(by kallchar) |
राकेश बिहारी ने समकालीन कथा-साहित्य पर अपने स्तंभ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ की शुरुआत लगभग चार वर्ष पूर्व समालोचन पर की थी. आज इसकी २१ वीं कड़ी योगिता यादव की कहानी ‘गलते पते की चिट्ठियाँ’ पर आधारित है.
यह स्तम्भ अब पूरा होने को है और जल्दी ही ये आलेख पुस्तकाकार प्रकाशित होंगे. २१ वीं सदी की हिंदी कथा-आलोचना में इसका अपना महत्व है. कथा की सभी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व यहाँ हुआ है. राकेश बिहारी ने इस आलोचना उपक्रम में कुछ प्रयोग भी किये हैं, कभी पाठक के पत्र के माध्यम से तो कभी खुद कथा का कोई पात्र ही कथा की विवेचना करता है.
‘प्रेम के नाम एक पत्र जो प्रेम-पत्र नहीं है’ में राकेश बिहारी कहानी की नायिका द्वारा संपादक को लिखे पत्र के माध्यम से इस कथा की विवेचना करते हैं.
कहानी
गलत पते की चिट्ठियाँ
योगिता यादव
कुछ दिन बाद कबीर कुमार बस स्टॉप पर मिले. उन्होंने फिर अभिवादन में मुस्कुराहट बिखेरी पर मंजरी ने इस भाव से कि वह बहुत व्यस्त है आधी मुस्कान ली और आधी वहीं छोड़ दी. अगर सचमुच उस शाम को कबीर ने उसे न देखा हो तो वह भी क्यों गैरजरूरी उत्सुकता दिखाए. लगातार दो-चार दिन यूं ही आधी-आधी मुस्कानों वाली व्यस्त सी मुलाकात होती रही. पर आज बच्चों की पीटीएम थी और मंजरी को बच्चों के साथ स्कूल जाना था. मंजरी ऑटो रिक्शा का इंतजार कर रही थी कि तभी कबीर कुमार वहां से होकर गुजरे और उन्होंने बस यूं ही शिष्टाचारवश गाड़ी रोक दी. बच्चे चहक कर अधिकारभाव से गाड़ी में बैठने को आतुर हो उठे. लेकिन अभी कुछ गैप रखना जरूरी था. कनक ने बताया कि यह सब सुरक्षा के लिहाज से ठीक नहीं. कबीर ने इसरार किया कि उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी. दोनों का रूट एक ही है. पर फिर भी अगर मंजरी को ठीक न लगे तो वह ज्यादा कुछ नहीं कहेगा. जब तक कबीर की बात के अर्थ और गहरे होते मंजरी और बच्चे गाड़ी में बैठ चुके थे. रास्ते भर हल्की-फुल्की खूब बातें हुई. कनक के कनाडा जाने के बाद से मंजरी के पास खूब सारी बातें थीं जो अब तक सुनी नहीं गईं थीं. वहीं अस्मिता के लोहेपन से कबीर जब तब चोटिल होता रहता था, सो उसे भी एक नर्म आवाज की तलाश नहीं, पर कमी तो थी ही. मंजरी की बातों में नर्मी थी. कबीर के व्यवहार में अब भी एक कोरापन था. दोनों ने खूब बातें कीं.
एक थी सांदली रानी. खाती सुनार का थी, गाती कुम्हार का थी. सुनार दिन भर पसीना बहाता.
उसके लिए सुंदर झुमके और बालियां गढ़ता. फिर उसे पहनाता. हर बार बाली और झुमके के
लिए उसे कानों में नए छेद करने पड़ते. कान छिदवाने की पीड़ा में उसकी आंखें नम हो
जातीं. पर वह किए जा रही थी. कुम्हार मिट्टी इकट्ठी करता. उसे चाक पर चढ़ाता. गोल
गोल घूमते चाक पर मिट़टी नाचने लगती. कुम्हार सांदली रानी से पूछता कि बताओ क्या
बनाऊं. उसकी मिट्टी से वो कभी मीठे शरबत की सुराही बनवाती, कभी पूजा का दीया कुम्हार बना देता.
अब क्योंकि समय बदल रहा था. जातियों के किले टूट रहे थे.
पेशे बदल रहे थे. इसलिए अब सुनार, सुनार न था. वह
मल्टीनेशनल कंपनी का एक काबिल एम्पलॉई था कनक कपूर. कुम्हार भी कुम्हार न था वह
कॉलेज में पढ़ाता था कबीर कुमार. कॉलेज से आते-जाते कभी कभार कबीर उस बस स्टॉप के
पास से गुजर जाता जहां सांदली रानी यानी मंजरी अपने बच्चों को स्कूल बस में चढ़ाने
जाती थी. तो यूं ही शिष्टाचार वश बातचीत हो जाती और यूं हीं वह पूछ लेता, 'सेहत कैसी है?’, 'कुछ जरूरत हो तो बताइएगा.’ दिन भर की दौड़ भाग में अक्सर मंजरी की सेहत के साथ कुछ न
कुछ लगा ही रहता था और घर भर की जरूरतों में उसे किसी न किसी चीज की जरूरत पड़ती
ही रहती थी, सो ये दोनों सवाल
उसके दिल के सबसे ज्यादा नर्म सवाल बन गए थे. जिनका वह अकसर यही जवाब देती,
'अच्छी हूं’, 'नहीं-नहीं थैंक्यू.’.
सांदली रानी यूं तो राजपूताने से थी, पर जातियों के किले टूटने से बहुत पहले ही राजपूताने के
भव्य भ्रम भी गिरने लगे थे. जागीरों के खो जाने के बाद भी जो शासन करते रहना चाहते
थे, उनके लिए नया कोर्स शुरू
हो गया था एमबीए. सो होनहार इस लड़की को परिवार ने एमबीए करवा दी. फुरसत में 'फार फ्रॉम मेडिंग क्राउड’ और 'ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स’ जैसे विश्वस्तरीय
किताबें पढ़ने वाली मंजरी ने बढ़िया ग्रेड के साथ एचआर में एमबीए कंप्लीट की. फिर
कनक कपूर से शादी की. मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत कनक कपूर पहले ही लाखों रुपया
कमा रहा था, सो एमबीए की
डिग्री पर चालीस-पचास हजार रुपये की नौकरी करवाने से बेहतर था कि घर में ही पत्नी
के ज्ञान और व्यवहार का लाभ लिया जाए. यूं भी आजकल घर में फुल टाइम मेड रखो तो वह
दस हजार से कम नहीं लेती. उस पर पत्नी अगर रोज ऑफिस जाएगी तो साड़ी-गाड़ी के साथ
और बहुत से खर्च बढ़ जाते हैं. फिर परिवार को बांधने वाला एक शीराजा भी तो चाहिए.
जो पचास हजार और खर्च करने पर भी नहीं मिलने वाला था.
ये सारी कैलकुलेशन देखते हुए कनक कपूर ने डिग्रियां संभालकर
स्टडी रूम की एक ड्राअर में रख दीं और मंजरी को घर-भर के काम पर लगा दिया. मंजरी
जब कनक कपूर की जिंदगी में आई वह बेहद खूबसूरत और सुडौल थी. अकसर वेस्टर्न डे्रसेज
पहना करती थी. शादी में कनक कपूर और उनके परिवार ने मंजरी के लिए भारी-भारी
साड़ियां और लहंगे खरीदे. लेबर लॉ और कंपनी एक्ट पढ़कर आई मंजरी को खाना-वाना बनाना कुछ नहीं आता था.
सासू मां ने अंग्रेजी में लिखी गई भारतीय व्यंजनों की रेसिपी बुक्स बहू रानी को
तोहफे में दीं. कुछ परंपरागत व्यंजन पहले खिलाए, फिर बनाने सिखाए. मंजरी धीरे-धीरे सीख रही थी. सास ने बड़े
स्नेह से मंजरी को समझाया कि स्प्रेड शीट पर 'कॉस्ट टू कंपनी’ कैलकुलेट करने से ज्यादा मुश्किल है सारी रोटियां एक ही वजन और एक ही आकार की
गोल बनाना. लेकिन क्योंकि मंजरी एक काबिल और होनहार लड़की है, सो देखिए उसने रोटी गोल बनाना भी सीख लिया.
मल्टीनेशनल कंपनी के काबिल ऑफिसर कनक कपूर को अक्सर
मीटिंगों, कांन्फ्रेंसों में जाना
होता. वहां उसे बफे में भांति-भांति के व्यंजन खाने और खिलाने होते. कभी इंडियन,
कॉन्टीनेंटल, चायनीज, इटेलियन, पंजाबी, बंगाली और न जाने क्या क्या.... जो स्वाद, जो अंदाज उसे लजीज लगते, उन्हें वह घर ले आता. पति के स्वाद का ख्याल रखने वाली
मंजरी ने अब चाइनीज और इटेलियन डिशीज की रेसिपी बुक्स खरीदीं. कनक कपूर शादी की
पहली सालगिरह पर मंजरी के लिए एक 'टेबलेट’ ले आए. इस पर वह इंटरनेट पर और भी कई तरह की
रेसिपीज सर्च कर सकती थीं. खिलाने और परोसने के और भी कई अंदाज सीख सकती थी. वह
देख सकती थी कि अब लॉन में हेंगिंग फ्लावर पॉट लगाने का चलन है या क्यारियों में
कारनेशन के पौधे लगाने का. स्टडी रूम में जो कुर्सी मंजरी ने अपने पढ़ने के लिए
लगवाई थी उस पर अब अकसर इस्त्री किए जाने वाले कपड़ों का ढेर पड़ा रहता. जब भी उसे
फुरसत होती वह स्टडी टेबल पर मोटी चादर बिछाकर इस ढेर के कुछ कपड़े इस्त्री कर
देती. बाकी का ढेर किसी को दिख न जाए इसके लिए उसने स्टडी रूम की खिड़कियों पर
मोटे पर्दे डाल दिए थे.
स्टडी रूम पर ज्यादातर समय ताला पड़ा रहता. भारी, महंगी साड़ियों का पल्ला कमर में खोंसे वह
सर्चिंग, सर्फिंग और सर्विंग में
बिजी रहती. फ्री साइज साड़ियों में उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी जींस का साइज 28
से, 32 और 32 से 36 हो गया.
अब वह और भरी-भरी, और सुंदर दिखने
लगी थी. गोद भी भरी. गोल मटोल दो बच्चों से. कितना सुंदर परिवार है न ...
जो देखता मोहित हो जाता. परफेक्ट फैमिली. पढ़ी-लिखी एचआर
में एमबीए की डिग्री वाली लड़की रसोई में स्वादिष्ट-पौष्टिक पकवान बना रही है.
लाखों रुपया कमाने वाला कनक कपूर पत्नी की पल-पल की खबर रखता है. हर फैशन की
साड़ियां उसके वार्डरोब में शामिल करता जाता है. और बच्चे अपनी शरारतों के साथ
दादा-दादी और रिश्तेदारों के वात्सल्य की छांव में बड़े हो रहे थे.
पर कभी कभार सांदली रानी यानी मंजरी की देह से चंदन की
खुशबू आने लगती. पता नहीं क्यों! पर जब भी यह खुशबू आती मंजरी का मन अजीब सा हो
जाता. उसे अपने भीतर से कुछ खोने, कुछ न कर पाने का
भाव उठने लगता. ऐसी कौन सी सुगंध है जो महंगे से महंगे रूम फ्रेशनर से भी ज्यादा
उसे परेशान कर देती है. इसी खोज में मंजरी कभी-कभी बहुत उदास हो जाती. इस उदासी के
बीच भी कुछ कहां रुकने वाला था. बच्चे
बड़े हो रहे थे, उनकी जरूरतें बढ़
रहीं थीं. मंजरी बच्चों और परिवार की जरूरतों के हिसाब से खुद को ढाल रही थी.
मसलन अब उसे समझ आने लगा था कि बड़े वाले सोनू को पढ़ाने से पहले उसे खुद सारी
किताबें पढ़नी होंगी. और अगर यही लापरवाही जारी रही तो कोई ट़यूशन ढूंढनी होगी.
यूं ही एक दिन उदासी के बाद भी मुस्कुराते हुए मंजरी ने
कबीर से बच्चों के लिए कोई होम ट़यूटर ढूंढने को कह दिया. मंजरी के गुदगुदे बच्चों
को जब मुस्कुराते देखता तो कबीर कुमार को अपने बच्चों का लोहेदार अनुशासन में कसा
बचपन परेशान करने लगता. असल में बस स्टॉप पर मंजरी और दोनों बच्चों का मुस्कुराकर
अभिवादन करने वाले कबीर कुमार को कॉलेज में पढ़ाते हुए ही अपने साथ की एक लड़की से
प्यार हो गया था. जो पद में उनसे जूनियर पर हौसले में सीनियर थी. वह लड़की जैसे
बिल्कुल लौहार थी. उसके भीतर गजब का लोहा था. वह किसी से भी लोहा ले सकती थी. अपने
परिवार से भी. अब प्यार तो प्यार है. यह ऐसी धुंध है जिसके आगोश में सब ढक जाता है.
प्यार की धुंध में कबीर की मिट्टी और अस्मिता का लोहा सब एक हो गया, लंबे अरसे तक एक ही रहा और दोनों परिणय बंधन
में बंध गए. पर मिट्टी तो मिट्टी है, कितनी भी ढको, अपना कच्चापन
कहां छोड़ पाती है. यही कच्चापन जब बहुत बढ़ जाता तो अस्मिता को खीझ होने लगती.
उसे लगता कि उसने मिट्टी के माधो से प्यार कर लिया है. इस मिट्टी के साथ गृहस्थी
बसाकर उसने अपने भीतर के लोहे को जंग लगा ली है.
इस चिढ़चिढ़ेपन में उसका लोहा और ज्यादा कठोर होकर उसके
व्यवहार में उतर आता. वह लोहे की बातें करतीं. बच्चों को लोहे की जंजीरों से जैसे
अनुशासन में बांधने की कोशिश करती. यही कबीर बेबस हो जाता. पता तो अस्मिता को भी
था कि वह अपने परिवार के साथ ज्यादती कर रही है, पर उसे डर था कि अगर उसने ज़रा भी ढील दी तो कबीर की मिट्टी
उसके भीतर के लोहे को जंग लगा देगी. वह दिन में बार-बार फोन करती. पूछती कि कहां
हो, क्या कर रहे हो? कब लौटोगे? अब तक क्यों नहीं लौटे? कबीर जब किताबें पढ़ चुका होता, वह उन्हें बेवजह उलटती-पलटती. इश्क के ककहरे में गच्चा खाई
अस्मिता को अब हर किताब से नफरत हो चली थी. अब कुछ भी पढ़ने को उसका जी नहीं चाहता
था. इन गुम हुए फूलों से बेपरवाह कबीर कविताई के चक्कर में पड़ गया था. कभी
सराहने भर को अस्मिता उन कविताओं की तारीफ भी करती. पर ज्यादातर कविताओं में से
खुद को गुम ही पाती. वह इन कविताओं में कोई गुम हुआ फूल ढूंढ रही थी. यूं ही
कभी-कभी उसे लगता कि कितना अच्छा होता अगर प्यार-व्यार में पड़े बगैर उसने दिमाग
से काम लिया होता. और उस बिजनेसमैन से शादी की होती, जिसके पास इस्पात से औजार बनाने की बड़ी-बड़ी मशीनें हैं.
यहां शायद वह ठगी गई. यही सोचते सोचते उसके सिर में डिप्रेशन का एक कील बराबर लोहा
उतर आता और वह दर्द से परेशान हो उठती.
कबीर अपनी दुनिया में मगन. उसे कहां पता था कि उसका
मिट़टीपना अस्मिता के लोहे को जंग लगा रहा है. पर हां इतना जरूर समझता था कि
अस्मिता का कठोर मन अब उसकी नर्म भाषा समझ नहीं पा रहा है. पर ये दो बच्चे हैं न
जिनमें अभी थोड़ी सी मिट्टी बाकी है और जिनको अभी चुनौतियों से थोड़ा लोहा लेना है,
उनके लिए वह बेपरवाही की एक मुस्कान अपने
होंठों पर लिए घूमता. वह पढ़ता-पढ़ाता. लिखता और लिखवाता. बस मिट्टी को जंग बताए
जाने की हताशा को खुद पर हावी होने से बचाता.
यूं ही हताशा को अपने भीतर दबोचे वह बस स्टॉप के पास से
गुजर रहा था कि उसे याद आया कि वह मंजरी के बच्चों के लिए अभी तक कोई होम ट़यूटर
नहीं ढूंढ पाया है. मंजरी के पास तो सौ काम थे, उसे कहां किसी एक काम कोई खास खबर रहती थी. आज भी मंजरी
सुबह की जल्दबाज बदहवासी में बच्चों को लिए बस के पीछे दौड़ रही थी. असल में हुआ
यूं कि कल सोनू स्कूल से घर लौटते हुए पानी की बोतल कहीं गुमा आया. बोतल का ख्याल
उसे तब आया जब रात के आठ बज गए थे. अब इस समय अगर वाटर बॉटल लेने बाजार जाती तो
डिनर डिस्टर्ब हो जाता. डिनर बहुत जरूरी था. बढ़ते बच्चों के लिए यह जरूरी है कि
वह समय पर अच्छा खाना खाएं. वह भी सोने से कम से कम दो घंटे पहले. ताकि हाजमा भी
ठीक बना रहे. वरना और सौ तरह की मुश्किलें बच्चों के साथ हो जाती हैं. छोटा वाला
मोनू अगर रात को सोते समय दूध न पिए तो उसे सुबह फ्रेश होने में देर हो जाती है.
अब एक देरी का मतलब लगातार और कई कामों की देर है. सोनू और मोनू दोनों वक्त पर
खाना खाएं, वक्त पर होमवर्क करें और
वक्त पर सो जाएं ताकि सुबह वक्त पर उठ सकें, ये सब जिम्मेदारियां मंजरी की थीं. इन्हीं जिम्मेदारियों की
रेलमपेल में वह अक्सर कुछ न कुछ भूल ही जाती थी. जैसे इस बार हुआ. सोनू वाटर बॉटल
स्कूल में गुमा आया और उसे ख्याल ही नहीं रहा.
अब सुबह फ्रिज की प्लास्टिक बॉटल को साफ कर, उस पर सोनू के नाम की स्लिप लगाकर फिल्टर्ड
वाटर भरने में लगभग सात मिनट एक्स्ट्रा लग गए. प्लास्टिक की बोतल पर कोई भी पैन
ढंग से काम नहीं करता. इसलिए मंजरी ने सफेद कागज पर स्कैच पैन से सोनू का नाम और
क्लास लिखी और फिर सेलो टेप से उसे बोतल पर चिपका दिया. सोनू इतना लापरवाह है कि
उसके साथ उसे खास एहतियात बरतनी पड़ती है. वरना पांचवीं क्लास तक पहुंचते तो बच्चे
बहुत समझदार हो जाते हैं. सोनू की लापरवाहियां भी मंजरी को बेवजह उलझाए रखती और वह
खीझ उठती. उसी खीझ में अकसर सोनू पिट जाता. फिर सासू मां से मंजरी को डांट पड़ती.
इस सब मिलीजुली खींचतान में बस छूट गई और मंजरी उस छूटती हुई बस को आवाज देते हुए
दौड़ रही थी. अगर बच्चों के पापा होते तो इसी बस को अगले स्टॉप पर पकड़ा जा सकता
था. पर पापा तो अब यहां नहीं थे न.
कनक कपूर को लगने लगा था कि परिवार के खर्च बढ़ रहे हैं.
जिस हिसाब से एजुकेशन महंगी होती जो रही है उस हिसाब से उन्हें अगले बारह साल की
जरूरतों की तैयारी अभी से करनी पड़ेगी. इसी सोच के साथ उन्होंने एक नई कंपनी में
एप्लाई कर दिया. इस कंपनी ने इन्हें न केवल पहले से ऊंचा पद दिया, बल्कि सीधे कनाडा में पोस्टिंग कर दी. तनख्वाह
पहले वाली तनख्वाह से लगभग डबल और रहना-खाना सब कंपनी के खाते में. कुल मिलाकर
तनख्वाह पूरी की पूरी बची हुई. इतना अच्छा ऑफर भला कोई हाथ से कैसे जाने देता. सो
कनक कपूर कनाडा चले गए.
घर की जिम्मेदारियों और बच्चों की शैतानियों के बीच मंजरी
को छोड़कर. नहीं असल में छोड़ा भी नहीं था. वह बिल्कुल मंजरी के टच में थे. अक्सर
उनकी स्काइप पर बातें होतीं. टेबलेट का फ्रंट कैमरा ऑन करवाकर वह घर भर का और
मंजरी का भी जायजा लेते रहते.
पर बच्चों को स्कूल कौन छोड़ता. कबीर ने इस बार जब हाय हैलो
किया तो मंजरी प्यासी मैना सी बोल उठी, ''आप प्लीज बच्चों को थोड़ा आगे तक छोड़ देंगे? इनकी स्कूल बस छूट गई है. अभी अगले स्टॉप पर मिल जाएगी.’’ कबीर ठहरा मिट्टी
का आदमी. उसने गाड़ी का लॉक खोला और दोनों बच्चों को उसमें बैठा लिया और बोल पड़ा,
''आप भी साथ बैठ जाइए. मुझे पता नहीं चलेगा,
बस के रूट के बारे में.’’
बच्चों में उलझी उलझी सी मंजरी ने बिखर आए बालों को फिर से
क्लचर में कसा और अगली सीट पर बैठ गई. थोड़ी ही दूर पहुंचकर बच्चों की स्कूल बस तो
मिल गई पर कुछ चीजें इस मुलाकात के बाद अटक कर रह गईं. कबीर की गाड़ी के डेशबोर्ड
पर शेक्सपीयर की किताबें पड़ीं थीं. इन किताबों पर मंजरी ने कुछ नहीं कहा पर एक
कसक मंजरी के मन में रह गई कि अगर उसने ड्राइविंग सीख ली होती तो आज उसे यूं किसी
अनजान आदमी का अहसान न लेना पड़ता. कनक के कनाडा जाते ही गाड़ी पर कनक के छोटे भाई
आरव का अधिकार हो गया था. मां-पिताजी जिस को भी जरूरत होती वह आरव के साथ गाड़ी
में बैठकर चले जाते. बच्चों को भी चाचू बहुत प्यारे थे. बस चिढ़ मंजरी को ही थी.
जबकि दोनों लगभग हम उम्र थे, लेकिन मंजरी उससे
बचती ही रहती.
एमबीए करने के बाद भी मंजरी के भीतर से राजपूताने के भ्रम
और ठसक कम नहीं हुए थे. वह हर रिश्ते में एक खास तरह की दूरी बनाए रखना चाहती थी,
और आरव दूरियों को जल्द से जल्द पाटने में
विश्वास रखता था. भाई की गाड़ी और भाभी की साड़ी उसके लिए लगभग समभाव के थे. घर की
जिम्मेदारियां तो वह संभाल ही रहा था, लेकिन अपने ओछे मज़ाक और गैरजरूरी रोकटोक के कारण कई बार मंजरी से डांट खा
चुका था. पर हर बार बाद में परिवार से मंजरी को ही डांट पड़ती थी. कभी बचपना कहकर,
कभी जिम्मेदारी कहकर आरव की बात सही साबित कर
दी जाती. ऐसे में घर में गाड़ी होते हुए भी उसे बच्चों को छोडऩे के लिए कबीर को
कहना पड़ा.
कनाडा जाने के बाद से कनक कुछ ज्यादा ही पॉजेसिव हो गया था.
रात में लंबी बातचीत करता. दिन भर का हालचाल जानना चाहता. मां-पिताजी की अतिरिक्त
केयर करता और सब हिदायतें मंजरी पर मढ़ता जाता. शुरु के पांच दस मिनट मंजरी भी
पूरे मन से बात करती. दिन भर का हाल बयां करतीं. बच्चों की शरारतें बताती, घर वालों के व्यवहार के बारे में कहती. बस ये
शुरू के पांच दस मिनट तो अच्छे चलते उसके बाद वह या तो कनक से अपने व्यवहारकुशल न
होने पर डांट खाती रहती या यह सुनती रहती कि इस काम को जैसे उसने किया, वैसे न किया जाता तो और बेहतर होता. दिन भर की
थकी मांदी मंजरी जब पति की बातों में सहानुभूति के शब्द टोह रही होती, उसे खुरदरी सच्चाईयां बताई जातीं. वह भीग जाती,
आंसुओं में. उसके गले के भीतर बहुत कुछ रुंध
जाता.
आज भी जब उसने सोनू के वाटर बॉटल गुम कर देने, बच्चों के लेट होने और फिर कबीर की गाड़ी से
बच्चों को अगले स्टॉप तक छोडऩे की बात कनक को बताई तो उसे लग रहा था कि अपनी
डिग्रियों को स्टडी की ड्राअर में डलवाकर गृहस्थी के डांसिंग फ्लोर पर बिना थके
थिरकने वाली मंजरी पर कनक का दिल बाग़ बाग़ हो उठेगा. लेकिन हुआ ठीक इसके उलट.
मंजरी को खूब डांट पड़ी. कनक ने बताया कि फ्रिज की प्लास्टिक बोतलें बच्चों के लिए
कितनी 'अनहायजनिक’ हैं. गर्मियों के टेंपरेचर में उनमें कैमिकल
बनने लगता है जो बच्चों की सेहत के लिए बिल्कुल ठीक नहीं. फिर उसे डांट पड़ी कि
किसी अनजान आदमी, बस एक दो बार
हाय-हैलो करने वाले के साथ इस तरह गाड़ी में बैठना और बच्चों को बिठाकर उसे स्कूल
बस का रूट बता देना कितना 'अनसेफ’ है. -कि मंजरी ने अपनी पढ़ाई-लिखाई ही नहीं
सजगता भी सब गोबर कर ली है. कनक ने जब यह कहा कि मुझे तो शक हो रहा है कि एमबीए की
यह डिग्री तुमने अपनी मेहनत से ली है या बाप के रौब और पैसे से खरीदी है...’’
तो मंजरी झर झर रोने लगी.
बच्चे जब गहरी नींद में सो रहे थे और इन आंसुओं को पोंछने
वाला आसपास कोई नहीं था, तभी कनक के कुछ
और शब्द मंजरी को खरोंचते चले गए.
उसने कहा,
''इतने साल साथ रहने के बाद
भी मंजरी परिवार संभालना नहीं सीखी. घर में देवर है, लेकिन उससे बात करते हुए तो शायद तुम्हारी ईगो हर्ट होती है.’’
बातचीत स्काइप पर हो रही थी और मंजरी अपनी हिचकियां पल्लू
में समेट रही थी ताकि बेडरूम के बाहर किसी को भीतर की आवाजों के बारे में अंदाजा न
हो. कनक को इस बात पर और गुस्सा आया कि मंजरी इतनी फूहड़ कैसे हो सकती है कि उसके
इंटरनेशनल समय और कॉल को वह यूं रोकर बर्बाद कर रही है. असल में उसे मंजरी के इस
लकड़ीपने से ही कोफ्त होती थी. जरा सी नर्मी मिले तो भीग जाती है, थोड़ा सा ताप दो तो सुलगने लगती है. अभी-अभी
पड़ी डांट से मंजरी गीली लकड़ी की तरह सुलग रही थी. कनक इस सब 'बेवजह’ के रोने-धोने को ‘त्रिया चरित्त’
कहता था. उसका मानना था कि पत्नी तो बिल्कुल
सोने के कंगन जैसी होनी चाहिए. जिसमें भले ही खोट मिला हो पर एक बार जिस सांचे में
ढाल दो, ताउम्र वैसी की वैसी बनी
रहे. कनक की स्वर्णमृग सी ख्वाहिशें सोने के कंगन जैसी जीवन संगिनी के लिए मचल
उठतीं.
(दो)
कुछ दिन बाद एक सुबह मंजरी को फिर बच्चों की स्कूल बस के
स्टॉप पर कबीर कुमार गुजरते हुए दिखे. इस बार दोनों ने एक-दूसरे को अधिक आत्मीयता
से अभिवादन किया. जैसे अब पहचान पुख्ता हो गई है. पर आज की इस पुख्ता मुस्कान के
बारे में मंजरी ने कनक को कुछ नहीं बताया. पिछली डांट अभी वह भूल नहीं पाई थी.
रात को जब टेबलेट का फ्रंट कैमरा ऑन करके मंजरी कनक से
बातें कर रहीं थी कनक को लगा कि मंजरी आज थकी कम और खुश ज्यादा है. मंजरी को भी
लगा कि कनक की बातों में आज उपदेश कम और उमंग ज्यादा है. बातों ही बातों में कनक
कपूर ने बताया कि उनके ऑफिस में एक नई एम्प्लाई आयी है. मूलत: पाकिस्तान से है,
लेकिन है सिंध की और पिछले कई सालों से कनाडा
में ही रह रही है. हाइली क्वालीफाइड यह लड़की वेस्टर्न ड्रेसेज पहनती है और बहुत
सुंदर लगती है. सिंध की उस लड़की की यह तारीफ मंजरी को अच्छी नहीं लगी. पर वह
सुनती रही. असल में मंजरी जब 28 से 36 होती जा रही थी कनक को तभी अहसास होने लगा
था कि मंजरी अब उसके साथ चलती बिल्कुल अच्छी नहीं लगती. उसका बड़ा हुआ वजन और
घरेलू टाइप के कपड़े इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंसों में उसके साथ चलने लायक नहीं रह गए
हैं. जिसे कनक कपूर से सालों पहले पसंद किया था वह मंजरी अब की मंजरी से ज्यादा
खूबसूरत थी और कनक कपूर का तब का स्टेटस अब के स्टेटस के सामने कुछ भी नहीं था.
मंजरी जब यह सब सुनती तो एक अलग तरह की कुंठा से भर जाती.
आज वही कुंठा एक बार फिर से उसके मन में उतर रही थी जब कनक सिंध की उस लड़की की
तारीफ कर रहा था. इस बार उसने अपना वजन कम करके खुद को वेस्टर्न ड्रेसेज में कनक
के साथ इंटरनेशनल डेलीगेट से मिलने लायक बनाने की ठानी.
(तीन)
अगले दिन शाम को मंडी से सब्जियां लाते हुए मंजरी ने आधा
किलो नींबू, ढाई सौ ग्राम शहद
का डिब्बा और एक कूदने वाली प्लास्टिक की रस्सी खरीद ली. घरेलू सामानों के थैले
उठाए मंजरी ऑटो रिक्शा का इंतजार कर रही थी, उसी समय कबीर अपनी पत्नी अस्मिता के साथ वहां से गुजर रहा
था. कबीर ने मंजरी को देखा और मंजरी ने कबीर को. मंजरी ने एक पल को राहत की सांस
ली कि अब उसे और ऑटो का इंतजार नहीं करना पड़ेगा. लेकिन कबीर ने उसे देखकर भी
अनदेखा कर दिया. मंजरी ठगी सी रह गई. ठगी हुई सी इसी हालत में उसने बिना कुछ पूछे ऑटो
लिया और घर चली आई. आज उसका मन अनमना सा था. कनक के व्हाट्सएप पर कई मैसेज आए पर
मंजरी ने स्काइप ऑन नहीं किया. वह बुझी बुझी सी सो गई. पर कबीर की इस हरकत की वजह
नहीं ढूंढ पाई.
(चार)
मंजरी जल्द से जल्द कबीर से मिलना चाहती थी और पूछना चाहती
थी कि क्या उसने सचमुच उसे नहीं देखा या जान बूझकर अनदेखा किया. दोनों ही
स्थितियां मंजरी को अच्छी नहीं लगीं थीं.
कुछ दिन बाद कबीर कुमार बस स्टॉप पर मिले. उन्होंने फिर अभिवादन में मुस्कुराहट बिखेरी पर मंजरी ने इस भाव से कि वह बहुत व्यस्त है आधी मुस्कान ली और आधी वहीं छोड़ दी. अगर सचमुच उस शाम को कबीर ने उसे न देखा हो तो वह भी क्यों गैरजरूरी उत्सुकता दिखाए. लगातार दो-चार दिन यूं ही आधी-आधी मुस्कानों वाली व्यस्त सी मुलाकात होती रही. पर आज बच्चों की पीटीएम थी और मंजरी को बच्चों के साथ स्कूल जाना था. मंजरी ऑटो रिक्शा का इंतजार कर रही थी कि तभी कबीर कुमार वहां से होकर गुजरे और उन्होंने बस यूं ही शिष्टाचारवश गाड़ी रोक दी. बच्चे चहक कर अधिकारभाव से गाड़ी में बैठने को आतुर हो उठे. लेकिन अभी कुछ गैप रखना जरूरी था. कनक ने बताया कि यह सब सुरक्षा के लिहाज से ठीक नहीं. कबीर ने इसरार किया कि उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी. दोनों का रूट एक ही है. पर फिर भी अगर मंजरी को ठीक न लगे तो वह ज्यादा कुछ नहीं कहेगा. जब तक कबीर की बात के अर्थ और गहरे होते मंजरी और बच्चे गाड़ी में बैठ चुके थे. रास्ते भर हल्की-फुल्की खूब बातें हुई. कनक के कनाडा जाने के बाद से मंजरी के पास खूब सारी बातें थीं जो अब तक सुनी नहीं गईं थीं. वहीं अस्मिता के लोहेपन से कबीर जब तब चोटिल होता रहता था, सो उसे भी एक नर्म आवाज की तलाश नहीं, पर कमी तो थी ही. मंजरी की बातों में नर्मी थी. कबीर के व्यवहार में अब भी एक कोरापन था. दोनों ने खूब बातें कीं.
कबीर ने बताया कि वह कॉलेज में पढ़ाता है.
मंजरी ने बताया
कि वह भी एमबीए है पर परिवार की जिम्मेदारियों को उसने प्राथमिकता दी.
कबीर ने बताया कि उसके दो बच्चे हैं जो उसे बहुत प्यार करते
हैं और उसे रोल मॉडल मानते हैं.
मंजरी ने बताया कि इन दोनों की शैतानियों में उसकी आधी से
ज्यादा मत मारी जा चुकी है.
कबीर ने कहा कि आपको जब भी जरूरत हो आप मुझे बेझिझक कह सकती
हैं.
दोनों ने एक दूसरे के कॉन्टेक्ट नंबर एक्सचेंज किए.
मंजरी ने कहा कि घर में गाड़ी होते हुए भी उसे ऑटो रिक्शा
का वेट करना पड़ता है.
कबीर ने कहा कि अब उसे भी गाड़ी चलानी सीख लेनी चाहिए.
मंजरी ने बताया कि अभी वह सोनू के लिए कोई अच्छी किताब ढूंढ
रही है, कि उसकी ग्रामर बहुत वीक
है.
बातें खत्म न हुईं पर बच्चों का स्कूल आ गया था.... मंजरी
में एक पुलक थी. वह कुछ कुछ हल्की हो रही थी. गाड़ी से उतरते हुए उसने कहा,
''थैंक्यू’’,
कबीर ने कहा, ''सॉरी...’’
मंजरी ने पूछा क्यूं?
''वो उस दिन बाजार में.... अस्मिता साथ थी... आपको देखकर भी
गाड़ी रोक नहीं सका.’’
कानों का भी मुख होता है, यह अहसास आज मंजरी को हुआ. जब उसने बच्चों के सामने कबीर के
इन शब्दों को अपने कानों में जल्दी-जल्दी निगल लिया. बिना कोई रिएक्शन दिए.
जब तक मंजरी स्कूल के भीतर दाखिल हुई उसके व्हाट्सएप पर
मैसेज था. ''अच्छा लगा आपसे
बात करके.’’
यह रोशनदान था, खिड़की थी या गेटवे था... जो भी था कबीर ने मंजरी के लिए खोल दिया था.
मंजरी लिखना चाहती थी, ''मुझे कितना अच्छा लगा, यह मैं बता नहीं सकती.’’ पर नहीं लिखा. और वह सीधे बच्चों के साथ टीचर्स से मिलने
चली गई.
(पांच)
अगली ही सुबह बच्चों के स्कूल जाने के बाद मंजरी ने
प्लास्टिक की रस्सी कूदनी शुरू की. पैरों की धमक अभी अपना कोरस भी पूरा नहीं कर
पाई थी कि निचले कमरे से सासू मां की आवाज आई, ''मंजरी बेटा क्या हो रहा है?’’
''कुछ नहीं मम्मा’’ की धीमी सी आवाज के साथ ही मंजरी ने रस्सी लपेटते हुए वापस ड्रेसिंग टेबल की
ड्राअर में रख दी. और टॉवल उठाए बाथरूम चली गई.
इधर मंजरी सुबह खाली पेट गुनगुने पानी में नींबू और शहद
मिलाकर पी रही थी कि उसी दौरान देवर आरव का रिश्ता तय हो गया. अभी पिछले दिनों जिस
आरव को उसने अपना मोबाइल फोन छेडऩे पर बेतहाशा डांट लगाई थी, उसी की शादी के लिए उसे भरपूर तैयारियां करनी
थीं. अगर वह ऐसा नहीं करेगी तो फिर कनक की डांट कि उसे परिवार संभालना नहीं आया.
कि उसकी ईगो हमेशा नाक पर सवार रहती है.
(छह)उस दिन की बातें न मंजरी भूली थी, न कबीर. कबीर ने मंजरी को मैसेज किया, ''मेरे पास ग्रामर की कुछ अच्छी किताबें हैं. आप चाहें तो ले सकती हैं.’’
मंजरी इन किताबों को लेने कहीं और जाना चाहती थी. पर उसने
बच्चों की स्कूल बस के स्टॉप पर ही तीन में से दो किताबें कबीर से ले लीं. उसे याद
थीं कबीर की कार के डेशबोर्ड पर रखी शेक्सपीयर की किताबें. उसने कुछ संकोच के साथ
उन किताबों के बारे में पूछा.
कबीर ने अगले ही दिन शेक्सपीयर की दो किताबें मंजरी को दे
दीं. कनक कपूर की गृहस्थी के साथ ही एक और जिंदगी थी जो अब मंजरी जीने लगी थी.
शायद कनक भी.
शायद कबीर भी.
कभी-कभी इन दोनों रास्तों में जबरदस्त घर्षण हो जाता. जब
कनक के फोन के बीच में कबीर का मैसेज आ जाता. मंजरी का मन कबीर के मैसेज पर और
आवाज कनक के फोन पर अटक जाती. ज्यूं-ज्यूं मंजरी कनक से लापरवाह हो रही थी कनक की
चौकीदारी मंजरी पर बढ़ती जा रही थी. वह दिन में कई बार मैसेज करके चैक करता कि
मंजरी ऑनलाइन है या ऑफलाइन. मंजरी कभी ऑनलाइन होती, कभी ऑफलाइन. कभी मोबाइल ऑन रह जाता और वह काम में मसरूफ हो
जाती. ऐसे समय में कनक का गुस्सा चौथे आसमान पर पहुंच जाता कि मंजरी की इतनी
हिम्मत की ऑनलाइन होने के बावजूद वह उसके मैसेजेस का जवाब नहीं दे रही है. आखिर यह
टेबलेट, यह मोबाइल, यह घर सब उसी का है. इस सब के साथ ही मंजरी पर
भी उसका मालिकाना हक बनता है. और फिर दोनों के बीच ठीकठाक तकरार होती.
यह तकरार भी जब वह कबीर कुमार को सुनाती तो कबीर के भीतर की
मिट्टी कुछ और नर्म हो जाती. उसे मंजरी की निरीहता पर दया आने लगती. पर हृदय यह
सोचकर भी फूल जाता कि वह जिस डाली को सहला रहा है, वहां छांव भले ही कम है पर कांटे भी तो लगभग न के बराबर हैं.
इधर कबीर की मिट्टी में बढ़ती हुई नमी को देखते हुए अस्मिता
को उसमें फंगस लगने का डर सताने लगा था. वह कबीर की कॉल और मैसेज डिटेल चैक करती.
कबीर यूं तो सीधा साधा था पर न जाने किस रूप में मिल जाएं भगवान की तर्ज पर
अस्मिता को भी नाराज नहीं करना चाहता था. मंजरी के मैसेज कभी भी अस्मिता के लिए
परेशानी का सबब बन सकते हैं, यही सोचकर वह हर
मैसेज दिल में बसा लेता और मोबाइल से तत्काल डिलीट कर देता.
कॉलेज में छात्राओं से घिरे रहने वाले प्रोफेसर का इनबॉक्स
खाली कैसे हो सकता है, यही सोचकर
अस्मिता की शक की सूईं हमेशा कबीर पर गढ़ी रहती. यूं ही अवसाद में अपने शक की सब
कहानियां वह दुखी होकर कौशल को बताती. कौशल वही उद्योगपति था जिससे शादी न कर पाने
का दुख अकसर अस्मिता को सालता रहता था. अस्मिता खाली पीरियड में कबीर के ट्वीट और
एफबी अकाउंट खंगालती. उसके लिखे शब्दों से नए अर्थ खोजने की कोशिश करती. पर हर बार
उसे पहले से ज्यादा लिजलिजापन महसूस होता. वह घृणा से भर जाती. फिर उसे ख्याल आता
बच्चों का. वह चुप लगा जाती. अपने अनुशासन को और कड़ा कर लेती. कि अगर यह भी बाप
जैसे हो गए तो उसकी जिंदगी व्यर्थ हो जाएगी.
(सात)
घर में गहमागहमी का माहौल था. इधर बच्चों के एग्जाम शुरू
होने वाले थे और उधर आरव की शादी के दिन भी नजदीक आ रहे थे. एक मां और भाभी होने
के नाते मंजरी पर बहुत सी जिम्मेदारियां बढ़ गईं थी. बच्चों की रिवीजन के साथ ही
उसे सासू मां के साथ नई बहू के लिए वरी बनाने पर ध्यान देना था. कनक कुछ खास
सामान कनाडा से ही खरीद कर लाने वाला था. तैयारियों में उसने जब मंजरी की ख्वाहिश
पूछी तो मंजरी ने रेड कलर का खूब फूला हुआ वेस्टर्न गाउन मंगवा लिया. ख्वाहिश बहुत
बुरी नहीं थी, लेकिन उन हालात
से मेल नहीं खाती थी, जो कनक कपूर घर
पर छोड़ गए थे. वह लड़की जो जरा सी डांट पर झर झर आंसू बहाती है... और जरा से
प्यार में जिसने एमबीए की डिग्रियां भुला दी, उसमें आज लाल रंग का वेस्टर्न गाउन पहनने की ख्वाहिश क्योंकर
जाग उठी.
सवालों की यही पड़ताल कनक कपूर का दिमाग छलनी किए दे रही थी.
वीकेंड पर सिंध वाली लड़की के साथ कॉफी पीते हुए भी उसे यही बात बार-बार याद आ रही
थी. वह चाहता तो शेयर कर सकता था, लेकिन इससे उसके
आउटडेटेड विचारों की पोल खुल सकती थी. जिन विचारों को लेकर वह सिंध की उस लड़की के
साथ कई डेट्स मना चुका था. उसके चॉकलेटी होंठों के बीच फ्रूट्स एंड नट्स जैसी
खिलती मुस्कान से उसे अहसास होता कि उसने अगर शादी के लिए थोड़ा और इंतजार कर लिया
होता तो मुमकिन है कि ऐसी कोई लड़की आज परमानेंट उसकी बाहों में होती.
(आठ)
कनक कपूर जब ढेर सारा सामान लेकर भाई की शादी के लिए अपने
घर वापस लौटा तो उस सामान में खूब फूला हुआ रेड वेस्टर्न गाउन तो नहीं था पर दहकते
सवालों वाली आंखें थीं. वह और सतर्क हो गए. मंजरी की पुलक उनमें अजीब सी चिढ़ भर
देती. वह जब किसी भी छोटी-बड़ी गलती के लिए मंजरी को डांटते तो वह हल्की मुस्कान
के साथ उस काम को फिर से दुरुस्त कर देती. कनक को पहले मंजरी के रोने से कोफ्त तो
होती थी पर एक सुरक्षा भाव भी था कि मंजरी जब भी रोएगी, कनक का कंधा
ढूंढेगी. पर अब उसका यूं मुस्कुरा देना उसे छील जाता था. वह घुमा फिराकर मंजरी से
कई सवाल पूछता. मंजरी अपनी किताबें पढ़ने में बिजी रहती. कनक का मन करता कि वह उसकी
किताबें उठा फेंके.
कनक ने जो टेबलेट मंजरी को रेसिपीज सर्च करने के लिए दिया
था मंजरी अब उससे ऑन लाइन किताबें सर्च करती और पढ़ती रहती. कनक मंजरी के तन मन की
तलाशी लेना चाहता था. कि कौन है जिसने इस लाचार सी, बेसुध सी लड़की में फिर से पुलक भर दी है. पर मंजरी ने
पासवर्ड सेट कर दिया था, जिसका पता न
बच्चों को था, न सास ससुर को और
न ही कनक को. मंजरी की यह तालाबंदी कनक की बर्दाश्त के बाहर हो रही थी. उसने
मोबाइल उठाया, पासवर्ड डाला
.... इस बार पासवर्ड न ‘सोनूनॉटीमोनू’
था, न ‘कनकमायल’. कनक कपूर तीसरा पासवर्ड ट्राई कर ही रहे थे
कि मंजरी ने झट से उनके हाथ से मोबाइल छीन लिया और मोबाइल छीनते हुए मंजरी के
शार्प, पेंटेड नाखून कनक कपूर की
हथेली छील गए.
तड़ाक! कनक कपूर ने खुन्नस भरा एक जोरदार तमाचा मंजरी के
गाल पर जमा दिया. जब तक कनक दूसरे चांटे के लिए अपना हाथ उठाता मंजरी मुस्कुराते
हुए किताब और मोबाइल हाथ में लिए कमरे से बाहर चली गई. मुस्कान भी ऐसी कि जैसे
लिखा हो ‘रान्ग पिन एंटर्ड”
आज फिर सांदली रानी की देह से चंदन की खुशबू उठ रही है. यह
खुशबू किसकी है सुनार की..., कुम्हार की...
या पलकें खोल रही रानी की अधूरी कामनाओं की....
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कहानी संग्रह : क्लीन चिट,
उपन्यास : ख्वाहिशों के खांडववन
उपन्यास : ख्वाहिशों के खांडववन
भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार, हंस कथा सम्मान आदि
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