कैसे भूल जाऊं मैं महादेवी वर्मा सृजन पीठ को ? : बटरोही






‘महादेवी वर्मा सृजन पीठ’ की स्थापना के पीछे ख्यात कथाकार बटरोही के संघर्ष को हिंदी समाज याद रखेगा. इस बीच ‘पीठ’ पर ‘कब्जे’ का अपयश भी उन्हें भोगना पड़ा. आख़िरकार यह ‘पीठ’ भी व्यवस्था के तन्त्र में उलझकर बुझ गया. ऐसे में जिसने इसे रोपा और विकसित किया हो उसकी मनोदशा को समझा जा सकता है. क्या ‘हिंदी समाज’ संस्थान-भंजक समाज है? तमाम संस्थाएं इसी तरह नष्ट होती जा रही हैं.  


कैसे भूल जाऊं मैं महादेवी वर्मा सृजन पीठ को ?                          
बटरोही



मेरे दोस्त मुझसे कहते हैं कि मैं 'महादेवी वर्मा सृजन पीठ' को अपने दिमाग से निकाल दूँ. काश, ऐसा हो पाता! क्या एक शिशु को जन्म देने के बाद उसके होश सँभालने से पहले ही अपनी आँखों के सामने उसे भूखा-प्यासा तड़पता हुआ देखा जा सकता है? मुझसे तो ऐसा नहीं हो पाता. आप ही कोई तरकीब बताइए.

1993-94 में प्रयाग विश्वविद्यालय के काम से मैं इलाहाबाद गया था. एक शाम मेरे सहपाठी रामजी पाण्डेय ने मुझे अपने घर खाने पर बुलाया. रामजी महादेवी के जीवन काल में ही स्थापित उनके न्यास 'साहित्य सहकार न्यास' के सचिव थे और उनकी सारी संपत्ति की देखरेख का जिम्मा उन्हीं का था. प्रसिद्ध कथाकार अमृत राय उसके अध्यक्ष थे और कार्यकारिणी में अनेक ख्यातिप्राप्त लेखक शामिल थे. बातों-बातों में रामजी ने मुझसे कहा कि रामगढ़ में महादेवी जी का बंगला 'मीरा कुटीर' और कुछ भूमि है, जिसकी व्यवस्था इतनी दूर से नहीं हो पाती. रामजी ने सुझाया कि क्या उसका उपयोग उस क्षेत्र के रचनाकारों के उपयोग और उन्हें प्रेरित करने का लिए नहीं हो सकता? मुझे लगा, यह काम करना तो मेरा दायित्व है और मैंने उसी पल से इस पर सोचना शुरू कर दिया.

लौटने पर रामगढ़ जाकर देखा तो पता चला कि महादेवी के बंगले पर राम सिंह के परिवार का कब्ज़ा है और वह उसे अपने घर की तरह इस्तेमाल कर रहा है. मेरे वहां पहुँचने की खबर रामगढ़ पहले ही पहुँच चुकी थी, ज्यों ही मैं घर की सीमा पर पहुंचा, रामसिंह की माँ ऊपर से दराती नाचते हुए चिल्ला रही थी, "मैं देखती हूँ, कौन हमारा घर छीनता है, हमारे घर को हाथ लगा कर तो देखो, इसी दराती से अगर गर्दन अलग नहीं की तो मैं अपने बाप की बेटी नहीं." पता चला कि रामसिंह बचपन से महादेवी के साथ उनके घरेलू नौकर के रूप में काम करता था, और कभी महादेवी जी ने उससे कहा था कि मेरे बाद इस घर की देखरेख के लिए और कोई है तो नहीं, इसे तुमको ही देखना होगा. इसी आधार पर रामसिंह खुद को महादेवी जी का उत्तराधिकारी समझ बैठा था. उस घर में उसकी माँ, बेटा और उसके तीन-चार बच्चे रहते थे. मुझे उन्होंने मकान के नजदीक फटकने नहीं दिया. मैं मुँह लटकाए वापस चला आया.

संयोग से उन दिनों नैनीताल के जिलाधिकारी मानवेन्द्र बहादुर सिंह थे जो प्रोफ़ेसर नामवर सिंह के साले लगते थे. उन्हें मैंने अपने मन की बात बताई तो उन्होंने जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक समिति गठित करने को कहा. नैनीताल के जिला प्रशासन में मेरे कुछ सहपाठी और विद्यार्थी थे. खासकर मेरे बी. ए. के सहपाठी माधवेंद्रप्रसाद उनियाल कुमाऊँ मंडल विकास निगम के प्रबंध निदेशक थे. राम सिंह का लड़का उन्हीं के एक कार्यालय में काम करता था. डी.एम. और माधवेंद्र ने लड़के को बुलाकर धमकाया और वह घर खाली करने के लिए राजी हो गया. रामगढ़ के कुछ ग्रामीणों को मिलाकर मैंने एक समिति बनाई जिसमें मुख्य रूप से रामगढ़ के ग्राम प्रधान लक्ष्मीदत्त जोशी और नैनीताल से शीला रजवार और कथाकार प्रेमसिंह नेगी शामिल थे. बेहद उत्साह से हम लोगों ने काम शुरू किया. कुल दस-बारह लोगों की समिति में सभी सदस्यों में समान उत्साह था. नैनीताल से रामगढ़ पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर है. सभी लोग अपना पैसा खर्च करके सप्ताह में एक-दो बार वहां जाते और बैठकें करते. इस बीच जिलाधिकारी ने अपने विवेकाधीन कोष से पचास हजार रुपये की राशि प्रदान की जिससे कि बुरी तरह टूट-फूट रहे उस भवन की मरम्मत करके उसे संग्रहालय का रूप दिया गया. हमें लगा, हम महादेवी के घर को बचा ले जायेंगे. (इससे पहले वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत मुझे तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री माधवराज सिंधिया के पास ले गए थे, जिन्होंने पांच हजार की सहायता राशि प्रदान की जो उस वक़्त एक बड़ी राशि थी.)

मगर मुझे क्या मालूम था कि इस उत्साह के पीछे मंशा कुछ और ही था. मुझे मालूम हुआ कि रामगढ़ के प्रधान जोशी और रामजी पाण्डेय इससे पहले कई बार रामसिंह को हटाने की कोशिश कर चुके थे और असफल रहे थे. उन्हें उम्मीद नहीं थी की इतनी आसानी से घर खाली हो जायेगा. एक ओर नैनीताल के हम लोग अपनी पूरी कल्पनाशीलता के साथ संग्रहालय को रूप देने में लगे थे. दूसरी ओर लक्ष्मीदत्त जोशी और रामजी ने मेरे खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. प्रचार किया गया कि मैंने महादेवी के घर पर कब्ज़ा कर लिया है. रामजी का कहना था कि वह इसे महिलाओं की सिलाई-कढ़ाई केंद्र के रूप में स्थापित करना चाहते थे और लक्ष्मीदत्त इसे महादेवी के मंदिर के रूप में, जहाँ वह सुबह-शाम पूजा-अर्चना और भजन कीर्तन करते रहेंगे. मेरे द्वारा दोनों ही बातों के लिए मना करने पर मेरे खिलाफ षड्यंत्र तेज हो गया, मगर मैं और नैनीताल के साथी पहले की तरह काम में लगे रहे. रामगढ़ से दो-चार लोग मेरे काम को पसंद कर रहे थे, मगर वे ग्रामप्रधान को नाराज नहीं करना चाहते थे. केवल ग्राम प्रधान जोशी ही था जो महादेवी की संपत्ति की क़ानूनी जानकारी रखता था, महादेवी के जीवन काल में भी उसने उनकी संपत्ति का एक हिस्सा अपने नाम करवा लिया था, महादेवी जी ने नैनीताल कोर्ट में उसे चुनौती भी दी थी, मगर मामला विवादित चल रहा था. मैं समझ रहा था कि मेरी मंशा अगर गलत नहीं है तो मुझ्रे क्यों चिंता करने की जरुरत नहीं है. मैं यह भी समझ रहा था कि जिस संस्था का अध्यक्ष जिलाधिकारी को, उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है!

मगर प्रधान लक्ष्मीदत्त एक लड़ाकू व्यक्ति था जिसके खिलाफ अनेक मुक़दमे चल रहे थे. जिलाधिकारी ने जब अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके महादेवी की जमीन और घर को 'महादेवी साहित्य संग्रहालय' के नाम कर दिया, प्रधान ने इसके खिलाफ कमिश्नर के यहाँ याचिका दायर की. चूँकि मैं संग्रहालय का सचिव था, इसलिए संपत्ति हस्तांतरण की प्रक्रिया मेरी ओर से हुई थी. हालाँकि यह हस्तांतरण जिले के प्रशासक (जिलाधिकारी) ने संग्रहालय के अध्यक्ष जिलाधिकारी के नाम किया था. संग्रहालय की कार्यकारिणी में मेरी पत्नी भी थी, प्रधान को एक बहाना और मिल गया और वह प्रचार करने लगा कि मैं अपनी पत्नी के साथ मिलकर महादेवी जी की संपत्ति हड़प रहा हूँ. इस बीच हम लोगों ने (समिति ने) मिलकर अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रम किये, मगर मुक़दमा लड़ने के लिए हमारे पास न पैसा था न सुविधा. साहित्यिक अभिरुचि के एक वकील गोविन्द सिंह बिष्ट निःशुल्क हमारी मदद कर रहे थे, मगर बार-बार बिना फ़ीस दिए हमें भी संकोच हो रहा था. चारों ओर यह बात फैलाई जा रही थी कि मैंने संपत्ति पर व्यक्तिगत रूप से कब्ज़ा किया हुआ है, इसलिए लोग मदद के लिए चाहकर भी आगे नहीं आ पा रहे थे. 

इसी बीच 2003-4 में मेरी बातें उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी जी से हुई और उन्होंने इसके लिए डेढ़ करोड़ रूपये की धनराशि प्रदान की और यह शर्त रखी कि इसके ब्याज से संस्था चलेगी जो एक लाख रुपये प्रतिमाह है. मुख्यमंत्री ने कहा कि शासन यह रकम समिति को नहीं दे सकता, उन दिनों मैं कुमाऊँ विश्वविद्यालय में डीन था, इसे विश्वविद्यालय को प्रदान किया गया और यह राशि कुलपति की अध्यक्षता में वित्तअधिकारी के द्वारा संचालित होनी थी. सारे झंझट से मुक्ति का मुझे भी यही रास्ता नजर आया कि इसे विश्वविद्यालय को दे दिया जाय. कम-से-कम इस बहाने संस्था तो जिन्दा रहेगी. काम करने की स्वायत्तता प्राप्त होगी. हालाँकि ग्राम प्रधान का मुकदमा अभी भी नैनीताल हाईकोर्ट में चल रहा है, मगर अब यह मेरा सरदर्द नहीं था. तिवारी जी के प्रयत्नों से चार कमरों का किचन समेत एक अतिथि गृह भी बना, जिस पर ग्राम प्रधान का (अब प्रधान न होते हुए भी) कब्ज़ा है.

अपने जीवन के बेहतरीन चालीस साल विश्वविद्यालय को समर्पित करने के बावजूद मैं नहीं जानता था कि विश्वविद्यालय वास्तव में रचनाधर्मिता की कब्रगाह होते हैं. हुआ यह कि यह बात किसी भी कुलपति की समझ में नहीं आई कि एक रचनाकार का कद प्रोफ़ेसर से बड़ा तो छोडिये, उसके बराबर भी हो सकता है. 'महादेवी वर्मा सृजन पीठ' को विश्वविद्यालय के एक विभाग की तरह संचालित किया जाने लगा. बार-बार वित्त विभाग द्वारा आपत्ति की जाने लगी कि जिस व्यक्ति की कोई स्थाई आमदनी नहीं है, उसे देश के सर्वोच्च नौकरशाह के बराबर की (प्रोफ़ेसर की) सुविधाएँ कैसे दी जा सकती हैं. हालाँकि जिन दिनों अशोक वाजपेयी महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति थे, पीठ में जो कार्यक्रम हुए उनमे ऐसी दिक्कतें नहीं थी, लेकिन यह स्थिति सिर्फ उनके कार्यक्रमों तक थी. उसके बाद 'कथाक्रम', 'महिला समाख्या' और 'विज्ञान प्रसार' के साथ मैंने साझा कार्यक्रमों की योजना बनायीं. एक महत्वपूर्ण एम. ओ. यू. महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति वी. एन. राय के साथ किया, कुलपति के साथ वर्धा के लिए मेरा हवाई टिकट भी आ गया, मगर रातों-रात हिंदी विभाग के एक अध्यापक को निदेशक नियुक्त कर दिया गया और सारा कामकाज उन्हीं प्राध्यापक के द्वारा संचालित होने लगा. 

मेरे पास अब इतनी ताकत नहीं थी की मैं कुलपति या उन प्राध्यापक के खिलाफ न्यायालय में जाता. कुलसचिव से बातें की तो उनका कहना था, 'डॉ. साहब, कभी-न-कभी तो निदेशक बदलना ही था, कौन है जो हमेशा सीट में रहता है?' उन्हें मैं क्या बताता कि यह किसी विभागाध्यक्ष का रोटेशन नहीं है, हर अध्यापक रचनाशील नहीं होता. मगर कोई मास्टर यह सुनने के लिए कैसे तैयार हो सकता है कि उसकी क्रियेटिविटी का रूप भिन्न भी हो सकता है. इस संसार में विश्वविद्यालय का प्राध्यापक क्या नहीं कर सकता. उस पर हिंदी का अध्यापक जिसको भगवान ने पैदाईशी सर्वगुण संपन्न बनाया है.

बावजूद इसके महादेवी वर्मा सृजन पीठ ने पिछले दो दशकों में इस संस्था की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनायीं है. देश के चोटी के रचनाकारों ने यहाँ आकर इसे और खुद को समृद्ध किया है. फिर चाहे वह अशोक वाजपेयी हों, निर्मल वर्मा हों, मैत्रेयी पुष्पा हों, अपूर्वानंद, प्रियंवद, पंकज बिष्ट, रमेशचन्द्र शाह, गिरिराज किशोर, पुरुषोत्तम अग्रवाल, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, विश्वनाथप्रसाद तिवारी, शैलेश मटियानी, अजित कुमार, मनोहरश्याम जोशी, लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल, महुवा मांझी, अरुण कमल, गोविन्द सिंह, गगन गिल, राजी सेठ, प्रयाग शुक्ल, मंगलेश डबराल, मधु बी.जोशी, निर्मला जैन आदि-आदि वे सैकड़ों प्रतिष्ठित रचनाकार जिनके नाम अभी याद नहीं आ रहे है. महिला समाख्या की गीता गैरोला और महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के अशोक वाजपेयी और अपूर्वानंद ने तो पीठ में अनेकों यादगार कार्यक्रम किये हैं.

अब आप ही बताएँ, कैसे भूल जाऊं मैं अपने महादेवी वर्मा सृजन पीठ को ?

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लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही
जन्म : 25  अप्रैल, 1946  अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँव
पहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास 'गर्भगृह में नैनीताल' का प्रकाशनअब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित.
इन दिनों नैनीताल में रहना. मोबाइल : 9412084322/ email:  batrohi@gmail.com

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  1. आपका योगदान सराहनीय है सर

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  2. अफ़सोस। मैं यहाँ जा चूका हु। यह ऐसे ही सबके लिए प्रेरणा श्रोत रहे,यही इच्छा है

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08 - 10 - 2015 को चर्चा मंच पर

    चर्चा - 2123
    में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  4. विरले होते हैं आप जैसे लोग.. आपका यह उल्लेखनीय उपलब्धि सदैव याद रखी जावेगी

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  5. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और प्रेरणादायक कहानी - असली धन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  6. आहा बहुत कुछ समझा दिया आपने आदरणीय आपका दर्द समझ में आता है । सबसे बड़ा मोड़ कुर्सी बदलवाने वालों के हाथ में पीठ की चाबी चले जाना । राम सिंह लक्ष्मीदत्त जैसे लोग भरे पड़े हैं कुछ सामने से कुछ पर्दे के पीछे । फिर भी आपका योगदान समय याद रखेगा ।

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  7. अपनी विरासत को पहचानने, उसे अगली पीढ़ियों के लिए जीवंत और उपयोगी बनाए रखने के लिए कुछ ठोस करना ही होगा। यूं तो यह समाज का काम है। लेकिन समाज की करतूत दिख ही रही है इसलिए लेखकों को ही आगे आना होगा। लेखक संघों की भी यहां महत्‍वपूर्ण भूमिका है। हिंदी समाज में ज्‍यादा काम करने की जरूरत है।

    मराठी के एक प्रसिद्ध संगीतशास्‍त्री अशोक रानडे का तीन साल पहले देहांत हो गया था। उनकी पत्‍नी कथाकार हेमांगिनी रानडे और मैं आकाशवाणी में साथ साथ काम करते थे। कुछ दिन पहले उनसे मुलाकात हुई तो बता रही थी, रानडे साहब के एक शिष्‍य चैतन्‍य ने पूना में रानडे के नाम पर एक आर्काइव बना दिया है, जहां उनकी किताबें, रिकार्डिंग्‍स आदि शोधार्थियों को उपलब्‍ध हैं। हेमांगिनी और उनके भतीजे अंजुम राजाबली ने मिलकर एक ट्रस्‍ट बना दिया है जो एक वार्षिक व्‍याख्‍यान का आयोजन करता है।

    ऐसे काम हिंदी में कब होने लगेंगे?

    आनंद में शिवकुमार मिश्र की पुस्‍तकें भी किसी ठोस योजना का इंतजार कर रही हैं। हरियश राय, नरेश चंद्रकर, मुरली बाबू चाह कर भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं।

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  8. करीब 2 साल पहले सृजनपीठ गई थी। व्यवस्थित पुस्तकालय । साफ़ सुथरा परिसर। बटरोही जी का योगदान प्रेरित करता है। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने रामगढ़ में ही गीतांजली लिखी थी। अब सिर्फ यह साहित्य के इतिहास में मात्र दर्ज़ है। धरोहर की संभाल नहीं है इस देश में।

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