कथा - गाथा : गाँव भीतर गाँव (उपन्यास अंश) : सत्यनारायण पटेल




















तुम चलो सन्त दीदार,
सिंगाजी घर हरि को बदावणा.
बाबा मनख्या जनम दुरलब है,
फिर भोर आवे न दुजी बार...

स सुबह नगजी बा भजन गाते हुए अपने बैल-बक्खर के पीछे चल रहा था. उसके एक हाथ में रास और दूसरे में पिराना था. सिर पर सफ़ेद टोपी, बदन पर लट्ठे की फतवी. कंधे पर हल्का गुलाबी गमछा. कमर पर धोती पहनी थी, जिसकी दोनों काँछ ओट रखी थीं. पैरों में नायलोन के बूट, जो दो बार सिलवाए जा चुके थे. मोटा अम्बा के नज़दीक का खेत था, उसी को बखरने जा रहा था. नगजी बा की ज़िन्दगी के अर्थशास्त्र की धुरी उसी एक मात्र खेत में गड़ी थी. लेकिन परिवार की ज़रूरत पूरी नहीं होती. लेकिन नगजी बा को भजन गाने और खेती करने के सिवा कुछ आता भी नहीं. उसने धुरी को छोड़ कुछ और करने की कभी सोची भी नहीं.

नगजी बा ऊँचे सुर में भजन गाता,  जब चौगान में पहुँचा. भजन के बोल जाम सिंह व माणक के कान में भी पड़े. वे दोनों जीप के पास चौगान में ही थे. जाम सिंह सिगरेट धुनकता. माणक जीप का बोनट पोंछता. माणक को जाम सिंह की जीप में महानगर तक जाना था. वह अपनी लड़की के लिए रिश्ता देखने जा रहा. दाढ़ी-कटिंग बनी हुई. झकाझक कमीज़-पज़ामा और मोजड़ी पहना. जब नगजी बा गाता-गाता थोड़ा और नज़दीक आया. जाम सिंह  ने नगजी बा के सुर में सुर मिलाया- 

बाबा जिनने गुरू गोविंद सेवीया,
वे तो उतरे भवजल पार.
बाबा या पल आवे नहीं पावणी,
तुम मानु बचन नर नार.

जाम सिंह अपने दारू के धंधे की वजह से, माणक और नगजी बा की तुलना में, भजन मंडली में कम ही आ पाता. लेकिन जब भी मौक़ा मिलता. अपने घर या फिर श्रीराम मन्दिर में भजन सँध्या का आयोजन करवाता. नगजी बा के सुर में सुर मिलाने की कोशिश करता. गाँव में नगजी बा और माणक के गले जैसा तो किसी का गला नहीं था. हाँ. भजन झेलने और उठाने वाले कई थे. जाम सिंह भी काम चलाऊ गा ही लेता. उस वक़्त भी भजन ने नगजी बा का ध्यान खींचा. जाम सिंह को गाता देख, नगजी बा बग़ैर दाँतों वाले बोखे मुँह से मुस्कराता बोला- राम-राम ठाकुर साब.

जाम सिंह ने भी राम-राम का जवाब राम-राम से दिया, और फिर पूछा- बक्खर लेकर कहाँ जा रहे हो…?-
खेत बखरने जा रहा हूँ ठाकुर साब…. नगजी बा ने कहा.
अरे अब उस खेत को बखरना-वखरना छोड़ दो….  मैं अर्जुन से कह दूँगा….  ट्रेक्टर से बखर देगा, और बो भी देगा…. जाम सिंह ने कहा.
अरे नहीं ठाकुर साब… मैं बैल-बक्खर से ही बखर दूँगा.  कहाँ उस ज़रा-सी चिंदी के लिए ट्रेक्टर भेजोगे... नगजी बा ने कहा.

मैं कोई मेहरबानी नहीं कर रहा हूँ काका. जाम सिंह ने सख़्त और गंभीर स्वर में कहा- तू मेरे पइसे डकारने पर तुला है क्या ? सावित्री के ब्याह में लिये थे, कहा था कि दो साल में चुका दूँगा.. कितने बरस हो गये…. अब वो खेत छोड़ दे… रात को घर आकर हिसाब कर लेना... मेरा जितना बनता.. उतना दे देना.. या फिर खेत की क़ीमत कर लेना… मेरे पइसे काट लूँगा.... और जो बचेंगे, वो ले जाना… मदन का ब्याह भी तो करना होगा... 

हाँ.. करना तो है ठाकुर साब.. पर माय बेचके लाड़ी लाना क्या शोभा देगा. नगजी बा ने कहा, और फिर जैसे प्रार्थना करता बोला- मदन का ब्याह हो जाये…, फिर जो कहोगे; कर लेंगे… तब तक धीरज धरो…. अगर अभी से ज़मीन का एक चाँस न बचा… तो खाती के छोरे को छोरी कौन देगा... बग़ैर खेत का खाती, जैसे बग़ैर सूँड का हाथी.

ठाकुर की जो सूँड बना ले, ऎसा न हाथी देखा, न खाती. समझे. जाम सिंह ने कहा.
वा… ठाकुर… एक तो गुड़ गिला, ऊपर से भिनभिनाएँ माखी.  नगजी बा बुदबुदाता बढ़ गया.
जाम सिंह ने फिर नयी सिगरेट सुलगा ली. कश के साथ ही उसे शुक्ला की बात याद हो आयी- जल्दी ही आगरा-बाम्बे रोड पर महानगर-राजधानी के बीच फोर लाइन होगी. बायपास भी बनेगा. कुछ ही साल में ज़मीन की क़ीमत भी आसमान छुएगी. अभी जितनी अटका सकते हो, अटका लो. फिर तो सोने की हो जायेगी .
तभी से जाम सिंह ने नगजी बा से क़र्ज़ वसूलने का फँदा कसना शुरू कर दिया था, और उस दिन तो साफ़ कह ही दिया- खेत अर्जुन बो लेगा.

नगजी बा के पास कोई चारा नहीं कि कहीं से क़र्ज़ ले लेता. कैसे भी जाम सिंह का क़र्ज़ पटा देता. वैसे तो उसकी जाति का दौलत पटेल था. दौलत पटेल की छोटी उँगली के नाख़ून बराबर का भी क़र्ज़ न था नगजी बा पर. लेकिन दौलत पटेल भी तभी क़र्ज़ दे, जब गिरवी रखने को कुछ हो. रखने को तो नगजी बा अपनी जान भी गिरवी रख देता…. पर उसकी जान की क्या क़ीमत….  कौन उसे गिरवी रखता...? कहाँ सोने का खेत, और कहाँ फूटी कौड़ी-सी बूढ़ी जान. खेत छुड़ाने को कुछ होता, तो पहले ही खेत गिरवी क्यों रखता ?  जिधर भी देखता, उम्मीद का तारा टूटता नज़र आता.

नगजी बा के मन में ज़िन्दगी के प्रति कड़वाहट रिसने लगी. कड़वाहट तरफ़ से ध्यान हटाने की कोशिश में भजन गाता. ज़िन्दगी से ही उसने सीखा था कि एक बार ज़िन्दगी में कड़वाहट घुल जाए, फिर चाशनी में डूबने पर भी मिठास नहीं आती.

उसने ज़िन्दगी में अभाव और दुःख की कई खाइयाँ भजन की स्वर लहरियों पर सवार हो पार की थीं, इसलिए एक बार फिर भजन के सहारे की लाठी थामने का सोचा. चौगान से खेत तक भजन गाता हुआ ही पहुँचा. वह बची हुई ज़िदगी का पाट यूँ ही सिंगाजी और कबीर के भजन गाते हुए पार करना चाहता था. कड़वाहट को मन पर हावी होने से रोक रहा था. जाम सिंह ने जो कहा उसे भूलना चाह रहा था. खेत में बक्खर हाँकते हुए भी गाता रहा-  उड़ जायेगा हँस अकेला / जग बँधन का मेला.

नगजी बा भजन ऊँचे सुर में गा रहा. मानो भजन गाने के लिए नहीं, खेत खोने के डर को डराने के लिए गा रहा. डर मानो उस तरफ़ हाथ में लट्ठ लिए, और मूँछों पर बट देता बढ़ रहा. वह ऊँचे सुर की लाठी से डर को चित कर देने की सोचता. उसका बस चलता तो सुर से डर का कपाल फोड़ देता. डर को रंगा भेरू बना देता. या फिर आलाप की रस्सी से बाँध डर को भिगी बिल्ली बना लेता. कुछ भी करता, ज़िन्दगी की खिल्ली नहीं उड़ाने देता. लेकिन डर उसके बाहर नहीं, भीतर मृदंग की तरह बजता रहा- धूंम्म..धूंम्म…. 

डर जैसे कम होने की तरक़ीब भूल गया. डर को मालूम नहीं, कि कैसे डरा जाता. उसे तो बस याद रहा.. आगे बढ़ना. डर दिल और दिमाग़ के बीच की सकरी धमनियों को चीर देने वाले वेग से बढ़ने लगा- धूंम्म..धूंम्म… .
नगजी बा का खेत और जाम सिंह का मोटा अम्बा वाला खेत पास-पास ही थे. उस वक़्त जाम सिंह के खेत में रुकड़ू और छीता काम कर रहे थे. उन्हें भी नगजी बा का भजन साफ़-साफ़ सुनायी पड़ रहा था - उड़ जायेगा 
हँस अकेला / जग बँधन का मेला.

रुकड़ू ने छीता से कहा- ये नगजी बा, इतनी ज़ोर से तो कभी भजन नी गाता … फिर आज क्यों गा रहा…? कब से हँस उड़ा रहा... अगर इत्ती देर नगजी बा का भजन लकड़ी का हँस सुन लेता… तो वो भी भावुक होकर उड़ जाता. 

हाँ.. नगजी बा का गला है भी ऎसा... छीता ने हामी में गरदन हिलाते हुए कहा.
पर नगजी बा का हँस तो उड़ता ही नी…जैसे हँस की नाल खेत में बहुत गहरी गड़ी हो... रुकड़ू ने कहा और आगे बोला- हँस वहीं का वहीं जैसे जनम-जनम से पँख फड़फड़ा रहा हो.

देखो..ध्यान से सुनो… ऎसा लगता.. जैसे वो भजन नी गा रहा…. केवाड़े कह-कह कर रो रहा... छीता ने कहा. 
जब एन माथे पर सूरज आ गया. तब रुकड़ू और छीता काम बन्द कर खोली में चले गये. फिर नगजी बा ने भी कुछ देर बक्खर रोक दिया. बैलों के काँधों से जुआ उतारा. मोटा अम्बा की छाँव में बैलों को घास डाली.  ख़ुद ने सुबह घर से निकलने से पहले छाछ में दो रोटी मसल कर सिरावणी की थी. अब फिर से भूख जाग गयी थी. उसने गलने में बँधा खाना खोला. गलने पर ज्वार की छींटेदार रोटी, हरी मिर्च, काँदा और गुड़ की डली देख मुँह लार से भर गया. लगा कि जैसे साक्षात अन्नपूर्णा ने छप्पन भोग परोस दिये.

जब वह चट-पट दो रोटी खा चुका. तभी देखा कि उसकी तरफ़ बैल  आशा भरी नज़रों से देख रहे. उसका ह्रदय पिघल उठा. एक-एक रोटी बैलों को भी खिलायी. आख़िरी में ख़ुद ने गुड़ की एक डली खायी. मगरमाटले का ठंडा पानी पीया.  डकारता बोला- जै हो कबीर महाराज.
    
नगजी बा मोटा अम्बा की छाँव में बैठा. अम्बा के आस-पास दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा. चलक-चलक चिलकती धूप. कोई सामान्य दिन होता, नगजी बा छाँव में लेट जाता. घड़ी दो घड़ी कमर सीधी कर लेता. पट्ठे ने कोशिश तो जी भर की, लेकिन उस दोपहर नहीं लेट सका. जैसे ही आँखें बन्द करता. भीतर कोई सफ़ेद कपड़ों में आता दीखता. वह चौंक उठता. आँखें खुल जाती. ऊपर मोटा अम्बा की डगालें डोलती. फिर आँखें बन्द करता. फिर कोई काले कपड़ों वाला नज़र आता.

फिर आँखें खुल जाती. फिर अम्बा की डगालों पर. काले और सफ़ेद लिबाजों वाले. वही मुँह ढँके भीमकाय शरीर नज़र आते. वह उठ बैठता. पैरों के बल. घूटनों में सिर देता. आँखें मीचता. कानों को हथेलियों से ढँकता. लेकिन भीतर मृदंग का शोर बढ़ता जाता- धूंम्म..धूंम्म….

वह इधर-उधर देखता. चारों तरफ़ नज़रों की सीमा तक, चौगान ही चौगान नज़र आता. जैसे मन के भीतर-बाहर चौगान ही पसरा हो. वही चौगान जिसे सुबह से अपने पर हावी नहीं होने दिया. कबीर और सिंगाजी के भजन गा-गाकर खदेड़ता रहा. लेकिन खाना खाते वक़्त फिर बिल्ली के-से दबे पाँव भीतर चौगान सरक आया. जाम सिंह से चौगान में हुई बात गूँजने लगी. मग़ज़ की स्क्रीन पर अजीबोग़रीब दृश्य चलने लगे. दृश्य के भीतर दृश्य. भीतर-बाहर वही-वही दृश्य. दिमाग़ जैसे अंधेरी ओड़ली में पड़ा सिकुड़ने लगा.

फिर क्या हुआ..?  अचानक उठा, जैसे कोई ज़रूरी काम याद आया हो..? या नीचे कूल्हे में चूहे ने काट लिया हो..? तुरत-फुरत बैलों के गले से रास खोली. मानो चूहों को नात पहना बक्खर में जोत देगा. लेकिन वह कुलाम डाल खेलते किशोर की-सी फुर्ती से मोटा अम्बा पर चढ़ा. रास का एक सिरा डगाल पर यों बाँधने लगा, जैसे भीमकाय शरीरों की गरदन में बाँध रहा हो. उसके चेहरे की झुर्रियों पर, अनेक भावों की लहरें, पूरे वेग से आने-जाने लगीं. मोटा अम्बा को, गरम हवा को, धरती-आसमान को, और बैलों तक को लगा- जैसे नगजी बा को अपना बचपना याद आ गया हो. शायद  बचपन में झूला-झूलने की हरस बची रह गयी हो, और उसी को पूरा करने के लिए अम्बा की डगाल पर रास बाँध रहा हो...

लेकिन नगजी बा अगर झूलने के लिए रास बाँध ही रहा था, तो दो सरी बाँधता. एक ही सरी रास पर कोई कैसे झूले भला... जब एक सिरा डगाल पर मजबूत बाँध दिया. तब उसने दूसरे सिरे पर फरफन्दा बनाया. फरफन्दा बनाते वक़्त भी वह भजन गा रहा- लाल दड़ी मैदान पड़ी रे / सब कोई खेले दाँव. बड़े का काम नहीं रे / जीते सौ लई जाय.

उसने भजन गाते-गाते ही फूल माला की तरह गले में फरफन्दा पहना. एकसरी रास पर झूलने की कला जाने कब और कहाँ से सीखी. नगजी बा ने एक नज़र बैलों तरफ़ देखा- जैसे कहा कि अलविदा.. और डगाल से नीचे कूद पड़ा. ज़ोर का झटका ज़ोर से ही लगा. गरदन पर फरफान्दा ज़ोर से कसाया. गरदन की हड्डी-कट्ट से टूट गयी. धोती में मल-मूत्र छूट गया. और फिर बचा ही क्या कहने को..? बस..जय हिन्द..जय उदारीकरण. जय-जय-जय प्रधानमंत्री. जय-जय-जह हो योजना कुमार. तुम्हारे बाल-बच्चे जिये... तरक्की करे तुम्हारा देश महान. 

हँस को अकेला ही उड़ना था, सो उड़ गया.  हँस का खोखल सफ़ेद धोती, लट्ठे की फतवी, सफ़ेद टोपी पहने मोटा अम्बा की डगाल पर झूलता रह गया था. लाल दड़ी का धड़कन की तरह टप्पे खाना बन्द हो गया था. कहीं हँस ही तो चोंच में लाल दड़ी दबाकर नहीं उड़ गया.

उस लाल दड़ी और मैदान के माने क्या थे..? कौन दाँव खेल रहा था…? किस बड़े का काम नहीं था..? कौन जीत कर ले गया लाल दड़ी..? अगर नगजी बा होता, तो हरेक चीज़ के माने बताता. अर्थ के धागे खोलता. पर उस पट्ठे ने भारी करी. खेल गया दाँव, छूट गया गाँव.

जब छीता टापरी से बाहर निकली,  देखा कि खेत में बैल लचका चर रहे. छीता ने रुकड़ू को हाँक दी. कहा कि ज़रा टापरी से बाहर आकर देखो तो..… ये किसके बैल हैं.

रुकड़ू टापरी से बाहर आया. बैलों को देखता बोला- बैल तो नगजी बा के दिखे…. वह इधर-उधर नज़र दौड़ाने लगा. नगजी बा को याद करता. उड़ जायेगा हँस अकेला बुदबुदाता. जब नगजी बा नज़र न आये, तो ख़ुद से पूछा- बैलों को इधर छोड़, हँस किधर उड़ गया.

जब रुकड़ू को मोटा अम्बा की डगाल पर कुछ झूलता नज़र आया. उसने छीता को बताया. दोनों दौड़कर अम्बा के पास पहुँचे. नगजी बा को देख पसीना-पसीना हो गये. रुकड़ू दौड़ता-भागता गाँव पहुँचा. गणपत सिंह को बताया. गणपत सिंह ने थानेदार को बताया. फिर जिसने सुना ;  वो मोटा अम्बा की ओर दौड़ पड़ा. पुलिस पँचनामा. पोस्टमार्टम आदि हो-हुआ कर साँझ से पहले वापस हँस का खोखल गाँव आ गया.

सूरज डूबने से पहले नगजी बा का अंतिम संस्कार कर दिया. चट..चट की आवाज़ के साथ एक तरफ़ चिता जल रही थी. बबूल, खेजड़े और नीम की छाँव में गाँव के लोग बैठे. न. शोक बैठक नहीं कर रहे . नगजी बा के जीवन के भले-बुरे पहलू पर बात  नहीं कर रहे. योजना बन रही कि तीसरे दिन होने वाले खान्दये में गाँव में किस-किस को न्यौतना है. जो दाग में यानी अन्तिम यात्रा में शामिल हुए, वो तो थे ही, उसके अलावा न्यौतने पर विचार हो रहा. जब खान्दये पर विचार हो चुका. नुक्ते की बात निकली. चूँकि नगजी बा खाती जाति का था. खातीयों में नुक्ता भी ज़रूरी था. खाती लोग मानते कि नुक्ता न करो, तो मरने वाले की आत्मा राख में लोटती रहती. कभी मुक्ति नहीं मिलती. जैसे खातीयों का भगवान; प्रदेश के मुखिया, जाम सिंह, और देश के योजना कुमारों से भी ज़्यादा जालिम हो. नुक्ता ग्यारहवें दिन होना था, लगे हाथ मीनू आदि पर भी बात होने लगी.

मदन की माली हालत बिलकुल अच्छी नहीं थी. बग़ैर क़र्ज़ के वह दस लोगों को खाना नहीं खिला सकता था. लेकिन जाति के दबाव को खारिज़ कर दे, ऎसा भी साहस नहीं, वरना कह देता कि मैं नुक्ता जैसी कुप्रथा को नी मानता... मैं अपने पिता का नुक्ता नी करूँगा..

पर मदन भी कहीं आसमान से थोड़ी टपका था, जो अपनी जाति-समाज के रीति-रिवाज़ बिल्कुल न जानता हो. चलो..न जानता होगा, मान भी लें कभी. पर यह बात तो किसी के गले नहीं उतरेगी कि उसने कभी जहाज काका का क़िस्सा भी नहीं सुना. गाँव में जहाज काका, सिर्फ़ जहाज काका नहीं हुआ था. जहाज काका एक मुहावरा, और एक नज़ीर हुआ था.

जहाज काका का क़िस्सा बड़ा पुराना था. नगजी बा और जाम सिंह के जन्म से भी पहले का. बड़े-बूढ़े बताते कि तब गाँव में स्कूल नहीं, सिर्फ़ चौगान, और चौगान के बीचोबीच खजूर का एक पेड़ था. अब जितने झोपड़े-टापरी भी न थे. तभी कभी की बात. एक बार चौगान से जहाज काका गुज़रा . हालाँकि तब जहाज काका का नाम, उसके दायजी का दिया कोई नाम था. लेकिन लोग भूल गये, और जहाज काका ही याद रहा. हाँ.  चौगान से गुज़रते जहाज काका पर एक चील ने झप्पटा मारा.  और चील खजूर के पेड़ पर जा बैठी. चील के बाद गाँव के ऊपर एक चील गाड़ी भी गुज़री, जिसे उसने ग़ौर से देखा.

तभी उसने सोचा कि जब आसमान में लोहे की गाड़ी उड़ सकती. नन्हीं-सी जान चील उड़ सकती. मुझे झप्पटा मार सकती . और मैं उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता. तब मैं क्यों नहीं उड़ सकता..? चील को सबक क्यों नहीं सिखा सकता..? बस.. इतनी-सी थी बात. लेकिन मन में घर कर गयी. वह चील को सबक सिखाने के बारे में सोचता रहा. दिनों. महीनों. शादी हो गयी. एक लड़की का बाप भी बन गया. तब भी भूला नहीं. चील मग़ज़ में उड़ती. जब तब झप्पटा मारती. फिर लगा कि जैसे चील का मूत उसके हाथ में आ गया. वह मन ही मन बोला- मैं भी उड़ सकता हूँ.

एक दिन जब उसके दायजी खेत पर थे. उसने अपने दोस्तों से दोनों हाथ में सूपड़े बँधवाये. दोस्तों ने समझाया कि सूपड़े बाँधने से कोई उड़ सकता. अगर उड़ सकता, तो अपने पहले बाप-दादा नहीं उड़ते. लेकिन जहाज काका नहीं माना. कहा कि हो सकता है,  उन्हें ये विचार नहीं आया हो..? या विचार आया भी हो, तब भी उन्होंने कोशिश न की हो.  डर गये हो. 

जब दोस्तों की एक न चली. दोस्तों ने कहा कि ठीक है भई. कोशिश करके देख ले. दोस्तों ने सूपड़े बाँधे. वह गगन छूती खजूर पर चढ़ा, और बहुत ज़िन्दादिली से हवा में छलाँग लगा दी. सूपड़े के पँख फड़फड़ाने की कोशिश करने लगा. कोशिश करता हुआ ही ज़मीन पर आ गिरा- धड़ाsssम.

दोस्तों के चेहरे फक्क से रह गये. बैलगाड़ी से बड़े अस्पताल ले गये. बड़ी मुश्किल से जान बची, लेकिन पैर नहीं बचे. साल-दो साल बाद उसके दायजी गुज़र गये. घर-गृहस्थि का पूरा बोझ पत्नी पर आ गया. दायजी के नुक्ते की बात चली. जहाज काका कुछ हटकर तो सोचता ही था. हटीला भी था. नुक्ता करने से नकर गया. जाति-समाज ने ख़ूब दबाव बनाया, लेकिन टस से मस न हुआ.

फिर कुछ साल बाद जहाज काका की बेटी की शादी हुई. लोगों ने उपेक्षा की, मगर वह झेल गया. फिर पहली संतान को जन्म के लिए बेटी को माइके लाया गयी. एक रात बेटी को तेज़ दर्द उठा. गाँव की दायी ने हाथ ऊँचे कर दिये. कहा कि बच्चा भीतर उलझ गया. जल्दी से अस्पताल ले जा. छोरी और बच्चे दोनों की जान को ख़तरा है.  

तब तक नगजी बा और जाम सिंह भी जवान हो चुके थे. गाँव में एक ट्रेक्टर और एक जीप भी आ चुकी थी. जहाज काका तीन पहिया साइकिल से ट्रेक्टर  और जीप वालों के पास गया. किसी ने डिज़ल न होने का बहाना बनाया. किसी ने इंजिन ख़राब बताया. न किसी ने मदद की, न नकारा किया. जहाज काका न बेटी, और न  होने वाले नाती को बचा सका. बेटी की गोरनी की, तब फिर खाती उसके यहाँ उठने-बैठने लगे. उसके सुख-दुःख में शरीक़ होने लगे. ख़ैर… अब गाँव में जहाज काका तो न था. उसका क़िस्सा था, जिससे मदन सरीके सीख लिया करते. 

मदन में जहाज काका बनने की हिम्मत न थी. न उसने बनना चाहा. उसे जाति-समाज के साथ जीना था. फिर अभी कुआँरा भी. जो बेटा, बाप का नुक्ता ही न करे; उसे छोरी कौन दे.  जो भी हो. जैसे भी हो. लड्डू-पेढ़े न खिला सको, तो साग-पुड़ी और नुक्ती-बून्दी ही सही. लेकिन नुक्ते से इनकार की कोई गुंजाइश नहीं थी. नुक्ते की चिंता का दबाव ऎसा बढ़ा. नगजी बा की मौत का दुःख छोटा लगने लगा.

ऎसी घड़ी में जाम सिंह ही आगे बढ़ा. मदन का भी हाथ थामा. खेत पर सावित्री के ब्याह का क़र्ज़ तो था ही, नुक्ते का भी चढ़ा. मदन ने सोचा कि अब खेत न रहेगा.. तो न रहेगा... बाप तो राख में नहीं लौटेगा…. उसने वहाँ-वहाँ साइन कर दी, जहाँ-जहाँ जाम सिंह ने कहा. मदन को गोडाऊन पर काम देने का आश्वासन भी दे दिया. मदन का बाप और खेत गया, तो गया. जीवन जीने की कला सीख गया.  
 
ग्यारहवें दिन नगजी बा का नुक्ता था. गाँव-गाँव से लोग नुक्ता खाने आने लगे. चौगान में एक के बाद एक पंगत बैठने लगी. गाँव के सम्माननीय लोग जाम सिंह, सोसायटी के अध्यक्ष माखन शुक्ला, पूर्व अध्यक्ष दौलत पटेल, सरपंच सन्तोष पटेल और पूर्व सरपँच गणपत सिंह की देख रेख में नुक्ता चलने लगा. कहीं किसी चीज़ की कमी नहीं. लड्डू, खोपरापाक, भझिये, पूरी, और रायता जैसे पकवान बने.

जिन्हें न्यौता, वे जीम रहे. जीमे हुओं की पत्तल को उठाकर स्कूल के पीछे रख दी जाती. पत्तल में से बचा-खुचा खोपरापाक. भझिये. पूरी आदि को रामरति की देवरानी-जेठानी बड़े भगोने में समेटती. नुक्तों में जीमने वाले पत्तलों पर इतना भोजन छोड़ते कि उनके भगोने आराम से भर जाते. वे लोग उस भोजन को सूखा लेते, और फिर कई दिन तक खाते.

झोपड़े वालों में से गारी, बागरी, ढोली, नाई, मोची और मेहतरों के परिवार में भी जिन्हें न्यौतना था, साँझ को ही न्यौत दिया था. लेकिन वे पटेलों, ठाकुरों और ब्राह्मणों की पंगतों के जीम चुकने के बाद ही आते. जल्दी आ जाते तो उनके जीम चुकने का इंतज़ार करते. उनकी पंगत सबसे आख़िरी में ही बैठती. जिन्हें न्यौता था, वे आकर इंतज़ार कर रहे थे. झब्बू और रामरति को नहीं न्यौता था, वे आयी भी न थी. झब्बू तो वैसे न्यौतने पर भी कहीं नुक्ता जीमने न जाती. उसे मृत्यु भोज करवाना, और जीमना दोनों ही पसंद न थे. ख़ुद कैलास का भी उसने क्रिया-क्रम से ज़्यादा कुछ नहीं किया था.

बग़ैर न्यौते हुए भी थे कुछ, जो पंगते उठने का ही नहीं. पत्तलों में से बचा-खुचा समेटने वालों का भी इंतज़ार करते. उनमें झब्बू के घर सामने के नीम पर के कव्वे. नगजी बा के घर पीछे की बड़ पर पर की चीलें. शुक्ला के घर की बग़ल के पीपल पर के बगुलें. धापू के घर सामने के बबूल पर के चिके-चिकी और गाँव के काले, काबरे, भूरे, और ईंट के रंग आदि के सभी कुत्ते शामिल थे. कल साँझ जब रसोई बनना शुरू हुई थी, तभी से उन्होंने ख़ुद को न्यौत लिया था और अपने मौक़े की प्रतीक्षा में थे
___________ 
उपन्यासः गाँव भीतर गाँव/लेखकः सत्यनारायण पटेल
पेज संख्याः 320 //मूल्यः 200 / पेपरबैक संस्करण 
आधार प्रकाशन प्रा.लि./एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16/पंचकूला-134113 (हरियाणा)

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  1. Drkiran Srivastava27 मई 2015, 7:18:00 am

    Very good bahut badhai satynarayan ji.aise samay jab Ganv vilupt hote ja rahe ha.....ise padna ...by luck hi posible ho sakta ha Arun ji Apko Sadhuvad....

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  2. Manisha Kulshreshtha27 मई 2015, 4:43:00 pm

    सत्या को पढ़ना मुझे बहुत प्रिय है, उनकी भाषा परिवेश मुझे अपने से लगते हैं, निम्बाहेड़ा छोटी सादड़ी जैसे कस्बे जहां बचपन बीता।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28-05-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1989 में दिया गया है
    धन्यवाद

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  4. उपन्यास गांव भीतर गांव संबधी बहुत अच्छी जानकारी हेतु आभार!

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