सहजि सहजि गुन रमैं : तेजी ग्रोवर










(कृति : vipul prajapati)

तेजी की कविताओं पर फौरी तौर पर कुछ कहना उस अनुभव को तबाह कर देना है जो इन कविताओं को पढ़ते हुए आप पर तारी होता है.

इयुजेनियो मोंताले (१८९६-१९८१इटली) ने ठीक ही कहा है – “महान कविता का जन्म अक्सर ऐसे निजी संकट से होता है जिसका भान कई बार कवि को भी नहीं होता, यह संकट से अधिक कई बार एक ख़ास तरह के असंतोष से होता एक भीतरी शून्य से होता है जिसे कविता अस्थायी तौर पर भर देती है. यही वह इलाका है जहाँ से हर महान कविता जन्म लेती है.’

यह असंतोष है, संकट है या शून्य- चाहे जो भी हो. है बहुत सम्मोहक. उनकी एक साथ बीस नई कविताएँ आपके लिए ख़ास तौर पर.





तेजी ग्रोवर की कविताएँ                                                

कविता की प्रतीक्षा में सूखते हुए कुछ दिन
(पारुल पुखराज और जॉर्ज सेफ़ेरिस के फूलों से)




--- पेरिस में अपने विद्यार्थी दोनों में मैं एक बार अपने एक मित्र के साथ वायलिन की गज़ बनाने वाले एक आदमी के घर गया. गार डू नॉर्द के मोहल्ले में एक घर की सबसे ऊपरी मंज़िल पर. जैसे ही मैं घुसा, दाहिने हाथ कटी लकड़ी की एक ढेरी. “इस सबसे,” मैंने पूछा, “क्या आप गजें  बनाएँगे?” “मैं नहीं,” वे बोले. “इस लकड़ी से मेरा बेटा बनायेगा गजें, लकड़ी अभी सूखी नहीं है.” मैं नैरन्तर्य को लेकर उसकी चेतना से बहुत प्रभावित हुआ. कितने लोग जानते हैं लकड़ी के सूखने की प्रतीक्षा करना! (जॉर्ज सेफ़ेरिस की “कवि की डायरी” से)

--- “और कभी-कभी, तेजी, सूख चुकी लकड़ी में दो-तीन साल बाद फिर नमी आने लगती है.” (अनिरुद्ध उमट)
प्रे
एक भारी पत्थर छाती पर
कागज पर

भारहीन शब्द  (पारुल पुखराज)








१.

क्या
मालूम है
तुम्हें

पर्दे के पीछे
बेतरह
रूठ गयी है
वह 

उसकी 
     मात्राएँ
          झांकती हैं
अथाह हरे की सलों में

उसके शब्द
हृदय          की रेत पर
तड़पते से कुछ जीव हैं अक्स में

उसके अर्थ
तुम्हारे अंगों में
            खून की तरह
            श्वेत और मौन हैं

बहुरंगी मेघों से
       अश्रुबिंद
         बरस
 जाते हैं
      स्वरों की मुंडेर पर


तब भी    नहीं आती वह
          नहीं आती
                 तब भी

नहीं आती वह
      आती नहीं वह





२.

नीईईईईल---मणि----मुख
पोखर में खड़ा सूर्य

             झलक गया अभी से
                         बिम्ब भी
                           साँझ की आमद का

चन्द्रमा
      खींच लिये चलता है अपना चित्र

                पानी से बहुत दूर     दूर वहाँ
                 और
                 अनिद्रा में डूबे हुए वे श्वेत से कुछ पंख

उस ओर शायद प्रतीक्षा करती बैठी हो
कागज़ की

वह, रसभरी !





३.

जिस भी सेमल की छीम्बी से उडती है वह
जिस भी दूर्वा की ओसभरी लोच में नम
जिस भी हरे साँप के नीचे से रेंग जाती है घास में
जिस भी दुधमुँहे दांत से काट लेती है कुचाग्र को
जिस भी ईश्वर में घुलनशील है अनास्था की केंचुल में
जिस भी पत्ती से क्षमा मांगती है कि आत्माएँ मर्त्य हैं
जिस भी गर्भ में सुनती है व्यूह में प्रवेश की
जिस भी नक्षत्र पर सवार वह निहारती है पितरों के श्वेत को

वह रहे !

अपने व्योम में स्वच्छ
              और पारभासी

आये न आये यहाँ


वह रहे !





४.

भाषा के साथ खेल सकते हो
                     (खेले भी हो ज़ार-ज़ार उसकी ध्वनियों और नुक्तों से)

क्या खेलोगे उससे भी---?

उस परछाईयों के बुने नृत्य से
साँसों की उस अन्यमनस्क माला से
सुगन्ध से बहके हुए उस झोंके से
                      जिसे सहेज नहीं सकती तुम्हारी पलकें

मालती के वे फीके गुलाबी फूल
नारंगी ग्रीवा से मुरझाते हुए वे पारिजात
जासोन के वे सुर्ख घने बिम्ब जो तुम्हे चूमकर डूब जाते हैं साँझ में
वह मत्स्या जो कन्या के भेस में तुम्हारे ममत्व को टंकार जाती है
वह देही जो तुम्हारी देह में किसी मर्त्य गीत को गुनगुनाती है

क्या खेलोगे उससे भी जिसे कभी-कभी कविता कह देते हो तुम?

भाषा से खेल सकते हो





५.

तुमने एक फूल को देख लिया है तालाब की इन्द्रियों में गुलाबी रिसते
भैंस की कालिख़ से सुबहो-शाम खून पीते हुए जीव
और वह साँप जिसे पहली बार मानुष की आँख ने देखा है
कोई सच है जिसकी पुतलियों में सूर्य के साथ बाँस के बिम्ब
एक शिशु जानता है कि एक चाँद निकलता है उसकी प्याली से
तुम नहीं जानते उस मोम के मर्म को जो जलती है तुम्हारी मेज़ पर ---

यह पृथ्वी जो एक हस्तलिखित पंक्ति है
                                  पृथ्वी की डूबती हुई सतह पर





६.

पूरा हो चुका चाँद
झर चुकी सेमल और टेसू की सुर्ख़ी
कनक की पकती हुई लोच में

महुआ की तीक सी वह कभी-कभी दिख भी जाती है
लम्बे कश में बदल देती हुई इस दृश्य के ऐश्वर्य को

फिर दिख जाती है कोई जुएँ बीनती हुई माँ
नीले घर के उघड़े हुए काँधे की ओट में

और लो
वो गयी वह नंग-धड़ंग भोर में उड़ती-पड़ती
सूखे बालों के अनमने गोदुए में
अण्डों से लबालब भरी हुई





७.
अभी टिमटिमाते थे
अब मुँहा-मुँही आग पकड़ते हैं
टेसू के फूल

इच्छा से
अनिच्छा से
जलती है वह
     जो देह है आत्मा की

कभी-कभी
सेमल के सुर्ख में अटक कर
भ्रम होने लगता है ---

वह जो अग्नि है
कहाँ-कहाँ टहल आती है
        देह की तलाश में




८.

क्या यही मिला है

हम भूल जाएँ उसे
और प्रतीक्षा करें

बस यही

गिलहरी आये
ख़ाली आँखों में तांक-झाँक
फिर भाग जाए आम के फूलों में

बहुत दिनों से दिखा भी नहीं
प्रेम के पाश में बीच गली पड़ा हुआ
वह एक जोड़ा गिरगिट का

श्वेताम्बरी बकरी वह
जो चाँदनी के फूलों के नीचे
देह उठाये खड़ी है

वह तरुण
जिसकी आँखों के शिशु में
आन ही पहुंची है वह इच्छा का रूप धरे

भूल जाएँ उसे
और प्रतीक्षा करें





९.

कभी वह उतरती है बिम्ब में
कभी कोरे किसी शब्द में
शव के लिए सहेज दिए गये कपड़े सी

आस्था-
अनास्था के बे-अन्त जाल बुनती हुई
वनस्पतियों के घनत्व में

क्या यह सच है कि भूख के शब्द में मनुष्य ही का बिम्ब है
कि प्यास के शब्द में

वे माटी और कंकरों को उबाल कर पीते हैं
वे हड्डियों के आटे की रोटी बेलते हैं
वे पेड़ में पड़े कीड़े और जल को सुडक लेते हैं चोंच से
वे मुँह बाये गोदुए में प्रतीक्षा करते पंखहीन शिशुओं को

पूरी पृथ्वी को ढाँप देने कोई एक चादर बुनता है

और प्रतीक्षा करता है ---

(कोई नहीं जानता
किसी को नहीं पता इस फ़न का

किसी ने
कभी
कुछ भी सीखा नहीं)








१०.

बेतरह आँख पोंछता है
इस क्षण का ईश्वर

(आँसू
प्याज़ के?)

ऐश्वर्य में
उसे भी नहीं मालूम
वह भी नहीं जानता

प्रतीक्षा है वह
जिसकी प्रतीक्षा
होना अभी शेष है

शेष है
अभी इस नक्षत्र पर


फोटो : MASOOD HUSSAIN







११.

उसका [कवि का] कान उससे बात करता है
                                 --- पॉल वालेरी

मीलों-मील बंधी हुई धूप में
                    पूसे अनाज के

कान सुनता है
    एकटक
    कनक और टेसू के रंग
    सेमल के फूल की हवा में

और मंजते हुए सुबह के बासन कहीं

वह कहीं इस दृश्य की भंगुरता में अलसायी
               हँस रही है काँच की हँसी






१२.

सरक आती है कान की प्याली में ---
                 सुबह की स्नेह सरीखी धूप

जब कोई बासी-मुँह सोया पड़ा है अभी उनींदी रात के बहाने

सुबह के पाखी देर तक कूकते हैं आम की महक में
बताओ मुझे—
        कहाँ है वह रेखा पानी की
        खींच सकते हो जिसे
        उस और इस पार के बीच?







१३.

ऊँघतीं हैं
     दोपहर की कच्ची डगार से
           मुनगे की सूख चुकी फलियाँ  


सींच जाती है
         उड़ती कोई चिड़िया
              दूबरी
          परछाईं से








१४.

नाव को खेते, तैरते, बादल और धूप. आज मैं कुछ नहीं होना चाहता; कल देखेंगे.
                                                           --- जॉर्ज सेफ़ेरिस

बहुरंगी छींट की खाल में रुई का भेड़िया. बड़ा है हांड-मांस के आकार से. छोटे-छोटे दांत निपोरे भागा आता है सीढ़ी-दर-सीढ़ी आँगन के पार से. लपकता है मुझपर रुई की पूरी लोच से. फिर तुम पर भागा आता है सीढ़ी के छोर से.

मैं मुस्कराते हुए उठ बैठती हूँ स्वप्न से

पहली बार जीवन में.






१५.

तब तो, उसकी प्रतीक्षा करते हुए मैं खो बैठूंगा उसे.
                                       --- काफ़्का

पर्वतों के नील से किसक रही है बर्फ की धूप नदी के मुख में. “मात्सुशिमा/ आह मात्सुशिमा/ मात्सुशिमा!” लुन्स्दाल से हलकी कूक के साथ आर्कटिक की सफ़ेद रात में टहल आती हैं ट्रेन की खिड़कियाँ. बौनों का और से और रूप धरते हैं उत्तर की ओर धीमे-धीमे भागते हुए पेड़. ध्रुवों के पानी होते श्वेत में अपनी भूख को लिये-लिये फिरते हैं बर्फ के चौपाये.

हो सकता है क्या इतने क़रीब से छूकर भी मैंने खो दिया हो उसे?




१६.

मालूम नहीं
      इच्छा होती है जब
                  कि आये वह

क्या वह रूठ गयी होती है 
               खेत-हार में सूख रहे
                         पूसों के बीच

दिन-दहाड़े
छब्बीस मार्च के दिन

जब कोई शक नहीं कि दहक रहे हैं तीन-तीन पेड़ों के फूल

हलके स्पर्श में चित्र-सरीखी बैठी हुई बकरियाँ
हलके बुखार में तप रही हैं

स्मृति
जब सिर्फ़ और सिर्फ़ एक आगोश है
दिशाओं में लरज़ती हुई





१७.

रात आयी
और अदृश्य में डूब गये
मीलों-मील फैले हुए
मार्च के सुनहले और सुर्ख 

एक नक्षत्र अपनी धुरी पर घूमता है 
उन्हें दृश्य में लाने

धनतहिया कोई दो बीघे का यूं ही परती में डाल दिया गया है

शून्य के लम्बे-लम्बे कश खींच रही है पृथ्वी

बस धनकुट्टे कुछ मखमली अब रेंगते रहेंगे यहाँ-वहाँ
गहरी सोच में डूबे हुए




1८.

अपने फूलों की दहक से
वह भी तो तुम्हारी उँगलियों को छूने की प्रतीक्षा करती है

कोई एकतरफ़ा प्रेम है यह
कि नैराश्य में मिटी जा रही है तुम्हारी आँखें!

नहीं है ---
कि त्वचा तुम्हारी महक को बरज दे मार्च के माह में

नहीं यह भी नहीं
यह भी सब झूठ ही गुनते हो तुम गूदा-गादी की गर्ज़ से

तुम प्रेम करते हो उससे
कि जीवन में यही एक प्रेम किया है तुमने
कि इसी प्रेम की ख़ातिर 
           तुमने पृथ्वी के असह्य सौन्दर्य से क्षमा मांगी है कई बार

उन दुखों से और प्यास के पहाड़ों से भी क्षमा माँगी है
जो तुम्हे ध्वस्त किये भी तुम्हारी पंक्तियों में नहीं आते

माँगी है क्षमा पाखियों और मनुष्य के शिशुओं से
कई नर-मादा सर्पों से जिनकी सभ्यताएँ छीन ली गयी हैं

फिर भी प्यास लगी आती है तुम्हारे शब्दों की देह को
जब शब्दों और अर्थों के बीच
तुम्हारे हृदय की धड़कन
और मेज़ पर बेवजह धरे पन्नों के बीच
एक अलंघ्य दूरी है

क्षमा माँगो कि क्षमा भी एक व्यर्थ का कर्म है, मित्र
जो बचा ले जाता है तुम्हें एक मुक्ताकाश में

वह भी तो तुम्हारी उँगलियों को छूने के प्रतीक्षा करती है
अपने फूलों की दहक से ---

प्रतीक्षा
समय की बनी हुई नहीं है 





1९.

क्षण के उस नामालूम अंश में
जब तुम्हारे मोह में धोखे से पड़ ही जाती है वह
क्या वह डर रही होती है कि उसकी पलकों के कम्पन से मुग्ध
तुम किन्हीं और पलकों के कम्पन से
               तबाह कर लेना चाहोगे ख़ुद को?

दूर से आती है या कहीं बहुत पास से
पुरखों के रोने की दिशा से आती है वह
उस नख्लिस्तान से जिसे रोया है उनके चेहरों ने

उस सुख की आंधी सी उड़ी आती है वह
जो माँ के सफ़ेद फूलों से हर रोज़ बिखरता है
उसी के नूर में काँपती तुम्हारी आँखों के नीचे
जब बही आयेंगीं तितलियाँ पीली आम की वातास में
वह चली जाएगी छोड़कर तुम्हें विस्मृति की धूल में

रोओ, सर पटक कर ज़ार-ज़ार रोओ तुम
गिरा दो अपनी जेबों में काले पड़ते चाँदी के सिक्के
वे छुआरे और मीठे चने बचपन के
जिन्हें बीनते थे तुम शवयात्राओं के बीच से भागते हुए आठ के आकार में

तज दो दारिद्र्य अपना
तज दो ऐश्वर्य भी

उठाओ अपनी भवें शून्य के गलियारे में

नदी से
बहुत दूर

बहुत बहुत
दूर
रेवा के तट से

बहुत    बहुत
दूर तुम !!





२०.
प्रतीक्षा करो
या न करो
कोई फ़र्क पड़ता है भला
वह रात के रहस्य में आती है तुम्हारे पास
तुम्हारी चादर की सल में अपनी पाँखुड़ी को धीरे-धीरे खोल देती हुई
तुम्हारे कानों की प्याली से अपनी ही गर्म सांस को पीती हुई ---
वह थक भी जाती है तुमसे
तुम्हारे बिम्बों और अक्सों और ध्वनियों से
किन्हीं और उँगलियों को अपने फूलों की दहक से छूना चाहती है वह
जो कोई और ही रूप देती हैं उसे
आह रूप !
जो चहों ओर तुम्हारा ही लिखा हुआ जान पड़ता है तम्हें
कहीं भी
किसी भी छाती में बिंधा हुआ तीर
दिशाओं में लरज़ रहा है तुम्हे टंकार देता हुआ
तुम उतने ही दारिद्रय में हो
उतने ही ऐश्वर्य में
जितना तुम दे सकते हो स्वयं को ---
वह तुमसे थक कर भी
तुम्हारे ही पास लौट आती है.


_______


तेजी ग्रोवर, जन्म १९५५. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. पाँच कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और इसी वर्ष (२०१७) लोक कथाओं के घरेलू और बाह्य संसार पर एक विवेचनात्मक पुस्तक के अलावा आधुनिक नोर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के तेरह पुस्तकाकार अनुवाद मुख्यतः वाणी प्रकाशन, दिल्ली, द्वारा प्रकाशित हैं. 

भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, रज़ा अवार्ड, और वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलोशिप. १९९५-९७ के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्षता. 

तेजी की कविताएँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में, और नीला शीर्षक से एक उपन्यास और कई कहानियाँ पोलिश और अंग्रेजी में अनूदित हैं. उनकी अधिकांश किताबें वाणी प्रकाशन से छपी हैं.

अस्सी के दशक में तेजी ने ग्रामीण संस्था किशोर भारती से जुड़कर बाल-केन्द्रित शिक्षा के एक प्रयोग-धर्मी कार्यक्रम की परिकल्पना कर उसका संयोजन किया और इस सन्दर्भ में कई वर्ष जिला होशंगाबाद के बनखेड़ी ब्लाक के गांवों में काम किया. इस दौरान शिक्षा सम्बन्धी विश्व-प्रसिद्ध कृतियों के अनुवादों की एक श्रंखला का संपादन भी किया जो आगामी वर्षों में क्रमशः प्रकाशित होती रही. इससे पहले वे चंडीगढ़ शहर के एक कॉलेज में अंग्रेजी की प्राध्यापिका थीं और १९९० में मध्य प्रदेश से लौटकर २००३ तक वापिस उसी कॉलेज में कार्यरत रहीं. वर्ष २००४ से नौकरी छोड़ मध्य प्रदेश में होशंगाबाद और इन दिनों भोपाल में आवास.

बाल-साहित्य के क्षेत्र में लगातार सक्रिय और एकलव्य, भोपाल, के लिए तेजी ने कई बाल-पुस्तकें भी तैयार की हैं.

२०१६-१७ के दौरान Institute of Advanced Study, Nantes, France, में फ़ेलोशिप पे रहीं जिसके तहत कविता और चित्रकला के अंतर्संबंध पर अध्ययन और लेखन. प्राकृतिक पदार्थों से चित्र बनाने में विशेष काम, और वानस्पतिक रंग बनाने की विभिन्न विधियों का दस्तावेजीकरण. अभी तक चित्रों की सात एकल और तीन समूह
प्रदर्शनियां देश-विदेश में हो चुकी हैं.
womenfordignity@gmail.com

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  1. अप्रतिम!

    समालोचन का आभार इन कविताओं को हमतक पहुंचाने के लिए!

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  2. इतनी धड़क, इतनी सूक्ष्मता, नश्वरता का ऐसा दुर्लभ बोध,भाषा की यह साध तेजी मैम की चौखट में ही पायी है मैंने हमेशा.मैं अपने दोस्तों के बीच उनके बालों की सफ़ेदी की क़समें उठाती हूँ. उनकी कविताएँ मेरी भूख मिटाती हैं.

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  3. भाषा और भाव सघनता,सूक्ष्मता, दुर्लभता बहुत अच्छी कविताये तेजी जी और अरुण जी शुक्रिया

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  4. प्रतीक्षा समय की बनी हुई नहीं है.. तेजी में जीवन की चुपचाप बहती नदी सुनाई देती है। किस चुप से पहाड़ का विस्मय। प्रकृति के निविड़पन में धीरे धीरे खुलती सुबह की तरह। कैरोल की एलिस की तरह शीशे से झांकती विचित्रता भीतर विचित्रता। और भी बहुत कुछ।
    अपर्णा

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  5. मैं दो कविताएँ पढ़कर पढ़ जाने की संतुष्टि से भर उठी हूँ। एक पंक्ति साथ ही रह गयी, शायद दिन भर या और आगे तक साथ रहे पर स्मृतियों के रोज़ घटते जाने और सूचनाओं के हर घड़ी बढ़ते जाने के समय में ऐसे दावे किए तो नहीं जाने चाहिए..
    ख़ैर... सम्मोहन पैदा करने तेजी को आता है। वे कुछ जगहों को ख़ाली छोड़ती हैं और कुछ को विशेष दबाव के साथ रखते हुए नाद-सौंदर्य और अर्थ छवियाँ रचती हैं।
    मैं अब भी उस बिम्ब ही में अटकी हूँ...

    तुमने एक फूल को देख लिया है तालाब की इंद्रियों में गुलाबी रिसते

    Arun Dev आपका हर बार शुक्रिया

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  6. एक कविता आपके मन में कंकर की तरह गिरे-- ना, कविता नहीं, उसकी पँक्ति; उसका कोई बिम्ब, उसका विन्यास, उसकी ध्वनि, उसका उपलब्ध अर्थ के पाश से फिसलना और अपनी इयत्ता में अनगिनत वलय बनाते रहना : तेजी (जी) की कविता यही करती है. मैं कितनी ही बार उनकी किसी पँक्ति की पता नहीं किस चीज़ में अटक जाता हूँ. अटक जाना ही मेरे पाठक का हासिल है.

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  7. बहुत दिन बाद सहेज कर रखने वाली कविताएं।शुक्रिया अरुण।शेयर कर रहा हूँ।जब तब पढ़ने के लिए।

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  8. राहुल द्विवेदी5 अक्तू॰ 2017, 6:37:00 pm

    मेरे जन्मदिन का बेहतरीन तोहफा अरुण जी !शब्द शब्द पीने की कोशिश में उसी में झरता जा रहा हूँ कुछ कुछ भीगा भीगा सा ...

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  9. धन्य हुए। दिव्य अनुभव। 13 वीं कविता को पढ़कर शमशेर याद आये। अब इससे बड़ा काम्प्लिमेंट मेरे पास नहीं है। कविताएं पढ़कर यह विश्वास दृढ़ हुआ कि असल चीज़ फ़ाॅर्म है, काॅन्टेंट आनुषंगिक है। धन्य!धन्य! कवि के लिए और आपका शुक्रिया।

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  10. "नाव को खेते, तैरते, बादल और धूप. आज मैं कुछ नहीं होना चाहता; कल देखेंगे."
    -जॉर्ज सेफ़ेरिस

    (बरसों से तेजी (एक नाम, निमित्त, मात्र-सूचक) की कविताएँ पढ़ते यही लगा कुछ व्यक्त कर पाना इस लिखत-पढ़त पर शायद इस जन्म जरूरी या संभव नहीं। वे हैं हमारे पास...रहने को आई, इतना क्या कम है। इसके बाद क्या और क्यों कहने की कामना का रहना। बरसों पहले कुछ लिखा था तेजी की कविताओं पर और लिखते वक्त भी और आज अरसे बाद उसे पढ़ते भी हर पल यही लगा कि कविताओं के होने के बाद का ये जतन कितना सतही और व्यर्थ है। एक जीवन में एक कवि लिखता है एक जीवन कम पड़ता है पढ़ने वाले के लिए। तेजी की इन कविताओं सहित सब कविताओं की कोई एक किताब है उस अज्ञात पाठक के पास । 'रहना' 'बसना' बस, और 'कुछ' भी 'कहने' की (खुद 'चुप' की भी) अंतिम साँस-सी कोई इच्छा नहीं रहती।)

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  11. शुक्रिया, आपने दोपहर बना दी,ये इत्मीनान से पढ़ने वाली कविताएँ हैं. हवा पानी बीज ज़मीन रंगों के हलके हलके पाँव रखती आती हुई कविताएँ. मर्म को छूती हुईं और वह उस उंगली से कि जिसे पकड़ा न जा सके. इन्हें तो ‘बिम्ब’ कहते भी कुछ ठीक सा नहीं लग रहा. बात इतनी पोशीदा है की जिसे ये कविताएँ दिखा रहीं हैं उसे देखने के लिए भीतर एक और आँख उगानी पड़े. तेजी जी की ये कविताएँ अभी और पढूँगी. ऐसी नायाब कविताएँ अकस्मात् टैग कर पढ़ाने के कारण ही समालोचन से जो है उसे कुछ प्रेम सा कहा जा सकता है.

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  12. शानदार कविताएँ। तेजी अपनी तरह की अद्भुत्त कवि हैं। उनकी कविताओं को बार-बार पढ़ने का मन होता है और जितनी बार हम उन्हें पढ़ते हैं, उतनी बार नई-नई छवियाँ, नई-नई अर्थ-छटाएँ खुलकर सामने आती हैं। मैं मुग्ध हो जाता हूँ... उनके बिम्ब और प्रतीक देखकर।

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