कालजयी (५): गैंग्रीन : रोहिणी अग्रवाल








अज्ञेय  सम्पूर्ण रचनाकार थे.  कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, संपादक, पत्रकार, गद्य लेखक आदि , अपनी बहुज्ञता और विविधता में जयशंकर प्रसाद की याद दिलाते हुए.  उनकी एक प्रसिद्ध कहानी है गैंग्रीन जो कई जगहों पर रोज़ के नाम से भी मिलती है.  जीवन की एकरसता और व्यर्थताबोध की यह अद्भुत कहानी है.


आलोचक रोहिणी अग्रवाल के स्तम्भ ‘कालजयी’ के अंतर्गत इस कहानी पर आप उनका विवेचन विश्लेषण पढ़ेंगे. आज रोहिणी जी का जन्म दिन भी है. समालोचन की तरफ से बहुत बधाई.




नित्यक्रमिकता   गैंग्रीन   बन कर रचनात्मकता को कतर देती है  

रोहिणी अग्रवाल 



'बोलने वाली औरत’  कहानी से बाहर निकल आई हूं, लेकिन दीपशिखा की टीस के भीतर धधकता लावा भुलाए नहीं भूलता. नहीं, शायद गलत कह रही हूं. मनुस्मृतिएक हौलनाक अनुभव की तरह मेरे भीतर रिस-रिस कर ऐसे समा गई है कि उबरने की कोशिश में अग्निशिखाबनने का संकल्प लेती दीपशिखा की बांह को कस कर थाम लेना चाहती हूं. लेकिन पाती हूं कि बुलेट ट्रेन की गति से  आगे बढ़ते चले जाने के तमाम दावों और वादों के बावजूद हम रपटते हुए अतीत में चले जा रहे हैं. रपटने में गिरने की शर्म नहीं रहती, फिसल कर निश्चित खड्ड में समा जाने की उत्तेजना का वहशी आनंद आ जुड़ता है.

दीपशिखा मेरी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गई है. धीरे-धीरे उसने गृहस्थी के बाड़े में बंद गाय की शक्ल अख्तियार कर ली है. गौ माता - दुधारु भी, और तमाम टंटे-फसादों को अंजाम देने का मासूम जरिया भी. सबकी इच्छाओं की पूर्ति करती इस कामधेनु को मालिक के हाथ में पकड़ा अपना पगहा छुड़ाने का मूलमंत्र ही न आया, मैं सोचती हूं, क्योंकि देख रही हूं पुरुष का भाग्यकहानी (अज्ञेय) की वह बंदिनी नायिका प्रतिमा पांच कदम की लंबाई में सिमटी जेल की कोठरी में आगे-पीछे, पीछे-आगे चक्कर लगा कर अपनी दिनचर्या पूरी कर रही है. 



अज्ञेय उस कोठरी को कोई नाम नहीं देते, लेकिन बंदिनी प्रतिमा मौन में गुंथी चुप्पियों के सहारे चीख-चीख कर उसे नाम दे रही है - पितृसत्ता की जेल. क्यों पांच कदम आगे और पांच कदम वापस?’’ वह इस नियतिबद्धता के खिलाफ विद्रोह करना चाहती है और आगे-पीछे का क्रम छोड़ कर कोठरी के चारों ओर चक्कर काटने लगती है. जानती है, यह गोल-गोल घूमना भी कोल्हू के बैल की तरह है - दिशाहीन, लक्ष्यहीन यात्रा का व्यर्थ श्रम, लेकिन इसके अतिरिक्त और विकल्प क्या बचता है उसके पास, खासकर तब जब यह अनंत यात्रा काले सींखचों से अंधी दीवार तक, अंधी दीवार से काले सींखचों तक ही जाती हो, जिसके आगे दूसरी दीवार के सींखचे हों और फिर दीवार और सींखचों की गोद में खुलता बंद दरवाजों का तिलिस्म.

मैं ठहर जाती हूं और एक उदास बेबसी से प्रतिमा की ओर देखने लगती हूं. प्रतिमा के चेहरे में बेचेहरा औरतों की बेशुमार सलवटें हैं. अचानक उस चेहरे के नाक-नक्श निर्विकार सपाट पीठ में तब्दील होने लगते हैं. शालिनी’! मैं इस चेहरे को पहचानती हूं. मृदुला गर्ग की कहानी वितृष्णाकी अधेड़ नायिका शालिनी से मेरा पुराना परिचय  है, लेकिन मैंने जब-जब अपने हृदय की भरपूर संवेदना उस पर उंडेलने की चेष्टा की है, हर बार हिस्सेदारी के लिए उसके पति दिनेश वहां आ खड़े होते हैं. शालिनी के लिए वह शख्स खलनायक है. न, खलनायक भी नहीं, जिस के क्रूर अस्तित्व के प्रति क्रोध और घृणा बरसा कर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति की जा सकती है. 



शालिनी के लिए तो दिनेश का वजूद ही नहीं - न घृणा, न विकार; न कोई अपेक्षा, न उलाहना. बस, एक ठंडी बेधक निर्लिप्तता जिसमें पत्नीत्व के दायित्वों को यंत्रवत निभाते चले जाने की यांत्रिक मुस्तैदी जरूर छुपी है. सोचती हूं, यदि दिनेश को केंद्र में रख कर किसी ने कहानी बुनी होती तो क्या उसकी यंत्रणा प्रतिमा से कम होती? यात्रा पांच कदम की हो या पांच सौ कदमों की, रोज-रोज उन्हीं कदमों से लौट आने और अगले दिन पिछले दिन की लाश ढोने की विभीषिका को झेलने की तैयारी में नींद के आगोश में लुढ़कने की यंत्रणा न आंखों में सपने बुनती है, न रग-रेशे को स्फूर्ति के ओज से भीरती है. 


सोच तो यह भी रही हूं कि दिनेश की यंत्रणा को उकेरने के लिए कोई कागज-कलम क्यों नहीं उठाता?  क्या दिनेश जैसे स्वामी, सक्रिय समर्थ लोगों के पास यंत्रणा महसूसने की संवेदना’ (ज्यादा खटके तो इस शब्द को 'अवकाशसमझ कर भी पढ़ सकते हैं) नहीं है? या प्रभु वर्ग के पास शेयरिंग का सुख और अभिव्यक्ति की आजादी जैसी इंसानी नियामतें नहीं हुआ करतीं? शिनाख्त के लिए बींधती नजर लेकर मैं हिंदी कहानी की संकरी चक्कतदार गलियों में दाखिल होती हूं कि ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले अज्ञेय रास्ता रोक लेते हैं -  “गैंग्रीन कहानी पढ़ लो, शिकायत और शिनाख्त दोनों पूरी हो जाएंगी.’’



यानी वही कहानी जिसे बाद में आपने ‘रोजशीर्षक दिया!’’ मैंने नजर उठाई तो देखा सामने अज्ञेय नहीं, मालती और महेश्वर खड़े हैं – गैंग्रीनके नायक-नायिका. खिन्न, अवसन्न और अजनबियत में गुंथे प्रगाढ़तम रिश्ते को ढोते पति-पत्नी!

अज्ञेय के प्रति मेरा लगाव विश्वास की हद तक गहरा है. प्रेमचंद की तरह वे भी सामाजिक यथार्थ की परतों को अपने साहित्य में विश्लेषित  करते हैं, लेकिन सतह पर दीखती सामाजिक समस्याओं को उठा कर जनमत बनाने की चेष्टा नहीं करते. चूंकि वे जैनेन्द्रकुमार की परंपरा के रचनाकार हैं, इसलिए व्यक्ति के मानस के भीतर प्रविष्ट होकर उन समस्याओं के उत्स और परिणाम देखने की कोशिश करते हैं.


“आप ठीक कहती हैं, पुरुष के पास न शेयरिंग का सुख होता है, न अभिव्यक्ति की आजादी. दरअसल उसके पास बतिया कर सुकून देने और पाने की न भाषा है, न संवेदना. खोखला अहंकार है बस, जो कानफोड़ू गूंज बन कर अपनी ही रिक्तियों का ऐलान करता घूमता है.’’  


महेश्वर ने कहा तो उसकी खिसियानी हंसी में मुझे भीतर तक भिगो डालने वाली तरलता महसूस हुई.

कुछ देर चुप रहे महेश्वर मानो कन्फैशन के सुख को घूंट-घूंट पी रहे हों. फिर बोले


"कहानी में ज्यादातर मैं नेपथ्य में हूं, लेकिन आप चाहेंगी तो हर स्थिति में मालती के साथ मुझे भी मौजूद पाएंगी.’’ 

फिर एक स्निग्ध उजास से उनका चेहरा कांतिमान हो गया – 
आप यह भी कह सकती हैं कि नेपथ्य में रह कर अपने को छुपाने की ग्रंथि सिर्फ मेरी नहीं, लेखक की भी है.’’

मैं आश्वस्त हुई.  इंसान के वजूद में तरलता हो तो संवाद का सेतु आप ही आप बन जाता है.

ठीक कहते हैं महेश्वर, सतही दृष्टि से देखने पर - 


‘गैंग्रीनकहानी एक औसत स्त्री की जिंदगी में रोज-रोज घटने वाली नीरस और अनुत्पादक घटनाओं का ब्यौरा मात्र लगती है. पति के साथ सुदूर किसी पहाड़ी प्रदेश में गृहस्थी बसाती मालती नामक इस स्त्री के पास करने को कुछ भी नया नहीं है. घर के नित्यक्रमिक कामकाज, गोद के बच्चे टिटी की देखभाल और डॉक्टर पति महेश्वर  की प्रतीक्षा ़ ़ मालती की जिंदगी जैसे इन्हीं तीन सोपानों के इर्द गिर्द घूमते हुए ठहर गई है. मालती की जिंदगी का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि उसके सामने अपने को सिद्ध करने के लिए कोई चुनौती या संघर्ष नहीं है. 



घर के बाहर एक भरा-पूरा संसार है, लेकिन वहां उसकी कोई भागीदारी नहीं. दिमाग में निर्बाध बचपन और अलमस्त जीवन की स्मृतियां हैं, लेकिन अब जैसे वे गुजरे जमाने की बात हो गई हैं. वह उन्हें याद करना चाहती है, लेकिन वे इतनी अप्रासंगिक हो गई हैं कि स्वयं घबरा कर अपने पैर पीछे खींच लेती है, "मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जंतु का तौक डाल दिया गया हो. वह उसे उतार फेंकना चाहे, पर उतार न पाए.’’ घर के कामकाज और पति की प्रतीक्षा के बीच पसरे अकेलेपन को भरने के लिए उसके पास भविष्य की एक भी योजना नहीं. मानो घड़ी की सुइयों के साथ वक्त की निरर्थक परिक्रमा करते-करते वह हांफ गई हो.



बेशक कहानी के केन्द्र में मालती और उसकी छटपटाहट है, लेकिन अपने आपको देखने और पहचानने की दृष्टि उसके पास नहीं है. 


इसलिए कहानी में तीसरे व्यक्ति -नैरेटर- के आगमन से कहानी की घटनाविहीनता अर्थगर्भी, सांकेतिक और प्रतीकात्मकता हो सकी है. दरअसल नैरेटर कहानी-केन्द्रित स्थितियों का ऑब्जर्वर भी है और व्याख्याकार भी. वह मालती के दूर के रिष्ते का भाई है. दोनों का बचपन संग-संग गुजरा है. सख्य भाव ने दोनों के सम्बन्धों में विष्वास और सौहार्द के साथ-साथ आत्मीयता के कोमल अहसासों को भी सींचा है. अट्ठारह मील पैदल चल कर मालती के घर पहंचा नैरेटर उसके साथ बचपन की स्मृतियों को जीना चाहता है, लेकिन पाता है कि पहले की दबंग मस्तमौला मालती कहीं खो गई है. उसकी जगह जो उत्साहहीन, निरासक्त तरुणी उसके सामने खड़ी है, उसे तो वह जानता तक नहीं. ’’क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गई?’’ 



नैरेटर के उत्साह पर शंका सवार हो गई है,  "या अब मुझे दूर - इस विशेष अंतर पर रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छंदता अब तो नहीं हो सकती ़ ़ ़ पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए.’’ 



वह देखता है दोनों ओर से संवाद की कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन थोड़ी दूर लिथड़ कर संवाद दम तोड़ देता है. फलस्वरूप साथ-साथ बैठे रह कर भी दोनों अपनी-अपनी दुनिया में रम गए हैं. थकी और उकताई हुई मालती के सामने घरेलू जिम्म्ेदारियों और अभावों का पहाड़ खड़ा है. घर में नौकर नहीं है; शहर से दूर होने के कारण ताजा सब्जी-भाजी खरीदने की सुविधा नहीं है; बरतन मांजने हैं, लेकिन नल में पानी नहीं है. शाम को सात बजे जिस समय पानी आएगा, वही समय खाना बनाने का भी होगा.



 एक साथ दोनों काम कैसे निबटाए वह? खाना बनाने और रसोई समेटने में रात गहरा जाएगी. वह सोच रही है और सात बजने की प्रतीक्षा भी कर रही है. अपनी नोटबुक पढ़ने में तल्लीन नैरेटर साथ-साथ मालती की गतिविधियों की  टोह भी ले रहा है. वह देखता है कि घड़ी में तीन का बजर बजते ही मालती जैसे कुछ चैतन्य हुई है और फिर निरुद्वेग स्वर में बुदबुदा उठी है -


"'तीन बज गए!’ चार बजे भी ठीक वही बुदबुदाहट!  मैंने सुना, मालती एक बिल्कुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस यंत्रवत् - वह भी थके हुए यंत्र के से स्वर में कह रही है - 'चार बज गया़ ़ ़ मानो इस अनैच्छिक समय गिनने-गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो. वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडोमीटर यंत्रवत् फासला नापता जाता है, और यंत्रवत् विश्रांत स्वर में कहता है कि मैंने अपने अमित शून्य पथ का इतना अंश तय कर लिया ़ ़ ़ ’’.



उफ! कैसा दमघोंटू वातावरण! नैरेटर से ज्यादा मैं ताजा हवा के लिए छटपटा उठी हूं. बेसब्री से महेश्वर की प्रतीक्षा कर रही हूं कि वे आएं तो घेरे में बंद जड़ता टूटे. न सही बाहरी दुनिया की विराटता, उसका एक मिनिएचर मॉडल ही काफी है. लेकिन मालती का ही प्रतिरूप हैं महेश्वर. चुप्पा, उकताया हुआ, लकीर का फकीर! आजादी के तमाम एकाधिकारों के बावजूद गले में गुलामी की सुरक्षा का अदृश्य पट्टा बांधे हुए स्पंदनहीन और अचेतन प्राणी! व्यावसायिक कुशलता, डिग्रियों का जखीरा और घूमने की आजादी खुद को लिबरेट करने के मानदंड नहीं हुआ करते. महेश्वर के पास उन्मुक्त क्षितिज को थामने और उस पर सवारी गांठने का न हुनर है, न चाव. उन्होंने अनंत व्योम के एक कोने में घर और अस्पताल के बीच फैली दूरी में अपनी दुनिया बसा ली है.


"नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयां." 


महेश्वर  बताते हैं कि अस्पताल में हर दूसरे-चौथे दिन कांटा लगने से गैंग्रीन बन गए घाव को लेकर मरीज उनके पास आते रहते हैं. 

उन्हें किसी की बांह, किसी की टांग काट कर इलाज करना पड़ता है. शांत-मूक मालती कहानी में पहली बार मुखर होती है और उपहास करते हुए कहती है,  "पहले तो दुनिया में कांटे ही नहीं हांते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि कांटों के चुभने से मर जाते हों.’’  फिर मानो अपनी ही मुखरता पर लज्जित होकर ठंडी अनासक्ति में अपने को लपेट लेती है कि  ’’मैं तो रोज ऐसी बातें सुनती हूं. अब कोई मर-वर जाए तो ख्याल ही नहीं होता.’’ नैरेटर स्तब्ध है कि रोज नल में देरी से पानी आना या रोज टिटी का बिस्तर से गिर कर रोना और रोज गैंग्रीन से लोगों का अपंग होना क्या एक सी घटनाएं हैं?  

यह मालती की संवेदनशीलता है या व्यवस्था की जकड़न से उत्पन्न यांत्रिकता? लीक से बंधी मालती जीवन के हर पल को रोज की पुनरावृत्ति में विनष्ट कर रही है. नैरेटर जैसे भय से कांप उठा है. कहीं वह भी मालती की तरह तो नहीं़ ़ ़? वह अपने भीतर अंतरंग का कोना-कोना छान आता है और आश्वस्त है कि नहीं, हर पल को गुजरे पल से अलग करने की ऊर्जा उसे नियमित दिनचर्या में बंधने से रोक रही है. 



उसके भीतर उछाह है क्योंकि पांवों के नीचे खुरदरी जमीन के अहसास के साथ सिर पर छाए अनंत आसमान को सतरंगी सपनों से भर देने का चाव और साधन भी हैं उसके पास. जब तब हौसला है, और आगे बढ़ने के अवसर, वह हर पल को विशिष्ट बना देना चाहता है. लेकिन मालती और महेश्वर उसकी तरह अपने जीवन के कर्त्ता और सर्जक नहीं हैं. लीक पीटने को अपनी नियति मान कर वे जीवन के सहज उच्छ्वास को खो बैठे हैं. 

"मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुंब में कोई गहरी, भयंकर छाया घर कर गई है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गई है, उनका इतना अभिन्न अंग हो गई है कि वे उसे पहचानते ही नहीं.’’



गैंग्रीनकहानी की शक्ति सांकेतिकता में निहित है. घटनाओं और ब्यौरों से बचते हुए लेखक वातावरण को इस प्रकार सर्जित करता है कि वह पात्रों के अंतःव्यक्तित्व का रूपक बन जाता है. उदाहरण के तौर पर नैरेटर के दो वक्तव्यों को लिया जा सकता है. 

पहला वक्तव्य कहानी का शुरुआती वाक्य है जो नैरेटर के ऑब्जर्वेशन के रूप में पाठक के सम्मुख आता है. मालती के घर में घुसते ही नैरेटर को महसूस होता है कि ’’मानो उस पर किसी शाप की छाया मंडरा रही हो, उसके उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य  किंतु फिर भी बोझिल और प्रकंपमय और घना सा फैल रहा था.’’ 

दूसरा वक्तव्य कहानी के अंतिम हिस्से में निष्कर्षात्मक मूल्यांकन के रूप में आया है जहां नैरेटर को संतोष है कि उसने मालती-महेश्वरर की यांत्रिक एवं अवसादपूर्ण दिनचर्या और सम्बन्धों के मूल कारण को समझ लिया है. लेकिन नैरेटर के साथ पूरी कहानी को तल्लीनतापूर्वक पढ़ लेने के बावजूद पाठक उस छायाको नहीं देख पाता. दरअसल इस दम्पती के जीवन को घुन की तरह खोखला करती छायाको समझने के लिए कहानी में से ही कुछ संकेतों को विश्लेषित करना जरूरी है. पहला संकेत मालती से अपने सम्बन्धों का खुलासा करते हुए नैरेटर का वक्तव्य है - 

"हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छंदता रही है. वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बंधनों में नहीं घिरा.’’ 

दोनों के स्वतःस्फूर्त जीवंत सम्बन्धों के विपरीत मालती-महेश्वर के सम्बन्ध नीरस-निर्जीव हैं. इसका मुख्य कारण है परंपरागत भारतीय परिवारों के दम्पतियों की तरह उनके सम्बन्ध में भी स्पेस का अभाव, जिसे सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छंदताके अभाव का नाम भी दिया जा सकता है. लेखक ने कहा नहीं है,  लेकिन शब्दों अथवा शिकायतों का सहारा लिए बिना दोनों को एकल एवं असम्पृक्त भाव से अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाते हुए दिखाया गया है. साथ रहते हुए भी एक-दूसरे से अलग बने रहने की यह स्थिति धीरे-धीरे संवादहीनता को जन्म देती है जो संवेदनहीनता में ढल कर सम्बन्ध को यांत्रिकता में तब्दील कर देती है. परिवार के मुखिया, अर्जक सदस्य और शिक्षित अर्थात् विवेकशील होने के नाते महेश्वर  की स्थिति श्रेष्ठ है जबकि महेश्वर  के आश्रय में रहने वाली मालती की दिनचर्या उसके परिवार और सुविधाओं का ध्यान रखने के दायित्व से बंधी है. दो अलग-अलग धरातलों पर खड़े पति-पत्नी चाह कर भी सख्य भाव की स्वच्छंदता से अपने को मुक्त एवं समृद्ध नहीं कर पाते.



मैं एक बार फिर कहानी से छिटक कर अलग जा पड़ती हूं. इस बार स्मृति में अज्ञेय की ही एक और कहानी 'पगोड़ा वृक्षदस्तक दे रही है. पत्नी सुखदा चाह कर भी पति के साथ अंतरंगता महसूस नहीं कर पाती, बल्कि सतीत्व की सारी परिभाषाओं को अपने ऊपर लाद कर शर्मसार भी है कि पति की उपस्थिति में घुटन, कुढ़न, झुंझलाहट और उद्विग्नता महसूस करने वाली उसकी शख्सियत पति के काम पर चले जाने के बाद सुकून क्यों महसूसती है? कारणों की पड़ताल में वह स्थिति के भीतर जितना गहरा उतरती चलती है, उतना ही आहत और मुक्त एक साथ होती चलती है, क्योंकि पाती है कि ठीक ऐसी ही अजनबियत (जिसमें उपेक्षा का अतिरिक्त रेशा भी जुड़ा हुआ है) उसे लेकर उसके पति के भीतर भी है. तो क्या दांपत्य संबंध धर्म का आवरण पहना कर मुकर्रर किया गया सामाजिक-दैहिक समझौता भर है? लेकिन संबंध की बुनियादी शर्त तो हार्दिकता है न! तो क्या हार्दिकता के अभाव को ढांपने के लिए ही हम जोर-शोर से भारतीय संस्कृति के महिमामंडन के ढोल पीटना शुरु कर देते हैं?



मैं अपनी ही लगाम कस कर फिर से गैंग्रीनकहानी पर केंद्रित हो जाती हूं. छाया को समझने के प्रयास में कहानी में निहित दूसरे संकेत को पकड़ने के लिए मालती के अतीत और वर्तमान को एण्क-दूसरे के बरक्स रख कर देखने लगती हूं. एक ओर हर रोज किताब से दस-बीस पन्ने फाड़ कर पिता के सामने धृष्टतापूर्वक कभी न पढ़ने की घोषणा करने वाली बालिका मालती है तो दूसरी ओर अखबार में लिपटे आमों को एक ओर रख कर उस अधूरे बासी टुकड़े को पूरी तल्लीनता से पढ़ने की व्यग्रता हैकि दुनिया के किसी हिस्से की आधी-अधूरी खबर पढ़ कर वहां घूम आने का वर्चुअल सुख तो पा सकी. मालती के लिए जिंदगी नीरस ही नहीं, भविष्यहीन भी हो उठी है. उसका आज हर रोज एक ही रंग, स्वाद और पोषाक के साथ आता है. भविष्य के नाम पर बेहतरी की कोई उम्मीद बाकी नहीं, मानो बंद गली के आखिरी मकान में कैद है वह. मालती की जिजीविषा अपने लिए बाहरी दुनिया में कोई बेहतर भूमिका पा लेना चाहती है. 


जैनेन्द्रकुमार के उपन्यास सुनीताकी नायिका की तरह पूरी दुनिया से पीठ करके वह गृहस्थी में मुदित भाव से लिप्त नहीं हो सकती. वह जानती है, बाहर उत्तेजना और रोमांच नहीं, संघर्ष और असफलताएं हैं, लेकिन उनके बीच से गुजर कर अपने सपनों को पूरा करने की एक आस और सक्रियता भी है. गृहस्थी की नित्यक्रमिक दिनचर्या में जाखिम और असुविधा नहीं, लेकिन ऊब भरी अनुत्पादक जिंदगी जीने की यंत्रणा अवश्य  है. यह यंत्रणा यांत्रिकता बन कर मालती को स्वयं अपने भीतर के स्पंदनों से काट रही है. "रोज ऐसे ही गिरता है’’, अपने चोटिल शिशुके क्रंदन पर मालती का ठंडे लहजे में कंधे झटका देना मालती की हृदयहीनता को नहीं दर्शाता , मनुष्य के यंत्र में विघटित हो जाने की त्रासदी को व्यक्त करता है.



तीसरा संकेत महेश्वर की बात से उठाती हूं कि उसके मरीज पहले कांटा गड़ने से पैदा हुए मामूली से घाव के शिकार होते हैं, फिर देखते ही देखते गैंग्रीन के घातक रोग की चपेट में आकर अपनी जान गंवा बैठते हैं. यानी कांटा अमूमन हर व्यक्ति की आवृत्तिपरक अनुत्पादक दिनचर्या का दंश है. परंपराओं और सामाजिक व्यवस्थाओं के दबाव के कारण वह अनजाने ही इस दंश को नियति मानने लगता है. परिणामस्वरूप व्यवस्था के समानांतर अपनी हताशा, अवसाद या भीतरी अकुलाहटों को सुनने-समझने की कोशिश नहीं करता. अवसाद घातक बीमारी का रूप लेकर उसे मानसिक-वैचारिक रूप से अपाहिज बना देता है. अपनी जड़ता में घिर कर वह उस कांटे के चरित्र को समझ ही नहीं पाता जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था के रूप में परिवार के ढांचे को, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को और व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विष्वास और सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध की अवधारणा को जर्जर कर रहा है.



सारी विडंबना अपनी विवशता के स्वीकार की है जो या तो शिकायतों का पुलिंदा खोल कर विलाप में सुख पाती है या अवसाद बन कर घुन की तरह अपनी ही रचनात्मक क्षमताओं को खाने लगती है. रात के सन्नाटे में चांदनी में नहाए आसमान के नीचे लेट कर नैरेटर प्रत्यक्षतया प्रकृति के सौन्दर्य को निहार रहा है, लेकिन सांकेतिक ढंग से वह मनुष्य की प्रवृत्ति और नियति को दो भिन्न कोणों से विश्लेषित कर रहा है. सबसे पहले वह देख रहा है कि 

"उस सरकारी क्वार्टर की दिन में दिन में अत्यंत शुष्क और नीरस लगने वाली, स्लेट की छत भी चांदनी में चमक रही है, अत्यंत शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चंद्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो ़ ़ ़ ’’ 

यह बिंब दारुण यथार्थ को उसकी तमाम विकृतियों के साथ देखने का निमंत्रण नहीं देता, बल्कि परंपरा, पुनर्व्याख्या या विस्मरण की चादर चढ़ा कर उसका महिमामंडन करता है ताकि भदेस यथार्थ के नुकीले पहलुओं से बचा जा सके. यह अवस्था यथास्थितिवाद का घोषणा करती है.  नीरव उड़ान भरते हुए चमगादड़ोंका सुंदरदीखना स्थिति का सच नहीं है, ‘प्रकाश के धुंधले नीले आकाशकी पृष्ठभूमि में रचीगई प्रवंचना है. नैरेटर के जरिए लेखक ने बिंब को प्रतीक में रच कर और फिर प्रतीक में व्यंग्य भर कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था की गहरी पड़ताल की है. 



यथार्थ और आरोपित यथार्थ के बीच जीवन जीती मानवीय संवेदनहीनता मालती को प्रतीक रूप में ग्रहण कर उस विकराल स्थिति की ओर संकेत करती है जहां चेतना और नेतृत्वपरक सक्रियता के अभाव में व्यक्ति महिमामंडन के छद्म को तो समझता है, लेकिन उससे दो-दो हाथ नहीं कर पाता. कहानी में एक गृहिणी, पत्नी और मां के रूप में मालती की ऊब और छटपटाहट बुनी गई है, लेकिन कहानी में निहित अंतर्ध्वनियां मालती को अपदस्थ कर इन तीनों भूमिकाओं के प्रति समाज और व्यवस्था के दृष्टिकोण को समझने का आग्रह करती हैं. मां के रूप में परिवार में स्त्री का स्थान सर्वोच्च माना जाता है. पत्नी के रूप में अर्धांगिनी का दर्जा पाकर वह परिवार के ताने-बाने में अनिवार्य अंग की तरह मौजूद है. बिन घरनी घर भूत का डेराजैसी उक्तियों के साथ अपने महत्व को निर्विवाद रूप से प्रतिपादित करती है. किंतु वास्तविकता यह है कि व्यक्तित्वहीनता, निर्णय-अक्षमता और पराश्रितावस्था को उसके व्यक्तित्व की बुनियादी आवष्यकताएं बना दिया जाता है ताकि हाशिये  पर रखना आसान हो जाए. महेश्वर  अर्थात् पुरुष की स्थिति भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में मालती अर्थात् स्त्री से भिन्न नहीं. 



रूढ़ भूमिकाओं के पालन करने के श्रेष्ठता अहंमें बंध कर वह भी लगभग निर्णयहीन स्थिति में एकरस, निरर्थक दिनचर्या जीने को अभिशप्त है. लेखक बता देना चाहता है कि अनुत्पादक आवृत्तिपरक भूमिका में अपने को दोहरा-बिसरा कर शून्य होती हर मानवीय अस्मिता के जीवन को ढंके हुए है अवसाद और निरर्थकता बोध की यह छाया. मालती और महेश्वर  की ठहरी हुई जिंदगी को लेखक इसीलिए उतने ही ठहरे और ऊबे ढंग से चित्रित करते हैं ताकि पाठक अपनी चिर-परिचित दिनचर्या को एक नई निगाह से देख कर स्वयं से पूछ सके कि निरर्थकता बोध का मूल कारण क्या है? कि क्या वह जानता है कि एक अजीब किस्म के अमित शून्य पथमें बंध कर अपना अमूल्य जीवन खांए जा रहा है वह? कि क्या निरर्थकता बोध से उबरने के लिए उसने अपनी ओर से कोई पहल कदमी की है


कहानी बेहद सूक्ष्म अर्थव्यंजनाओं से गुंथी है, इसलिए पाठक को लेखक से दूर छिटक कर स्वयं अपना विश्लेषणात्मक पाठ बुनने के कलिए प्रेरित करती है. स्पष्ट है कि नैरेटर के ऑब्जर्वेशन का यह अंश स्त्री, और पुरुष को भी, अपनी स्थिति पहचानने का विश्लेषणात्मक विवेक देता है. पहचान के बाद प्रतिरोध का क्षण आता है. प्रतिरोध प्रतिशोध में ढल कर स्खलित भी हो सकता है और सृजनात्मक सक्रियता लेकर किसी स्वस्थ वैकल्पिक व्यवस्था का संकेत भी कर सकता है. अज्ञेय मूलतः आषा, उमंग और क्रांति के कवि हैं. 

प्रकृति में मनुष्य की गति और दिशा देख कर वे हर विसंगति से टकराने का माद्दा अपने भीतर पाते हैं. उन्हीं के अनुरूप है उनका नैरेटर जो मालती-महेश्वर की तरह नींद की बोझिल खुमारी में डूब कर प्रकृति-प्रदत्त संदेशों  को अनसुना नहीं करता. वह देखता है  "दिन भर की तपन, अशांति, थकान, दाहपहाड़ों में से भाप की नाईं उठ कर वातावरण में खोए जा रहे हैं, और ऊपर से एक कोमल, शीतल सम्मोहन, आह्लाद सा बरस रहा है जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं  ने अपनी चीड़-वृक्ष सी भुजाएं आकाश की ओर बढ़ा रखी है.’’ 

लेखक/नैरेटर भी अपनी भुजाएं उठा कर समूचे आकाश  को थाम लेना चाहता है. ऊपरी तौर पर लेखक की यह आकांक्षा भले ही यूटोपिया लगे, लेकिन वास्तविकता यह है कि हर लड़ाई बेतुकी लगने वाली ऐसी कल्पनाओं के सहारे ही लड़ी जा सकती है. व्यवस्था की बेड़ियों को काटना इतना सरल नहीं क्योंकि सामूहिक चेतना के बिना जनांदोलन खड़ा नहीं किया जा सकता. लेखक को समाज की भीतरी तह तक फैली जड़ता और परंपरा के स्वीकार की स्थिति का भान है, फिर भी वे सपने देखने का जोखिम उठाते हैं.निश्चय ही वे जानते हैं कि एक ही स्थान, एक ही कालखंड में पास-पास खड़े होने पर भी मालती और  नैरेटर अपनी वैचारिक सोच और भविष्य-दृष्टि के कारण बहुत दूर हैं. 

निश्चय ही मालती ने वह सब नहीं देखा जो पल की एक कौंध में नैरेटर ने देख लिया. मालती के पास अपनी धुरी से छिटक कर नक्षत्रों के पार से आने वाले मौन निमंत्रणों को सुनने-गुनने का न अवकाश है, न चेतना. "मालती का जीवन अपनी रोज की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चंद्रमा की चंद्रिका के लिए, एक संसार के सौन्दर्य के लिए रुकने को तैयार नहीं था.’’ लेखक के लिए यह हताशा का बिंदु नहीं है, जड़ता से जूझने की चुनौती है. इस दृष्टि से कहानी को पुनः विश्लेषित  करें तो यह मध्यमवर्ग की एकरसता के कारण उत्पन्न वैचारिक-मानसिक जड़ता की कहानी नहीं रहती बल्कि स्थिति के प्रति सचेतन और सक्रिय प्रतिरोध के आह्वान की कहानी बन जाती है. प्रतिरोध की दिशाओं का आरेखन लेखक को नहीं, स्वयं समाज को करना होगा. चूंकि पाठक उसी समाज का एक अहम हिस्सा है, इसलिए लेखक ने कहानी को संवाद और संवाद को चुनौती बना कर पाठक को थमाया है.

अज्ञेय जिस कालखंड में अपनी रचनाओं और क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ सक्रिय रहे हैं, वह कालखंड परतंत्र देश को राजनीतिक-आर्थिक स्वतंत्रता दिलाने के साथ-साथ स्वतंत्र भारत में समाज के सामाजिक गठन को भी सुदृढ़ और समतामूलक बना लेना चाहता था. दलितों के साथ-साथ स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में सुधार के प्रति इस बृहद् कालखंड में एक विशेष आग्रह दिखाई पड़ता है. रोजमर्रा की चिरपरिचित जिंदगी को प्रचलित मुहावरों के जरिए पढ़ना और लैंगिक या जातिगत दुराग्रहों के साथ देखना न्यायोचित नहीं माना जा रहा था. इसलिए अति परिचित ढर्रे को नितांत नई आंख से देखने का चलने बढ़ा. इस क्रम में उन दरकनों पर ध्यान केन्द्रित किया गया जो एक लिंग/धर्म/वर्ण/सम्प्रदाय के नागरिक अधिकारों में कटौती करती थी. स्पष्ट है कि रोज़कहानी स्त्री के संदर्भ में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की समीक्षा का अवसर प्रदान करती है. संवेदना के स्तर पर यह कहानी एक ओर जहां जैनेन्द्रकुमार की कहानी पत्नीका विस्तार है तो वहीं प्रेमचंद की कहानी बड़े घर की बेटीका विलोम है जहां परंपरागत आदर्श भारतीय स्त्री की छवि को सुदृढ़ करने की कोशिश  में स्त्री की व्यक्तित्वहीनता को महिमामंडित किया गया है.





कहानी के प्रभाव को स्पष्ट एवं सांकेकि बनाने में भाषा का सर्जनात्मक उपयोग और कलात्मक सधाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है. मनःस्थितियों को बिंबों के जरिए उभारा गया है और कथाविहीनता को एक-दूसरे से असम्बद्ध छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से. पात्रों की वैचारिक-मानसिक जड़ता के प्रसार को एक स्तर पर संवादहीनता की स्थिति के माध्यम से उकेरा गया है तो दूसरे स्तर पर ठहरे हुए बोझिल वातावरण की सृष्टि करके. लेखक की गहरी और मार्मिक अंतर्दृष्टि के साथ निबद्ध होकर ये समूचे प्रसंग बिंबात्मकता और काव्यात्मकता के सोपानों से गुजरते हुए प्रतीक में ढल जाते हैं. 


इसलिए कहानी अंतिम पाठ में एक स्त्री - मालती-  की नित्यक्रमिक दिनचर्या से उत्पन्न एकरसता और अनुर्वरता की कहानी नहीं रहती, जड़ व्यवस्था के शिकंजे  में फंसे मध्यवर्गीय समाज की त्रासदी बन जाती है. यह कहानी प्रासंगिक है क्योंकि देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यक्ति को अपने भीतर उतर कर अपनी स्थिति से साक्षात्कार करते रहने की निरंतरता का संदेश देती है.


कहानी : गैंग्रीन : अज्ञेय : यहाँ पढ़ें

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कालजयी क्रम : 
२, पत्नी : जैनेन्द्र कुमार
३. आकाशदीप : जयशंकर प्रसाद
.गदल : रांगेय राघव

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  1. Main sahitykar nahi hun isliye shayad yah nahi jaanta Ki Agyaya ya Kisi Ki rachana Ki samiksha kaise Ki jati .Vidwatapurn samiksha ke liye Vidushi Rohini ji ko badhai hai .kya ham samiksha men saral aur bodhgamya shabdon aur sandarbhon ka Sahara nahi le sakte ,bas mahaz sochane ke liye hai .Sahitya ko hum kya vidwan sahitykaro ke bich bandh kar rakhna chahte yaa use har samanya tak pahuchana chahte hai ho sake to khet khalihan aur Bhais ki peeth tak ?Arunji aur Rohini ji dono ko badhai !

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  2. मंगलमूर्त्ति10 दिस॰ 2017, 8:49:00 am

    समीक्षा की सर्वथा अभिनव और प्रभावशाली शैली - समीक्ष्य पाठ में आलोचना को बुनते हुए पाठ के प्रच्छन्न अर्थ को आलोकित करना - रोहिणी जी की विशेष उपलब्धि है। उनको अशेष बधाई!

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