परख : मरें तो उम्र भर के लिए : वैभव मणि








(मरें तो उम्र भर के लिए 
लेखक : आशुतोष 
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ 
पृष्ठ संख्या : 122 
मूल्य : रुपये 160.)
समीक्षा
हमारे समय का बयान उर्फ़ मरें तो उम्र भर के लिए       
वैभव मणि त्रिपाठी




1991 में हमारे देश के एक प्रखर प्रधानमंत्री जिन्हें इतिहास में मौनी बाबा के नाम से याद रखा जायेगा उनकी सरकार के वित्त मंत्री (जो कालांतर में प्रधानमंत्री बनने पर उन्ही के समान अपने मौन के लिए जाने गए) ने भारत को तात्कालिक आर्थिक समस्याओं से निजात का एक सीधा सरल उपाय दिया उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और निजीकरण की बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था का. ये बहस का विषय हो सकता है कि ऐसे टेलर-मेड वैश्वीकरण की हमें कितनी जरुरत थी और वैश्वीकरण की संकल्पनाओं को भारतीय ढाँचे में ढालने के लिए अपने दायित्व को लेकर योजना आयोग और वित्त मंत्रालय जैसी संस्थाओं में बैठे ज्ञानी कितने गंभीर थे. पर इस एक निर्णय ने भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संरचनाओं को जिस तरह बदल दिया वो लगभग एक क्रांति जैसा था. आज जो युवा चालीस से कुछ कम वय के हैं, उन्होंने अपनी जवानी के दिनों में संक्रमण काल का समाज देखा है. ऐसा समाज जिसके मूल्य से ले कर मान्यताएं और ताने-बाने से लेकर रंगत तक सब कुछ उदारीकरण के रंग में रंगा जा रहा था. ऐसा समाज जिसके आदर्श दिन प्रति दिन बदल रहे हों, युवा मन पर क्या प्रभाव डालता है और कैसे कैसे विचलन और उहापोह को जन्म देता है इसे इसी आयु वर्ग के युवाओं ने सबसे नज़दीक से देखा है. जहाँ रोजगार से ले कर भोजन तक सब कुछ वैश्वीकरण के खेल के नियमों से संचालित होने को प्रतिबद्ध हो, वहां लगभग सामंती सोच और मिजाज़ वाले समाज का क्या अर्थशास्त्र होगा और क्या मनोविज्ञान ये समझना कोई टेढ़ी खीर नहीं.

युवा कथाकार आशुतोष मिश्र का कहानी संग्रह “मरें तो उम्र भर के लिए” इसी मनोवृत्ति का प्रतिनिधि कहानी संग्रह है. इस संग्रह में अलग अलग परिवेश और अलग अलग मिजाज़ की कुल छः कहानियाँ है संग्रह की हर कहानी का स्वर अलग है पर अगर थोडा सा आँखें बंद करके, ध्यान लगा के सुनने की कोशिश की जाय तो ये कहानियां उदारीकरण के बाद के संक्रमण काल की वो आवाजें हैं जो मध्य और निम्न मध्यवर्ग के पात्रों की सहायता से सामंतवाद और उदारीकरण के बीच के संक्रमण काल के समाज की विडंबनाओं को स्वर देती हैं. कहीं ये आवाज गाँव के नचनिये की नाच की थाप से आती है कहीं होस्टल के कमरे में परीक्षा का फॉर्म भरते युवा की कलम की नोक से. और इन सपनों पर कुठाराघात करते वो हन्ता स्वर भी है जो किसी इंटरव्यू पैनल के सदस्यों के मुख से आते हैं, कहीं आदर्शवादी प्रेमी से पीछा छुड़ाती प्रैग्मेटिक (यथार्थवादी) प्रेमिका के पत्र या मोबाइल सन्देश  से और कहीं आधुनिक से उत्तर आधुनिक बनने की चाह रखते पारिवारिक मूल्यों और परिजनों का परित्याग करते दिशाहीन मूल्यहीन युवाओं के कृत्यों से.

इस संग्रह की पहली कहानी “रामबहोरन की आत्मकथा” में आज के उस युवा की कहानी है जिसके चरित्र के ताने बाने में बुननेवाले ने न जाने कैसे बहुत होशियारी से सफलता पाने की चाह वाले धागे को आदर्शवाद के धागे से बदल दिया है. और नतीजा यह की नौकरी हो या प्रेम हर मामले को आदर्श निगाहों से देखता रामबहोरन सबसे वंचित है. नौकरी मिली नहीं और प्रेमिका को रामबहोरन संजो नहीं रख पाया वाले नोट पर ख़तम होती कहानी आज के समय में आदर्शों के दिनप्रतिदिन आउटडेटेड होते जाने के खतरे को रेखांकित करती है जहाँ आदर्शवाद ख़तम नहीं हो रहा बस उसपर उपयोगिता और यथार्थवाद का चमकीला रंग रोगन चढ़ाया जा रहा है. निम्न मध्यवर्ग के सभी विरोधाभासों से भरी यह कहानी खत्म होने के बाद भी एक लम्बा सन्नाटा छोड़ जाती है क्योंकि एक रामबहोरन को हम भी किसी दूसरे नाम से जानते हैं.

पिता का नाच” कहानी एक ऐसे बाप की कहानी है जिसकी समृद्धि उसकी नाच पार्टी की वजह से है, और उसी कमाई पर पले बढे बच्चे अब सबसे अधिक लज्जित इसी बात पर हैं की उनका पिता नाचपार्टी चलाता है. पिता की नाच पार्टी बंद करवाकर बहन की शादी की जिम्मेदारी पूरी कर सुखी होने के बीच की बाधा बनती है लड़के वालों की फरमाइश की शादी में नाच तो मीनाकुमारी बैंड पार्टी का ही होना चाहिए. कुछ कलाएं ऐसी होती हैं जिनका अस्तित्व समाज में सभी को चाहिए पर उसका खुद से कोई जुड़ाव नहीं होना चाहिए. एक कलाकार की कला का रसास्वादन तो सब करते हैं उसे उसका वांछित सम्मान यह समाज देने से साफ़ इनकार करता है. समाज के दोगलेपन पर सवाल उठाती ये कहानी इस संग्रह की सबसे छोटी पर बेहद विचारोत्तेजक कहानी है.

परिवार के वृद्ध परिवार के निर्माता होते हैं. परिवार की जिम्मेदारियां उन्हें कभी बोझ नहीं लगतीं. पर जब वे एक उम्र के बाद अनप्रोडकटिव या अनुपयोगी हो जाते हैं तो उनकी छोटी छोटी इच्छाएं भी परिवार के लिए बोझ बन जाती हैं. कई बार, उम्र के इस पड़ाव पर, बुजुर्ग घर के बाहर किसी को खोज लेते हैं जो उनके सुख दुःख का संबल और तृप्ति में आशीर्वाद सरीखा बनता है. “दादी का कमरा” एक महिला के जीवन की कहानी है जिसने अपनी ससुराल में फूस की झोंपड़ी में कदम रखा और विशाल मकान में भरापूरा घर परिवार छोड़ कर मरी. बस समय के साथ उनका अस्तित्व कमरे से उठ कर बारामदे में आ गया और धीरे धीरे वहां भी वांछनीय हो गया. जिसका जीवन अवांछित था, उनकी मृत्यु सुखी संपन्न परिवार की शानो शौकत का प्रदर्शन का अवसर बन गयी और उस घर का पाल्य जमाली दूर कहीं बैंड साध कर दादी को असली शोक के साथ अंतिम विदाई दे रहा था.

पत्नी को स्कूटर पर बिठा कर बाज़ार ले जाना और वापसी में उसको किसी ठेले खोमचे के पास रोक कर मनभर कर गोलगप्पे खिलाना हम में से बहुतों के लिए अनजाने किया जाने वाला कर्म है, कोई भोर के तारे को देख के मानी जाने वाली मन्नत नहीं. पर “स्कूटर, गोलगप्पे और वो लहराता आँचल”  कहानी में यह एक आकांक्षा ही जीवन संघर्ष का संबल सरीखी बात बन जाती है. कहानी की नायिका एक निम्न मध्यम्वर्गीय परिवार की नवविवाहिता है जिसका पति, कहानी का नायक, बेरोजगार है और सिस्टम से अपना यथेष्ठ पाने को लड़ रहा है. यह लड़ाई अश्वमेध यज्ञ की तरह है और हर यज्ञ आहुति मांगता है. इस यज्ञ में नवविवाहिता के गहने एक-एक कर आहूत हो रहे हैं. पर एक उम्मीद है जो साथ नहीं छोडती कि ऐसा दिन आएगा जब हम साथ साथ रह कर इतना तो कर ही सकेंगे कि कभी स्कूटर पर घूमने जा सकें और गोलगप्पों का स्वाद ले सकें. एक ऐसा सिस्टम जिसमे भाई-भतीजावाद का घुन और भ्रष्टाचार की दीमक लग गयी हो ऐसी व्यवस्था में ये छोटी सी इच्छा भी जन्नत का ख्वाब सरीखी बन जाती है. और हताशा का आलम यह की दुर्घटना में एक टांग गवाने वाले नायक को यह दंश नहीं की उसकी टाँगे गयी, यह संतोष है की चलो विकलांग कोटा में नौकरी मिल गयी. एक छोटी सी इच्छा का अधूरा रह जाना इस कहानी को बड़ी ट्रेजिडी बना देता है.

उम्र पैंतालिस बतलाई गयी थी” आज़ादी आधी सदी बीतने के सालों बाद भी जातिय भेदभाव की टोह लेता एक मार्मिक बयान है. जिसमे डोम जाति के मेधावी छात्र वाल्मीकि और गाँव की प्राथमिक पाठशाला के माध्यम से ग्रामीण समाज में दलितों की स्थिति की पड़ताल की गयी है. लेखक की यह स्वीकारोक्ति की सदियों की इन आप-बीतियों के बयान को कहानी कहने का दुस्साहस उसमें नहीं है सच ही प्रतीत होता है.

संग्रह की आखिरी कहानी “मरें तो उम्र भर के लिए” एक युवा जोड़े की फ़िल्मी अंत लिए सुखांत प्रेम कहानी है. अपने में समाये तमाम मसालों के बीच इस कहानी की जान कहानी की टेकनीक है. अकबर-कालीन ओरछा की नर्तकी की सूझ- बूझ की कथा और बत्तीस दांतों के बीच जीभ समान फँसी नीलू की प्रेम कथा सामानांतर चलती है और सुखांत को प्राप्त होती है. एक साधारण सी प्रेम कथा को इतिहास से मिले ये रोचक स्विंग और पंच उतना ही प्रभावी बनाये रखते हैं जितने से सुखांत को जस्टिफाई सकें. यह कहानी मेरी समझ से संग्रह की सबसे कमजोर कहानी है पर इसका शीर्षक बहुत शानदार है. आशुतोष एक दौर में भोजपुरी फिल्मों के लेखन से भी जुड़े रहे और व्यावसायिक दृष्टि से कुछ बहुत सफल फिल्मों की पटकथा उनकी कलम से निकली है. संभव है की इस कहानी का जन्म भी किसी दिन सिनेमा बन जाने को हुआ हो.

कुल मिला कर आशुतोष का यह संग्रह बेहतरी के सुखद वायदे सरीखा है. ऐसे समय में जब कहानियों में सहजता के नाम पर अपने लेखन की सपाटता को छुपा लेना एक शगल बन गया है वहां आशुतोष की कहानियों में टेक्नीक का लौटना एक सुखद एहसास है. लेखक के आसपास का परिवेश कहानियों में इस खूबसूरती से उभरता है जैसे फिल्मों और ड्रामा में पार्श्व संगीत या बैकग्राउंड स्कोर. कई कई बार घरो के गलियारों की लम्बाई चौड़ाई से लेकर नायिका के बिस्तर से खिड़की के कोण तक का नख शिख वर्णन कहानियों में भरपूर रहता है पर आशुतोष की कहानियों में  परिवेशीय वर्णन नहीं होने की कमी नहीं खलती. परिवेश आपकी आँखों के सामने सहज भाव से उभरते हैं और कहानियाँ मनोवैज्ञानिकता के जिस सूक्ष्म तानेबाने पर टिकी हैं वो आसानी से दीखता नहीं.

सहज कहानियों को सजगता से लिखने वाला दौर शायद अब लौटने को है. किस्सागोई या कहानीपन से समझौता किये बिना टेक्नीक का प्रयोग लुभावना है. आशुतोष की कहानियों में आज भी बीसवीं सदी के आखिरी वर्षों का स्वर अधिक मुखर है, ऐसा अधकचरा समाज जो स्वयं को उत्तर आधुनिक समझ कर परंपराभंजक बना हुआ है पर उसमें न अच्छे बुरे की समझ है और न ही इतना सलीका की भेडचाल से अलग हटकर वस्तुस्थिति को समझने का कोई गंभीर प्रयास कर सके.

संग्रह की कहानियों में जो सबसे बेहतरीन बात है वो है कहानियों का शिल्प, कहानियां पढ़कर लगता है समाज में देखे को मन की प्रयोगशाला में ब्युरेट - पिपेट जैसे यंत्रों से, भावनाओं के हाई और लो वोल्टेज फ्रिक्वेंसी से गुज़ार कर अनुभवों की रासायनिक संरचना को इतना पुष्ट किया गया है जैसे खनिजों से धातु निकल आये वैसे अनुभवों से कहानियां निकली हैं.

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वैभव मणि त्रिपाठी
सम्प्रति सब रजिस्ट्रार  लोहरदगा.(झारखण्ड)
फ्लैट नं. C4, ब्लाक C
नारायण एन्क्लेव, हरिहर सिंह रोड मोराबादी, रांची 834008
9471589300

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  1. यदि आशुतोष जी ने रोपाई धर्म का बखूबी निर्वाह किया है तो वैभव जी ने निराई धर्म का...। दोनों मिलकर अच्छी फसल देने की उम्मीद पैदा करते है..अतः बधाई के पात्र हैं।

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  2. अच्छी समीक्षा. आशुतोष की प्रत्येक कहानी नए विषयों पर है. वैसे विषय जो वैसे तो जन जीवन से हैं पर साहित्य में उनकी व्याप्ति कम है. जैसे पिता का नाच. उम्र पैंतालिस... यह तो अद्भुत कहानी है. माटसाहब लोगों के खेल को खोलती हुई...समीक्षक ने तबीयत से लिखा है. उन्हें बधाई.

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  3. वैभव ,
    आपको जितना जाना कम जाना ,आप साहित्य की नई संभावना हैं ।एक समीक्षक ,समालोचक ,लेखक के रूप में आप हिन्दी साहित्य का भविष्य हो सकते है ॥हृदय से बधाई ॥

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  4. राकेश बिहारी19 जून 2015, 3:53:00 pm

    Ashutosh की कहानियों की एक विवेकसम्मत पड़ताल इस समीक्षा में देखने को मिली। आशुतोष जिस लोकधर्मी तेवर के साथ किस्सागोई को जीवित रखते हैं वह प्रशंसनीय है। कथाकार और समीक्षक दोनों को बधाई। समालोचन का आभार। मुझे ख़ुशी है कि 2014 की महत्वपूर्ण पुस्तको पर केंद्रित अकार के नए अंक में मैंने इस संग्रह को शामिल किया है।

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