भाष्य : मंगलेश डबराल का घर और ‘न्यू ऑर्लींस में जैज़' : शिव किशोर तिवारी



देखते-देखते हम सबके प्रिय मंगलेश डबराल ७० साल के हो गए. अगर कवि अपनी लिखी जा रही कविताओं में ज़िन्दा है तो उसकी उम्र का एहसास नहीं होता. मंगलेश सक्रिय हैं और कविताएँ भी लिख रहे हैं. इस यात्रा में उनकी कविताओं के शिल्प, कथ्य और सरोकार में बदलाव लक्षित किये जा सकते हैं.  

मंगलेश के पहले कविता संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन’ (१९८१) की कविता ‘घर’ और २०१३ में प्रकाशित उनके नवीनतम कविता संग्रह ‘नये युग में शत्रु’ (२०१३) की कविता न्यू ऑर्लींस में जैज़ को आमने सामने रखकर यही देखने की कोशिश कर रहे हैं शिव किशोर तिवारी.

इन दोनों कविताओं को आप पढ़ेंगे ही, इस विवेचना में गर आप भी कुछ जोड़ सकें तो यह संवाद सार्थक होगा.  


मंगलेश डबराल का  'घर'  और  'न्यू ऑर्लींस में जैज़'                        
शिव किशोर तिवारी




घर
मंगलेश डबराल



यह जो हाथ बांधे सामने खड़ा है घर है

काली काठ की दीवालों पर सांप बने हैं
जिन पर पीठ टेकने के निशान हैं
इनमें दीमकें लगी हैं
जो जब चलती हैं पूरा घर कांपता है

इसमें काठ का एक संदूक है
जिसके भीतर चीथड़ों और स्वप्नों का
एक मिला-जुला अंधकार है
इसे पिता ने दादा से प्राप्त किया था
और दादा ने ख़ुद कमाकर

घर जब टूटेगा बक्स तभी उठेगा

कई बच्चे बड़े हुए इस घर में
गिरते पड़ते आख़िरकार
खाने-कमाने की खोज में तितर-बितर होते हुए
यहां कुछ मौतें हुईं
कुछ स्त्रियां रोईं इस तरह
कि बस उनका सुबकना सुनाई दे
कुछ बहुत पुरानी चीज़ें अब भी बजती हैं घर में

दिन-भर लकड़ी ढोकर मां आग जलाती है
पिता डाकख़ाने में चिट्ठी का इंतज़ार करके
लौटते हैं हाथ-पांव में
दर्द की शिकायत के साथ
रात में जब घर कांपता है
पिता सोचते हैं जब मैं नहीं हूँगा
क्या होगा इस घर का.

_________________


ह कविता 1975 में लिखी गई और डबराल के पहले संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन' (1981) में संकलित है.


पहली पंक्ति में "हाथ बांधे खड़ा है" मानवीकरण का बिम्ब है. घर सेवा को तत्पर, अति विनयी, संभवतः कुछ निरीह व्यक्ति की तरह है. घर कभी मज़बूत था और एक भरे-पूरे परिवार का आश्रय था, अब वह इतना जर्जर हो गया है कि काठ में लगी दीमकें चलती हैं तो वह कांपता है. उसमें केवल एक वृद्ध दंपति रहते हैं, मन में यह आशा लिए कि बाहर कमाने- खाने का हीला खोजने गये बच्चे लौटकर आयेंगे. घर और वृद्ध दंपति एक दूसरे का आईना हैं.


'हाथ बांधे' का अर्थ यदि with arms folded लें तो उसमें प्रतीक्षा की व्यंजना हो सकती है. पहाड़ की ठंड में सीने पर हाथ बांधकर शरीर की गरमी को सुरक्षित रखते हुए व्यक्ति का चित्र भी उभरता है.


पहले वाक्य की संरचना भी देखनी होगी - वह जो सामने खड़ा है घर है.' एक घर नहीं , सिर्फ़ घर. पहाड़ का लकड़ी से बना पुरानी चाल का एक घर जो प्रतिनिधि घर भी है. ख़ाली होते पहाड़ों का घर. पलायन-प्रब्रजन का प्रतीक घर.


काठ के संदूक का बिम्ब कमज़ोर है. साधारण, बहुप्रयुक्त बिंब है. चीथडों और सपनों का मिश्रित अंधकार भी काफ़ी निर्जीव है और विशेष प्रभावोत्पादक नहीं है. पर इस खंड की आख़िरी पंक्ति 'जब घर टूटेगा बक्स तभी उठेगा जानदार है. पुराने घरों का सुपरिचित अनुभव है. संदूक तत्स्थान में बनाये जाते थे. फिर उनके बाहर निकलने जितना चौडा कोई दरवाज़ा नहीं होता था. संदूक घर की आत्मा की तरह है, पीढ़ियों का इतिहास छिपाये. वह घर के ढहने तक बाहर नहीं निकलने वाला.


घर के इतिहास में कुछ बातें साधारण है. दुनिया के सभी घरों की तरह उसमें जन्म हुए, मरण हुए. मृत्यु पर स्त्रियां ऊंची आवाज़ में नहीं रोतीं. संभवतः कुलीन ढंग का शोक है या मृत्यु का स्वीकार इस समाज में अधिक सहज है. फिर एक अप्रसंग पंक्ति- " बहुत कुछ पुरानी चीजें अब भी बजती हैं घर में." कौन सी पुरानी चीजें यह स्पष्ट नहीं हैं, पर हम कल्पना कर सकते हैं कि किसी घर से आने वाली आवाज़ें - लोगों की बातें, बच्चों का शोर, पूजा की घंटी, दीवाल घड़ी की टिक टिक,लकड़ी की संधियों में हवा की सीटी, फूल का बरतन गिरने की आवाज़, गाना- बजाना . बहुत कुछ खो गई हैं पर पर कुछ अब तक जीवित हैं. कुछ की स्मृति जीवित है.


दिन भर लकड़ी जमा करती मां, बच्चों की चिट्ठियों की निष्फल प्रतीक्षा करते पिता इन बिंबों में भी नयापन नहीं है.


लेकिन अंतिम बिम्ब इतना प्रभावोत्पादक है कि सारी कविता में वही याद रह जाता है -

रात में जब घर कांपता है
पिता सोचते हैं जब मैं नहीं हूँगा
तो क्या होगा इस घर का.

सबसे पहले ऑयरनी चोट करती है. एक जर्जर घर, संपत्ति के हिसाब से जिसका कोई मूल्य नहीं, उसके भविष्य की चिंता में ही विद्रूप की छाया है. फिर ख़याल आता हि कि यह घर जो एक जीवनशैली, एक सभ्यता, एक संस्कृति का प्रतीक है उसकी चिंता इतनी हल्की चीज़ तो नहीं है. शिल्प की दृष्टि से उल्लेखनीय न होने के बावजूद यह अत्यंत आकर्षक कविता है.



न्यू ऑर्लींस में जैज़
मंगलेश डबराल



शराब की जो बोतलें अमेरिका में भरी हुई दिखी थीं
वे यहां ख़ाली और टूटी हुई हैं
सड़कों के किनारे बिखरे हुए नुकीले कांच और पत्थर
जैज़ जैज़ जैज़ एक लंबी अछोर गली
दोनों तरफ़ गिलासों के जमघट उनमें शराब कांपती है
लोग उसमें अपनी तकलीफ़ को रोटी की तरह डुबोकर खाते हैं
गोरा होटल का मैनेजर कहता है उधर मत जाइए
वहां बहुत ज़्यादा अपराध है
यहां के टूरिस्ट निर्देशों को ग़ौर से पढ़िए
अमेरिका के पांच सबसे हिंसक शहरों में है न्यू ऑर्लींस

चंद्रमा अपने सारे काले बेटे यहां भेज देता है
रात अपनी तमाम काली बेटियां यहां भेज देती है
यहां तारे टूटकर गिरते हैं और मनुष्य बन जाते हैं
जैज़ जैज़ जैज़ नशे की एक नदी है मिसीसिपी
फ़्रेंच क्वार्टर में तीन सौ साल पहले आये थे ग़ुलाम
अफ़्रीका से भैंसों की फ़ौज१ की तरह लाए हुए
जैसे ही कोड़ों की मार कुछ कम होती
वे फिर से करने लगते गाने और नाचने का अपना प्रिय काम
उन्हें हुक्म दिया जाता मेज़ पर नहीं रसोईघरों में खाओ२
वे हंसते हुए जाते खाते और नाचते
एक चतुर क्रूर सभ्यता के लिए उन पर शासन करना कितना कठिन
उनके लिए बने सारे नियम और वे तोड़ते रहे सारे नियम
आते और जाते हैं कितने ही अत्याचारी
फ़्रांसीसी स्पेनी अमरीकी इंसानों के ख़रीदार
समुद्र से उठते हुए कितने ही तूफ़ान
हरिकेन बेट्सी रीटा कैटरीना
तब भी प्रेम की तलाश ख़त्म नहीं होती इस दुनिया में
जहां हर चीज़ पर डॉलर मे लिखी हुई है उसकी क़ीमत


अब क्लैरिनेट के रंध्रों से अंधेरा बह रहा था
ट्रम्पेट के गले से रुंधी हुई कोई याद बाहर आ रही थी
जब सैक्सोफ़ोन के स्वर नदी के ऊपर घुमड़ रहे थे
एक ट्रोंबोन इस शहर के दिल की तरह चमक रहा था
मुझे दिखा एक मनुष्य काला वह ब्रेड खा रहा था
वह हंस रहा था बढ़ रहा था मेरी तरफ़ हाथ मिलाने के लिए
उसके मुंह में हंसी तारों जैसी चमकती थी
उसे बुलाती हुई दूर से आई एक स्ट्रीटकार
उसका नाम था डिज़ायर३
दूर एक होटल में टूरिस्टों का इंतज़ार कर रहा था
डरा हुआ गोरा मैनेजर.
(2005)
____________


१. अश्वेत ब्लू गीत ‘बफ़ेलो सोल्जर कॉट इन अफ्रीक़’
२. प्रसिद्ध अमेरिकी अश्वेत कवि लैंग्स्टन ह्यूज़ की एक कविता पंक्ति
३. टेनेसी विलियम्स का प्रसिद्ध नाटक अ स्ट्रीटकार नेम्ड डिज़ायर. यह ट्राम अब भी न्यू ऑर्लींस में चलती है.




विता न्यू ऑर्लेंस के बारे में है तो जैज़, अश्वेत अमेरिकी और हरिकेन कैटरीना तो होना ही चाहिए.  तीनों हैं. एक अश्वेत कवि की एकाध पंक्ति  भी होनी चाहिए. है जी. न्यू ऑर्लेंस की पृष्ठभूमि पर लिखी किसी जानी-मानी साहित्यिक कृति का उल्लेख होना चाहिए. है न!

आप न्यू ऑर्लेंस में बैठकर रिपोर्टिंग कर रहे हों, बेसबॉल की कमेंट्री कर रहे हों या देश में  पीछे छूट गये प्रियजन को पत्र लिख रहे हों, इतना ज़रूर  लिखेंगे.

लेकिन कविता में आप शहर का कोई अनुद्घाटित पक्ष उभारेंगे. कुछ ऐसा लिखेंगे जो कविता के मुहावरे में कवि की पंचेन्द्रिय और मन पर पड़े विलक्षण चित्रात्मक प्रभावों को अभिव्यक्ति देता हो. चलिए डबराल की कविता में कविता की खोज करते हैं.




पहला चित्र
सड़कों पर तोडी हुई शराब की बोतलों के टुकड़े हैं. एक लंबी और चक्करदार गली जिसमें  2005 में भी जैज़ संस्कृति का प्रसार दिखाई देता है. सड़क की दोनों तरफ़ शराब के गिलासों की क़तार जिनमें रोटियों की तरह डुबोकर लोग अपने दुःख खाते हैं. बड़ा अटपटा सा बिंब है. पर स्पष्ट है कि वाचक इस वक़्त शहर के अश्वेत इलाक़े में है जिसमें जाने को होटल के गोरे मैनेजर ने मना किया था. शराब गिलासों में है तो पीने वाले लोग भी होंगे. कहीं बेकारी और ख़ालीपने की व्यंजना है इन पंक्तियों में. तोड़ी गई बोतलों का कांच और नुकीले पत्थर दिखाते हैं कि साधारण मिडिल क्लास के आदमी को होटल के मैनेजर की बात सही लगती. परंतु वाचक को मैनेजर का नज़रिया पूर्वाग्रह-ग्रस्त लगता है. वह मैनेजर की सलाह को ख़ारिज करके इस इलाक़े में आया है. जैज़ जैज़ जैज़ एक लंबी कठिन अछोर गलीसे यह भी प्रतीत होता है कि वाचक को इस परिवेश में एक सांस्कृतिक जीवंतता दिख रही है, परंतु इसका कोई चाक्षुष बिंब नहीं प्रस्तुत किया गया है. पाठक को यह स्पष्ट अनुभूति नहीं होती कि वाचक का नज़रिया किस प्रकार अलग है. पाठक के मन में यह सवाल भी जागता है - गोरों के इलाक़े में ठहरे ही क्यों?






आगे चलते हैं 
चंद्रमा के काले बेटे और रात की काली बेटियाँ  यहीं भेज दी जाती हैं. बहुत ढूंढ़कर भी चंद्रमा के बेटों और रात की बेटियों का कोई मिथकीय उत्स नहीं मिला. कवि की कल्पना है तो कहना होगा कि ये खिझाऊ रूपक इस इलाक़े में बसे काले लोगों के लिए कोई समानुभूति नहीं जगाते, बल्कि कवि की संवेदनशून्यता ही दिखाते हैं. चंद्रमा और रात के बेटे-बेटियों के रूपक से क्या अभिप्रेत है? किनसे कंट्रास्ट व्यंजित है सूरज के बेटों और दिन की बेटियों से? इन रूपकों में क्या है जो मालिकों और दासों को अलग करता था और गोरों और कालों को वर्तमान में अलग करता हैक्या कवि प्रकृति या भाग्य की बात कर रहा है ? संभव तो नहीं लगता. फिर क्या कवि ने वैसे ही जो मन में आया लीप दिया?


यहां तारे टूटकर गिरते हैं तो मनुष्य बन जाते हैं. हालांकि तारे टूटकर धरती तक पहुँचे तो बड़े- बड़े गड्ढे बनेंगे पर हम मान लेते हैं कि यह बिम्ब सूचित करता है कि शहर  विस्थापित या अपने मूल से उखडे लोगों का आश्रय है. ये सभी मिसिसिपी के प्रवाह में व्याप्त अफ़्रीकी मूल से उपजी जैज़ संस्कृति के वाहक हैं.  दो पंक्तियों में 300 वर्ष पूर्व काले ग़ुलामों का आगमन और अगली दो पंक्तियों में अत्यंत कठिन परिस्थितियों में उनका अपने गीत-नृत्य को जीवित रखना वर्णित है. यह हिस्सा अभिधात्मक है, कविता के काम का ख़ास कुछ नहीं है.

लगी-लगी एक पंक्ति आती है जिसे कवि ने अलग से नोट लिखकर लैंग्स्टन ह्यूज़ की कविता की पंक्ति बताया है -

"उन्हें हुक्म दिया जाता मेज़ पर नहीं  रसोई घरों में खाओ".

इस पंक्ति में कौन-सा भयानक अन्याय व्यक्त हुआ है समझ में नहीं आया. उस समय यूरोप के या अमेरिका के ही श्वेत नौकर क्या मालिक की डाइनिंग टेबल पर खाते थे और केवल अमेरिकी काले ग़ुलाम किचेन में खाते थे? हमारे देश में नौकर कहाँ खाते हैं? डबराल के घर में क्या व्यवस्था है? इस बात से उद्वेलित क्यों हुआ हमारा कवि?
मैं ह्यूज़ की पंक्तियां आपके सोचने के लिए छोड़ जाता हूं  -



" I too sing America.

I am the darker brother.
They send me to eat in the kitchen
When company comes,
But I laugh,
And eat well
And I grow strong." (1926)


अमेरिका के हाथ में आने के पहले न्यू ऑर्लेंस फ्रांस और स्पेन के अधिकार में रहा था. वाचक कहता है कि इन सभी आततायियों के क़ानूनों को व्यर्थ करके काले लोगों ने अपनी संस्कृति को जिलाए रखा क्योंकि "प्रेम की तलाश ख़तम नहीं होती इस दुनिया में."


इसके बाद जैज़ के वाद्यों के उल्लेख के साथ कुल चार पंक्तियों में संभावित कथ्य को प्रतिबिंबित किया गया है कि अकल्पनीय अत्याचारों के शिकार दासों ने नगर की संस्कृति को बदल दिया.

फिर काव्यसंग्रह के शीर्षक वाली दो पंक्तियां-

"मुझे दिखा एक मनुष्य काला वह ब्रेड खा रहा था
हंस रहा था बढ़ रहा था मेरी तरफ़ हाथ मिलाने के लिए"


आप कृपा करके कह रहे हैं  काला भी मनुष्य है या काले लोग पान की तरह ब्रेड चबाते रहते हैं  या क्या कहना चाहते हैं? या कहना है कि गोरे मैनेजर ने आपको गुमराह किया, दरसल यहाँ के काले लोग विदेशियों को देखते ही हाथ मिलाने दौड़ते हैं?

हाथ मिलाना हुआ कि नहीं  हुआ स्पष्ट नहीं है पर इसी बहाने "ए स्ट्रीटकार नेम्ड डिज़ायर" का उल्लेख करने का अवसर मिल गया. और आख़िरी पंक्तियां-

"दूर एक होटल में टूरिस्टों का इंतज़ार  कर रहा था
डरा हुआ गोरा मैनेजर."

जब कालों में ही रुचि थी तो इतनी दूर सुरक्षित गोरों के इलाक़े में रुके क्यों मियां?

कविता के बिंब आदि अनाकर्षक और बलात् नियोजित हैं इसका संकेत ऊपर दिया जा चुका है. चांद और रात के काले बेटे-बेटियों के रूपक के अलावा दासों के लिए एक उपमा भी है भैंसों की फ़ौज. कवि ने नोट लिखकर बताया है कि यह उपमा न होकर एल्यूज़न है –“अश्वेत ब्लू गीत बफ़ेलो सोल्जर कॉट इन अफ्रीका’”. संभवत: बॉब मार्ली के गीत बफ़ेलो सोल्जरसे अभिप्राय है. परंतु गीत का संदर्भ ज़रूरी नहीं है. जब 1866 में क़ानून बनाकर काले सिपाहियों की भर्ती अमेरिकी सेना में की गई तब उन्हें नेटिव इंडियन लोगों का ख़ात्मा करने के लिए नियुक्त किया गया. 


इन सैनिकों के घुंघराले (शायद चोटियों वाले) बालों की वजह से इंडियन इन्हें बफ़ेलो सोल्जरबुलाने लगे. यह बफ़ेलो दरअसल भैंसा नहीं था, बल्कि अमेरिकन बाइसन था जिसे हिंदी में गौर कह सकते हैं. बॉब मार्ली का गीत अमेरिकन अश्वेतों के इस कुकृत्य का अपोलोजियाहै. इस एल्यूज़न से कविता की विषयवस्तु का क्या संबंध है? वैसे भी कविता में भैंसों की फ़ौज की तरहलिखा है जिसे एक घटिया कोटि की उपमा ही मानना पड़ेगा.


बिंब भी अद्भुत हैं तकलीफ़ को रोटी की तरह शराब में डुबोकर खाना, तारे टूटकर गिरते हैं और मनुष्य बन जाते हैं, ब्रेड खाता हुआ काला आदमी सब एक से एक ! अब एल्यूज़न(allusion) पर नज़र डालिए. एक ह्यूज़ की कविता  I Too Sing America का है. अलग से टिप्पणी डालकर कवि ने समझाया है कि उसने ह्यूज़ की कविता से एक पंक्ति ली है. यह सही नहीं है. पंक्ति नहीं ली बल्कि दो पंक्तियों का भाव लिया है. फिर 1926 में रंगभेद के बारे में लिखी कविता को दासों से कैसे जोड़ दिया? दास लोग सारे के सारे मालिक के किचन में खाते थे (डाइनिंग टेबुल को तो अलग ही रखो) ? दूसरा एल्यूज़न टेनेसी विलियम्स के नाटक A Streetcar Named Desire का है. इसका तो इस कविता के कथ्य (वह जहां भी छिपा हो) से दूर-दूर तक का संबंध नहीं है, न कविता के किसी हिस्से से यह एल्यूज़न जुड़ता है.




निष्कर्ष 

कहने को कुछ था. जैज़ एक बड़ी सांस्कृतिक घटना थी. दासों ने मालिकों की संस्कृति को पलट दिया. यही कथ्य कविता को प्राणवान बना सकता था लेकिन कवि ने इसे साधारण ढंग से चार पंक्तियों में चलता किया है. बाक़ी की 34 पंक्तियों में इधर-उधर की बातें, इतिहास, जिजीविषा का महत्त्व, बाज़ारवादहिंदी के भुच्च पाठकों का ज्ञानवर्धन आदि पर ज़ोर है. इतिहास लिखना था तो 500 पंक्तियों की कविता लिखते. 38 पंक्तियों में इतना ज्ञान

इस कविता से 30 साल पहले लिखी कविता “घर” में शिल्प इतना शक्तिशाली नहीं है पर एक प्रामाणिक आंतरिकता है जो उसे मोहक बनाती है। “न्यू ऑर्लींस में जैज़” में शिल्प केवल कमज़ोर नहीं है, हास्यास्पद है और प्रामाणिकता की जगह हवा भरी है; परिणाम – फुस्स्स!
_______________
शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदीअसमियाबंगलासंस्कृतअंग्रेजीसिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk@yahoocom 

                       

20/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-08-2018) को "सीख सिखाते ज्येष्ठ" (चर्चा अंक-3070) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. मंगलेश डबराल20 अग॰ 2018, 11:54:00 am

    मेरे जन्मदिन की बधाई देने वाले दोस्तों को बहुत धन्यवाद, हालाँकि वह सोलह मई की बीती हुई बात हो गया है. कविता में सामाजिक चेतना को शुद्ध, कल्पना-विहीन तार्किकता की आँखों से देखने पर क्या नतीजे होते हैं, यह आलेख इसका एक सुन्दर उदाहरण है.. मैं शमशेर नहीं हूँ, लेकिन याद आता है, बहुत पहले एक आलोचक ने उनकी कविता पंक्ति 'फूल से बिछुड़ी हुई पंखुड़ी/आ फिर फूल पर लग जा' के बारे में कहा था कि शमशेर भी क्या फालतू बातें लिखते रहे.

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  3. कविवर ने‌ं अाज ही फेसबुक पर लिखे हैं अाज उनका जन्मदिन नही है ऽऽऽ लेकिन शुभकामनाएँ ताे हरबार देनेका माैका कहाँ मिलता है ऽऽऽ डबराल महाेदयऽऽऽ इसि बहाना से शुभकामनाएँ स्वीकारिए ऽऽऽ

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  4. महेश वर्मा20 अग॰ 2018, 5:31:00 pm

    अब क्लैरिनेट के रंध्रों से अंधेरा बह रहा था
    ट्रम्पेट के गले से रुंधी हुई कोई याद बाहर आ रही थी
    जब सैक्सोफ़ोन के स्वर नदी के ऊपर घुमड़ रहे थे
    एक ट्रोंबोन इस शहर के दिल की तरह चमक रहा था
    मुझे दिखा एक मनुष्य काला वह ब्रेड खा रहा था
    ***
    करीब बत्तीस वर्षों के अंतराल में प्रकाशित कवि के पाँच संग्रहों में से ये दो कविताएँ चुनने के पीछे टिप्पणीकार की कोई सुविचारित दृष्टि है या यह एक यादृच्छिक चयन है, टिप्पणी इस बारे में चुप है।
    कविता पढ़ने की एक मनोरंजक शैली अपनाई गई है जहाँ टिप्पणीकार कविता के बिम्बों की एक सूची लेकर बैठा है और मानो एक ऊंची सी जगह से उनपर फैसला सुनाता चलता है-यह पुराना बिम्ब है, यह बेकार, यह ठीक है, यह अर्थहीन,यह समझ नहीं आता..वगैरह वगैरह।वह कविता को टुकड़ा टुकड़ा पढ़कर हर अंश में एक संपूर्णता खोज रहा है।पूरी कविता अपने समग्र में क्या प्रभाव छोड़ रही है इससे टिप्पणीकार को कोई मतलब ही नहीं है।
    इसबीच वह अपने काव्यविवेक का मनोरंजक प्रदर्शन करता चलता है, मसलन-"यहाँ तारे टूटकर गिरते हैं तो मनुष्य बन जाते हैं.हालांकि तारे टूटकर धरती तक पहुंचे तो बड़े बड़े गड्ढे बनेंगे पर हम मान लेते हैं कि..."
    सिर्फ़ तारे टूटकर गिरने की खगोलीय घटना की ही बात करें तो इससे कितनी काव्यात्मक मान्यताएँ, मुहावरे और लोकविश्वास जुड़े हैं या तो टिप्पणीकार को उनका ज्ञान नहीं है या उसका ध्यान गड्ढों की ही ओर है।ऐसे पाठक के सामने अगर राजनीतिज्ञों द्वारा अनगिनत बार उद्धरित दुष्यंत का यह सरल सा शेर आ जाये-
    कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
    एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

    तो वह (पाठक) अपनी प्राथमिक शिक्षा दीक्षा की बिना पर यही कहेगा कि मियाँ आकाश कोई झीनी चादर नहीं है कि पत्थर उछालने से उसमें सुराख़ हो जाये।सही कहा , पत्थर गुरुत्वाकर्षण के नियम से या तो वापस धरती पर गिरेगा या अबोध पाठक के सर पर। ऐसे ही टिप्पणीकार पूछता चलता है-"मियाँ आप गोरों के इलाके में ठहरे ही क्यों?"
    बहुत पुरानी बात है लेकिन इसे दोहरा ही दिया जाना चाहिए कि आई ए रिचर्ड्स ने अपने निबंध-साइंस एंड पोएट्री में समझाया है कि साइंटिफिक ट्रुथ और पोएटिक ट्रुथ में अंतर होता है।वैज्ञानिक ट्रू स्टेटमेंट देते हैं जबकि कवि सूडो स्टेटमेंट और यह सूडो स्टेटमेंट भौतिक और वैज्ञानिक जगत में सत्यापित नहीं किया जाता,यह यूनिवर्स ऑफ डिस्कोर्स में ही सच होता है।
    अश्वेतों को रसोईघर में ही खाने के आदेश को टिप्पणीकार इस आधार पर ग़लत नहीं मानता कि ऐसा तो होता ही और ध्वनित यह भी होता है कि ऐसा ही चलता भी रहे तो क्या हर्ज़ है। एक बेहतर और बराबरी के संसार का स्वप्न भी,निश्चय ही इस टिप्पणीकार के लिए एक अपरिचित सी चीज़ है।
    आश्चर्यजनक नहीं है कि बाइबिल से बहुधा उद्धरित शराब में रोटी डुबोकर खाने का लोकप्रिय बिम्ब भी उसकी जानकारी में नहीं है न यह आश्चर्यजनक है कि उसे चंद्रमा और रात के बेटे बेटियों से संबंधित मिथक ढूंढे नहीं मिलते।सर्वसुलभ विकिपीडिया बताता है कि बुध को चन्द्रमा का पुत्र माना गया है जिसे चंद्रमा और उसकी गुरुपत्नी तारा ने जन्म दिया है।विश्वमिथकसरित्सागर पृष्ठ 345 पर रमेश कुंतल मेघ ने हम हिंदीभाषियों और सरलता के अन्वेषकों के लिये खगोल मंडल से जुड़े मिथकों पर सविस्तार लिखा है जहाँ सूर्य,चंद्र आदि के विवाह और संतानों के बारे में दुनिया भर के मिथक मिल जाएँगे।
    लेकिन सवाल यह है कि क्या कवि को पहले ही से प्रचलित मिथकों में से ही कुछ को चुनने की बाध्यता है या वह अपनी कल्पना,संवेदना और विश्वदृष्टि से चन्द्रमा, दिन और रात के काले गोरे बेटे बेटियों जैसे पात्र गढ़ भी सकता है?
    अगर सत्तर वर्ष पूरा कर चुके और पाँच अच्छे संग्रह प्रकाशित कर चुके कवि के कविकर्म के लिए "लीप दिया" जैसी अभद्र टिप्पणी को नज़रंदाज़ कर भी दिया जाए तो भी यह पूरी टिप्पणी विवेकहीन और पूर्वाग्रह से भरे वाक्यों से ही बनी है।क्या और कितना लिखा जाए?ग़ालिब होते तो कहते-
    दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़बाँ और।

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  5. Mahesh Verna जी
    1. यूकेरिस्ट के संदर्भ के बारे में विचार करूँगा। इस सलाह के लिए धन्यवाद।

    2.चंद्रमा के हरे बैटे बुध को ज्योतिष से खींचकर लायें भी तो चंद्रमा के बेटों और रात की बेटियों का रूपक सिद्ध नहीं होता। यह बात मानने में असमर्थ हूँ।

    3. ह्यूज़ की कविता पढिये। वह एक ह्वाइट कालर नीग्रो के बारे में है जो (1926 में) गोरों के साथ थोड़ा बहुत उठता- बैठता था फिर भी अतिथि, मित्र या रिश्तेदार घर में हों तो गोरा उसे खाने के लिए किचन में भेज देता था। यह कविता दास लोगों के बारे में नहीं है। दास लोग (घर में स्थायी रूप से नियुक्त नौकरों को छोड़कर) किचेन में घुस नहीं सकते थे। डबराल ने कविता को ग़लत समझा।

    4. " लीप दिया" एक मुहावरा है इसमें अभद्र कुछ नहीं है। इसका मतलब बनता हुआ ख़राब कर देना।

    बाक़ी गाली-गलौज का क्या उत्तर दूं?

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  6. काले दास अफ्रीका से लाये गए थे, इसीलिये अमेरिकी अश्वेतों को 'एफ्रो-अमेरिकन कहा जाता है और अफ्रीका में कहीं बाईसन नहीं था. वह अमेरिकी आदिवासियों का पालतू पशु था जिसे गोरों ने ख़त्म कर दिया. बॉब मारली का गीत है:'buffalo soldier caught in africa/ brought to amerca.' और जब 'आँख का तारा' एक मुहावरा हो सकता है तू चन्द्रमा के बेटे-बेटियाँ क्यों नहीं? लेखक महोदय को अपनी तथ्यात्मक जानकारी ठीक करनी चाहिए.

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  7. अफ्रीका में बाइसन होता है पर बफेलो सोल्जर नाम इंडियन लोगों ने दिया। अमारिकन बाइसन को फिरंगी लोग बफ़ेलो समझे। अमेरिका में यही नाम चल गया। उसका अनुवाद भैंसा करना सही नहीं। वैसे भी आपने "भैंसों की फ़ौज की तरह" लिखा है महिष सैनिक जैसे रूपक का व्यवहार नहीं किया है। इससे फ़र्क पड़ता है। मार्ली के गीत में stolen from Africa लिखा है शायद। आंख का तारा आसमान वाल स्टार नहीं है पुतली है। बच्चों जैसे तर्क मत दीजिये।

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  8. To Mahesh Verma कविता को स्थापित किये बिना आप आलोचना की समीक्षा नहीं कर सकते।
    दूसरी बात यह कि आलोचक कवि से कि वह किस कविता की समीक्षा करे इसके लिए क्या कवि की पसंदीदा कविता की हस्ताक्षरित प्रति ले!

    किसी भी दोयम दर्जे के टेक्स्ट पर मिथक थोपकर आप उसे महान बताने की व्याख्या नहीं कर सकते.
    शराब में रोटी डुबाकर खा रहे लोग यदि बिब्लिकल बिम्ब है तो यहाँ उसकी क्या ध्वनि निकलती है?
    कवि के टेक्स्ट में कहीं भी चंद्र और बुध के मिथक का कोई चिह्न भी है? मुझे तो लगता है कवि खुद ही इन बिम्बों से सर्वथा अपरिचित है इसलिए कविता इतने फूहड़ ढंग से लिख रहा है जैसे बिम्ब नहीं पत्थर मार है. किसी भी बिम्ब का निर्वाह कवि कविता के अंत तक नहीं करता.
    इतना अत्याचार करने के बाद भी जब कवि को चैन नहीं पड़ता तो टेनेसे के नाटक के ले आता है. इसका वहां क्या औचत्य है नहीं पता. शायद कवि ने वह भी नहीं पढ़ा क्योंकि कवि के उपयोग से ऐसा लग रहा है जैसे वह किसी मोटरकर को इच्छा से जोड़कर बता रहा है.

    कविता की समीक्षा उसकी उम्र और उसके कितने संग्रह आये है यह देखकर करना चाहिए यह किस शास्त्र में लिखा है.
    कवि अधिक उम्र का होने पर सीनियर सिटीजनवाली पेंशन तो मांग सकता है मगर अपनी फूहड़ कविता के लिए उसे अच्छा बतानेवाली समीक्षा नहीं.

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  9. Ammber Pandey कवि कुछ नहीं मांग रहा। इस टिप्पणी का पाठक एक शिष्ट भाषा मांग रहा है।अगर कोई 500 कविताओं में से 2 चुनता है तो उसे बताना चाहिए कि यही दो क्यूँ?क्या वह इन दो कविताओं को प्रतिनिधि मानता है?अगर सुलभ हो तो हस्ताक्षरित प्रति लेने में भी कोई अपमान नहीं है।
    मिथकों के विषय में यह नहीं लिखा कि कविता में उनका कैसा इस्तेमाल हुआ है, लिखा यह है कि टिप्पणीकार को चंद्र, सूर्य, दिन के पुत्र-पुत्रियों के मिथक ढूंढे कैसे न मिले।
    महान कोई नहीं बता रहा, बताया यह जा रहा है कि टिप्पणी करने का यह तरीका कमज़ोर और चलताऊ है।
    कविताएँ कहीं से फूहड़ नहीं हैं।बस इनमें रीतिकाल और छायावाद का तड़का नहीं है ��
    तारे टूटकर धरती पर गड्ढे बना देने वाली वीक्षा पर आप कुछ कह नहीं रहे, न अश्वेतों को रसोई में ही खिलाने की ग़ैरबराबरी पर आपने कुछ कहा न इसपर कि मियाँ आप गोरों के इलाके में ठहरे ही क्यों?

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  10. कवितायेँ इसलिए फूहड़ है क्योंकि अफ्रीकन, स्त्रियां, दलित जैसा कोई शब्द लिखकर कोई कविता अच्छी नहीं हो जाती.
    और ये फूहड़ है इसका पता आपकी व्यग्रता से लग रहा है.
    इतनी व्यग्रता कि आपको Ad hominem को अपना arguement बनाना पड़ा. वह भी एक बार नहीं दो दो बार.

    और हाँ पहले हमें यह भी निर्णय कर लेना चाहिए कि हम कविता के बारे में बात कर रहे है या समीक्षा के बारे में.

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  11. मैं क्यूँ व्यग्र होऊँगा।मुझे टिप्पणी विवेकहीन और बचकानी लगी तो लिख दिया। सिम्पल।क्या दलित, अश्वेत, महिला वगैरह को कविता से बहिष्कृत कर दिया जाए?
    आप और सरनेम पहले लिखने वाले टिप्पणीकार मिलकर कोई सूची क्यूँ नहीं जारी कर देते कि ये शब्द लिख सकते हैं ये नहीं ��

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  12. मंगलेश डबराल की दलितों , स्त्रियों और कालों को देखने की दृष्टि सवर्णवादी है. उनके यहाँ जो सरलीकरण है, वह इसकी गवाही चीख चीखकर देता है. ये बाहर से देखे जाने की दृष्टि है. Voyuerism.
    पहली कविता और दूसरी में जो अंतर है उससे यहाँ भी आप जान जायेंगे.
    तिवारीजी का चयन बहुत अच्छा है. वह इस झूठे सरोकार मात्र चयन से juxtaposition से उघाड़कर रख देते है.

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  13. “आज विनोद कुमार शुक्ल की एक कहानी याद आ रही है जिसमें रचनाकार अपने अपने बिम्ब बोरों में भरकर आलोचक के सामने लाते हैं।एक कवि ने मरे हुए साँप पर कुछ लिखा है, उसके बोरे से मरा हुआ साँप निकलता है तो आलोचक सूक्ष्म निरीक्षण करके कहता है: इसके मुंह पर एक मरी हुई चींटी चिपकी है,आपको अपनी रचना में इसका उल्लेख करना था।”

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  14. फेसबुक पर टिप्पणियों से
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    Tewari Shiv Kishore
    यह पदाति सेना है। आर्टिलरी लेकर ख़ुद सेनापति आयेंगे तब देखी जायेगी।

    Mahesh Verma मुझे कहने की ज़रूरत तो नहीं है लेकिन तिवारी जी ने फ़िर एक बार फूहड़ता दिखाई है तो बता दूँ कि इस टुटपुँजिये हिंदी साहित्य समाज मे किसी की हैसियत नहीं है कि मुझे अपनी सेना में रख सके।कोई सेनापति आएगा और आप मुकाबला कर लेंगे यह आपके काव्यबोध की ही तरह बहुत हास्यास्पद और मध्ययुगीन व्यंजना है।
    कोई मजबूरी नहीं है, जो लिखा है अपने मन से लिखा है और उसपर कायम हूँ। अम्बर पर उपकार कर सकने की न मेरी पात्रता है न उन्हें किसी उपकार की ज़रूरत है।मैत्री तो है ही।

    Tewari Shiv Kishore Mahesh Verma जब मैदान में हैं ही मियां तो आई ए रिचर्ड्स की चार लाइनें मूल में कोट कर दें जो आप मुझे पढ़ा रहे थे। मैं आपसे अर्थ समझ लूं।

    Mahesh Verma गूगल कर लें।और मैदान में हैं जैसी कुश्तीछाप बातों में मेरी कोई रुचि नहीं।

    Tewari Shiv Kishore मैंने पढ़ा है। आपकी बात समझना चाहता हूँ

    Tewari Shiv Kishore Mahesh Verma जहाँ तहाँ हिन्दी की क्लास में अनूदित उद्धरण पढ़कर आलोचना नहीं होती। कविता की समझ है तो अपनी व्याख्या प्रस्तुत करो। मैंने तो कर दिया है।

    Ammber Pandey
    He was a thorough formalist. Why are you using a completely anti-marxist text to judge Manglesh Dabral?
    He himself should object to it.


    Mahesh Verma
    Tewari Shiv Kishore हिंदी में अनुदित उद्धरण क्यूँ आलोचना में उपयोगी नहीं हैं बता सकेंगे क्या?
    आपके बायो डेटा में आपके अनुवादों का ज़िक्र है, तो क्या यह मान लें कि उनको किसी आलोचकीय कर्म में उद्धरित नहीं करना चाहिए।
    Ammber Pandey
    मेरी मूल टिप्पणी में मंगलेश जी की कविता की हिमायत कहाँ दिख गई आपको?
    कथित आलोचना की निर्धनता पर टिप्पणी है जो न् जाने क्यूँ आपको अधिक नागवार गुजरी है ��

    Ammber Pandey
    फॉर्मलिस्ट थॉट के अनुसार ये कवितायेँ किस भले मानुस को एस्थेटिक ऑब्जेक्ट दिखाई देती है? कोई तर्क सहित समझाए।

    Mahesh Verma
    ठीक है तो फ़िर आप और सरनेम पहले लिखने वाले टिप्पणीकार वह सूची भी जारी कर दें कि किसे कोट कर सकते हैं किसे नहीं ��

    Mahesh Verma
    देखिये अगर आपको यह लगता है कि टिप्पणी अच्छी है तो साफ़ कहिये और बिंदुवार मेरी बातों का जवाब दीजिये।

    Ammber Pandey
    हमसे हस्ताक्षरित प्रति लेना निश्चय ही सुलभ होगा।
    वैसे प्रश्न क्वोट करने का ही नहीं है. आलोचना में जब आप किसी विचारक का एक विचार लेते है तो परोक्षरूप से उसकी पूरी विचारधारा को स्वीकार करते है.
    मैं केवल इतना पूछ रहा हूँ कि आप जब इन्हें क्वोट कर रहे है तो क्या इनकी विचारधारा के भी समर्थक है?

    Ammber Pandey
    जवाब ऊपर दिया जा चुका (आपसे चूका) है.

    Mahesh Verma
    मुझे उनकी विचारधारा का ज्ञान नहीं है।

    Ammber Pandey
    किसी को मलेरिया से बुखार आया, डॉक्टर से कुनैन दी मरीज ठीक हो गया. यह देख दूसरा अपनी कालाजार से ग्रस्त पड़ोसन को कुनैन दे गया वो मर गई. फिर कहने लगा मैं तो बुखार की दवा लाया था मुझे इनके रोग की क्या खबर थी

    Mahesh Verma
    मैंने तारों के गिरने से गड्ढे होने, अश्वेतों को रसोई में ही खिलाने,कविता को फ़्रैगमेन्ट्स में डिकोड करने और मिथकेतर बिम्ब गढ़ने की कवि की स्वतंत्रता के सवाल उठाए हैं। आपकी इन बातों पर क्या राय है?

    क्या वाट्सएप पर मिले लतीफ़े भी यहाँ पोस्ट करना है?

    Mahesh Verma
    Ammber Pandey उत्तरांचल का सवर्ण वगैरह बकवास बात है।आप या तो टाइमपास कर लीजिए या कुछ तार्किक लिखिये।गड्ढे अभी भी वहीं हैं आलोचक की विवेकभूमि पर।

    Tewari Shiv Kishore Mahesh Verma अनूदित। अनुदित नहीं।

    Mahesh Verma
    ठीक,प्रूफरीडिंग हो गई हो तो उस बात पर भी कुछ कहें।
    पढ़ लिया मूल टेक्स्ट?
    अनुवाद कैसे उद्धरित नहीं किये जा सकते इसपर भी कुछ बताएं।

    Tewari Shiv Kishore
    Mahesh Verma जनवादी होकर प्रचंड formalist का सहारा क्यों ले रहे हैं जो इस कविता से अपना फ़ायरप्लेस भी नहीं जलाता?

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  15. Ammber Pandey
    मैंने उन्हें बहुत बार कही ये बात. उनका कहना है कि उसकी विचारधारा के सम्बन्ध में उन्हें ज्ञान नहीं.

    Mahesh Verma
    ये तो अम्बर कह चुके।
    मैं कबसे जनवादी हो गया भई?
    आपलोग इलहामी मालूम पड़ते हैं ��

    Tewari Shiv Kishore
    Tewari Shiv Kishore क्योंकि आप लोगों को अंग्रेज़ी नहीं आती और ऊलजलूल अनुवाद करते हैं।

    Mahesh Verma
    हाँ भई ज्ञान नहीं तो कहने में क्या शर्म। जल्दी से गूगल करके यह कहना कि सब पता है यह अलबत्ता शर्मनाक होता।

    Mahesh Verma
    तिवारी जी ख़ुद को मेंशन करके कह रहे हैं अंग्रेजी नहीं आती ?

    Mahesh Verma
    मैंने तो कोई अनुवाद किया ही नहीं।

    Tewari Shiv Kishore
    Mahesh Verma दो दिन का टाइम ले लें। मेरे विषय में आपकी धारणा है 15 मिनट में पढ़ गया। मैं आपको दो दिन दे रहा हूं।

    Mahesh Verma
    किस बात का टाइम ले लूँ?

    Tewari Shiv Kishore
    रिचर्ड्स का निबंध अंग्रेज़ी में पढ़ने का।

    Mahesh Verma
    फ़िर पढ़ कर परीक्षा भी देनी होगी क्या ��
    आप अंग्रेजी पढ़ लेने को बड़ी तुर्रम चीज़ समझते हैं ना?

    Tewari Shiv Kishore
    Mahesh Verma आपने निबंध का नाम अंग्रेज़ी में दिया है। अब वहीं से कोट कीजिए।

    Mahesh Verma Tewari
    जी गुस्सा नहीं करते। आगे से कविता पर सोच समझ कर लिखियेगा , ऐसी स्थिति नहीं आएगी।
    Ammber के हास्यबोध को आप नहीं जानते। ऐसे मामले खड़े करके अभी बेतरह हँस रहे होंगे।


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  16. Fools rush in where angels fear to tread !

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  17. जितनी मेहनत महेशजी ने टिप्पणी देने में की है उससे कम मेहनत में ही वो एक सभ्य सा आलेख लिख सकते थे

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  18. न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
    गर नहीं है मिरे अशआर में मानी न सही !

    जब मिर्ज़ा ग़ालिब और उनकी 'उलझी' हुई और न समझ आने वाली शाइरी की आलोचना होने लगी तो ग़ालिब ने उक्त शे'र कहकर अपने आलोचकों को जवाब दिया था । यह बात मिर्ज़ा ग़ालिब इसलिये कह पाये क्योंकि उन्हें तारीफ़ की परवाह थी और न ईनाम की ।

    लेकिन जिन कवियों को प्रशंसा की भूख भी हो और जिनकी गुप्त नज़र हर वक़्त ईनामों, पुरस्कारों और अनुवादों पर रहती हो, उन्हें अपनी कविता का बचाव नहीं करना चाहिये । अपनी कविता का बचाव करता हुआ कवि बहुत हास्यास्पद लगता है । कवि के मरने के बाद उसकी कविता का बचाव कौन करेगा ? या कवि यह जानता है कि मरने के साथ ही उसका कविकर्म भी कबाड़ में फेंक दिया जायेगा ।

    कल 'समालोचन' ने मंगलेश डबराल की दो कविताओं 'घर' और 'न्यू आर्लिन्स में जैज़' पर लिखी तिवारी शिव किशोर की आलोचना प्रकाशित की । पहली कविता मंगलेशजी के पहले संग्रह से और दूसरी अभी तक अंतिम कविता संग्रह से ली गयी है । इन कविताओं के चयन पर चित्रकार-कवि महेश वर्मा ने आपत्ति जताते हुये कहा कि इन कविताओं के चुनाव में कोई संगति नहीं है । क्या आलोचक को कविताओं का चुनाव कवि या उनके प्रशंसकों से पूछ कर करना चाहिये ?

    तिवारी शिव किशोर ने इन दो कविताओं का चयन मंगलेशजी की लंबी कवितायात्रा को ध्यान में रखकर किया होगा । आलोचक ने मंगलेश डबराल की पहली कविता की तारीफ़ की है और दूसरी कविता की धज्जियां उड़ाई हैं । यह बताता है कि मंगलेश डबराल की कवितायात्रा ढलान की तरफ़ है । जब तक मंगलेश पहाड़ और घर के कवि थे तब तक सच्चे कवि थे और जबसे उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कवि बनने की सायास कोशिश की उनकी कविता का पतन परिलक्षित होता है । क्या यह चयन सुसंगत नहीं है ?

    जिस कवि में अपनी आलोचना सुनने की ताब नहीं होती उसकी कविताई भी सन्दिग्ध होती है और ख़ुद कवि भी सन्दिग्ध होता जाता है !

    जवाब देंहटाएं
  19. जैसे शास्त्रीय संगीत का आनंद एक सहृदय श्रोता ही ले पाता है उसी तरह एक अच्छी कविता का आनंद भी एक सहृदय पाठक ही ले पाता है । जो सहृदय पाठक नहीं है वह कविता के मूल भाव को ग्रहण करने के बजाय उसकी सामग्री और सजावट से ही उलझ जाता है जबकि यह सामग्री और सजावट तो कविता के मूल भाव को अभिव्यक्त करने का साधन मात्र होती है।
    सहृदयता के अभाव में मैं आजकल अनेक अच्छी कविताओं के साथ ऐसा होते हुए देखता हूँ ।यहां मुझे लैंग्सटन ह्यूज़ की कविता के साथ भी ऐसा ही हुआ लगता है ।कविता का मूल भाव मैत्री ,क्षमाशीलता ,आत्मविश्वास और आशावादिता का है।एक अश्वेत के प्रति जो भेदभाव बरता जा रहा है उसके बावजूद उसके मन में किसी प्रकार की कडुआहट नहीं है।उसे विश्वास है कि भेदभाव और नफ़रत का यह दौर भी गुज़र जाएगा ।तुलना के लिए मुझे राहत इंदौरी याद आते हैं जो आजकल अपनी शायरी में अक्सर इसी तरह के आत्मविश्वास ,मैत्री और इस देश की ज़मीन के प्रति अपने लगाव को अभिव्यक्ति देते हैं।

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  20. शोर बपा है मक़्तल में
    कौन सुने का़तिल की बात ।
    साहिर होशियारपुरी
    इस बरहम बहस के बाद मुझे अब लग रहा है कि विवेक और कवि-दृष्टि को दरकिनार करके विद्वान लोग बरहमी पर उतर आए हैं। कृती के रास्ते आलोचना की जगह अपनी पसन्द की छिलाई महत्वपूर्ण होती जा रही है। बराए-ख़ुदा
    इसे बंद कीजिये। और एक नये नक्काद की बर्क़ निगाह को भी बरदास्त करने की भी ताब खुद में रखिए।।
    हमराह~प्रताप सिंह

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