हिंदी सिनेमा के सदी के नायक अमिताभ बच्चन (जन्म-११ अक्टूबर, १९४२)आज ७५ साल के हो गए हैं. उनके चाहने
वालों की संख्यां में कोई कमी नहीं आई है. उनका तिलिस्म अभी बरकरार है. उनपर कई
भाषाओँ में अनगिनत किताबें लिखी गयीं हैं.
सुशील कृष्ण गोरे का यह आलेख.
हैप्पी बर्थडे अमिताभ.
@ 75 : अमिताभ आज भी एक
किंवदंती
डॉ.
सुशील कृष्ण गोरे
अमिताभ बच्चन अब भी एक किंवदंती हैं. पांच दशकों की एक अंतहीन पटकथा हैं. उनके फिल्मी
करिश्मे और उनकी अद्भुत क्षमताओं से निर्मित व्यक्तित्व का मिश्रित गुरुत्वाकर्षण
आज भी लाखों-करोड़ों को खींच लेता है. एक अनुमान लगाया जाए तो अमिताभ अपने 75वें
साल में लगभग पूरी एक अर्द्धशती के हिंदी सिनेमा का पर्याय बन चुके हैं. सात
हिंदुस्तानी से शुरू उनका सफ़र आज भी
बदस्तूर जारी है. उनकी जिजीविषा और जीवटता कमाल की है. जीवन के 75 बसंत देख चुके
अमिताभ की अब कोई समीक्षा नहीं करता. अब वे श्रद्धा और आदर से हिंदी सिनेमा का
बुज़ुर्ग पितामह (grand old patriarch) कहे जाने लगे हैं.
हिंदी के कवि और अंग्रेजी के प्रोफेसर डॉ. हरिवंश राय
बच्चन के सुपुत्र अमिताभ साइंस के विद्यार्थी रहे. दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से
उन्होंने बी.एस.सी. करने के बाद उन्होंने कोलकाता में नौकरी की. ऑल इंडिया रेडियो
के ऑडिशन में छाँट दिए गए. लेकिन, पुरुष्य भाग्य उसे उसके असली किरदार की तरफ़ मोड़
ही देता है. अमिताभ किसी नौकरी के लिए नहीं बने थे. आखिरकार उन्होंने साल 1969 में
मृणाल सेन की फिल्म भुवन सोम के नैरेटर के रूप में अपने लिए एक जगह
तलाश ली. संयोग से इसी साल ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनने वाली फिल्म सात
हिंदुस्तानी में उन्हें पहली बार
कैमरे के सामने आने का मौका मिला. यह भी एक ध्यान देने की बात है कि इस पहली फिल्म
में अमिताभ ने बिहार के एक कवि अनवर अली के किरदार को अपने अभिनय कौशल से जिस
प्रकार जीवंत किया, उसके लिए उन्हें उस वर्ष के बेस्ट-कमर फिल्म फेयर अवार्ड के
लिए चुना गया.
अभी तक के कैरियर में उन्हें 4 बार बेस्ट ऐक्टर का नेशनल
फिल्म अवार्ड तथा कुल 15 बार फिल्म
फेयर अवार्ड मिल चुका है. उन्हें
वर्ष 2007 में फ्रांस के सर्वोच्च नागरिक सम्मान लेजन दि ऑनर और
2015 में भारत सरकार के पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया. अभी तक 190
से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके बॉलीवुड के शंहशाह के लिए कोई पुरस्कार और कोई
खिताब अब बहुत मायने नहीं रखता.
वर्ष 1973 में जंजीर और 1975 में दीवार की
जबरदस्त सफलता ने अमिताभ की धारा को बदल दिया. मिली, अभिमान, सौदागर का एक बेहद सीधा-साधा और शर्मीला अमिताभ एक
एंग्री यंगमैन में बदल गया था. बहुत दिनों तक उन पर यह भी आरोप लगाया जाता रहा कि
हिंदी सिनेमा में उन्होंने मारधाड़ और हिंसा को पॉपुलराइज किया.
अगर दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, राजकुमार, राजेंद्र
कुमार के समय को हिंदी के कालखंडों के हिसाब से रीतिकाल कहा जाए तो अमिताभ का ठीक
पूर्ववर्ती समय सिनेमा का छायावाद था. अमिताभ का पदार्पण हिंदी सिनेमा के छायावादी
उत्सव में एक यथार्थवादी हस्तक्षेप था. हालांकि, इस हस्तक्षेप में भी एक रूमान था.
कई शोधकर्ताओं और समीक्षकों की राय है कि अमिताभ का सिनेमा एक अनिवार्यता थी. उनके
बहाने सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम में पहली बार सीधी पहल की अभिव्यक्ति दिखी थी. भले
ही, उनके एंग्री यंगमैन के भी तंत्र से टकराने के तौर-तरीके बाद में बहुत
अतियथार्थवादी लगने लगे थे. लेकिन, इससे एक दिशा बनी- सिस्टम और व्यवस्था पहली बार
सिनेमा के शिल्प में शामिल हुई. पुलिस की नाकामी, स्मगलरों से उनकी साँठगाँठ, पैसे
और बिजनेस के अनैतिक खेल, संगठित अपराध और उसके राजनीतिक संरक्षण के खिलाफ़ एक
आवाज अमिताभ की शुरूआती फिल्मों में सुनाई देती है.
अमिताभ में कुछ तो ऐसा था जो 70-80 के दशक में उभरते मध्यवर्ग
के जीवन में गहराती दुश्चिंता एवं निराशा को व्यक्त कर रहा था. उनका गुस्सा
व्यवस्था के खिलाफ़ था, लेकिन वे खुद कई बार जिन मूल्यों के लिए पर्दे पर युद्ध
करते हैं, उनका ही वे विखंडन भी करते हैं. चरमराते तंत्र से उपजे क्षोभ को वे किसी
निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुँचा पाते. बस, वे अपने समय के विरोधाभासों और अंतर्द्वंद्व
पर सवालों से परेशान दर्शकों को महज़ 3 घंटे की एक सिनेमैटिक रिलीफ दे देते थे. लोग-बाग
गुंडों के सिंडीकेट पर अकेले और निहत्थे टूट पड़ने वाले अपने एंग्री यंगमैन में वे
परिवर्तन की आशा देखने लगे थे. अपने गुस्से को आंखों और आवाज से बता देने की उनकी
स्टाईल उनके चाहने वालों के बीच में उन्हें वास्तविक अमिताभ में बदल रही थी – यह
लगाव इतना गहरा था कि उन्हें लगता था कि उनका महानायक एक दिन पर्दे से बाहर आएगा.
हताशा और दमन की मानसिकता रियल को अतिक्रांत कर फंतासी में अपना शरण तलाशती है.
अमिताभ के नायकत्व ने इस फंतासी को खूब गढ़ा.
अपने जिस किरदार में अमिताभ आज भी सबसे ज्यादा याद किए जाते
हैं, उस एंग्री यंगमैन से कहीं ज्यादा बड़ी उनकी प्रतिभा प्रेम और हास्य को व्यक्त
करने में दिखाई पड़ी थी. जनता के बहुत बड़े वर्ग ने एक्शन वाले अमिताभ से अधिक मिली,
अभिमान, कभी-कभी, सिलसिला, चुपके-चुपके, अमर अकबर एंथनी, शराबी वाले अमिताभ को
पसंद किया. अमिताभ ने अपने सक्रिय जीवन के कई क्षेत्रों में अपनी अद्भुत क्षमताओं
का लोहा मनवाया है. चाहे वह सिनेमा हो, राजनीति हो, कला या फिर केबीसी ही क्यों न
हो.
वर्ष 2005 में रिलीज हुई ब्लैक ने उनके फिल्मी
कैरियर में तीसरे पुनर्जागरण का सूत्रपात किया. उसके बाद हर चार-पांच साल के अंतर
से अमिताभ को एक साथ बेस्ट एक्टर का नेशनल फिल्म अवार्ड और फिल्म फेयर अवार्ड
दोनों मिले. इस प्रकार उनके कैरियर का यह तीसरा चरण उनके लिए एक साथ पहले से कहीं
ज्यादा भाग्यशाली और चुनौतीपूर्ण दोनों रहा. ब्लैक के बाद क्रमिक रूप से पा
और पीकू में अपनी परिपक्व अभिनय क्षमता प्रदर्शित कर अमिताभ ने
साबित कर दिखाया कि उनमें कॉमर्शियल के अलावा कलात्मक वैभव के भी शिखर हैं. पिछले
वर्ष 2016 में अनिरुद्ध रॉय चौधुरी के निर्देशन में बनी फिल्म पिंक में
अमिताभ ने लॉयर दीपक सहगल का सशक्त किरदार निभा कर एक बार फिर बिग-बी का अपना परचम
लहरा दिया है. इस फिल्म के कोर्ट दृश्य में अमिताभ का आक्रोश और चिंता से उद्विग्न
चेहरे की मुद्रा देखने लायक है.
उनकी दांत पीसती आवाज से पूरे कोर्ट में सन्नाटा छा जाता है.
स्त्री अधिकारों के जबरदस्त प्रवक्ता के रूप में उन्होंने एक यादगार भूमिका निभायी
है. ये सारी फिल्में मुद्दों और आज के जटिल जीवन के सोशल फ्रेमवर्क से जुड़े तमाम
ज्वलंत प्रश्नों पर केंद्रित हैं – जिनमें फंतासी या यूटोपिया नहीं है. बल्कि,
उनमें नई सामाजिक परिघटनाओं और विराट महानगरीय सभ्यता से छीजती संवेदनाओं एवं
मानवीयता को सिनेमा के सार्थक मुहावरों में ढालने की एक नई प्रयोगधर्मिता दिखती है.
हमने देखा कि अमिताभ का एक पक्ष है जो सिनेमा से उनको मिला है.
एक दूसरा जबरदस्त पक्ष खुद उनका निजी व्यक्तित्व भी है. इस व्यक्तित्व की आधारशिला
इलाहाबाद है, डॉ. बच्चन हैं, मधुशाला है, दशद्वार है, अवधी है, हिंदी है. हिंदी की
ज़मीन उनकी एक ऐसी खूबी है जिसने उन्हें पैंतालिस-पचास वर्षों में इतने बड़े देश का
एक ऐसा चहेता सितारा बना दिया है जिसकी चमक घटने की बजाय दिनों-दिन बढ़ती ही जाती
है. उसकी शख्सियत में न जाने क्या है जो उनसे जुड़े विरोधों, विवादों और आरोपों को
भी नेस्तनाब़ूत कर देता है. इसका एक प्रमाण फिल्म कुली की दुर्घटना के वक्त
दिखाई दिया था और आज एक बार फिर केबीसी के समय में भी दिख रहा है.
आज फिर एक बार देश के अधिकांश भागों में रात 9 बजे के बाद
घरों की खिड़की और बालकनी से –नमस्कार, देवियों और सज्जनों की गूँज सुनाई देने लगी है. क्या समझते
हैं – लोग इस शो में सिर्फ़ 3 लाख 20 हजार रुपए जीतने के लिए आते हैं. अधिकांश
महानायक को करीब से देखने, उनको छूने, उनसे बात करने की हसरत से आते हैं. उनके साथ
एक सेल्फी उनके लिए 1 करोड़ की बन जाती है. इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि आज के
भारत में अमिताभ को चाहने वाली तीन पीढ़ियों के लोग मौजूद हैं जो उनकी हर कृति और
हर करिश्मे पर नज़र रखते हैं. वे कई बार अपने में उनका और उनमें अपना अक्श आज भी
ढूँढ़ते हैं. यह श्रेय इतनी विह्वलता में इतने समय तक आज तक किसी के लिए नहीं संभव
हुई.
अमिताभ की प्रासंगिकता उनका अपने समय, उसके मौजू सवालों और मुद्दों से प्रतिक्रिया करने तथा खुद को सिनेमा की बदलती अपेक्षाओं के हिसाब से समायोजित करने में निहित है.
अमिताभ की प्रासंगिकता उनका अपने समय, उसके मौजू सवालों और मुद्दों से प्रतिक्रिया करने तथा खुद को सिनेमा की बदलती अपेक्षाओं के हिसाब से समायोजित करने में निहित है.
आदरणीय अमिताभ जी का फिल्म जगत में बहुत बड़ा नाम तो है ही, लेकिन कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रम से उन्होंने सामान्य ज्ञान के प्रति लोगों में िदिलचस्पी बढ़ाई। छोटे परदे के माध्यम से वे लोगों के और करीब आ गए। खास करके भारतीय संस्कृति की जोे अनुकरणीय मर्यादाएं हैं, उनका दर्शन अमिताभजी के माध्यम से नई पीढ़ी ही बल्कि उन लोगों तक भी पहुंची जो उन्हें भूलते जा रहे हैं। उनके जन्मदिन के अवसर पर भाई सुशील कृष्ण गोरे जी ने उनके जीवन की जो झलक िदिखाई है उससे कोई केवल अमिताभ जी के जीवन के बारे में ही नहीं समझता बल्कि िफिल्मी जगत के इतिहास से भी जुड़ जाता है। इस अवसर को साध कर लेख िलिखने के िलिए भाई सुशील जी को बहुत-बहुत बधाई। साथ ही समालोचन ब्लॉग पोस्ट के प्रबंधकों को भी बधाई िकि वे िहिंदी साहित्य जगत में िक्रियाशीलता लाने के िलिए इस प्रकार प्रयत्नशील हैं। समालोचन ब्लॉगपोस्ट की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़़े।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सादर
नितीन देसाई
मुंबई
nitin67j@gmail.com
इस आलेख को पढ़ने के बाद लगता कि हम कलम के किसी अमिताभ को पढ़ रहे हैं। अमिताभ जी की समीक्षा करने की कूबत तो शायद किसी में नहीं है पर सुशील भाई के आलेख की समीक्षा तो बनती है और मेरी व्यक्तिगत समीक्षा में मैं सिर्फ यही कह सकता हूं कि उनका आलेख अमिताभ जी को आह्लादित करेगा। शब्दों के चितेरे को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत दिनों बाद सुशील जी का तबीयत से लिखा कुछ पढ़कर मजा आ गया! बहुत बढ़िया आलेख अमिताभ पर! बधाई!
जवाब देंहटाएं- राहुल राजेश, कोलकाता।
वाह गोरे जी आपका सदी के महानायक का चित्रण अतुलनीय है। मै आलेख पर श्री नितिन देसाई और उमेश यादव जी की टिपण्णी से पूर्णतः सहमत हूँ। अमिताभ जी के जन्मदिन पर आपका आलेख सर्वश्रेष्ठ उपहार है।
जवाब देंहटाएंफिल्म के नायक का छायावाद से यथार्थवाद का संक्रमण, एंग्री यंग मैन का समाज की युवाचेतना से जुड़ाव तथा अमिताभ जी के फ़िल्मी सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पहलुओं का इतना संक्षिप्त और सटीक चित्रण मैंने अन्य कही नहीं देखा।
बहुत बहुत साधुवाद।
वेद प्रिय राजवेदी
लखनऊ
अमिताभ बच्चन जी के 75 वर्ष पूरे होने पर श्री गोरे का आलेख पढ़। अमिताभ जी के जीवन का मूल्यांकन संक्षेप में बहुत ही रुचिकर लगा। शख्सियत इतनी ऊंची और गरिमामय है कि उसे शब्दों में ढालना और प्रेजेंटेबल बना पाना वाकई कोई बिरला ही कर सकता है।श्री गोरे जी को मेरा सलाम।
जवाब देंहटाएंश्री अमिताभ बच्चन के साथ हिन्दी साहित्य का अटूट नाता है। हमें तो उनके चेहरे और आवाज़ में कविवर बच्चन निरंतर दिखाई-सुनाई पड़ते हैं। वह बेमिसाल हैं.. शत-शत शतायु हों.. उन्हें आदर सहित बधाई-शुभकामनाएं..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन व्यवसायिक अभिनेता अभिताभ बच्चन और उनकी पत्नी की अद्भूत तस्वीर .... यहां जया जी का वत्सल भाव शिखर पर है ....
जवाब देंहटाएंनारी शक्ति को नमन ....
बेहतरीन अभिनेता एवं कुशल व्यवसायिक बुद्धि के धनी बच्चन जी को शुभकामनायें
अमिताभ एक युग-पुरुष हैं; उम्र के हर पड़ाव को उन्होने नायकत्व प्रदान किया है| उनकी वाणी का अनुसरण करती हुई हिंदी मानों घुँघरू बांधे शास्त्रीय नृत्य करती है|
जवाब देंहटाएंगोरे सर का आलेख एक सांस में पढ़ गया| बहुत सुंदर
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