निज घर : सत्यदेव दुबे : सत्यदेव त्रिपाठी





सत्यदेव दुबे किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं. श्याम बेनेगल के ‘भारत एक खोज’ में चाणक्य की उनकी भूमिका को आज भी याद किया जाता है. इसके साथ ही वह एक बड़े रंगकर्मी थे, उनका जीवन बहुवर्णी और बीहड़ था.

सत्यदेव त्रिपाठी रंगमंच और नाटकों पर लिखते हैं, सत्यदेव दुबे पर उनका यह संस्मरण अद्भुत है. सत्यदेव दुबे का व्यक्तित्व, समय और खुद संस्मरणकार की अपनी इयत्ता इतने नाटकीय ढंग से यहाँ प्रस्तुत है कि आप पूरा पढ़ कर ही उठते हैं.

राकेश श्रीमाल नवाचारी संपादक हैं. उनके संपादन में निकले ‘पुस्तक-वार्ता’ ने न केवल एक पहचान बनाई बल्कि किताबों की गम्भीर समीक्षा की कमी को भी पूरा किया. अब ‘लोक-शास्त्रीय–परम्परा-आधुनिकता’ पर ‘ताना-बाना’ का प्रवेशांक उनके संपादन में निकला है. यह अनूठी पत्रिका भी सार्थक हो इसी कामना के साथ यह संस्मरण यहीं से साभार.





 वे जीवन को भोग-भोग कर अश्वथामा हो गए थे         
सत्यदेव त्रिपाठी 




ह संस्मरण इस अफसोस के साथ शुरू करने के लिए मुआफी का तलबगार हूँ कि कभी दुबेजी पर एक किताब लिखने की बड़ी पक्की योजना बनी थी, जिसमें स्व. गुरुवर वसंत देव की अमूल्य प्रेरणा व असीम सहयोग अनायास ही मिल रहा था. जब बात की शुरुआत हुई थी, देव साहेब के घर पर मराठी के लब्ध-प्रसिद्ध नाटककार महेश एलकुंचवार साहेब भी मौजूद थे. उनसे मैं एक बार नागपुर के रंगकर्म के सर्वेक्षण के सिलसिले में उनके घर पर ही मिल भी चुका था. उन्होंने भी इस कार्य के लिए बहुत उत्साहवर्धन किया था और पूरी सदाशयता के साथ अपेक्षित सहयोग का आश्वासन भी दिया था. पर वह कार्य न हो सका ठीक से शुरू भी न हो सका, जिसकी कसक तो यूँ भी होती रहती है... लेकिन आज यह संस्मरण लिखते हुए कुछ ज्यादा ही हो रही है-खासकर इसलिए कि आज दुबेजी पर अँग्रेजी में एक महत्वाकांक्षा पर यहाँ-वहाँ बिखरे-पड़े के संग्रह से तैयार पुस्तक सामने पड़ी है. शायद जिस कारण तब दुबेजी पर पुस्तक नहीं (होती) थी, आज उसी कारण है. और हिन्दी में पता नहीं, आज भी कोई पुस्तक है या नहीं. अब तो अपने न लिखने का कारण बताने का भला क्या औचित्य है! शायद वे इस कारण पूरे संस्मरण में मौजूद भी मिले....

कसक एक और रही है कि काश यह संस्मरण मैंने उनके जीते जी लिख दिया होता... जैसे ए.के. हंगल व अभी-अभी जगदंबा प्रसाद दीक्षित के संस्मरण लिखे हैं, वरना अब उनके न रहे के बाद कोई अन्यथा भी सोच-कह सकता है; किंतु मैं आज भी वही कहूँगा, जो तब कहता. क्योंकि मैं ऐसा मानता हूँ कि दिवंगत होकर कोई इतना दयनीय या इतना आदरणीय नहीं हो सकता. दुबेजी जैसे बड़े रंगकर्मी को किसी अन्यथा रुप में प्रस्तुत करने की नीयत वाले के लिए तो कुदरत से कलम टूट जाये, रोशनाई न देकी ही दुआ में मेरा यकीन है, लेकिन उन्हें अनायास मसीहा बना दिया तुमने, अब तो शिकायत भी की नहीं जातीसे बचने का भी कायल हूँ. अस्तु...



(एक)

जिन दिनों मैं मुम्बई के रंगकर्म में दर्शक के रूप में शामिल हुआ और धीरे-धीरे जल्दी ही रंग-समीक्षाएँ-नियमित लिखने लगा, थियेटर-जगत में दुबेजी के लिए सम्मान का गहरा भाव आतंक की तरह छाया हुआ था. उनके शिष्यों की तादाद इतनी ज्यादा हुआ करती थी (जो अब भी है) कि हिन्दी थियेटर के चन्द प्रोफेशनल्स को छोड़ दें, तो शहर में पले-बढ़े जिस किसी रंगकर्मी पर उँगली रखें, वो दुबेजी का शागिर्द निकलता था. और जब समीक्षा लेखन की डोर पकडे मैंने नागपुर, पूना, सांगली, कोल्हापुर और कोंकण वगैरह के थियेटर का सर्वे किया, तो उनके ढेरों-ढेर शिष्यों और शिष्यों के शिष्यों और मुरीदों से पाला पड़ा. याने पूरे महाराष्ट्र में दुबे की नाट्य-परम्परा फली-फूली है. वे अपने को हिन्दी-भाषी वाली परिधि से मुक्त कर चुके थे. इनकी सीमाओं की खुली चर्चा फटकार के रूप में करते, जिसके चलते प्रतिबद्ध और नामी हिन्दी-भाषी व हिन्दी रंगकर्मियों में दुबेजी के प्रति अवहेलना का भाव कभी-कभी मुखर होते हुए भी मैंने देखा है. खैर.....उनके शिष्यों की श्रृंखला शायद महाराष्ट्र से बाहर भी हो. बिलासपुर उनका गृहनगर रहा है. छतीसगढ़ में अवश्य होनी चहिए, पर कई दौरों के दौरान रायगढ़ और एकाध बार रायपुर में नहीं दिखी. अतः अधिकृत रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन मुम्बई में अंतिम समय तक एकदम ही नए-नए, छोटे-छोटे बच्चों को भी विरल ढंग से थियेटर के गुर सिखाते मैंने उन्हें देखा है. उनकी शिष्य-परम्परा पर ही एक पूरा संस्मरण लिखा जा सकता है, पर वह अपना यहाँ लक्ष्य नहीं. फिर भी अमोल पालेकर से निकलकर सुनील शानबाग से होते हुए किशोर कदमगणेश यादव तक के सिलसिले में इसके गौरवशाली रूप का उल्लेख तो किया ही जा सकता है. और स्टार-विलेन बनने के पहले अमरीश पुरी को दुबेजी के निर्देशन में वसंत देव जी का अरण्य किरण करते और मुरीद होते हुए मैंने देखा है. और वह छाप ऐसी अमिट है कि बाद के अमरीश जी का सारा स्टारडम उसके आगे पानी भरे. शिष्यों की ही तरह मित्रों-मुरीदों की संख्या भी बहुत बड़ी है दुबेजी की, जिनकी चर्चा भी प्रसंगतः आगे आती रह सकती हैं. ऐसे तमाम दोस्तों से पैसे ले-लेकर नाटक करने की ख्याति तो प्रायः आम रही दुबेजी की, पर गोविन्द निहलानी की जेब से पैसे निकालकर नाटक करने और ऐसा करने के गर्व को स्व. दुबे जी से ही सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त है.

मेरा उनसे पहला औपचारिक (इंटरव्यू के लिए समय लेकर), पर विधिवत मिलना गोविंद निहलानी के घर पर ही हुआ था, जो उन दिनों मुम्बई की सरकारी बसाहट (गवर्नमेंट कॉलोनी), बान्द्रा-पूर्व (स्टेशन के बहुत पास) रहा करते. वहाँ से बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर पर चेतना कॉलेज है, जहाँ से मैंने अपने नियमित अध्यापक-जीवन की शुरुआत की थी. उन दिनों मैं स्कूटर (बजाज) से मुम्बई को नापा करता था और उस रौ में जनसत्ता, मुम्बई के लिए बन्धुवर अच्युतानन्द मिश्र (तत्कालीन स्थानीय संपादक) की योजना के अनुसार दस किस्तों में मुम्बई का मराठी रंगमंच पूरा कर चुका था और उससे हुलसा-हुलसा मुम्बई का हिन्दी रंगमंचपर काम कर रहा था. जिसके लिए दुबेजी से मिलना अपरिहार्य था. सो, समय ले रखा था-सुबह 10.30 बजे का. सोचा था कि एक डेढ घण्टे में बात करके वहीं से कॉलेज हो लूँगा-12.30 बजे का पहला लेक्चर हुआ करता था. लेकिन क्या आप विश्वास करेंगे कि 5 बजे निकल पाया. पंडितजी का मूड व फॉर्म देखकर 12 बजे ही आकस्मिक अवकाशके लिए वहीं से फोन कर दिया, बिना उनसे कहे-पूछे.

10.30 बजे पहुँचा, तो पण्डितजी सो रहे थे-जमीन पर ही. चटाई या दरी जैसे कुछ बिछे होने की याद है, लेकिन यह पक्का याद है कि काली-सी चद्दर ओढे़ हुए थे. होश सँभालने से ही सुबह 5 बजे उठने वाला मैं तब तक कलाकारों के रात को 2-3 बजे तक जागने और 12-1 बजे दिन तक सोने को पचा नहीं पाता था. बाद में तो फिर इतने मीडिया वालों से साबका बड़ा, दोस्तियाँ हुईं कि समझना पडा़. किंतु उसी में दिनेश ठाकुर, इला अरुण जैसे कुछ अपवाद भी हैं, जो मेरी ही तरह कुछ भी हो जाए. बीमारी के अलावा 5.30 बजे के बाद बिस्तर पर रह ही नहीं सकते. और अब तो बेटा ही मीडिया वाला हो गया है. सो, घर में ही सहना-जीना पड़ रहा है. लेकिन तब के संस्कार में बहुत-बहुत संकोच के बावजूद, दूबेजी को जगा दिया. घर में और कोई था भी तो नहीं. निहलानी जी का एक नौकर था, जिसने हाथ उठा दिए. दूसरा उपाय न था. कॉलेज जाने का दबाव भी था और माँगकर समय लिये जाने का अधिकार भी. लेकिन बाद में जैसे-जैसे दुबेजी के मिजाज को जानता गया, ख्याल आता गया कि उस दिन कितना बड़ा रिस्क लिया था मैंने. कुछ भी हो सकता था... लेकिन संयोग तो कुछ और ही था!

स्व. पं. सत्यदेव दुबे उस दिन अपने चरम पर थे. उनका खाँटी कलाकार फिर उतने शानदार-जानदार रूप में मुझे नहीं दिखा, उसके पहले व बाद के ढेरों एकल प्रदर्शनों व नाट्य शोज के बावजूद. क्योंकि वे सब कितने भी अच्छे आयोजित होते थे, सबके लिए होते थे. और यह तो स्वतःस्फूर्त था. इस तरह नियोजित तो न था, पर मुझ अकेले के लिए (एक्सक्ल्यूजिव) हो गया था. लेकिन असल में वह सिर्फ दुबेजी के लिए था-दुबेजी का दुबेजी के लिए. उनका हाल वो था, जिसे बच्चनजी के शब्दों में ही कह पाऊँगा-अपने ही में हूँ मैं (दुबेजी) साकी, पीने वाले, मधुशालायाने वही सुनाने वाले, वही सुनने वाले और वही इसके प्रेरक भी. मैं तो निमित्त मात्र बन गया था.... वे अपने उद्वेलन और आलोड़न में गा रहे थे, रो रहे थे, कुढ़ रहे थे, तमतमा रहे थे, मुस्कुरा रहे थे, अट्टहास कर रहे थे, दहाड़ रहे थे, प्यार-मनुहार कर रहे थे, इस सबके दौरान भिन्न-भिन्न रूप धर रहे थे. सबसे ओजस्वी व अमिट रूप अन्धायुगके अश्वथामा का उभरा था-हालांकि गान्धारी व कृष्ण भी कम न रहे.

आधे अधूरे के सावित्री समेत चारों पुरुष टुकडे-टुकडे में अपनी सम्पूर्णता में प्रकट हुए, तो कामायनी के मनु बने दुबेजी और श्रद्धा भी. कभी आँसू के प्रसाद होते थे, तो कभी उनकी नायिका...सबके टुकडे-उनके अपने पसन्दीदा... और ढेरों फुटकर कविताएँ-गीतफरोश, ऐ गमेदिल...आदि जैसी, जो उस रौ में जितनी आती गईं... एक दर्शक-श्रोता के लिए यह एकल शो-अपने बहुरूपी अन्दाज में... मुझे लगा कि मैं नहीं, मेरे बदले आज यहाँ कोई भी ए.बी.सी. होता, तो शायद वह सब होता. बस, इत्त्तफाक से.. नहीं, सौभाग्य से-पारम्परिक भाषा में कहूँ, तो पूर्वजों के पुण्य-प्रताप से-उस वक्त वहाँ मैं पहुँच गया था. और वह दिन मेरे जीवन के सर्वोत्तम यादगार दिनों में से एकया फिर सर्वोत्तम दिन’ (क्योंकि इस वक्त वैसा कोई दिन याद नहीं आ रहा) सिद्ध हुआ. अपने उस अहसास को शब्द दूँ, तो वह कला में मेरे परिनिर्वाण का दिन था-कला के जरिए मेरा मोक्ष हुआ उस दिन. उस एक दिन पर शेष जीवन कुर्बान किया जा सकता था, यदि वैसा हो पाता. और उन्हीं क्षणों से प्राप्त अनुभूति की कूबत रही कि बहुत सारा पानी गुजरने के बाद भी दुबेजी के प्रति सम्मान का भाव कम न हुआ और उनके रहते मैं उन्हें सह पाया (जिसकी यथातथ्य चर्चा आगे ठीक से होगी) और आज इतनी मसर्रत से लिख पा रहा हूँ. तब तो कितने दिनों उस नशे में बौराया रहा, कितनी बार वे रीलें सोते-जागते मन-मस्तिष्क में घूमीं..अब कहाँ याद रहेगा? और वो दिन न होता, तो आज यह संस्मरण न होता. आज उस अनुभूति को बताने चला हूँ, तो समझ में आ रहा है कि यह किस कदर अनिर्वचनीय है-बानी में गहि न जाड़ अस अद्भुत...है.

वहाँ उस दिन न और कोई था, 5-6 घंटे कोई आया. किसी फोन आने की भी याद नहीं है. सिर्फ मैं और दुबेजी. निहलानीजी का वो नौकर था, पर इन सबसे नितांत निरपेक्ष. बस, दुबेजी के माँगने पर चार-छह बार ब्लैक काफी दे गया था, मैंने भी दो-तीन बार नॉर्मल काफी ले ली थी. मैं तो रोज की तरह घर से खाकर गया था, लेकिन दुबेजी ने दिन भर में कुछ खाया हो, इसकी याद नहीं. बल्कि यही याद है कि कुछ न खाया. न नहाया, न कपडे बदले. टी-शर्ट-पैण्ट पहने जागे थे, वही पहने दिन भर सुनाते रहे. इसके बाद तो बहुत-बहुत सुना.... जहाँ भी दुबेजी का कुछ होता, सोते-जागते लम्हे चुराकर जाता. यहाँ तक कि बार-बार हर जगह पर मुझे मौजूद पाकर एक बार उन्होंने कहा भी था-यह तो पूरा कल्चरल वल्चर हो गया है. और मैं चाहकर भी कह न सका था कि यदि आप जैसा आर्ट-कल्चरिस्ट हो, जिससे इतना खाद्य मिलता हो, तो वल्चर (गीध) होना मेरे लिए फक्र की बात है.... मैं उनके एकल शोज में तो खास तौर पर जाता, जो होते भी रहते प्रायः, विशेषकर अन्धायुगके. दुबेजी कहते भी-भारती जी ने लिखने में इसे चाहे जितना जीया-भोगा हो, मैंने इसे सुनाने में बारम्बार जीया है. भोग-भोग कर अश्वत्थामा हो गया हूँ, तब सुनाता हूँ. हां, कमाया भी बहुत इससे.... जितनी दारू मैंने अन्धायुगकी पी है, किसी और की नहीं. और वे सचमुच उसमें इतने रचे-बसे थे कि किसी मानसिक तैयारी की भी जरूरत नहीं पड़ती थी-और कोई मंच या वेश आदि की तैयारी तो होती ही न थी. बैठे गप्पें मार होते और तुरंत मंच पर पहुँचकर अन्धायुग-मय हो जाते.

बता दूँ कि बहुत कुछ परफॉर्म करने के बीच इंटरव्यू की बात भी होती रही. वे दुबेजी बात करते-करते वैसे ही शुरू होते और धीरे-धीरे उसी में बहते हुए कब उठ जाते, कब भिन्न-भिन्न आसन-पोज ग्रहण करते जाते, उन्हें भी कहाँ भान रहता....? सच्ची कला यही तो है, जो किसी साधन, अवसर या दर्शक-श्रोता की मोहताज नहीं होती. वरन इस सबकुछ से इरादतन बचकर ही रूपाकार पाती है-रिचड्र्स के उस प्रयोग के उन शिम्पैजियों की तरह, जो अकेले में चित्र बनाते और किसी के आ जाने पर छोड़ देते. फिर पूरा हो जाने पर अपने ही चित्र से यूँ विरत हो जाते, जैसे वह उनका हो ही न. खैर,

बहुत काटने-कूटने के बाद भी दो भागों में दो दिनों छपा था वह जनसत्तामें. और यह लिखते हुए अभी-अभी बहुत उल्लेखनीय बात याद हो आयी...उन दिनों दुबेजी ने प्रेस का बहिष्कार किया था. किसी से कोई बात नहीं करते थे. शायद पढ़ते भी न थे अपने बारे में लिखा हुआ. वैसे न पढ़ना तो हमेशा ही रहता. उनकी एक पंक्ति भी छप जाए, तो काटकर रखते प्रायः सभी हैं, पर दुबेजी इसके अपवाद रहे इस दुनिया में. यह सब तब मालूम हुआ मुझे, जब किताब लिखने के उपक्रम में पता किया. इसी तरह अपने खिलाफ एक पंक्ति भी छप जाने पर सम्बन्ध तोड लेने वाले लोग भी मौजूद हैं. किन्तु इन सबसे नितांत निरपेक्ष तो क्या, प्रायः परे होते थे दुबेजी. कहकर निकल गए. फिर क्या छपा, क्या पढ़ा गया की परवाह न करते. श्रीराम लागू जैसे बड़े नामचीन तक ने 8 दिनों में 16 घण्टे हुई मेरी बातचीत को छपने के पहले सशर्त मँगाकर पढ़ा था.

सो, बहिष्कार की बात भी फोन पर ही बता दी थी उन्होंने. लेकिन बातचीत की हामी भरी थी. बातचीत कैसी हुई, के क्या कहने!! मुझे सुरेन्द्र वर्मा याद आते हैं, जिनसे मैं मुझे चाँद चाहिए छपने-पढ़ने के बाद पहली बार समय लेकर मिला था-धर्मयुगकी तरफ से बातचीत करने के लिए, पर किसी वैसी प्रतिज्ञा वगैरह के बिना भी उन्होंने मिलते ही उपन्यास पर एक शब्द नहीं बोले इसके ठस्सही समक्ष दुबेजी की उदारता को समझा जा सकता है. बात पूरी करके निकलते हुए फिर ताईद कर दी-देखो, कहे देता हूँ, छापना मत. मैं केस कर दूँगा-तुम पर भी और एक्सप्रेस ग्रुप पर भी. लेकिन तब तक तो मैं उनके अंतस् में छुपे कलाकार को देख चुका था. वह इतना निर्मम नहीं हो सकता, के विश्वास के साथ बोला-इतनी अच्छी बातों से आप पाठकों को वंचित नहीं रख सकते. केस में चाहे जो हो, आप जो चाहें सजा पहले ही दे दें-अभी. लेकिन छापूँगा जरूर. खास तौर पर इसीलिए तो भेजा गया हूँ आप के पास.

इसके बाद की पंडित जी की अदा को वही देख सकता है, जिसने उनको सचमुच कई रंगों में देखा हो. लोग गले से बोलते हैं. उनका गले से बोलना तो लाजवाब ही होता था, पर हबीब साहेब जितना असरकारक नहीं-बावजूद इसके कि हबीब साहेब का गला एकरस था-एक ही गला हमेशा बोलता था. जबकि दुबेजी के गले में विविधता थी-उनका अलग-अलग गला बोलता था. लेकिन गले के बोलने से पहले उनकी चैड़ी-मोटी- बेतरतीब भौहें व पतले-सुडौल होंठ बोलते थे, जिसमें नाक का भी बड़ा महीन सहयोग होता था. होठों से अक्षय खन्ना भी बोलता है, लेकिन उसका बोलना कुछ बार ही अच्छा लगता है और वह सिर्फ कुतूहल-आश्चर्य के लिए उनका का उपयोग करता है या हर उपयोग को कुतूहल- आश्र्चयमय बना देता है. लेकिन दुबेजी कब अपने होठों से क्या बोलेंगे, आप जान नहीं सकते. मेरा कयास है कि इतने अधिक व तरह-तरह के उपयोग से उनके सुडौल होंठ कंचित् बंकिम हो गये थे. सो, अपनी उन्हीं भौहों-होठों से अनटता व स्वीति का मिला-जुला भाव देते हुए बोले थे-अच्छा नहीं मानोगे, तो छाप लेना. लेकिन छपकर आने के पहले मुझे अपना पारिश्रमिक मिल जाना चाहिए. और हाँ, वह एक रुपया ही क्यों न हो, पावती के साथ. मैं अपने विचार मुफ्त नहीं दूंगा-कह देना गोयनका से.... इस स्वाभिमान पर भला कौन न मर-मिटे?मैंने अच्युतानंद मिश्रजी से ज्यों का त्यों सब कह दिया. उन्होंने दो किस्तों के लिए दो-दो सौ रुपये के दो लिफाफे बनवाये और दो पावतियां दीं. क्या आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि कितनी उतावली से लिफाफा खोला होगा उन्होंने-गोया कोई छोटा-सा बच्चा अपना बर्थडे गिफ्ट खोल रहा हो. और देखकर बच्चों जैसे निहाल हो उठे थे, परंतु बड़ों जैसा स्वर उभरा था- अरे ये तो बहुत ला दिया तुमने, मैंने तो एक रुपया कहा था-बस, टोकन भर....

उनके पास पैसे न होते थे, यह बात जग-जाहिर है. लेकिन पैसों के लिए वे कभी परेशान हों, ऐसा भी नहीं दिखा. जीवन शैली ही ऐसी बना ली थी. अब निहलानी जी के यहाँ (पडे़) रहने का जिक्र हुआ. ऐसे ही कई मित्रों-शिष्यों के यहाँ कभी देखे जाते. लोग सहर्ष उनकी साथ चाहते. इतने गुणी-ज्ञानी गुरु थे कि जहाँ भी रहते जो कुछ गन्धी दे नहीं, तो बास सुबास से लोग महक उठते. चलते-फिरते, उठते-बैठते एक से एक आइडिया दे देते थे, जिसमें नाटक-फिल्म की कलाएं तो चमक ही उठतीं, लोग नाम-दाम भी पाते. तो ऐसों के पैसों से एकाध नाटक बना लेने से किसी को क्या गुरेज होता? वह जमाना भी आज जैसा भौतिकपरस्त न था. बिजनेस करने वाले शिशिर शर्मा वह नाट्यसमूह चलाते थे, जो पण्डित जी ने अपने शिष्यों के लिए बनवाया था. उन पर ऐसे जान छिड़कने वाले तो शिष्य थे. मुझे याद है कि उनकी शिष्या व समूह की अभिनेत्री सुनीला प्रधान ने दुबेजी का ऑपरेशन कराया-शायद आँख का. और बाद की तीमारदारी (पोस्ट केयर) के लिए अपने घर ही रखा था. चूँकि पण्डितजी ने अपना घर वगैरह बसाया न था, इसलिए वैसी जरूरतें व बन्धन भी न थे. इसी से कहीं भी, कितने भी दिन रह सकते थे. मैं तो उन्हें चिरकुमार (अविवाहित) ही समझता था. लेकिन जब चिरकुमारियों पर किया मेरा एक फीचर थोड़ा हिट हो गया, तो चिरकुमारों पर भी करने की योजना बनी. और मैंने एक दिन यूँ ही बातों-बातों में दुबेजी के विचार पूछ लिए. तब उन्होंने ही बताया कि वे परित्यक्त (डिवोर्सी) हैं, चिरकुमार नहीं. पर यह पूछने की हिम्मत न पड़ी कि विवाह व तलाक कब, कैसे और क्यों हुआ.

इसी तरह कभी उनके प्रेम सम्बन्धों की बात भी पूछ सका-मन में बसी उनकी आदरणीय छवि, उम्र के फर्क व सबसे अधिक तुनकमिजाज स्वभाव के चलते सम्बन्ध उस स्तर तक गए ही नहीं. हाँ, चर्चाएं बहुतेरी सुनीं, पर यहाँ चर्चाओं की नहीं, अपने अनुभव व प्रामाणिक संज्ञान की बातें ही लिखनी हैं. हाँ, तरह-तरह की आधुनिकताओं से घिरे उन्हें प्रायः पाया जाता- कहीं भी, कभी भी. पूरे साहित्य को गहन दैहिक प्रेम से प्रसूत-परिचालित मानते थे वे. स्पष्ट कहते-इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती’... क्या है ये विकल रागिनी? अरे, कुछ नहीं है, वही सम्भोग-मिलन न हो पाने की पीड़ा है. भारतीय संस्कृति में शरीर का अभाव रहता है. देखिए, कैसा अंतर्विरोध है कि कंडोम इस्तेमाल करने का प्रचार करेंगे और सेक्स पर बन्दिश की बात करेंगे. तो भाई, क्या-क्या बन्द करवाओगे? मैंने एक वर्कशॉप में कुसुमाग्रज की दो कविताओं पर आधरित एक प्रयोग किया- आयुष्यात- पहिल्यांदाच. जींस-टीशर्ट पहने सात लडकियाँ श्रृंगार कर रही थीं. करधनी ठीक करने के दृश्य में लोगों की आहें निकल जाती थीं. तो देह (की नग्नता) नहीं, देह की आकांक्षा खूबसूरत होती है. यही अलग-अलग शब्दों-प्रतीकों-बिम्बों में भरी है पूरे साहित्य में. और यही तो मजा है सहित्य का कि कौन कैसे कहता है....



(दो)

अंतिम दिनों में तो पृथ्वी थियेटर में ही देखे जाते. जब बना था पृथ्वी, तब से ही वहाँ उनके (पड़े रहने को मुहावरे में कहा जाता था, ‘पृथ्वी के परमानेंट फिक्सचर. दुबेजी के बीच में अनबन हो गयी थी. परिसर में पाँव नहीं रखते थे दुबेजी. उसी छबीलदास स्कूल में ही शोज करते थे, जो अब तो रहा नहीं, पर मुम्बई थियेटर में छबीलदास मूवमेंट के रूप में जाना जाता है. मराठी में किया उनका आधे-अधूरे मैंने वहीं देखा था. अरविन्द सुलभा देशपाण्डे उसे चलाते थे. दुबेजी का और उस वक्त थियेटर करने वाले सभी का वही सबसे बड़ा आश्रय-स्थल था. कर्नाटक हॉल, माटुंगा में भी होता था. अमरीश पुरी को अरण्य किरण करते मैंने वहीं देखा था. लेकिन पृथ्वीके बिना मुम्बई में हिन्दी थियेटर की कल्पना नहीं की जा सकती थी, क्योंकि वह हिन्दी थियेटर के विकास की मूल संकल्पना से ही बना था-यह और बात है कि उसके वारिस इस बात को भूल चुके हैं. लेकिन यह दुबे जी का ही जज्बा व दमखम था कि उन्होंने वहाँ जाना बन्द कर दिया. हाँ, अपने शिष्यों के लिए अलग नाम से नाट्य समूह (अर्पणा) शुरू करा दिया, ताकि उनका व थियेटर का नुकसान न हो, पर खुद न गए. कहते भी थे-वो लोग (पृथ्वी वाले) क्या समझते हैं, पृथ्वी ने दुबे को बनाया है? नहीं जनाब, दुबे हैं, तो पृथ्वी है.... दस सालों से कम तो न चला होगा यह झगड़ा. क्यों हुआ और किससे, यह तो मुझे मालूम नहीं; पर पूरे कपूर खानदान के लिए भला-बुरा कहते दुबेजी को मैंने खूब सुना. लेकिन पिछले दस-एक सालों से पुनः पहले जैसा-बल्कि उससे ज्यादा ही हो गया था. रात-दिन वहीं रहते-से लगते. इसका प्रत्यक्ष व पूरा श्रेय संजना कपूर को जाता है (यह लिखते हुए यू ट्यूब सुन रहा हूँ और बेगम अख्तर की ठुमरी ठुमक रही है-हमरी अटरिया पे आओ सँवरिया, सब दिन का झगड़ा खतम होड़ जाई). झगड़ा खत्म होने में संजना के साथ लगे (दुबेजी की शिष्य मण्डली के) समीकरण का भी योगदान है, जिसकी चर्चा यहाँ मुझे मास्टर की भाषा में आउट ऑफ कोर्सहोगी. लेकिन तब उसी दुबेजी को उसी कपूर परिवार के लिए कहते सुना-खानदानी लोग हैं. इतना कर रहे हैं. दूसरा कोई, तो फट जाती.

तो बात चल रही थी दुबेजी की मुक्त जीवनशैली की, जिसे आप बहुत हद तक बोहेमियन कह सकते है, कुछ तय नहीं कि कब कहाँ रहेंगे, क्या खायेंगे, क्या करेंगे.... वैसे उनके पास एक घर हुआ करता था-कलानगर, बान्द्रा-पूर्व में ही. धर्मवीर भारती जी के घर वाली इमारत (शांकुतल) के सामने फुलराणीबिल्डिंग में. धर्मयुगमें थियेटर पर जो विरल किस्म का लेखन दुबेजी की कलम से हो सका, वह इस नजदीकी का भी प्रताप था, वरना शायद न भी होता. उस घर को भी जितना मैंने देखा है, व्यवस्था थी ही नहीं और जो थी, वह उसी बोहेमियन टाइप ही थी. यूँ तो वे प्रायः बाहर ही मिलते थे-यहाँ तक कि एक बार तो रंगप्रसंग के पश्चिमांचल प्रदेश का हिन्दी रंगमंचवाले अंक के लिए छोटा-सा इंटरव्यू चाहिए था और कई फोन के बाद भी उनकी किसी खास व्यस्तता वश मिलना न हो सका, तो एक दिन कहीं किसी के यहाँ बैठे थे और थोड़ा समय रहा होगा... बस, मुझे फोन लगा दिया. मैं संयोग से घर पर ही था-तब मोबाइल न थे. बोले-उठाओ कागज-कलम और पूछो अपने सवाल. बोलता हूँ, लिख लो. दूसरा उपाय नहीं हैंऔर वही हुआ. 3-4 पृष्ठों में छपा वह-सब फोन पर लिखा गया था. यह भी उनके बोहेमियन होने का ही गुण था. वरना विजय तेण्डुलकर जैसे लोग इतने ही बड़े इंटरव्यू के लिए तीन-तीन महीने फोन लगवाते और अंत में कहीं एकांत में ही मिलते. दुबेजी उनसे कम न थे. बल्कि कई तेण्डुलकर जैसों को तेण्डुलकर बनाने वालों में दुबेजी भी हुआ करते थे. तेण्डुलकरजी के खामोश, अदालत जारी है, पर नाटक तो क्या, फिल्म भी बनाई. और जब गिधाडेजैसे बोल्डव तेज नाटक को निर्देशित करना हुआ, तो श्रीराम लागू को दुबेजी के सिवा कोई न मिला. और बनने के बाद सेंसर से जो लड़ाई हुई, वह दुबेजी (लागूजी भी साथ थे) ही लड़ सकते थे. लेकिन उनके काम-धाम व सोच-विचार को वैसे किसी एकांत मूड बनाने व नाप-तोलकर बोलने की जरूरत न थी.

खैर, बात चल रही थी उनके घर  की...और कहाँ पहुँच गये..... यह भी दुबेजी का ही असर है. एक इतने अव्यवस्थित कलाकार पर लिखना व्यवस्थित कैसे हो सकता है भला?बातें उसी बिखराव के क्रम में ही आ रही हैं. सो, ऐसे बहकने के लिए आप आगे भी तैयार रहें...और फिलवक्त उनके घर की तरफ चलें...

जब उस यादगार दिन के बाद मेरे मन में उनके प्रति अपार श्रद्धा पैदा हो गयी, तो मैं अक्सर उनके घर के सामने जा पहुँचता, जो प्रायः बन्द मिलता. लेकिन मुझे इससे फर्क न पडता- नहीं, वो मेरी फिदाई के कारण नहीं; वरन् व्यावहारिकता के चलते. उसी भारतीजी वाली बिल्डिंग की चैथी मंजिल पर मेरे सबसे अच्छे गुरु डॉ. चन्द्रकांत बांदिवडेकर रहते हैं. उनकी पत्नी लीलाजी के कारण ही एम.ए. का परीक्षा-परिणाम आने के पहले ही चेतना कॉलेज में मुझे नौकरी मिल गयी थी. उन दिनों उनके यहाँ मेरा अक्सर जाना होता, जो आजकल 3-4 सालों से बन्द है, जिसका कारण तब बताना प्रासंगिक होगा, जब कभी गुरुवर पर संस्मरण लिखने का मन व अवसर बनेगा. लेकिन एक घटना जरुर बताते चलने का मोह संवरण न होगा. दुबेजी के निर्देशन में बने बहुत शानदार व महत्वाकांक्षी प्रोडक्शन अन्धायुग को मैं गुरुवर चन्द्रकांत बांदिवडेकर जी के कारण ही देख पाया था- उन्हीं के साथ, वरना वंचित रह जाता. वह दूसरा ही शो था- उनके घर से दसेक कि.मी. दूर सोफाया कॉलेज के शानदार हॉलमें. सर ने कहा-चलो देख आएँ, पता नहीं आगे कितने शो हो या न हों. मैंने सर से शर्त लगा दी कि आपको मैं ले चलूँगा स्कूटर पर. वे किसी के दुपहिए पर डर के मारे बैठते न थे. न जाने क्या हुआ- उन्हें कोई साथ चाहिए था, या गर्व कर लूँ कि मेरा साथ चाहिए था, वे इस शर्त के साथ मान गये कि टिकट वे लेंगे. यूँ भी साथ रहने पर हमें खर्च न करने देने का उनका अति कठोर नियम था. वहाँ पहुँचे और स्कूटर पार्क कर ही रहे थे कि दुबेजी के परम शिष्य शिशिर शर्मा ने देख लिया और आकर दो पास पकड़ा दिए. सर अपनी शर्त पूरी न होने पर मन मसोस और आँखे तरेर कर रह गए. नाटक कितना सुन्दर था, कहने की क्या बात?अश्वत्थामा की भूमिका में नसीरुद्दीन शाह थे- अश्वत्थामा के लिए दुबेजी की पसन्द नसीर और दुबेजी के लिए नसीर की पसन्द अश्वत्थामा. 

उसमें मोहन भंडारी जैसे और भी कई नामचीन कलाकार थे. और यही कलात्मक उपलब्धियां प्रस्तुति की व्यावहारिक सीमा बन गई-तीसरा शो मुंबई में न हो सका-इतने सारे कलाकारों की तारीख साथ में मिलती, तब न होता. पुणे के किसी नाट्योत्सव में एकाध और शोज हुए, पर प्रायः बन्द ही हो गया. लेकिन दुबेजी को रंगमंच में मलाल नहीं-कम से कम दिखा नहीं, क्योंकि शिम्पैंजी की वही ईहा-अपनी कलाकृति को बनी हुई देख लिया. फिर क्या लगाव?

अब चलें दुबारा उनके घर....गुरूजी के यहाँ से निकलते या जाते हुए सामने की बिल्डिंग में एक लुकमार लेना बहुत आसान होता, पर ऐसे लुक मारने में उस बोहेमियन से मिल पाना दो-एक बार ही हुआ. लेकिन समय लेकर भी दो-चार बार तो घर जाने की याद है ही. और पहली बार ही जब फोन पर ऐसा तय हुआ कि थोड़ी ही देर में मेरा उनके यहाँ पहुँचना होगा, तो उन्होंने बड़े ही सहज भाव से कहा-आते हुए उस दुकान (लोकेशन दिया) से लस्सी लेते अपना. और मैं उस दिन सचमुच निहाल हो उठा था. मनाने लगा था कि उनसे मिलना घर पर ही हो और बार-बार हो, ताकि मैं हर बार कुछ लेकर जा सकूँ. बहुत कम बार ही यह अवसर मिला, लेकिन यह मेरे लिए सुख-संतोष का विषय रहा कि हर बार मेरे क्या लेकर आउँगा?’ पूछने पर बिना किसी ना-नुकुरके उन्होंने तुरंत कुछ न कुछ बता दिया. जिसके साथ लस्सी मैं हरदम जोड लिया करता.... एक बार यह भी सुनने को मिला कि पण्डितजी वह घर बेचना चाह रहे हैं. लेकिन यह भी सुना कि सभी दोस्तों ने रोका और वह बिकने से रह गया. घर के रहते बेघर की तरह रहने वाले की अर्थी उसी घर से उठी-पुष्पा (दीदी) भारती को फोन लगाया. पता चला कि अपने किसी करीबी (कौन, उन्हें पता नहीं) को दे गये हैं, जो रहने आने वाले हैं.

जो बिखराव एवं अनिश्चितता पण्डितजी के जीवन में थी, उनकी कला भी उसी से संचालित, उसी की अनुवर्ती थी. उनके दिमाग में इतना कुछ समाया रहता, जिसके लिए भी काश, उसे सँवारा भी जा सका होता..! लेकिन फिर सँवारने के चक्कर में रहा-सहा भी गुमा देने वाले तमाम लोगों को देखते हैं, तो लगता है कि बिखरा बोहेमियन दुबे ही सबसे भला, जो अपने मन का करता था, अपनी मस्ती में अपनी तरह रहता था. और जो करता था, वह सबसे निराला होता था. आर्ट के परफेक्शन का पता चल जाता है. उच्चारण की शुद्धता और सटीकता तथा कहने के अन्दाज को ऐसा संसार कम ही देखने को मिलेगा. और यह कमाल दुबेजी एकदम निजी स्तर पर करते थे. कोई संस्थान न बनाया. लेकिन सिखाने और करने के उनके विस्तृत सम्भार, जो गुणवता के कारण ही बना, को देखकर लोगों के कथन को मानना ही पड़ता है कि दुबेजी अपने आप में एक संस्थान थे. लेकिन स्वयं किसी संस्थान से वे अमूमन तो जुड़े नहीं. और कभी जुडे, टिके नहीं. ऐसा क्यों हुआ, को लेकर शास्त्रार्थ की असीम सम्भावनाएं हैं, जिसकी चर्चा के अधिकारी तो उनके साथ काम करने वाले तथा उनके अन्तरंग मित्र ही हो सकते हैं, पर मेरा कयास है कि वे मूलतः संस्थान या सत्ता के लिए बने ही न थे. उनकी मानसिक बुनावट व जेहन इसके विपरीत थी. फिर कलाकार की धुन व स्वच्छन्दता भी थी. इन सबके साथ और इन्हीं से बनी अपनी रुचियों व मान्यताओं के प्रति थी हद दर्जे की पजेसिवनेस’, जो दुराग्रह व जिद बन जाती. इसीलिए भौतिक स्थितियों, जमाने के चलन व दोस्तों के आग्रह पर कभी जाते भी तो, चल नहीं पाते. सो, रह नहीं पाते. मेरे यह कहने का आधार भी उनकी कला ही है-रंगकर्म में उनका सलूक. वे जो सोचते, जो करते, उसके अलावा किसी या कुछ को सही मानते ही नहीं. सही तो क्या, कुछ मानते ही नहीं. अँग्रेजी थियेटर को भी नहीं. खुला बोलते-उनकी सिर्फ तकनीक नयी है, और क्या है?उनका थियेटर 3000 साल पुराना है. हमारा उतना नहीं है. तो वे कोई तीसमारखाँ नहीं हैं. सफेद चमड़ी का हौवा है. अँग्रेजी नाटक हमने भी किये हैं. 1954 में शो किया था. एजूकेुटिंग रीटाअंग्रेजों की समझ में नहीं आया. हमें उनकी काबिलियत का पता है. उनका शिक्षक होना, ढेरों शिष्यों के बीच हमेशा रहना (शिक्षक बादशाह होता है) भी इस तानाशाही में बड़ी भूमिका निभाता था.



(तीन)

उनके रंगकर्म से बहुत सरनाम उदाहरण दूँगा. वे किसी भी नाट्यालेख को अपनी तरह बदल लेते, लेखक के आलेख की परवाह नहीं करते. इस बाबत उनका सीधा कहना होता- लेखक के पास समझ होती, तो वह वही लिखता, जो मैं कर रहा हूँ. और फिर वही करते. उनके नाम से यह चल जाता और लोग चले को ही जानते हैं, वरना शायद कभी लेखक ने ऐसा विरोध किया भी हो कि नाटक न बना हो. पर ऐसा कभी सुना न गया. याने जो कला-जगत में चल जाता है, जीवन-जगत में नहीं चलता. और संस्थान भले कला के हों, संचालित संसार से होते हैं. सो, दुबेजी भी कला-जगत में शीर्ष पर रहे, लेकिन जीवन में...!!

इस थीम पर उन्होंने एक नाटक लिखा व निर्देशित किया था- इंशा अल्लाह. उसके नायक सर्वेश्वर के रूप में दुबेजी ने खुद को ही रखा था- आत्मकथा नहीं है, अपना  अनुभव निचोडकर लाये हैं. उस चरित्र में एक कलाकार की वे सारी खूबियाँ हैं, जो दुबेजी में हैं. लेकिन इन्हीं की तरह वह भी ठीक से व्यवस्थित नहीं हैं. सभी चाहते हैं कि अच्छी तरह रहे, इसके लिए अच्छा करवाने का तरीका खोजते रहते हैं. उसके तमाम शिष्य अच्छी जगहों पर सेटिल हो गए हैं. सर्वेश्वर को बुलाना चाहते हैं, पर वह नहीं जाना चाहता. किसी सरकारी-गैरसरकारी संस्थान से जुड़कर एक कलाकार की स्वतंत्रता को खोना नहीं चाहता. कभी जाने का मन बनाता भी है, तो थियेटर उसे रोक लेता है. इस अंतर्द्वंद्व वाले दृश्य को बड़ी खूबसूरती से मंचित कराया था दुबेजी ने. नाटक में सर्वेश्वर की एक बेहद प्रिय (प्रेमिकावत) शिष्या का पति एक संस्थान का निदेशक है. वह इधर अपने पति से कहकर उसे आमंत्रित कराती है और उधर अपने स्नेहिल अधिकार व अन्दाज से कहकर सर्वेश्वर से स्वीकार कराती है. लेकिन वहाँ पहुँचकर भी सर्वेश्वर मुतमइन नहीं हो पाता और वहाँ रहे कि न रहे, के द्वन्द्व के साथ ही नाटक समाप्त होता है.

मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने उस वक्त अपनी समीक्षा में इस नाटक को उस सदी के अंतिम दशक का सबसे अच्छा नाटक कहा था और आज भी कहूँगा, क्योंकि आधुनिक भौतिकपरस्त युग में संस्थान या सता के समक्ष एक जहीन कलाकार के द्वन्द्व की समस्या ऐसी है, जो पूरे युग की अगुआई करती है. उसे इतनी तेज व जहीन ढंग से पिरो पाना एवं इतनी कलात्मकता से प्रस्तुत कर पाना बिना गहरी स्वानुभूति के सम्भव न था. सर्वेश्वर की भूमिका भी दुबेजी ने की थी-कोई डबल कास्टिंग में भी था, लेकिन मैंने जो भी दो-तीन शोज देखे, उनमें दुबेजी ने ही किया था. यूँ दुबेजी एक्टर न थे, ऐसा कहने के लिए एक बार फिर मुआफी चाहूँगा..... अच्छे इसमें भी न थे, पर जीवन उनका था, लिखा उन्हीं का था, इसलिए मैच होते थे-भूमिकावत किरदार का सुख होता, अच्छे अभिनय का नहीं. अच्छा अभिनय तो उनका भारत एक खोज की दो कडियों में किए उनके चाणक्य के रोल के अलावा मुझे कहीं न लगा. चाणक्य के रूप में वे अद्भुत थे. भारतः एक खोज के दौरान उस पूरे कार्यक्रम पर फीचर करते हए मैंने श्याम बेनेगल जी से लम्बी बातचीत की थी. उसमें उन्होंने बताया था कि दुबेजी को कई भूमिकाओं के ऑफर दिए गए, पर उन्होंने इनकार कर दिया. लेकिन चाणक्य करने की पेशकश खुद की थी. इस तरह चाणक्य करना उनका पैशन रहा होगा-जैसे चन्द्रप्रकाश द्विवेदी को चाणक्यबनाने का पैशन था और उसी ने द्विवेदी को द्विवेदी बना दिया. तब से मैंने जब-जब किसी को चाणक्य करते देखा, दुबेजी की याद आयी-सर्वाधिक आयी चाणक्यनाटक में मनोज जोशी को देखकर. और लगा कि सबसे अच्छे चाणक्य दुबेजी ही हैं. किंतु मेरा अन्दाज है कि यदि चन्द्रप्रकाश द्विवेदी के बदले दुबेजी होते, तो उतना लम्बा संभाल न पाते, क्योंकि वे उतने नियोजित (ऑर्गेनाज्ड) न थे भारतः एक खोजमें दो ही कडियों के नाते हिट हो गए.

सो एक्टर तो नहीं, पर दुबेजी परफॉर्मर अच्छे थे. पता नहीं आप इन दोनों के अंतर को उसी तरह समझ रहे हैं या नहीं, जैसा मैं कहना चाह रहा हूँ. अन्धायुगको वे प्रस्तुत करते थे. कविताओं-कहानियों की नाट्य-प्रस्तुतियां करते ही नहीं, मंच पर कराते भी थे. एक समय तो ऐसा चलन ही शुरू कर दिया था कि शोज के पहले अपने कलाकारों से किसी रचना की प्रस्तुति कराते ही थे. प्रेमचन्द की कहानी बडे भाई साहब, भवानीप्रसाद मिश्र की कविता गीतफरोशसन्नाटा आदि की प्रस्तुतियां हमने खूब देखी हैं. पृथ्वीमें तो दर्शकों के हित में उसका व्यावहारिक उपयोग भी होता था. वहाँ तीसरी घंटी के बाद कोई अन्दर नहीं आ सकता-अभिताभ बच्चन भी नहीं. और लेट तो कुछ लोग हमेशा ही होते हैं. सो, रचना-प्रस्तुति के बाद ऐसों को अन्दर लेकर फिर मूल नाटक शुरू होता.... अब कहूँ कि नाटक में जो होता, वह एक्टिंग होती और पहले वाली परफॉर्मिंग. परफॉर्मिंग की इस विधा को उनका पटु शिष्य किशोर कदम तो सामान्य मंच तक भी लाया. मुम्बई में रचना-पाठ के ऐसे कार्यक्रम होते रहते हैं. राजेन्द्र गुप्त इसमें निष्णात हैं. उनके कई रचना-पाठ मैंने अपने विभाग में छात्रों के लिए भी कराए हैं-पटकथा आदि का. लेकिन वे लोग किताब से पढ़ते हैं और दुबेजी के शिष्य याद करके प्रस्तुत करते हैं. किशोर इसीलिए सबसे बाजी मार ले जाता था. आजकल यह सब काफी कम दिख रहा है.

इंशाअल्लाह में दुबेजी ने कलाकार व प्रशासनिक सत्ता के द्वन्द्व को जिस तरह साधा, सखेद कहना होगा कि उस तरह जीवन में साध न सके-वैसा ही जीवन जीने के बावजूद. सर्वेश्वर अपनी कलात्मक ईहा के लिए संस्थान से जुड़ना ही नहीं चाहता. लेकिन दुबेजी जुड़ना चाहते थे-एनएसडी का निदेशक बनने की चाहत तो गाहे-ब- गाहे व्यंग्य-विदु्रप बनकर प्रकट भी हो जाती.... बस, जुड़कर अपनी वैसी ही मनमानी-अपवाली करना चाहते, जो जीवन व सम्बन्धों में करते. कितने ही उनके कलाकारों को मैंने कुछ भी करके उनके साथ काम करने के लिए बेसब्र देखा है, तो उनमें से कितनों को ही उनसे भद्दी गालियां व असह्य अपमान पाकर रोते- भागते देखा है और उसमें लड़कियां भी होती थीं. कहना होगा कि उक्त नाटक में दुबेजी की खूबियां तो खूब आईं, पर खामियां छिपा दी गईं. इससे एक कलारूप के तौर पर तो नाटक बहुत अच्छा बन गया, लेकिन दुबेजी या किसी भी संसारी जीव के जीवन का, आधा प्रतिनिधित्व ही हुआ है. यहाँ यह भी कह दूँ कि दुबेजी के लिखे नाटक किसी और ने न खेले, खेल ही न पाते. या तो उनके करने के बाद कुछ बचता ही नहीं या फिर औरों के लिए करने जैसा कुछ होता ही नहीं. यह बात हबीब साहब पर भी फिट बैठती है याने इनके निर्देशन के बीच इनकी लेखकीय सीमाएँ छिप जातीं या फिर इन जैसे बडों के करने के आतंक में कोई करने की हिम्मत ही न कर पाता.


(चार)

संस्थानों से न जुड़ने के अलावा भी पैसे को केन्द्र में रखकर या पैसे के लिए पण्डितजी कुछ करते न थे और ऐसा भी कुछ नहीं करते थे, जिससे पैसे आये-कम से कम ऐसा करते हुए दिखते न थे. और इस बाबत उनकी बातें सुन लीजिए, तब तो रुपये-पैसे से नाता ही तोड़ लें-थियेटर को व्यावसायिक बनाना चाहते थे, हो गया. पैसे आ गये. अब दुखी क्यों हो?याने पैसा समस्या का हल नहीं है. पर आज यही हो रहा है. और पैसा मिल जाने पर डिवोशन कहाँ रह जाता है?’ वे स्वयं करने के नाम पर यूँ ही फिल्मों के लिए कुछेक पटकथा-संवाद-लेखन व अभिनय.. आदि कर लिए जाने के अलावा थियेटर करते थे और वह सब वे पैसे के लिए न करते थे. फिर क्यों करते थे?उन्ही का शब्द है-स्वांतः सुखाय, आत्मसुख के लिए. जी हाँ, न थियेटर से समाज को बदलने का उनका मुगालता था, न थियेटर के लिए अपने उत्सर्ग का गर्व-गौरव. वे तो साफ कहते थे-भाई, थियेटर ने आकर तुमसे कहा कि मेरे लिए कुछ करो. सो, उसको उसके हाल पर छोड़ दो. उसके अन्दर ताकत होगी, तो बचेगा. वरना मर जाने दो उसे. उसे बचाने का ठेका तुम्हें किसने दिया है?तुम्हारे उपकार से वह कितने दिन जीएगा?... ऐसी बातें तो दुबेजी इतनी करते कि यदि कबीर के धर्मदास-सुन्दरदास की तरह के उनके शिष्य होते, तो नाट्य-कला का भी एक बीजकअवश्य तैयार हो गया होता, जो उतना ही विस्फोटक व लोकप्रिय होता..! बातों की कला व बातों को अपने पक्ष में लाने का कौशल दुबेजी में जबर्दस्त था. और वह उनके तपे-खपे ज्ञानानुभव के कारण था. ऐसा वे मंच पर भाषण के दौरान भी करते थे. यूँ भी उनके मंच पर होने या मजलिस में बोलने अथवा निजी बातचीत में बहुत फर्क नहीं होता था. और जब वे होते थे, तो सामने वाले कम ही बोल पाते थे. और हर जगह वे कुछ अभिनव, अनोखा, अद्भुत...कहने के इरादती होते-होते आदी हो गए थे.

एक बार तो मेरे गुरु वसंत देव के सम्मान का कोई समारोह चल रहा था. वे मुख्य वक्ताओं में थे. खड़े हुए, तो देव साहब के हिन्दी-प्रांत में पले-बढ़े अहिन्दी भाषी व्यक्तित्व की डोर पकड़ी और पिल पड़े हिन्दी भाषियों पर. कर डाली लानत-मलामत. फिर समारोह पूरा होने पर चाय पीते हुए मुझसे पूछा-कैसा लगा?तुम (हिन्दीभाषी) को देखकर ही वह सब बोला मैं. हिन्दी भाषियों (की जड़ताओं, अंतर्विरोधी व लिप्साओं) को लेकर उनकी वितृष्णा काफी हद तक सही भी थी, लेकिन वही कि जिस मुँहफट्टई से वह प्रकट होती, इतनी फूहड़ व असह्य हो जाती कि इसी के चलते कई सरनाम उत्तर भारतियों को दुबेजी की खुली हिकारत करते देखकर भी कुछ कहते न बनता.

वे सब मनमानियां उनके व्यक्तित्व का अविभाज्य अंग थीं, जिनके बिना दुबेजी को न समझा जा सकता, न व्यक्त किया जा सकता. ये ही मनमानियां नाट्यकला में मत-मानियां का गौरव पातीं. लेकिन जाहिर है कि इसी सब के चलते वे शोज वगैरह का न बहुत जुगाड़ करते थे, न उसकी फिराक में ही रहते. कोई सोल्ड आउट शोज होते भी कभी नहीं दिखा उनका. कोई सरकारी रेपर्टरी नहीं बनाई. थियेटर यूनिटनाम था उनके नाट्य-समूह का, जिसे कोई बडी सरकारी-गैरसरकारी मदद का सवाल ही नहीं उठता. जो शख्स अपने कहे-किए का कोई रिकॉर्ड न रखता हो, इतना व्यवस्थित पेपर वर्क क्या खाक करता कि प्रस्ताव भी तैयार हो पाता, जिसके बिना सरकारी सहायता का सवाल ही नहीं उठता. जब मैं उन पर किताब तैयार करने की योजना पर थोडा सक्रिय हुआ था, तो विस्मित होना पडा था कि इतने बडे कलाकार पर कुछ खास सुलभ न था. दरिद्रता इस अँग्रेजी किताब में भी उजागर है, जिसका उल्लेख प्रारम्भ में हुआ. वे खुद तो किसी सहयोग को तैयार न होते-मुझसे भी कह दिया था-मेरे भरोसे न रहना. न मैं कुछ बताऊँगा, न कुछ है मेरे पास. किताब के लिए मैटर कहाँ से मिलेगा, तुम जानो.... तो ऐसे अक्खड़-मुँहफट की मदद के लिए कोई धनी भी कैसे आगे आता? इस स्वभाव के चलते विरोधी या प्रतिद्वन्द्वी लोग उन्हें नंगा आदमी कहते. लेकिन हस्ती इतनी बडी थे कि कला-कौशल्य का लोहा सभी मानते. अतः सामने तो किसी की हिम्मत न थी कुछ कहने की, लेकिन न कहने के पीछे उनकी उक्त नंगईका भी कम डर न होता. कभी एकाध उन्हीं जैसे मिल भी गए.

संयोग से मेरी मौजूदगी में पृथ्वीमें ही दो-एक वाक्ये हुए. दुबेजी अपनी पर उतरे-गालियां शुरू कीं, उठ खडे हुए, हाथ झाडे़, लेकिन जब सामने वाला भी गाली में उन्नीस न पड़ा और हाथ झाड़ने के जवाब में पाँव चलाकर पंडितजी के सामने आ तना, तो वे भुनभुनाते हुए बैठ भी गए. याने उनकी नंगई वही थी-चमकाइयां, डेरवाइयां, धमकाइयां.. न भगे, तो भाग जाइयां...एकतरफा थी-सामने वाले के न बोलने पर मुतस्सर....

और मेरे साथ भी एक बार ऐसे ही एकतरफा हुआ, क्योंकि मैं भी कुछ न बोला....

इत्तफाक देखिये कि घर में बैठे-बिठाए अनायास ही हुए पण्डितजी के जो प्रदर्शन मेरी फिदाई के सबब बने, उसी में से सबसे प्रमुख अंन्धायुगप्रदर्शन का आयोजन ही इस घटना का भी सबब बना और यह नियोजित संयोग भी देखिये कि उस एक से इस संस्मरण की शुरुआत हुई और इस दूसरे से यह सम्पन्न होने जा रहा है. जैसा ऊपर मैंने कहा कि वह प्रथम अद्भुत मिलन न होता, तो यह संस्मरण लिखा न जाता, उसी तरह इस घटना के बिना अब यह सम्पन्न नहीं हो सकता. वह मिलन सोते-जागते सुख सपने की तरह बार-बार जीवन में आता रहा और कामना जगाता रहा कि बारंबार आए, लेकिन इस घटना को किसी भयानक दुस्वप्न की तरह मैं भुलाने की कोशिश करता रहा, पर कहाँ भूल पाया?

और कुछ खास हुआ भी न था, पर दुबेजी जैसे जीनियस बोहेमियन को कुछ भी करने के लिए खास की क्या जरूरत?जो कर दें, वही खास....

हुआ इतना ही कि चैपाटी स्थित विल्सन कॉलेज, मुम्बई के हिन्दी विभाग में नाटकों पर एक राष्ट्रीय सेमिनार हो रहा था. यहाँ की विभागाध्यक्ष डॉ. उषा राणावत मेरी मुँहबोली बहन हैं. मेरे व दुबेजी के सम्बन्धों को जानती थीं. चाहती थीं कि अन्धायुगका पाठ-प्रदर्शन हो जाए. दुबेजी की हाँभी होनी ही थी. यहाँ तक सब ठीक था. इसी बीच किसी कार्यालयीन प्रक्रिया के चलते उषा ने दुबेजी की लिखित स्वीकृति चाही, जो पृथ्वीमें बुलाकर मैंने दिला तो दी, मगर कभी पैसे के लिए कुछ न कहने वाले दुबेजी के दिमाग ने जाने किस दैवी-दानवी प्रेरणा से खलल पाल ली कि वह महिला बिना पैसों की बात किये दस्तखत लेकर चली गई. यह बात कोई दोपहर की होगी और शाम गहराते-गहराते पेगों के बीच यहाँ तक पहुँची कि वो त्रिपाठी मुझे बेवकूफ बना रहा है. किसी औरत के लिए मुझसे मुफ्त का नाट्य-पाठ करवाना चाह रहा है...आदि-आदि. जिस-जिसने भी मुझसे कहा, सबसे मैंने बताया कि बजट में से अधिकतम हम देना चाहेंगे, इसलिए कुछ कबूल नहीं कर रहे हैं, वरना 2100 रुपए तो देंगे ही. सोचा था, बात उन तक पहुँच जायेगी, लेकिन शायद न पहुँची.

और पैसे की बात स्वयं जाकर कहना मुझे अजीब भी लग रहा था. पैसे के लिए वे ऐसा कर रहे होंगे, पर मुझे यकीन भी न था. फिर दुबेजी में मुझे गहरी श्रद्धा और उसी श्रद्धा के भरोसे यह विश्वास था कि मेरे प्रति उनके मन में शंका आ ही नहीं सकती. लेकिन इसे मैं अपना दुर्भाग्य ही कहूँगा कि ऐसा न हुआ. मैं अपने सम्बन्धों का फायदा उठाकर उनसे मुफ्त का पाठ करा रहा हूँ, की बात उनके मन में जमते-जमते शायद फट पड़ने को आतुर ही थी कि वह रात आ गई....

मुझे आज भी यकीन है कि यदि उस रात 9 बजे का शो देखने मैं पृथ्वीमें थोड़ा पहले पहुँच गया होता... दुबेजी वहाँ थे, सलाम-दुआ हो गयी होती. शायद वे कुछ कह-सुन लेते, तो वह सब न होता.... लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. मैं ऐन समय (तीसरी घण्टी) पर पहुँचा और पृथ्वीके कठोर नियम के चलते बिना इधर-उधर देखे सीधे अन्दर चला गया. शायद दुबेजी कैफे में बैठे कहीं से देख रहे थे. इसे अपनी उपेक्षा के रूप में लेना उनके लिए सही भले न हो, सहज तो था. और क्या आप विश्वास करेंगे कि अपना मुफ्त इस्तेमालअब उपेक्षाकरने की उनका अहम प्रतिकार के लिए ऐसा उबला कि शायद वे नाटक खत्म होने का इंतजार करते रहे और पीते भी रहे, जिसने आग में घी का काम किया होगा....

नाटक शायद कोई बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि शहर के प्रायः सभी दुबेजी के शब्दों में-कल्चरल वल्चर आए हुए थे. रात के सवा ग्यारह बजे होंगे. पूरा पृथ्वी कैम्पस हॉल से बाहर निकले लोगों से भरा था. मेरे बाहर आते ही दुबेजी उद्धत-से आ खडे़ हुए और लोगों को सम्बोधित करके चिल्लाने लगे- देखो, यह है धूर्त’, नमकहराम...साला मुझे धोखा देने चला है. मेरे नाट्यपाठ का पैसा खुद खाने चला है. मैंने इसके कहने से एक औरत के लिए लेटर पर दस्तखत कर दिया और यह है कि आज तक नहीं बताता कि कितना पैसा देगा.. वगैरह-वगैरह बकने लगे.... आज तो क्या, उस वक्त भी सब कुछ मुझे कहाँ याद होता! सबकी भिन्न-भिन्न मुद्राओं ने क्या हुआके इशारों के बीच मैंने सुना ही कहाँ...?बस, याद है हर दो-चार शब्दों के बीच में आती उनकी गन्दी-भद्दी गालियां...जो यहाँ लिखने लायक भी नहीं....

और मुझे तो कुछ लोग पकड़कर दूर भी लेकर चले गए कि शायद मैं भी न कुछ कहूँ-करूँ... ऐसे में आज मुझे एकमात्र याद है मराठी के प्रसिद्ध नाटककार शफाअत खाँ-शोभायात्रा ,जिस पर फिल्म भी बनी,. वे (और कुछ लोग) मुझे सांत्वना दिए जा रहे थे-जाने दीजिए त्रिपाठीजी, आप शांत रहिए. आप तो जानते हैं कि दुबेजी ऐसे ही हैं. बड़े हैं. आपके तो आदरणीय हैं. अभी गुस्से में हैं. शांत हो जाएंगे, तो सब ठीक हो जाएगा...
मैं उनसे क्या कहता कि दुबेजी (के कलाकार) के प्रति मेरे जो भाव हैं, कि वे जूते मार दें, तो भी मैं कुछ कहने वाला नहीं. उनका मेरा कोई जोड़ नहीं. वे आज बिगडे़ हैं, कल ठीक हो जाएंगे. लेकिन मेरे मुँह से कुछ निकल गया, तो ठीक होने लायक भी नहीं रह जाएगा.

लेकिन कुछ ठीक न हो सका. उस वक्त मैं जो सोच रहा था, वह पहले का भाव था. उस घटना के बाद मेरे अंतस् में क्या बने-बिगडे़गा, का पता न था. पता बाद में चला.... और तब मैं जो उस दिन कुछ न बोल पाया- चाहकर भी नहीं. प्रणाम तक न कर पाया. बहुत बार अपने से जबर्दस्ती करनी चाही; लेकिन उस रात के दृश्य ने गला रूँध दिया, पाँव बाँध दिए. मन में यही आता कि उस पैसे के लिए उन्होंने ऐसा किया, जिसकी उन्हीं के कथनानुसार उन्हें कद्र नहीं. मैं खुद पैसे खा जा रहा हूँ, ऐसा सोचा भी कैसे पण्डितजी ने? यदि इतने दिनों के सम्बन्ध के बाद मैं अपनी यही छबि बना पाया, तो इसे आगे बढ़ाने का क्या अर्थ? कितने पैसे दूँगा, न बताने को उन्होंने धोखा माना तो पाठ करके देख तो लेते.... हजार दो हजार रुपये उतने बडे आदमी के लिए कौन-सी बडी बात थी. लेकिन धीरे-धीरे यह भी साफ हो गया कि धोखा मानने की बात नहीं, यह पैसे की हवस ही थी. विल्सन कालेज की जो महिला-अंजू नाम था शायद-लेने गयी थी, उससे कहा कि पैसे दे दो, तब चलूँगा. और आए भी तब, जब उसने वायदा किया कि पैसे पहले दे देंगे, तब मंच पर चलिएगा. फिर भी टैक्सी से रास्ते भर मुझे गरियाते रहे. टैक्सी में लीला बांदिवडेकर व एक कोई और-शायद पुष्पा भारती जी भी थीं, जिन्हें मैंने आमंत्रित कर लिया था-दुबेजी को ही सुनने के लिए. गालियों की बात मुझे बताते हुए वे दोनों मुझे समझाती भी रहीं कि आप बुरा न मानिएगा, उनका तो स्वभाव ही ऐसा है.

पर खेद है कि मेरा मन किसी का कहना मान न पाया-मेरा अपना भी नहीं. उसका साफ तर्क था कि ऐसा भी स्वभाव क्या, कि आदमी-आदमी ही न रह जाये.... अच्छे कलाकार को पहले अच्छा आदमी होना होगा.

और आते ही अंजू के बताने पर जब उन्हें 2100 रुपए मिल गए; तो चढ़ा चेहरा, तनी भोंहें, सब ढीला हो गया. उनका पाठ थोड़ी देर बाद था. दिनेश ठाकुर, ओम कटारे आदि रंगकर्मी मौजूद थे. सो, उनके साथ दुबेजी भी मुझसे यूँ लसराने लगे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. पैसे के लिए नंगई और पाने के बाद की धिंगई ने सिद्ध कर दिया कि पहले चाहे जैसे रहे हों, उस वक्त के दुबेजी के लिए पैसे से बड़ा कुछ न था. याद आता है कि उक्त घटना के कुछ पहले चन्द महीनों के लिए विदेश भी जा आए थे, वरना ऐसे सबकुछ हमेशा धिक्कारते रहते थे. मुझे याद है कि मेरा सन्देश पाकर एक दिन विदेश से भी मुझसे बात की थी और आते ही पृथ्वीबुलवाकर मिले भी थे. खैर,

पाठ हमेशा जैसा ही सुपर्ब हुआ. पर जो नेपथ्य मैं देख चुका था, उसके बाद इस शो में मुझे बिलकुल मजा न आया. फिर तो मैं शायद उनके किसी शो में जा भी न सका. यह आयोजन मेरा होता या उस बहन का ही निजी होता, तो मैं रद्द ही कर देता. लेकिन कॉलेज का था. बहुत लोग शामिल थे, तो ‘...हम जमाने भर को समझाने कहाँ जातेक्या छबि बनती दुबे जी की और उनके जरिए हिन्दी थियेटर वालों की उस कॉलेज के सामने.


(पांच)

इसके बाद जो हुआ, वह मेरे लिए ज्यादा त्रासद रहा. दुबेजी मेरे सामने से गुजरते, मेरी तरफ लगातार देखते; पर मैं न उनकी तरफ से नजर हटाता, न प्रणाम करता. इस ढिठाई पर ग्लानि भी होती, पर सर नीचा करना कुबूल न था और मुँह फेरना उनकी उपेक्षा करना होता. उक्त घटना के एकाध महीने बाद की ही बात है, मैं पृथ्वी कैफे में बैठा था. दुबेजी झटके से आए और मेरे कन्धे पर हाथ रखकर उतनी ही त्वरा में बोले-नया नाटक लिखा है. पहला पाठ करने जा रहा हूँ. आ जाओ जल्दी...और चले गए. मैं न कुछ बोला, न गया. 5 मिनट में उनका कोई शिष्य आया-पण्डितजी बुला रहे हैं. पाठ शुरू होने वाला है..कहकर चला गया. और मैं चला भी गया.... कुल 7-8 लोग ही थे. एक ही अंक लिखा गया था. मुझसे पूछा भी-कैसा रहा. मैंने बहुत अच्छाकहा भी, पर उत्तर की यांत्रिकता का भान शायद उन्हें भी हुआ. लेकिन मैं क्या करता-नाटक तो सुन ही न पाया. उसी सब में खोया रहा. मन को बहुत तैयार करता रहा, पर वह न हुआ. मन की फितरत देखिए कि उनके प्रति सम्मान का भाव कम भी न होता और उनके पास जा भी न पाता. अजब स्थिति थी....

यह बात सफाई की नहीं, संवेदना की है कि मेरा मन जिससे टूट जाता है, उससे संवाद करना असम्भव हो जाता है, नतीजा है कि अपने ऐसे खास लोगां से दूर हो गया हूँ, जिनके बिना मैं आज जो हूँ, न होता. मेरा कला-मानस आज जो है, दुबेजी बिना यह निश्चिततः ऐसा ही न होता. इस सबके साथ के मेरे सलूक में जो नैतिक अपराध है, उसके   लिए मैं अपने को क्षमा नहीं कर पाता, पर बात करने के लिए फिर भी मन तैयार नहीं होता. और नियति का खेल देखिए कि दुबेजी के अवसान के समय मैं वाराणसी में था और वहां से पुनः मुंबई स्थानांतरित होने की प्रक्रिया में आ भी न सकता था.  कुछ दिनों बाद जब पृथ्वी में उनकी शोक-सभा रखी गई, उस दिन साहित्य अकादमीके गोपाल सिंह नेपाली पर पूर्व निर्धारित सेमिनार में मुझे बेतिया (बिहार) में रहना था. 


बहुत सारे फोन एसएमएस आए. क्या बताऊं कि कितना मिस किया, कितना महसूस किया और कितना मसोसा... और जब सालों उनके जीते जी उन्हें प्रणाम न कर सका, तो अब किस मुुँह से उनकी स्मृति को प्रणाम करूँ!.
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सत्यदेव त्रिपाठी
मुंबई
satyadevtripathi@gmail.com

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  1. संस्मरण लिखा जाए तो इस तरह लिखा जाए - न संस्मरणकार ख़ुद को बख्शे और न संस्मृत को.यह नहीं कि वह हरेक में सत्यदेव दुबे को देखने या खोदने की कोशिश करे किन्तु warts and all का सिद्धांत अपनाए.ऐसी यादें फ़क्त उर्दू में की जाती रही हैं.अखिलेशजी के हाल के मानबहादुर संस्मरण की तुलना ज़रा इस से कीजिए.प्रो सत्यदेव त्रिपाठी का यह संस्मरण कहीं भी कायर या गुडी-गुडी नहीं है.ऐसे एक आलेख को पढ़कर कविता,कहानी,उपन्यास,नाटक,डाक्यूमेंट्री या फिल्म रचे जा सकते हैं.बधाई क्या दूँ,त्रिपाठीजी ने दुबेजी को ज़िन्दा कर दिया है.

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  2. वाकई अच्छा संस्मरण है. उस ख़लिश को पूरी तरह महसूस करवाता जो ऐसे प्रसंगों में ताज़िन्दगी कायम रहती है. हालाँकि कहीं-कहीं वाक्य रचना और शब्दप्रयोग कुछ अटपटे से भी लगे, लेकिन यह रचना यादगार है. दुबे जी और त्रिपाठी जी के अंतर्सम्बन्ध पूरी तरह सामने आ जाते हैं. प्रसंगवश, मुझे अमरीश पुरी की आत्मकथा में दुबे जी को लेकर कहा गया भी याद आया. उन्हें भी दुबे जी के इरेटिक सलूक का कम सामना नहीं करना पड़ा. लेकिन फिर भी अमरीश अंतत: उनके लिए श्रद्धावनत ही रहते हैं. त्रिपाठी जी का संस्मरण अधिक ईमानदार है और पं.सत्यदेव दुबे को उनकी तमाम रंगतों में पेश करता है. उन पर एक क़िताब आनी ही चाहिए.

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  3. एक सुन्दर संस्मरण आज मेरी आँखों के आगे से गुज़रा , स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ .. श्री सत्यदेव त्रिपाठी जी की लेखनी कई खट्टी-मीठी यादों को पन्नो पे संजो रही है - ' थिएटर के अनोखे दुबेजी ' को लेखनी और पन्नो में बांधना तो संभव ही नहीं है , किन्तु त्रिपाठी जी ने अपनी स्मृतियों को संजो कर दुबे जी के व्यक्तित्व को जिस ईमानदारी से उकेरा है , वो कहीं मेरी यादों से मिलता भी है और ह्रदय को छूता भी है ..
    २००३ से २०११ के बीच , तकरीबन आठ वर्ष , दुबे जी से मिलने का सौभाग्य रहा .. क्यूंकि उन दिनों मैं बेहद भागा-दौड़ा सा रहता था , समयाभाव के कारण कभी भी लम्बे समय के लिए उनसे बातें नहीं कर पाया .. दूसरे , मुझे उनसे डर भी बहुत लगता था - न सिर्फ मैं उनके दुर्वासा रूप की कहानियाँ सुन चुका था बल्कि मुझे उनके उच्च रक्तचाप का भी पता था .. कई बार तो मुँह में जैसे ताला लग जाता था .. आज लगता है काश , जी भर के बातें कर ली होतीं .. कितनी छोटी-छोटी बातें , कितनी सारी यादें .. नियति भी कितनी निर्दयी होती है , हम सोच भी नहीं पाते और अनायास ही कुछ का कुछ हो जाता है .. समय को मुट्ठी में बाँधने की कला किसने सीखी है कभी .. काश .

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  4. उम्दा संस्मरण है। ईमानदारी से लिखा गया।

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  5. बडा अच्छा हुआ अरुणजी, आपने बता दिया.. वरना मैं तो न देख पाता.. तानबाना ने तो पूछा था। लेख इसके पहले 'समकलीन रंगमंच, दिल्ली से छप चुका था। अभारी हूँ आपका कि आपने लिंक भेजी..
    और लिखना सार्थक हुआ, जब विष्णु खरे को अच्छा लगा और उन्होंने तारीफ की - जे आदरहिं सुजान, वाला मानक से लेख की 'कीरति' बढी.. शुक्रिया विष्णुजी..। पता नहीं, कितने लोगों ने पढा...

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  6. जी आभार. फेसबुक पर आपको सूचित किया गया था.

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  7. आपका सत्यदेव दूबे जी पर लिखा संस्मरण समालोचना ब्लाग पर पढ़ गया। पढ़ने के बाद आपसे मिल कर और बातें करने की इच्छ बलवती हुई। काश में मैं पुस्तक मेले में आपके साथ थोड़ा वक्त और गुजार पाता।

    खैर वाराणसी में मुलाकात होगी।

    आपका स्नेही

    विद्युत ​

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  8. वाह! कलेजा निकाल कर रख दिया है। संस्मरण हो तो ऐसा, भाषा की रवानगी, भावों की त्वरा, नाटक और नाटककार की समझ ने दूबे जी को सजीव कर दिया और खुद संस्मरणकार ने अपना व्यक्तित्व भी खोल कर रख दिया। इतनी ईमानदारी से बहुत कम लोग संस्मरण लिखते हैं। लिखने के लिए उपयुक्त शैली और भाषा पर बस लहालोट हुआ जा सकता है। साधुवाद अरुण देव जी आपको तथा सत्यदेव त्रिपाठी को। त्रिपाठी जी कहते हैं, पता नहीं कितने लोगों ने पढ़ा? जिसने न पढ़ा वह ‘कुछ’ बहुत महत्वपूर्ण से वंचित रह गया।

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