साहित्य के इतिहास में किसी काल-खंड में किसी ख़ास प्रवृत्ति को लक्षित कर उसे समझने और उसकी पहचान को सुरक्षित रखने के लिए उसका नामकरण किया जाता है. हिंदी में दलित जीवन और दर्शन को केंद्र में रखकर जो साहित्य रचा जा रहा है उसे दलित-साहित्य कहा जाता है. ऐसा माना जाता है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वती (अंक -सितंबर 1914) में प्रकाशित हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ से इसकी शुरुआत हुई है.
आधुनिक हिंदी दलित
कविताएँ शिकायत से होती हुईं चेतना, आक्रोश, विडम्बना और आत्मविश्वास की ओर बढ़ी हैं.
वे शिल्प को लेकर भी सतर्क हुई हैं.
‘अब मैं साँस ले रहा
हूँ’ कवि असंगघोष (२९ अक्टूबर,
१९६२) का सातवाँ कविता संग्रह है जो इस वर्ष वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. जयप्रकाश
कर्दम के अनुसार – “एक ओर इस संग्रह की कविताएँ हमारी मानवीय संवेदना को
झकझोरती हैं तो दूसरी ओर अन्याय, शोषण और असमानता के विरुद्ध प्रतिकार की चेतना का
संचार करती हैं. इन कविताओं में सर्वत्र मनुष्यता की पहचान, मनुष्यता की माँग और
मनुष्यता की कामना है.”
इस संग्रह से पांच
कविताएँ आपके लिए.
असंगघोष की कविताएँ
कौन जात हो
उसे लगा
कि मैं ऊँची जात का हूँ
मारे उत्सुकता के
वह पूछ बैठा
कौन जात हो
मेरे लिए तो
यह प्रश्न सामान्य था
रोज़ झेलता आया हूँ,
जवाब दिया मैंने
चमार!
यह सुनकर
उसका मुँह कसैला हो उठा
मैं ज़ोर से चिल्लाया
थूँक मत
निगल साले.
स्वानुभूति
मैं लिखता हूँ
आपबीती पर कविता
जिसे पढ़ते ही
तुम तपाक से कह देते हो
कि कविता में कल्पनाओं को
कवि ने ठेल दिया है
सचमुच मेरी आपबीती
तुम्हारे लिए कल्पना ही है
भला शोषक कहाँ मानता हैं
कि उसने या उसके द्वारा
कभी कोई शोषण किया गया
चलो, एक काम करो
मेरे साथ चलो कुछ दिन बिताओ
मेरे कल्पनालोक में
मैं तुम्हें दिखाता चलूंगा
अपना कल्पनालोक
बस एक शर्त है
बोलना मत
चुपचाप देखते, सुनते, महसूसते रहना
वरना कल्पनाएँ
छोड़ कर चली जायेगी
मेरी कविताओं के साथ कहीं विचरने
और तुम रह आओगे
अपने अहम में डूबते-डुबाते
कि विश्वगुरू हो
सबकुछ जानते हो.
सुनो द्रोणाचार्य!
सुनो
द्रोणाचार्य!
जिस एकलव्य का
अँगूठा कटवाया था तुमने
वह अपनी दो अँगुलियों से तीर
चलाना सीख गया है,
और उसके निशाने पर
तुम ही हो
हाँ, तुम ही
आख़िर यह तुम्हारा कलयुग है
घोर कलयुग
जिसमें तुम हो
तुणीर में तीर है
अब दो अँगुलियों से
तुम पर निशाना साधता
आज का एकलव्य है,
अन्तिम बार
सुन लो
आज का एकलव्य सीधा नहीं है
वह अपना अँगूठा
अब नहीं गँवाता,
उसे माँगने वाले का सिर
उतारना आता है.
मेरा चयन
पिता ने
निब को पत्थर पर
घीस
एक क़लम बना
मेरे हाथों में थमाई.
पिता ने
उसी लाल पत्थर पर
राँपी
घिसकर
मेरे हाथों में थमाई.
मुझे
पढ़ना और चमड़ा काटना
दोनों सिखाया
इसके साथ ही
दोनों में से
कोई एक रास्ता
चुनने का विकल्प दिया
और कहा
‘ख़ुद तुम्हें ही चुनना है
इन दोनों में से कोई एक’
मैं आज क़लम को
राँपी की तरह चला रहा हूँ.
पाय लागी हुज़ूर
वह दलित है
उसे महादलित भी कह सकते हो
जब ज़रुरत होती है
उसे आधी रात बुला भेजते हो
जचगी कराने अपने घर,
जिसे सम्पन्न कराने पूरे गाँव में
वह अकेली ही हुनरमन्द है.
सधे हुए हाथों से तुम्हारे घरों में
जचगी कराने के बाद भी
इन सब जगहों पर वह रहती है अछूत ही,
इसके बावजूद उसे कोई शिकन नहीं आती
यह काम करना उसकी मजबूरी है
उसके साथ न केवल तुम
उसके अपने भी ठीक से व्यवहार नहीं करते
यह देख मन में टीस उठती है
उसे न काम का सम्मान मिला है
ना उसके श्रम का उचित मूल्य
उसके जचगी कराये बच्चे
कुछ ही माह बाद
मूतासूत्र पहन लेते है
तो कुछ उसे दुत्कार निकल जाते है
उसे बन्दगी में झुक, कहना ही पड़ता है
हूल जोहार!
घणी खम्मा अन्नदाता!
पाय लागी हुज़ूर!
पाय लागी महाराज!
ऐसे पाँवों को
कोई तोड़ क्यों नहीं देता.
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असंगघोष
का जन्म मध्य प्रदेश के जावद नामक छोटे से कस्बे में दलित परिवार में हुआ था.
प्रारंभिक शिक्षा अपने कस्बे में और लंबे अंतराल के बाद रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से स्वाध्यायी
छात्र के रूप में एवं इसके बाद इग्नू जबलपुर सेंटर से एम.ए. (इतिहास), एम.ए. (ग्रामीण
विकास), एम.बी.ए.
(मानव संसाधन),
तथा पीएच.डी. की पढ़ाई पूरी की. बचपन से पिताजी के जूता बनाने के काम में
सहयोग कर काम सीखा बाद में लगभग 10 वर्ष स्टेट बैंक की नौकरी आरै अब सरकारी सेवा
में रहते हुए भारतीय प्रशासनिक सेवा तक का लंबा सफर तय किया. आप प्रारंभ में बैंक
कर्मियों के मार्क्सवादी आंदोलन से जुडे एवं कई आंदोलनों शरीक रहे बाद में 1990
के आसपास अम्बेडकरवादी आंदोलन से जुडाव हुआ और दलित लेखन में कविता विधा को
अपनाया. आज हिन्दी दलित साहित्य के प्रमुख कवियों में शामिल किये जाते हैं. आपके
संपादन में जबलपुर से दलित साहित्य की प्रमुख एवं प्रखर पत्रिका 'तीसरा पक्ष' का नियमित
प्रकाशन हो रहा है.
asangghosg@gmail.com
आग उगलती कविताएं
जवाब देंहटाएंओंकार जी, जाके पाँव न फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई -कबीर कह गए हैं। मुझे लगता है, इन कविताओं को आग उगलना कहना सही नहीं है। ये रचनाएँ तो स्व और समानधर्माओं की पीर की अभिव्यक्ति है, पीड़कों से यथोचित संवाद है। आग मूतते वर्णवादियों को यह जवाब है, उनके आग लगाने, दलितों का दिल जलाने पर पानी डालकर आग बुझाने की कार्रवाई है यह।
हटाएंएकलव्य के तीर सी निशाने पर लगती कविताएं।बधाई।
जवाब देंहटाएंदमदार कविताये..….दमदार सोच....
जवाब देंहटाएंसामाजिक व्यवस्था व सोच पर सार्थक संवाद करती अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंएकलव्य से लेकर वर्तमान समय तक क्या बदल पाया है?
"मैं आज कलम को राँपी की तरह चला रहा हूँ।"...यही कलम की ताक़त है!
सार्थक व गहन कविताओं को हम तक पहुंचाने के लिये आभार,सर!
उत्कृष्ट कविताएँ। यह हुआ न!!! अपने जीवनानुभव को जो कवि आधार बना कर कलमबद्ध करता है, असल में कवि है। असंगघोष का जीवनानुभव मेरा नहीं है। लेकिन फिर भी मुझे बेहद उद्वेलित करता है। उनके अनुभव को आत्मसात करने का गुण यदि किसी कवि में नहीं है, तो उनके जीवन को लेखन का आधार भला वह कैसे बना सकता है? हम ऐसे कई बनतू कवियों के नाम जानते हैं, जो सिर्फ नामों या बड़े नामों में बदल गए हैं । अगर वे अपने गावतकिया जीवन को भी निष्ठावान आधार बनाकर कविता लिखते तो दरअसल वे भी नाम न होकर कवि होते। हिन्दी कविता कब सीखेगी कविता होना?
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