परख : सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखा (सुनील सिंह) : अर्पण कुमार







सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखा :: सुनील सिंह
प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस/1/11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा/दिल्ली 110032 /संस्करण : 2014 /मूल्य : रु. 295 





चर्चित कथाकार सत्येन के संस्मरणों पर आधारित सुनील सिंह की किताब – ‘पितु मातु सहायक स्वामी सखा’ की विवेचना अर्पण कुमार ने विस्तार से की है.  सुनील कुमार के  एक लाइलाज रोग के होम्योपैथी  इलाज के सिलसिले में उनकी मदद सत्येन जी ने की . इसमें 1993-99 के बीच का समय है. यह संस्मरण कथादेश में किश्तों में छपा और प्रसिद्ध हुआ.


सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखा (सुनील सिंह)                    
अर्पण कुमार

हने की ज़रूरत नहीं कि सत्येन पर केंद्रित अपने इस संस्मरण में उनके भीतर के हीरक कणों को प्रस्तुत पुस्तक (सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखा ) के माध्यम से सुनील सिंह एक-एक कर हमारे सामने लाते हैं. हालाँकि इसमें सुनील ने उनसे जुड़े अपने कुल जमा छह वर्षों के बारे में ही लिखा है, मगर यह पुस्तक किसी अन्य लेखक की ही भाँति सत्येन के संश्लिष्ट व्यक्तित्व को खोलने में सहायक है. इसमें उनसे जुड़े और मिलने आनेवाले लेखकों के स्केच भी खींचे गए हैं और सत्येन समेत उन लेखकों की पुस्तकों की एक अंतर्यात्रा की गई है. विभिन्न जगहों से इलाज करवाकर हार बैठे सुनील जब सत्येन के घर भोपाल आते हैं (अपने इलाज के प्रति किसी आश्वस्ति-भाव से कोसों दूर), तो वहाँ सिर्फ उनकी आँखों की इस दुर्लभ बीमारी का काफी हद तक सफल इलाज मात्र नहीं होता है, बल्कि परस्पर भिन्न पृष्ठभूमि के साहित्यिकारों का एक-दूसरे से मेल-जोल बढ़ता है और उस परस्पर मिलन में ही इस संस्मरण की नींव सुनील के लेखकीय अवचेतन में कहीं पड़ जाती है.

निश्चय ही कुछ न कुछ लिखे जाने के पीछे कुछ हठीली प्रेरणाएं काम करती हैं, जिनके वशीभूत व्यक्ति कागज काले करता चला जाता है. इस क्रम में कुछ कारण गिनाए जा सकते हैं. सबसे पहला और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण जो समझ में आता है वह है सुनील के मन में सत्येन के प्रति कहीं-न-कहीं जमा कृतज्ञता का एक भाव, जिसे वे अपनी लेखनी में आभार सहित अभिव्यक्त करते हैं. आज की एक सीमा तक सामान्य कही जानेवाली उनकी दिनचर्या के पीछे सत्येन के इलाज का हाथ है. तमाम विपरीत शारीरिक एवं मानसिक स्थितियों के बीच अगर किसी के उपचार न लगते से उपचार द्वारा किसी को ऐसी राहत मिलती हो कि वह उस चिकित्सक की मृत्य के पश्चात भी उसके प्रति इस हेतु एक श्रद्धा भाव रखे तो यह महत्वपूर्ण है. चिकित्सक और रोगी दोनों के लिए. दूसरे, यह, सत्येन की मौत से बिलखते छोटे भाई से सरीखे उनके एक प्रेमी और प्रशंसक का अपनी ओर से लिखा मर्सिया है. और तीसरा कारण, सत्येन को हिंदी साहित्य में उनका देय प्राप्त न होने का दुःख मनाते एक लेखक की सदाशयता और तत्जन्य उत्पन्न पीड़ा है जो समकालीन हिंदी समाज की समूहबद्ध राजनीति के यथास्थितिवाद के खिलाफ लोगों को झकझोरना चाहती है.

इस संस्मरण में कराह है तो कहकहे भी. रोटी-कटी दोस्ती के जिक्र हैं तो अबोले की हद तक पहुँचते उसके दुःखद और एकांतिक हश्र का ब्यौरा भी. अपरिचय  से परिचय की ओर; विवाद से संवाद की ओर बढ़ते कुछ हाथ हैं तो बीच रास्ते में किसी की बर्बर हत्या से उत्पन्न एक खूनी अकेलापन भी. यह संस्मरण एक तरफ स्वयं संस्मरणकार के अपने निचाट अकेलेपन से लड़ते जाने की कशमकश और ज़िद का गवाह है तो दूसरी तरफ कुछ आत्मीय जनों के साथ जिए गए उसके प्रवास के दिनों का पुनराख्यान भी. मगर इन परस्पर विरुद्ध सिरों के बीच जो ज़रूरी और पठनीय है, वह है वैयक्तिक रागात्मक्ता और संवेदनशीलता के बीच यहाँ दुनिया और दुनियादारों को जिस तरह देखा गया है और इन सबके बीच स्वयं लेखकों की स्थिति और उनके मनोभावों और संघर्षों को जिस तरह पकड़ने की कोशिश की गई है...उससे रु-ब-रु होना.   

फरवरी 2010 में लिखा गया यह संस्मरण अप्रैल 2011 में समाप्त हो सका. निश्चय ही इस संस्मरण को सुनील ने बहुत डूब कर लिखा है और इसमें उनका लेखकीय कौशल अपने प्रभावी और जादुई रूप में हमारे सामने आता है. इसमें कथा, स्मृति, रेखाचित्र, रिपोर्टाज आदि कई विधाओं के टूल्स का बेहतर प्रयोग किया गया है. लेखक स्वयं इसे विशुद्ध रूप से मात्र संस्मरण कहने से बचना चाहता है. मगर आलोचकीय सुविधा के लिए इसे मोटे तौर पर संस्मरण कहना अनुचित न होगा. वैसे भी स्मृति के आधार पर लिखित साहित्य संस्मरण की श्रेणी में आता है, फिर चाहे वह किसी व्यक्ति या विषय; किसी स्थान या घटना को लेकर लिखा गया हो. सत्येन कुमार के साथ सुनील के बिताए पलों (1993-99 के बीच का समय) का दस्तावेज है यह संस्मरण. विदित है कि यह संस्मरण कथादेश में जनवरी 2012 से लेकर सितंबर 2012 तक किश्तवार प्रकाशित होकर काफी चर्चित हो चुका है. इसकी भाषा और प्रस्तुति की खूब सराहना की गई. मगर पुस्तक रूप में प्रकाशित सामग्री पत्रिका में प्रकाशित सामग्री से कुछ परिवर्तन लिए हुए है.

सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखा नाम से ही स्पष्ट है कि लेखक का उनसे संबंध बहुस्तरीय है. तो क्या वास्तव में कोई एक संबंध बहुस्तरीय होता है! एक ही व्यक्ति क्या किसी के लिए इतने रूपों में हो सकता है? इसका उत्तर है हाँ’. निश्चय ही ऐसा हो सकता है अगर किसी को देखने की हमारी अंतदृष्टि उतनी परिपक्व और बहुस्तरीय हो. अगर उसके साथ जीवन को कई स्तरों पर जीया गया हो. अगर उसके जीए-देखे और हमारे जीए-देखे में कुछ साम्य हो. अगर परकाया-प्रवेश अपनी रुढ़ियों से आगे जाकर किया गया हो. अगर उसके आवेश और भटकाव को हम तनिक सोचकर और रुककर देखना चाहते हों आदि आदि. उल्लेखनीय है कि सत्येन ने पतनोन्मुख सामंतवाद को बड़े करीब से देखा था. इस विषय पर उनकी कई रचनाएं हमें पढ़ने को मिलती हैं. स्वयं सुनील भी इस ढहती व्यवस्था को करीब से देखते आए हैं. इस संस्मरण में सुनील ने इससे जुड़े कई मार्मिक प्रसंग उठाए हैं. 

सत्येन के व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों को भी वे बड़े करीने से पकड़ने की कोशिश करते हैं. ननिहाल में अभावों के बीच पले उनके जीवन के सूत्र के सहारे तो कभी पिता-पुत्र के बीच बचपन से ही सुदृढ़ होती अपरिचय की दीवार से टिककर तो कभी शादी के बाद प्रमिला और सत्येन के दो अलग-अलग शहरों (सागर में प्रमिला जी और भोपाल में सत्येन जी) में रहने की परिस्थितियों में झाँककर. मधुमेह की बीमारी से परेशान सत्येन के साथ प्रमिला जी अंततः 1984 में अपनी नौकरी से इस्तिफा देकर भोपाल रहने आती हैं. सुनील टिप्पणी करते हैं, “ प्रमिला जी के भोपाल आ जाने से सत्येन के जीवन में स्थायित्व तो आया, लेकिन उनका मानसिक भटकाव कभी खत्म नहीं हुआ-इस माध्यम से उस माध्यम तक और इस लड़की से उस लड़की तक.......कहते हैं लेखक का भटकाव कभी निर्रथक नहीं जाता. इसी भटकाव में उन्हें खेलकी मोना लाल, ‘छुट्टी का दिन की डॉ. अदिति, ‘बर्फकी शालिनी, ‘शेरनीकी दिलप्रीत कौर और नदी को याद नहींकी रानी साहिबा और सुगंधा जैसे अविस्मरणीय चरित्र दिए(पृ. 66).

कहने की ज़रूरत नहीं कि इस पुस्तक-संसद के वेल ऑफ हाउस में सत्येन कुमार हैं, मगर उनके पार्श्व में मंज़ूर ऐहतेशाम और सुमति पर भी काफी कुछ लिखा गया है. मंज़ूर पर इसलिए कि वे सत्येन को प्यारे (बाद में दोनों के बीच आए अबोलेपन में भी एक-दूसरे के कहीं गहरे भीतर एक रागात्मकता बची रह जाती है और दोनों एक-दूसरे के बगैर एक शहर के अंतहीन जंगल में अपने-अपने एकांत में कहीं निःशब्द सुबकते भी हैं) और उनके हमशहरी (दोनों भोपाल के) हैं तो सुमति पर इसलिए कि वह भी सत्येन के यहाँ सुनील की तरह आती-जाती रहती थी.इसके अलावा उनसे मिलने आनेवाले कृष्णा-सोबती, स्वदेश दीपक आदि के रेखाचित्र समुत्सुक होकर खींचे गए हैं. माई री मैं कासे कहूँ पीर में अपने दुःख का वर्णन संस्मरणकार ने विस्तार से किया है. आँख की डाइपलोपिया नामक बीमारी (एक विशिष्ट किस्म का नेत्र रोग जिसमें मरीज को एक खास दूरी तक की अधिकांश चीजें दो-दो दिखती हैं) से लड़ते हुए किसी के अपने जीवन-त्याग करने की तो किसी के विक्षिप्त हो जाने की बात सुनील निःसंकोच भाव से कहते हैं. स्वयं अपने भीतर आए ऐसे ख्यालों का भी एकाधिक जगहों पर वे जिक्र करते हैं. 

उनके अपने निचाट अकेलेपन, अपनी ही नज़रों में अपनी गरिमाहीन और अँधेरे में जीती जा रही असुविधाजनक ज़िंदगी और जीवन को नष्ट कर देने की स्वयं के अंदर उभरती प्रवृत्ति....इन सबके बीच सुनील का जिंदा रहना और अपने लेखकीय कौशल के साथ उभरकर हमारे सामने आना न सिर्फ उनके भीतर की दृढ़-इच्छाशक्ति का दर्शाता है बल्कि सहित्य और कला के अन्य माध्यमों से जुड़े रहने की एक अटूट शृंखला ने उन्हें जीवनदायिनी शक्ति भी दी है. उनके अंदर के सर्जक ने उनको अपना बेहतर रचने का एक नामालूम तरीके से उद्बोधन भी दिया है. सुना है लूट लिया है किसी को रहबर ने में ऐसी असहायता का जीवन जी रहे एक किशोर को उसके अपने ही लोगों द्वारा छले जाने की घटनाओं का संकेत है. सुनील सिंह आँखों की अपनी इस बीमारी से लड़ते हुए न सिर्फ अपने आप से लड़ते हैं बल्कि अपनी इस लड़ाई में अपनी अशक्तता को उचित ही अपनी ताकत बनाते हैं. और फिर इन दो अध्यायों (अगर उपशीर्षकों को अध्याय माना जाए) के बाद सत्येन कुमार का जिक्र आता है.

हमसे पूछो हमने कहाँ वो चेहरा रौशन देखा है से लेकर जेते दिबो आमि तोमाय तक लगभग हर अध्याय में सत्येन अमूमन किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं. इसके बाद उपसंहार और फिर इस संस्मरण का पटाक्षेप हो जाता है. कुल सौ पृष्ठों में फैले इस संस्मरण में जीवन के कई रंग देखने को मिल जाते हैं. कहना ज़रूरी है कि इसके उप-शीर्षक बड़े मार्मिक, आकर्षक और गेय बन पड़े हैं. अध्याय के भीतर की सामग्री को उचित रूप से प्रतिबिंबित करते हुए. लेखक ने कथ्य के हिसाब से पूरी पुस्तक में अलग-अलग उप-शीर्षकों का इस्तेमाल किया है. वन लाईनर की तरह काम करनेवाले ये उपशीर्षक अपने भीतर अपना विशिष्ट रचनात्मक आस्वाद समाहित किए हुए हैं. जैसे एक मेले में अलग-अलग स्टॉल पर उनके विपणन प्रतिनिधि अपनी खासियत बताने के लिए समुत्सुक रहते हैं, ये उपशीर्षक भी कुछ उसी भूमिका में पाठकों को नज़र आते हैं. अगर सुमति की चर्चा करनी हो तो मैं अलबेली झमक भरूँ पनिआँ जैसी पंक्ति का प्रयोग किया जाता है, जिसमें इस लोकगीत के माध्यम से उसके व्यक्तित्व के रागात्मक और प्रवहमान व्यक्तित्व को वाणी दी गई है. सुमति के व्यक्तित्व की इस यायावरी और ओजस्वी व्यक्तित्व का चित्रण तब मार्मिक बन जाता है, जब पाठक के आगे उसकी हत्या की बात सामने आती है. सत्येन के सहसा मारपीट पर उतारु हो आनेवाले पक्ष का चित्रण करना हो तो विशुद्ध फिल्मी अंदाज़ का उप-शीर्षक बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए. उदासी की एक लंबी चादर तले अरसे से आपाद-मस्तक जीते लोगों की कहानियाँ और उसाँसें हैं इस संस्मरण में. उसकी अभिव्यक्तिपरक इतने स्थिर चित्र खींचे गए हैं कि पाठक का कलेजा बाहर को आ जाता है और उसे इसका पता तक नहीं चल पाता. सपना देख जुड़ा गइले जियरा, सपना न अउरी देखाब ए राम, ऑवर स्वीटेस्ट सॉन्ग्स आर दोज दैट टेल ऑफ द सैडेस्ट थॉट ;इस खाना-ए-हस्ती से गुजर जाऊँगा बेलौस आदि ऐसे ही अध्याय हैं.

इस संस्मरण में कभी रोबीली और भव्य रही कोठियों की ढहती भयावहता का चित्रण है तो उसके भीतर बिछाई जाती क्रूर बिसातों की कहानियों का संकेत भी. भव्यता के बरक्स तुच्छता; कोमलता के बरक्स कलुषता; उदारता के बरक्स संकुचन के चित्रण में सुनील की कलम मानों कमाल कर जाती है. अपने ननिहाल की जर्जर होती इमारत के बारे में वे लिखते हैं, “…लोहे के विशाल दरवाजे से निकलकर मैं वहीं खड़ा हो गया. सोचने लगा, यह महल भी एक दिन वीरान हो जाएगा. बहुत दिनों के बाद किसी सरकारी महकमे का कोई मुलाजिम इसके बाहरी हिस्से में अपना आवास बनाएगा, जैसे राजमहल के बाहरी हिस्से-सिरिश्ताखाने की कोठरियों में ब्लॉक का दफ्तर खुल गया था. किसी रात को वह महल के अंदर जाएगा. उसे पहले तो संगीत की मधुर लहरियाँ सुनाई पड़ेंगी, इसके बाद  सुनायी देगी कुएँ में धकेल कर हत्या किए जा रहे बड़े नानाजी की हृदय-विदारक चीख.... एक ही वाक्य में सुनील, सुमधुर स्वर-लहरियों और मृत्यु की हृदयविदारक चीख दोनों की बातें करते हैं. एकाधिक जगहों पर जादुई यथार्थवाद के शिल्प में ढला यह लेखन सुनील के कलमकार की खासियत है जो इस पुस्तक में यहाँ-वहाँ देखने को मिलती है.

मैं तो अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर में सुनील सितंबर 1993 में भोपाल पहुँचने के अपने प्रकरण पर टिप्पणी करते हैं: -नियति ने तीन अपरिचित लोगों से मेरा मिलन भोपाल के एक अजनबी मकान में तय कर रखा था, ऐसा तो सिर्फ आर्थर कानन डायल के उपन्यासों में होता है. इसी अध्याय में सुनील की सत्येन से पहली मुलाकात का जिक्र है. अपने लेखकीय स्वभाव या अपनी विशिष्ट शैली या अपना पुस्तक प्रेम या लेखक को किसी नायक के अंदाज़ में देखते आने की अपनी प्रवृत्ति....यहाँ भी वे सत्येन की गाड़ी में बैठे हुए उनकी कृतियों के बारे में सोच रहे हैं. वे लिखते हैं, “ ’जंगलके सत्येन कुमार. गोली चलती है और घायल पशु चीखने लगता है. रेस्ट हाउस में ठहरी लड़की रात भर नहीं सो पाती. जहाज का वह भूरी दाढ़ियों वाला कप्तान. डूबते जहाज सा मुराद मंज़िल और असहाय से रफत मियाँ.शेरनीकी दिलप्रीत कौर- मैं आपके लायक नहीं, आप तो गुरुओं जैसे हो.  सुनील सत्येन कुमार से नहीं, जहाजऔर जंगलके सत्येन कुमार से मिलना चाहते हैं. पढ़ी हुई किसी रचना को पढ़ते हुए हम उसके रचनाकार के बारे में एक छवि निर्मित करते हैं. सुनील भी करते हैं और कदाचित हम सब से अधिक करते हैं. और फिर उसे खूबसूरत तरीके से पिरोकर हमारे सामने रखते हैं. यह संस्मरण इसका एक पुख्ता गवाह है.स्वयं मैं जहाँ कहीं ठेले पर ले जाई जाती बर्फ की सिल्लियों को देखता हूँ, मुझे धर्मवीर भारती के निबंध ठेले पर हिमालय की सहसा याद हो आती है. सड़कों पर लापरवाही से चलाए जा रहे ट्रक को देखकर श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारीसहसा स्मृति में आ धमकता है जिसमें यह आप्त वाक्य जाने कितने लोगों ने उद्धृत किया है… ‘ट्रकों का आविष्कार तो सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए ही  किया गया है.                     

होमियोपैथ के इलाज के सिलसिले में, विभिन्न प्रसंगों के बीच सुनील का, सत्येन कुमार के साथ उनके घर में सानिध्य के कई संवाद और वहाँ की विभिन्न गतिविधियों का स्केच बड़ा प्रामाणिक और रोचक बन पड़ा है. सुनील सिंह, उन लेखकों में शामिल हैं, जो अपने संपादकों और अपने वरिष्ठ लेखकों का समुचित सम्मान करते हैं और उनकी रचनाओं को पूरी तल्लीनता से पढ़ते हैं. सुनील की खासियत है कि वे किसी रचना को उसका होकर पढ़ते हैं और उसमें इतना खोते हैं कि उसके हिसाब से वे उसकी छवि निर्मित करते हैं. और फिर जब वह लेखक उनके जीवन के किसी मोड़ पर उनसे मिलता है, तो उनके पास उसके सारे संदर्भ होते हैं और वे उन सभी संदर्भों से गुजरते हुए उस लेखक के प्रत्यक्ष आते हैं. किसी को लेकर सुनील के भीतर होनेवाली इस मानसिक यात्रा के कारण ही उनके द्वारा लोगों के खींचे गए स्केच मानीखेज़, आत्मीय और रोचक बन पड़ते हैं. कई बार पारस्परिक संवादों में किसी रचना का जिक्र गाहे-ब-गाहे आ जाता है. कई बार किसी घटना या किसी से हुए संक्षिप्त मुलाकात में सहसा आया कुछ औचक मोड़ भी इसी कारण संभव हो पाता है. मसलन, जब वे मंज़ूर ऐहतेशाम से मिलने उनके घर जाते हैं, तो उनके मकान और मुहल्ले को देखकर उन्हें उनका उपन्यास दास्ताने लापता याद हो आता है. वे लिखते हैं, उनका मकान, आसपास का माहौल बिल्कुल वही था, जो उनके उपन्यास दास्ताने लापता में दर्ज़ है. यहाँ तक कि बूचरखाने से आता बदबू का भभका भी, जो कभी-कभी हवा के झोंके के साथ आ नथुनों से टकराता था. मतलब यह कि इस संग्रह को जितना वर्णित लेखकों के संस्मरण के लिए याद किया जाएगा, उतना ही उनकी रचनाओं के अंतर्पाठ के लिए भी. रचना से रचनाकार और रचनाकार से पुनः रचना तक की इस आवाजाही में इस संस्मरण के रचना-विन्यास को देखा-समझा जा सकता है.

किसी भी संस्मरण का साहित्यिक महत्व इसमें है कि वह अपने स्तर पर कितने बड़े सवालों को उठाता है, अपने आस-पास के चरित्रों को उठाकर उन्हें साहित्यिक पात्र बनाकर संस्मरणकार उनके बहाने से अपने देश-काल के बारे में क्या कहना और लोगों से क्या बाँटना चाहता है. मतलब यह कि निजता का वर्ण्य कुछ ऐसा हो कि वे निजता मात्र का अतिक्रमण करें और उसका एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ निर्मित हो सके. पाठकों को उन्हें पढ़ने और उन संदर्भों के बारे में जानने की इच्छा हो. दूसरा, उस वर्ण्य का वर्णन कुछ इस तरह का हो कि उसमें चरित्र-चित्रण की संशलिष्टता अलग-अलग स्तरों पर उद्घाटित हो.कहने की ज़रूरत नहीं कि इन कसौटियों पर यह संस्मरण बिल्कुल खरा उतरता है. इसमें हमारे समय और समाज के कई यथार्थ एक रोचक किस्सागो अंदाज़ में परत दत परत हमारे सामने खुलते हैं, जिनका जिक्र आगे किया जाएगा. सुनील की एक खासियत है कि वे क्रमशः अपनी बात रखते हैं. छोटे-छोटे वाक्यों से शुरू करते हुए आगे बढ़ते हैं. इस संस्मरण में भी ऐसा ही है. संस्मरण को उप-शीर्षकों में बाँटने से लेखक के लिए एक लाभ यह हुआ कि चरणबद्ध रूप से यह सस्मरण लिखा जा सका और पाठकों को यह सुविधा प्राप्त हुई कि वे अपने हिसाब से अपना अभिष्ट लोकेट कर सकें.

चूँकि यह आत्मचरित मात्र नहीं है, इसलिए सुनील सिंह अपने बारे में जो कुछ लिखते हैं, उसके पीछे या तो कोई प्रसंग/पृष्ठभूमि आती है या फिर परस्पर संवादों में उनके जीवन की अपनी कतरनें हमारे सामने आती हैं. ननिहाल से लेकर ददिहाल तक वे अपने पारिवारिक जीवन का चित्रण गाहे-ब-गाहे प्रसंगानुसार करते आए हैं, जिसमें सांय-सांय करता अकेलापन है, बड़े घरों के बीच दरकते व्यक्तित्व हैं, संबंधों के बीच पनपती अजनबियत और एक दूसरे के प्रति बढ़ता संशय है. संपत्ति की लिप्सा में किसी बुजुर्ग की अपने द्वारा की गई हत्या है और इन सबका लेखक के अवचेतन पर पड़ा प्रभाव है. स्मृतियों में जाकर अपने अवचेतन के गह्वर से कुछ ऐसा निकाल लेना कि उसमें तत्कालीन समय की धड़कन समा जाए, तो इससे रचना में एक जीवंतता और प्रामाणिकता आ जाती है. तब हमारा इतिहास हमारे वर्तमान के पार्श्व में आ खड़ा होता है. फिर उस इतिहास के पृष्ठ छल-प्रपंचों से रँगे हुए हों या अँधेरों की तहों में लिपटे उन पृष्ठों पर रोशनी के चंद क़तरे छितराए हुए हों. छिजते सामंतवाद की उठापटक के बीच सीधे-सादे लोगों का स्वयं उनके ही परिजनों द्वारा ठगा जाना हो या विधवा स्त्रियों को एकांतिक, गरिमाहीन और आवश्यक सुविधाओं से रहित जीवन जीना हो. लेखक सुनील सिंह न सिर्फ इन सबके भोक्ता रहे हैं, बल्कि उन्होंने इन सबका निरपेक्ष और अनासक्त भाव से यहाँ चित्रण भी किया है.  
   

इस संस्मरण में जीते-जागते चरित्रों को अपनी पूरी आत्मीयता और भावमयता में चित्रित किया गया है. जिस सुमति से लेखक के संबंध की शुरूआत एक रचनात्मक विवाद की कटुता से होती है, वही संबंध, क्रमशः एक संवेदनात्मक सघनता में बदलता है और जिसके केंद्र में स्वयं सत्येन कुमार थे. एक तरफ इससे संस्मरणकार के पूर्वाग्रह मुक्त नज़रिए का पता चलता है तो दूसरी तरफ एक कसी हुई कथावस्तु की तरह इसमें कथा-केंद्र के साथ हरेक का कुछ न कुछ संबंध भी परिदर्शित होता है. बाद में सुमति की हत्या कर दी जाती है. सुमति का वह प्रसंग बड़ा मार्मिक बन पड़ा है. खास तौर से तब, जब वह भोपाल से विदा ले रही थी. लेखक लिखता है, काश! तनिक-सा भी एहसास होता-कोई अपशकुन, कोई दुःस्वप्न कि यही आखिरी मुलाकात है-फिर मिलना नहीं होगा, तो उसे जाने ही क्यों देते! सत्येन कुमार और उनकी पत्नी की भी क्रमशः मृत्यु हो जाती है. सच, मृत्यु जितना अवश्यंभावी है, उतना ही औचक  भी. सत्येन की मृत्यु के पश्चात उनके लेखन की धरोहर को जिंदा रखने में हिंदी समाज की निष्क्रियता पर जहाँ कई सवाल खड़ा किए गए हैं, वहीं सुमति की हत्या के पीछे के उद्देश्यों और एक बड़े आर्थिक घोटाले  की पृष्ठभूमि का संकेत भी किया गया है.   

बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए में सुनील, सत्येन कुमार के गुस्सैल स्वभाव और उनके द्वारा सहजतापूर्वक किसी के ऊपर हाथ-पाँव चला लेने (उस रात भोपाल में उनसे  पिटनेवाला ऑटो वाला उनकी गाड़ी के सामने आ गया था) की एक घटना का आँखो-देखा बयान करते हैं. यहाँ वे उनके आत्मकथात्मक उपन्यास छुट्टी का दिन (सागर विश्वविद्यालय के उनके छात्र-जीवन में मार-पीट के विविध प्रसंग) की और हेमिंग्वे के बुलफाइट देखने की आदत का जिक्र करते हैं और साथ ही उन दोनों की मजबूत कद-काठी की भी. बदलते शहरों, बढ़ते उपभोक्तावाद, ढहते सामंतवाद, दरकते संबंधों आदि की भी चर्चा गाहे-ब-गाहे हुई है. इन सबके संकुल में यह संस्मरण एक महत्वपूर्ण और रोचक कृति बन गया है, इसमें संदेह नहीं.          

सत्येन को केंद्र में रखकर लिखे गए इस संस्मरण के बहाने सुनील अपने जीवन और अपनी पृष्ठभूमि के विरोधाभासों की भी अंतर्यात्रा कर पाते हैं.छोटी-मोटी चीजें जब बड़े और  बहुलताधर्मी रचनात्मक संदर्भों के साथ सामने आती हैं, तो उनका महत्व बढ़ जाता है. इस संस्मरण में लेखक ने यही कमाल किया है. पुस्तकों, लेखकों, पत्रिकाओं, संबंधों, भेंट-मुलाकातों, यात्राओं आदि की चर्चा लेखक ने काफी डूबकर की है. उल्टे कई बार अगर किसी लेखक की कृतियों को अगर उन्होंने ठीक से पढ़ा और गुना नहीं है तो इसके बगैर वे उससे मिलने में उन्हें एक किस्म के संकोच का अनुभव होता है. रमेशचंद्र शाह और ज्योत्सना मिलन के यहाँ जाने में उनका यह संकोच देखा जा सकता है (देखें पृष्ठ 40-41).    

मंज़ूर से अपनी पहली मुलाकात के दिन वे मंज़ूर की पहली कहानी रमजान में मौत का जिक्र करते हुए कहते हैं, कथानायक रात को सुनसान सड़क से गुजर रहा है.एक लैंपपोस्ट से दूसरे लैंपपोस्ट तक का फासला तय करते समय साया कभी लंबा, कभी सिकुड़ता और कभी बिल्कुल ही गायब हो जाता है (पृ. 34). और जब मंज़ूर उन्हें इसके लिखे जाने की पृष्ठभूमि से वाकिफ़ कराते हुए कहते हैं, सत्येन उन दिनों जहाज कहानी लिख रहा था. उसने मुझसे डिटेल्स जुटाने के लिए कहा.सत्येन ने जहाज कहानी पूरी की. लेकिन डिटेल्स इकट्ठा करने के क्रम में मुझे कुछ ऐसा मिला कि मैंने रमजान में मौत कहानी लिख ली(पृ. 34).

इस पर सुनील ने उचित ही प्रतिक्रिया दी, यानी एक ही पृष्ठभूमि का इस्तेमाल करते हुए दो कथाकारों ने दो अविस्मरणीय कहानियाँ लिख दीं(पृ. 34).      

मतलब यह कि ऐसे ही कई साहित्यिक विचार-विमर्शों के बीच यह संस्मरण बुना गया है, जिनमें कई उपयोगी जानकारियाँ सुरक्षित हैं. एक सुसंपादित फिल्म की तरह इसके भीतर की विषयवस्तु का चयन भी कठोरतापूर्वक और समुचित मापदंडों पर रखकर किया गया है.


इस संस्मरण में व्यक्तियों, जगहों, पुस्तकों और संवादों की तुलनात्मक प्रस्तुति अपनी आकर्षक और प्रवहमान भाषा में अद्भुत है, जिसमें शहर की साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा को बड़े रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है. एक कहानीकार अपनी कहानियों में जिस तरह से कथा-परिवेश रचता है, सुनील भी अपने उस कहानीकार की कला का इस्तेमाल अपने इस संस्मरण में बखूबी करते हैं. उनके अंदर का निरीक्षक अपने आस-पास को तल्लीनता से जी भर कर देखता है. तभी तो सत्येन के मकान के प्राकृतिक, सुरम्य लोकेशन की वे जितनी चर्चा करते हैं और उन्हें वह खूबसूरत दृश्य जितना प्रभावित करता है, उतना ही वे उस दरवाजे पर लिखे नाम को लेकर ठहरते हैं.जिस संकल्पना/मनोवेद/रहस्य के साथ व्यक्ति अपनी संतानों/पुस्तकों/मकानों का नाम रखता है, उसमें भी कोई सत्येन कुमार जैसा लेखक कुछ रखे तो उसकी व्याख्या अवश्य की जाएगी. वे कुर्रतुल ऐन हैदर की पंक्ति को उद्धृत करते हैं, कानों के नाम उसमें रहनेवालों की साइकी को बतलाते हैं (पृ.58).

उनका प्रकृति-चित्रण भी सुनील अपने हिसाब से करते हैं. मसलन सत्येन के घर से दिखनेवाली प्राकृतिक छटा का विवरण वे इस तरह देते हैं, यहाँ से पहाड़ी की ढलान दिखती थी. ढलान पर भारी-भरकम चट्टानें थीं, कहीं-कहीं एकाध कॉलोनी और झुग्गी-झोपड़ियाँ. पहाड़ी के ऐन पैताने सागर था- भोपाल ताल. अरे, यह तो दागिस्तान है- अपने रसूल हमजातोव का दागिस्तान. ऊपर पहाड़, नीचे सागर. काला सागर भी तो आखिरकार झील ही है. तब तो यहीं कहीं बाज भी होंगे, जिनका  रसूल बार-बार जिक्र करते हैं (पृ.33).

सुमित्रानंदन पन्त पर लिखे अपने प्रसिद्ध लेख सुमित्रानंदन पन्त : एक विश्लेषण (नई कविता का आत्मसंघर्ष में संकलित) में गजानन माधव मुक्तिबोध लिखते हैं, ऐतिहासिक अनुभूति वह कीमिया है जो मनुष्य का संबंध सूर्य के विस्फोटकारी केंद्र से स्थापित कर देती है. यह वह जादू है जो मनुष्य को यह महसूस कराता है कि विश्व-परिवर्तन की मूलभूत प्रक्रियाओं का वह सारभूत अंग है. ऐतिहासिक अनुभूति के द्वारा मनुष्य के अपने आयाम असीम हो जाते हैं-उसका दिक और काल उन्नत हो जाता है. .... सुनील भी शहरों के, गिरते सामंतवाद या फिर किसी लेखक के मूल्यांकन पर बात करते हुए इसी कीमियागिरी का उपयोग करते हैं. कुछेक पंक्तियों में वे किसी शहर का ऐसा चित्र खींचते हैं कि उसकी सांस्कृतिक यात्रा से पाठक न सिर्फ परिचित होता है बल्कि भाषा के ऐसे स्थापत्य से चकित भी होता है. औरंगाबाद, हजारीबाग और भोपाल जैसे शहरों और उनके शहरियों के बारे में उनकी रवानगी भरी भाषा गुदगुदाती है तो कई जगहों पर महत्वपूर्ण सूचनाओं के छोटे-छोटे ब्यौरे उस शहर की पुरातनता और सुदीर्घ सांस्कृतिक/साहित्यिक कड़ी को हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं. बदलते समय के साथ शहर के बदलते मिज़ाज़ को सुनील उसी पुरातनता के बरक्स रखकर देखते हैं. 

मसलन उनके गृह नगर औरंगाबाद के बारे में उनकी यह टिप्पणी...यह विश्व के पहले उपन्यास कादंबरी और महाकाव्य हर्षचरित के रचयिता बाणभट्ट की धरती है. कभी बुद्ध के चरणों ने इसे पवित्र किया था. वे इसी धरती से गुजरकर सारनाथ गए थे. उर्वशी पुरस्कार से सम्मनित और राज्य-सभा सदस्या प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री स्व, नरगिस दत्त और प्रसिद्ध अभिनेता तथा रात और दिनजैसी अविस्मरणीय फिल्म के निर्माता भाई अनवर हुसैन ने इसी धरती पर अपनी आँखें खोली थीं. कालांतर में यह लाठी और बूथ-कैपचरिंग के लिए विख्यात हुई.तत्पश्चात, कुछ दिनों तक ऊपर से छह इंच छोटा करने का फैशन खूब जोरों से चला,….. दलेलचक बघौरा और दरमियाँ जैसे सामूहिक नरसंहारों की वज़ह से यह जगतख्यात हुई(इस खाना-ए-हस्ती से गुजर जाऊँगा बेलौस’, पृ.53-54). 

इसी तरह हजारीबाग के कुछ साहित्यकारों पर की गई उनकी दोस्ताना और हल्की-फुल्की टिप्पणी अपने हास्य-व्यंग्य मिश्रित अंदाज़ में हमारे पेट में मरोड़ भी लाती है और साहित्य की वस्तुस्थिति का कच्चा-चिट्ठा भी खोलती है:- ..भारत यायावर को जब कविता से कुछ होता-हवाता नहीं दिखा तो इन्होंने रेणु को पाथेय समझ सत्तु की तरह अपने अंगोछे में बाँधकर  लाठी में लटका लिया था....” (पृ54).  सुनील खुद पर आत्म-व्यंग्य करने से नहीं चूकते, ...कहाँ तो मुझे हल्दीघाटी में तलवार का जौहर दिखाना चाहिए था और कहाँ मैं अंगुलियों में गिनी जाने लायक कहानियों की झक पान गुमटी सजाए बैठा था..(पृ.54).  यहीं पर कुछ कदम आगे चलकर वे भोपाल की बात करते हैं. और बात क्या मानों भोपाल को किसी तश्तरी में सजाकर हमारे सामने पेश कर देते हैं. ठीक वैसे ही जैसे मंज़ूर एहतेशाम के यहाँ तशतरी में सजाकर पानी के गिलास अतिथियों को पेश किए जाते हैं. एक बानगी प्रस्तुत है:- भोपाल- जर्दा, गर्दा, पर्दा और नामर्दा का मशहूर शहर. ....बिहार राज्य विद्युत बोर्ड की कृपा से हम तो धुँधुआती-सी एक रोशनी के अभ्यस्त हो चुके थे, यहाँ चकाचौंध थी. पुरानी रियासत थी, सो तोपें-असली और साहित्यिक दोनों किस्मों की, इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं..(पृ.55). सत्येन और मंज़ूर की बड़े-बड़ों की खबर लेने के अंदाज़ को वे यहीं पर क्या खूब जोड़ते हैं और देखिए ज़रा कि उनकी उपमा किससे देते हैं, दो बोफोर्स तोपें तो ऐन मेरी आँखों के सामने तैनात थीं. हमने तो इनके दर्शन-लाभ को ही वैभव समझ पुरुषस्य भाग्यमके फिक्सड डिपोजिट में डाल दिया था.हमारे रत्ती भर दिमाग की हालत यह थी कि कभी यह ईश्वरीय प्रकाश से नहा जाता, तो कभी यहाँ ब्लैक-आउट सा अँधेरा हो जाता. कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसा सृजनात्मक गद्य सुनील की उपलब्धि है और संस्मरण में इसका ऐसा प्रयोग उल्लेखनीय है. वे शहर में रह रहे शहरियों को और शहरियों के भीतर धड़कते शहर दोनों को देखने की कोशिश करते हैं. वे इन शहरों का ऐसा चित्र खींचते हैं कि अचानक से ये शहर हमें आकर्षित करने और अपने यहाँ हमें बुलाते प्रतीत होने लगते हैं.     

कई जगहों पर लेखकों की खिंचाई भी खूब की गई है फिर चाहे वे विक्रम सेठ हों या कुर्रतुल ऐन हैदर ; अज्ञेय या फिर तोल्स्तोय. कई जगहों पर कुछ रोचक अंदाज़ में बातें होतीं. मंज़ूर कहते, ऐनी आपा के पास एक बहुत बड़ी मेज है. उसमें बस दराजें ही दराजें हैं. इन तमाम दराजों में इंफार्मेशंस ठूँस-ठूँस कर भरी हैं. बस समझ लो, यही कारे-ए-जहाँ दराज है . इस पर सत्येन कुमार व्यंग्य कसते हैं, सूचनाएं इकट्ठी कर लो और नॉवेल लिख मारो.यह लेखन है!

बेशक ये व्यक्तिगत या कहिए हल्की-फुल्की टिप्पणियाँ हैं, मगर ये बड़े लेखकों द्वारा बड़े लेखकों के प्रति की गई टिप्पणी है. इसे सुनील भी जानते हैं, मगर चुटकी लेने से नहीं चूकते, और लीजिए, किस्सा-ए-कुर्रतुल ऐन हैदर बजरिए जनाब मंजूर ऐहतेशाम मिनटों में तमाम हुआ!

सत्येन कुमार और उनकी पत्नी की देयता को सुनील, सत्येन की एक कहानी हँसके माध्यम से याद करते हैं, जिसमें खदान में काम कर रहे एक युवक के जीवन को एक निःसंतान दंपत्ति व्यवस्थित करता है. सत्येन कुमार को सुनील उचित ही एक सेल्फ-मेड और जिम्मेदार इंसान मानते हैं. सुनील लिखते हैं, बहुत छोटी उम्र में उन्होंने पैसा कमाना सीख लिया था. वे जो कुछ भी थे-अपने बलबूते पर थे. इसके बावजूद, मैंने उन्हें गर्दिश के दिनों का विलाप करते कभी नहीं सुना (पृ. 76).  

यहाँ पर लेखकों में सतही तौर पर दिखते फक्कड़पने और उसकी आड़ में अपनी महानता का राग अलापनेवाले और हर अवसरवादिता को चुपचाप गटक जाने में पारंगत लेखकों पर चुटकी लेते हुए वे कहते हैं, “ और हाँ, लेखक और कवि, अमूमन अपने कवि-लेखक होने को लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी का लाइसेंस मानते हैं. वे पूरी तरह जिम्मेदार और भरोसेमंद थे (पृ. 76).
 
शीशे-सा है मतवाले तेरा दिल  में सत्येन के पारदर्शी और नाजुकमिजाज होने के अतिरिक्त उनके व्यक्तित्व के अन्य कई पक्षों को यहाँ सुनील ने बखूबी उजागर किया है. उनका शिकारी पक्ष, अतिशीघ्र अपना आपा खो देना वाला पक्ष, किसी के गर्मजोशी से आतिथेय करना, बेहद पजेसिवहोकर किसी से दोस्ती निभाना और फिर किसी नामालूम से प्रसंग पर जीवन भर के लिए उसे किनारा कर लेना. सत्येन अपनी कहानियों में जिन हीरोईक किस्म के पात्रों को रचा करते थे, कहीं-न-कहीं वे पात्र उनके स्वयं के अवचेतन से निकले हुए थे. जिससे प्यार करना, उसे बुरा लगने की हद तक डाँट देना, अपनी रचनात्मक क्षति की हानि से बेलौस होकर बड़े प्रकाशकों से पंगा ले लेना (जबकि अपने को विद्रोही और क्रांतिकारी घोषित करनेवाले कद्द्वार लेखक/आलोचक उनकी अनावश्यक और दयनीय जी-हुजूरी में दिन-रात एक किए होते हैं) आदि उनके इसी अव्यावहारिक (व्यावहारिक चतुर सुजानों की मानें तो) मगर साहसिक कदम के उदाहरण हैं. अपनी पुस्तक गल्प का यथार्थ: कथालोचन के आयाम के अध्याय ‘’समकालीन कहानी : आधे-अधूरे चित्र में  सुवास कुमार लिखते हैं, सत्येन कुमार की एक खासियत है विशिष्ट चरित्र-सृष्टि.हीरोइक चरित्रों की सृष्टि करना उन्हें अच्छा लगता है और संभवतः हीरोवर्शिप भी.
         
इस संस्मरण में लेखकों के लेखन के प्रति एक आदर और हसरत का भाव है. अच्छे लेखन को लेकर एक अकुंठित प्रशंसा भाव है जो आजकल लोगों में खासकर समकालीन लेखकों में घटता जा रहा है. सत्येन और मंज़ूर जैसे लेखकों की रचना-प्रक्रियाओं को भी प्रसंगानुकूल सुनील ने बताने की चेष्टा की है. एक बड़ा और इत्मिनानपसंद लेखक किस तरह अपनी किसी रचना को लेकर तैयारी करता है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है. हमारे बाद अब महफिल में अफसाने बयाँ होंगे उप शीर्षक में वे मंजूर भाई के शोरूम में उपलब्ध शांति को लेकर उसकी तुलना बर्मा के पगोडा से करते हैं, और वहाँ अपने व्यावसायिक कार्यों के बीच लेखन की उनकी तैयारी की तफ्तीश देते हुए सुनील लिखते हैं:, यहीं बैठकर मंजूर भाई प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक राजा राव की तरह अपने उपन्यासों की दसवर्षीय योजनाएँ बनाते हैं. पचासों तरह की किताबें पढ़ते हैं. नोट्स लेते हैं. तब कहीं जाकर उपन्यास लिखने का असली काम शुरू होता है. फिर निष्ठुरतापूर्वक मंज़ूर भाई द्वारा उनके लिखे की काट-पीट को सुनील रेखांकित करते हैं. तभी उनकी लेखन-प्रक्रिया पर लिखते-लिखते वे उनकी (मंज़ूर की) व्यवहार-कुशलता पर चर्चा करने लगते हैं. ऐसे ही सिरों से सिरे मिलते चलते जाते हैं औ भोपाल में दंगे होने, सत्येन के अचानक से आग-बबूला हो जाने और सहसा उनके शांत हो जाने की कितनी घटनाएं यहाँ दर्ज़ हैं. वैसे ये प्रसंग सामान्य किस्म के हैं मगर सुनील अपने वर्णन से उन्हें उदात्त, पठनीय और महत्वपूर्ण बना देते हैं. ठीक वैसे ही जैसे एक कस्बाई प्रेम और विपरीत लिंग के प्रति सहज कैशोर्य आकर्षण को लेकर अपने वर्णन और प्रस्तुति कौशल से मनोहर श्याम जोशी कसपजैसा घनघोर रूप से पाठ्य उपन्यास लिख पाते हैं. उर्वर कल्पनाशीलता वाले कथाकार-व्यक्तित्व को जब अपने अनुकूल रचना-धर्मियों का साथ मिलता है तब वक़्त किस कदर खुद रंगोली बन जाता है, इसे इस संस्मरण में सहज ही देखा जा सकता है.          


मैं तो अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर’ 

इस तरह गुँथी हुई किस्सागोई इस पुस्तक की विशेषता है. स्वप्न, आदर्श, यथार्थ, साहित्य, स्वप्रसंग, स्मृति के परस्पर जादुई जुड़ाव से ऐसी रचना संभव होती है. मृत्यु की आकांक्षा और जीवन की कई घोर किल्लतों (आर्थिक अर्थ में नहीं) के बीच एक उत्तरजीविता की कहानी है. जिस तरह कैंसर का एक मरीज, कैंसर से जीते जाने की अपनी कहानी लिखता है, और उसकी कहानी में इलाज करनेवाले डॉक्टरों का अनिवार्यतः जिक्र रहता है उसी तरह, यहाँ आँखों की इस असाधारण, अति दुर्लभ और बेहद असुविधाजनक एवं गरिमाखंडक बीमारी को काफी हद तक होमियोपैथ की अपनी गोलियों से ठीक और नियंत्रित करनेवाले चिकित्सिक सत्येन का जिक्र तो खैर आना ही था. मगर चूँकि वह चिकित्सक एक साहित्यकार भी था और उसके आसपास साहित्यिक गहमागहमी का एक बड़ा तंत्र था, अतः यहाँ साहित्य सहज ही केंद्र में आ गया है. इसे यूँ कहना भी गलत नहीं होगा कि यहाँ मरीज और चिकित्सक दोनों की उनकी तयशुदा भूमिकाओं और स्थितियों से इतर अगर कोई चीज इसे रोचक और पठनीय बनाता है तो वह इसमें विभिन्न पुस्तकों, रचनाओं, रचनाकारों और विविध साहित्येतर प्रसंगों के जिक्र का होना है. जिस तरह होमियोपैथ की मीठी गोलियों में दवाई की कड़वाहट नहीं होती, मगर जिनसे कई मर्तबा बीमारीजन्य कड़वाहट दूर हो जाती है, उसी तरह इस संस्मरण में परस्पर के हँसी ठहाके की मिठास से समय की कुछ कड़वाहट को अपने तईं कम करने की कोशिश की गई है. क्योंकि तमाम प्रयासों के बावजूद यह जो ज़िंदगी है, इसका चलायमान रहना इसकी पहली शर्त है. फिर चाहे एक-एक कर आपके प्रियजन आपसे बिछुड़ते चले क्यों न जाएं.

मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी 
सत्येन और मंज़ूर की सिर्फ दोस्ती नहीं टूटी थी, पूरे भोपाल की आबो-हवा बदल गई थी. भूमंडलीकरण, और आर्थिक प्रभुता की इस आपाधापी में सिर्फ पुराने मकान नहीं टूट रहे थे बल्कि उनमें रहनेवाले बाशिंदों के अंदर कई चीजें दरक रही थीं. सत्येन और मंज़ूर की टूटी दोस्ती के बीच वे सत्येन के घर का वातावरण चित्रित करते हुए सुनील लिखते हैं, सत्येन जी और मैं अब भी डायनिंग टेबल पर ही बैठकर बातें करते थे.लेकिन अब यहाँ बहुत वीरानी थी.बहुत उदासी थी.लगता था, जैसे कोई बहुत ही प्यारी सी चीज बेआवाज टूट गयी है...(पृ.97)”. हम बहुधा किसी गलतफहमी में या अहंवश किसी से रिश्ता तोड़ तो लेते हैं, मगर क्रमशः हमॆं यह आभास होता है कि हम इस कारण कितने अकेले और शुष्क हो गए हैं. किसी के अलग हो जाने से या किसी से अपना संवाद समाप्त कर लेने के उपरांत उस व्यक्ति से जुड़े कुछ विशिष्ट रंग हमसे छूट जाते हैं जैसे हमारी साँसों के सीप से वक्त के मोती अलग होते हैं.बहुत कम शब्दों में और बहुत विस्तार में जाए बगैर सुनील, सत्येन के भीतर की निर्जनता और उदासी के सांय-सांय करते आसमान को हमारे सामने उतार लाते हैं. फिश प्लेट के बदलते ही एक-दूसरे के साथ जुड़ी पटरियों की दिशाएं दो अलग-अलग ट्रेनों और उनके मुसाफिरों को एक-दूसरे से बहुत दूर कर देती हैं, उसी तरह अबोलेपन की ऐसी स्थिति में एक शहर लाख अपना सिर धुनता रह जाए, दो पुराने यार फिर हमप्याला नहीं हो पाते. सुनील सिंह ने सत्येन के घर की भीतर की इस वीरानी को शिद्दत से महसूस किया है. ऐसे मार्मिक स्थलों पर सुनील गहरे पैठ सके हैं सत्येन के मन रूपी सागर में. प्रकटतः बिना कोई आहट किए सुनील का यूँ सत्येन बनना और पुनः सुनील बनकर उस सत्येन की मनःस्थितियों के बारे में लिखनाइस संस्मरण की एक अद्वितीय विशेषता कही जाएगी और इसे प्रचलित परकाया-प्रवेश से कहीं आगे जाकर देखने की ज़रूरत है.                                

संस्मरण का अंतिम अंश उपसंहार है, जो है तो केवल एक पृष्ठ का, मगर इसके अंदर कई चीजों का पटाक्षेप कर दिया गया है. जीवन के श्वेत और श्याम दोनों पक्षों को एक दरवेश की निगाह से देखनेवाले सुनील ने यहाँ कुछ तल्ख टिप्पणियाँ की हैं. पहले सत्येन जी का जाना और उनके बाद उनके प्रकाशन और उनकी पुस्तकों को सँभालने की कोशिश में खुद ही चली गईं प्रमिला जी...सुनील ने बहुत मार्मिक प्रहार किए हैं हमारे प्रकाशन-जगत की निरी व्यवसायोन्मुखी प्रवृत्ति पर, हिंदी जगत के घोर आत्मकेंद्रन पर, अपनी अपनी आँखों के सामने अपने प्रिय-जनों के अलविदा करने पर. इन सबसे बड़ी बात यह कि अपनी आँखों की विरल और बेहद असुविधाजनक बीमारी से काफी हद तक सत्येन कुमार के इलाज से हुए लाभ के प्रति एक बार पुनः अपना सहज और स्वाभाविक आभार प्रकट किया है सुनील ने.

जिस तरह शुरू में हैप्पी-हैप्पी दिखती किसी दुख़ांत फिल्म की गिरहें जब एक-एक कर खुलना शुरू होती हैं और अंत में जब कई सिरे एक-एक कर खुलते जाते हैं, तो कई कड़वे सत्य हमारे सामने आते हैं. उसी तरह इस दुखांत संस्मरण में अंततः कई व्यक्तियों और संबंधों का पटाक्षेप हो जाता है. प्रेमचंद की ठाकुर का कुआँ कहानी में जिस प्रकार तमाम प्रयासों के बावजूद जिस प्रकार जोखू  को अपने बदबूदार कुएं का ही पानी पीना पड़ता है, उसी प्रकार सुनील को भी अंत में सत्येन और मंज़ूर के बीच विकसित हुए कड़वे संबंधों का, सुमति की हत्या का, सत्येन और बाद में उनकी पत्नी प्रमिला जी की मृत्यु. ऐसा कहते हैं कि मार्मिक कथा तो दुखांत ही होती है, यह संस्मरण भी सत्येन कुमार के जीवन-चरित से शुरू होकर उनके देहांत की खबर से समाप्त हो जाता है. मगर यहाँ संस्मरण समाप्त होता है, उसका प्रभाव नहीं. किसी कद्दावर लेखक का यूँ चुपके से चला जाना एक समाचार मात्र बनकर रहना होता है क्या!

शीशे-सा मतवाले है तेरा दिल  में निर्मल वर्मा के प्रति सत्येन के आदर और आसक्ति-भाव को देखा जा सकता है. सुनील उस घटना का जीक्र यूँ करते हैं, निर्मल वर्मा को सत्येन जी इतना चाहते थे कि एक दफा उन्होंने हल्के मूड में मुझसे कहा, अगर मैं लड़की होता तो ज़रूर निर्मल के साथ भाग जाता. .....सिर्फ निर्मल की कहानियों को मत देखो, यह भी देखो, इनके पीछे का जंगल कितना बड़ा है. सत्येन की विरासतहीन (उनकी रचनाओं/पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन की दारुण स्थिति) मौत पर उन्हीं निर्मल वर्मा की ये पंक्तियाँ सहसा याद हो आती हैं: - एक तरह से भारतीय राजनीति की निर्मूल और मूल्यहीन सत्तावादिता जीवन के हर क्षेत्र को दूषित कर गई है, यह आश्चर्य की बात होती, यदि साहित्य इससे अछूता रह जाता. समकालीन हिंदी साहित्यकार संस्कृति से अपने को जोड़कर राजनीति में इस अनैतिक, अनाधिकार हस्तक्षेप को रोक सकता था. इसके विपरीत हुआ यह कि स्वयं साहित्य संस्कृति से कटकर राजनीति के सत्तामत्त मतवादी दबाव के आगे घुटने टेकने लगा” (अज्ञेय : आधुनिक बोध की पीड़ा विषयक अपने लेख में).सुनील जब यह कहते हैं कि सत्येन जी को अगर उनका प्राप्य नहीं मिला तो इसके लिए हिंदी आलोचना की इकरंगी आलोचना पद्धति जिम्मेवार है’(पृ.81), तो उसके पीछे निर्मल वर्मा की उपरोक्त हकीकत ही बयान हो रही है. 
                                             

यह मानने में कुछ गुरेज नहीं होना चाहिए कि हमारे समाज का एक बड़ा तबका गैर-साहित्यिक लोगों का है, जिसके लिए साहित्य गाहे-ब-गाहे पठन-पाठन का हिस्सा तो है मगर जो अपने बच्चों को साहित्यकार नहीं बनाना चाहता और जो साहित्यकारों और उनके साहित्य के बारे में कम जानता है और ज्यादा जानने की उसकी कोई इच्छा भी नहीं है. उनके फक्कड़पन और उनके टूटे-दुहरे व्यक्तित्व (स्पिल्ट पर्सनाल्टी) को वे ठीक-ठीक से समझ नहीं पाते. हम सभी साहित्यकारों के आस-पास ऐसे असाहित्यिक बहुतायत में उपलब्ध हैं. सुनील ऐसे लोगों के बीच बैठकर उनके बेलाग विचारों को भी सुनते आए हैं. इस संस्मरण में लेखकों को कई बार ऐसे असाहित्यिक के चश्मे से भी सुनील देखते हैं. इससे साहित्य और साहित्यकारों पर की गई उनकी टिप्पणियों में कई जगहों पर एक खास किस्म की देशजता और सहजता आ गई है.  स्व-घोषित महानता का दर्प तोड़ती ऐसी व्यंग्योक्तियों को इस संदर्भ में देखा-पकड़ा जा सकता है.       
                       
कुछ तो अपना स्वास्थ्य तो कुछ अपना मिज़ाज़....सुनील बड़े इत्मिनान से अपनी रचनात्मकता को गतिशील और जीवंत बनाए हुए हैं. यह समकालीन लेखकीय हड़बड़ी के बरक्स साहित्य या कहिए कला को जीते/समझते पढ़ते हुए एक संकोच सहित अपने रचनात्मक अवदान को लोगों के समक्ष रखने की नम्रता भी है. एक छोटे शहर में रहते हुए और आँखों की एक विरल और काफी असुविधापूर्ण बीमारी से जूझते हुए सुनील स्वयं को साहित्यकार की जगह साहित्य का अध्येता ही ज़्यादा मानते हैं. हालाँकि इस बीच उनके तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्होंने कुछ कहानी-पत्रिकाओं का संपादन भी किया है. सुनील सिंह बिहार के एक सुदूरवर्ती इलाके में रहते हुए तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच अपना लेखन-कार्य किए जा रहे हैं, इसे उनकी लेखकीय जीवटता ही कही जाएगी. अपनी माँ का जिक्र करते हुए सुनील अपने इस संस्मरण में एक जगह लिखते हैं, मेरी माँ का कंठ बहुत सुंदर था, जैसे अशर्फियाँ खनक रही हों (पृ. 78). शास्त्रीय संगीत में डूबनेवाले और उससे अपने जीवन में रागात्मकता प्राप्त करनेवाले सुनील की खनकदार भाषा में लिखा यह संस्मरण हिंदी के बेहतर संस्मरणों में से एक माना जाएगा, यह कहना ग़लत न होगा.   

ओल्ड मॉंक का अधिकाधिक प्रसंग निर्मल वर्मा के बहुचर्चित यात्रा-वृतांत चीड़ों पर चाँदनी की याद दिलाता है, जिसमें बीअर की काफी चर्चा की गई है. अंतर यह है कि वहाँ यूरोप के तमाम प्रसंग हैं तो यहाँ कथा का लोकेल अपना चिर-परिचित भोपाल शहर.     


अंत में पुस्तक के फ्लैप पर सुनील सिंह की इन पंक्तियों के साथ इस पुस्तक के अंतर्पाठ को विराम देना चाहूँगा, .अँधेरा हो और ऐसा अँधेरा हो कि रास्ते ओझल हो गए हों, ऐसे में कोई एक दिया जला दे तो यह दिया मामूली दिया भर नहीं रह जाता. यह दिया इस अँधेरे समय का सूर्य है, यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए
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अर्पण कुमार

‘नदी के पार नदी’ (2002) एवं ‘मैं सड़क हूँ’ (2011) काव्य-संग्रह तथा लेख और समीक्षाएं प्रकाशित
बी-1/6, एस.बी.बी.जे. अधिकारी आवास/ज्योति नगर, जयपुर/
पिन : 302005 /मो. 9413396755
ई-मेल : arpankumarr@gmail.com

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  1. रोचक संस्मरण की रोचक समीक्षा.

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  2. समालोचन में इस लंबी समीक्षा को प्रकाशित करने के लिए अरुण देव जी का कोटिशः आभार। धन्यवाद अपर्णा जी।

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  3. किताब भी अच्छी । समीक्षा भी अच्छी । कथादेश में बहुत रूचि से पढता था । पूरा नहीं पढ़ पाया था । अब पढूंगा ।

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