुडी हस्तियों पर उनके संस्मरणों ने अपना एक स्थान बना लिया है. ख़ासकर 'सत्यदेव दुबे' पर लिखा उनका बेलाग संस्मरण आज भी ज़ेर ए बहस है.
करियवा (काला) और उजरका (सफेद) बैलों की एक जोड़ी
है. सत्यदेव त्रिपाठी ने इसी बहाने एक
बिसरी हुई सभ्यता को जिंदा कर दिया है.
‘करियवा-उजरका’ और ‘वो सुघरका’ की याद में
सत्यदेव त्रिपाठी
वो पिछली सदी के छठें दशक के अंतिम वर्ष थे...फिर दस सालों तक मेरा बचपन उनसे इसी तरह बतियाते-खेलते और काका के बाद दो-ढाई साल उनके साथ काम करते भी बीता....
लेकिन एक ऐसा हादसा उजरके का मेरे साथ ही हुआ, जो अविस्मरणीय है.... बगल वाले गाँव में एक बीघा खेत था अपना. दूर होने के कारण सुबह बैलों को खेत तक पहुँचाने और दोपहर को लाने के लिए मंतू भैया के साथ किसी को जाना होता था. कन्धे पर जुआठ लेके एक बैल का पगहा हाथ में लिये चलना होता था. उस दोपहर मैं गया था – 10-11 साल का रहा हूंगा. खेत जुत गया था. हेंगाया (पाटा से समतल किया) जा रहा था. एक-दो फेरे ही बचे थे. मैं इंतज़ार में मेंड पर खडा हो गया. जब हेंगा मेरी तरफ से गुजरा, अचानक रोककर उजरके के पास जुआठ से लटकती एक रस्सी को इंगित करके मंतू भइया ने मुझसे कहा – ‘बचवा, उहै रसरिया तनी उप्पर कै दा...(बच्चा, वो रस्सी जरा ऊपर कर दो).
और मैं तो हुलसा हुआ पहुँचा कि उजरके को सहला भी लूँ...कि तब तक गरदन नीचे करके उसने मुझे सींग पर उठा ही तो लिया...और मंतू भइया हाँ-हाँ, हाँ-हाँ करें, तब तक 3-4-फिट उठते ही झट धीरे से रख भी दिया. मैं तो भौंचक.... सब कुछ पलक झपकते हो गया...मंतू भइया ने आके शर्ट हटाके देखा, तो पेट में दो इंच लम्बे में चमडी छिल के खून चुहचुहा आया था. बाकी संयोग अच्छा था कि सींग का नुकीला भाग मेरे ‘हॉफ पैण्ट’ के खींचकर हुक लगाने वाले फ्लैप के नीचे से होकर ऊपर जाते हुए बाहर निकल आया था, वरना पेट फट जाता और लादी-पोटी बाहर निकल आयी होती....
हल-बैल तो अगल-बगल के लोगों ने घर पहुँचाये, मुझे तो मंतू भइया कन्धे पर उठाके घर लाये. कन्धे पर आते देख पूरे टोले में कुहराम मच गया. पर मुझे याद आता है कि मैं डरा न था, बल्कि कडू तेल में चुराकर बाँधी गयी हल्दी-प्याज के साथ शाम को उजरके के साथ खेला भी था.... उजरके की यह हरकत समझ में तब आयी, जब महादेवीजी का अपनी घोडी पर लिखा संस्मरण पढा–
इधर उजरके का तो ऐसा हुआ था कि उस दिन न जाने किस रौ में मंतू भैया ने हेंगे से जुआठ में बाँधी जाने वाली रस्सियां छोटी बाँध दी थीं और लम्बे होने के कारण उजरके का पिछला पैर हर बार उठते हुए हेंगे के नीचे दब रहा था (यह सुनकर मंतू भइया की खूब लानत-मलामत हुई थी...). तो उसी दर्द और बेबसी में गुस्से से बिलबिलाया हुआ क्रोधान्ध उजरके ने मुझे उठा तो लिया, लेकिन पलक झपकते ही रख दिया. उसे भी अवश्य याद आ गया (क्या गन्ध-स्पर्श से!!) कि वह तो मैं हूँ, वरना फेंक भी सकता था, कुचल भी सकता था.... अब उतने नन्हें से मुझको क्या भान, वरना शाम को अपने बदन पर खेलते पाकर उसके भावों में रानी के समान ‘प्रायश्चित्त की मुखर प्रतिमा’ के भाव अवश्य रहे होंगे. बडे होकर ऐसी ही वारदातों के बाद अपनी बच्ची (बिल्ली) और अपने गबरू (कुत्ते) के मार्मिक भावों को पढ पाया था (कभी उन पर लिखा, तो व्योरा दूँगा). खैर,
उजरके के साथ इसी खेलने के विश्वास पर उसे बाँधने-छोडने का काम भी मैं थोडा बडा होते ही करने लगा था, लेकिन उसके स्वभाव से डरी माँ व बडी बहन सुरक्षा की दृष्टि से डण्डा लेकर हमारे आसपास रहते, जिसका कोई मतलब नहीं था- सिवा उनके अपने भय-निवारण के, जो मुझे बडे होने पर ही समझ में आया. तभी यह भी जाना कि उजरका मरकहा बिल्कुल नहीं था, बल्कि बहुत सुद्धा (सीधा) था, लेकिन किसी को भी- खासकर अपरिचित को- देखकर उसकी तरफ मूँडी झाँटना (सर चलाना) या झौंकना हर पशु की आदत होती है- पशु-स्वभाव. लेकिन आकार में बडे और शरीर से हृष्ट-पुष्ट होने से उसकी विशालता और लम्बे चेहरे के अग्र भाग पर स्थित गदराये नथुने, बडी-बडी आँखें तथा प्रशस्त माथे पर कुदरत-प्रदत्त डेढ-डेढ फिट की मोटी-मोटी ऊपर की ओर उठीं दो सींगे उसके धवल रंग (उजरका नाम) की श्रृंगार थीं- सुरूप-सुन्दर था हमारा उजरका. पर 16 मुट्ठी (बैलों के माप का पैमाना) की ऊँचाई के साथ यही विशाल सम्भार गरदन झटकारते ही किसी को भी डराने के लिए काफी था.
इसका ख़ामियाज़ा भी वह भुगतता .... और यही बात काका के जाने के बाद ग्यारहवीं-बारहवीं में पढते हुए तब मेरे लिए तनाव व नैतिक संकट का कारण बनती. मैं कॉलेज की कबड्डी-टीम में रहता. खेल-शिक्षक श्री धनुषधारी सिंह अंतरमहाविद्यालयीन स्पर्धाओं के पहले लम्बे अभ्यास कराते. अँधेरा होने तक छोडते नहीं और उजरके के लिए मैं विह्वल होता रहता कि वह खाने से वंचित पडा होगा.... उस समय जो साँसत और थकन-पछतावे का सबब होता, उसी को याद करके आज मज़ा आता है कि वहाँ से छूटते ही मैं सरपट दौडता और तीन किलोमीटर दूर घर जाकर उजरके को नाँदे लगाके ही दम लेता.... तब तक वह पगहा खिंचा-खिंचा के और खूँटे के चारो तरफ खाँच-खाँचके खुर से सारी मिट्टी निकाल चुका होता और उदास-असहाय माँ घर के सामने बैठी होती.....
करियवा अपनी दँवरी में चले या मँगनी में, बैल दो हों या 4-5, हमेशा मेंह ही चलता. उसे सिर्फ अपनी जगह घूमना होता. ऐसे में किसी भी बैल को एक ही जगह घूमने से घुमरा (चक्कर) आ जाता, पर करियवा को कभी नहीं आता, शायद अन्धे होने से उसे अहसास ही नहीं होता.... इस तरह मेंह के लिए आदर्श था वह. लेकिन धान की दँवरी में एक ही जगह घूमने से मेंह चलने वाले के बायें पैर में पुआल लिपटता जाता है, जिसे गूर्ही कहते. बीच-बीच में दँवरी रोककर गूर्ही को छुडाना पडता था.... करियवा ज्यादा ही लपेट लेता और उसे छुडाना मुश्किल होता, क्योंकि वह पैर झटकारता भी जोरों से...शायद इसलिए कि दिखता था नहीं और पैर में लिपटी भारी गूर्ही से उसे अनकुस (अनइज़ी) लगता. लेकिन वह लतहा था, जो सबके डर का बडा कारण होता. हल-रहट-कल-दँवरी में चलते हुए हाँकने वाले का ठीक पीछे होना तय था.
और ऐसे में कुछ नाग़वार होते ही पीछे वाले को अहटिया के (सन्धान करके या अन्दाज़ा लगाके) ऐसा लात चलाता कि आहत व्यक्ति तो सहसा गिर ही जाता. कइयों को ऐसे गिर के तडपते और फिर घुटने पर हल्दी-प्याज या रेंड का पत्ता आदि बाँधे हफ्तों कराहते-लँगडाते चलते हुए मैंने देखा है.... ऐसा करते हुए मीठी चाल (धीरे-धीरे) चलने वाला करियवा कल-रहट में हुआ, तो दो-तीन चक्कर और हल में हुआ, तो बडी दूर तक लगभग दौडते हुए चलता और दायें चलने वाले उजरके को भी दौडना पडता. फिर भी चार-छह डण्डे की ज़ोरदार मार से कहाँ बच पाता...!! किंतु इसकी उसे लत (बुरी आदत) पड गयी थी, लिहाजा पिटने के लिए तैयार भी रहता.
लात मारने की ऐसी लत वाले जानवरों को ‘लतहा’ कहा जाता. ऐसा करने वाली गायों को लतही कहते. भैंसों को लात मारते मैंने नहीं देखा-सुना. शायद देह से भारी व आदत से सुस्त व बेपरवाह होने के कारण उनकी यह फ़ितरत हो ही नहीं सकती थी. लेकिन बैलों का लात चलाना ‘लात मारना’ के मुहावरे के रूप में मशहूर है. फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में यह मुहावरा आमिर खान की ज़ुबानी सद्य: जन्मे बच्चे के लिए इस्तेमाल हुआ है– ‘लात मारा’, जो किसी चीज़ को हिकारतपूर्वक ठुकराने के लिए इस्तेमाल होता है. ‘लात खाना’ भी हिकारतपूर्वक पिटने के लिए मुहावरा है. ऐसा काम ज्यादा करने वालों को ‘लतखोर’ कहते. और ‘अखाडे का लतमरुवा पहलवान होता है’ तो बहुत लोकप्रिय था, जब हमारे बचपन में गाँव में अखाडे हुआ करते थे. इसमें लतमरुवा का मतलब लात मारने वाला नहीं, बल्कि ‘वरिष्ठ अखाडचियों से लडाये जाना’ है. और लडाते हुए पैर से ही तो ज्यादा गिराया जाता है – ‘लंगी मारना’ तो मशहूर दाँव ही है. सो, लतमरुवा यहाँ पहलवानी के लिए लाक्षणिक प्रयोग है.
लेकिन अब मैं जब करियवा के अन्दर-बाहर व्यापे अफाट अन्धकार के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है कि करियवा के लात मारने की शुरुआत तो उसके लाचार अन्धत्व से मिली काली दुनिया की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया स्वरूप हुई होगी, फिर इससे उसके ऊबजनित आक्रोश को किंचित राहत मिली होगी, जो धीरे-धीरे दुर्निवार लत बनती गयी होगी.... इस लत के अलावा उसकी किसी गतिविधि की कोई पहल कदमी कभी नज़र नहीं आती थी. उसके अन्धेपने ने उसे कदाचित बहुत बेपरवाह भी बना दिया था. कभी मैंने उसे खाने के बाद की डकार लेते नहीं सुना. किसी चीज़ की चाहत-ज़रूरत के लिए भोंकरते (गुहार लगाते) नहीं सुना.
कहीं जाने के लिए छटपटाते नहीं देखा...जैसे सारी इच्छाएं-प्रतिक्रियाएं उसके अदृश्य संसार की भेंट चढ गयी हों.... लेकिन चारा-दाना मिलने पर खाने में कोई कोताही नहीं बरतता, जुआठ गरदन पे रख दिये जाने पर काम से मुँह मोडते भी कभी नहीं दिखा.... गोया खाने-जुतने के अलावा उसे किसी चीज़ से मतलब नहीं, क्योंकि इसके सिवा उसके लिए दुनिया का कोई अस्तित्त्व था ही नहीं. आज की भाषा इसे पेशेवर वृत्ति (प्रोफेशनल अटीट्यूड) कहेगी, पर यदि आज अर्जुन मेरे सामने पूछते कृष्ण से ‘स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव...?’, तो मैं स्थितप्रज्ञ-सा खाने व काम करने तथा समाधिस्थ-सा बैठे रहने वाले अपने करियवा को सामने खडा कर देता.... करिया के इस भाव को भाँप पाने की नज़र तब होती, तो क्या उनसे काम करा पाता...??
लेकिन उस रात कैसे वह जान न पाया और आँच लगने पर भी उठ न पाया – थका था, नींद गहरी थी...कौन जाने...!! कहीं उसी बेपरवाही की इंतहा तो नहीं?? पर सुबह बाहर निकालते हुए देखके सब हैरान-परेशान...पूरा दायां पट्ठा (पैर का बाहरी-ऊपरी हिस्सा) जल गया था, पर कुशल थी कि असर हड्डी तक नहीं पहुँचा था. देखकर माँ तो धार-धार रोने ही लगी.... पशु-चिकित्सा तब गाँवों तक नहीं पहुँची थी. सो, सहारा था सिर्फ़ खरबिरैया (पेड-पौधे, घास-पात) के इलाज़ का. इसमें जो कोई जो भी बता दे, वह जहाँ भी मिले, जाके काका वहाँ से ले आयें....
गज़ब का जीवट व जांगर (श्रम-कौशल) था उनमें. सब कुछ हुआ और पूरा सूखने तक उसे रातों को उस खम्हिया (कच्चे बरामदे) में सुलाया गया, जहाँ हम सोते थे. मच्छरों का बन्दोबस्त यहाँ भी वही था, लेकिन यह जगह बहुत बडी थी. पर कहना होगा कि तब भी करिया ने अद्भुत सहन शक्ति व अपार धैर्य का परिचय दिया- न दर्द की आह भरी, न दवा-इलाज़ के दौरान उफ़ किया.... ख्याल आ रहा कि उसके कुछ ही सालों बाद हमारे देहात के नेता त्रिवेणी राय की पशु-शाला में पंखे लगे. सुनकर हम अपने हाल पर तरसे, अपने घर रहने के लिए अभिशप्त उजरका-करियवा की बदनसीबी पर तडपे और नेतागीरी के पैसे की उनकी अय्याशी पर बहुत खौले भी....
होली में तो सिंचाई के चलते तालाब में पानी बहुत कम रह जाता, लेकिन दीवाली में तालाब भरा रहता और ठण्ड उतनी ज्यादा न रहती...सो पगहा पकड के दोनो को बारी-बारी से खूब पौंडाता.... यह काम करते काका या बडके बाबू को कभी नहीं देखा मैंने, जबकि पौंडने दोनो को आता था - बडके बाबू तो हमारे साथ तैरने का मुकाबला भी करते.... पौंडता करियवा भी, पर वही कि अपने अँधेरे के कारण सहमा रहता. जिधर पगहे को ले जाते, उधर ही जाता अहटियाते-अहटियाते (टोह लगाते हुए). पर उजरका पौंडने के खूब मज़े लेता. तैराकी स्पर्धाओं में तो सिर्फ गति नज़र में लायी जाती है, वरना मनुष्य हों या पशु, मज़े लेते हुए मंथर-मंथर तैरने में अन्दर-अन्दर पानी को पीछे टालने की गति की एक लय होती है, जो पानी के बाहर वाले बदन के हिस्से पर नुमायां होती है (गोवा के स्वीमिंग पूल में बेटे को तैराते हुए उसकी गति की लय भी याद आ रही है).
और उजरके की बडी-बडी सुन्दर सींगों और धुलने से चमकती हुई रोमावलियों वाली गर्दन, ड्रिल और पीठ के ऊपरी हिस्से की गति से जो लय बनती और इन सबसे मिलकर जो छबि दृश्यमान होती, उसकी नयनाभिरामता के आगे रूपक बन गये ‘हंस की गति’ भी पानी भरे... – बेशक़, मेरी नज़र से व मेरे उजरके के सामने.... और नौका के लिए ‘मधुर हंसिनी-सी सुन्दर’ कहने वाले पंतजी ने तो बैल को तैरते शायद देखा भी न हो...साथ तैरते हुए के अनुभव की तो बात ही क्या...!!
घर लाके उनके माथे (दोनो सींगों के बीच के छोटे गड्ढे) पर तेल की मालिश करते. यह काम बडके बाबू ही करते, जब कभी घर रहते- वरना तो कोई भी करता.... लेकिन उनका करना मालिश का श्रृंगार बन जाता...वे उसमें रस लेते. मुझे अच्छी तरह याद है कि यदि बैल खडे भी रहते, तो सर नीचे करके गोया मालिश कराते.... और बैठे होने पर की तो बात ही क्या, आँखें मूँद ही लेते – शायद बडी राहत मिलती होगी उन्हें.... हाँ, सींग में तेल पोतते हुए अवश्य सर हिलाकर बचना चाहते, पर हम जबर्दस्ती पोतते ही...जिसके बाद कई दिनों तक सींगे अच्छी लगतीं. कुछ शौकीन लोग तो सीगों को रँगते भी, किंतु मुझे न रँगना अच्छा लगता, न रँगी हुई सींग को देखना ही.
इन सबके बाद कभी-कभी काका कालिख में अपना हाथ डुबाके उजरके के दोनो तरफ गदोरी का ठप्पा लगा देते और धीरे से कहते – नज़र न लगे बेटे को.... फिर यूँ ही गदोरी करिया पर भी चिपका देते, पर उस पर कोई फर्क़ न पडता – ‘चढे न दूजो रंग’. उजरके की गरदन अपेक्षाकृत नाजुक थी शायद. कातिक में जब हलवाही ज्यादा होती, उसमें सूजन आ जाती. इसके लिए पुआल जलाकर उसकी राख घडे में रखी रहती. और उसे पानी में मिलाकर सुबह हल के लिए जाने के पहले और दोपहर को लौटने पर उसकी गरदन पर छोपते.... इससे उसे राहत मिलती होगी, तभी वह सहर्ष छोपवाता....
जाडे के मौसम में उन्हें मठार पिलाया जाता. मठार याने गाढा छाछ, जिसमें घी को खरवने के बाद नीचे जमा काला पड गया घी भी मिला होता. लेकिन गर्मी में मठार नहीं, शुद्ध छाछ पिलाते– शायद इसलिए कि घी गर्म करेगा. जाडे भर उन्हें खिलाने के लिए एक अलग खेत मे गाजर बोया जाता.... गाजर धोकर काटा जाने लगता, तभी से दोनो मचलने लगते– इतना प्रिय लगता होगा.... भूसे का चारा तो बारहमासा होता, लेकिन पुआल व ठेंठा (मक्के का सूखा तना) भी लगभग नौमासे छमासे होते ही. ये सूखे चारे होते, जिनमें हरा चारा डाल के स्वास्थ्यकर व स्वादिष्ट करने के लिए अलग-अलग मौसम में अलग-अलग चारों का इंतजाम क़ुदरत ने किया है. बारिश के समय तो खूब हरी-हरी घासों से सारी धरती भर जाती. सनई-बाजरे भी होते.... बस, काटके लाना भर पडता. उन दिनों बाँस भी हरे पत्तों से लद जाते और उन्हें लटकाकर पत्तियां तोड लेना आसान होता. मैं और मेरे खान्दान के स्व. रामाश्रय भाई घास करने में ज्यादा विश्वास न करके या जांगर न लगाके पत्तियां ही तोडते - 20-20 आँटी (जूडी- बण्डल).
इसे घास की तरह ही चारे की मशीन में बालके (छोटा-छोटा काटके) भूसे में मिला देने पर हमारे दोनो वीर खरी-दाना की परवाह न करते– सब चाट जाते. फिर तो हरे धान काटके आते, बैलों की तो चम्म होती ही, उसे लतिया के जो धान निकलता, उसे नवान्न के रूप में हम भी खाके तृप्त होते. रबी की फसल शुरू होते ही अगहन-पूस (प्राय: नवम्बर-दिसम्बर) में अँकरी-सरसो हो जाते. माघ-फागुन (जनवरी-फरवरी) में मटर के झंगडे और गन्ने के गेंडे (ऊपर का हरा हिसा) तो चारा ही बन जाते. फिर चैत (मार्च) में लतरी हो जाती. यह ऐसी ग्रामीण-कृषि संस्कृति थी, जो आज लुप्त हो गयी. ट्रैक्टर ने बैलों को खत्म कर दिया. अब गायों के बाछे मारे-मारे फिरते हैं, जिनका पैदा होना कभी किसानों का इष्ट हुआ करता था, लेकिन आज ‘पुत्रीति जाता’ जैसी ‘महनीय चिंता’ और ‘कस्मै प्रदेयेति’ (किसे दें) के ‘महान वितर्क:’ बन गये हैं. ऐसे में अब इस हरियाली और हरे चारे को कौन पूछे...?
चैत में कटिया (जौ-गेहूँ कटने) के बाद दँवरी शुरू हो जाती. वैशाख-जेठ भर चलती. इस दौरान कितना हू हरकने के बावजूद ना-ना करते भी बैल इतना जौ-गेहूँ उदरस्थ कर लेते कि दँवरी से छूटने पर तालाबों-कुओं पर, फिर घर पर सिर्फ पानी ही पानी पीते और बैठ-सो जाते. हाल यह होता कि खडा दाना पचता नहीं और गोबर के बदले निछान (बिना किसी मिलावट के) दाना ही बाहर निकलता और इसे उनके जिन्दा रहने की त्रासदी कहें या विकल्प कि भूमिहीन मज़दूर वर्ग की औरतें उसे बीन-बटोरकर ले जातीं और धो-सुखाके पीस-पो के खातीं-खिलातीं. तब यह सब रोज़ देखते, उसी में पलते-बढते-जीते हमें सामान्य (नॉर्मल) ही लगता, लेकिन बडे होकर पढते हुए इसका दंश गहरे चुभा- ख़ासकर दलित-लेखन, जहाँ यह मामला खूब रोशन हुआ है.
यह सब देखते-साझा करते हुए काका के रहते बडे मज़े से कट रही थी. उनके जाने के बाद भी करने का मज़ा तो आता, पर पढाई और इन सारे कामों के बीच तन-बिन जाना पडता– दोनो की हानि के साथ दोनो को निभाना फिर भी उतना मुश्किल न होता, यदि घाटा-नफा की चिंता न होती. घाटा ही ज्यादा था, क्योंकि काका जैसी खेती करके कम में से ज्यादा पैदा कर लेना मुझ अनुभव-विहीन नौसिखिये को आता न था. बहनों की शादियों में तमाम खेत रेहन थे और घर का कोष एकदम रिक्त– ऋण से लदा. ऐसे में करियवा-उजरका को वैसी रातिब (ख़ुराक) भी न मिल पाती, जिसकी अब इस उम्र में उन्हें ज्यादा ज़रूरत होती.... बिना भरपूर खिलाये, उनसे पूरा काम लेने के लिए मैं अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगा.... दोनो बेचारे मेरे साथ खींच रहे थे अपनी ढलती उम्र को...पता नहीं काका का जाना भी उन्हें साल रहा था. उनके अभाव से भी टूट रहे थे या उनके नमक की अदायगी कर रहे थे...!! पर कब तक...?
(एक)
करियवा-उजरका
यदि करियवा-उजरका न होते, तो मेरा बचपन वैसा ही न होता, जैसा हुआ और शायद मेरा जीवन भी ऐसा ही न होता, जैसा आज है. मिसाल के तौर पर यदि आज भी मैं सुबह
पाँच से साढे पाँच बजे के बीच उठ ही जाता हूँ, तो वह करियवा-उजरका की ही देन है. 1967 के अक्तूबर का महीना था, कातिक. रबी की फसल
(जौ-गेहूं-चना-मटर) की बुवाई का महीना, जब घर के कर्त्ता-धर्त्ता काका स्वर्गवासी हो गये और सारा कार्यभार मेरे
जिम्मे आ गया, तो उन दोनो को
खिलाने के लिए मुझे इतनी सुबह उठना होता था कि हल जोतने ले जाने के लिए हमारे
हलवाह मंतू भइया आयें, तो ये दोनो दोपहर तक जुतने के लिए खा-पी के तैयार रहें, तीन-चार बार चारा-दाना डालने के बीच पढता तब भी
था. तब की पढाई दसवीं की परीक्षा के लिए थी, लेकिन वह बानि आज तक पढने-लिखने के अच्छे समय के रूप में कायम है..
अब तो आप जान ही गये होंगे कि करियवा-उजरका दोनो हमारे बैल
थे- उजला (सफेद) होने से उजरका और काला होने से करिअवा. वे कब-कैसे-कहाँ से आये, का मुझे कुछ पता नहीं, क्योंकि मैंने होश ही सँभाला इन्हीं नामों की
पुकार व इन्हीं की चर्चा-गुणगान सुनते-सुनते...और बडा हुआ इन्हें पक्खड (बलवान
प्रौढ) होते देखते-देखते भिन्न-भिन्न रूपों में- खाते-पीते, उठते-बैठते-सोते...से खेतों में हल खींचते, कूएं पर सिंचाई के लिए पुरवट खींचते, गन्ना पेरने की कल खींचते एवं पुआल से धान
निकालने व जौ-गेहूँ के डाँठ (डण्ठलों) को भूसा बनाने के लिए दँवरी में
चलते... दिन-दिन भर और जरूरत पडने पर रात-रात को भी कर्मठता की अप्रतिम मिसाल के
रूप में...और कभी मेरे भयहर्त्ता के रूप में... जब आपात्कालीन मौकों पर घर से दूर
सिवान में अकेले रहट हाँकते हुए उनके बदन पर हाथ रखकर ही वहाँ मौजूद ढेरों
भूत-प्रेतों से बच पाता... फिर किशोरावस्था में हमें छोडकर करुण प्रयाण करते हुए भी.... बचपन में
माँ-काका-बडके बाबू बात-बात पर इन्हीं की बातें करते, कई-कई बार इनसे ही बतियाते हुए दिखते.
इन्हीं की देख-भाल करते, खिलाते-पिलाते, खिलाने-पिलाने की फिक्र करते.... याने इन्हीं की नींद जागते-सोते...जो किसान-स्वभाव या सुभाव ही है. कुछ दृश्य बतौर नमूने पेश हैं-
इन्हीं की देख-भाल करते, खिलाते-पिलाते, खिलाने-पिलाने की फिक्र करते.... याने इन्हीं की नींद जागते-सोते...जो किसान-स्वभाव या सुभाव ही है. कुछ दृश्य बतौर नमूने पेश हैं-
हम भाई-बहनें तैयार हैं काका के साथ बाज़ार जाने के लिए. हमारे लिए कपडे-जूतादि खरीदना है. ऐसे मौके साल में एकाध बार आते हैं, जिससे बेहद उतावली है हमें. काका धोती पहन रहे हैं...और कुर्त्ता पहनने के पहले ‘अरे बरधा त हउदिये किहन रहि गइलें... रहा, हटवले आईं (अरे बैल तो हौदी (खाने के लिए मिट्टी की बडी हौद) की जगह ही रह गये, रुको- जरा हटा के आता हूँ) कहते हुए करियवा-उजरका को उनके आराम करने की जगह पर बाँधने चले जाते और हम इस व्यवधान से कुढने लगते....
गाँव के बाहर आते ही चमटोल बस्ती का कोई दिख जाता है और काका उसको सहेजते हैं- तनिक मंतू से कह देना, सुरुज डुबानी एक चक्कर मार ले और मैं न आया हूँ, तो बरधन (बैलों) को कोयर (चारा) डाल के नादे (हौद पे) लगा दे.
समय से आ गये, तो काका कुर्त्ता तक निकालने के पहले उन्हें चारा डालके नादे लगाने चले जाते...और आने में देर होती, तो रास्ते पर भुनभुनाते- ‘पता नहीं मंतुआ आया या नहीं!! बरध बेचारे ताक रहे होंगे...भूखे होंगे...आदि-आदि’ कहते-पछताते, अपने को कोसते हुए आते.... फिर पहुँचते ही घर में न आके उधर जाके देख आते कि मंतू ने आके नादे लगाया है या नहीं....
इतना ही नहीं, लगाया है, तो नाँद के पास जाके देखते कि डाला हुआ चारा कितना खा चुके हैं.... फिर चारे की जगह आके जाँचते, अन्दाज़ा लगाते कि मंतू ने कितना चारा डाला होगा, क्योंकि उन्हें दोनो की भूख और ख़ुराक का पता होता कि उजरका दो छींटा (कच्चे बाँस की खपाचियों का झीना बुना बडे आकार का) खाता है, पर करिअवा का पेट ढाई से तीन छींटा से कम में नहीं भरता.
फिर कपडे बदल के, हाथ-मुँह धोके कुरुई (कास को रँगके हाथ से बुनी छोटी-सी खुली डलिया) में दाना (लाई-चने..आदि का चबेना) लेके खाते हुए दुआरे (घर के सामने की जगह) के उस सिरे पर बैठ जाते, जहाँ से दोनो बैल खाते हुए दिखते.... आदि-आदि...
वैसे काका का यह तो प्राय: रोज़ का नियम था कि खेत-बारी के
काम से आने के बाद दाना खाते...प्राय: हर किसान खाता, किसानी आदत, पर काका वहीं बैठकर खाते हुए उनको देखते
रहते.... ज्यों ही वे नाद से बाहर मुँह निकालते, दाना खाना छोडके जाके देख आते. कोयर (चारा) खत्म
हआ हो, तो छींटा उठाते, और डाल आते....
यदि नाँद में कोयर होता, तो कहते – ‘अभी तो इतना पडा है, खाते क्यों नहीं? ताक क्या रहे हो!!’ – गोया वे आदमी हों. और फिर भी न खायें, तो स्वाद बढाने के लिए भूसी (आटे के चालने से बचा हुआ) या खुद्दी (कूटे हुए चावल का पछोरन) तथा भूसी-खुद्दी न होने पर पिसान (आटा) ही डाल आते. खरी-दाना तो अतिरिक्त खिलाने व ताकत के लिए अंतिम चलावन (चारा देने) के साथ दिया जाता- हमारे घी-दूध की तरह. सरसो-तीसी से तेल निकालने के बाद बचे पदार्थ को खरी कहते व मटर-चने के दलने से निकले टुकडे को दाना, लेकिन बैलों के लिए जौ का दर्रा भी बनवाते- याने पिसाते नहीं, दराते (दलन करते). और यह सब बोरों में भरकर बैलों के लिए अनिवार्य रूप से रखा जाता.... अधिक दूध पाने के लिए खरी तो नहीं, पर दाना-पिसान दिया जाता दूध देती गाय-भैसों को भी....
यदि नाँद में कोयर होता, तो कहते – ‘अभी तो इतना पडा है, खाते क्यों नहीं? ताक क्या रहे हो!!’ – गोया वे आदमी हों. और फिर भी न खायें, तो स्वाद बढाने के लिए भूसी (आटे के चालने से बचा हुआ) या खुद्दी (कूटे हुए चावल का पछोरन) तथा भूसी-खुद्दी न होने पर पिसान (आटा) ही डाल आते. खरी-दाना तो अतिरिक्त खिलाने व ताकत के लिए अंतिम चलावन (चारा देने) के साथ दिया जाता- हमारे घी-दूध की तरह. सरसो-तीसी से तेल निकालने के बाद बचे पदार्थ को खरी कहते व मटर-चने के दलने से निकले टुकडे को दाना, लेकिन बैलों के लिए जौ का दर्रा भी बनवाते- याने पिसाते नहीं, दराते (दलन करते). और यह सब बोरों में भरकर बैलों के लिए अनिवार्य रूप से रखा जाता.... अधिक दूध पाने के लिए खरी तो नहीं, पर दाना-पिसान दिया जाता दूध देती गाय-भैसों को भी....
वो पिछली सदी के छठें दशक के अंतिम वर्ष थे...फिर दस सालों तक मेरा बचपन उनसे इसी तरह बतियाते-खेलते और काका के बाद दो-ढाई साल उनके साथ काम करते भी बीता....
अब बताते चलूँ कि हमारे घर से बाहर जाते हुए मंतू भइया को
बुलाने की बात क्यों आती. असल में उजरका तो बडके बाबू (जो घर बहुत कम रहते), काका व मंतू भैया के अलावा किसी को अपने पास
फटकने ही नहीं देता, तो कौन बाँधे-छोडे
उसे? इसलिए तमाम इंतजाम
करने पडते.... लेकिन उसके बैठे रहने पर मैं और मुझसे बडी वाली बहन बचपन से ही उसके
ऊपर लोटते-पोटते, फिर भी हमें कुछ न
बोलता- शायद बच्चा समझ के.
बच्चों का ऐसे ख्याल रखते मैंने पालतू पशुओं को काफी देखा है.
एक बार तो पूरब टोले की एक सरनाम मरकही भैंस किसी तरह छूट कर मेरे घर के सामने से पश्चिम टोले की ओर भागी, हम सब बाहर निकलकर तमाशा देखने लगे, तब तक आगे दिखा बीच रास्ते पर बैठा एक अबोध बच्चा... सब सकते में आ गये कि जान गयी बच्चे की.... लेकिन भैंस उसके सामने पहुँचते ही अचानक रुकी और फिर बायें से घूमकर आगे निकली और दौडने लगी.
मूर्खता-नासमझी-बेपरवाही के लिए मुहावरा (भैस की आगे बीन बजावे, भैंस बैठ पगुराये...जैसे) बन चुकी भैंस का आवेश में भी जब हाल यह है, तो अपना उजरका तो शालीन बैल था और हम घर के बच्चे....
एक बार तो पूरब टोले की एक सरनाम मरकही भैंस किसी तरह छूट कर मेरे घर के सामने से पश्चिम टोले की ओर भागी, हम सब बाहर निकलकर तमाशा देखने लगे, तब तक आगे दिखा बीच रास्ते पर बैठा एक अबोध बच्चा... सब सकते में आ गये कि जान गयी बच्चे की.... लेकिन भैंस उसके सामने पहुँचते ही अचानक रुकी और फिर बायें से घूमकर आगे निकली और दौडने लगी.
मूर्खता-नासमझी-बेपरवाही के लिए मुहावरा (भैस की आगे बीन बजावे, भैंस बैठ पगुराये...जैसे) बन चुकी भैंस का आवेश में भी जब हाल यह है, तो अपना उजरका तो शालीन बैल था और हम घर के बच्चे....
लेकिन एक ऐसा हादसा उजरके का मेरे साथ ही हुआ, जो अविस्मरणीय है.... बगल वाले गाँव में एक बीघा खेत था अपना. दूर होने के कारण सुबह बैलों को खेत तक पहुँचाने और दोपहर को लाने के लिए मंतू भैया के साथ किसी को जाना होता था. कन्धे पर जुआठ लेके एक बैल का पगहा हाथ में लिये चलना होता था. उस दोपहर मैं गया था – 10-11 साल का रहा हूंगा. खेत जुत गया था. हेंगाया (पाटा से समतल किया) जा रहा था. एक-दो फेरे ही बचे थे. मैं इंतज़ार में मेंड पर खडा हो गया. जब हेंगा मेरी तरफ से गुजरा, अचानक रोककर उजरके के पास जुआठ से लटकती एक रस्सी को इंगित करके मंतू भइया ने मुझसे कहा – ‘बचवा, उहै रसरिया तनी उप्पर कै दा...(बच्चा, वो रस्सी जरा ऊपर कर दो).
और मैं तो हुलसा हुआ पहुँचा कि उजरके को सहला भी लूँ...कि तब तक गरदन नीचे करके उसने मुझे सींग पर उठा ही तो लिया...और मंतू भइया हाँ-हाँ, हाँ-हाँ करें, तब तक 3-4-फिट उठते ही झट धीरे से रख भी दिया. मैं तो भौंचक.... सब कुछ पलक झपकते हो गया...मंतू भइया ने आके शर्ट हटाके देखा, तो पेट में दो इंच लम्बे में चमडी छिल के खून चुहचुहा आया था. बाकी संयोग अच्छा था कि सींग का नुकीला भाग मेरे ‘हॉफ पैण्ट’ के खींचकर हुक लगाने वाले फ्लैप के नीचे से होकर ऊपर जाते हुए बाहर निकल आया था, वरना पेट फट जाता और लादी-पोटी बाहर निकल आयी होती....
हल-बैल तो अगल-बगल के लोगों ने घर पहुँचाये, मुझे तो मंतू भइया कन्धे पर उठाके घर लाये. कन्धे पर आते देख पूरे टोले में कुहराम मच गया. पर मुझे याद आता है कि मैं डरा न था, बल्कि कडू तेल में चुराकर बाँधी गयी हल्दी-प्याज के साथ शाम को उजरके के साथ खेला भी था.... उजरके की यह हरकत समझ में तब आयी, जब महादेवीजी का अपनी घोडी पर लिखा संस्मरण पढा–
‘रानी’. वह भी एक बार आठ साल की महादेवीजी को पीठ पर लेके भाग चली थी, लेकिन उनके गिरते ही वहीं ऐसे खडी रह गयी ‘जैसे पश्चात्ताप की प्रस्तर प्रतिमा हो’. हुआ इतना ही था कि पीछे से पाँच साल के भाई ने उसके पाँवों में पतली सण्टी से छू भर दिया था और रानी की ‘न जाने कौन सी दु:स्मृति जाग उठी थी’.
इधर उजरके का तो ऐसा हुआ था कि उस दिन न जाने किस रौ में मंतू भैया ने हेंगे से जुआठ में बाँधी जाने वाली रस्सियां छोटी बाँध दी थीं और लम्बे होने के कारण उजरके का पिछला पैर हर बार उठते हुए हेंगे के नीचे दब रहा था (यह सुनकर मंतू भइया की खूब लानत-मलामत हुई थी...). तो उसी दर्द और बेबसी में गुस्से से बिलबिलाया हुआ क्रोधान्ध उजरके ने मुझे उठा तो लिया, लेकिन पलक झपकते ही रख दिया. उसे भी अवश्य याद आ गया (क्या गन्ध-स्पर्श से!!) कि वह तो मैं हूँ, वरना फेंक भी सकता था, कुचल भी सकता था.... अब उतने नन्हें से मुझको क्या भान, वरना शाम को अपने बदन पर खेलते पाकर उसके भावों में रानी के समान ‘प्रायश्चित्त की मुखर प्रतिमा’ के भाव अवश्य रहे होंगे. बडे होकर ऐसी ही वारदातों के बाद अपनी बच्ची (बिल्ली) और अपने गबरू (कुत्ते) के मार्मिक भावों को पढ पाया था (कभी उन पर लिखा, तो व्योरा दूँगा). खैर,
उजरके के साथ इसी खेलने के विश्वास पर उसे बाँधने-छोडने का काम भी मैं थोडा बडा होते ही करने लगा था, लेकिन उसके स्वभाव से डरी माँ व बडी बहन सुरक्षा की दृष्टि से डण्डा लेकर हमारे आसपास रहते, जिसका कोई मतलब नहीं था- सिवा उनके अपने भय-निवारण के, जो मुझे बडे होने पर ही समझ में आया. तभी यह भी जाना कि उजरका मरकहा बिल्कुल नहीं था, बल्कि बहुत सुद्धा (सीधा) था, लेकिन किसी को भी- खासकर अपरिचित को- देखकर उसकी तरफ मूँडी झाँटना (सर चलाना) या झौंकना हर पशु की आदत होती है- पशु-स्वभाव. लेकिन आकार में बडे और शरीर से हृष्ट-पुष्ट होने से उसकी विशालता और लम्बे चेहरे के अग्र भाग पर स्थित गदराये नथुने, बडी-बडी आँखें तथा प्रशस्त माथे पर कुदरत-प्रदत्त डेढ-डेढ फिट की मोटी-मोटी ऊपर की ओर उठीं दो सींगे उसके धवल रंग (उजरका नाम) की श्रृंगार थीं- सुरूप-सुन्दर था हमारा उजरका. पर 16 मुट्ठी (बैलों के माप का पैमाना) की ऊँचाई के साथ यही विशाल सम्भार गरदन झटकारते ही किसी को भी डराने के लिए काफी था.
इसका ख़ामियाज़ा भी वह भुगतता .... और यही बात काका के जाने के बाद ग्यारहवीं-बारहवीं में पढते हुए तब मेरे लिए तनाव व नैतिक संकट का कारण बनती. मैं कॉलेज की कबड्डी-टीम में रहता. खेल-शिक्षक श्री धनुषधारी सिंह अंतरमहाविद्यालयीन स्पर्धाओं के पहले लम्बे अभ्यास कराते. अँधेरा होने तक छोडते नहीं और उजरके के लिए मैं विह्वल होता रहता कि वह खाने से वंचित पडा होगा.... उस समय जो साँसत और थकन-पछतावे का सबब होता, उसी को याद करके आज मज़ा आता है कि वहाँ से छूटते ही मैं सरपट दौडता और तीन किलोमीटर दूर घर जाकर उजरके को नाँदे लगाके ही दम लेता.... तब तक वह पगहा खिंचा-खिंचा के और खूँटे के चारो तरफ खाँच-खाँचके खुर से सारी मिट्टी निकाल चुका होता और उदास-असहाय माँ घर के सामने बैठी होती.....
लेकिन अपने करियवा को ऐसे मूँडी झाँटते मैंने कभी नहीं
देखा. बहुत बाद में पता चला कि उसे दिखता नहीं. देख ही नहीं पाता था, तो गरदन से झपटे कैसे? अन्धा तो वह न जाने कब से था...!! पता तब चला, जब एक दिन वह कूएँ में गिर गया. बडी यादगार घटना है वह... तब मैं
बहुत छोटा था– प्राय: 6-7 साल का. याद आता है कि उस दिन भी हम कहीं जाने
के लिए ही तैयार थे और काका उसी तरह उन्हें नादे लगाने चल पडे- पीछे-पीछे उतावले हम भी चल पडे. गर्मी के दिन
रहे होंगे, तभी हमेशा की तरह
दोनो अपने घर के पीछे बाँसों की छाया में बाँधे गये थे. वहाँ से सामने की तरफ आने
के रास्ते में तब एक कुआँ हुआ करता था, जिससे हम उन्हें रोज़ दो बार पानी डालते- तीन-तीन गगरी (घडे). ‘बुढवा इनार’ कहते थे– बहुत पुराना, टूटा-फूटा; पर बहुत चौडा. काका ने उस दिन पहले करियवा को छोडकर पगहा पीठ पर रख दिया- यही चलन है.
बैल ख़ुद चले जाते हैं. और वह कूयें से आगे बढकर दायें मुडने के पहले ही कूयें की तरफ बढने लगा...तब तक काका उजरके को छोडके चलने का रुख कर चुके थे.. .उसे उधर बढते देखकर ‘हट-हट, अरे वहर कहाँ...’ चिल्लाते हुए दौडे, तब तक उसके अगले पाँव कूएँ में लडखडा चुके थे...कि पहुँचकर काका ने पूँछ पकड ली...अब गर्दन तक करिरियवा कूएँ में और पूँछ खींचे काका बाहर...दृश्य अटका हुआ (फ्रीज़)... काका कभी दंगल मारने वाले पहलवान थे, बदन में खूब पैरुख (बल पौरुष) था. पढे-लिखे कम थे. शायद उन्हें करियवा को बाहर खींच लेने का यक़ीन था. उधर दुआर पर खडे हम यह देखते ही जाने क्यों जोर-जोर से चिल्लाने क्या, रोने लगे थे शायद ...जिसे सुनकर उस तरफ सामने की अपनी मण्डई से बूढे बिसराम दादा निकले और काका को डाँटते हुए चिल्लाये – ‘अरे छोड दे जैनथवा, नहीं त तहूँ गिरि जइबे’...और काका ने सचमुच छोड दिया..., वरना आधे मिनट तक तो रोके (होल्ड किये) रहे.
बैल ख़ुद चले जाते हैं. और वह कूयें से आगे बढकर दायें मुडने के पहले ही कूयें की तरफ बढने लगा...तब तक काका उजरके को छोडके चलने का रुख कर चुके थे.. .उसे उधर बढते देखकर ‘हट-हट, अरे वहर कहाँ...’ चिल्लाते हुए दौडे, तब तक उसके अगले पाँव कूएँ में लडखडा चुके थे...कि पहुँचकर काका ने पूँछ पकड ली...अब गर्दन तक करिरियवा कूएँ में और पूँछ खींचे काका बाहर...दृश्य अटका हुआ (फ्रीज़)... काका कभी दंगल मारने वाले पहलवान थे, बदन में खूब पैरुख (बल पौरुष) था. पढे-लिखे कम थे. शायद उन्हें करियवा को बाहर खींच लेने का यक़ीन था. उधर दुआर पर खडे हम यह देखते ही जाने क्यों जोर-जोर से चिल्लाने क्या, रोने लगे थे शायद ...जिसे सुनकर उस तरफ सामने की अपनी मण्डई से बूढे बिसराम दादा निकले और काका को डाँटते हुए चिल्लाये – ‘अरे छोड दे जैनथवा, नहीं त तहूँ गिरि जइबे’...और काका ने सचमुच छोड दिया..., वरना आधे मिनट तक तो रोके (होल्ड किये) रहे.
पानी में गिरने की जोर की छपाक से काका सहित हम सब सन्न हो
गये थे, पर इतने में बिसराम
दादा की बेटी बंसराजी बहिनी घर से बाहर निकली और जोर-जोर से ऐसा बम देना
(चिल्लाना) शुरू किया कि आनन-फानन में सगरो गाँव जुट गया. फटाफट नार (खूब मोटी
रस्सियां) लाये गये.... 3-4 लोग कूएँ में उतरे, करियवा की गरदन और पेट से निकालकर पीठ पर नार बाँधा और ऊपर से 15-20 लोगों ने मिलकर खींच लिया. आधे घण्टे में ‘करिया पहलवान’ सही-सलामत बाहर. कुछ देर थसमसाये (अवसन्न) खडे
रहे, फिर धीरे-धीरे
चलने-फिरने लगे और हौदी से बाँधे गये, तो खाने भी लग गये....
घटना महीनों तक गाँव में चर्चा का विषय रही- जैसा कि हर घटना होती है, लेकिन इस बार करिया के गिरने से अधिक सरनाम हुआ काका का पूँछ पकडके खींचना तथा बिसराम दादा का उन्हें डाँटना. और पूरी चर्चा से काका की बावत सारांश स्वरूप दो निष्कर्ष निकले – ‘भई, अच्छे पहलवान हैं, तभी तो इतने बडे बरध को थामे रहे’ और दूसरा यह कि ‘पहलवानी बुद्धि न होती, तो भला कोई ऐसा करता’!! फिर तो करिया महराज को इधर-उधर ले-ले जाकर, तरह-तरह से दिखा-चला कर यह पक्का कर लिया गया कि वे अन्धे हैं– मोतियाबिन्द हो गया है उन्हें.
लेकिन उस वक्त तो आदमियों के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन भी आँखों का सपना था, बैल की तो क्या कहना...!! इसके बाद करीब नौ-दस साल जीवित व कर्म-रत रहे करिया, पर न मोतिया फूटा, न तब तक मोतिया के फूटने का किसी को पता ही था शायद. हाँ, तब से उन्हें कहीं जाने के लिए छोडा नहीं जाता, पगहा पकडकर लाया-जाया जाता था. खेतों में लेके जाते हुए आगे गड्ढा-मेंड...आदि आने पर हम जोर से कहते – ‘डाँक (पार कर) ले, आगे मेंड हौ’...और वह अगले पैर उठा-उठाकर बडे-बडे डग भरने लगता. लेकिन जाडे में धूप लेने के लिए खडे करते, तो गरदन उधर ही उठाता, जिस तरफ से सूरज की किरनें आती होतीं.... माँ जब रात को खाने के बाद दोनो को रोटी खिलाने निकलती, तो करियवा पहले जान जाता और ठीक उसी तरफ ताकता, जिधर से माँ आती होती तथा माँ के हाथ से रोटी यूँ लपक लेता, गोया दीदे का भरपूर हो....
घटना महीनों तक गाँव में चर्चा का विषय रही- जैसा कि हर घटना होती है, लेकिन इस बार करिया के गिरने से अधिक सरनाम हुआ काका का पूँछ पकडके खींचना तथा बिसराम दादा का उन्हें डाँटना. और पूरी चर्चा से काका की बावत सारांश स्वरूप दो निष्कर्ष निकले – ‘भई, अच्छे पहलवान हैं, तभी तो इतने बडे बरध को थामे रहे’ और दूसरा यह कि ‘पहलवानी बुद्धि न होती, तो भला कोई ऐसा करता’!! फिर तो करिया महराज को इधर-उधर ले-ले जाकर, तरह-तरह से दिखा-चला कर यह पक्का कर लिया गया कि वे अन्धे हैं– मोतियाबिन्द हो गया है उन्हें.
लेकिन उस वक्त तो आदमियों के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन भी आँखों का सपना था, बैल की तो क्या कहना...!! इसके बाद करीब नौ-दस साल जीवित व कर्म-रत रहे करिया, पर न मोतिया फूटा, न तब तक मोतिया के फूटने का किसी को पता ही था शायद. हाँ, तब से उन्हें कहीं जाने के लिए छोडा नहीं जाता, पगहा पकडकर लाया-जाया जाता था. खेतों में लेके जाते हुए आगे गड्ढा-मेंड...आदि आने पर हम जोर से कहते – ‘डाँक (पार कर) ले, आगे मेंड हौ’...और वह अगले पैर उठा-उठाकर बडे-बडे डग भरने लगता. लेकिन जाडे में धूप लेने के लिए खडे करते, तो गरदन उधर ही उठाता, जिस तरफ से सूरज की किरनें आती होतीं.... माँ जब रात को खाने के बाद दोनो को रोटी खिलाने निकलती, तो करियवा पहले जान जाता और ठीक उसी तरफ ताकता, जिधर से माँ आती होती तथा माँ के हाथ से रोटी यूँ लपक लेता, गोया दीदे का भरपूर हो....
करियवा उठने-बैठने से लेकर चलने तक के अपने सारे कामों में
काफी धीमा था- क्या इसी अन्धत्त्व के चलते? क्या धीमा चलने से ही उसे हर काम में बायीं तरफ रखा जाता, क्योंकि दायीं तरफ वाले को ज्यादा दूरी तय करनी
पडती है – खासकर रहट व कल में.
बायें चलने के कारण ही काम के दौरान इंगित करते हुए करियवे को बायां या बँवार व
उजरके को दहिना या दहिनवार कहा जाता.
लेकिन करियवा खाता था हाली-हाली (जल्दी-जल्दी) और ज्यादा भी. इसी से उसे विनोद में खभोर भी कहते.... यह जितना ही खभोर था, उजरका उतना ही छिबिन (चूज़ी और अरुचि वाला). बडे टिपुर्सन (मान-मनौवल) से खाता. जौ-गेहूँ को भूसे से या धान को पुआल से अलगाने के लिए 25-30 बोझ खोलके गोलाई में फैला दिये जाते, उसे ‘पइर’ कहते थे. 2 से 4-5 तक जितने सुलभ हो, बैलों को उनके गराँव (गले की रसी) से एक दूसरे को जोडकर पइर पर गोल-गोल घुमाते, उसे दँवरी कहते. इस काम के लिए जिसका भी बैल खाली हो, बिना माँगे ले जाने की सुदृढ परम्परा ही थी. तो इसमे भी हमारा उजरका सबके दाहिने चलता – इतना फरहर (तेज व सक्रिय) था.
हाँकने वाला हमेशा उसके पास होता, इसलिए उसे खाने का मौका भी न था और उसे पडी भी न थी. दाहिने के बाद फिर दुसरका...आदि होते. सबके अंत वाले को ‘मेंह’ कहा जाता था. अनाज को गन्दगी से बचाने के लिए हमेशा सजग रहना पडता कि बैल गोबर करें, तो हाथ में पुआल लेकर रोप लिया जाये. लेकिन हाँकने वाला तो दाहिने के अलावा अन्दर के बैलों को ठीक से देख न पाता था, तो अगल-बगल की दँवरी वाले या आता-जाता जो भी देखता, चिल्लाता – वो तिसरका देखो, गोबर कर रहा है या मेंहवाँ हग रहा है...!!
लेकिन करियवा खाता था हाली-हाली (जल्दी-जल्दी) और ज्यादा भी. इसी से उसे विनोद में खभोर भी कहते.... यह जितना ही खभोर था, उजरका उतना ही छिबिन (चूज़ी और अरुचि वाला). बडे टिपुर्सन (मान-मनौवल) से खाता. जौ-गेहूँ को भूसे से या धान को पुआल से अलगाने के लिए 25-30 बोझ खोलके गोलाई में फैला दिये जाते, उसे ‘पइर’ कहते थे. 2 से 4-5 तक जितने सुलभ हो, बैलों को उनके गराँव (गले की रसी) से एक दूसरे को जोडकर पइर पर गोल-गोल घुमाते, उसे दँवरी कहते. इस काम के लिए जिसका भी बैल खाली हो, बिना माँगे ले जाने की सुदृढ परम्परा ही थी. तो इसमे भी हमारा उजरका सबके दाहिने चलता – इतना फरहर (तेज व सक्रिय) था.
हाँकने वाला हमेशा उसके पास होता, इसलिए उसे खाने का मौका भी न था और उसे पडी भी न थी. दाहिने के बाद फिर दुसरका...आदि होते. सबके अंत वाले को ‘मेंह’ कहा जाता था. अनाज को गन्दगी से बचाने के लिए हमेशा सजग रहना पडता कि बैल गोबर करें, तो हाथ में पुआल लेकर रोप लिया जाये. लेकिन हाँकने वाला तो दाहिने के अलावा अन्दर के बैलों को ठीक से देख न पाता था, तो अगल-बगल की दँवरी वाले या आता-जाता जो भी देखता, चिल्लाता – वो तिसरका देखो, गोबर कर रहा है या मेंहवाँ हग रहा है...!!
करियवा अपनी दँवरी में चले या मँगनी में, बैल दो हों या 4-5, हमेशा मेंह ही चलता. उसे सिर्फ अपनी जगह घूमना होता. ऐसे में किसी भी बैल को एक ही जगह घूमने से घुमरा (चक्कर) आ जाता, पर करियवा को कभी नहीं आता, शायद अन्धे होने से उसे अहसास ही नहीं होता.... इस तरह मेंह के लिए आदर्श था वह. लेकिन धान की दँवरी में एक ही जगह घूमने से मेंह चलने वाले के बायें पैर में पुआल लिपटता जाता है, जिसे गूर्ही कहते. बीच-बीच में दँवरी रोककर गूर्ही को छुडाना पडता था.... करियवा ज्यादा ही लपेट लेता और उसे छुडाना मुश्किल होता, क्योंकि वह पैर झटकारता भी जोरों से...शायद इसलिए कि दिखता था नहीं और पैर में लिपटी भारी गूर्ही से उसे अनकुस (अनइज़ी) लगता. लेकिन वह लतहा था, जो सबके डर का बडा कारण होता. हल-रहट-कल-दँवरी में चलते हुए हाँकने वाले का ठीक पीछे होना तय था.
और ऐसे में कुछ नाग़वार होते ही पीछे वाले को अहटिया के (सन्धान करके या अन्दाज़ा लगाके) ऐसा लात चलाता कि आहत व्यक्ति तो सहसा गिर ही जाता. कइयों को ऐसे गिर के तडपते और फिर घुटने पर हल्दी-प्याज या रेंड का पत्ता आदि बाँधे हफ्तों कराहते-लँगडाते चलते हुए मैंने देखा है.... ऐसा करते हुए मीठी चाल (धीरे-धीरे) चलने वाला करियवा कल-रहट में हुआ, तो दो-तीन चक्कर और हल में हुआ, तो बडी दूर तक लगभग दौडते हुए चलता और दायें चलने वाले उजरके को भी दौडना पडता. फिर भी चार-छह डण्डे की ज़ोरदार मार से कहाँ बच पाता...!! किंतु इसकी उसे लत (बुरी आदत) पड गयी थी, लिहाजा पिटने के लिए तैयार भी रहता.
लात मारने की ऐसी लत वाले जानवरों को ‘लतहा’ कहा जाता. ऐसा करने वाली गायों को लतही कहते. भैंसों को लात मारते मैंने नहीं देखा-सुना. शायद देह से भारी व आदत से सुस्त व बेपरवाह होने के कारण उनकी यह फ़ितरत हो ही नहीं सकती थी. लेकिन बैलों का लात चलाना ‘लात मारना’ के मुहावरे के रूप में मशहूर है. फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में यह मुहावरा आमिर खान की ज़ुबानी सद्य: जन्मे बच्चे के लिए इस्तेमाल हुआ है– ‘लात मारा’, जो किसी चीज़ को हिकारतपूर्वक ठुकराने के लिए इस्तेमाल होता है. ‘लात खाना’ भी हिकारतपूर्वक पिटने के लिए मुहावरा है. ऐसा काम ज्यादा करने वालों को ‘लतखोर’ कहते. और ‘अखाडे का लतमरुवा पहलवान होता है’ तो बहुत लोकप्रिय था, जब हमारे बचपन में गाँव में अखाडे हुआ करते थे. इसमें लतमरुवा का मतलब लात मारने वाला नहीं, बल्कि ‘वरिष्ठ अखाडचियों से लडाये जाना’ है. और लडाते हुए पैर से ही तो ज्यादा गिराया जाता है – ‘लंगी मारना’ तो मशहूर दाँव ही है. सो, लतमरुवा यहाँ पहलवानी के लिए लाक्षणिक प्रयोग है.
लेकिन अब मैं जब करियवा के अन्दर-बाहर व्यापे अफाट अन्धकार के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है कि करियवा के लात मारने की शुरुआत तो उसके लाचार अन्धत्व से मिली काली दुनिया की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया स्वरूप हुई होगी, फिर इससे उसके ऊबजनित आक्रोश को किंचित राहत मिली होगी, जो धीरे-धीरे दुर्निवार लत बनती गयी होगी.... इस लत के अलावा उसकी किसी गतिविधि की कोई पहल कदमी कभी नज़र नहीं आती थी. उसके अन्धेपने ने उसे कदाचित बहुत बेपरवाह भी बना दिया था. कभी मैंने उसे खाने के बाद की डकार लेते नहीं सुना. किसी चीज़ की चाहत-ज़रूरत के लिए भोंकरते (गुहार लगाते) नहीं सुना.
कहीं जाने के लिए छटपटाते नहीं देखा...जैसे सारी इच्छाएं-प्रतिक्रियाएं उसके अदृश्य संसार की भेंट चढ गयी हों.... लेकिन चारा-दाना मिलने पर खाने में कोई कोताही नहीं बरतता, जुआठ गरदन पे रख दिये जाने पर काम से मुँह मोडते भी कभी नहीं दिखा.... गोया खाने-जुतने के अलावा उसे किसी चीज़ से मतलब नहीं, क्योंकि इसके सिवा उसके लिए दुनिया का कोई अस्तित्त्व था ही नहीं. आज की भाषा इसे पेशेवर वृत्ति (प्रोफेशनल अटीट्यूड) कहेगी, पर यदि आज अर्जुन मेरे सामने पूछते कृष्ण से ‘स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव...?’, तो मैं स्थितप्रज्ञ-सा खाने व काम करने तथा समाधिस्थ-सा बैठे रहने वाले अपने करियवा को सामने खडा कर देता.... करिया के इस भाव को भाँप पाने की नज़र तब होती, तो क्या उनसे काम करा पाता...??
इस अन्धत्त्व और इससे उपजी बेपरवाही का ख़ामियाज़ा एक बार खूब
भुगतना पडा करिया पण्डित को.... बरदौर (पशुशाला) में बारिश के मौसम में पशुओं को
मच्छरों से बचाने के लिए धुआँ सुलगाया जाता...,जिसे ‘धुआँ देना’ कहते. इसके लिए सूखे
करसी-कंडा (गोहरी (उपले) बनाने से बचे गोबर के टुकडे व भुर्रे) प्रवेश द्वार के
किनारे की दीवाल के पास छह इंच की चौडाई में फैला दिये जाते और उसके एक सिरे पर आग
सुलगा दी जाती. वह जलती नहीं थी, रात भर धुँधुआती रहती, जिसके कडवे धुएं से मच्छर भागते रहते और बैल-गायें सुख से सो पाते. रातों को 2-4 बार उठके उसे बेना (हाथ के पंखे) से हौंकना
(हवा देना) पडता, ताकि आग बुझ न जाये.
काका के रहते तो किसी को चिंता ही नहीं रहती थी- वे बार-बार उठते रहते.... उनकी इस नींद को
कुकुरनिंदिया कहा जाता था– वही श्वान-निद्रा, जो अच्छे विद्यार्थी के पाँच लक्षणों में से एक है. लेकिन उनके न रहने पर
मैं-माँ-बडी बहन मिलकर ख्याल रखते– जो भी उठता, जाके हौंक आता.
संयोग से उसी दीवाल के सामने सबसे पहले करियवा का खूँटा पडता था, क्योंकि उस नाँद में बडी सींग के नाते उजरके का
मुँह जाता ही नहीं था. उसके लिए चौडा बयाला दूसरे सिरे पर बना था. यह व्यवस्था
करिया पहलवान के अन्धे होने का पता चलने के पहले की थी और तब तक तो उससे बच के
बैठने-सोने की उसकी आदत पड गयी थी.
लेकिन उस रात कैसे वह जान न पाया और आँच लगने पर भी उठ न पाया – थका था, नींद गहरी थी...कौन जाने...!! कहीं उसी बेपरवाही की इंतहा तो नहीं?? पर सुबह बाहर निकालते हुए देखके सब हैरान-परेशान...पूरा दायां पट्ठा (पैर का बाहरी-ऊपरी हिस्सा) जल गया था, पर कुशल थी कि असर हड्डी तक नहीं पहुँचा था. देखकर माँ तो धार-धार रोने ही लगी.... पशु-चिकित्सा तब गाँवों तक नहीं पहुँची थी. सो, सहारा था सिर्फ़ खरबिरैया (पेड-पौधे, घास-पात) के इलाज़ का. इसमें जो कोई जो भी बता दे, वह जहाँ भी मिले, जाके काका वहाँ से ले आयें....
गज़ब का जीवट व जांगर (श्रम-कौशल) था उनमें. सब कुछ हुआ और पूरा सूखने तक उसे रातों को उस खम्हिया (कच्चे बरामदे) में सुलाया गया, जहाँ हम सोते थे. मच्छरों का बन्दोबस्त यहाँ भी वही था, लेकिन यह जगह बहुत बडी थी. पर कहना होगा कि तब भी करिया ने अद्भुत सहन शक्ति व अपार धैर्य का परिचय दिया- न दर्द की आह भरी, न दवा-इलाज़ के दौरान उफ़ किया.... ख्याल आ रहा कि उसके कुछ ही सालों बाद हमारे देहात के नेता त्रिवेणी राय की पशु-शाला में पंखे लगे. सुनकर हम अपने हाल पर तरसे, अपने घर रहने के लिए अभिशप्त उजरका-करियवा की बदनसीबी पर तडपे और नेतागीरी के पैसे की उनकी अय्याशी पर बहुत खौले भी....
सबसे आनन्ददायक दिन होते त्योहारों के, जब होली-दीवाली-पचइंया (नागपंचमी) पर पूरे गाँव
के लोग अपने बैलों को तालाब में ले जाके नहलाते.... नहलाते वैसे भी, पर महीनों बाद कभी-कभी और सब लोग अपनी
फुर्सत-जरूरत से अलग-अलग. लेकिन त्योहारों को तो सबका साथ में... गोया ‘पशु-नहान’ लग जाता, जिसके मुक़ाबले हमारे
कुम्भ...आदि नहानों के दृश्य तो निहायत गलबल ही कहे जायेंगे.... पहले तो घुटने भर
पानी में खडे करके हम पुआल से उनका पूरा बदन घिसते. कालांतर में जब मुम्बई में
अपने पालतू कुत्तों-चूहों को उनके लिए ख़ास बने अलग-अलग शैम्पू से नहलाया, ब्रश से मला- अब भी वहाँ रहते हुए बीजू-चीकू
(कुत्तों) को करता हूँ,
तो करियवा-उजरका के लिए मन
बहुत तरसता है....
काश, तब अपने लिए भी शैम्पू-ब्रश का पता होता और उनके लिए साबुन खरीदने की औकात व प्रथा होती.... महीनों-महीनों बाद नहलाने के कारण दोनो के बदन से मैल खूब निकलता और एक बार पूरा भींग जाने के बाद वे बडे चाव से नहलवाते- रगडते हुए पूँछ खडी कर लेते, अँगडाई लेने लगते और बाहर निकलने पर उजरका तो कुलाँचे भर-भर के मज़े लेता.... सबसे मज़ेदार होता साफ कर लेने के बाद उन्हें बीच तालाब में ले जाके पौंडाना (तैराना).
काश, तब अपने लिए भी शैम्पू-ब्रश का पता होता और उनके लिए साबुन खरीदने की औकात व प्रथा होती.... महीनों-महीनों बाद नहलाने के कारण दोनो के बदन से मैल खूब निकलता और एक बार पूरा भींग जाने के बाद वे बडे चाव से नहलवाते- रगडते हुए पूँछ खडी कर लेते, अँगडाई लेने लगते और बाहर निकलने पर उजरका तो कुलाँचे भर-भर के मज़े लेता.... सबसे मज़ेदार होता साफ कर लेने के बाद उन्हें बीच तालाब में ले जाके पौंडाना (तैराना).
होली में तो सिंचाई के चलते तालाब में पानी बहुत कम रह जाता, लेकिन दीवाली में तालाब भरा रहता और ठण्ड उतनी ज्यादा न रहती...सो पगहा पकड के दोनो को बारी-बारी से खूब पौंडाता.... यह काम करते काका या बडके बाबू को कभी नहीं देखा मैंने, जबकि पौंडने दोनो को आता था - बडके बाबू तो हमारे साथ तैरने का मुकाबला भी करते.... पौंडता करियवा भी, पर वही कि अपने अँधेरे के कारण सहमा रहता. जिधर पगहे को ले जाते, उधर ही जाता अहटियाते-अहटियाते (टोह लगाते हुए). पर उजरका पौंडने के खूब मज़े लेता. तैराकी स्पर्धाओं में तो सिर्फ गति नज़र में लायी जाती है, वरना मनुष्य हों या पशु, मज़े लेते हुए मंथर-मंथर तैरने में अन्दर-अन्दर पानी को पीछे टालने की गति की एक लय होती है, जो पानी के बाहर वाले बदन के हिस्से पर नुमायां होती है (गोवा के स्वीमिंग पूल में बेटे को तैराते हुए उसकी गति की लय भी याद आ रही है).
और उजरके की बडी-बडी सुन्दर सींगों और धुलने से चमकती हुई रोमावलियों वाली गर्दन, ड्रिल और पीठ के ऊपरी हिस्से की गति से जो लय बनती और इन सबसे मिलकर जो छबि दृश्यमान होती, उसकी नयनाभिरामता के आगे रूपक बन गये ‘हंस की गति’ भी पानी भरे... – बेशक़, मेरी नज़र से व मेरे उजरके के सामने.... और नौका के लिए ‘मधुर हंसिनी-सी सुन्दर’ कहने वाले पंतजी ने तो बैल को तैरते शायद देखा भी न हो...साथ तैरते हुए के अनुभव की तो बात ही क्या...!!
घर लाके उनके माथे (दोनो सींगों के बीच के छोटे गड्ढे) पर तेल की मालिश करते. यह काम बडके बाबू ही करते, जब कभी घर रहते- वरना तो कोई भी करता.... लेकिन उनका करना मालिश का श्रृंगार बन जाता...वे उसमें रस लेते. मुझे अच्छी तरह याद है कि यदि बैल खडे भी रहते, तो सर नीचे करके गोया मालिश कराते.... और बैठे होने पर की तो बात ही क्या, आँखें मूँद ही लेते – शायद बडी राहत मिलती होगी उन्हें.... हाँ, सींग में तेल पोतते हुए अवश्य सर हिलाकर बचना चाहते, पर हम जबर्दस्ती पोतते ही...जिसके बाद कई दिनों तक सींगे अच्छी लगतीं. कुछ शौकीन लोग तो सीगों को रँगते भी, किंतु मुझे न रँगना अच्छा लगता, न रँगी हुई सींग को देखना ही.
इन सबके बाद कभी-कभी काका कालिख में अपना हाथ डुबाके उजरके के दोनो तरफ गदोरी का ठप्पा लगा देते और धीरे से कहते – नज़र न लगे बेटे को.... फिर यूँ ही गदोरी करिया पर भी चिपका देते, पर उस पर कोई फर्क़ न पडता – ‘चढे न दूजो रंग’. उजरके की गरदन अपेक्षाकृत नाजुक थी शायद. कातिक में जब हलवाही ज्यादा होती, उसमें सूजन आ जाती. इसके लिए पुआल जलाकर उसकी राख घडे में रखी रहती. और उसे पानी में मिलाकर सुबह हल के लिए जाने के पहले और दोपहर को लौटने पर उसकी गरदन पर छोपते.... इससे उसे राहत मिलती होगी, तभी वह सहर्ष छोपवाता....
जाडे के मौसम में उन्हें मठार पिलाया जाता. मठार याने गाढा छाछ, जिसमें घी को खरवने के बाद नीचे जमा काला पड गया घी भी मिला होता. लेकिन गर्मी में मठार नहीं, शुद्ध छाछ पिलाते– शायद इसलिए कि घी गर्म करेगा. जाडे भर उन्हें खिलाने के लिए एक अलग खेत मे गाजर बोया जाता.... गाजर धोकर काटा जाने लगता, तभी से दोनो मचलने लगते– इतना प्रिय लगता होगा.... भूसे का चारा तो बारहमासा होता, लेकिन पुआल व ठेंठा (मक्के का सूखा तना) भी लगभग नौमासे छमासे होते ही. ये सूखे चारे होते, जिनमें हरा चारा डाल के स्वास्थ्यकर व स्वादिष्ट करने के लिए अलग-अलग मौसम में अलग-अलग चारों का इंतजाम क़ुदरत ने किया है. बारिश के समय तो खूब हरी-हरी घासों से सारी धरती भर जाती. सनई-बाजरे भी होते.... बस, काटके लाना भर पडता. उन दिनों बाँस भी हरे पत्तों से लद जाते और उन्हें लटकाकर पत्तियां तोड लेना आसान होता. मैं और मेरे खान्दान के स्व. रामाश्रय भाई घास करने में ज्यादा विश्वास न करके या जांगर न लगाके पत्तियां ही तोडते - 20-20 आँटी (जूडी- बण्डल).
इसे घास की तरह ही चारे की मशीन में बालके (छोटा-छोटा काटके) भूसे में मिला देने पर हमारे दोनो वीर खरी-दाना की परवाह न करते– सब चाट जाते. फिर तो हरे धान काटके आते, बैलों की तो चम्म होती ही, उसे लतिया के जो धान निकलता, उसे नवान्न के रूप में हम भी खाके तृप्त होते. रबी की फसल शुरू होते ही अगहन-पूस (प्राय: नवम्बर-दिसम्बर) में अँकरी-सरसो हो जाते. माघ-फागुन (जनवरी-फरवरी) में मटर के झंगडे और गन्ने के गेंडे (ऊपर का हरा हिसा) तो चारा ही बन जाते. फिर चैत (मार्च) में लतरी हो जाती. यह ऐसी ग्रामीण-कृषि संस्कृति थी, जो आज लुप्त हो गयी. ट्रैक्टर ने बैलों को खत्म कर दिया. अब गायों के बाछे मारे-मारे फिरते हैं, जिनका पैदा होना कभी किसानों का इष्ट हुआ करता था, लेकिन आज ‘पुत्रीति जाता’ जैसी ‘महनीय चिंता’ और ‘कस्मै प्रदेयेति’ (किसे दें) के ‘महान वितर्क:’ बन गये हैं. ऐसे में अब इस हरियाली और हरे चारे को कौन पूछे...?
चैत में कटिया (जौ-गेहूँ कटने) के बाद दँवरी शुरू हो जाती. वैशाख-जेठ भर चलती. इस दौरान कितना हू हरकने के बावजूद ना-ना करते भी बैल इतना जौ-गेहूँ उदरस्थ कर लेते कि दँवरी से छूटने पर तालाबों-कुओं पर, फिर घर पर सिर्फ पानी ही पानी पीते और बैठ-सो जाते. हाल यह होता कि खडा दाना पचता नहीं और गोबर के बदले निछान (बिना किसी मिलावट के) दाना ही बाहर निकलता और इसे उनके जिन्दा रहने की त्रासदी कहें या विकल्प कि भूमिहीन मज़दूर वर्ग की औरतें उसे बीन-बटोरकर ले जातीं और धो-सुखाके पीस-पो के खातीं-खिलातीं. तब यह सब रोज़ देखते, उसी में पलते-बढते-जीते हमें सामान्य (नॉर्मल) ही लगता, लेकिन बडे होकर पढते हुए इसका दंश गहरे चुभा- ख़ासकर दलित-लेखन, जहाँ यह मामला खूब रोशन हुआ है.
यह सब देखते-साझा करते हुए काका के रहते बडे मज़े से कट रही थी. उनके जाने के बाद भी करने का मज़ा तो आता, पर पढाई और इन सारे कामों के बीच तन-बिन जाना पडता– दोनो की हानि के साथ दोनो को निभाना फिर भी उतना मुश्किल न होता, यदि घाटा-नफा की चिंता न होती. घाटा ही ज्यादा था, क्योंकि काका जैसी खेती करके कम में से ज्यादा पैदा कर लेना मुझ अनुभव-विहीन नौसिखिये को आता न था. बहनों की शादियों में तमाम खेत रेहन थे और घर का कोष एकदम रिक्त– ऋण से लदा. ऐसे में करियवा-उजरका को वैसी रातिब (ख़ुराक) भी न मिल पाती, जिसकी अब इस उम्र में उन्हें ज्यादा ज़रूरत होती.... बिना भरपूर खिलाये, उनसे पूरा काम लेने के लिए मैं अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगा.... दोनो बेचारे मेरे साथ खींच रहे थे अपनी ढलती उम्र को...पता नहीं काका का जाना भी उन्हें साल रहा था. उनके अभाव से भी टूट रहे थे या उनके नमक की अदायगी कर रहे थे...!! पर कब तक...?
पहले करियवा गिरा.... कुछ दिनों तक उठाने पर उठ जाता...पर 1969 के सितम्बर में काका के जाने के लगभग दो साल बाद
जो गिरा, तो उठा नहीं. करीब
दस दिनों जमीन पर लेटा रहा.... रोज़ अन्दर-बाहर करना सम्भव न हुआ, तो वहीं बाँस खडे करके दरी-चद्दरों से छाँव कर
दी गयी. रातों को कुछ गझिन ओढकर मैं वहीं सोता. घंटों-घंटों उसके पास बैठी माँ उसे
सहलाती व मक्खियां उडाती पायी जाती.... याद आता है कि कहीं ‘बेतार के तार’ से खबर पाकर तीन-चार दिन पहले बडके बाबू भी आ
गये थे. खूब तीमारदारी की करिया की– जैसा उनका स्वभाव था. गरदन उठाकर मुँह खोलकर रोटी के छोटे-छोटे टुकडे करके
मुँह में रखे जाते, तो कूचने की कोशिश
करता– कुछ जाता भी
अन्दर.... फिर किसी तरह चिरुवा (एक हाथ की अँजुरी) से पानी मुँह में डाला जाता, तो मुँह का बचा हुआ भी शायद पेट में चला जाता.
हर तीसरे दिन हम तीन-चार लोग मिलकर उसकी करवट बदल देते, ताकि एक ही अलंग (तरफ) पडे रहने की अधिक पीडा तथा चमडी पर छाले पडने से बचे.... जिस दिन गया, दोपहर ढल चुकी थी. उसकी विदाई में बिछडने की पीडा के साथ अगले महीने शुरू होने वाली कातिक की बुवाई की चिंता भी जुड गयी थी. आँखे तो सबकी गीली थीं, माँ की अफाट रुलाई देखी-सुनी नहीं जा रही थी. हरिजन बस्ती के लोग जब करिया को बाँसों में टांग के ले चले, तब तो वे हरकेस काका (कहाँर) भी रो पडे थे, जिन्हें उसने एकाधिक बार लात मारा था. वही अंतिम मूर्त्त दर्शन हुए...पर नज़रों से ओझल तो क्या कभी हो पायेगा अपना प्यारा करियवा...!! नया बैल लेने का सौंहर था नहीं. जदुनाथ चौरसिया से हरसझा हुआ. अब एक दिन हमारे खेत में हल चलता, एक दिन उनके. नये बैल के साथ चलने में उजरका मानो श्रीहीन हो गया. उसकी आँखों से बार-बार पानी गिरने लगता.... एक दिन उसे किसी और के हाँकने में चलना होता और मंतू भइया एक दिन खाली रहते.... उनकी रोजही के लिए उस दिन खेत में उनसे कुछ और काम कराते.... लेकिन गाँव के लोगों ने भी खूब मदद की. जिससे भी माँगा, एक-एक, दो-दो दिन सबने अपनी जोडी दी. किसी तरह कातिक बीता. इसी तरह सिंचाई भी हो गयी. 1970 मार्च में इंटर का मेरा इम्तहान हो गया. अब मैं भी मुक्त...या खाली...?
शहर जाके आगे पढने की हालत नहीं.... अभी कटिया में कुछ समय था. सो, नानी व मौंसी के यहाँ चला गया. और आठ दिनों बाद आया, तो खूँटा खाली मिला- उजरका अचानक चला गया था.... उसे ‘बाघी’ हो गयी – हृदय का ज़हर जैसा कुछ, जो अचानक मर जाने पर हर पशु के लिए कहा जाता....
कलेजाफाड क्लेश-चिंता के बीच एक राहत मिली कि जाते हुए उजरके को देखने की दुर्दांत पीडा से बच गया, पर आते ही माँ के करुण विलाप और घर-दुआर के असीम सूनेपन से कहाँ बच पाया...!! दुआर के श्रृंगार चले गये....
लेकिन उनकी यादों से बचना चाहता भी नहीं – जिन्होंने मेरे बचपन को हसीन व भाव-समृद्ध बनाया, किशोरावस्था में जो कन्धे से कन्धा मिलाकर चले, बडे भाइयों जैसे गाढे के साथी बने, उनकी स्मृति को नित्य का प्रणाम...!!
(क्रमश:)
_____________
हर तीसरे दिन हम तीन-चार लोग मिलकर उसकी करवट बदल देते, ताकि एक ही अलंग (तरफ) पडे रहने की अधिक पीडा तथा चमडी पर छाले पडने से बचे.... जिस दिन गया, दोपहर ढल चुकी थी. उसकी विदाई में बिछडने की पीडा के साथ अगले महीने शुरू होने वाली कातिक की बुवाई की चिंता भी जुड गयी थी. आँखे तो सबकी गीली थीं, माँ की अफाट रुलाई देखी-सुनी नहीं जा रही थी. हरिजन बस्ती के लोग जब करिया को बाँसों में टांग के ले चले, तब तो वे हरकेस काका (कहाँर) भी रो पडे थे, जिन्हें उसने एकाधिक बार लात मारा था. वही अंतिम मूर्त्त दर्शन हुए...पर नज़रों से ओझल तो क्या कभी हो पायेगा अपना प्यारा करियवा...!! नया बैल लेने का सौंहर था नहीं. जदुनाथ चौरसिया से हरसझा हुआ. अब एक दिन हमारे खेत में हल चलता, एक दिन उनके. नये बैल के साथ चलने में उजरका मानो श्रीहीन हो गया. उसकी आँखों से बार-बार पानी गिरने लगता.... एक दिन उसे किसी और के हाँकने में चलना होता और मंतू भइया एक दिन खाली रहते.... उनकी रोजही के लिए उस दिन खेत में उनसे कुछ और काम कराते.... लेकिन गाँव के लोगों ने भी खूब मदद की. जिससे भी माँगा, एक-एक, दो-दो दिन सबने अपनी जोडी दी. किसी तरह कातिक बीता. इसी तरह सिंचाई भी हो गयी. 1970 मार्च में इंटर का मेरा इम्तहान हो गया. अब मैं भी मुक्त...या खाली...?
शहर जाके आगे पढने की हालत नहीं.... अभी कटिया में कुछ समय था. सो, नानी व मौंसी के यहाँ चला गया. और आठ दिनों बाद आया, तो खूँटा खाली मिला- उजरका अचानक चला गया था.... उसे ‘बाघी’ हो गयी – हृदय का ज़हर जैसा कुछ, जो अचानक मर जाने पर हर पशु के लिए कहा जाता....
कलेजाफाड क्लेश-चिंता के बीच एक राहत मिली कि जाते हुए उजरके को देखने की दुर्दांत पीडा से बच गया, पर आते ही माँ के करुण विलाप और घर-दुआर के असीम सूनेपन से कहाँ बच पाया...!! दुआर के श्रृंगार चले गये....
लेकिन उनकी यादों से बचना चाहता भी नहीं – जिन्होंने मेरे बचपन को हसीन व भाव-समृद्ध बनाया, किशोरावस्था में जो कन्धे से कन्धा मिलाकर चले, बडे भाइयों जैसे गाढे के साथी बने, उनकी स्मृति को नित्य का प्रणाम...!!
(क्रमश:)
_____________
satyadevtripathi@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-06-2019) को "राह दिखाये कौन" (चर्चा अंक- 3363) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर, बहुत आत्मीय!!💐💐💐
जवाब देंहटाएंकुछ यादें नही जाती
जवाब देंहटाएंक्या ही तो सुंदर लिखा है!
जवाब देंहटाएंसुघरका के बारे में बाद में आयेगा या मुझसे ही छूट गया?
बहुत सुन्दर सार्थक और विचारणीय ............ त्रिपाठी जी और समालोचन को धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसादर
यह बहुत वेधक और मार्मिक संस्मरण है। सत्यदेवजी ने इस विधा को बहुत ऊंचाई पर पहुंचा दिया। इस विधा की कदाचित् एक सीमा भी है -- उसकी परिणति वेदना के दंश में होती है।
जवाब देंहटाएंयह संस्मरण बहुत ही जानदार है .
जवाब देंहटाएंबैलो पर इतना सुन्दर आज तक मैंने नही पढ़ा।
जवाब देंहटाएंपढ़ा। बहुत अद्भुत लेखन है।
जवाब देंहटाएंहमारे यहां लोहवा, बिजुरिया गबरू और करियवा 4 थे। हमने अपनी आजी को इन बैलों से बात करते और लोहवा के मरने पर राग कढाकर रोते और उसका किरिया करम करते देखा है। याद आ गयी वो 4 हर की खेती, बाबा आजी, बड़का बाबू सब
जवाब देंहटाएंथॉमस मान ने अपने कुत्ते बशान को केंद्र में रख कर जो रचना की है, वह विश्व साहित्य में अप्रतिम मानी जाती है। लेकिन आज मैं दावे के साथ कह सकती हूँ, पशु पर ऐसा जीवंत और मार्मिक लेखन हिन्दी में ही नहीं विश्व साहित्य में विरल है। आपकी कलम को सलाम! समालोचन को धन्यवाद, इसे साझा करने के लिए। बचपन में हमारे यहाँ गौरी और श्यामा (गाएँ) थीं। दादी से खूब हिली-मिलीं। जिसे खली (खरी), चोकर (भूसी) और चरी (बालके) खिलाने की धुँधली-सी स्मृति कौंध गई। यह लेख हिन्दी साहित्य
जवाब देंहटाएंहम शहर में पले-बढ़े लोग इस संस्कृति से वंचित रहे लेकिन आपने ठीक लिखा है अब यह पूरी संस्कृति ही लुप्त हो गई है। परिवर्तन जीवन का नियम है मगर किस कीमत पर!
दादा,अदभुत वर्णन।हम तो अपने गाँव 'पलकहाँ' ही पहुंच गए।
जवाब देंहटाएंटाइपिंग की गलती से एक वाक्य अधूरा रह गया। वाक्य है: यह लेख हिन्दी साहित्य की थाती है।
जवाब देंहटाएंBahut umda likha hai sir Pura lok darshan
जवाब देंहटाएंविजय कुमार
(मंच नाट्यदल और निमकी मुखिया के ठाकुर)
Bahot hi SHANDAAR Aalekh hai Sir..
जवाब देंहटाएं(जयशंकर त्रिपाठी - रंगकर्मी और टीवी अभिनेता)
excellent
जवाब देंहटाएंसुरेंद्र वर्मा
(नाटककार, कथाकार)
इतना बढ़िया लेख पोस्ट करने के लिए धन्यवाद! अच्छा काम करते रहें!। इस अद्भुत लेख के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सर ����
जवाब देंहटाएंगाँव में बहुत ज़्यादा नहीं रही हूँ ।जो भी थोड़ा बहुत कभी कभार इससे मिलता जुलता देखा है पढ़ते पढ़ते वो सब visualize हो रहा था... और पढ़ने और visualization के साथ साथ होने के कारण कभी कभी confusion भी हो रहा था ।
दिमाग खराब होने के लक्षण दिखाई देने लगे हैं
आपका संस्मरण पढा । एक साथ लोकजीवन के बहुत से दृश्य याद आ गए । मैं अपने सुदूर बचपन मे पहुंच गया । बैल पशु नही हमारे परिवार के सदस्य होते थे । उनसे कृषि व्यवस्था चलती थी । वे खेत जोतते थे । दवनी करते थे । जब वे घर पर आते थे , उनका परछावन होता था । उनके माथे पर हल्दी अच्छत लगाया जाता था । मुझे अपने घर के मरकहवा बैल की याद है । जब उसे बाजार में बेचा गया तो रात में ही पगहा तुड़ा कर घर चला आया । दादा ने देखा तो उनकी आंख से आंसू निकल पड़े । उन्होंने बेचने का खयाल छोड़ दिया और गहकी को पैसा लौटा दिया । फिर बाद में वह सुद्ध हो गया । मैंने इस घटना पर मैंने एक कहानी मरकहवा लिखी है जो मेरे संग्रह में संकलित है । अब बैल की जगह लोहे के बैल आ गए है । उनसे क्या बतकही करे वे बोलते ही नही । न बैल रहे न खलिहान न वह औरते तो बोझा ढ़ोते समय एक लय में चलती थी । उनकी नृत्य मुद्राएं अब कहां देखने को मिलेगी । बहुत कुछ अब अदृश्य हो गया है ।
जवाब देंहटाएंआपको पता नही आपके इस संस्मरण ने मुझे कितना सुख दिया है । मैं कुछ देर के लिए ही सही पुराने वक्त में लौट गया हूँ । आपको आभार के साथ बधाई ।
*****पर नज़रों से ओझल तो क्या कभी हो पायेगा अपना प्यारा क रियवा...!!*****
जवाब देंहटाएं***** दुआर के श्रृंगार चले गये....
*****
संवेदनाओं से भरे संसार का बहुत उम्दा और अपने बहुत प्यारों के लिए कुछ न करना पाने वाली मजबूरियों का मार्मिक चित्रण। बहुत कम रही हूँ ऐसे संसार में, पर हर शब्द पढ़ते ही जी आयी उस दौर को जिसे महसूस करती रही हूं। किसी बरधे, गाय या भैंस की मृत्यु, मतलब किसी कर्ता-धर्ता या पालक का चले जाना बहुत बड़ी रिक्तता छोड़ जाता था उस भाव-प्रधान आर्थिक रूप से कमजोर और सुविधा विहीन समाज में...
बहुत सुंदर सर 🙏🙏
जवाब देंहटाएंगाँव में बहुत ज़्यादा नहीं रही हूँ ।जो भी थोड़ा बहुत कभी कभार इससे मिलता जुलता देखा है पढ़ते पढ़ते वो सब visualize हो रहा था... और पढ़ने और visualization के साथ साथ होने के कारण कभी कभी confusion भी हो रहा था ।
दिमाग खराब होने के लक्षण दिखाई देने लगे हैं ।😂😂।
निःशब्द हूँ। अपने अतीत के गलियारे में घूमता रहा आपके साथ मैं भी! नमन आपकी लेखनी को।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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